समीक्षा : युद्ध और प्रेम का भावनात्मक चित्रण ‛आउशवित्ज़’ / सरिता

युद्ध और प्रेम का भावनात्मक चित्रण आउशवित्ज़
 - सरिता

        दुनिया इस समय एक तरफ रूस और युक्रेन के युद्ध का सामना कर रही है तो दूसरी ओर  अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा हो गया है, जिसमें महिलाओं की उच्च शिक्षा पर रोक-सी  लगा दी गयी है। लगभग हर जगह महिलाओं की तस्वीरों वाले पोस्टर पर कपड़ा डाल दिया गया है। ऐसे में युद्ध की विभीषिका से संबंधित उपन्यास का प्रकाशन बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है।

जब कहीं युद्ध होता है तो उसमें केवल इमारतें ही क्षतिग्रस्त नहीं होतीं अपितु बड़े पैमाने पर जीवन भी क्षत-विक्षत होता है। युद्ध की घटनाओं को इतिहास में जिस रूप में रखा गया है वह सभी कमोबेश तथ्यात्मक ही अधिक है। ऐसे में लगता है कि उन स्त्रियों, बच्चों और मासूम लोगों का क्या हुआ होगा, जिन्होंने युद्ध में अपनी घर की इमारतें ही नहीं बल्कि अपना सब कुछ खो दिया। इस युद्ध में प्रेम के बीज ने भी कहीं जन्म लिया होगा। गरिमा श्रीवास्तव जी द्वारा रचित उपन्यासआउशवित्ज़' ऐसी ही कहानियों को सामने लाने का प्रयास करता हुआ दिखाई देता है। इस उपन्यास में युद्ध के दौरान स्त्री के साथ हुए अमानवीय शोषण एवं उन्ही स्त्रियों के जीवन में प्रेम और हिटलर की तानाशाही के क्रूर कृत्य का वर्णन किया गया है। यूनिवर्सिटी ऑफ उप्सला के प्रो. हेइंज वेनर वेस्लर कहते हैं कि “ ‛आउशवित्ज़' : एक प्रेम कथा स्त्री के प्रेम और स्वाभिमान के तंतुओ से बुने इस उपन्यास के पात्र और घटनाएं सच्ची हैं। इतिहास इन घटनाओं का मूक गवाह रह चुका है। हिटलर की नात्सी सेना द्वारा यहूदियों के समूल खात्मे के लिए बनाये गए यातना शिविरों में से एक हैआउशवित्ज़' जो अब संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है। युद्ध के निशान ढूँढने पहुँची प्रतीति सेन अपने जीवन को फिर से देखने की दृष्टिआउशवित्ज़' में ही पाती है। प्रतीति कब रहमाना हो उठती है और कब रहमाना प्रतीति - पहचानना मुश्किल है।"1

        यह उपन्यास युद्ध के दौरान अमानवीय शोषण के शिकार और साक्षी रहे लोगों की कहानी है। इस उपन्यास के पात्रों ने युद्ध के दौरान हुए भीषण शोषण-अत्याचार की कहानी को अपनी जुबानी बताया है। इन पात्रों में सबीना, रहमाना खातून शामिल है। प्रतीति सेन की इस उपन्यास में महत्वपूर्ण भूमिका दिखाई देती है। वह एक रिसर्च स्कॉलर हैं जो यहूदियों पर हुए अत्याचार के बारे में शोध कर रही है। इसी दौरान उसकी मुलाकात सबीना से होती है। सबीना का परिवार उस यातना कैम्प में हुए अत्याचार का साक्षी रहा है। सबीना के दादा की डायरी इस सम्बन्ध में काफी कारगर साबित हुई, जिससे इस युद्ध के जीवंत दस्तावेज प्राप्त हुए। इस उपन्यास में एक खास तरह का संगम दिखाई देता है | एक तरफ तो युद्ध में हिटलर के क्रूर कृत्य का वर्णन है तो दूसरी तरफ सबीना और आंद्रेई की अधूरी प्रेमकथा, प्रतीति सेन और अभिरूप की प्रेम कहानियों का भी वर्णन प्राप्त होता है। यह उपन्यास इतिहास में उपेक्षित रह गये तथ्यों का भी वर्णन करता है -“पर ये दुनिया मानती कहाँ है? इतिहास लिखते हैं जीवित -विजयी। पराजितों का इतिहास भी होता है क्या? शायद नहीं। उनके दुःख, शोषण, जीवट की गाथाएं रह जाती हैं पुरानी डायरियों , जंग लगे टूटे बक्से के तले में रखकर भुला दिए गए पत्रों में, जिनको पलटना भी चाहे तो उसके लिए चाहिए असीम धैर्य, यजदी भाषा का कुछ ज्ञान, उंगलियों की हौली नामालूम -सी थिरकन जो 76-77 साल के मुड़े, कई तहो में बंधे कागजों का पता चले बगैर खोल ले।"2

