शोध आलेख : जगद्गुरु रामानंदाचार्य के अनुसार प्रपत्ति की अधिकारिता / डॉ जितेंद्र थदानी

जगद्गुरु रामानंदाचार्य के अनुसार प्रपत्ति की अधिकारिता
- डॉ जितेंद्र थदानी

शोध सार : मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के सूत्रधार जगद्गुरु रामानंदाचार्य का संपूर्ण भारत में भक्ति को प्रचारित करने का एक विशेष स्थान है वस्तुतः जगद्गुरु रामानंदाचार्य को ही उत्तर भारत में भक्ति के प्रचार का श्रेय दिया जाता है  यद्यपि जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी रामानुजाचार्य की शिष्य परंपरा में ही रहे और श्रीसंप्रदाय का आचार्य होने पर भी जगद्गुरु रामानंदाचार्य ने राम और सीता को अपना उपास्य माना तथा राम भक्ति के प्रचार में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया  स्वामी रामानंदाचार्य ने अपने संपूर्ण जीवन में ज्ञान योग कर्म एवं अन्य मार्ग की अपेक्षा भक्ति की विलक्षणता प्रतिपादित की है जिसका इस शोध पत्र में विवेचन किया जा रहा है-

बीज शब्द : भक्ति, प्रपत्ति, योग, ज्ञान, कर्म, संप्रदाय, शिष्य, भक्तिसूत्र, अधिकारी, सगुण, निर्गुण

अनंत श्री विभूषित जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य को भक्ति आंदोलन का महान संत माना गया है उन्होंने राम भक्ति को समाज के प्रत्येक वर्ग तक ऊंचा करके सभी को भक्ति मार्ग का अधिकारी बना दिया  स्वामी रामानंदाचार्य एकमात्र ऐसे आचार्य हैं जिन्हें उत्तर भारत में भक्ति प्रचार करने का श्रेय दिया जाता है कहा भी गया है-

            द्रविड़ भक्ति उपजौ लायो रामानंद

स्वामी रामानंद ने जिस संप्रदाय की स्थापना की उसे रामानंदी संप्रदाय वैरागी संप्रदाय या रामावत संप्रदाय भी कहा जाता है

स्वामी रामानंद का जन्म प्रयाग की एक ब्राह्मण परिवार में हुआ उनकी माता का नाम सुशीला देवी तथा पिता का नाम पुण्य सदन था  माता एवं पिता भक्ति मार्ग के अनुयायी एवं धार्मिक विचारों वाले थे इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र रामानंद को शिक्षा दीक्षा प्राप्त करने हेतु काशी के स्वामी राघवानंद के आश्रम श्रीमठ में प्रेषित किया  स्वामी जी ने श्रीमठ में रहते हुए वेद पुराण एवं अन्य अन्य धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया तथा श्रीमठ में ही उन्होंने गुरु के सान्निध्य में विभिन्न साधनाएं की

वैष्णवमार्गीय संतों में  स्वामी रामानंद का स्थान महत्त्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रगतिशील संत एवं विचारक रहे  इन्होंने जातिवाद एवं आचारवाद की परंपरा के विपरीत समाज की प्रत्येक जाति एवं वर्ग तक भक्ति को पहुंचाया  उनका कहना था कि यदि परंपरावादी समाज में ऋषियों के नाम से गोत्र पहचाने जाते हैं तो मनुष्य को उस भगवान के नाम से क्यों नहीं पहचाना जाता जिसकी उपासना ऋषि मुनि करते हैं तथा हम सब जिसकी संतान हैं और जहां तक मनुष्य के सामाजिक स्थान एवं समाज का प्रश्न है उसका निर्णय ईश्वर के प्रति प्रेम एवं भक्ति के द्वारा होना चाहिए ना कि किसी जाति विशेष में जन्म लेने के कारण

स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर में अनेक यात्राएं की दक्षिण भारत के कई धर्म स्थानों का भ्रमण उन्होंने किया एवं भक्ति तत्त्व का प्रचार किया  वस्तुतः स्वामी रामानुजाचार्य की शिष्य परम्परा में होने के कारण विशिष्ट अद्वैतवाद का अनुसरण उन्होंने किया है तथा श्री संप्रदाय का आचार्य होने के कारण उन्होंने अपनी भक्ति मार्ग का उपास्य राम एवं सीता को बताया  

