शोध सार : जनजातियों में प्रचलित गवरी नृत्य नाट्य में जनजातियों द्वारा ऐसे कई कलात्मक कलाकृतियों का सृजन किया जाता है,जिनका निश्चित ही संस्थापन कला के समतुल्य रसास्वादन किया जा सकता है। गवरी में जनजातियों द्वारा प्रयुक्त कलाकृतियों का समकालीन कलाकारों की संस्थापन कृतियों से तुलनात्मक अध्ययन कर कलागत सौन्दर्य के दृष्टिकोण से दोनों ही कृतियों में समानता को इंगित करने का प्रयास इस आलेख में किया है। गवरी में सृजित इन कृतियों को संस्थापन कला के अन्तर्गत रखने अथवा देखने के पीछे आग्रह यही है कि जिस धार्मिक विचार और दैवीय आस्था से यह निर्मित है यदि इस दृष्टिकोण से परे हटकर इन कृतियों को विशुद्ध रूप से कलात्मक दृष्टिकोण से देखा जाए तो जनजातीय समुदायों द्वारा निर्मित कलाकृतियों के रूप में सृजित इन कृतियों में निश्चित ही संस्थापन कला के साथ सौन्दर्यानुभूति एवं रचनात्मकता का सम्मिश्रण देखा जा सकता है। लोक एवं जनजातीय समाज के सांस्कृतिक जीवन का प्रत्येक पक्ष रचनात्मकता से परिपूर्ण है एवं कलात्मकता की अवधारणा के बहुत ही करीब है। समसामयिक कला में संस्थापन कला के मूलभूत विचार और अवधारणा के अध्ययन के पश्चात् यह महसूस किया जा सकता है कि जनजातीय समाज के यह कलात्मक उपक्रम समकालीन कला के सन्निकट ही नहीं अपितु उनमें कलागत तत्वों की अवधारणा पूरजोर रूप से पुष्ट होती है।
बीज शब्द : गवरी, लोक नृत्य, लोक नाट्य, जनजातीय कला, राई-बुड़िया, घड़ावण, वलावण, संस्थापन कला, समकालीन कला, कलाकृति, वाटर कार्गो, द वे होम।
मूल आलेख : मेवाड़ के जनजातीय समाज में लोक गीत एवं लोकनृत्य की अनूठी परम्पराएँ रही हैं और प्रत्येक सांस्कृतिक उत्सव, तीज-त्यौहार, विवाह, पर्व, समारोह मनोविनोद व उमंग के समय तथा अन्य सभी धार्मिक एवं सांस्कृतिक समारोह में नृत्य एक अनिवार्य अंग है।1 इन जनजातियों में आदिम काल से ही विवाह नृत्य, होली नृत्य (गैर नृत्य), लाठी नृत्य, दीपावली नृत्य, ढोल नृत्य, गवरी नृत्य करने की परम्परा चली आ रही है। मेवाड़ की जनजातियों ने विभिन्न अवसरों पर नृत्य नाट्य के माध्यम से अपनी संस्कृति और धार्मिक परम्पराओं को आज तक जीवित बनाये रखा है।
मेवाड़, जनजातीय
वर्गों
में
आदिम
काल
से
ही
विभिन्न
मेलों
एवं
उत्सवों
के
समान
ही ‘गवरी’ का
भी
विशेष
महत्व
है, जो
राखी
के
अगले
दिन
से
प्रारम्भ
होकर
चालीस
से
पैंतालीस
दिनों
तक
अनवरत
खेला
जाताहै। "भाद्रपद
से
प्रारम्भ
हुआ
प्रतिदिन
सूर्योदय
से
सूर्यास्त
तक
चलने
वाला
यह
नाट्य
अश्विन
शुक्ला
एकादशी
तक
अनवरत
चलता
ही
रहता
है। जिस
दिन
से
गवरी
पात्र
गवरी
लेते
हैं
अथवा
गवरी
की
पोशाकें
धारण
करते
हैं
उसी
दिन
से
सभी
पात्र
गवरीमय
हो
जाते
हैं।"2 मुख्यतः
ग्राम
के
केन्द्रीय
विशाल
क्षेत्र
में
खेली
जाने
वाली
गवरी
के
मुख्य
पात्रों
में
राई, बुडिया, भोपा, पुजारी
व
अन्य
सहयोगी
पात्र
होते
हैं, जो
केवल
पुरूष
ही
होते
हैं
और
इनके
द्वारा
अनेक
पारम्परिक
एवं
समकालीन
कथाओं
का
मंचन
किया
जाता
है।
गवरी लोक
नाट्य
के
आयोजन
के
दौरान
केन्द्रित
स्थान
पर
पूजा
स्थल
का
निर्माण
कर
शिव
के
मुखौटे
आदि
अवयवों
को
पूजा
जाता
है।
इसी
केन्द्रित
पूजा
स्थल
के
इर्द-गिर्द
गवरी
के
सभी
नाट्यों
का
मंचन
