स्कूल
में
कई
दिनों
से
चर्चा
चल
रही
थी
कि
रागिनी
अक्सर
स्कूल
नहीं
आती
है।
घर
स्कूल
के
नजदीक
होने
के
बावजूद
स्कूल
में
न
आना
सभी
को
खटकता
था।
महीने
में
अगर
वह
चार-पांच
दिन
आ
जाए
तो
भी
बहुत
बड़ी
बात
मानी
जाती।
कक्षा
नौ-दस में
मेरा
जाना
नहीं
हो
पाता
था,
इसलिए
केवल
साथियों
की
बातें
सुनकर
रह
जाता।
शायद
अक्टूबर
महीने
की
बात
होगी।
स्कूल
यूनिफार्म
में
लिपटी
दुबली
और
पीली
काया
एक
औरत
के
साथ
दिखी।
धंसी
हुई
आँखों
वाली
उस
काया
को
अगर
हड्डियों
की
माला
कहे
तो
कोई
अतिशयोक्ति
नहीं
होगी।
पूछने
पर
पता
चला
कि
यही
रागिनी
है।
उसकी
शारीरिक
कमजोरी
को
देख
उसी
वक्त
सहानुभूति
हो
गई।
रागिनी
के
माता-पिता
नहीं
थे।
जो
औरत
उसे
स्कूल
छोड़ने
आई,
वह
उसकी
मौसी
थी।
वह
अपनी
बहन
के
साथ
मौसी
के
घर
पर
ही
रहती
थी।
कमठाने
पर
काम
करने
वाला
रागिनी
की
मौसी
का
परिवार
बड़ी
मुश्किल
से
चल
पाता
था।
लो
ब्लड
प्रेशर
के
चलते
रागिनी
अक्सर
अचेत
हो
जाती।
बीमार
और
कमजोर
काया
के
बावजूद
स्कूल
में
कम
आने
वाली
रागिनी
पढ़ने
में
ठीक
थी।
यह
बच्ची
बीमारी
और
गरीबी
के
चलते
कहीं
स्कूल
न
छोड़
दे,
इसलिए
मदद
करने
की
इच्छा
हुई।
पर
झिझक
बहुत
थी,
क्योंकि
नए
मास्टर
द्वारा
किशोर
बालिका
को
सहायता
देना
कई
तरह
के
संदेह
खड़े
कर
देता
है।
और
अगर
एक
ही
विद्यार्थी
की
मदद
करें
तो
भी
परेशानी
का
कारण
बन
जाता
है।
यहाँ
हर
तीसरा
बच्चा
जरूरत
का
हकदार
दिखता
है।
ऐसे
में
सभी
की
मदद
के
लिए
संसाधन
उपलब्ध
करवाना
एक
बड़ी
चुनौती
थी।
दो-तीन
बार
से
ज्यादा
रागिनी
के
परिवार
की
मदद
में
नहीं
कर
पाया।
नई
बिल्डिंग
में
स्कूल
स्थापित
होने
के
बाद
अब
रागिनी
भी
कक्षा
10 में थी। वह
कोशिश
करती
कि
रोज
स्कूल
आए।इस
जोश
के
चलते
कई
बार
स्कूल
में
ही
बीमार
हो
गई।
हिस्टीरिया
के
दौरे
भी
उस
पर
पड़ते।
कोई
कहता
कि
इसे
चुड़ैल
लग
गई
तो
कोई
भूत
को
दोषी
ठहराता।
कुछ
लोग
टोने-टोटके भी
करते।
ऐसे
करते-करते दीपावली
की
छुट्टियाँ
आ
गई।
छुट्टियों
के
बाद
स्कूल
पहुँचने
पर
मालूम
चला
कि
रागिनी
मर
गई
है।
बेचैनी
के
चलते
पूरे
दिन
काम
में
मन
नहीं
लगा।
रागिनी
की
मौत
के
कारणों
की
तलाश
करता
'मैलाआँचल' उपन्यास
के
पात्र
डॉ.
