शोध सार : फणीश्वरनाथ रेणु को अपने समकालीनों से जो चीज़ अलग करती है- वह है उनकी कहानियों में लोक-जीवन की साधना। लोक-जीवन की असंख्य छवियाँ, विविधता एवं विशेषताएँ इन कहानियों को लोकग्राह्य बनाती हैं। साथ ही इन्हें स्थायित्व भी प्रदान करती हैं। ऐसा इसलिए संभव हो सका क्योंकि वे ग्रामीण-जीवन में रचे-बसे थे। वहाँ के लोगों से उनका संबंध उसी प्रकार था, जिस प्रकार मिट्टी और पौधे का होता है। वे अंचलवासियों के जीवन की मार्मिकता, उनके प्रेम, आशा-निराशा, हर्ष-विषाद और मानवीयता को अपनी विभिन्न कहानियों में बड़ी आत्मीयता से प्रस्तुत करते हैं। मानव की प्रबल जिजीविषा एवं संवेदनशीलता इनकी कहानियों को अमरता प्रदान करती हैं। घनघोर विरोधी परिस्थितियों में भी रेणु के पात्र टूटते-बिखरते नहीं और न ही कहीं घुटने टेकते नज़र आते हैं। इनमें परिस्थितियों से संघर्ष करने का अदम्य साहस और निर्णय लेने की शक्ति है। ‘उच्चाटन’ के रामविलास, ‘रसप्रिया’ के पंचकौड़ी मृदंगिया, ‘संवदिया’ के हरगोबिन, ‘ठेस’ के सिरचन मानवीय तेज से भरे पात्र हैं। ये लोक-जीवन के जीते-जागते पात्र हैं। ये अशिक्षित, गरीब, बेरोजगार होने के बावजूद अपने विवेक और संवेदनशीलता को नहीं खोते। रेणु आँचलिक जीवन की सामंतवादी कुरीतियों पर जहाँ प्रहार करते हैं, वहीं साधारण लोगों के जीवन की परंपरा, सहजता, सरलता तथा मानव-मूल्यों को पोषित एवं संरक्षित करते हैं। लोक-जीवन के मूल्यों को समाहित करने के कारण इनकी कहानियाँ आत्मीय और जीवंत हैं।
रेणु का लोक-जीवन अशिक्षित लोगों का जीवन है। ये रूढ़ियों, अंधविश्वासों एवं जड़ताओं के शिकार हैं। भूमि का असमान वितरण, जमींदारी प्रथा प्राकृतिक प्रकोप, आर्थिक असमानता, लोक-जीवन को नारकीय बनाने में सदियों से भूमिका निभा रहे हैं। भयंकर गरीबी, बेरोजगारी, समय पर होने वाले रोगों के हमले से किसान, मज़दूर, युवा, कारीगर त्रस्त हैं। रेणु इन कारीगरों जिनमें सिरचन, रसूल मिसतिरी, कालु कमार शामिल हैं इन्हें अपनी कहानियों में नायकत्व प्रदान करते हैं। वे इनकी मुक्ति की लड़ाई संवेदना की धरातल पर लड़ते हैं। रूढ़िग्रस्त एवं जड़ होते समाज में ‘पंचलाइट’ जैसी कहानियाँ लिखकर साधारण ग्रामीण लोगों में वैज्ञानिक चेतना पैदा करते हैं। सामाजिक चेतना में परिवर्तन लाने का यह सूक्ष्म कौशल उनके समकालीनों में सर्वथा अभाव दिखता है। इनकी शैली अपनी और विलक्षण है। भाषा-विन्यास कहानियों को प्राणवान बनाता है।
बीज शब्द : आंचलिक, पंचलाइट, सिंहावलोकन, सार्वभौमिक, संवेदना, फाल, श्रीपंचमी, खुरपी, जाजिम
मूल आलेख : लोक साहित्य का अभिप्राय उस विशिष्ट साहित्य से है जिसकी रचना लोक करता है। यह सामान्य जनजीवन से उत्प्रेरित जन साहित्य है, यह लोक का दर्पण है। यह मानव जाति के प्रत्येक पक्ष अर्थात् शैशवावस्था से लेकर मृत्युपर्यन्त सभी पक्षों को प्रतिबिम्बित करता है। लोक साहित्य में अवस्था, वर्ग, समय, जनमानस की प्रकृति, संस्कृति आदि लिपिबद्ध होती है। ऐसे ही लोक के चितेरे कहानीकार फणीश्वरनाथ रेणु हैं।
लोक-जीवन में पारंपरिक रूप से अपार ज्ञानानुभव संचित है। यह ज्ञानानुभव लोगों के जीवन एवं दैनिक व्यवहार में प्रकट होता है। लोक-जीवन एक प्रकार से अलिखित चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया है। इस लोक ज्ञान को वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है, जो इस जीवन के प्रति सहानुभूति रखता है। इस विराट लोक-जीवन के अनुभव रेणु की कहानियों को भारतीय ग्राम्य सभ्यता, परंपरा और मानवीय इतिहास से भी जोड़ते हैं। कृत्रिम भावों की जगह यहाँ के लोग कैसे जीते हैं, उनका उठना-बैठना कैसा है, कैसी उनकी दिनचर्या हैं, उनकी बोल-चाल का कैसा लहजा है। अपने गाँव-घर, टोला-पड़ोस, रिश्ते-नातों के प्रति उनमें कितना प्रेम और विश्वास है, इनका यथार्थ-चित्रण रेणु की कहानियों में है। एक तरह से अपनी संपूर्णता में रेणु की ये कहानियाँ लोक-जीवन का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक विस्तार है। कहानियों में लोक-जीवन के चित्रण संबंधी रेणु के विचारों को भारत यायावर इन शब्दों में स्पष्ट करते हैं- “मैं किसी भी आदमी, पेड़-पौधा, चिड़िया, जानवर या वस्तु की कल्पना उसके रंग के बगैर नहीं कर सकता। फिर हर चीज़ की एक गन्ध होती है। तो जब मैं लिख रहा होता हूँ तो रंगों और गन्धों के बारे में बताना भी ज़रूरी समझता हूँ। फिर उन रंगों और गन्धों का हमारी इंद्रियों पर भी प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। वे प्रभाव किस प्रकार के हैं, इसे भी बताना होता है। ध्वनियों का चित्रण एक खास तरह की गीतात्मकता ही नहीं, कथा को गतिमयता में भी बदलता है। जिस तरह हर शब्द की ध्वन्यात्मकता होती है, प्रकृति की हर इकाई, जिसमें सक्रियता या गतिशीलता है, उसकी ध्वनि भी है। और हर समय यह ध्वनि एक जैसी नहीं होती है। उसमें बदलाव होता रहता है, मैं जब लिखने बैठता हूँ तो पूरे परिवेश पर मेरा ध्यान होता है। एक असली कथाकार में चित्रकार और संगीतकार की आत्मा भी बैठी होती है।”1 रेणु की कहानियों का संसार इन्हीं रसों, गन्धों एवं ध्वनियों की लय और रस से निर्मित है। साधारण आदमी के दुख, पीड़ा, आशा, निराशा, प्रेम, संघर्ष, स्वप्न खुशी जैसे अनंत भावों का इनकी कहानियों में सहज-सरल किन्तु प्रभावशाली ढंग से प्रकटीकरण हुआ है। लोक-जीवन में इतनी गहराई एवं व्यापकता के साथ हिन्दी में प्रेमचंद के बाद संभवतः और कोई कथाकार नहीं दिखाई पड़ता। आलोचक डॉ. रणधीर सिन्हा ने रेणु के रचना संसार के संबंध में ठीक ही कहा है- “वह सामाजिक सामान्य जन-जीवन को अपना साध्य मानते हैं और एक वस्तुनिष्ठ यथार्थवादी रचनाकार के लिए महत्तर लोक-जीवन ही प्राथमिक महत्त्व और मूल्य के रूप में स्वीकार्य होता है। आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक दृष्टियों से पिछड़ा हुआ लोक-जीवन यथार्थवादी लेखक को इसलिए प्रभावित करता है कि वह उसके बाहरी और भीतरी सोपानों का सिंहावलोकन कर उसकी समस्त छिपी हुई समस्याओं को उद्दीप्त कर सके और मार्मिक बोध से उनके समाधान का मार्ग खोजने के लिए समाज को बाध्य कर सके, ताकि वास्तविकता से प्रस्फुटित उसकी चेतना निस्तार पा सके। पिछड़ा हुआ लोक-जीवन मानवता का प्राण है। बहुसंख्यक की उपेक्षा कर व्यक्तिपरकता के आधार पर मानवता की संरचना करना और उसकी दुहाई देना, न तो सार्वभौमिक सत्य है, न सार्वकालिक। रेणु ने अपने चित्रण में बहुलता का ही पक्ष ग्रहण किया है, और सामान्य जन की पीड़ा को देखा-परखा है।”2 लोक-जीवन की यह सार्वभौमिकता रेणु को अपने समय का सबसे बड़ा कथाकार बनाती है। हिन्दी कहानी की परंपरा में उनका यह सर्वोपरि स्थान कोई नहीं ले सकता। इन्हें आँचलिकता की सीमा में बाँधकर देखने की कोई विद्वान भूल न करे। यहाँ मैं रेणु की उन कहानियों पर विचार करना चाहता हूँ जिसमें लोक-जीवन की संवेदना घनिष्ठता के साथ अभिव्यक्त हुई है।
रेणु की पहली कहानी ‘बटबाबा’ में ही लोक-जीवन की घनीभूत संवेदना अभिव्यक्त हुई है। रेणु की इस कहानी में ग्रामीण जीवन की आस्था है। प्रेम है। विश्वास है। पूरे गाँव के सुख-दुख का केंद्र ‘बटबाबा’ है। कथ्य और संवेदना की दृष्टि से यह एक बड़ी कहानी है। लोक-जीवन के विविध रूप और भाव-विचार का इसमें प्रकटन हुआ है। मौसम बदलने के कारण पेड़-पौधों में परिवर्तन आता है। पत्ते हरे होते हैं। फूल-फल लगते हैं। लेकिन गाँव भर के लोगों के आश्चर्य और निराशा का कारण है इस वर्ष ‘बटबाबा’ में कोई परिवर्तन नहीं आना। अर्थात् उसका सूख जाना। गाँव वालों के लिए ‘बटबाबा’ का अचानक इस प्रकार सूखना अपशगुन जैसा है। क्योंकि यह पूरे गाँव का देवता है। लोक-जीवन में पेड़-पौधों, पत्थर, नदी आदि प्राकृतिक रूपों की पूजा-अर्चना बहुत पहले से चली आ रही है। साधारण लोगों के लिए ये सुखदाता और कष्ट निवारण करनेवाला है। सुहागिन अपने सुहाग