स्वामी रामानंद ने भक्ति को ऊंची ऊंची महल और अटारिओं से लेकर के समाज के वंचित गरीब और अछूत माने जाने वाले वर्ग के कुटिया तक पहुंचाया  इतना ही नहीं जनसाधारण तक भक्ति को पहुंचाने के उद्देश्य से स्वामी रामानंद ने संस्कृत के स्थान पर लोक भाषाओं के माध्यम से भक्ति मार्ग का प्रचार किया  स्वामी रामानंद के समय विभिन्न मत, मतान्तरों, पथ, संप्रदायों का विस्तार हो चुका था समाज विभिन्न प्रकार के जाति एवं वर्गों में बंट चुका था परस्पर वैमनस्य विरोध कटुता द्वेष आडंबर अपने चरम पर विद्यमान थे  ऐसे समय में स्वामी रामानंद ने भक्ति नाम के सूत्र से संपूर्ण समाज को एकत्र बांधने का प्रयास किया  इतना ही नहीं रामानंद के शिष्य की परंपरा को देख कर के भी यह ज्ञात होता है कि रामानंद के शिष्य भी विभिन्न जाति और संप्रदायों के प्रतिनिधित्व कर रहे थे रामानंद के 12 शिष्य अत्यंत प्रसिद्ध माने गए हैं जिन्हें महाभागवत तक की संज्ञा दी जाती है।

उन्होंने अनंतानंद, भावानंद, पीपा, सेन नाई, धन्ना, नाभा दास, नरहर्यानंद, सुखानंद, कबीर, रैदास, सुरसरी, पदमावती जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया, जिन्हे द्वादश महाभागवत के नाम से जाना जाता है। इन्हें अपने अपने जाति समाज मे, और अपने क्षेत्र में भक्ति का प्रचार करने का दायित्व सौपा, इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये।

केवल स्वामी रामानंद के शिष्य अपितु उनके शिष्यों के शिष्य एवं शिष्य परंपरा में भी एक से बढ़कर एक भक्त हुए और उन्होंने भक्ति तत्त्व का विस्तार करते हुए समाज में व्याप्त राग द्वेष को भक्ति के माध्यम से समाप्त करने का प्रयास किया रामानंद के शिष्यों में से एक अनंतानंद थे। उन्ही की शिष्य परम्परा में  हुए नाभादास जी जिन्हें डोम जाति का माना जाता था उन्होंने भक्तमाल नाम का ग्रंथ रचा है  वर्तमान में भी भक्ति मार्ग के अनुयायियों में भक्तमाल ग्रंथ की महत्ता अवर्णनीय अतुलनीय है  नाभा दास जी ने इस ग्रंथ की रचना का उद्देश्य बताया की भगवान के भक्तों का यश इस संसार में भवसागर से पार करने का एकमात्र उपाय है-

अग्रदेव आज्ञा दई भक्तन को यश गाउ

भवसागर के तरन कौं नाहिन और उपाउ

और उन्होंने ही भक्तमाल के माध्यम से विभिन्न भक्तों के चरित्र को यश गान करके भक्ति मार्ग का प्रचार किया।

वस्तुतः भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति भज् सेवायां  धातु से क्तिन् प्रत्यय करने पर होती है जिसका अर्थ है सेवा, प्रपत्ति, अनुराग, ईश्वर में अनुरक्ति, आराधना, उपासना, परमेश्वर विषयक परम प्रेम या परमेश्वराकारित चित्तवृत्ति  रामानंद जी की परंपरा में भक्ति शब्द से हमें परमेश्वर विषय प्रपत्ति ही अभीष्ट है  नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है कि वह भक्ति परम प्रेम रूप है अमृत स्वरूप है जिसे पाकर के पुरुष सिद्ध हो जाता है अमृत हो जाता है तृप्त हो जाता है जिसको पाकर वह कुछ और प्राप्त करना नहीं चाहता शोक करता है द्वेष करता है ना हीं रमण करता है ना उत्साही होता है उस भक्ति को जान करके मनुष्य मदमस्त हो जाता है स्तब्ध हो जाता है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात आत्माराम हो जाता है-

सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा

अमृतस्वरूपा

यल्लब्ध्वा पुमान्सिद्धो भवत्यमृतो भवति तृप्तो भवति

यत्प्राप्य ना किञ्चिद्वाञ्छति शोचति द्वेष्टि रमते नोत्साही भवति

 यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवत्यात्मारामो भवति 1                                                                                               

इसी प्रकार से महर्षि शांडिल्य ने शांडिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति तत्त्व का लक्षण प्रस्तुत करते हुए कहा है कि परमात्मा के प्रति परमअनुरागरूप चित्तवृत्ति ही भक्ति है