होता
है।
लगभग
चालीस
दिन
की
गवरी
की
समाप्ति
घड़ावण
और
वलावण
के
अनुष्ठानों
से
होती
है।
वलावण
के
अवसर
पर
मृण
निर्मित
सुसज्जित
हाथी
पर
शिव-पार्वती
की
प्रतिमा
को
स्थापित
कर
विशेष
पूजा-अर्चना
कर
जलाशयों
तक
धूमधाम
से
ले
जाया
जाता
है
और
जल
में
विसर्जन
का
अनुष्ठान
कर
गवरी
की
समाप्ति
की
जाती
है।
इस
अवसर
पर
गवरी
पात्रों
के
रिश्तेदार
पैरावनी
कपड़े
लाकर
गवरी
पात्रों
को
पहना
कर
सम्मानित
करते
हैं।
गवरी का
उद्भव
और
विकास
को
लेकर
विद्वानों
में
मतभेद
रहे
हैं, कुछ
विद्वानों
के
अनुसार
ऊनवास,
तो
कुछ
विशेषज्ञों
के
अनुसार
वल्लभनगर
गवरी
का
उद्भव
स्थल
रहा
है।
"कुछ लोग
वल्लभनगर
को
गवरी
का
उद्गम
स्थल
मानते
हैं।
यह
स्थान
उदयपुर
से
लगभग
25 मील पूर्व
में
है।
इसका
पूर्व
नाम
ऊंठाला
था।"3
किवदंतियों में
ऊनवास,
बड़ल्याहिंदवा, देवलऊनवा, मानसरोवर, धारनगर, जावड़
आदि
को
भी
गवरी
का
उद्गम
स्थल
माना
जाता
है।
गवरी
के
उद्भव
एवं
विकास
को
लेकर
जितनी
भी
कथा-किवदंतियां
प्रचलित
है, उनके
न्यूनाधिक
अंश
गवरी
में
दर्शनीय
है।
"लोकजीवन का
सच्चा
इतिहास, कथा-किवदंतियां
है।
इन्हीं
के
आधार
पर
इतिहास
का
निर्माण
होता
है।
इसलिए
इतिहास
की
सत्ता
से
इनकी
सत्ता
बहुत
प्राचीन
है।
इतिहास
तो
बार-बार
बिगड़ते
हैं
और
बनते
है, उसका
सत्य
असली
कम
होता
है
जबकि
किवदंतियां
अटल
रहती
है
और
अपने
सत्यांश
के
कारण
कभी-कभी
इतिहास
के
सत्य
को
भी
चुनौती
दे
बैठती
है।
गवरी
के
साथ
ठीक
यही
बात
चरितार्थ
होती
है।
किवदंतियों
के
आधार
पर
ही
गवरी
के
उद्भव
एवं
विकास
संबंधी
तत्व
संघटित
किये
गये।"4
इसके परिणामस्वरूप
गवरी
नृत्य
नाट्य
को
ऐतिहासिक
प्रमाणिकता
मिली
और
साथ
ही
इसके
मूलस्वरूप
और
वर्तमान
में
हो
रहे
परिवर्तन
का
भी
जनसामान्य
को
बोध
हुआ।
उद्भव और
विकास
को
लेकर
कथा
किवंदतियाँ
चाहे
कुछ
भी
हो
परन्तु
वर्तमान
में
भी
गवरी
नृत्य
नाटिका
का
आकर्षण, उत्साह, उत्सुकता
के
कारण
ही
हजारों
की
संख्या
में
लोग
मीलों
दूरदराज
से
पैदल
चले
आते
हैं।
गवरी
लोक
नाट्य
का
वर्तमान
में
भी
जीवित
रहने
के
पीछे
कारण
सौन्दर्यबोध, आस्था, विश्वास
एवं
लोकानुरंजन
और
समय
के
साथ
नवीन
अवयवों
एवं
नवीन
घटनाओं
का
समावेश
होना
है।
गवरी के
नामकरण
के
संबंध
में
कुछ
किवंदंतियां
प्रचलन
में
है
जो
निम्न
प्रकार
से
है-
(1) शिवजी से
भस्मीकड़ा
प्राप्त
कर
भस्मासुर
ने
जब
शिवजी
को
ही
भस्म
करने
की
ठानली
तो
विष्णु
मोहिनी
रूप
‘गोरां’ बनकर
शिवजी
की
सहायतार्थ
आये
और
उसे
ऐसा
करने
से
रोका।
इसी
गोरां
से
गौरी
नाम
पड़ा, आगे
जाकर
यह
गौरी-गवरी
के
रूप
में
प्रसिद्ध
हुआ।
(2) 'गौरी' भीलों
की
प्रमुख
आराध्य
देवी
भी
कही
जाती
है।
इसी
से
ये
लोग
गवरी
धारण
करते
हैं।
इसे
'गौरज्या' भी
कहते
हैं।
इसलिए
कुछ
लोग
इसी
से
'गवरी' नाम
पड़ा
मानते
हैं।
(3) गवरी में
दो
राइयां
होती
है।
इनमें
एक
तो
मोहिनी
रूप
विष्णु
होते
हैं
तथा
दूसरी
शिव-पत्नी
गौरी
होती
है।
लोकजीवन
में
यह
गौरी-गौरां-गवरां
से
इसका
नाम
गवरी
पड़ा।5
उक्त
घटनाओं
में
से
शिव-भस्मासुर
की
घटना
की
मान्यता
जनजातियों
में
अधिक
प्रचलन
में
है।
जनजातीय लोक
नृत्य
नाट्य
गवरी
के
अतिरिक्त
यदि
समसामयिक
कला
के
क्षेत्र
में
प्रचलित
माध्यम
संस्थापन
कला
को
परिभाषित
करें
तो
आंशिक
रूप