की रक्षा की प्रार्थना करती हैं तो अविवाहित लड़कियाँ दुल्हे ढूँढ़ने को कहती हैं। पढ़ी-लिखी युवती हो या अशिक्षित कोई भी ‘बटबाबा’ के लिए अपशब्द नहीं बोलती। उन्हें विश्वास है कि ऐसा करने पर उनकी जिन्दगी में बुरी घटना घटेगी। संपूर्ण गाँव के विश्वास और आस्था के केंद्र होने के कारण इसके पास ही हर प्रकार के धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक अनुष्ठान किया जाता है। लेकिन इस वर्ष बटबाबा में पतझड़ के बाद एक पत्ता नहीं फूटा है। इसे लेकर गाँव के निरधन साहू की दुकान पर शाम को गाँव के किसान मजदूर मंडली सब सूखे बरगद को लेकर चर्चा करते हैं।
ग्रामीण देवता होने के कारण बटबाबा की पूजा-अर्चना हर जाति और धर्म के लोग करते थे- चाहे वह हिन्दू हो या मूसलमान लेखक के अनुसार- “एकादशी पूर्णिया आदि पर्व त्योहारों पर उसकी पूजा भी होती- सिन्दूर-चंदन, अक्षत, बेल पत्र, धूप-दीप, पान-सुपारी से। वह देवता था हिन्दुओं का भी, मुसलमानों का भी।”3 लोक-जीवन का ऐसा गहरा संबंध रेणु के समकालीन कथाकारों की कहानियों में नहीं मिलता। पेड़-पौधे भी वरदान देते हैं। लोगों की मनोकामना पूरा करते हैं। गाँव की कुँवारी लड़की अपने जीवन-साथी चुनने के लिए मन्नत मानती है और पूरा होने पर उसे पूरा करती है। निरधन साहू की बेटी कुँवारी है। उसका नाम लछमनिया है। लेखक कहता है- “निरधन साहू की बेटी ‘लछमनिया’ रो आयी थी- “बाबा”! गाँव-मुहल्ला, टोला-पड़ोस तथा जाति-बिरदारी के लोग हँस रहे हैं। मैं इतनी बड़ी हो गयी, कोई दूल्हे का बाप एक हज़ार से नीचे तिलक की बात ही नहीं करता है। बाबू और घर की दशा तुमसे छिपी नहीं है। दुनिया के लिए तुम सूख गये हो, पर तुम्हारा प्रताप तो नहीं सूखा है बाबा! यदि किसी दूल्हे के बाप का मन फेर दो तो मैं आठ आने की मिठाई और नयी बाती जला दूँ।”4 लोगों की आस्था कितनी गहरी होती है। ‘तुम दुनिया के लिए सूख गये हो पर तुम्हारा प्रताप तो नहीं सूखा है’ यह भावबोध लोक को एक जगह संगठित होकर रहने, सुरक्षा और आत्मविश्वास का भाव भरता है। रेणु इस पहली ही कहानी में लोक-जीवन की ईमानदारी, विश्वास और प्रेम को अपनी लोक दृष्टि और पारंपरिक ज्ञान-बोध से चित्रण करते हैं। यह लोकशक्ति लोक-चेतना का अभिन्न अंग बन जाती है। छोटे-छोटे भाव एवं विचार इस कहानी को लोक-संवेद्य बनाते हैं। इसे भले ही अंधविश्वास कह सकते हैं। लेकिन लोक-जीवन में अंधविश्वास भी होता है जिसके माध्यम से मन की सीधी सरल बात प्रकट होती है।
रेणु को पेड़ की भौतिक आवश्यकता की पूर्ति के रूप में इस ‘बटबाबा’ के प्रति ग्रामीणों की आस्था-विश्वास को तोड़ना भी है। जब जलावन की कमी हो गयी तो इस सूखे बरगद के पेड़ को जमींदार अपने लोगों को काटने का आदेश देता है। आखिर सूखे पेड़ की उपयोगिता जलावन आदि में ही तो हो सकती है। सुबह-सुबह ही जमींदार साहब के हुक्म पाते ही उनके अमले-सिपाही चालीस-पचास मज़दूर लेकर ‘बटबाबा’ के पास आते हैं और धड़ाधड़ उसे काटने लगते हैं। इसे देखकर पूरा गाँव सहम जाता है। लोगों को ‘बटबाबा’ के प्रकोप का भय सताने लगता है। पेड़ आर्तनाद करता गिर पड़ता है। और फिर गाँव में कोलाहाल मच जाता है। बीमार चल रहा निरधन साहु पेड़ गिरने के धमाके से चिहुँक उठा- “आसमान से..... का गिरल रे लछमनि.....! अरे बाप!!”5 यह है रेणु की कहानियों के लोक-जीवन की संवेदना। यह यथार्थ हृदयग्राही और मानवीय संवेदना को झंकृत करनेवाला है। इस कहानी में देखा जा सकता है कि पेड़, पक्षी, पर्व-त्योहार, पूजा-अर्चना, कुँवारी-विवाहितों की मनौती, अनिष्ठ होने का भय, छठ-पूजा, मुंडन, शादी में आभूषण पहनकर बटबाबा को प्रणाम, वर-यात्रा, शव-यात्रा, भरी लाल माँग, धुली माँग, फूल-से कोमल बच्चे का माँ की गोद में किलकारी भरना, चिर-निद्रा में मग्न, नवजात शिशुओं का सोहर ‘गीत’ ये सब लोक-जीवन की गतिविधियाँ हैं। यह परिदृश्य रेणु की कहानियों में ही देखने को मिलता है। ‘बटबाबा’ कहानी तो एक छोटा-सा उदाहरण मात्र है।
