शोध आलेख : चंद्रकांत देवताले : आत्मगत अभिव्यक्ति और कविता का समाजशास्त्र / मनीष कुमार

चंद्रकांत देवताले : आत्मगत अभिव्यक्ति और कविता का समाजशास्त्र
- मनीष कुमार

शोध सार : साहित्य में समाज की खोज और समाज में साहित्य की अस्मिता; साहित्य के समाज का केंद्र-बिंदु है[1]| साहित्य के समाजशास्त्रियों और साहित्य के आलोचकों ने अपनेअपने तरीके से साहित्य के समाजशास्त्र को हल करने का प्रयास किया है| समाजशास्त्रियों द्वारा जहाँ साहित्यिकता की उपेक्षा दिखाई पड़ती है चूँकि वे साहित्य को सामाजिक तथ्य मानते हैं; वहीं साहित्यशास्त्रियों द्वारा साहित्य के सामाजिक अभिप्रायों की तुलना में साहित्यिक उपकरणों द्वारा ही रचना-मूल्याङ्कन किए जाने से उसकी सामाजिकता की अवहेलना होती है| आत्मगत अभिव्यक्ति की कविताओं का प्रश्न आते ही काव्य-वस्तु के सापेक्ष कविता के समाजशास्त्र की सर्वाधिक दुर्गति होती आई है| इसी सन्दर्भ के तहत इस शोधालेख में चंद्रकांत देवताले को केंद्र में रखते हुए उनकी आत्मगत कविताओं के समाजशास्त्रीय विश्लेषण का एक प्रयास किया गया है|

बीज शब्द : आत्मगत अभिव्यक्ति, कविता का समाजशास्त्र, आत्मसंबोधन, वैयक्तिकता, सामाजिकता, आत्मविश्वास, नास्टैल्जिया, मृत्यु, जन्म, आत्मधिक्कार, काव्य-दर्शन, जीवन-दर्शन, प्रतिबद्धता, काव्य-परंपरा, नैतिकता, पाठकीय-ग्रहण आदि |

मूल आलेख :

ऐसे ज़िन्दा रहने से नफ़रत है मुझे
जिसमें हर कोई आये और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकता रहूँ
मेरे दुश्मन हों
और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी बात मानूँ[2]


