सार्क की प्रासंगिकता और भारत की भूमिका: एक विश्लेषण
निलेश कुमार त्रिपाठी
दक्षिण एशियाई देशो के भीतर होने वाली सभी घटनाएँ भारत को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है, जैसे-नेपाल, भूटान, श्रीलंका और पाकिस्तान में होने वाली सभी घटनाएँ भारत के लिए महत्व रखती है। भारत में 1947 से 1999 तक कांग्रेस पार्टी की सरकार रही, वही 1999 से 2004 तक भाजपा और पुनः 2004 से 2014 तक कांग्रेस पार्टी की सरकार रहीं जिसका नेतृत्व डाॅ॰ मनमोहन सिंह ने किया। 2014 से वर्तमान तक भाजपा समर्थित प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सत्ता में विराजमान है।
सार्क स्थापना काल से ही संदेहपूर्ण स्थिति में रहा है। सार्क की स्थापना के पूर्व दक्षिण एशियाई देशो के बीच काफी मतभेद देखने को मिले। 1979 में बंग्लादेश के प्रधानमंत्री जियाउल रहमान द्वारा इसके गठन का प्रस्ताव दिया गया। जिसमें भारत की प्रतिक्रिया नकारात्मक रहीं अन्य देश यह जानते थे कि दक्षिण एशिया की 70 प्रतिशत आबादी और संसाधन एवं मजबूत अर्थव्यवस्था भारत के पास ही है और इसके हामी भरने के बाद सार्क अस्तित्व में आ सकता है। पूर्व में पाकिस्तान ने बंग्लादेश को दक्षेश का हिस्सा नहीं बनाने का विरोध किया हालांकि मतभेद के बावजूद 08 दिसम्बर 1985 को ढ़ाका सम्मेलन में दक्षेश के गठन का प्रस्ताव पारित हुआ, जिसका उद्देष्य दक्षिण एशियाई देशो के लोगों का जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विकास को तीव्र करना, एक दूसरे की समस्याओं को समझना तथा अंतर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय संगठनों में समान उद्देष्यों के लिए सहयोग करना है। दक्षेश के गठन के साथ यह कई सफलताओं को हासिल किया जिसमें भारत की भूमिका अहम मानी जाती है। डाॅ॰ मनमोनह सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत की विदेश नीति ने सार्क को विकसित एवं पल्लवित करने के लिए बहुत प्रयास किया, जिसका श्रेय डाॅ॰ मनमोहन सिंह को जाता है।
डाॅ॰ मनमोहन सिंह के शासन काल की बात करें तो उनके द्वारा सार्क के प्रति दिलचस्पी एवं सक्रियता बड़े रूप में दिखाई दी हालांकि भारत का पाकिस्तान के साथ बिगरते संबंध और आतंकवाद की समस्या, बंग्लादेश की भारत के साथ सीमा विवाद, श्रीलंका में नृजातीय समस्या तथा नेपाल में माओवाद की समस्या एवं प्रजातंत्र बहाली को लेकर आंदोलन ने कहीं ना कहीं सार्क के उद्देष्य को असंतुलित करने का कार्य किया। इसके बावजूद डाॅ॰ मनमोहन सिंह ने सार्क एवं दक्षिण एशियाई देशो के साथ वैचारिक संबंध बनाये रखा। डाॅ॰ मनमोहन सिंह के अथक प्रयास से जनवरी 2006 में सार्क देशो के साथ व्यापार संबंधित नीति साफ्टा को लागू किया गया। 2007 में सार्क के चैदहवीं बैठक में भारत के अथक प्रयास से अफगनिस्तान को आठवां सदस्य देश के रूप में सदस्यता प्रदान की गयी तो वहीं 2001-2010 तक सार्क द्वारा दक्षेश बाल अधिकारों का दशक घोसित किया गया। डाॅ॰ मनमोहन सिंह के ही अथक प्रयास से दक्षिण एशियाई विकास कोश की स्थापना की गयी जिसमें 90 प्रतिशत राशि भारत का है। डाॅ॰ मनमोहन सिंह अपने दस वर्षो के कार्यकाल में 2005 में बंग्लादेश 2008 में श्रीलंका, 2007 में भारत, 2010 में भूटान, 2011 में मालद्वीव के सार्क बैठकों में भाग लेकर यह स्पष्ट किया कि भारत सार्क के प्रति जिम्मेवार है। भारत पाकिस्तान के बिगड़ते संबंध के बाद भी सार्क मंचों पर सामिल होकर यह बताया कि भारत दक्षिण एशियाई देशो के बीच आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिए तत्पर है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल की बात करें तो दक्षेश के प्रति उनका दृष्टिकोण कहीं ना कहीं उसके प्रासंगिकता पर सवाल पैदा कर दिया है। बतौर प्रधानमंत्री 2014 में नेपाल में आयोजित दक्षेश शिखर सम्मेलन में पहली बार प्रतिनिधित्व करते हुए दक्षेश सदस्य देशो के राष्ट्रध्यक्ष को संबोधित करते हुए यह कहा कि ‘‘आतंक मुक्त माहौल में ही सार्क की पूरी क्षमता का इस्तेमाल किया जा सकता है, जिसका स्पष्ट इशारा पाकिस्तान के तरफ था।’’ हालांकि इस सम्मेलन में भारत के सहयोग से सार्क देशो के बीच ऊर्जा सहयोग समझौता 2014, यात्री और सामान वाहन यातायात नियमन की समझौता, क्षेत्रीय रेलवे समझौता पर हस्ताक्षर किया गया। इस बैठक के दौरान उन्होंने अफगनिस्तान, भूटान, बंग्लादेश ,श्रीलंका के राष्ट्रध्यक्ष के साथ अलग-अलग बैठक की और पाकिस्तान से दूरी बनाये रखा। 2016 में पाकिस्तान में आहूत होने वाले सार्क सम्मेलन का भारत द्वारा विरोध फलस्वरूप सार्क सम्मेलन को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया गया, वहीं 2018 में पाकिस्तान में होने वाले सार्क बैठक में भारत का बहिस्कार फलस्वरूप बैठक स्थगित कर दिया गया। एक तरफ नरेन्द्र मोदी ने स्पष्ट कर दिया कि भारत आतंकवाद को कभी बर्दास्त नहीं कर सकता, जब तक दक्षिण एशिया में आतंकवादी घटनाएँ होती रहेगी। अब यह देखा जा रहा है कि सार्क देशो के बीच कुछ विद्यमान समस्याएँ सार्क की प्रासंगिकता पर सवाल पैदा कर दिया है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही चीन का श्रीलंका, नेपाल, पाकिस्तान जैसे देशो में ज्यादा सक्रिय होना और आर्थिक मदद से सार्क देशो के बीच विरोध की स्थिति उत्पन्न हो रही है, जिसके चलते सार्क जैसे मंच आपसी वैमनस्व को उजागर होने का केन्द्र बन गया है, हालांकि नरेन्द्र मोदी ने श्रीलंका में आयी आर्थिक संकट को उबारने के लिए हरसंभव आर्थिक मदद एवं राजनीतिक सहयोग देने का कार्य किया। आज सार्क देशो द्वारा सार्क बैठकों का बहिस्कार किया जाना सार्क को दिशाहीन करना है। भारत द्वारा अफगनिस्तान में नवगठित तालिबानी सरकार को आर्थिक मदद पहुँचाने से भारत की गरिमा बढ़ी है, मगर सार्क जैसे मंच पर दक्षिण एशियाई देशो के साथ मंच साझा करना भारत के लिए मुश्किल हो रहा है।
सार्क के अस्तित्व एवं प्रासंगिकता की अगर बात करें तो यह स्पष्ट है कि डाॅ॰ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में व्यापारिक दृश्टिकोण से सार्क देशो के बीच व्यापार वाणिज्य में विशेष प्रगति देखी गयी। डाॅ॰ मनमोहन सिंह ने सार्क देशो के बीच साफ्टा नीति को मजबूती से लागु करने की पहल की जिसमें वे सफल भी हुए। सार्क की स्थापना का उद्देष्य आठ देशो के बीच क्षेत्रीय सहयोग स्थापित करना था जिसमें पाकिस्तान, भूटान, भारत तथा ढ़ाका जैसे देश को विशिष्ट निकाय के संचालन की जिम्मेवारी दी गयी थी जिसमें सार्क मध्यस्थता परिशद् को पाकिस्तान, सार्क विकास कोश-भूटान, दक्षिण एशियाई विश्व बैंक की अध्यक्षता ,भारत तथा दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय मानक संगठन की जिम्मेवारी ढ़ाका को प्रदान की गयी थी। भारत और सार्क मंचों के सभी देशो के साथ डाॅ॰ मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक काफी सहयोगात्मक रूप से देखा गया लेकिन भारत-पाकिस्तान के बीच संघर्षों के तनाव के चलते सार्क की संभावनाओं पर ग्रहण लग गया है। दो वर्षो पर होने वाले सार्क सदस्यों की बैठक 2016 के बाद से एक बार भी आयोजित नहीं किया जाना कहीं न कहीं सार्क के उद्देष्यों को खत्म करने का कार्य है। साथ ही सार्क देशो के बीच मुक्त व्यापार समझौता पर भी ग्रहण लग गया। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह आशा जगी थी कि सार्क जैसे मंच अपनी महत्वपूर्ण भूमिका में दिखेगा लेकिन पाकिस्तान के साथ खराब होते संबंध, नेपाल से सीमा विवाद व श्रीलंका में उभरते आर्थिक संकट तथा चीन की श्रीलंका में दखल अंदाजी तथा वहाँ विद्रोह के कारण के साथ-साथ बंग्लादेश के शरणार्थियों की समस्या तथा अफगनिस्तान में तालिबानी सरकार के मान्यता को लेकर कहीं न कहीं भारत सार्क जैसे मंच से अपनी दूरी बना रहा है।
आज मोदी सरकार द्वारा पड़ोसी प्रथम की नीति पर कार्य किया जा रहा है जिसमें सीधे सीधे भारत अपने पड़ोसी देश के साथ सारे संबंध स्थापित कर रहा है। इसके अलावे यह भी देखा जा रहा है कि श्रीलंका की खाद्य समस्या, उसका दिवालियापन होना , अफगनिस्तान में सत्ता परिवर्तन और तालिबानी सत्ता स्थापित होना तथा नेपाल द्वारा कालापानी, लिपुलेख जैसे सीमा विवाद को जन्म देने के कारण भारत ने स्वयं अपने स्तर सारी समस्याओं को हल करने का प्रयास है। आज भारत सार्क से ज्यादा विमस्टेक में अपनी दिलचस्पी दिखा रहा है उसका सीधा श्रेय पाकिस्तान को जाता है। भारत को यह समझने की जरूरत है कि सार्क एवं संगठन के रूप में ऐतिहासिक, समकालीन रूप से देशो की एक संगठन के रूप में ऐतिहासिक, समकालीन रूप से देशो की दक्षिण एशियाई पहचान को दर्शाया है। यह प्राकृतिक रूप से दक्षिण एशियाई पहचान को दर्शाता है। यह प्राकृतिक रूप से बनी भौगोलिक पहचान समान रूप से एक सांस्कृतिक, भाषाई, धार्मिक समानता है जो दक्षिण एशिया की पहचान दिलाती है। आज भारत की सबसे बड़ी जिम्मेवारी है कि वह सार्क को मजबूत स्थिति में पहचान दिलाने के लिए कोई न कोई सार्थक कदम उठाये। दक्षिण एशिया के लोग दुनिया की आबादी का एक चैथाई है उनलोगों के बीच भी आपसी सहयोग तथा विचारों का आदान-प्रदान होना चाहिए जिसमें भारत की भूमिका सबसे बड़ी हो सकती है। आज सार्क के बंद पड़े सम्मेलन की शुरुआत होनी चाहिए जिसमें सार्क देशो के अनुसंधान पर समग्र रूप से सार्क देशो का सहयोग लिया जाना चाहिए। आज भारत की पहल पर भारत-ढ़ाका और नेपाल के बीच विद्युत आपूर्ति का सहयोग समझौता काबीले तारीफ है अगर यह कार्य सार्क जैसे मंचों से संपादित होता तो उसका संदेश दुनिया के अन्य मंचों की तरफ जाता है। आज सार्क संगठन का आदर्श वाक्य ‘‘शांति और समृद्धि के लिए गहरा एकीकरन’’ है जिसमे सार्क अपने उद्देष्य से भटक गया है, जिसको सही दिशा में लाने का पहल भारत ही कर सकता है। सार्क के मंचों पर आतंकवाद, भारत-पाक, श्रीलंका, नेपाल, बंग्लादेश के बीच पनपे आपसी वैमनस्य को ठीक करने के लिए बड़े-बड़े प्रेक्षक देशो को आमंत्रित कर उस समस्या का समाधान संप्रभुता का स्थान से परे रखकर किया जा सकता है। आज भारत विश्व की तीसरी शक्ति बन गयी है। जिसके चलते सार्क के सभी छोटे सदस्य देश भारत की ओर बड़ी उम्मीद से देख रहे है हालांकि भारत कोविड-19 हो या श्रीलंका में खाद्य संकट तथा विद्रोह ,नेपाल में राजनीतिक संकट हो या अफगनिस्तान में सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ खाद्य संकट सभी जगह अपनी मजबूत कदम तथा सहयोग ने भारत को महान बनाया है। भारत का सभी पड़ोसी देश पाकिस्तान को छोड़कर सबके साथ सहयोग पूर्ण संबंध संचालित हो रहे है मगर सार्क जैसे मंच आज मृतप्रायः बनकर सार्क के प्रासंगिकता पर बड़े सवाल पैदा कर रहा है।