से
इस
प्रकार
किया
जा
सकता
है- किसी भी वस्तु
को
नवीन
भावभूमि
में
उसके
मूल
स्वरूप
से
परे
कलाकार
द्वारा
अपने
रचनात्मक
दृष्टिकोण/भावानुरूप
को
नए
आयामों
मे
ढ़ालना
संस्थापन
कला
है।
अर्थात
किसी
व्यक्ति
द्वारा
पूर्व
निर्मित
वस्तु
या
उसके
द्वारा
निर्मित
वस्तु
को
देश, काल, आदि
परिस्थिति
के
अनुसार
विशिष्ट
विचारों
के
साथ
प्रस्तुत
करना
या
स्थापित
करना
संस्थापन
कहलाता
है।
"संस्थापन कला
में
कलाकृतियों
की
प्रस्तुति
का
विशेष
महत्व
होता
है
प्रायः
उसे
एक
संपूर्ण
रचनात्मक
कलाकर्म
के
रूप
में
देखा
जाता
है।
किसी
कला
दीर्घा
या
अन्य
स्थान
पर
जब
चित्रों, मूर्तियों
आदि
को
एक
विशेष
तरह
से
रखा
जाता
है
तो
मोटे
अर्थों
में
यह
संस्थापन
है।"6
संस्थापन कला
यद्यपि
चाक्षुष
कला
का
माध्यम
है
परन्तु
जहाँ
एक
ओर
संस्थापन
कला
ने
चित्रकला,मूर्तिकला,
छापाकला
आदि
के
मध्य
के
अन्तर
को
समाप्त
किया
वहीं
दूसरी
ओर
ललित
कला
के
सभी
माध्यमों
को
भी
अपने
में
समाहित
कर
लिया
है।
चाक्षुष
कला
के
साथ
श्रव्य
कला, स्थापत्य
कला, काव्य
कला, प्रदर्शन
कला
और
साथ
ही
फोटोग्राफी, वीडियो
आदि
कलाओं
के
संयोजन
से
इतना
व्यापक
स्वरूप
सृजित
कर
लिया
है
कि
किसी
भी
परिभाषा
में
इसकी
सम्पूर्ण
व्याख्या
करना
सम्भव
नहीं
है।
संस्थापन
का
स्वरूप
विस्तृत
है, आकार
व
समय
की
सीमा
से
परे
है, स्थायी
व
अस्थायी
दोनों
प्रकार
के
हो
सकते
हैं।
वर्तमान
में
कलाकार
माध्यम
के
बंधन
से
मुक्त
होकर
आत्म
अभिव्यक्ति
के
मूल
उद्देश्य
से
सृजनरत
है
और
नवीन
प्रयोग
कर
कलाकार
संस्थापन
कला
में
नित
नवीन
आयाम
जोड़
रहे
हैं
और
इसी
कारण
संस्थापन
कला
के
स्वरूप
को
निश्चित
परिभाषा
में
बांधना
मुश्किल
है।
सम्भवतः ‘नए’
और
‘नित नए’
का
आतंक
1960 के बाद
पश्चिम
कला
में
बढ़ा
एवं
मूर्त, अमूर्त, हैप्पनिंग, बॉडी
आर्ट,
कंसेप्चुअल
आर्ट, साइडस्पेसिफिक
आर्ट, वातावरण
कला, वीडियो
कला, एसेंबल
आर्ट, ग्रुप
मेटीरियल
और
अनेकानेक
कला
आंदोलनों
का
उद्भव
हुआ।
द्वितीय
विश्व
युद्ध
की
इस
परिवर्तन
में
अहम
भूमिका
रहीं,
कलाकार
परम्परागत
माध्यम
को
त्याग
कर
जटिल
माध्यमों
द्वारा
जटिल
अभिव्यक्ति
हेतु
प्रेरित
हुए
और
नाटकीय
ढ़ंग
से
अपनी
प्रस्तुति
देने
लगे।
सभी
आंदोलन
तो
कुछ
समय
पश्चात
निष्क्रिय
हो
गए
परन्तु
यह
कला
के
सुपरिचित
पश्चिमी
कला
आन्दोलन
के
माध्यम
अर्वाचीन
संस्थापन
कला
धारणा
में
समाहित
हो
चुके
हैं।
हालांकि
संस्थापन
कला
के
नाम
का
प्रयोग
बहुत
बाद
में
हुआ, प्रायः
1945 के उपरान्त
पश्चिमी
कला
में
संस्थापन
कला
का
नाम
प्रयुक्त
होने
लगा
और
इसका
विशिष्ट
स्थान
बनता
गया।7
समकालीन कला
परिपेक्ष्य
में
संस्थापन
कला
जितना
नवीन
माध्यम
है
उतना
ही
विवादास्पद
भी,
परन्तु
यह
ऐसी
क्रान्ति
है
जिसमें
वरिष्ठ
व
युवा
कलाकार
सभी
अपनी
ओर
से
नवीन
अध्याय
जोड़ने
का
प्रयास
कर
रहे
हैं।
1917 में मार्शेल
द्युशां
की
रेडिमड
आर्ट
(बनी बनायी कला)
से
प्रारम्भ
होकर
वर्तमान
तक
संस्थापन
कला
में
सुनिश्चित
विचारों
का
समन्वय
हुआ
और
शनैः-शनैः
एक
विराट
विश्वव्यापी
रूप
में
हमारे
समक्ष
है
जिसमें
नित्
नूतन
प्रयोग
हेतु
कलाकारों
का
प्रयास
वर्तमान
में
भी
जारी
है।
भारतीय समकालीन
परिदृश्य
में
लगभग
नब्बे
के
दशक
में
संस्थापन
कला
जिसे
एक
क्रान्ति