         उक्त काव्यांश में कवि चंद्रकांत देवताले की आत्मविश्वास-पूर्ण स्वीकारोक्ति है| आत्मसंबोधन है| साहित्य के समाजशास्त्र के लिए कविता का समाजशास्त्र(उसमें भी विशेषतः आत्मसंबोधित कविता)सबसे बड़ी चुनौती रही है | लम्बे समय तक समाज के सम्बन्ध मेंवाचाल कविताओंको ही कविता के समाजशास्त्रीय अध्ययन हेतु उपयुक्त माना गया| बहुत बाद में यह समझा गया कि आत्मपरक(प्रगीतात्मक) कविताओं का भी एक विशिष्ट समाजशास्त्रीय अध्ययन संभव है| इस सम्बन्ध में डॉ. नामवर सिंह की यह स्वीकारोक्ति महत्त्वपूर्ण है- “स्वीकार करना चाहता हूँ कि पन्द्रह वर्ष पहलेकविता के नए प्रतिमानमें कविता के प्रतिमान को व्यापकता प्रदान करने के लिए जब मैंने मुक्तिबोध की लम्बी कविताओंजैसी वस्तुपरक नाट्यधर्मी कविताओं को भी विचार की सीमा में ले आने के लिए आग्रह किया था तो आत्मपरक(प्रगीतधर्मी) छोटी कविताओं में निहित सामाजिक सार्थकता की संभावनाओं का पूरा-पूरा अहसास था|”[3] हालाँकि यह घटना अकारण थी. ‘प्रगीत और समाजनामक इस लेख में डॉ. नामवर सिंह ने इसका कारण भी बताया है जो पर्याप्त तौर पर सही भी है- “लेकिन इस बात में तब संदेह था और अब संदेह है कि नई कविता के अन्दर आत्मपरक कविताओं की एक ऐसी प्रबल प्रवृत्ति थी जो या तो समाज-निरपेक्ष थी या फिर जिसकी सामाजिक अर्थवत्ता सीमित थी|”[4] इस टिप्पणी को पर्याप्त तौर पर सही इस अर्थ में कहा जा सकता है कि नितांत आत्मपरक या समाज-निरपेक्ष समझे जाने वाली कविताओं का भी एक समाजशास्त्रीय सन्दर्भ होता है| जिस प्रकार सभी विचारधाराओं का निषेध करने वाली वैचारिकी भी किसी किसी विचारधारा से सम्बद्ध होती है उसी प्रकार असामाजिक लगने वाली आत्मपरक कविताओं की स्थिति है| मीरा, महादेवी आदि स्त्री कवयित्रियों के काव्य इस सम्बन्ध में सबसे बड़े प्रमाण हैं| इन दोनों कवयित्रियों की काव्य-रचनाएँ आत्मपरक अभिव्यक्ति के बाहुल्य का अनूठा उदाहरण है| जिसका कारण उनके समय समाज की संरचना में देखा जा सकता है| मीरा-महादेवी ही नहीं, अज्ञेय-शमशेर जैसे शीर्षस्थ आत्मपरक साहित्यकारों की कविताओं का भी समाजशास्त्रीय अध्ययन चुनौती तो हो सकता है लेकिन असंभव नहीं| यह अवश्य है कि आत्मपरक कविताओं में समाज अप्रत्यक्ष रूप से आता है सीधे-सीधे नहीं, किन्तु वह एकदम समाज-निरपेक्ष होगा यह कलावादी अतिवाद की कल्पना-मात्र है| मसलन जिस कविता का लेख के आरम्भ में ज़िक्र किया है उसे साधारणीकृत रूप से पढ़ने पर शायद ये लगे कि इस कविता का भला क्या ही सामाजिक आशय होगा किन्तु थोड़ा बारीक़ी से समझने पर इसकी व्यापक अर्थ-ध्वनियाँ सुनी जा सकती हैं| काव्यांश में कोई दम्भोक्ति नहीं है| गुस्से में फहरी खुद्दारी की पताका है| वास्तव में अपने से अधिक कवि ने अपने समय के समाज के लोगों के बारे में बतला दिया है| जैसा कि कविता की आरंभिक तीन पंक्तियाँ हैं- “ऐसे ज़िन्दा रहने से नफ़रत है मुझे/ जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे/ मैं हर किसी की तारीफ़ करते भटकता रहूँ” – यानी समकालीन समय में अपना काम निकालने के लिए अन्य की प्रशंसा(अक्सर झूठी) करना इतना आम हो गया कि कवि के नैतिक मन ने ऐसे चापलूसों को कठघरे में खड़ा कर अपने आप को इस भीड़ से अलगाया है| तो वो अपनी ही झूठी प्रशंसा सुनना चाहते हैं; ही कार्यवश किसी और की करना चाहते हैं| लेकिन नैतिक रूप से पतनशील समाज को ये कविता शायदहौंट करेगी| हमने अपने विकासशील लोकतंत्र में बड़े-बड़े अपराधियों को बड़े-बड़े ओहदों पर पहुँचकर तारीफ़ पाते देखा है| अगली दो पंक्तियों में कवि लिखते हैं- “...मेरे दुश्मन हों/ और इसे मैं अपने हक़ में बड़ी बात मानूं” – कवि किसी से शौकिया दुश्मनी नहीं चाहता लेकिन जो लोग अपनी प्रकृति में मनुष्यद्रोही हैं उनसे दुश्मनी क्योंकर हो जाए| ‘ काहू से दोस्ती, काहू से बैरका ग़लत पाठ कर एक ख़ास सन्दर्भ में इसका दुरुपयोग ख़ूब होता रहा है| कबीर के दोहे की इस पंक्ति को याद करते हुए भारतीय समाज उनकी उन पचासों डांट-फटकारों को याद नहीं करता जो समाज में परिवर्तन हेतु अवश्यम्भावी हैं| भारतवर्ष में अधिकांश मामलों में समन्वयवाद के कुछ फ़ायदे ज़रूर हैं लेकिन उसका नुकसान भी लगभग हर तनावपूर्ण प्रकरण पर कम नहीं हुआ है| ऐसी स्थिति में एक ख़ास तरह का यथास्थितिवाद बना रहता है जो परिवर्तन की प्रक्रिया को बहुत धीमा कर देता है| सही को सही कहना उतना चुनौतीपूर्ण कभी नहीं रहा जितना ग़लत को ग़लत कहना| दुर्भाग्यपूर्ण रहा उस ग़लत को अविवेकपूर्ण स्वीकार्यता दिए रहना; देवताले भी उसी काव्य परम्परा के कवि हैं जो दुश्मन को दुश्मन कहने में हिचकते नहीं हैं| नितांत असहनीय तत्त्वों के पक्ष में वे क़तई नहीं हैं| उनकी कविताओं में लोकतंत्र से जुड़ी तमाम विभीषिकाएँ मौजूद हैं| उन पर प्रतिक्रिया के एवज में कवि अपने काव्य-सामर्थ्य के तहत जितना कर सकता है; वह कवि के यहाँ अक्सर आत्मगत रास्ते से ही अभिव्यक्त हुआ है| जिसका एक रूप उक्त काव्यांश द्वारा आसानी से समझा जा सकता है|

            कवि देवताले के यहाँ आत्माभिव्यक्ति के एक सामाजिक स्रोत(जिसमें भरपूर क्रोध है और जो उन्हेंआग का कविबनाता है) को समझने के बाद उनकी काव्याभिव्यक्ति का एक दूसरा सामाजिक रूप भी है जिसमें वे ठीक उलटे दिखाई देते हैं| इस सम्बन्ध में वे कवि त्रिलोचन के काफ़ी क़रीब हैं| इन कविताओं में उनके बुनियादी तेवर के साथ काव्य और व्यक्तित्व की विनम्रता और निराशा के दर्शन होते हैं| इस सम्बन्ध मेंमेरे पास छिपाने को कुछ नहीं’, ‘अपने को देखना चाहता हूँ’, ‘मेरी पोशाक ही ऐसी थी’, ‘पत्थर फेंक रहा हूँ’, ‘नींबू माँगकर’, ‘विक्रमादित्य के नगर में’, ‘गाँव तो नहीं थूक सकता था मेरी हथेली पर’, ‘आग’, ‘मैं कौन ख़ासआदि कविताओं का प्रमुखता से उल्लेख किया जा सकता है| ‘मेरे पास छिपाने को कुछ नहींकविता के अंतर्गत कवि लिखते हैं-