‘सिरपंचमी का सगुन’ रेणु की भारतीय कृषि-जीवन के एक नए स्वरूप को उजागर करती है। यह कहानी गाँव के किसानों में खेती-बाड़ी करने, उसमें शुभ-अशुभ का ख्याल रखने की लोक-भावना को उद्घाटित करती है। कोई भी किसान अपना अहित नहीं चाहता है। खेती-किसानी भी भारतीय समाज में ‘यज्ञ’ समझी जाती है। इसकी शुरुआत पवित्र मन से की जाती है। यदि इसमें सगुन अच्छा रहा तो अच्छी फसल की आशा बलवती हो जाती है। और यदि अपसगुन हो जाए तो किसान साल भर उदास और निराश दिखता है। ‘सिरपंचमी का सगुन’ कहानी अपशगुन से आरंभ होती है। कालू कमार निहाई पर सिंघाय का फाल टेढ़ा कर देता है, जिससे उसका सगुन बिगड़ जाता है। उसके टेढ़े फाल को देखकर लुहसार में बैठे अन्य किसान भी चौंक उठते हैं। गाँव में हल जोतने का रस्म शुरू होने वाला है। यह काम सिरपंचमी (श्रीपंचमी) के दिन ही किया जाता है। कहानी के आरंभ में लेखक कहता है- “निहाई पर हथौड़े की आखिरी चोट कुछ ऐसी अस्वाभाविक आवाज़ में बजी कि लुहसार मे बैठे हुए सभी गृहस्थ अचकचा उठे। सभी की आँखें कालू कमार की निहाई पर एक ही साथ केंद्रित हो गयीं- यह क्या, टेढ़ा फाल! किसका फाल! सिंघाय का? क्या हुआ?..... ना दिहन्द गृहस्थ।”6
ऐसा कालू कमार ने इसलिए किया कि सिंघाय ने पाँच साल से उसे खैन नहीं दिया था। अगहन में भी चुटकी-भर धान नहीं दिया था। दरअसल गाँव में खेती-बाड़ी करने के अपने तरीक़े हैं। गाँव में किसानों के साथ भिन्न-भिन्न पेशे के कारीगर होते हैं। साल में एक बार खैन या कमाई दिया जाता है। उसी से इनका साल भर गुजर-बसर होता है। सिंघाय ने कालू कमार का फाल टेढ़ा कर दिया, क्योंकि उसे पारिश्रमिक नहीं मिली थी। इधर गाँव में यह विश्वास है कि कोई कमार या लुहार टेढ़े फाल को छू नहीं सकता। टेढ़े फाल का सीधा अर्थ है, पूरे गाँव भर का सगुन बिगड़ जाना। जाति की बड़ी सभा में टेढ़े फाल को ठीक करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। शहर के लुहार भी अब यह काम चुप्पा-चोरी नहीं करते।
यहाँ सिंरपंचमी का सगुन क्या है और इस दिन किसान क्या करते है? इसे थोड़ा समझ लेना चाहिए। लेखक के अनुसार- “सिरपंचमी के दिन सभी किसान अपने-अपने सगुन की बात सोचते हैं। उस दिन किसी से बेकार रार न हो, किसी की नज़र न लग जाए, कोई छींक न दे। लुहसार से लौटकर बैलों को नहलाकर सींग में तेल लगाया जाता है। हल के हरेस पर चावल के आटे की सफ़ेदी की जाती है। औरतें उस पर सिन्दूर से माँ लक्ष्मी के दोनों पैरों की उँगलियाँ अंकित करती हैं। गाँव से बाहर परती ज़मीन पर गाँव भर के किसान अपने हल-बैल और बाल-बच्चों के साथ जमा होते हैं। नयी खुरपी से सवा हाथ जमीन छीलकर केले के पत्ते पर अक्षत-दूध और केले का मोती-प्रसाद चढ़ाया जाता है। धूप-दीप देने के बाद हल में बैलों को जोतकर पूजा के स्थान से जुताई का श्रीगणेश किया जाता है। फाल की रेफ़ बीच में पड़ें, इसका ख्याल सभी किसान रखते हैं। अपने-अपने हलवाहों को सचेत कर देते हैं- बायें-बायें ज़रा दाहिनें! पाँच चक्कर दक्षिण से उत्तर और पाँच पूर्व से पश्चिम! जुताई के समय जिसका बैल मल-मूत्र त्याग करे, उसको खाद-पानी की कमी नहीं होगी इस साल की खेती में.....।”7 इस प्रकार किसान खेती की शुरूआत करते हैं। यह दिन उनके लिए शुभ होता है।
सिंघाय की पत्नी माधो की माँ ने बूढ़े रेलवे मिस्त्री से अपनी दु:ख-भरी कहानी सुनाई। मिस्त्री ने उसका फाल ठीक कर दिया। माधो की माँ फाल को सीधा हुआ देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ी। वह अपना सगुन बनाकर वापस घर लौटी। बूढ़ा रेलवे मिस्त्री को बदले में दूध-दही देकर चुकता किया। इसे लेकर गाँव वालों को काफ़ी अचरज होता है। कालू कमार ने अपने लुहसार में बात छेड़ी- “अब तो जनाना लोग फाल पिटवाने जाती है, इस गाँव की रेलवे के लुहार के यहाँ।”