प्रशांत
की
उस
लाइन
को
याद
करता
रहा
जो
कहती
है
कि,“मेरीगंज
की
असल
समस्या
मलेरिया
या
काला
हाजरा
नहीं,
बल्कि
गरीबी
और
जहालत
है।”
ठीक
इसी
तरह
मनोहरगढ़
क्षेत्र
की
भी
मुख्य
समस्या
गरीबी
और
जहालत
है।
अपनी
निष्क्रियता
को
लगातार
गालियाँ
बकता
रहा।
जब
जी
भर
गया
तो
समाधान
खोजने
की
ओर
चल
दिया।
मैं
एक
ऐसी
असफल
खोज
की
ओर
बढ़
चला
जिसका
समाधान
बहुत
मुश्किल
था।
डॉ.
माणिक
ने
एक
दिन
बताया
कि
मुंबई
में
रहने
वाले
महेंद्र
मेहता
जरूरतमंदों
को
मदद
देने
के
लिए
अंत्योदय
फाउंडेशन
नामक
एनजीओ
चलाते
हैं
जिसके
माध्यम
से
जरूरतमंद
क्षेत्रों
के
सरकारी
स्कूलों
को
कपड़े,
खिलौने
और
किताबें
उपलब्ध
करवाते
हैं।
महेंद्र
जी
से
संपर्क
करके
उनके
यहाँ
से
सामग्री
मंगवा
कर
लोगों
में
बाँटने
का
काम
किया।कुछ
साथी
शिक्षकों
के
सहयोग
से
थोड़ी
राशि
भी
इकट्ठी
कर
जरूरतमंद
बच्चों
तक
सामग्री
पहुँचायी।
पर
यह
प्रयास
ज्यादा
लंबे
समय
तक
नहीं
चल
पाया।
जरूरतमंदों
की
तादाद
और
जरूरतें
इतनी
ज्यादा
थी
कि
नौकरी
में
रहते
हुए
यह
कार्य
करना
मेरे
लिए
असंभव
जान
पड़ा।
हार
मान
कर
हाथ-पैर
मारना
बंद
कर
दिया।
जरूरतमंद
के
सामने
आते
ही
आंखें
बंद
करना
शुरू
कर
दिया।
ऐसे
‘शुतुरमुर्गी टोटके'
से
अपनी
जान
बचाई।
प्रतापगढ़
का
नीमच
नाका
बार-बार
आँखों
के
सामने
आता
है।
कक्षा
में
खड़े
होकर
धारा
प्रवाह
तरीके
से
पढ़ाते
वक्त
विद्यार्थियों
से
कहता
कि
अगर
कोई
नीमच
नाके
पर
दिखा
तो
मुझसे
बुरा
कोई
नहीं,
क्योंकि
अब
तुम्हें
पढ़
लिखकर
बड़े
अफसर
बनने
की
ओर
आगे
बढ़ना
होगा।
यह
भाषण
क्लास
तक
तो
खूब
असर
करता,
पर विविध बौद्धिक
क्षमताओं
वाले
विद्यार्थियों,
पारिवारिक
जरूरतों
और
बेरोजगारों
की
भीड़
के
आगे
दम
तोड़
गया।
‘भाषण से राशन
नहीं
मिलता,' यह
पंक्ति
अब
समझ
में
आई।
जिसके
पिता
लकवे
में
पड़े
हैं।
कोई
दूसरा
रिश्तेदार
मदद
के
लिए
नहीं
है
और
रात
भर
रोजड़ों
से
खेत
की
रखवाली
करना,
इन
सब
चुनौतियों
को
नजरअंदाज
करते
हुए
पढ़ना
कारु
लाल
के
लिए
चोचला
था।
जब
खेती-बाड़ी का
काम
नहीं
होता
तो
वह
नीमच
नाके
पर
हाथ
में
टिफिन
लिए
खड़ा
मिलता।
मैं
उससे
नजर
बचाकर
‘ज्ञान झाड़ने' स्कूल
निकल
जाता।
बौद्धिक
रूप
से
औसत
और
शारीरिक
रूप
से
मजबूत
दिलीप
को
विधवा
माँका
की
मदद
करना
इतना
जरूरी
लगा
कि
वह
12वीं के तुरंत
बाद
कमठाने
में
काम
करने
के
लिए
जोधपुर
चला
गया।
जब
भी
वह
घर
आता।
नीमच
नाके
पर
अस्थाई
दिहाड़ी
मजदूरी
के
लिए
खड़ा
दिखता।