यही भक्ति श्रीमद्भागवत पुराण में तथा रामचरितमानस में नवधा भक्ति के रूप में प्रकट होती है  वस्तुतः भक्ति ही परमात्मा को प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग है यह भक्ति भगवान के प्रति और गुरु के प्रति हो उसी व्यक्ति के हृदय में शास्त्रों का अर्थ प्रकाशित हो जाता है और परमात्मा प्रकट हो जाता है  श्वेताश्वेतरोपनिषद् में भी स्पष्ट कह दिया गया-

यस्य देवे पराभक्ति: यथा देवे तथा गुरौ।

तस्यैते कथिता ह्यर्था:, प्रकाशन्ते महात्मन:2                       

अब प्रश्न यह उठता है कि जब परमात्मा को प्राप्ति के विविध मार्ग हैं यथा ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, धर्ममार्ग, योगमार्ग, भक्तिमार्ग  विभिन्न संतो महापुरुषों ने भक्ति मार्ग की अपूर्वता ही क्यों सिद्धकी

सर्वप्रथम हम कर्म मार्ग पर विचार करते हैं  कर्म का क्या तात्पर्य है ? स्मृतियों में वर्णाश्रम धर्म के पालन को ही कर्म कहा गया है  कलिकाल में श्रुति स्मृत्युक्त वर्णाश्रम धर्म का पालन अत्यंत कठिन है  भागवत में इसी कर्म धर्म के पालन के कुछ नियम बताए गए हैं जिनका पालन कलयुग में प्रत्येक जीव के लिए संभव नहीं है  ‘’ते तु दुस्तरा: कलौ’’         

श्रीमद्भागवत पुराण के में भी इस धर्म-कर्म के पालन के 6 नियमों की चर्चा की गई है तथा उनका विपर्यय होने पर ठीक ठीक पालना होने पर अधर्म होने की भी बात कही अतः कर्म मार्ग अत्यंत सरल नहीं।

धर्म: सम्पद्यते षड्भिरधर्मस्तु विपर्यय: 3

दूसरा कर्म मार्ग का श्रेय लेने पर जो फल प्राप्ति है वह स्वर्ग है  स्वर्ग लोक के सुख भी क्षणभंगुर एवं मायिक इस कर्म मार्ग के आश्रय से इहलौकिक और पारलौकिक सुखों की प्राप्ति तो हो रही है किंतु परमानंद एवं ईश्वर की प्राप्ति संभव नहीं है मुंडक उपनिषद् भी कहती है-

इष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढाः

नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेऽनुभूत्वेमं लोकं हीनतरं वा विशन्ति 4

ज्ञान मार्ग से निश्चय ही हमें लक्ष्य की प्राप्ति होती है अर्थात् ब्रह्म की प्राप्ति होती है मुक्ति भी प्राप्त होती है  आप्तग्रंथ भी इस मार्ग का समर्थन करते हुए कहते हैं कि ज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी मार्ग से मुक्ति संभव नहीं है....

ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:

यह मुक्ति कष्टों से निवृत्ति भी हो सकती है शरीर से छूटना भी हो सकती है या जन्म मरण से मुक्ति भी मुक्ति ही है  परमानंद प्राप्ति के रूप में देह तथा देह का अभिमान मुक्त हो जाए यह विमुक्ति है   गीता में भी ज्ञान के समान अन्य किसी को पवित्र माना ही नहीं गया है-

नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते 5

ईशावास्योपनिषद भी मुक्ति हेतु ज्ञान अर्थात विद्या को ही साधन बताती है-

विद्याSमृतमश्नुते 6

स्पष्ट ही है कि ज्ञानमार्ग से कष्टनिवृत्ति, देहाभिमानमुक्ति, दुखमुक्ति, आनंदप्राप्ति संभव है ज्ञान मार्ग का आश्रय लेने पर अधीत विषयों का श्रवण मनन एवं निदिध्यासन भी आवश्यक है जो कि प्रत्येक जीव के लिए संभव नहीं  है

ज्ञान मार्ग का आश्रय लेने से पूर्व इस विषय पर भी हमें विचार करना पड़ेगा कि इस ज्ञान मार्ग का आश्रय लेने का अधिकारी कौन है  क्या प्रत्येक साधारण से साधारण जीव इस मार्ग का अनुसरण करके अपने परम चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है? इस विषय में वेदांत सार नाम के ग्रंथ में ज्ञान मार्ग के अधिकारी के ऊपर प्रकाश डाला गया है कि इस मार्ग का अधिकारी कौन हो सकता है...

अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेनापाततोऽधिगताखिल वेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरःसरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिलकल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टयसम्पन्नः प्रमाता 7

अधिकारित्व के इन नियमों का पालन प्रत्येक जीव के लिए असंभव है और जिनके लिए संभव है वे भी इन नियमों का पूर्ण तरह पालन करने में असमर्थ है अतः ज्ञान मार्ग का अधिकारी होना हर एक के लिए संभव नहीं और जब व्यक्ति अधिकारी ही नहीं बन सकता है तो हमारे परम लक्ष्य की प्राप्ति तो पूर्णत: असंभव ही है।

फिर योग मार्ग पर पर विचार करते हैं जो कि दिखने में बड़ा ही सरल दिखता है  योगासन कर लीजिए प्राणायाम कर लीजिए हो गया योग सिद्ध  लेकिन व्यावहारिक रूप में जब तक योग के आठ अंगों का नियमानुसार क्रमशः पालन किया जाए जब तक अंतिम अंग समाधि सिद्ध हो जाए तब तक परम लक्ष्य की प्राप्ति संभव नहीं है  यह मार्ग भी अत्यंत कठिन एवम् दुष्कर है।

तत्पश्चात भक्ति मार्ग पर विचार किया जाए के भक्ति मार्ग से ब्रह्मानंद प्राप्ति भगवत प्राप्ति आनंदवादी एवं दुख निवृत्ति सहज ही संभव है श्रीमद्भागवत में भी अनेक मार्गों के होते हुए भी भक्ति मार्ग को सहज सरल सुलभ एवं श्रेष्ठ बताया गया इस भक्ति मार्ग के द्वारा भक्त स्वर्ग अपवर्ग और परमधाम को भी या वह जो कुछ भी चाहता है अपना अभीष्ट सहज ही प्राप्त कर लेता है

गीता में भी भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कह रहे हैं कि हे अर्जुन तो में वेदों के द्वारा, ज्ञान से, तपस्या से, ना दान से, ना ही यज्ञ के द्वाराप्राप्त हूं अपितु अनन्य भक्ति से में सहज ही प्राप्त हो जाता हूं-

नाहं वेदैर्न तपसा दानेन चेज्यया।

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।

ज्ञातुं दृष्टुं तत्त्वेन प्रवेष्टुं परंतप।।8

            नारद भक्ति सूत्र में भक्ति के आचार्य नारद डिंडिम  घोष करते हुए कह रहे हैं कि ज्ञान कर्म योग की अपेक्षा भक्ति अधिकतर है

सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्योऽप्यधिकतरा 9

भक्ति अर्थात प्रपत्ति की अपूर्वता इसी बात से सिद्ध है कि यह मार्ग इतना सरल है कि इस मार्ग के अधिकारी प्रत्येक वर्ग जाति के मनुष्य स्त्री या पुरुष हो सकते हैं-

सर्वेSधिकारिणो ह्यत्र हरिभक्तौ10

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।11

रामचरितमानस में भी गोस्वामी तुलसीदास इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि-

पुरुष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ।

सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ॥12

स्वामी रामानंद ने भी विष्णु के सगुण और निर्गुण रूपों की उपासना पर बल दिया उनकी दृष्टि में भी स्त्री पुरुष शक्त अशक्त सशक्त बिना किसी कुल बल काल और शुद्धता की प्रपत्ति के अधिकारी हैं इसका प्रमाण उनकी शिष्य परंपरा में राजा और रंक ब्राह्मण और चर्मकार जुलाहे सगुनवादी निर्गुणवादी स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के वर्ग का प्रतिनिधित्व था  स्वामी रामानंद ईश्वर कृपा के अधिकारी के संबंध में कहते हैं कि

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा ।शक्ता अशक्ता अपि नित्यरंगिणः

अपेक्ष्यते तत्र कुलं बलं नो चापि कालो हि शुद्धता च।13

भक्तिरसामृतसिंधु में भी इस प्रपत्ति मार्ग के आश्रय के कोई नियम नहीं है ना तो अति आसक्ति आवश्यक है ना अति विरक्ति आवश्यक है...