8 यह है लोक-जीवन में आने वाले संकट से उबरने का रास्ता और लोगों के हास्य-व्यंग्य भरी बातों का रस। वहीं सिंघाय बूढ़े रेलवे मिस्त्री के लुहसार से टेढ़ा फाल को ठीक कराकर लाने से माधो की माँ पर शक करता है। लेकिन इस शक का समाधान तुलसी के बिरवा और गोद में बेटा माधो लेकर कसम खाने के बाद होता है। तुलसी का पौधा दोनों के जीवन को किस प्रकार शंका से मुक्त करता है। लेखक कहता है- माधो की माँ खिलखिलाकर हँस पड़ी। बोली, “लेकिन तुमको बता देनी ही होगी। बोलो, फिर इस रास्ते पर पाँव नहीं दोगे माधो के बाबू! सिंघाय ने तुलसी का बिरवा हाथ में लिया। माधो को गोद में लेकर बोला, “बबुआ! तू फाल-खुरपी छोड़ सिलेट-पेंसिल धर!..... हम लोग बैल होकर रहे। बैल की बुद्धि।”9 सिरपंचमी का सगुन माधो की माँ अपनी होशियारी से बनाती है और गाँव के कोप-भाजन बनने से बच जाती है। वह भी गाँव के कुछ गिने-चुने लोगों के बीच हल चलाने का रस्म पूरा करती है। इस प्रकार गाँव भर का सगुन बन जाता है। सगुन बिगड़ने से किस प्रकार गाँव में हलचल मचती है, लोगों की चिंता बढ़ती है और गाँव की खेती-किसानी कितने शुभ तरीक़े से की जाती है, रेणु ने इस कहानी के माध्यम से यथार्थ चित्रण किया है। यही तो है लोक-जीवन की सच्ची तसवीर। शहरी सुशिक्षित जीवन से स्वतः ग्रामीण लोगों का जीवन अलग दिखाई पड़ता है। लेकिन यहाँ मानवीय संवेदना समाज और घर-परिवार को बिखरने नहीं देती। यह चेतना प्रेमचंद की कहानियों में भी है। ‘पंच परमेश्वर’ हो या ‘बड़े घर की बेटी’ तनाव, संघर्ष, गुस्सा, वैमनस्य सब प्रेम और सौहार्द्र से शांतिपूर्ण जीवन में बदल जाते हैं।
रेणु ग्रामीण जीवन की मानसिक संरचना को खूब अच्छी तरह से जानते थे। उसी तरह गाँव की भौगोलिक बनावट को समझते थे। जब वे गाँव और वहाँ के लोगों को कहानी का विषय बनाते थे, तो वहाँ के परिवेश, लोगों के तौर तरीके, उठने-बैठने, बातचीत की शैली को भी परखते थे और ग्रामीण जीवन के अंधकार में ज्ञान का दीप कैसे जले, उसमें परिवर्तन कैसे लाया जाए, वे इसको भी दृष्टि में रखकर लिखते थे। उनकी कहानी ‘पंचलाइट’ एक अद्भुत कहानी है। लोक-जीवन की व्यवस्था और उसके भीतर से सोच की कोई नयी बात कैसे प्रकट की जा सकती है इस सिचुएशन को पैदा करते थे। ‘पंचलाइट’ यद्यपि नये ज्ञान-विज्ञान का प्रतीक है, सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार का, जीवन में बदलाव लाने का संदेश है, बावजूद इसके कथानक की बुनावट लोकचेतना के धागे से हुई है। रेणु सबसे पहले गाँव, पंचलाइट, चट्टी और ‘पंचलाइट’ इनके बारे में जानकारी देते हैं। यह एक प्रकार से कहानी का प्रस्थान बिन्दु और कहानी के शीर्षक के अर्थ का खुलासा भी है। कहानी में प्रवेश करते ही लेखक कहता है- “पिछले पंद्रह महीने से दण्ड-जुरमाने के पैसे जमा करके महतो टोली के पंचों ने पेट्रोमैक्स खरीदा है इस बार रामनवमी के मेले में। गाँव में सब मिलाकर आठ पंचायतें हैं। हरेक जाति की अलग-अलग ‘सभाचट्टी’ है। सभी पंचायतों में दरी, जाजिम, सतरंजी और पेट्रोमैक्स है- पेट्रोमैक्स, जिसे गाँववाले पंचलाइट कहते हैं।”10 सदियों से भारतीय ग्रामीण समाज इसी तरह संगठित है। लोग अपनी-अपनी सभाचट्टी बनाकर रहते है। जातियों में टोले और मुहल्ले बँटे होते है। सभी जाति के लोगों के समाज में छोटे-छोटे विवादों को पंचायत के माध्यम से निपटाये जाते हैं। जिसके एवज में दोषी व्यक्ति से दंड वसूला जाता है। फिर उस पैसे से सभाचट्टी की ज़रूरत के सामान खरीदे जाते हैं। यह आँचलिक समाज की न्याय-प्रणाली है। पंचायती व्यवस्था में लेकिन यहाँ सब कुछ सीधे-सरल ढंग से नहीं होता है। एक जाति के टोले वाले अपने से बड़ी या छोटी जाति के टोलेवालों से बैर रखते हैं। एक दूसरे पर मौका पाते ही छींटाकशी करने से बाज नहीं आते। एक-दूसरे के विकास अथवा उन्नति देखकर जलते हैं। दूसरी जाति के लोगों को फूटी आँखों नहीं सुहाते। पेट्रोमैक्स लेकर महतो टोले के लोग जब गाँव घुसते हैं, उस वक्त का वर्णन इस प्रकार किया गया है- “मेले से सभी पंच दिन-दहाडे़ ही गाँव लौटे। सबसे आगे पंचायत का छड़ीदार पंचलाइट का डब्बा माथे पर लेकर और उसके पीछे सरदार दीवान और पंच वगैरह। गाँव के बाहर ही ब्राह्मण टोले के फुटंगी झा ने टोक दिया- “कितने में लालटेन खरीद हुआ महतो?”11 इसका जवाब पंच इस प्रकार देते हैं- “..... देखते नहीं हैं, पंचलैट है! बाभन टोली के लोग ऐसे ही ताब करते हैं। अपने घर की ढिबरी को बिजली-बत्ती कहेंगे और दूसरों के पंचलैट को लालटेन!”12