भारत आज ऐसी स्थिति में है कि सार्क मतलब भारत और भारत मतलब सार्क बन गया है। आज पाकिस्तान में अस्थिर सरकार, अफगनिस्तान में प्रजातंत्र एवं सरकार की मान्यता प्राप्त करने के लिए संघर्श, नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता, श्रीलंका का दिवालियापन होना यह साबित करता है कि सार्क पूरी तरह से निरीह और निश्प्राय हो गया है। आज भारत का झुकाव ‘‘एक्ट ईस्ट पाॅलिसी’’ पर ज्यादा दिख रहा है। भारत द्वारा बिमस्टेक के बैठक में मालद्वीव तथा अफगनिस्तान को आमंत्रित करना यह संदेश देता है कि भारत पाकिस्तान को छोड़कर अन्य सार्क देशो को इस मंच में शामिल करना चाहता है। इस तरह से यह कहा जा सकता है कि भारत कहीं ना कहीं सार्क का विकल्प तलाश रहा है क्योंकि भारत यह जानता है कि दक्षेश देशो में पाकिस्तान, बंग्लादेश धार्मिक कट्टरवाद के सहारे चल रहे है, भूटान से भारत के अच्छे संबंध है, नेपाल के साथ बेटी-रोटी के संबंध होने के बाद भी यह भारत के लिए नाक का बाल बनते जा रहा है। श्रीलंका में नृजातीय संबंध के साथ-साथ आर्थिक संकट भारत के लिए सरदर्द बना हुआ है, हालांकि अफगनिस्तान को लेकर नरेन्द्र मोदी कूटनीतिक संबंध स्थापित करने में लगे हुए है। भारत द्वारा अफगनिस्तान को आर्थिक मदद के साथ-साथ मानवीय संबंध भी संचालित किये जा रहे है। इस सभी परिस्थितियों में सार्क जैसे मंच को मजबूत करने के लिए भारत को हरसंभव प्रयास करना होगा नहीं तो दक्षेस के अन्य सभी छोटे देश आर्थिक संकट एवं राजनीतिक संकट के कारण सार्क के उद्देष्य को कभी प्राप्त नहीं कर सकते है। अतः सार्क के अन्य देशो से अपेक्षा होगी कि आपसी विवाद को दरकिनार करते हुए दक्षेस को बचाने का प्रयास करें जिसमें भारत की भूमिका सर्वाधिक मानी जायेगी।
निष्कर्ष –
सार्क आज उस चैराहे पर खड़ा है जहाँ से वह अपने उद्देष्यों एवं औचित्यों से भटक गया है। सार्क की स्थापना क्षेत्रीय सहयोग के लिए की गयी थी, जो आज आतंकवाद, उग्रवाद, आर्थिक संकट तथा चीन के मकरजाल में फँसने के कारण समाप्ति की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहा है। आज नेपाल की राजनीतिक संकट, श्रीलंका तथा पाकिस्तान का दिवालिया होने के करीब पहुँचना एवं अफगनिस्तान में एक मान्यता प्राप्त सरकार का नहीं होने के साथ भारत का चुप्पी साधना कहीं ना कहीं सार्क के अस्तित्व पर संकट के बादल छा रहे है। यह दो परिस्थिति में देखा जा सकता है कि पाकिस्तान और नेपाल द्वारा चीन को सार्क का सदस्य बनाने का प्रस्ताव किये जाने पर भारत का नाराज होना लाजिमी है, क्योंकि चीन मालद्वीव में अपना पैठ बना रहा है। अफगनिस्तान के तालिबानी सरकार को मान्यता प्रदान कर रहा है वहीं पाकिस्तान को आर्थिक मदद से भारत हीं नहीं अमेरिका जैसा महाशक्ति भी चीन को कड़े निगाहों से देख रहा है। दूसरी तरफ यह देखा जाय भारत यह सोंच रहा है कि सार्क जब भारत के भरोसे है तो क्यों नहीं भारत और पड़ोसी देशो के साथ वन टू वन बैठक कर अपने संबंधों को प्रगाढ़ किया जाय इसलिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पड़ोसी प्रथम की नीति के आधार पर दक्षिण एशियाई देशों के साथ संबंध प्रगाढ़ कर रहे है क्योंकि वह जानते है कि दक्षेस के भरोसे चीन को मात नहीं दिया जा सकता।
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निलेश कुमार त्रिपाठी
मंगलायतन विश्वविद्यालय
अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश)
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