12वीं में पढ़ने वाले नारायण लाल के पिता की मृत्यु क्या हुई, वह चारों तरफ से असहाय हो गया। लॉकडाउन के समय चना फैक्ट्री में काम करने के लिए मजबूर हुआ और इसके तुरंत बाद परीक्षा में बैठा। नतीजा क्या रहा होगा, आप अनुमान लगा सकते हैं। फैक्ट्री की नौकरी छोड़कर योगेश्वर महादेव झरने के पास खोमचा लगाया। स्कूल के गार्डन में लगे गेंदे के फूल का एक टोकरा निशुल्क तोड़कर बेचने का काम भी किया। पर उसका धंधा चल नहीं पाया। थक हार कर उसने भी नारा लगाया ‘नीमच नाका जिंदाबाद।' इनके अलावा भी कई पूर्व विद्यार्थी नीमच नाके पर हाथ में टिफिन लिए जिंदगी के जुए में जुते हुए है। उनके हाथों में लपके टिफिन मुझ पर अट्टहास करते कहते हैं, “ओयमास्टर! सुन, जिम्मेदारियों का बोझ ज्ञान की अकड़ निकाल देता है।' अब समझ में आया कि नीमच नाका सपनों को रोककर जिम्मेदारियों को आगे बढ़ाने का स्थान है। सुना था 1857 की क्रांति में नीमच की भी भूमिका रही थी, क्या नीमच नाके से भी कोई क्रांति शुरू होगी? नाके से भी क्रांतिकारी गुजरेंगे?
प्रतापगढ़ को बसावट और भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर दो भागों में बाँट सकते हैं, एक तो आदिवासी बहुल क्षेत्र जो उबड़-खाबड़ पठारी क्षेत्र में रहता है और दूसरा सामान्य समुदाय जो मालवा की लगभग समतल, उपजाऊ जमीन से जुड़ा हुआ है। इस दूसरे क्षेत्र में लगभग हर समुदाय के लोग मिल जाते हैं। जहाँ अन्य समुदाय के लोग शिक्षा के साथ-साथ व्यापार में भी अच्छी खासी पकड़ बनाए हुए हैं, वहीं मुस्लिम समुदाय अभी भी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा है। कभी-कभार अकबर भाई की मोटरसाइकिल की दुकान पर बैठ जाता था। वहाँ पर काम करने वाले लड़कों से उस क्षेत्र के बारे में परिचय प्राप्त हुआ। खाली समय में बसाड़, गादोला, चनिया खेड़ी या यूं कहे तो नीमच-मंदसौर से सटे प्रतापगढ़ के क्षेत्रों को देखने निकल जाया करता। इस क्षेत्र के मुस्लिम बच्चों को बहुत कम तालीम मिल पाई है। इसका कारण परिवार वालों की उदासीनता प्रमुख है। “पढ़ लिख कर क्या करेंगे? धंधा ही करना है तो क्यों न सारा समय धंधे में लगाया जाए। या फिर खेती-बाड़ी में दिल लगाकर काम करो, पेट भरने के लिए यह काफी है।” ऐसे वाक्य हर जगह सुनने को मिलते थे। सोना उगलती मालवा की यह जमीन गन्ना, अफीम, चना, गेहूँ और हर प्रकार की सब्जी का खजाना है। पर शिक्षा के प्रति उदासीनता व्यक्ति की वैज्ञानिक, तार्किक और बौद्धिक समझ को प्रभावित करती है। कई तरह के पूर्वाग्रह इस क्षेत्र में घर किए हुए हैं। अब देखने में आ रहा है कि नई पीढ़ी अपने अधिकारों और पिछड़ेपन के कारणों को लेकर बहुत सतर्क हुई है। राजकीय सेवाओं में जाने के साथ-साथ अच्छे व्यापारी भी इस समुदाय के लोग बन रहे हैं। जैसी विविधता हर समुदाय में पाई जाती है, वैसी ही विविधता इस समुदाय के काम धंधों, धार्मिक मान्यताओं, वैचारिक धारणाओं में देखी जा सकती है।
