संस्कृति और सत्ता का अंत: सम्बन्ध
- डॉ.आशीष
शोध सार : सत्ता और संस्कृति के आपसी संबंध भारत और पश्चिम में एक जैसे नहीं है। पश्चिम में राज-सत्ता का वर्चस्व संस्कृति पर हावी रहा है। भारत में सत्ता और संस्कृति अपेक्षाकृत एक-दूसरे के पूरक रहे हैं और उनके मध्य सहज संबंध रहा है। ज्ञातव्य है कि सांस्कृतिक तत्त्व सत्ता की प्राप्ति में सहायक होते हैं। संस्कृति जनमानस से जुड़ी हुई है और सत्ता का तो लक्ष्य ही है कि वह जनमानस में अपनी पैठ बना सके। यही कारण है कि सत्ता वर्ग हमेशा से हर उस क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है, जो लोगों से जुड़ी हो। यही कारण है कि सत्ता संस्कृति को अलग-थलग नहीं छोड़ती। वह संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अपना हस्तक्षेप करती है और उसको प्रभावित करती है। यह प्रभाव दोनों रूपों में देखा जाता है।
बीज शब्द : संस्कृति, संस्कार, मूल्यबोध, नैतिकता, सत्ता, राजनीति, हस्तक्षेप, संरक्षण, संस्कृतिकर्मी, राष्ट्रहित, लोकमंगलकारी
मूल आलेख : रामधारी सिंह दिनकर ‘संस्कृति है क्या?’ निबंध में संस्कृति को गुण के साथ जोड़ते हैं। उन्होंने लिखा है कि “सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है।”[i]
इसी लेख में अन्यत्र उन्होंने लिखा है “संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मांतर तक करती है। अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा पुनर्जन्म भी होता है।... संस्कार या संस्कृति असल में शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है।”[ii]
अर्थात् संस्कृति का जीवन के साथ अंतर्संबंध अघोषित रूप से ही मान लिया गया है। संस्कार, संस्कृति और जीवन के अंतर्संबंध के आधार पर सत्ता को प्रायः यह बताने का प्रयास किया जाता रहा है कि जैसी करनी होगी, उसकी वैसी ही भरपाई भी होगी। संस्कारवान सत्ताधारी इस पक्ष को जानता है, अतः वह जनक की भाँति समाज एवं संस्कृति उद्धारक भी बनता है। जन्म-जन्मांतर और पुनर्जन्म को इसी दृष्टि से देखने की आवश्यकता है कि सत्ताधारी का संस्कारवान होना अत्यावश्यक है ताकि सत्ता के प्रभाव से संस्कृति का एक सुगम रूप विकसित हो।
सामान्य दृष्टि से संस्कृति के विविध पक्ष हैं, जिसमें मनुष्य की दैनिक दिनचर्या, आचार-विचार, उसके व्यवहार, खान-पान, वेशभूषा, पर्व, त्यौहार, रीति-रिवाज, धर्म आदि शामिल है। संस्कृति का एक और पक्ष है, जिसमें कला, संगीत, साहित्य, लोक आदि शामिल है। संस्कृति के ये तत्व मनुष्य के भीतर स्थित अपशिष्ट तत्वों को परिष्कृत कर उनमें मूल्यों की स्थापना करते हैं। मूल्यों की स्थापना करना और लोकमंगल का भाव भी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। दिनकर ने उचित ही लिखा है कि “संसार भर में जो भी सर्वोत्तम बातें जानी या कही गयीं, उनसे अपने आपको परिचित करना संस्कृति है।”[iii] इसलिए ऐसे कोई भी कार्य जो मूल्यहीन हो, जिसमें समष्टि कल्याण का भाव न हो, एकता न हो, स्वार्थ सिद्धि और असमानता हो, उसे संस्कृति नहीं कहा जा सकता। लोक मंगल की भावना और समष्टि कल्याण संस्कृति को बनाए बचाए रखते हैं।