कहना
अतिश्योक्ति
नहीं
होगा,
का
आगाज़
हुआ
जिसके
वर्तमान
स्वरूप
में
वीडियो,
ध्वनि,
प्रकाश,
प्रदर्शन
आदि
भी
सम्मिलित
हो
चुके
हैं
और
सभी
प्रयोगधर्मी
कलाकार
इस
माध्यम
में
अपनी
भाषानुरूप
अभिव्यक्ति
देने
हेतु
प्रयासरत
है।
वर्तमान में
भारतीय
मूल
के
ब्रिटिश
कलाकार
अनीष
कपूर, भारतीय
कलाकारों
में
सुबोध
गुप्ता, विवान
सुन्दरम, बोस
कृष्णरामचारी, नलीनी
मलीनी, अतुल
डोडिया
आदि
अनेकानेक
कलाकार
है,
जो
संस्थापन
कला
के
माध्यम
से
अपनी
अभिव्यक्ति
को
अधिक
व्यापकता
के
साथ
मूर्त
रूप
दे
कर
प्रदर्शित
कर
रहे
हैं
और
साथ
ही
प्रसिद्धि
भी
हासिल
कर
रहे
हैं।
परन्तु
प्राचीन
समय
से
ही
कई
ऐसी
कलाकृतियों
की
रचना
सामान्य
वर्ग
द्वारा
की
जाती
रही
है
जिसे
कभी
उन्होंने
कलाकृतियों
के
रूप
में
न
कभी
पहचाना
और
न
कभी
प्रदर्शित
किया
क्योंकि
वह
केवल
अलंकरण
एवं
धार्मिकता
से
ही
सम्बन्धित
थी
और
आज
भी
इनका
वही
स्वरूप
है।
उदाहरणार्थ समसामयिक
कला
एवं
संस्थापन
कला
से
अज्ञात
जनजातीय
समुदाय
चिर
आदिकाल
से
धार्मिक
आस्थाओं,
मान्यताओं, रीति
रिवाजों
के
अनुरूप
या
कहें
भावावेग
से
उत्प्रेरित
होकर
अनेक
पूजा
स्थलों
को
स्थापित
करते
आए
है,
उत्सव
मनाते
आए
हैं
और
आज
भी
यह
प्रक्रियाएँ
अनवरत
चल
रही
है,
इन
सम्पूर्ण
सामाजिक
एवं
धार्मिक
क्रियाकलापों
को
वर्तमान
में
प्रचलित
संस्थापन
कला
के
सन्दर्भ
में
विचार
किया
जाए
अथवा
इस
दृष्टिकोण
से
समझा
परखा
जाए
तो
जनजातियों
के
यह
उपक्रम
आधुनिक
कला
के
समसामयिक
संस्थापन
कला
को
परिभाषित
करते
प्रतीत
होते
हैं
और
इन
कृतियों
को
यदि
संस्थापन
कला
की
श्रेणी
में
रखा
जाए
तो
अतिश्योक्ति
नहीं
होगी।
जनजातियों में
प्रचलित
गवरी
नृत्य
नाट्य
में
जनजातियों
द्वारा
ऐसे
कई
कलात्मक
कलाकृतियों
का
सृजन
किया
जाता
है
जिनका
निश्चित
ही
संस्थापन
कला
के
समतुल्य
रसास्वादन
किया
जा
सकता
है।
गवरी
में
सृजित
इन
कृतियों
को
संस्थापन
कला
के
अन्तर्गत
रखने
अथवा
देखने
के
पीछे
आग्रह
यही
है
कि
जिस
धार्मिक
विचार
और
दैवीय
आस्था
से
यह
निर्मित
है
यदि
इस
दृष्टिकोण
से
परे
हटकर
इन
कृतियों
को
विशुद्ध
रूप
से
कलात्मक
दृष्टिकोण
से
देखा
जाए
तो
जनजातीय
समुदायों
द्वारा
निर्मित
कलाकृतियों
के
रूप
में
निर्मित
इन
कृतियों
में
निश्चित
ही
संस्थापन
कला
के
साथ
सौन्दर्यानुभूति
एवं
रचनात्मकता
का
सम्मिश्रण
देखा
जा
सकता
है।
लोक
एवं
जनजातीय
समाज
के
सांस्कृतिक
जीवन
का
प्रत्येक
पक्ष
रचनात्मकता
से
परिपूर्ण
है
एवं
कलात्मकता
की
अवधारणा
के
बहुत
ही
करीब
है।
समसामयिक
कला
में
संस्थापन
कला
के
मूलभूत
विचार
और
अवधारणा
के
अध्ययन
के
पश्चात्
यह
महसूस
किया
जा
सकता
है
कि
जनजातीय
समाज
के
यह
कलात्मक
उपक्रम
समकालीन
कला
के
सन्निकट
ही
नहीं
अपितु
उनमें
कलागत
तत्वों
की
अवधारणा
पूरजोर
रूप
से
पुष्ट
होती
है।
उदयपुर के
समीपस्थ
एक
ग्राम
कायलों
का
गुडा
में
मुझे
भी
गवरी
नृत्य
नाट्य के रसास्वादन
का
अवसर
मिला।
मेवाड़
क्षेत्र
के
सभी
गाँव
की
भाँति
कायलों
के
गुडे
में
भी
भाद्रपद
के
सूर्योदय
के
साथ
त्रिशूल
स्थापन, मादल
वादन, भोपो
एवं
माजियों
द्वारा
गायन
से
प्रारम्भ
होकर
अश्विन
शुक्ला
एकादशी
तक
निरंतर
सूर्योदय
से
सूर्यास्त
तक
चलने
वाला
जनजातियों
द्वारा
नाट्य
गवरी
का
मंचन
होता
है,