            “यह रही मेरी नापसंदगी की सूची
            शामिल इसी में मेरे दुश्मन
            गोश्त, चापलूसी करने वाले केंचुए
            घटिया किताबें
            आत्मा या सार्वजनिक फसलों के चोर
            तस्कर, धंधेबाज़, ईश्वर, भूख या बेबसी के
            हरामखोर आत्मा ने जिनको कभी नहीं धिक्कारा[5]

           

गणित और जीवन के बारे में प्रसिद्ध है कि सीधी रेखा खींचना मुश्किल काम है| जीवन में भी अपने बाह्य व्यक्तित्व अंतर्व्यक्तित्व को एक-सा रख पाना मुश्किल काम है| चंद्रकांत के उक्त काव्यांश में ही नहीं, इस पूरी कविता में ही ऐसी स्वीकारोक्तियाँ हैं| जबकि फ़ेकिज्म लगातार नॉर्मलाइज होता जा रहा है; हर आदमी में दस-बीस आदमी होने की बात निदा फाज़ली भी कह चुके हैं| ऐसे में ईमानदार बेबाकी की उससहजताकी बात करना-कहना जिसे हिंदी कविता के अंतर्गत सर्वाधिक सम्भवतः कबीर ने कहा है; साधारण बात नहीं है| पुनः यह कहना ज़रूरी है कि चंद्रकांत अपने से अधिक समाज का दोगलापन उघाड़ रहे हैं जो परिस्थितिवश नाप-तौलकर बात करने का आदी है| किसी चिन्तक ने ठीक लिखा है कि किसी पाखंडी समाज में बहुत आत्मकथ्य सम्भव नहीं| देवताले की उक्त कविता में जैसी संक्षिप्त और सटीक आत्मवक्तव्यता है वह विशिष्ट है| कविता में ही वे बताते हैं- प्रेमविवाह, सरकारी स्कूलों की पढ़ाई, परिवार का माहौल, किताबों के बीच की उनकी जगह आदि| ऐसा नहीं है कि यह आत्म-प्रशंसा के भाव से लिखा गया है| क्योंकि कवि ने यह भी स्वीकारा है- ‘वह रहा फुसफुसाहटों में दबा/ मेरी कमीनगी का स्याह पत्थर|’ सरल होना या ओरिजिनल होना महान होना नहीं है किन्तु यह सरलता कितनी कठिन होती जा रही है इसे मानव की विकास यात्रा पर चढ़ रहे बाहरी आवरणों द्वारा समझा जा सकता है| कवि जानते हैं कि जो बाहरी आवरणों में उलझे रह जाते हैं वो वास्तव में समाज का ही नहीं वरन ख़ुद का भी बहुत नुकसान करते हैं- ‘फूटी कौड़ियों की सम्पदा बटोरने की खातिर/ जो पानी की जगह फूलदान में भरते हैं रेत/ वैसा तो मैं नहीं|’ जहाँ सामाजिक व्यवस्था के प्रति असंतोष उनकी आक्रोशयुक्त आत्मपरक अभिव्यक्ति का स्रोत बनता है वहीं आत्मविश्वास से भरपूर उनकी कविताएँ समाज से अपेक्षाकृत मद्धिम स्वर में अपनी बात कहती हैं| आत्मप्रदर्शन के इश्तहार या किसी बाबा के उपदेश की भाँति नहीं| उस नैतिक आन्तरिक आवाज़ से लबरेज़ विश्वास की तरह जिसकी परम्परा दुनिया के उम्दा कवियों में विद्यमान रही है| ये सारे कवि अपने-अपने समय के समाज से ऐसी उक्तियों के तहत कुछ कहना चाहते रहे हैं; जैसेकबीर द्वारापाछालागै हरि फिरैया ग़ालिब द्वाराबाज़ीचा--अत्फ़ालकहा जाना| किन्तु आत्मविश्वासपूर्ण इन उक्तियों में आत्ममुग्धता नहीं है| इस रचनाशीलता में वृहत्तर जनमानस के प्रति अनुराग का भाव भी है| देवताले के यहाँ स्वाबलंबन की आग है तो करुणा-सागर की एक धारा भी है जो इस आग को संतुलित बनाये रखती है

            “यदि मेरी कविता साधारण है
            तो साधारण लोगों के लिए भी
            इसमें बुरा क्या
            मैं कौन ख़ास
            गर्वोक्ति करने-जैसा कुछ भी तो नहीं मेरे पास
            संस्कृति और परंपरा के गरिमावाले
            गर्भस्थ संस्कारों के झूठ से बरी है मेरी आत्मा[6]