दिनकर ने उचित ही लिखा है कि “आदिकाल से हमारे लिए लोग काव्य रचते आए हैं, चित्र और मूर्ति बनाते आए हैं, वे हमारी संस्कृति के रचयिता हैं। आदिकाल से हम जिस-जिस रूप में शासन चलाते आए हैं, पूजा करते आए हैं, मंदिर और मकान बनाते आए हैं, नाटक और अभिनय करते आए हैं, बर्तन और घर के दूसरे समान बनाते आए हैं, कपड़े और जेवर पहनते आए हैं, शादी और श्राद्ध करते आए हैं, पर्व और त्यौहार मनाते आए हैं अथवा परिवार, पड़ोसी और संसार से दोस्ती या दुश्मनी का जो भी सलूक करते आए हैं, वह सबका सब हमारी संस्कृति का ही अंश है। संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय और संग्रहालय (म्यूजियम, नाटकशाला और सिनेमागृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन होते हैं, क्योंकि उन पर भी हमारी रुचि और चरित्र की छाप लगी होती है।”[iv]
इस प्रकार संस्कृति और सत्ता (राजनीति) का अंतर्संबंध स्पष्ट होता है।
संस्कृति और सत्ता को भारतीय परिप्रेक्ष्य से देखें तो दोनों अलग-अलग धाराएँ हैं, किंतु दोनों अपने आप में विशिष्ट एवं संलग्न हैं। संस्कृति और सत्ता की एक विशेषता यह भी है कि इनके केंद्र में मनुष्य और समाज है। भारत देश में सत्ताधारी अपनी सक्रिय भूमिका से संस्कृति के विभिन्न तत्वों और अंगों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करना चाहता है और उसके संरक्षण के नाम पर हस्तक्षेप करना चाहता है।
संस्कृति और सत्ता को लेकर श्यामाचरण दुबे ने अपनी पुस्तक ‘समय और संस्कृति’ में तीन विचारधाराओं का वर्णन किया है कि पहली विचारधारा के लोग संस्कृति की स्वायत्तता के समर्थक हैं और संस्कृति के क्षेत्र में सत्ता का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं करते। दूसरी धारा के लोग यह मानते हैं कि संस्कृति का स्वरूप निर्धारित होने में आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक प्रक्रियाओं और शक्तियों का योगदान होता है। वहीं, तीसरी धारा के लोगों की मान्यता है कि संस्कृति न तो पूर्ण स्वायत्त है और न ही पूर्ण सत्ता पर निर्भर।
संस्कृति और सत्ता को लेकर यह आम धारणा भी प्रचलित है कि सत्ता के मात्र हस्तक्षेप से संस्कृति का दोहन हो जाएगा। किंतु इन सभी विचारों से पूर्णतः सहमत नहीं हुआ जा सकता। संस्कृति की अपनी विराटता है और सत्ता का अपना अस्तित्व है। कई बार यह आवश्यक हो जाता है कि संस्कृति में सत्ता को हस्तक्षेप करना पड़ता है। इसके दो पहलू हैं - पहला यह कि संस्कृति के नाम पर फैली विकृतियों (अपसंस्कार) को समाप्त किया जा सके और दूसरा संस्कृति के विभिन्न पहलुओं का विस्तार किया जा सके। इसे एक प्रकार से संस्कृति संरक्षण भी कहा जा सकता है।
कला, लोक, संगीत, साहित्य, सांस्कृतिक उत्सव आदि संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। उनमें सत्ताधारी अपनी भागीदारी सुनिश्चित अथवा उसका संरक्षण करना चाहते हैं। इतिहास में भी ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनमें कला, साहित्य, संगीत, लोक आदि का सत्ताधारी संरक्षण करते रहे हैं। इसी क्रम में सत्तापक्ष कलाकारों एवं साहित्यकारों का सानिध्य ज्ञान एवं संस्कृति संवर्धन हेतु ही प्राप्त करते रहे हैं। उदाहरणतः राजा विक्रमादित्य को कालिदास का सानिध्य प्राप्त था, शेक्सपियर की कला रानी एलिज़ाबेथ के संरक्षण में संवर्थित हुई, छत्रपति शिवाजी महाराज और छत्रसाल को भूषण का सानिध्य प्राप्त था तो राजा जय सिंह को बिहारी लाल का सान्निध्य प्राप्त था। बिहारी लाल के संदर्भ में तो एक किवदंती ही बन गई है कि उन्होंने नवोढ़ा पत्नी के साथ रति (क्रिया) के कारण शासन-प्रशासन से भटके हुए राजा जय सिंह को अपने साहित्य के माध्यम से ही सन्मार्ग दिखाया। यह सन्मार्ग मात्र एक दोहे में ही अभिव्यक्त हुआ था -“नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं बिकासु इहिं काल। अली कली ही सौं बंध्यौ, आगैं कौन हवाल॥”[v]
उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि सत्ता संस्कार अर्जन एवं संरक्षण हेतु कलाकार के सानिध्य में रहती है। तात्पर्य यह है कि सत्ता किसी-न-किसी प्रकार संस्कृति के माध्यमों में सक्रिय रही है। वहीं, नेमिचंद्र जैन ने अपनी पुस्तक ‘दृश्य-अदृश्य’ में लिखा है कि सत्ताधारी और संस्कृतिकर्मी की यह नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वे एक-दूसरे से दूर रहें। दृष्टव्य है, “सत्ता का हस्तक्षेप या संरक्षण कला संस्कृति को अनिवार्य रूप से भ्रष्ट करता है; इसलिए संस्कृतिकर्मी या कलाकार को सत्ता से कोई सरोकार नहीं रखना चाहिए : कला-साहित्य की पवित्रता की रक्षा के लिए यह एकदम जरूरी है कि सत्ता की छाया से भी उसे दूर रखा जाये।”[vi]
उपरोक्त कथन का अनुशीलन करें तो दो पहलू उभर कर सामने आते हैं। पहला यह कि संस्कृति और सत्ता के बीच किसी भी प्रकार की संधि या सामंजस्य स्थापित नहीं होना चाहिए अन्यथा संस्कृतिकर्मी वही सृजन करेगा जो सत्ता उससे चाहती है। इस संदर्भ में नेमिचंद्र जैन लिखते हैं- “संस्कृति, कला, साहित्य आदि स्वभाव से ही सत्ता विरोधी होते हैं, इसलिए अगर दोनों के बीच कोई रिश्ता हो सकता है तो वह सिर्फ विरोध का ही हो सकता है; और इसलिए जो संस्कृति सत्ता विरोधी नहीं है वह सच्ची संस्कृति नहीं है।”[vii]
संस्कृति का मूल भाव, नैतिकता, मूल्यबोध, लोकमंगल की भावना है। अतः कई सत्ताधारियों की यह मान्यता है कि आम जनमानस में इन गुणों का सृजन न हो, ताकि वे अपनी व्यक्तिगत नीति का संचालन यथावत् जारी रख सकें। इस प्रकार सत्ता के दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं। एक, निजहित की कामना करने वाली सत्ता और जनहित राष्ट्रहित की कामना करने वाली सत्ता।
ऊपर कलाकारों के सानिध्य की आग्रही सत्ता के उदाहरण दिए गए हैं। नेमिचन्द्र जैन की दृष्टि से देखा जाए तो मध्यकाल में सत्ता का व्यामोह कलाकारों में दिखाई देता है। तुलसीदास और कुम्भनदास ने अकबर की सत्ता को अस्वीकार करते हुए स्पष्ट लिखा था, क्रमशः “हम चाकर रघुबीर के, पटौ लिखो दरबार। तुलसी अब का होहिंगे, नर के मनसबदार।”[viii]
और “संतन को सिकरी सों का काम।”[ix]
इसी प्रकार अकबर के समकालीन श्रीधर नामक कवि ने भी सत्ता के प्रति व्यामोह दिखाया है - “अब के सुल्तान भय फुहियानसे बांधत पाग अटब्बर की। / नरकी नरकी कविता जो करै तेहि काटहु जीभ सुलब्बर की। / इक श्रीधर आस है श्रीधर की नहिं त्रास अहै कोउ बब्बर की। / जिन्हें कोउ न आस अहै जग में सो करौ मिलि आस अकबर की।” इस प्रकार कलाकारों ने धन, कीर्ति और अधिकार का परहेज़ किया और उसी परहेज़ी दृष्टि से सत्ता का तिरस्कार भी किया। यद्यपि कलाकारों का यह तिरस्कार उचित प्रतीत होता है, तथापि सत्ता कलाकारों के संरक्षण के माध्यम से राष्ट्रहित एवं समाजहित की दृष्टि से सांस्कृतिक उत्थान का कार्य भी करती है।
विश्व के कई देशों में साहित्य को बढ़ावा देने के लिए अनेक पुरस्कार सत्ता द्वारा ही दिए जाते हैं, ताकि उत्कृष्ट साहित्य की रचना हो। वहीं, भाषा की अस्मिता को बचाए रखने के लिए भी सत्ताधारी अनेक अनुदान देते हैं जिसका परिणाम यह है कि आज कई दुर्लभ भाषाओं का ज्ञान, जो विविध भाषाओं में मौजूद था, उसका संरक्षण किया जा सका है। साहित्य के बाद कला की बात की जाए जिसमें नृत्य, संगीत आदि सम्मिलित हैं तो उन्हें बचाए रखने के लिए सत्ता अपनी भूमिका निभाती है। देश-विदेशों में होने वाले समारोहों में भारतीय संस्कृति (कला, नृत्य, संगीत) का परिचय देने हेतु सत्ता की ही अहम भागीदारी होती है।