इस उपन्यास में इतिहास और प्रेम को बहुत मनोयोग से विश्लेषित किया गया है। कहीं-कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे अपनी ही कहानी चल रही है और जिन प्रश्नों से हम अकेले में जूझते हैं, यहाँ उन प्रश्नों का उत्तर मिलता जाता है -“सबीना को जीने का बहाना मिल गया, हम सब किसी किसी बहाने से जीते हैं, जी जाते हैं, किसी के प्रेम की आकांक्षा हो, किसी से मिलने की आस हो तो आदमी जिये क्यों। तमाम विपरीत परिस्थितियों में कोई जी लेता है तो उसके पीछे बड़ा तत्त्व प्रेम है।"3

        इस उपन्यास की भाषाशैली अनूठी है| इस उपन्यास में स्थान-स्थान पर बांग्ला भाषा का प्रयोग भी देखने को मिलता है, साथ ही साथ इस उपन्यास में कहीं-कहीं सुंदर कविताओं का प्रयोग भी हुआ हैं। काव्यगत तत्त्वों का प्रयोग उपन्यास में प्रेम के भावों, निजी दुःखों की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है, जैसे -

दिल की गहराई से
हम कहते हैं -अलविदा
उतनी गहराई से प्यार करना सीखने में
खप जाता है पुरा जीवन।
दर्द खदबादते रहते हैं
गंधक के सोते की तरह
और दिल खोलकर रख देने के लिए
कमबख्त एक घोड़ा तक
नहीं मिलता।"4

ये कविता लेखिका की नहीं है, किन्तु इस कविता का प्रयोग उपन्यास के भावाभिव्यक्ति के लिए लेखिका ने किया है, जिससे इस उपन्यास की भाषाशैली और सुंदर रूप में निखर कर सामने आती है।

इस उपन्यास में नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए बर्बर और क्रूर कृत्य का चित्रण मिलता है। इस क्रूरता के कारण कई जीवन बिखर गए और स्त्रियों का जीवन तो मानों जानवरों से भी बदत्तर हो गया था। इन युद्ध कैम्पों में रखे गये लोगों में सबसे ज्यादा प्रताड़ित हुए हैं बच्चे और स्त्रियाँ। स्त्रियों को नाजी सेनाओं ने अपनी वासना का शिकार तो बनाया ही, साथ ही उनकी मनुष्य होने की गरिमा को भी क्षत-विक्षत कर दिया। इन औरतों का स्वयं के शरीर पर कोई हक नहीं रह गया था। वे मात्र मांस के लोथड़े के समान ही रह गयी थीं - “ये औरतें मनुष्य नहीं है, रही होंगी कभी इन्हें याद नहीं, दंतमंजन से भी महरूम ये औरतें अब बन्दी मजदूर है। कौन कहेगा कि इनमें कई पढ़ी -लिखी कलाकार, मेहनती, सुंदर, कभी सुखी-समृद्ध रह आयी यहूदी औरतें हैं जो अपनी नफ़ासत और तहजीब के लिए जानी जाती थीं। अब ये यहाँ सिर्फ गुलाम हैं, जिन्हें भोजन के नाम पर दिन में दो बार ठंडा सूप दिया जाता है, एक ही बड़े बर्तन से बारी-बारी सुड़कती औरतें, इनमें और जानवर में क्या फर्क है, फर्क है -जानवर अपनी गन्दगी जीभ से चाटकर, जमीन में लोटकर साफ़ कर लेता है जबकि ये औरतें अपने शरीर की सफाई के लिए तरस जाती है।"5