मैं कौन ख़ासउक्त कविता का विषय होते हुए भी विषय-मात्र नहीं है| यह हिंदी कविता के पर-केंद्रित विरासत की अच्छी अभिव्यक्ति कही जा सकती है| ‘मैं कौन ख़ासके अंतर्गत कवि यह भी बताता है कि हिंदुस्तान के करोड़ों बच्चे जिस तरह छिपकर बीड़ी फूँकते, गालियाँ बकते बड़े होते हैं उसी भाँति कवि भी उनमें से एक है| ऐसेअशिष्टसमझे जाने वाले कुछ डिटेल्स कविता में हैं| संस्कार केन्द्रित संस्कृतीकरण से यह कविता बहुत दूर है|

देवताले की स्वीकारोक्तियों में दम्भीयता है ही उपदेशीयता | कुछ स्थलों पर ऐसा स्वानुभूत सच भी है जो मध्य वर्ग की विवशता का सटीक वर्णन करता है | मध्यवर्ग जिसे मुक्तिबोध ने क्रीतदास की संज्ञा दी है, प्रकारांतर से उस वर्ग की मजबूर नाकामियों को देवताले ने ख़ुद के माध्यम से भी वाणी दी है

मैं सच्चा बना रहता और मर जाता
यदि मुझे भूख नहीं लगती
यदि प्रेम का छत्ता मेरे भीतर उसे शहद नहीं बनने देता
यदि मुझे कमाने के लिए नौकरी पर नहीं जाना पड़ता
और मेरे पास षड्यंत्रकारी दुनियादार लोग नहीं होते[7]


सच की कितनी क़ीमत चुकानी पड़ती है इस सम्बन्ध में मध्यकालीन कवियों की प्रगतिशीलता का तत्युगीन सामंती प्रवृत्तियों द्वारा विरोध से उत्पन्न जोखिमों का इतिहास सबसे बड़े प्रमाणों में से एक है| कवि देवताले की मृत्युपर्यन्त शोक सभा(साहित्य अकादमी द्वारा) में उनके आत्मीय विष्णु खरे ने एक वाकया बताया था| मध्य प्रदेश के किसी कार्यक्रम में उन दोनों की सहभागिता थी| कुछ असहिष्णु विरोधियों को जब इसकी ख़बर मिली तो वे उन पर हमला करने के लिए पहुँचे; किसी तरह कवि देवताले और विष्णु खरे दोनों वहाँ से बचकर निकल पाए| एक तरह से यह घटना देवताले के लेखन की उपलब्धि भी कही जा सकती है| हरिशंकर परसाई के साथ भी ऐसी बदमिजाजियाँ उनके समय के समाज ने की हैं|

आत्मस्वीकार समाज के वृहत्तर उपेक्षित किए जाने वाले समाज से जुड़ने की आकांक्षा से सम्बन्धित कवि देवताले की एक और कविता महत्त्वपूर्ण है– ‘मेरी पोशाक ही ऐसी थी’–

उसका माथा सूँघते हुए मुझे लगा
यही है बेटी की गंध
और मैं याद करते हुए जाने क्या-क्या
भूल गया सब कुछ
और मेरे भीतर आदमी के कलेजे की जगह
धड़कने लगा बाप का दिल
फिर यही सोचकर दुःख हुआ मुझे
कि बच्ची को शायद ही मिली होगी
मुझसे बाप की गंध
मैं क्या करता मेरी पोशाक ही ऐसी थी
मेरा जीवन ही दूसरा था[8]

यूँ तो इस कविता का सतही पाठ भी किया जा सकता है कि यह सायास उत्पन्न दृश्यगत  भावना का सहज उच्छलन है; पर कविता की व्यापक अर्थ-ध्वनि के तहत कवि के मन में उस लड़की के प्रति पिता-भाव के तहत आदिवासी होने की इच्छा और यह होने का मलाल दोनों समझे जा सकते हैं| उस बच्ची का अपनी माँ के साथ बस में चढ़ना और इस पर लगभग पूरी बस के लोगों द्वारा रूखी प्रतिक्रिया देना यह बतला देने के लिए काफ़ी है किविकासकी अंधी प्रक्रिया में मनुष्य-समाजों में परस्पर कितना फ़र्क आया है| विशेष रूप से आदिवासी समाजों के प्रति मुख्यधारा का व्यवहार विचारणीय है| कवि देवताले जीवन के उसी अंतराल को अपनी पोशाक के द्वारा बताना चाह रहे हैं|

देवताले की कुछ आत्मपरक कवितायें नास्टैल्जिया से सम्बन्धित हैं| देवताले की स्मृति अद्भुत थी| उनके स्मृतिबोध के पुख्ता प्रमाण उनकी कविताओं से लेकर उनके साक्षात्कारों तक में देखे जा सकते हैं| बिना पुख्ता और उम्दा स्मृतियों के उत्तम कोटि की नास्टैल्जिया से सम्बन्धित कवितायें रचना दुष्कर है| चन्द्रकांत बांदिवडेकर ने सही लिखा है, “देवताले स्मृतियों के माध्यम से जीवन-चित्र खींचते हैं|”[9] देवताले के दौर के अधिकांश कवियों में नास्टैल्जिया से सम्बन्धित कविताओं की जो वस्तु है वह प्रायः ग्रामीण जीवन से सम्बन्धित है जो उनके पश्चात्-शहरी-जीवन के माहौल में ख़ुद को अतीत की ओर ले जाता है| ‘गाँव तो नहीं थूक सकता था मेरी हथेली परइस सम्बन्ध में कवि की उल्लेखनीय कविता है