नातिसक्तो   वैराग्यमस्यामधिकार्यसौA14

इसी भाव को श्रीमद्भागवत पुराण में इस प्रकार से लिखा गया है-

निर्विण्णो  नातिसक्तो भक्तियोगोSस्य सिद्धिद: A15

भगवान श्रीकृष्ण इस भक्ति मार्ग की सरलता सहजता सहज अधिकारिता पर इतना तक कह देते हैं कि अगर कोई सुदुराचारी भी, बड़े से बड़ा पापी दुराचारी भी अगर भगवान का भजन करता है तो वह साधु ही माना जाएगा अर्थात साधु तो इस भक्ति मार्ग का अधिकारी है ही किंतु अगर अवतारी दुराचारी भी कोई अगर है तो वह भी इस भक्ति मार्ग का अधिकारी है-

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।

साधुरेव मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।16

सत्य ही है एक बार भगवान के चरण शरण में आया हुआ व्यक्ति कितना भी काफी दुराचारी क्यों ना हो शरणागति से वह साधु ही हो जाता है और ऐसे भक्तों के प्रति अपराध करने वाले को परमात्मा भी माफ नहीं करते  स्वामी रामानंद ने भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहा है कि वह प्रभु दयालु है तथापि अपने भक्तों का अपमान वह सहने में असमर्थ है इसलिए किसी को भी प्रभु भक्तों का अपराध नहीं करना चाहिए-

भक्तापचारमासोढुं दयालुरपि प्रभुः

शक्तस्तेन युष्माभिः कर्त्तव्यो क्वचित्।17

            गीता में भी भगवान श्री कृष्ण इसी बात को कहते हैं जो अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है उस प्रेमी भक्त का योगक्षेम स्वयं वहन करता हूं भक्तों को जो प्राप्त है उसे भगवान प्राप्त करवाते हैं उसके प्राप्त की रक्षा करते हैं और रक्षित की वृद्धि भी करते हैं-

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।18

इतना ही नहीं भगवान स्वयं भक्तों की रक्षा भी करते हैं और उसे प्रत्येक विनाश से बचाते हैं इसी प्रतिज्ञा को लेते हुए भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा है कि-

            कौन्तेय प्रतिजानीहि मे भक्तः प्रणश्यति।।19

निश्चित रूप से यह भक्ति मार्ग ज्ञान मार्ग कर्म मार्ग योग मार्ग एवं अन्य किसी भी मार्ग की अपेक्षा अत्यंत ही सरल सहज सुलभ और अपूर्व है भक्ति की इसी विशेषता को देख कर के भगवान का अपने भक्तों के प्रति अनुराग और भक्तों की अपने इष्ट के प्रति शरणागति देखकर के नारद मुनि ने अपने भक्ति सूत्र में उद्घोष ही कर दिया कि भक्ति ही श्रेष्ठ है-

त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी 20

विवेक चूड़ामणि भी इसी बात का समर्थन करती है कि-

मोक्ष कारणसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी21

निष्कर्ष : सार रूपेण इतना ही कहा जा सकता है कि कर्म मार्ग के फल की नश्वरता ज्ञान मार्ग के अधिकारित्व का काठिन्य योगमार्ग की दुष्करता से यह भक्ति मार्ग अपूर्व है जिससे केवल दु: की निवृत्ति होती है परमानंद प्राप्ति होती है अपितु भगवत्प्रेम भी मिलता है इसीलिए वेद से लेकर रामचरितमानस तक, वैदिक ऋषि यों से लेकर के कलयुग के भक्तों तक ने इस भक्ति मार्ग का ही गुणगान किया है और इसी मार्ग के परंपरा को स्वामी रामानंद ने जन जन तक पहुंचाने का जो श्रम किया है निश्चय ही वह अतुलनीय है और स्वामी रामानंद जी का यह कार्य  कि भक्ति के, प्रपति के अधिकारी सब हैं यह जनकल्याण का ही एक मार्ग प्रशस्त करता है।

सर्वे प्रपत्तेरधिकारिणः सदा

  सन्दर्भ :
नारदभक्तिसूत्र 2.3.4.5.6.
श्वेताश्वेतरोपनिषद् 6/23
श्रीमद्भागवद्पुराण 11/21/15
मुंडक उपनिषद 1/2/10
श्रीमद्भागवद्गीता 4/38
ईशावास्योपनिषद्
वेदान्तसार
श्रीमद्भागवद्गीता 11/53.54
नारदभक्तिसूत्र 25
10 पद्मपुराण
11 श्रीमद्भागवद्गीता9/32
12 रामचरितमानस उत्तरकांड 87/
13 वैष्णवमताब्जभास्कर 99
14 भक्तिरसामृतसिंधु
15 श्रीमद्भागवत पुराण 11/20/8
16 श्रीमद्भागवद्गीता9/30
17 श्रीरामानंद दिग्विजय 12/5
18 श्रीमद्भागवद्गीता9/22 
19 श्रीमद्भागवद्गीता9/21
20 नारद भक्ति सूत्र 81                 
21 विवेकचूडामणि

डॉ जितेंद्र थदानी
सहायक आचार्य (संस्कृत), सम्राट पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय अजमेर
jitenderthadani27@gmail.com, 9214523505
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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