जो
धार्मिक
आस्थाओं,
सामाजिक
परम्पराओं,
सांस्कृतिक
गतिविधियों
के
साथ
कलात्मकता
का
भी
परिचायक
है।
मुख्यतः
ग्राम
के
केन्द्रित
विशाल
क्षेत्र
में
ही
रमी
(खेली) जाती है।
कायलों का
गुडा
में
गवरी
नाट्य
का
श्री
गणेश
केन्द्रित
स्थान
पर
पूजा
स्थल
की
स्थापना
के
साथ
हुआ।
इस
कलात्मक
स्थान
में
देवी-देवताओं
के
निवास
स्थान
वाली
मान्यताओं
के
कारण
पूजा
अर्चना
हेतु
देवी-देवताओं
के
प्रतीकात्मक
चिन्हों
को
उनके
प्रिय
रूपाकारों
एवं
अन्य
पूजन
सामग्रियों
के
साथ
स्थापित
किया।
कला,
सौन्दर्य
व
आध्यात्मिकता
का
समन्वय
इस
देवरे
के
अद्भुत
संयोजन
में
देखने
को
मिलता
है।
लोहे
का
शृंगांरित
शस्त्र
त्रिशूल
प्रतीकात्मक
रूप
में
स्थापित
कर
पूजारियों
व
पूजार्थियों
द्वारा
श्रद्धा
भाव
से
आध्यात्मिकता
के
प्रतीक
सिंदूरी
वर्ण
से
अलंकृत
कर
पूजा
जाता
है।
त्रिशूल
के
समीप
लम्बे
बांस
पर
बहुवर्णिय
लाल,
पीला,
नीला,
हरा,
श्वेत,
स्वर्ण
एवं
रजत
वर्णों
के
वस्त्रों
की
ध्वजाएँ
स्थापित
करने
के
पश्चात्
इसके
समक्ष
बांस
से
बना
पात्र
टोकरी
रखी
जाती
है
जिसमें
सर्वाधिक
कलागत
लकड़ी
निर्मित
मुखौटे
को
बुड़िया
के
द्वारा
प्रयोग
में
लियाजाता
है,
जो
बहुवर्णिय
अलंकारिक
मालीपन्नों
से
सुसज्जित
होता
है।
दाढी
मूंछों
हेतु
असली
बकरे
के
केशों
का
प्रयोग,
श्वेत
रेखाओं
जैसे
नेत्रों
व
दांतों
के
स्थान
पर
मोर
पंख
की
श्वेत
डंडी
का
कलात्मक
प्रयोग
कर
मुखौटे
का
निर्माण
किया
जाता
है।
मुखौटे
को
शिव
की
प्रतीकात्मक
रूप
में
बुड़िया
सम्पूर्ण
नाट्य
में
प्रयुक्त
करता
है।
मुखौटे
के
पास
मोर
पंखों
से
निर्मित
पंखा
जो
प्रायः
झाड
फुंक
(टोने-टोटके) के
काम
में
लिए
जाते
हैं,
इन्हें
कलात्मक
ढ़ंग
से
बुनकर
यथा
स्थान
रखा
गया।
इसके
अतिरिक्त
अन्य
सामग्रियों
में
त्रिशूल,
मक्की
के
दानें,
मृण
दीपक,
तलवार,
लोहे
की
सांकल,
घुंघरूओं
से
युक्त
कमर
बन्ध
(चोरसी) इत्यादि
भी
इस
कृति
में
अपना
महत्वपूर्ण
स्थान
बनाएँ
रखते
हैं।
धूप
हेतु
मृण
धूपपात्रों
में
गोबर
के
कण्डों
व
सुगन्धित
अगरबत्तियों
का
पारम्परिक
प्रयोग
किया
जाता
है।
इनसे
उठता
सुगंधित
धुम्र
स्वतः
हि
आध्यात्मिकता
की
भावनाओं
का
प्रस्फुटन
के
साथ
ही
साथ
एक
कलात्मक
काल्पनिक
वातावरण
भी
उत्पन्न
कर
देते
हैं,
जो
सहज
ही
दर्शकों
को
इस
ओर
आकृष्ट
होने
को
लालायित
करता
है।
यह
स्थान
न
केवल
पूजार्थियों
की
आस्था
का
केन्द्र
है
अपितु
सभी
दर्शकों
हेतु
आनन्दानुभूति
एवं
रसानुभूति
प्रदत्त
करने
वाला
है।
यदि उक्त
मुखौटे
की
तुलना
समकालीन
कलाकार
सुबोध
गुप्ता
की
एक
कृति
‘द वे
होम’
से
करें
तो
दोनों
ही
कृतियों
में
परस्पर
समानताएँ
दिखाई
देती
है।
सुबोध
की
कृति
में
केन्द्रित
गाय
की
आकृति
को
स्टील
के
बर्तन
जैसे
थाली,
गिलास,
कटोरी,
चम्मच
और
बन्दूक
आदि
के
साथ
यत्र-तत्र
संयोजित
कर
संस्थापित
किया
गया
है।
मूल
रूप
से
बिहार
के
निवासी
सुबोध
गुप्ता
ने
बिहार
के
ही
परिदृश्य
को
इस
संस्थापन
कृति
में
इंगित
करने
का
सफल
प्रयोग
किया
है।
प्रायः
बिहार
ही
नहीं
अपितु
सम्पूर्ण
भारत
में
यह
दृश्य
सामान्यतः
देखा
जा
सकता
है,
जहाँ
गायों
का
सार्वजनिक
मार्गों
पर
निर्विरोध
विचरण,
बन्दूकों
का
प्रयोग
एवं
निर्धन
वर्ग
के
बर्तन।
इन्हीं
विषय
वस्तु
को
कलाकार
ने
अपनी
कलाकृति