इस उपन्यास में ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जिसमें युद्ध की विभीषिका के बारे में बताया गया है। नात्सी सेना का आक्रमण, हिटलर की तानाशाही और यहूदियों के प्रति नफरत का इतिहास गवाह रहा है। इस भीषण अत्याचार पीड़ितों में मासूम बच्चें भी शामिल थे।आउशवित्ज़' के कैम्पों में यहूदियों के मासूम बच्चों पर वैज्ञानिक प्रयोग किए जाते थे। इन बच्चों की नीली आँखें ही इनके लिए अभिशाप बन गई थी - “ मेंगले जर्मन नस्ल में नीली आँखें लाना चाहता था इसलिए आँखों का रंग नीला बनाने के प्रयोग बच्चों पर किये जाते थे। ऐसे प्रयोग समान्य मनुष्य की कल्पना के बाहर थे क्योंकि आँखों में तरह -तरह के इंजेक्शन देने से बच्चों को भयंकर दर्द होता था, कई बार संक्रमण से उनकी दृष्टि चली भी जाती थी, ये अंधतत्व स्थायी और अस्थायी दोनों प्रकार का होता था।  रीढ़ में दवाओं के इंजेक्शन देकर देखा जाता था कि महामारी के टीके बच्चों में क्या परिवर्तन ला सकते हैं। एन्थिसिया दिये बगैर बच्चों के ऑपरेशन किये जाते थे।"6

 हिटलर कितना क्रूर शासक था यह तो इतिहास में दर्ज़ है। उसने कितने ही मासूम यहूदियों का जीवन नर्क से भी बत्तर बना दिया और ऐसे जीवन पर सार्थक पुस्तकों का अभाव है।आउशवित्ज़' उपन्यास इस संदर्भ में काफी सारगर्भित उपन्यास है। यह बांग्लादेश में हुए युद्ध के दौरान स्त्रियों की दुर्दशा का भी चित्रण है। रहमाना खातून और टिया नामक पात्रों की कहानी इसी दुर्दशा का वर्णन करती है। रहमाना खातून ने युद्ध की विभीषिका को देखा था -

        इस युद्ध ने उन्हें स्त्री रहने ही कहाँ दिया, मनुष्य कहाँ रहने दिया। क्या सुने वह मुकुल जैसों की कहानी -उसे तो कत्ल करने का ग्लानि-बोध है। इसका इलाज होमियोपैथी तो क्या किसी के पास नहीं है। जिन लड़कियों-औरतों पर यह सब गुजार दिया गया उन्हें तो मालूम भी नहीं था कि उन्हें किस गुनाह की सजा मिल रही है। सहेली का भाई सलवार फाड़ने पर क्यों आमादा है, जो रोज सलाम-दुहा करते थे उनके लिए अचानक उसकी पहचान बिहारी मुसलमान लड़की के रूप मेंये हुआ कैसे।"7

युद्ध का प्रभाव समाज के लगभग हर वर्ग पर पड़ता है पर क्या इनमें प्रेम कहानियों ने भी जन्म लिया होगा? क्या ये प्रेम कहानियाँ अपनी सम्पूर्णता को पहुँच पाई? इस उपन्यास में  ऐसी ही कुछ प्रेम कहानियाँ है जिन्होंने विपरीत समय में जन्म लिया सबीना और आंद्रेई की प्रेम कहानी में सबीना ओंद्रेई से अधिक प्रेम करती है किन्तु यह प्रेम अधूरा रह गया सबीना कहती है कि - “ प्रेम घुटन भी पैदा कर सकता है मैंने पहले कभी सोचा नहीं था। शुरू में, आंद्रेई की हर बात मुझे मोह -मोह लेती थी। खूब पढ़ा -लिखा, दुनिया के बारे में ढेर जानकारी रखने वाला आंद्रेई मुझे अच्छा लगता , हम दिन भर एक - दूसरे के साथ रहते, रात को अपने -अपने घर लौटते। उधर घर की हालत भी खराब थी। मॉम की सम्पत्ती के लालच से कई लोग करीब आये पर किसी ने उनसे विवाह नहीं किया था, कई संबंध बने-बिगड़े "8

यह उपन्यास स्त्री -पुरुष संबंधों की भी व्याख्या करता है। I इस उपन्यास में जितनी भी स्त्री-पात्र हैं सभी स्त्री होने की पीड़ा को बयां कर ही रही हैं। साथ ही वह स्त्री और पुरुष के बीच में  प्रेम में जो अंतर है वह भी दृष्टिगत होती है। प्रेम और उसका वास्तविक जीवन में जो यथार्थ है उसका चित्रण इस उपन्यास में बखूबी रूप से उकेरा गया है। यह उपन्यास युद्ध और प्रेम के इसी अनूठे संगम के कारण अपनी अलग पहचान स्थापित कर रहा है। हिन्दी साहित्य में ऐसे प्रयोग कम हुए है और इस तरह का प्रयोग एक स्त्री लेखिका द्वारा करना निश्चय ही सराहनीय भी है। यह उपन्यास केवल युद्ध में स्त्री जीवन के साथ हुए क्रूर कृत्य को ही प्रदर्शित नहीं करता अपितु उन दस्तावेजों को भी प्रस्तुत करता है जिनमें उन यातना कैम्पों  में हुए शोषण की कहानी बयाँ की गयी है -“ ‛आउशवित्ज़' नात्सियों  द्वारा बनाया गया सबसे बड़ा मृत्यु गृह  था जिसकी स्थापना पोलिस लोगों में भय पैदा करने के उद्देश्य से की गई थी लगभग 150,000 पोलिश स्त्री, पुरुष और बच्चों कोआउशवित्ज़' के यातना- गृह  में रखा गया, जिनमें 75,000 मर गए। पोलिश नागरिकों को यहाँ लाकर मार दिया गया था।" 9