आते वक़्त फिर सबके पैर छूने होते
आजी, मौसी और बुआ मेरी नन्ही हथेली को पकड़कर खोलतीं
और उस पर प्यार से थूक देतीं
जिसके बारे में बताया जाता
इससे भूलते नहीं और ज़िन्दगी भर याद बनी रहती[10]

स्नेहाभिव्यक्ति हेतु विभिन्न मानव-समाजों ने भिन्न-भिन्न तरीक़े ईजाद किए| अफ्रीका में भी एक जनजाति प्रेम के प्रकटीकरण के लिए थूकने की क्रिया का इस्तेमाल करती है| उक्त कविता में बाल चंद्रकांत के कई ब्यौरे हैं| इनसे ऊँघना और बोर होने के गाँव शहर के अन्तराल का पता चलता है| गाँव का समाजशास्त्र दो ध्रुवान्तों पर स्थित है| एक ओर उसमें सामूहिकता का भाव है जो शहरी अलिएनेशन के विपरीत सुकूनदेह है तो दूसरी ओर ग्रामीण समाज की रूढ़ियाँ हैं जो व्यक्ति को शहर की ओर भागने हेतु एक उचित कारण देती हैं| देवताले की उक्त आत्मगत कविता में संयुक्त परिवार और ग्राम्य-समाज की सामूहिकता को समझा जा सकता है| शहरों की आत्मरत संकुचित ज़िन्दगी को भी कवि ने एक कविता में एड्रेस किया है-

बेहद कोफ़्त होती है इन दिनों
इस कॉलोनी में रहते हुए
जहाँ हर कोई एक-दूसरे को
जासूस कुत्ते की तरह सूँघता है
अपने-अपने घरों में बैठे लोग
वहीं से कभी-कभार
टेलीफोन के जरिए अड़ोस-पड़ोस की तलाशी लेते रहते हैं
हर चेहरे पर एक मुस्कान चिपकी रहती है
जो एक-दूसरे को कह देती है– ‘हम स्वस्थ हैं और सानंद
और यह भी कि तुम्हें पहचानते हैं ख़ुश रहो[11]


ऐसे यंत्रवत माहौल में कवि याद करता है उस परिवेश को जहाँ उसने अपनी ज़रूरतों के मुताबिक चीज़ों की माँगा-देही की है; दूसरों की ज़रूरतों का भी ख़याल रखा है| इंदौर की उस कॉलोनी में जब कवि नीबू माँगने गया, वह भी उन लोगों के यहाँ, जहाँ उसे जानकारी थी कि नीबू के पेड़ भी हैं और उनसे थोडा परिचय भी है; किन्तु सबने इनकार कर दिया| मानव-संसाधन बनते-बनते समाज कितना यांत्रिक हो गया है, यह कविता उसके समाजीकरण का अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत करती है|

चंद्रकांत देवताले की आत्मपरक कविताओं का एक बड़ा हिस्सा उन कविताओं का है जिनमें जन्म और मृत्यु प्रमुख विषय के रूप में उभरे हैं| देवताले ही नहीं लगभग हर काल के अन्य विख्यात कवियों ने भी मृत्यु सम्बन्धी कविताओं का सृजन किया है| यूँ तो मृत्यु आदिम दार्शनिक प्रश्न है| फिर भी विचारणीय है कि कवियों/ साहित्यकारों के यहाँ यह विषय इतना महत्त्वपूर्ण क्यूँ हो जाता है| कबीर के यहाँ अरथी जलने का दृश्य है, ‘हम मरबका विश्वासी-बोध है| मीर के यहाँअभी टुक रोते-रोते सो गया हैकी विश्रांति है| ग़ालिब के यहाँग़मे-हस्ती का असद किससे हो जुज़ मर्ग इलाज़की बेचैनी है तो निराला के यहाँअभी होगा मेरा अंतकी जिजीविषा है| डॉ. तुलसीराम की आत्मकथाओं के शीर्षकमुर्दहियामणिकर्णिकाभी मृत्युस्थलों से सम्बन्धित हैं| डॉ. नामवर सिंह ने इन आत्मकथाओं पर बोलते हुए कहा थामृत्यु का इतना चिंतन उन्हीं के यहाँ प्रमुख होगा जिन्हें ज़िन्दगी से बहुत प्यार होगा| यह बात काफ़ी हद तक सच लगती है क्योंकि उपर्युक्त सभी कवियों को जीवन के पर्याप्त बसंत देखने का अवसर मिला है| एक अहम कारण जो मुझे इस स्थिति के सम्बन्ध में लगता हैमृत्यु के संज्ञान से अधिक विनम्र हमें शायद ही कुछ और बनाता हो| किसी की मय्यत में शरीक होने से हमारे कई मिथ्याभिमान जिस गति से उड़न-छू होते हैं वह किसी और प्रक्रिया के तहत उतनी गति से नहीं| कवियों के यहाँ उपस्थित मृत्यु-बोध उन्हें आम दुनिया की भांतिभयभीतनहीं करता, विनम्र बनाता है| देवतालेगोया मैं मौत से डरता हूँके अंतर्गत लिखते हैं-