में
प्रतीकात्मक
रूप
में
परिभाषित
किया
है।8
सुबोध
की
संस्थापन
कृति
व
गवरी
केन्द्रित
पूजा
स्थल
दोनों
में
ही
केन्द्रित
मुख्य
आकृति
के
इर्द-गिर्द
उससे
सम्बंधित
अवयवों
का
सफल
संयोजन
है।
दोनों
ही
कृतियों
में
सामग्री
प्रायः
प्रतीकात्मक
रूप
में
ही
प्रयोग
किया
गया
है।
जहाँ
सुबोध
ने
बाहरी
परिवेश
के
अनुरूप
सुलभता
से
उपलब्ध
चमकीले
स्टील
के
बर्तन,
थाली,
कटोरी
आदि
को
यथास्वरूप
अर्थात्
बनी
बनायी
वस्तुओं
को
उसी
स्वरूप
में
प्रयोग
किया
है
वहीं
जनजातियों
ने
भी
उनके
प्राकृतिक
परिवेश
में
सहजता
से
उपलब्ध
सामग्रियों
जैसे
मोर
पंख,
बांस,
बकरे
के
बाल,
मृण
पात्र
आदि
को
यथास्वरूप
ही
प्रयोग
किया
है।
पशु
आकृति
का
भी
दोनों
ही
कृतियों
में
प्रतीकात्मक
प्रयोग
किया
है
एक
ओर
सुबोध
गुप्ता
ने
गाय
को
बिहार
की
पृष्ठभूमि
के
प्रतीक
रूप
में
प्रयोग
किया
वहीं
दूसरी
ओर
सिंह
के
मुखौटे
को
दैवीय
प्रतीक
के
रूप
में
जनजातियों
द्वारा
प्रयोग
में
लाया
जाता
है।
अतः
दोनों
ही
कृतियाँ
संस्थापन
कला
की
परिभाषानुरूप
है
अर्थात्
बनी
बनायी
वस्तुओं
को
उसके
मूलस्वरूप
से
पृथक
अपने
विचारों
के
अनुरूप
स्थापित
किया
गया
है।
गवरी के मध्य स्थित पूजा स्थल में विभिन्न वस्तुओं का अद्भुत संस्थापन |
सुबोध गुप्ता की द वे होम नामक शीर्षक की कृति 2014 |
कला
दीर्घा
में
प्रदर्शित
सुबोध
की
संस्थापन
कृति
का
जब
कला
रसिक
अवलोकन,
चर्चा,
प्रशंसा
व
समीक्षा
कर
हर्षोन्मत
होते
हैं
तब
उस
परिदृश्य
की
तुलना
गवरी
नाट्य
से
करें
तो
इसके
समानान्तर
ही
ग्रामीण
परिवेश
के
जनजातीय
समुदाय
भी
केन्द्रित
पूजा
स्थल
के
चहुँओर
हर्षोल्लास
से
उन्मत्त
होकर
नाट्य
में
प्रस्तुति
देते
हैं,
जो
उस
पूजा
स्थल
के
ही
प्रति
समर्पित
होती
है।
कला,
सौन्दर्य
व
आध्यात्मिकता
का
समन्वय
इस
मुखौटे
के
अद्भूत
संयोजन
में
देखने
को
मिलता
है
जिसका
सृजन
जनजातीय
कलाकारों
में
से
एक
दक्ष
कलाकार
करता
है।
इस
पूजा
में
प्रयुक्त
सभी
अवयव
किसी
ना
किसी
प्रयोजन
हेतु
ही
प्रयोग
में
लाए
जाते
हैं,
यदि
धार्मिकता
से
परे
होकर
किसी
कलाकार
के
दृष्टिकोण
से
अवलोकन
किया
जाए
तो
कला
के
तत्वों
व
संयोजन
के
सभी
सिद्धान्तों
का
समावेश
इनमें
है।
बुड़िया
के
बहुवर्णिय
और
पोतयुक्त
मुखौटे
के
साथ
मोर
पंखों
की
सुन्दरता,
ध्वजाओं
व
अन्य
कलात्मक
अवयवों
का
संयोजन
सराहनीय
है।
यह
पूजा
स्थल
न
केवल
एक
कलाकृति
है
अपितु
सृजित
करने
वाले
जनजातीय
समुदाय
के
विशिष्ट
विचारों
का
समावेश
भी
है
जिसमें
संस्थापन
कला
की
एक
श्रेष्ठ
कृति
का
आग्रह
सहज
ही
है
और
इन्हीं
कलात्मकता
के
कारण
दर्शक
स्वतः
ही
इनकी
ओर
आकृष्ट
हो
जाता
है।
गवरी
के
अन्तर्गत
विभिन्न
खेलों
का
भी
मंचन
होता
है
जैसे
भँवरा,
कालका-माता,
खेतुड़ी,
शिव-पार्वती,
बणजारा,
कंजर-कंजरी,
कालबेलिया
आदि।
प्राचीन
खेलों
के
साथ
वर्तमान
में
समसामयिक
विषयों
का
भी
समावेश
इन
गवरी
नाट्यों
में
देखने
को
मिलता
है
जैसे
बनिया,
थानेदार-सिपाही,
बारात
और
कुछ
हास्य
प्रस्तुतियाँ
दर्शकों
के
मनोरंजन
के
साथ
कुछ
शिक्षास्पद
और
व्यंग्यात्मक
भी
होती
है।
आधुनिक
विषयों
के
साथ
आधुनिक
यंत्रों,
साजो-सामान,
रूप-सज्जा,
किंचित
अंग्रेजी
भाषा
में
संवाद
और
इर्द-गिर्द
उपलब्ध
वस्तुओं
से
नवीन
उपकरण
बना
कर
प्रयोग
में
लाते
हैं।