गाँव की कीर्तन-मंडली शाम को भजन-कीर्तन करने की ख़ुशी मना रही थी। पंचलैट की रोशनी में यह कीर्तन होना है। पुरुषों और औरतों की भी कीर्तन मंडली है। ख़ुशी में गुलरी की काकी गोसाई गीत गुनगुनाने लगी, लेकिन जब भजन-कीर्तन मंडली बैठती है और पेट्रोमैक्स जलाने की बात आती है तो सबके सब खामोश हो गये। पेट्रोमैक्स जलाने वाले व्यक्ति की तलाश अपनी जाति में खोजा गया पर कोई नहीं मिला। सभी पंचों के चेहरे उतर गये। महतो टोली के लोगों में कोई पेट्रोमैक्स जलाना नहीं जानता। यह खबर दूसरी सभाचट्टी वालों को जब मालूम पड़ा तो इनकी खूब हँसी उड़ाई। महतो टोली के लोगों की नाक कटने जैसी बात थी। उसी टोले में गोधन नामक युवक रहता है। वह बाहर शहर घूम-घामकर आया है। उसे पेट्रोमैक्स जलाना आता है। लेकिन महतो जाति के सरदार ने मुनरी से प्रेम करने और उसको देखकर फ़िल्मी गाना गाने के कारण जाति-समाज से बहिष्कृत कर दिया है। बाद में मुनरी की सहेली कनैली से पता चलता है कि गोधन पंचलाइट जलाना जानता है। उसकी खोज शुरू होती है। लेकिन गोधन पंचलाइट जलाने से इनकार कर देता है। पंच परेशान होते हैं। पंचलाइट की रोशनी में कीर्तन-करने का सपना मानो टूटने लगा था। छड़ीदार ने अपनी रोनी सूरत लेकर मुनरो की माँ गुलरी काकी से गोधन को समझाने और मनाने का निवेदन किया। कुछ देर बाद गोधन तैयार हो गया। पंचों में नयी आशा की रोशनी जगी। पेट्रोमैक्स को गोधन ने जला दिया। उसकी रोशनी में कीर्तन-मंडली के चेहरे चमकने लगे। आसपास के पेड़-पौधे भी चमकने लगे। गोधन के हाथों के इस चमत्कार को देखने के बाद सरदार खुश हो गया। उसने गोधन को बड़े प्यार से पास बुला कर कहा- “तुमने जाति की इज़्ज़त रखी है। तुम्हारे सात खून माफ़! खूब गाओ, सलीमा का गाना।”13 रेणु ने इस प्रकार गाँव की रूढ़ धारणाओं को तोड़ा है और प्रेम को समाज में जगह दिलायी है। खुलकर प्रेम करने की यह आधुनिक सोच वे पेट्रोमैक्स के माध्यम से पेश करते हैं। हिन्दी के सुप्रसिद्ध आलोचक भारत यायावर इस कहानी के संबंध में कहते हैं- “यह है आधुनिक दृष्टि के गाँव में प्रवेश से सामाजिक संबंधों का बदल जाना। जिन रीति-रिवाजों का पहले निषेध था, अब उनका सामाजिक परिवेश में सहजता से स्वीकृति का मिल जाना, रेणु की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इस कहानी में नाटकीयता का योग इसे दिलचस्प बना देता है।”14 यह कहानी लोक-संवेदना को विस्तार देती है।
लोक-अनुभव के अनंत धरातल हैं। लेखक को कौन-सा अनुभव लेखन के लिए प्रेरित कर जायेगा, इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। ग्रामीण जीवन में कई ऐसे प्रसंग, घटनाएँ और चरित्र होते हैं जो संवेदनशील कथाकार को अनायास ही आकृष्ट करते हैं। रेणु की कहानियों का लोक यथार्थ की भूमि पर निर्मित है। इसके चरित्र व्यक्ति के आसपास हमेशा मौजूद होते हैं। इन चरित्रों में ‘संवदिया’ कहानी का हरगोबिन, ‘रसूल मिस्त्री’ और ‘ठेस’ का सिरचन काफी प्रभावशाली चरित्र है। ‘संवदिया’ कहानी का हरगोबिन संवाद पहुँचाने का काम करता है। पहले सूचना तंत्र विकसित नहीं होने के कारण लोग एक गाँव का समाचार दूसरे गाँव के लोगों तक पहुँचाने का काम करते थे। इसे संवदिया कहा जाता है। रेणु ने इसी पृष्ठभूमि में मार्मिक कहानी लिखी है। साधन संपन्न परिवार की बड़ी बहुरिया का जीवन कष्ट में गुजर रहा है। कभी उसकी हवेली नौकरों-चाकरों से गुलज़ार रहती थी। तीन भाइयों के परिवार में यहाँ ख़ुशियों का माहौल