 यह दस्तावेज ऐतिहासिक प्रमाणों को पुष्ट भी करता है। इस तरह के उपन्यास एक खास समझ और बौद्धिकता की मांग करते हैं। लेखिका इस संदर्भ में केवल बौद्धिक होने का प्रमाण देती हैं बल्कि अपनी संवेदनशीलता का परिचय भी देती हैं। स्त्री किसी भी देश की क्यों हो पर उसके दुःख लगभग हर जगह एक समान ही होते हैं। इस उपन्यास को पढ़ते हुए जितना दुःख होता है दूसरे ही पल हिटलर द्वारा किये गए क्रूर कृत्य पर घृणा भी होती है। लगता है कि इतिहास इन सभी कुकृत्य को कैसे अपने अंदर दबाये  बैठा था, इन स्त्रियों और बच्चों ने जिस क्रूरता को झेला उन सबका न्याय क्या इतिहास उनके साथ कर पाया ? आज भी इतिहास में बहुत सारे तथ्य एक सिरे से गायब किए जा रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ी इन सभी से वंचित रह जाए और वह मूक दर्शक के रूप में ही रहे ताकि जो सवाल किये जाने थे वे सभी दफ़न हो जाए इस संदर्भ मेंआउशवित्ज़' उपन्यास का  यह तथ्य महत्वपूर्ण है -“अभी कल ही तो संग्रहालय की तस्वीरें एक मोटे कपड़े की, हाथ की सीली ब्रेसियर दिखी, नीचे लिखा था - इस ब्रेसियर को लीना बेसिर्यन ने फटे कपड़ो के टुकड़ों से जुलाई 1944 में स्टाफ़होग कैम्प में सिला और लगातार सात महीनें पहनती रही। लीना बेसिर्यन 1910 में लिथुनिया में जन्मी थी। 1941 में उसकी 14 साल की बेटी के साथ रखा गया, 1944 में बेटी को  ‛आउशवित्ज़' ले जाकर मार डाला गया और घेटो को खत्म कर दिया गया। लीना बच गयी, लेकिन उसका पति दाचाउ को  यातना शिविर में मारा गया।"10

        ऐसे ही तथ्यों के उदाहरण इस उपन्यास में कई सारे हैं। यह उपन्यास केवल तथ्य ही प्रस्तुत नहीं करता अपितु उन तथ्यों की व्याख्या भी करता है। निजी वस्त्र और उन वस्त्रों से जुड़ी अस्मिता का सवाल भी इन यातना कैम्पों में देखा गया है। इन यातना कैम्पों में स्त्रियों को निजी वस्त्रों को पहनने की मनाही थी। कई स्त्रियों ने तो बोरे को सिलकर अपनी ब्रा बनायी थी - कैम्प के संगीत बैंड की सदस्य रही फनिया फेलोन ने लिखा था -“ ब्रा, तौलिया, टूथब्रश जैसी चीजें हम भूल चूके थे। एक यहुदी औरत ने मौत का ख़तरा उठाते हुए फटे बोरे से ब्रा जैसी कोई चीज सिली थी।"11 कितना भयानक है यह सोचना कि वह चीजें जिसे मूलभूत आवश्यकता के रूप में समझा जाता है उससे ही सबकों महरूम कर दिया जाए तो मनुष्य जीवन कैसे मानवीय रह पायेगा। इन कैम्पों में एक तरफ स्त्रियों को उनकी निजता से भी वंचित किया जा रहा था वहीं दूसरी ओर अमेरिका में उसी समय स्त्री अधिकारों की आवाज़ भी उठ रही थी - “ मैंने कहीं पढ़ा था कि द्वितीय विश्वयुद्ध में बड़े पैमाने पर कारखानों में काम करने वाली अमेरिकी स्त्रियों ने कहा था किहम कॉफी बनाते -बनाते थक गयीं हैं अब हमें पॉलिसी भी बनाने दी जाए। " इन्ही औरतों का यह भी कहना था कि  कारखानों को स्त्रियों की जरूरत है और स्त्रियों को ब्रा की। इसी माँग का नतीजा था कि सूती, नायलॉन, रेशमी कपड़ों और लेस पर सरकार ने सब्सिडीयरी दी।"12