स्वयंसेवी संस्थाओं को लेकर पहले से कई तरह के पूर्वाग्रह मौजूद थे। इन पूर्वाग्रहों का निशाना अजीम प्रेमजी फाउंडेशन भी बना। इस कारण इस संस्था को भी दूसरी संस्था की तरह ही हिकारत की नजर से देखता था। अजीम प्रेमजी फाउंडेशन शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य कर रहा है, उसकी थोड़ी बहुत जानकारी मित्रों से प्राप्त हो चुकी थी। जॉइनिंग के पहले वर्ष दिसंबर महीने में फाउंडेशन के रिसोर्स पर्सन जफर अली से प्रिंसिपल साहब ने मुलाकात कराई। जफर भाई बहुत सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उनसे जब थोड़ी बातचीत की तो फाउंडेशन के कार्य करने के तरीके और उसके सकारात्मक परिणामों के बारे में जान पाया। इस संस्था के सभी सदस्य बहुत ज़हीन और तार्किक हैं। फाउंडेशन के वर्तमान जिला प्रभारी दशरथपारीक कुशल प्रशासक है। उदयपुर में जो शोधार्थी मंडली छूट गई थी, उसकी कमी जफर भाई और उनकी टीम के सदस्य मनीष, वीरेंद्र, सद्दाम हुसैन, राजू और रीना ने पूरी कर दी। फाउंडेशन की साप्ताहिक बैठकों में भाग लेने का मौका क्या मिला, अपने विचारों को रखने का एक मंच ही मिल गया। यहाँ और भी नए विद्वान साथियों से मुलाकात हुई जिनमें डॉ. गोपाल गुर्जर, डॉ.अशोक, अभिनव सरोवा, नीलम कठलाना, अफजल, कविता का नाम प्रमुख नाम है।ये सभी सरकारी स्कूलों में नवाचार करने वाले शिक्षक हैं। एक मंच पर इतने नवाचारी शिक्षकों का शामिल होना मेरे लिए सीखने की गंगोत्री मिलने के समान था। फाउंडेशन के साथ मिलकर भाषा सिखाने का काम सीख पाया।
अजीम प्रेमजी फाउंडेशनभारतीय संवैधानिक मूल्य के अनुरूप समाज बनाने का पक्ष लेता है। समता, न्याय, लोकतंत्र, विविधता, असहमति की स्वीकार्यता और पंथ निरपेक्षता जैसे विषयों पर नियमित सेमिनार आयोजित करवाता रहा है। इन सेमीनारों से देश के समसामयिक मुद्दों पर दृष्टिकोण का विस्तार होने के साथ-साथ मुद्दों को व्यक्त करने का तरीका भी समझ पाया। लिंग-भेद, जाति-भेद, धर्म-भेद, क्षेत्र-भेद, भाषा-भेद जैसे मुद्दों पर समझ का विस्तार करने का मौका इस फाउंडेशन ने मुझे दिया। कोविड-19 के समय समाज के वंचित वर्ग तक जरूरी सामग्री पहुँचाने में इस फाउंडेशन ने बढ़-चढ़कर के भाग लिया। फाउंडेशन ने इस पूरे काम में मुझे भी अपने साथ रखा। शिक्षा के क्षेत्र में जब कोई भी नवाचार करने का विचार आता, संस्था के सभी रिसोर्स पर्सन मदद के लिए आगे आ जाते। गांधी जयंती, कैरियर डे, बाल दिवस, शहीद दिवस जैसे कई मौकों पर संस्था सामग्री उपलब्ध करवाने के साथ-साथ माननीय मदद भी देने का कार्य करती। संस्था के दफ्तर में मौजूद लाइब्रेरी बहुत समृद्ध हैं। इन किताबों को पुस्तक मेला लगाने के लिए भी स्कूल ले जाता रहा। इस सहयोग के लिए शुक्रिया अजीम प्रेमजी फाउंडेशन।