अतः दोनों रूपों का अनुशीलन करने के पश्चात् स्वीकार किया जा सकता कि संस्कृति के निर्माण और संरक्षण में सत्ता का हस्तक्षेप केवल विनाशक के रूप में नहीं होता। हाँ, यह आवश्यक है कि सत्ता का हस्तक्षेप एक निर्धारित दायरे में हो, जिससे संस्कृति की अस्मिता कायम रह सके किंतु यह भी सत्य है कि सत्ता संस्कृति में हस्तक्षेप करने से नहीं चूकती। इस संदर्भ में संध्या सिंह ‘निराला के काव्य में राजनीतिक संदर्भ’ में लिखती हैं, “आज जीवन का कोई भी क्षेत्र राजनीति से अछूता नहीं है। इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, टेक्नालॉजी, काव्य, कला आदि में वह इस तरह घुस गया है कि उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।”[x]
इसलिए आज भी संस्कृति के तत्व आज भी सत्ता प्राप्ति में सहायक सिद्ध होते हैं। वहीं, सत्ता का इस ओर भी ध्यान देना आवश्यक है कि बदलते हुए परिवेश में संस्कृति के मूल तत्वों में किसी भी प्रकार की विकृति का समावेश न हो पाए, क्योंकि संस्कृति के प्रभावित होने पर सामाजिक संरचना में भी परिवर्तन देखा जाता है।
ब्रह्मदत्त अवस्थी ने एक व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करते हुए रेखांकित किया है कि न केवल सत्ता, अपितु समाज का व्यक्ति यदि समाजहित की दृष्टि से सोचता है तो वह समाज और देश सभ्य और सुसंस्कृत बन जाता है। दृष्टव्य है, “जिस देश और समाज में समाज हित जीने वाले व्यक्तियों की संख्या जितनी अधिक होती है और अकर्मण्य बुद्धिहीनों की संख्या जितनी कम होती है, वह उतना ही सभ्य एवं सुसंस्कृत होता है।”[xi]
इस प्रकार व्यक्ति एवं सत्ता संस्कृति का उद्धार कर रहे होते हैं।
दिनकर ने उचित ही लिखा है कि “संस्कृति एक ऐसी चीज नहीं कि जिसकी रचना दस-बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती हो। अनेक शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचते-समझते और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उनकी संस्कृति उत्पन्न होती है।”[xii]
इस कथन में ‘पढ़ते-लिखते’ ‘राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते’ पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इनमें सत्ता का संस्कृति के साथ अंतर्संबंध भी स्पष्ट हो जाता है। सत्ता का ‘लिखते-पढ़ते’ अर्थात् साहित्य के साथ भी अंतर्संबंध स्पष्ट हो जाता है।
कुल मिलाकर संस्कृति, समाज एवं सत्ता का संबंध किसी भी देश एवं समाज की दृष्टि से वास्तव (अटल) है। यद्यपि सत्ता को प्रायः नकारात्मक दृष्टि से ही देखा-समझा जाता रहा है,तथापि भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्राचीन कालीन संदर्भों की दृष्टि से सत्ता समाज एवं संस्कृतिजीवी रही है, इसके अनेकानेक प्रमाण उपलब्ध हैं। जनक की सभा और शास्त्रार्थ तथा गुरुकुल एवं राजपुत्रों की शिक्षा-दीक्षा इस बात के परिचायक हैं कि सत्ता, कला, साहित्य एवं संस्कृति अलग-थलग नहीं हैं। ये सभी एक-दूसरे के पूरक एवं संवर्धक रहें हैं।