ग़ालिब, ये शे और फूल पत्तियाँ
कुछ इस तरह सहानुभूति से मुस्कराते हैं
गोया मैं मौत से डरता हूँ[12]


इन पंक्तियों का पूरा भावार्थ समझना हो तो इन के साथ देवताले की इन पंक्तियों को भी पढ़ना चाहिए- “मैं तो मरने से डरता हूँ/ बेवजह शहीद होने की चाहत संजोए रखता हूँ[13]| मृत्यु या ऐसी किसी भयानक चीज़ से एक स्वाभाविक डर तो सबको सबको लगता है किन्तु यदि भय की सीमा का अतिरेक हुआ है तो निश्चित हीचोर की दाढ़ी में तिनकावाली स्थिति हो जाती है| कवि देवताले के शब्दों में– ‘जो भयभीत होगा जितना/ वह भीतर से उतना ही काइयाँ होगा’... इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में देखा जा सकता है जिसमें भयभीत चापलूस लोग अंग्रेज़ी हुकुमत के साथ खड़े रहे और कुछ लोगों ने ही यातनाओं को स्वीकार किया|

मृत्यु के इतर विपरीत चंद्रकांत ने जन्म जन्मदिन-विषयक कविताएँ भी लिखी हैं| जैसे- ‘मैं उस शाम रोना चाहता था’, ‘7 नवम्बर : 2011’, ‘ख़तरनाक हुआ वर्षआदि| इन कविताओं में आत्म-विश्लेषण है| अब तक जी गयी ज़िन्दगी का पुनरवलोकन है| कवि की ज़िन्दगी के साध्य सम्बन्धी लक्ष्यों की असफलता का अफ़सोस भी है| 7 नवम्बर : 2011 के अंतर्गत कवि लिखते हैं-

सोच भी नहीं सकता था
कि इतनी मारकाट-लूटखसोट-पाखण्ड
और चमकदार लुभावने झूठ के बीच
एक सुबह मालूम पड़ेगा मुझे
कि हो गया हूँ पचहत्तर का[14]


इस कविता में आत्मधिक्कार मिश्रित बेचैनी है| भारतीय लोकतंत्र की विफलताओं का पोस्टमार्टमहै| हालाँकि सामाजिक-राष्ट्रीय क्षतियों के बीच वह इतना भी हताश नहीं है; चिंगारियाँ भड़काने की कोशिश कम-से-कम कविता के तहत तो ज़रूर कर सकता है| औरतों-नदियों-बच्चों के आँसुओं का अनुवाद कर सकता है| ‘नदी के आँसू का अनुवादकवि की काव्य-पंक्ति भर नहीं है; उनके द्वारा देखा गया मेधा पाटकर का संघर्ष भी उसमें शामिल है | मनुष्य से लेकर पर्यावरण का समूचा नुकसान सांस्कृतिक विस्फोट का महादृश्य है|

चंद्रकांत देवताले की कुछ आत्मपरक कविताओं का सम्बन्ध हैकविता सम्बन्धी उनके दर्शन से| उनके लिए कवि होना मनुष्य होने का ही दूसरा नाम है|[15] वे सच्चे अर्थों में पूरावक्ती कवि हैं| कवि-आलोचक प्रभात त्रिपाठी के शब्दों में उनकी कविताआत्मविस्तार की आत्मीय कविता[16] है| उनकी कविता उनके अंतःकरण के विस्तार की भूमिका के रूप में देखी जा सकती है| जैसे मनुष्य होने को कोई मनुष्य विशुद्ध फंतासी में नहीं सोच सकता, मनुष्य से इतर किंवदंती रूप या देवत्व की आकांक्षा के तहत ही उसे फैंटासाइज़ किया जायेगा| उसी तरह कविता को भी महिमामंडित नहीं किया जा सकता; यदि वह स्वाभाविक कर्म के तहत अभिव्यक्त होती है| देवताले के यहाँ कविता इसी अर्थ में विशिष्ट होते हुए भी सामान्य और सामान्य होते हुए भी विशिष्ट हो जाती है| उनके यहाँ कविता का प्रयोजन उनके निजी जन-पक्षधर जीवन-दर्शन से नाभिनालबद्ध है| इस सम्बन्ध में कई कविताएँ उल्लेख्य हैं– ‘मैं आपके काम का आदमी नहीं’, ‘क़ुबूलनामा’, ‘तुका और नामदेवआदि| काव्य-प्रयोजन संस्कृत काव्यशास्त्र का महत्त्वपूर्ण प्रश्न रहा है| कवि देवताले के यहाँ भी इस पर बदले स्वरूप में विचार हुआ है-

क्या आपने कुम्हार के बच्चों को
चाक पर मिट्टी के छोटे से लोंदे से खेलते देखा है
बागवान के नाती को देखा होगा जो दादा के पीछे घूमते-घूमते
जान लेता है बीज के दरख्त में तब्दील होने का रहस्य
केवट के बच्चे को तो ज़रूर से देखा होगा
कैसे काटता है तेज़ पानी का प्रवाह लेता है नदी की थाह
और गोता लगा मुट्ठी में भर लेता रेत-कंकड़, सीपी समेत
कविता और सृजन भी इसी तरह की कोशिश है देवियो!”[17]