घर-घुस्सु स्वभाव के चलते इस संस्था के लोगों के अलावा और ज्यादा लोगों से दोस्ती नहीं बना पाया। पर मित्र जितेंद्र कुमार टेलर ने ‘सिसोदिया हाउस' में कमरा क्या दिलवाया, जिंदगी भर साथ देने वाली रिश्तेदारी से जोड़ दिया। सिसोदिया हाउस में तीन बार दीपावली का त्योहार मनाने का मौका मिला। यह वह दौर था जिसमें पुलवामा, बाबरी केस का फैसला, सी ए ए, एनआरसी, दिल्ली दंगों और कोरोना को धार्मिक रंग देने से भी लोग नहीं चूक रहे थे। इन सब जहरीली हवाओं के बावजूद सिसोदिया हाउस की ईद बहुत मीठी होती। होली पर तो गिरधारी लाल जी के साथ एक ही थाली में बाजरे का खिचड़ा खाने मौका मिला। त्योहारों पर पाँचों परिवार एक ही चूल्हे पर खाना पका कर एक साथ बैठकर खाते थे। मेरी पत्नी नमाज पढ़ने के बाद अक्सर चौकन्ने हनुमान मंदिर में भजन गाने चली जाती। जन्माष्टमी पर मकान मालकिन अरशद को कन्हैया बनाती। पूरे मोहल्ले में बेटी अंजुम ही एकमात्र कन्या थी। कन्या पूजन के अवसर पर मोहल्ले के लगभग हर घर में अंजुम की खूब मनुहार और आदर सत्कार होते। उसने मकान मालिक के नवासों को राखी बांध मित्रता को रिश्तेदारी में बदल दिया। घर में मैं जब नमाज पढ़ता तो मुसल्ले (नमाज पढ़ने के लिए बिछाए जाने वाला कपड़ा) पर युवान जा बैठता। सिसोदिया हाउस की महिलाओं की चौपाल हमारे कमरे में ही लगती। निरंजन सिंह जी सिसोदिया, नरेंद्र जी सोनी, गिरधारी लाल जी और सुरेंद्र सिंह जी के परिवार से मिला यह प्रेम कभी न भूलने वाला एहसास है।
प्रतापगढ़
के
लोग
बहुत
चटोरे
होते
हैं।
इस
चटोरेपन
ने
मेरी
कंजूसी
को
भी
चट
कर
दिया।
ढाई
साल
में
पूरे
दस
किलो
वजन
बढ़ाकर
भीलवाड़ा
लौटा।
ज़ीरो
मील
चौराहा
आते
ही
बाबूलाल
जी
की
गाड़ी
का
तेल
खत्म
हो
जाता
और
सीधे
गोलगप्पे
वाले
की
दुकान
पर
पहुँच
जाते।
पेट
भर
के
गोलगप्पे
खिलाने
के
बाद
ही
छुट्टी
देते।
छुट्टी
के
दिन
ऑफिस
से
जुड़े
काम
का
बहाना
बनाकर
मुझे
घर
बुलाते
हैं
और
वहाँ
गुलाब
जामुन
की
फाइलें
सजा
देते
हैं।
दूसरी
तरफ
दिनेश
जी
पंचोली
महल
दरवाजे
की
कचोरी
की
दावत
दे
जाते।
जनता
टॉकीज
के
सामने
लगे
ठेले
पर
शिवराज
सिंह
जी
और
प्रिंसिपल
रजनीकांत
पांडे
साहब
समोसे
खिला
देते
हैं।
इस
व्यवहार
का
यह
प्रभाव
पड़ा
कि
मैं
भी
एक
नंबर
का
चटोरा
बन
गया।
अब
आप
ही
बताइए
तोंद
कैसे
नहीं
बढ़ती?