गवरी के मध्य स्थित
पूजास्थल में विभिन्न वस्तुओं का अद्भूत संस्थापन |
रेमॉल्ड का वाटर कार्गो का मिश्रित माध्यम में संस्थापन |
''गवरी नाट्य
के
विभिन्न
पात्रों
के
अनुरूप
अलग-अलग
पोशाकें
एवं
रूप
का
सृजन
करते
हैं।
उनके
रंगरूपों
का
भी
उन्हें
सम्पूर्ण
ज्ञान
होता
है।
पात्रों
के
गुण-दोषों
के
अनुसार
ही
उन्हें
रंगों
का
चुनाव
करना
आता
है।
कुछ
ही
पलों
में
पात्र
परिवर्तन
की
सभी
कलाएं
उनको
याद
हैं।
इस
दिशा
में
भी
वे
पूरी
तरह
कलाप्रेमी
हैं।
विभिन्न
रूपों
या
पात्रों
का
बनने
के
पीछे
इनका
धार्मिक
विश्वास
एवं
विभिन्न
देवी-देवताओं
को
खुश
करना
होता
है।
विभिन्न
पात्रों
की
पहचान
प्रतीकात्मक
रूप
से
की
जा
सकती
है।''10
एक स्वरचित
हास्य
प्रस्तुति
हेतु
ग्रामीण
जनजातीय
युवा
कलाकारों
द्वारा
कलात्मक
वाहन
का
प्रयोजनपूर्वक
सृजन
किया।
वाहन
को
तैयार
करने
के
लिए
कुछ
सूखे
लम्बे
बांसो
को
आपस
में
रस्सी
द्वारा
बांध
कर
बैठने
का
स्थान
तैयार
किया
गया।
वाहन
की
स्टेरिंग
हेतु
दुपहिया
वाहन
के
ट्यूब
को
छोटे
बांस
पर
बांधा
गया।
समीप
ही
अन्य
एक
बांस
पर
प्लास्टिक
निर्मित
बोतल
को
बांस
पर
बांध
कर
गियर
के
रूप
में
प्रयुक्त
किया
गया।
इस
वाहन
पर
विराजमान
मुख्य
चालक
के
रूप
में
केन्द्रित
पात्र
होता
है।
नाट्य
के
प्रर्दशन
में
सहयोगी
बाल
कलाकारों
द्वारा
कंधे
पर
उठा
कर
इस
वाहन
को
दौड़ाया
जाता
है।
इन
बाल
कलाकारों
के
इस
अनूठे
वाहन
और
वेशभूषा
का
तारतम्य
अद्वितीय
है।
कमीज,
पतलून
को
अपने
ही
अनोखे
रूप
में
काट
छांट
कर
पारम्परिक
वस्त्रों
जैसे
चटख
वर्णो
के
छोटे-छोटे
कपडों
को
हाथ
व
कमर
पर
बांधा
गया।
रजत
व
कांच
के
आभूषणों
को
गले,
हाथ
व
पैरो
में
लाल,
काले
धागों
के
साथ
विशिष्ट
सामंजस्य
बना
कर
पहना
जाता
है।
प्रकृति
से
प्राप्त
अवयवों
जैसे
बांसो
की
लाठी
बनाकर
प्रयोग
करना
एवं
फूल
पत्तियों
के
आभूषण
बनाकर
धारण
करने
के
साथ
ही
आधुनिक
सौन्दर्य
प्रसाधनों
व
लाल,
काले
व
श्वेत
आदि
वर्णों
से
अपनी
देह
को
अलंकृत
कर
सहज
प्रदर्शन
करने
का
साहस
अतुलनीय
है।
''गवरी के
पात्रों
के
मुख-विन्यास
एवं
सम्पूर्ण
शरीर
को
कालिख,
मुरदासिंघी,
भोडल,
चूना,
राख,
हड़मच्छी,
गेरू,
पत्तियां,
घास,
हल्दी,
नील
आदि
से
रंगों
के
संयोजन
एवं
रेखाओं
द्वारा
शरीर
को
विभिन्न
प्रभावों
द्वारा
पात्रों
के
अनुरूप
दिखाने
का
प्रयास
करते
हैं।''11
चालक
युवा
कलाकार
अद्भूत
अभिनय
के
साथ
असाधारण
पोशाक
जैसे
काले
वस्त्रों,
नकली
लम्बी
दाढ़ी
मूछों,
नकली
नाक
व
झाडू
को
काले
वस्त्रों
से
सर
पर
बांध
कर
एवं
बिना
कांच
के
चश्में
में
समूह
का
प्रतिनिधित्व
करता
है।
स्थान विशेष
से
सम्बन्धित
त्रिआयामी
कृतियाँ
जो
कि
वस्तु
को
उसके
मूल
स्वरूप
से
परे
नवीन
भावभूमि
में
कलाकार
द्वारा
रचनात्मक
दृष्टिकोण
एवं
भावानुरूप
नए
आयाम
में
ढाले,
संस्थापन
कृति
है।
काल,
परिस्थिति
से
परे
विशिष्ट
विचारों
के
प्रस्तुतिकरण
जो
स्थायी
व
अस्थायी
दोनों
प्रकार
के
हो,
उन्हें
संस्थापन
कला
की
श्रेणी
में
रखा
जाता
है।
यदि
इस
वाहन
को
संस्थापन
कला
की
इस
परिभाषानुरूप
देखा
जाए
तो
निश्चित
ही
यह
संस्थापन
कला
का
उदाहरण
है
और
समसामयिक
कलाकार
रेमोल्ड
की
‘वाटर कारगो’
नामक
कृति
से
तुलना
की
जाए
तो
दोनों
ही
कृतियों
में
स्वविचारानुसार