संस्कृत काव्यशास्त्र के अंतर्गत आचार्य मम्मट नेयशको भी एक काव्य-प्रयोजन माना है| कुछ लोग जो यशाकांक्षामात्र को साहित्य का मूल अंतिम प्रयोजन मानते हैं वे प्रायः सृजनशीलता के तनाव से साक्षात्कार नहीं कर पाते| यश की इच्छा रखने वालेकविकविता को कारीगरी की भाँति ट्रीट करते हैं| उनके पास उतने ज़ख्म भी नहीं होते जितने साहित्य-सृजन हेतु न्यूनतम रूप से ज़रूरी कहे जा सकते हैं| कवि देवताले ऐसे लोगों में नहीं हैं| उनके पास इसी मानसिकता के तहत जब 7 औरतें आती हैं जो साहित्य सृजन के गुर उनसेसीखनाचाहती हैं| उनसे आरंभिक बातचीत के दौरान ही कवि उन महिलाओं का असल साहित्यिक सरोकार या प्रयोजन समझ लेते हैं; और उपरोक्त काव्यात्मक बात कहते हुए उनसे विदा लेते हैं|

चन्द्रकांत की कुछ कविताएँ ऐसी हैं जिनमें उनके द्वारा काव्य-परंपरा का स्मरण ऋणी-भाव के साथ किया गया है| इस कृतज्ञता के ज्ञापन में उनकी प्रतिबद्धता का भी दर्शन साथ-साथ होता है| प्रायः ये हिंदी की निर्गुण-जनवादी-प्रगतिशील परंपरा के रूप में रेखांकित की जा सकती है| उनकी अधिकांश कविताओं में पूर्व कवियों के नाम बड़े आदर के साथ आये हैं| जिनमें कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैंकबीर, तुकाराम, नामदेव, ग़ालिब, भारतेंदु, निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय इत्यादि| इन कविताओं को पढ़ते हुए टी. एस. इलियट का निबंधपरंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञायाद आना लाज़मी है| देवताले इस परंपरा के बीच अपनी प्रतिभा का परिचय अपनी कविताओं द्वारा बाखूबी देते हैं| अपनी कई कविताओं में वे पूर्ववर्ती ही नहीं अपितु समकालीन और अनुज पीढ़ी को बाइज्ज़त याद करते हैं और उनका अंदाज़--बयां भी अपनी विशिष्टता बनाये रखता है| उनके यहाँ कुछ काव्य-पंक्तियाँ ऐसी भी हैं जिन पर पूर्व-कवियों की अभिव्यक्तियों और जीवन-दर्शन की छाप का स्पष्ट भास होता है| उदाहरण के लिए-उन्होंने तुकाराम के कुछ अभंगों का अनुवाद मराठी से हिंदी में किया था| संत तुकाराम के यहाँ भक्तियुगीन पक्षधरता और निडरता है, देवताले के यहाँ भी वैसी ही वृत्ति उनके समयानुरूप मौजूद है| उन्हीं के शब्दों में, “चार सौ वर्ष पूर्व जन्मे तुकाराम की वाणी के झंझा-झकोर-गर्जन और मौन में हिचकोले खाते मैं लगातार अपने वक़्त की चुनौतियों से टकरा रहा हूँ  और इसे बडबोलापन समझें वे जो ज्यादा जानते हैं, तो तुका की आवाज़ में कहीं-कुछ-थोड़ी संगतकार होने के कारण मेरी आवाज़ भी शामिल है|”[18] जैसे संत तुकाराम की एक काव्य-पंक्ति है- ‘कविता करने से कोई संत नहीं होता[19]; भक्तिकाल में संतत्व एक सिद्धि है| आज के शब्दों में कहें तो बेहतरीन मनुष्य बनने से इसका सन्दर्भ लिया जा सकता है| कविता में उपदेशपरक अच्छी बातें कहना और जीवन का उसके विपरीत होना, यह स्थिति संतत्व की नहीं हो सकती| देवताले के समग्र काव्य में भी उनके जीवन-दर्शन से तादात्म्य की सुन्दर झलक मिलती है| यहाँ तक कि उनकी एकमात्र आलोचना-पुस्तकमुक्तिबोध : कविता और जीवन विवेकमें भी इसी झलक की सफल पड़ताल हुई है| जीवन-दर्शन और काव्य-दर्शन की यह सुसंगत अंतरंगता से ही किसी कवि की कविताओं के समाजशास्त्र को प्रभावी ढंग से समझा जा सकता है|