जिंदादिल
और
खुशमिजाज
रहना
इन
साथियों
के
साथ
चटनी
के
हाथ
चाठते
और
ठहाके
लगाते
सीख
पाया।
मनोहरगढ़
के
कई
विद्यार्थी
ऐसे
हैं
जिनकी
याद
हमेशा
बनी
रहेगी।
पुष्पा
पढ़ने
और
मंच
पर
बोलने में होशियार
थी।
अब
क्या
कर
रही
है,
यह
मालूम
नहीं
है।
“अस्सी फिसदी अंक
लाने
वाली
छात्राओं
को
हवाई
यात्रा
करवाऊँगा।”
यह
वादा
12वीं क्लास वालों
से
किया
था।
नेहा
और
लक्ष्मी
ने
यह
टारगेट
पूरा
कर
बताया,
पर
लंबे
कोविड-19
और
उसके
बाद
ट्रांसफर
हो
जाने
के
कारण
मैं
अपना
वादा
पूरा
नहीं
कर
पाया।
नेहा,
लक्ष्मी
और
मनीषा
राजकीय
मेडिकल
कॉलेज
से
जीएनएम
कर
रही
है।
समरथ,
सुनीता, लक्ष्मी,
सुगंध
जैसे
होनहार
बच्चें
क्या
कर
रहे
होंगे,
इसकी
खोज
खबर
नहीं
मिली।
खबर
लेऊ
भी
तो
किस
मुँह
से?
उनको
ऊँचे-ऊँचे ख्वाब
दिखाकर
एक
दिन
चुपके
से
ट्रांसफर
करवा
कर
भाग
निकला।
12वीं के विद्यार्थी
सुनील
पिता
भेरूलाल
की
बात
बार-बार
कचोटती
है
कि
आप
हमें
मझधार
में
छोड़कर
चले
गए।
मैं प्रतापगढ़ छोड़ना नहीं चाहता था। पर पारिवारिक जिम्मेदारी के चलते मन मार कर यह फैसला करना पड़ा। 6 जनवरी, 2021 को 12वीं क्लास के बच्चों को बताया कि मेरा ट्रांसफर हो गया है तो उन्होंने इसे मजाक समझा। चुपके से कागजी कार्रवाई पूरी कर स्टाफ साथियों से औपचारिक विदाई लेकर निकलने लगा तो मन किया कि एक बार बच्चों से मिलता चलूँ। पर हिम्मत नहीं हो पाई। बाइक लेकर बहती आँखों से भाग आया। पीछे झाँका तक नहीं।
व्याख्याता (हिंदी), राउमावि आलमास, ब्लॉक मांडल, जिला भीलवाड़ा
dayerkgn@gmail.com, 9887843273
अध्यापकी को आपकी तरह जीनेवाले कितने लोग हैं आजकल!अंगुलियों पर गिनने लायक।ऐसे में आपने जितने मार्मिक ढंग से अपने अनुभव शब्द बद्ध किए हैं वह पाठक के अंतस् को छूता है।रागिनी की वेदना कितनी ही किशोरियों की साझी व्यथा है।और नीमच तो किसी न किसी रूप में देश के हर कोने में मौजूद हैं।नहीं हैं तो नमाज पढ़कर मंदिर में गीत गानेवाली गृहिणियाँ, साझी ईद, होली, दीवाली मनाने लोग!ये भी हैं पर परिदृश्य से गायब से हैं।पृष्ठभूमि में कहीं-कहीं बचे हैं।शानदार लेखन के लिए बधाई डायर साहब💐
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका।😊
हटाएंअध्यापक हूँ तो आपकी व्यथा को बेहतर समझ पाई। बहुत अच्छा लिखा आपने
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मैम
हटाएंअपने प्रतापगढ़ के अंदर जो काम किया है बहुत लाजवाब है और मैं चाहता हू जहां भीआप नौकरी करने जा रहे यह काम करते रहे हमेशा के लिए हमारी शुभकामनाए है