था। लेकिन जब रैयतों ने ज़मीन पर दखल का दावा किया तो तीनों भाई गाँव छोड़कर बाहर शहर में जा बसे। बड़े भाई की मृत्यु के बाद घर में लड़ाई-झगड़े शुरू हुए। घर के सारे सामान बँटे। यहाँ तक कि बनारसी साड़ी के भी तीन टुकड़े हुए। बड़ी बहुरिया विधवा है। वह गाँव छोड़कर कहाँ जाती? उसका जीवन कष्ट और अभावों से गुजर रहा है। और यह कष्ट अब बर्दाश्त से बाहर हो गया है। अब उसके सामने एक ही रास्ता बचा है कि संवदिया के माध्यम से अपने मायके वालों को इस कष्ट की जानकारी दे ताकि यहाँ से मुक्ति मिल सके। उस गाँव में संवदिया का काम हरगोबिन करता है। बड़ी बहू जब उसे मायके संदेश ले जाने के लिए बुलाती है, तब पहले तो उसे इस बात को लेकर अचरज होता है कि आज भी संवदिया की ज़रूरत है। कारण कि आज गाँव-गाँव में डाकघर खुल रहा है। डाकिया चिट्ठी-पत्री पहुँचाने का काम करता है। बड़ी बहुरिया हरगोबिन को संवाद ले जाने की बात कबूल कराती है। वह संवाद ले जाने के लिए तैयार हो जाता है। लेकिन संवाद सुनाते समय वह सिसकती है। उसकी छलछलाती आँखों में हरगोबिन मानो डूब जाता है। संवाद सुनाते समय हरगोबिन पहली बार बड़ी हवेली की लक्ष्मी को इस तरह रोते हुए देखता है। जब बड़ी बहुरिया को सिसकते-रोते देखकर रहा नहीं गया तो हरगोबिन ने कहा- “बड़ी बहुरिया, दिल को कड़ा कीजिए।”15 इस बात पर मानो बड़ी बहुरिया की तकलीफों का बाँध टूट पड़ा। कहने लगी- “और कितना कड़ा करूँ दिल?..... माँ से कहना मैं भाई-भाभियों की नौकरी करके पेट पालूँगी। बच्चों के जूठन खाकर एक कोने में पड़ी रहूँगी, लेकिन यहाँ अब नहीं...... अब नहीं रह सकूँगी। ..... कहना, यदि माँ मुझे यहाँ से नहीं ले जायेगी तो मैं किसी दिन गले में घड़ा बाँधकर पोखरे में डूब मरूँगी।... बथुआ-साग खाकर कब तक जीऊँ? किसके लिए... किसके लिए?”16 यह है लोक-संवेदना एक नारी की पीड़ित जिन्दगी की बेचैनी से हृदय-फट कर बाहर आँधी-तूफान के झोंके की तरह निकलता छुपा-दबा हुआ दर्द।
हरगोबिन सहृदय है। संवाद कैसे कहना है उसे वर्षों का अनुभव है। बड़ी-बहुरिया की वेदना, दु:ख, आँसू से उसका मानो रोम-रोम कलपा है। संवाद लेकर बड़ी बहुरिया के मायके बिहंपुर पहुँचता है। उसके मन में बड़ी बहुरिया का संदेश कहा जाए या नहीं, यह द्वन्द्व चल रहा है। बड़ी बहुरिया का बड़ा भाई यद्यपि हरगोबिन को पहचान नहीं पाता। हरगोबिन उसके बड़े भाई को अपना परिचय स्वयं देता है। दीदी कैसी है, यह पूछे जाने पर वह ‘भगवान’ की कृपा से राजी-खुशी है, कहता है। बेटी का समाचार पाने के लिए माँ उससे पूछती है। फिर भी माँ उसे अपने घर लिवा लाने की इच्छा प्रकट करती है। क्योंकि उसका अब वहाँ कोई नहीं है। यह मानती है कि उसकी जो ज़मीन-जायदाद थी, वह तो चली गयी। इस पर हरगोबिन यह कहकर बड़ी बहुरिया की माँ को संतुष्ट कर देता है कि-“बड़ी बहुरिया।.... गाँव की लक्ष्मी गाँव छोड़कर बाहर कैसे जायेगी?”17 हरगोबिन बड़ी बहुरिया के परिवार के बिखरने की ख़बर को छुपाना चाहता है। गाँव की बदनामी को बाहर नहीं जाने देना चाहता। वह बिना संवाद कहे, वापस जलालगढ़ लौटता है। किराया खत्म होने पर पैदल ही अपने गाँव के लिए चल देता है। रास्ते में भूख-प्यास लगने के कारण गाँव के बाहर बेहोश होकर गिर पड़ता है। यह बात बड़ी-बहुरिया को जब मालूम होती है तो उसे उठाकर अपनी हवेली में लाती है। उसे होश आता है तो देखा “बड़ी बहुरिया उसे दूध पिला रही है। हरगोबिन ने धीरे से हाथ बढ़ाकर बड़ी-बहुरिया का पैर पकड़ लिया और निवेदन करने लगा- “बड़ी बहुरिया।... मुझे माफ करो। मैं तुम्हारा संवाद नहीं कह सका।..... तुम गाँव छोड़कर मत जाओ। तुमको कोई कष्ट नहीं होने दूँगा। मैं तुम्हारा बेटा। बड़ी बहुरिया, तुम्हारा सब काम करूँगा..... बोलो, बड़ी माँ तुम..... तुम गाँव छोड़कर चली तो नहीं जाओगी? बोलो!!”18 लोकजीवन की यह मार्मिक संवेदना रेणु की इस कहानी को अमर कर देती है। ऐसा सजीव और मानवीय संवेदना से भरा विनम्र एवं सेवा के लिए समर्पित पात्र हरगोबिन हिन्दी कथा साहित्य में दूसरा नहीं मिलेगा।