वाहन
का
सृजन
समतुल्य
है।
माध्यम
हेतु
व्यर्थ
सामग्री
का
दोनों
ही
कृतियों
में
उत्तम
प्रयोग
है
परन्तु
जहाँ
रेमोल्ड
की
कृति
में
स्थिरता
है
वहीं
जनजातियों
के
वाहन
में
गतित्व
प्रदान
किया
जाता
है।
दोनों
ही
कृतियों
का
सृजन
अपने
विचारों
के
अनुरूप,
बनी
बनाई
वस्तुओं
से
संयोजन,
जिसमें
अलंकरण
हेतु
उष्ण
वर्णों
की
औपचारिकता
न
करके
धूसर
वर्ण
योजना
का
प्रयोग
किया
है।
ग्रामीण
जन
मानस
द्वारा
सृजित
वाहन
में
प्रयुक्त
सामग्री
को
उसके
मूलस्वरूप
से
पृथक
कृति
की
आवश्यकतानुसार
प्रयोग
किया
गया
है,
जो
संस्थापन
कला
की
विशेषता
को
दर्शाता
है।
रेमोल्ड
की
कृति
से
पृथक
जनजातीय
निर्मित
वाहन
केवल
वाहन
न
होकर
जीवन
का
अंग,
हर्षोल्लास
व
सहज
अभिव्यक्ति
का
अप्रतिम
उदाहरण
है।
जब सृजित
वाहन
के
साथ
प्रदर्शन
कला
का
समावेश
होता
है
तब
आधुनिक
कलाकृतियों
के
साथ
इसकी
तुलना
करना
स्वाभविक
ही
है।
हास्यपूर्ण
एवं
व्यंग्यात्मक
अभिव्यक्ति
के
साथ
अगांकन,
सृजित
अवयवों
का
समायोजन
दर्शकों
हेतु
विशिष्ट
आकर्षण
का
केन्द्र
होता
है।
वर्तमान
के
औपनिवेशिकवादी
युग
में
जनजातियाँ
बिना
किसी
प्रश्रय
के
अनेक
ऐसी
ही
कृतियों
की
सहज
रूप
से
रचनाएँ
करते
हैं।
यदि
इन
कृतियों
को
कला
दीर्घाओं
में
प्रस्तुत
किया
जाए
तो
मेरा
निश्चित
ही
यह
मानना
है
कि
यह
कृतियाँ
न
केवल
समसामयिक
कलाकृतियों
के
समकक्ष
है
अपितु
उनके
विशिष्ट
विचारों
के
समावेश
के
कारण
श्रेष्ठ
है।
संस्थापन कला के अतिरिक्त प्रदर्शनकारी कला, पब्लिक आर्ट, बाडी आर्ट आदि भी समकालीन कला परिदृश्य में प्रचलित माध्यम है। यदि इन कला माध्यमों के दृष्टिकोण से भी देखें तो निश्चित ही गवरी नृत्य में इनका उम्दा उदाहरण देखने को मिलता है। गवरी पात्र अंगों पर रेखांकन व रंगांकन कर जब सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शन करते हैं तब उनकी कला को बॉडी आर्ट, प्रदर्शनकारी कला आदि समकालीन कला माध्यमों के अन्तर्गत रखना सर्वथा सम्भव है। यदि पारम्परिक, धार्मिक, ग्रामीण परिवेश की दृष्टि की बजाय कला के दृष्टिकोण से दृष्टिपात करें तो इस गवरी नाट्य में अनेकानेक कला आयामों के दर्शन होते हैं। जहाँ कला प्रकृति के कण-कण में प्रत्येक जीव में व्याप्त है, वहाँ केवल कला शिक्षा ग्रहण कर लम्बे व्यक्तव्य के साथ प्रस्तुत की गयी निर्मिति ही कलाकृति नहीं हो सकती। उसी प्रकार आधुनिक कला से अनभिज्ञ यह आदिम वर्ग स्वविचार से नित्य नूतन कृतियों में अपना सर्वस्व अपर्ण कर कलाकृतियों का सृजन करते हैं, जिन्हें आधुनिक कला की श्रेणी में रखा जा सकता है। आधुनिक कला दृष्टिकोण से देखें तो गवरी नाट्य में प्रयुक्त कलाकृतियों को संस्थापन कला के रूप में देखने की अपार सम्भावनाएँ व्याप्त है, आवश्यकता है तो केवल कलात्मक दृष्टिकोण की, जो सौन्दर्यानुभूति करने में सक्षम हो।
1. जगदीश चन्द्र मीणा:भील जनजाति का सांस्कृतिक एवं आर्थिक जीवन, हिमांशु पब्लिकेशन्स, उदयपुर, 2003, पृ. सं. 28
9. https://encryptedtbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQKtnMq88fypPaRp7wqKlCJEtegqEWftsaGYg&usqp=CAU
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
शानदार
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