सत्ता बनाम संस्कृति का बखेड़ा व्यापक दृष्टि से आधुनिक जीवन एवं समाज की उपज है, जहाँ मनुष्य समाजहित, परोपकारी भावना, लोकमंगल की कामना, राष्ट्रहित से अधिक स्व को पूजने लगा है। सत्ता का सत्व स्वत्व से समाज एवं राष्ट्र में पूर्ण हुआ करता है। जहाँ सत्ता स्व से अधिक घिर जाती है, उसका सत्व समाजहित से परे हो जाता है। ऐसी सत्ता न तो परोपकारी होती है, न कालजयी (चिरस्मरणीय) होकर लोक में सकारात्मक दृष्टि से स्मरणीय होती है। आज भारतीय समाज दारा शिकोह को भी स्मरण करता है और औरंगजेब को भी परंतु दारा शिकोह के नाम में जो सकारात्मक ऊर्जा का स्फूरण होता है, उसके विपरीत औरंगजेब की स्मृति में नकारात्मक। अतः सत्ता का सत्व समाज से ही है, समाज उद्धार से ही है,देशोद्धार से ही है। इसी दृष्टि से सत्ता का मूल्यांकन किया जा सकता है।
वर्चस्व की भाव भूमि यदि समाज हितैषी हो, वह स्वागत योग्य होती है। अच्छा करने के लिए भी बहुत बार वर्चस्व की आवश्यकता होती है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बुराई पर अच्छाई की विजयी के लिए धर्मयुद्ध की परिकल्पना की गई है। यह भी कि अधर्मियों के विनाश के लिए न केवल धर्म का मार्ग अपितु अधर्म का मार्ग भी श्रेयस्कर माना गया है। महाभारत इस दृष्टि से साधिकार प्रमाण है। भारतीयता ऐसे ही आयामों में उजागर होती है। सत्ता का पक्ष-विपक्ष भी ऐसे ही उदाहरणों में व्याप्त है।
निष्कर्ष : वर्तमान समय अत्यंत जटिलताओं से भरा हुआ है। अतः सत्ता में भी वे जटिलताएँ दिखाई देती हैं। ज्ञातव्य है कि सत्ता का समाज से, संस्कृति से और समाज एवं संस्कृति का सत्ता से जाँच-पड़ताल, संशोधन एवं संशुद्धि अनिवार्य है। नहीं भूलना चाहिए कि जिसे राजनीति कहते हैं, जो सत्ता का रूप भी है, उसमें ‘नीति’ भी है। कोई भी समाज बिना राज और बिना नीति के संचालित नहीं हो सकता। इसीलिए कोई भी समाज प्रायः एक उदारतावादी (राष्ट्रवादी) नेतृत्व की तलाश करता है, बशर्ते है कि वह नेतृत्व अर्थात् सत्ता लोकहितैषी हो। संस्कृति एवं सत्ता के स्वरूप को इसी दृष्टि से व्याख्यायित किया जा सकता है। उसका स्वरूप इसी दृष्टि में व्याप्त है। विकारों को तज कर ही एक बेहतर राष्ट्र, संस्कृति एवं समाज की कल्पना की जा सकती है।
सन्दर्भ :
[i]रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति भाषा और राष्ट्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 2013, पृ.11
[ii]वही,
पृ.11
[iii]वही,
पृ.5
[iv]वही,
पृ.13
[v]डॉ.देशराज भाटी, बिहारी सतसई भाष्य, अशोक प्रकाशन, नई
दिल्ली,संस्करण 2012, पृ.45
[vi]नैमिचंद्र जैन, दृश्य-अदृश्य, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 1994, पृ.25
[vii]वही, पृ.25
[viii]रामधारी सिंह दिनकर, साहित्य और समाज, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,प्रथम संस्करण 2008पृ.45
[ix]वही, पृ.45
[x]संध्या सिंह, निराला के काव्य में राजनीतिक संदर्भ,वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2001, पृ. 13
[xi]ब्रह्मदत्त अवस्थी, साहित्य समाज और भारतीयता, नॉर्थन् बुक सेंटर, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2012, पृ.119
[xii]रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति भाषा और राष्ट्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, द्वितीय संस्करण 2013, पृ.12
डॉ. आशीष
सहायक प्राध्यापक, सेंट क्लारेट कॉलेज, बैंगलोर
ashish@claretcollege.edu.in, 9958232816
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
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