कवि चन्द्रकांत की आत्मपरक कविताओं पर सामाजिक प्रभाव के साथ ही उनके पाठकीय ग्रहण को भी समझा जा सकता है| चूँकि बिना पाठकीय ग्रहण को समझे कविताओं का समाजशास्त्रीय अनुशीलन पूरा नहीं हो सकता| वास्तव में आत्मपरक कविताओं की व्यक्तिनिष्ठता ऐसे सामाजिक की होती है जो प्रकारांतर से एक साथ लाखों-करोड़ों लोगों का दुःख-दर्द कहने की ताक़त रखती है| कविता के सम्बन्ध में तो यह सार्वकालिक सच रहा है| कबीर-तुलसी, मीरा-महादेवी को पढ़ समाज के असंख्य स्त्री-पुरुष यदि उनसे अपना तादात्म्य/ सरोकार स्वीकार करते हैं तो इससे बड़ी सामाजिकता तो उन कविताओं को भी नहीं हो सकती जिनमें समाज के लोगों का दुःख-दर्द लगभग दुंदुभी बजाकर किया जाता है और फिर भी उनके पास मुट्ठी भर पाठक ही होते हैं| डॉ. नामवर सिंह ने तुलसी की कविताई के सम्बन्ध में सटीक लिखा है, “रामचरितमानस की महिमा से इनकार नहीं, लेकिनविनयपत्रिकाके पद एक व्यक्ति का अरण्य-रोदन-मात्र नहीं है| यह तो मानस के मर्मी भी जानते हैं कि तुलसी के विनय के पदों में पूरे युग की वेदना व्यक्त हुई है और उनकी चरम वैयक्तिकता ही परम सामाजिकता है|”[20] आत्मपरक कविताएँ या तो हमारे दुःख-दर्दों से जुड़कर हमारा विरेचन करती हैं, साथ ही हमें अधिक संवेदनशील बनाती हैं या कुछ अनैतिक रास्तों से हटने के लिए उत्प्रेरक का काम करती हैं|

इस प्रकार चंद्रकांत देवताले की आत्मगत कविताओं के एक समाजशास्त्रीय विश्लेषण के तहत यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि उनकी वैयक्तिक कविताएँ भी महत्त्वपूर्ण सामाजिकता की पुष्टि करती हैं| यह सामाजिकता लेखक के निजी आरम्भिक समाजीकरण से लेकर समाज के अन्य लोगों के ऑब्जरवेशन तक जाती है| पाठक से तादात्म्य स्थापित करते हुए उसकी भाव-संकुलता को व्यापक आयाम देती है| यह व्यापक आयामिता कविता को दीर्घायु बनाती है जो कविता की अस्मिता हेतु भी आवश्यक है| बिना स्वीकृत अस्मिता के कोई भी साहित्य जंगल में नाचते मोर के समान हो जाता है| साहित्य के समाजशास्त्र के पाठकीय अभिग्रहण के पैमाने पर भी देवताले एक महत्त्वपूर्ण कवि हैं, ऐसा समकालीन पाठकों से आसानी से सुना-समझा जा सकता है| कविता का समाजशास्त्र और अधिक प्रगति करेगा यदि और अधिक सूक्ष्म आत्माभिव्यक्ति की कविताओं की सामाजिकता की भी परख की जाए|

संदर्भ :
[1] मैनेजर पाण्डेय, साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, हरियाणा ग्रन्थ अकादमी, पंचकूला, 2014, xiv
[2]चंद्रकांत देवताले, पत्थर फेंक रहा हूँ, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2010, पृष्ठ22
[3]नामवर सिंह, संकलित निबंध, एन. बी. टी., दिल्ली, 2010, पृष्ठ80
[4]वही
[5]चंद्रकांत देवताले, इतनी पत्थर रोशनी, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2002, पृष्ठ32
[6]चंद्रकांत देवताले, आग हर चीज़ में बताई गयी थी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ23
[7]चंद्रकांत देवताले, उजाड़ में संग्रहालय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2003, पृष्ठ111
[8]चंद्रकांत देवताले, आग हर चीज़ में बताई गयी थी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ 131
[9]चन्द्रकांत बांदिवडेकर, चन्द्रकांत देवताले की कविता : कविता स्वभाव, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2012, पृष्ठ 52
[10]चंद्रकांत देवताले, पत्थर की बेंच, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृष्ठ80
[11]चंद्रकांत देवताले, उजाड़ में संग्रहालय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ95
[12]चंद्रकांत देवताले, पत्थर की बेंच, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, 2021, पृष्ठ51
[13]चंद्रकांत देवताले, प्रतिनिधि कवितायें, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2013, पृष्ठ25
[14]चंद्रकांत देवताले, ख़ुद पर निगरानी का वक़्त, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृष्ठ41
[15]चंद्रकांत देवताले, मेरे साक्षात्कार (संपादक- आशीष त्रिपाठी), किताबघर प्रकाशन, नयीदिल्ली, 2013, पृष्ठ186
[16]प्रभात त्रिपाठी, चुप्पी की गुहा में शंख की तरह (चंद्रकांत देवताले की कविताओं पर एकाग्र निबंध), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2011, पृष्ठ 87
[17]चंद्रकांत देवताले, उजाड़ में संग्रहालय, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 2007, पृष्ठ104
[18]चंद्रकांत देवताले (अनुवादक), संत तुकाराम : कुछ चुने हुए अभंग, साहित्य अकादमी, दिल्ली, 2011, पृष्ठ12
[19]वही, 24
[20]नामवर सिंह, संकलित निबन्ध, एन. बी. टी., दिल्ली, 2010, पृष्ठ82

मनीष कुमार,
शोधार्थी, हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली
manish.lit26@gmail.com, 9560883358
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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