हटाएंबहुत ही शानदार, मैं भी प्रतापगढ़ और आपके साथ को याद करता हूँ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका
हटाएंसर आपकी बातो से में पूरा प्रतापगढ़ गुम आया और अभी अभी मेरी भी NGO sectors में जॉब यही लगी है इन्ही गांवो में अक्सर दौरा हुआ करता है और वही छोटी छोटी बच्चियां हाथो में टिफिन लिए खड़ी रहती हैं जहा किताब और कॉपी होना चाहिए था परंतु जिम्मेदारी का बोझ कॉपी किताब को दूर रख ही देती है ।
जवाब देंहटाएंअगर हो सके तो आप अपना नाम और पता बताने का कष्ट करें साथ ही प्रतापगढ़ में किस एनजीओ के अधीन कार्य कर रहे हैं और किस क्षेत्र में काम कर रहे हैं इसकी जानकारी देने की मेहरबानी करें।
हटाएंएक संवेदनशील व्यक्तित्व की झलक एवं टीएसपी क्षेत्र के विद्यार्थियों की वास्तविक समस्याओं को उजागर करता संस्मरण
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका
हटाएंAape bahut good likha h
जवाब देंहटाएंAapne bahut good likha h ashok garg
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंबहुत ही सुन्दर और जीवंत संस्मरण है। मैं भी लगभग डेढ़ साल प्रतापगढ़ के सालमगढ विद्यालय में प्राध्यापक इतिहास के पद पर रहते हुए सेवाएं देकर आया हूं। मुझे भी इन लोगों को नजदीक से देखने, जानने व समझने का अवसर मिला था। वास्तव में ये आज़ाद भारत के वंचित लोग हैं जो आज भी अच्छे जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रिंसिपल साहब 🌹
हटाएंबहुत सुंदर लिखा है सर जी.बच्चो को छोड़ने का दुःख समझ सकते हैं
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपका।
हटाएंआप जैसा जिंदादिल आदमी मिले तो जिंदादिली बनी रहेगी आप कहीं पर भी जाएं हर जगह ऐसी ही खुशियां और बाहर आएगी प्रतापगढ़ तो खाने पीने वालों में मशहूर है अभी बहुत सारी चीजों का जिक्र नहीं हुआ है यहां पर और रही बात स्टाफ साथियों की हर एक स्टाफ साथी मजेदार है
जवाब देंहटाएंआपका दिल प्रतापगढ़ में बहुत जोरदार लगा और हम चाहते हैं आप इसी तरह दिल लगाकर काम कर हर स्कूल के अंदर
जवाब देंहटाएंदिल छूलेने वाली जिंदगी की असलियत को बेनकाब कर करने वाली घटनाओं को आपने बिल्कुल सरल और सहज भाषा में प्रस्तुत किया है।
जवाब देंहटाएंपढ़ कर ना सिर्फ़ दिल खुश हुवा बल्के समाज के अछूते पहलुओं पर आंखे नम हुईं।
उम्मीद के आप आगे भी इस प्रकार के लेख से लाभान्वित करते रहेगें।
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