निष्कर्ष : रेणु लोक-जीवन के अद्वितीय कथाकार हैं। इनकी कहानियों में शहरी बाबू नहीं बल्कि खेतिहर किसान, महिला, युवा का जीवन बोलता है। कृषि-सभ्यता एवं संस्कृति की बहुविध छवियों को रूपानियत करती उनकी कहानियों में विसंगतियों, आर्थिक, सामाजिक, समस्याओं तथा मानवीय संवेदना का भी प्रकटीकरण हैं। साथ ही रेणु ने मनुष्य एवं प्रकृति के बीच के संघर्ष को भी उभारा है। अकाल, बाढ़ एवं महामारी से लड़ते हुए मनुष्य की पीड़ा का चित्रण है। उनकी कहानियों में सामूहिक जीवन अदम्य मनुष्य की दुर्दम्य जिजीविषा है। उस लोक-जीवन की गहराई, व्यापकता एवं इनके जितने भी पक्ष-विपक्ष हो सकते हैं, उन्होंने कहानियों में रचा है। इस मायने में वे हिन्दी के इकलौते कहानीकार हैं। उनकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। भाव, भाषा, अनुभूति, सामाजिकता की नवीनता इनकी कहानियों की विशेषता है। इनकी कहानियों में न तो भावो-विचारों का दोहराव मिलता है और न पात्रों का। हर कहानी अपने-अपने पात्र और रूप, रंग, गंध एवं स्वाद में अलग पहचान के साथ उपस्थित होती है। आँचलिक परिवेश कहानियों की रोचकता एवं पठनीयता को विशिष्टता प्रदान करती है।
रेणु की कहानियों का लोक-जीवन कृषि समाज और उसकी संस्कृति से निर्मित है। लोक संवेदना, सहजता, सरलता, कटुता एवं मधुरता का एक रसायन इन कहानियों में है।
इनमें लोकजीवन की अनेक विशेषताएँ एक साथ देखी जा सकती है। आस्था, विश्वास, मान्यताएँ एवं धारणाएँ इन कहानियों में रेणु ने सहजता एवं स्वाभाविकता के साथ प्रस्तुत किए हैं। रेणु कथा-लेखन में हमेशा नये कथ्य, शिल्प एवं भाषा का प्रयोग कर ऐसी कहानियों का सृजन करते हैं जो हिन्दी कथा-साहित्य में एक स्वतंत्र अस्तित्व और व्यक्तित्व ग्रहण करता है। उनके व्यक्तित्व और जीवन दृष्टि का परिचय कहानियाँ स्वयं देती हैं। लेकिन लेखक का अनुराग सदैव साधारण लोगों से बना रहता है। भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले पात्र इस प्रकार से उन्होंने रचे हैं, जिनकी किसी से कोई तुलना नहीं। ये अपने कर्म, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक अनुभव से कहानी को सजीवता प्रदान करते हैं।
यह सही है कि रेणु एक सामाजिक एवं राजनीतिक सक्रिय कार्यकर्ता थे। वे राजनीतिक जीवन से संन्यास लेकर साहित्यिक जीवन का वर्णन करते हैं। लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि उनकी कहानियों के माध्यम से उनके सामाजिक एवं राजनीतिक अनुभव की विविधता और वैचारिक मानवीय दृष्टि पाठकों को मिली। सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक कला, संगीत, नृत्य, फिल्म एवं कृषि क्षेत्र के नये-नये ज्ञान उनकी कहानियों में पहली बार आए। यदि इनकी कहानियों के चरित्रों पर प्रकाश डालें तो रेणु के ज्ञानात्मक विकास का अंदाजा लग जायेगा। इनकी कहानियों के पात्र छोटे-छोटे किसान हैं, साइकिल बनाने वाले मिस्त्री हैं, रसप्रिया गाने वाला पंचकौड़ी मृदंगिया है, हिरामन गाड़ीवान है तो नौटंकी में नाचने-गाने वाली हीराबाई है। ये न सिर्फ रेणु की कहानियों के दुर्लभ चरित्र हैं बल्कि ये अपने पेशा और स्वभाव में हिन्दी कथा साहित्य में अद्वितीय हैं। इनके माध्यम से मानव जीवन की मार्मिकता, प्रेम, अभाव, पीड़ा, संघर्ष, न्याय-अन्याय, भूख, गरीबी, बेरोज़गारी जैसी मानवीय स्थितियों का चित्रण हुआ है। फिर रेणु का कथा कहने का अपना विशिष्ट अंदाज है। जो उन्हें अपने समकालीनों में सर्वोच्च स्थान एवं सम्मान देता है।
1. यायावर, भारत: ‘रेणु का है अन्दाजें-बयाँ और’, राजकमल प्रकाशन प्रा॰ लि॰, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली-02, पहला संस्करण 2014, पृ॰ 20-21
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
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