        यह तथ्य इस बात को सोचने पर मजबूर करता है कि एक तरफ अमेरिका में स्त्रियों की जरूरतों का इतना ध्यान रखा जा रहा था और दूसरी तरफ यहाँ स्त्रियाँ अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से भी महरूम हो रही थी यह अनुमान लगा पाना भी संभव नहीं है कि कैसे इन स्त्रियों ने बिना ब्रा के भारी श्रम किया होगा। इन यातना कैम्पों में स्त्रियों की जो दुर्दशा हुई वैसे ख़ौफ़नाक मंजर की कल्पना शायद ही कोई कर पाए। पूरा विश्व युद्ध की विभीषिका से तो अवगत है पर इन युद्धों के बाद लोगों के जीवन में क्या परिवर्तन आया? यह लोग कैसे अपने जीवन को वापस से शुरू कर पाए? इसकी जानकारी इतिहास में बहुत कम ही मिलती है। ऐसे में साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। उन कहानियों को हमारे समक्ष रखता है और इतिहास को एक बार फिर से पुनर्जीवित कर देता है पाठक इन कहानियों को पढ़कर केवल जानकारी ही नहीं बढ़ाते है बल्कि यह भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि इतिहास ने कितने रहस्य अपने अंदर समेटे हुए है। यह उपन्यास इतिहास की उचित व्याख्या तो करता ही है साथ ही साथ इतिहास और साहित्य के अनूठे संगम को भी दिखाता है। साहित्य अपने साथ सभी विषयों का समावेश करता है और उन विषयों में भावना को जोड़ता है। अतः यह उपन्यास उसी संगम और समावेश का उचित उदाहरण है।

 अंततः यह कहा जा सकता है किआउशवित्ज़' उपन्यास नाजी आक्रमण और उसके बर्बर शोषण का बहुत ही मार्मिक चित्रण करता है। यह उपन्यास इतिहास के कोने में दफ़्न पन्नों को वापस खोलने का केवल साहस करता है बल्कि उन कहानियों को व्यापक रूप से पाठक के सामने भी रखता है। इस उपन्यास को जब हम पढ़ते हैं तो हम पाते हैं कि कैसे एक नफरत के बीज ने मनुष्य की गरिमा को क्षत -विक्षत करके रख दिया। यह उपन्यास हिटलर के नाज़ी कैम्पों में दफ़्न कहानियों को बाहर निकाल कर लोगों को सोचने पर मजबूर कर देगा। आज जिस दौर में हम जी रहें हैं वह अनंत युद्ध की संभावना रखने वाला दौर है। ऐसे में इस तरह का उपन्यास हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि युद्ध क्यों रुकने चाहिए। इतिहास ने युद्ध के दुस्प्रभावों को देखा और झेला भी है। इन युद्धों ने केवल जीवन ही नहीं नष्ट  किया अपितु लोगों के मन में युद्ध के प्रति घृणा भी पैदा की। आज हम सभी का यह प्रयास होना चाहिए कि वह सभी कृत्य, जो नफरत को जन्म दे रहे हैं या जन्म देने वाले हैं उसे त्याग दें। यह उपन्यास इस संदर्भ में अपना सार्थक प्रयास कर चुका है। यह  उपन्यास विपरीत परिस्थितियों में भी प्रेम करना सिखाता है। प्रेम के माध्यम से इस समाज में नफ़रत को हटा कर सोहार्द लाना संभव है

संदर्भ :

  1. आउशवित्ज़ - गरिमा श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2023 , नई दिल्ली।
  2. वही, कवर पेज
  3. वही, पृ27
  4. वही, पृ8
  5. वही, पृ65,66
  6. वही, पृ. 146
  7. वही, पृ193
  8. वही, पृ44
  9. वही, पृ. 61
  10. 10. वही, पृ135
  11. 11. वही, पृ. 138
  12. 12. वही, पृ. 137
  13.  13. समीक्षित कृति : आउशवित्ज़: एक प्रेम कथा, गरिमा श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण, 2023,पृष्ठ, 224
 
सरिता
शोधार्थी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय
sarusarita07@gmail.com, वाराणसी -221005
   
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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