(1)
माफी चाहता हूँ कि नकारात्मक हालात का जिक्र करते हुए बात शुरू कर रहा हूँ। खुद से आरम्भ करते हुए जब मैं दुनिया को देखता हूँ तो पाता हूँ कि मनुष्य समस्याओं के ढेर पर बैठा हुआ है। अपनी उदासी पर रो रहा है। परिवार से लेकर हमारी प्यारी धरती तक दोनों भयंकर रूप से तप रहे हैं। थर्मामीटर ने जवाब दे दिया है। गहरे में जाएंगे तो पाएंगे कि पूरी की पूरी मानव पीढ़ी ने खुद को केवल शरीर मानकर बेड़ा गर्क ही तो किया है। शरीर को तो समस्त सुख मिल गया है मगर मन खाली के खाली रह गए। जिससे भी बात करें वह अपने अव्यक्त दुःख के साथ उपस्थित मिलेगा। अपनों को सुनने की तहज़ीब हमने बहुत पहले ही खो दी है। धन कमाने की दौड़ ने हमसे बहुत कुछ लील लिया है। खो चुकने का आभास भी बहुत कम के दिल ने महसूस किया है। बचपन से अभिभावकत्व शून्य हो गया है। माता-पिता को बच्चे पालना आ नहीं रहा है। आज के बच्चे तर्क से संतुष्ट होते हैं। अब वक़्त चला गया है जब आस्था, भय और प्रलोभन देकर आप बच्चों को पाल लेते थे। प्रगतिशीलता के अतिवाद ने दाम्पत्य की जड़ें खोद डाली है। बुढ़ापा अब किसी की रूचि का विषय नहीं रहा है। साहित्य में वृद्ध विमर्श की आमद हमारा अपना कमाल है।
यौवन का दूजा नाम मनोरंजन बनता जा रहा है। असल में पश्चिम को हमने बिना समझे अपनी छाती से लगा लिया है। वहाँ की पूरी वैचारिकी में ‘आत्म’ को लेकर कोई विचार नहीं है। इसी जीवन रुपी आत्मा के विकास के लिए भारतीय दर्शन में भरसक लिखा और विचारा गया है। हमारे जीवन में आया यह खालीपन अचानक नहीं आया। इन्द्रीय सुख ही असली सुख है यह बड़ी गफलत थी। मन की ज़रूरतें समझना कभी भी हमारी प्राथमिकता नहीं रही। सुविधाओं में ही सुख ढूंढ़ने की हमारी ज़िद हमें यहाँ तक लेकर आई है। शिक्षा के साथ-साथ आज समाज तलाक के बढ़ते केस भोग रहा है। परिवार में रहने लायक समझ हमारे भीतर नहीं आ सकी। कब सोना और कब जागना है यह तक नहीं समझ सके। खानपान और ध्यान-योग तो बहुत दूर की बात हो जाएगी। जो भी सुखी दिख रहा है वह अंदर से बड़ा घायल है। आडम्बर ही हमारा स्थाई राग हो चला है। दिखावा राष्ट्रीय बीमारी हो गया है। काम अपने भीतर पर करना था और हमने ऊपर-ऊपर से एक जैसे परिधान पहनकर एकता दिखाने की हौड़ मचा रखी है। आन्तरिक टूटन को छिपाना हमें भले से आने लगा है। जीवन को समझने में हमने बड़ी देर कर दी। शिक्षा न मूल्य विकसित कर सकी न चेतना का ठीक से विकास। बच्चों के मन में अपने आसपास के बड़ों के प्रति आस्था लगातार घटती जा रही है। हथियारों की संख्या में नित नयी बढ़ोतरी हमारे लिए शर्म का विषय है। थाना-कचहरी में दर्ज केसों की संख्या हमारे माथे पर कलंक की मानिंद है। यही यात्रा हमें रूस-युक्रेन तक ले जाती है।
हिंदुस्तान में इतने शानदार और गंभीर दर्शन मौजूद रहे मगर हमारी शिक्षा पद्दति ने उनका सदुपयोग कभी नहीं किया। इंसान आज चिंतन और चिंता की मुद्रा में अवस्थित है मगर उपयुक्त हल से बहुत दूर है। मानव ने अपनी ताकत का उपयोग करते हुए भौतिकता के चरम को तो छू लिया और सुविधाओं का अम्बार लगा दिया है किन्तु हमारे घर अजायबघर हो रहे हैं। आदमी की पहचान उसका बाहरी आवरण हो चला है। पैसे वाले का सम्मान है। जेल में जाना फैशन हो गया है। शूटर के नाम से सोशियल मीडिया फ्रंट पर आई डी बनाना दिलेरी और गैंग को फोलो करना साहस की बातें हो गयी हैं। शिष्य मिलकर गुरु की हत्या तक कर देने लगे हैं। समझना हमेशा शेष रहता है। अफ़सोस जैसे शब्द अब अपने मायने खोने लगे हैं। आचरण को देखने और जानने की ताकत हमारे भीतर नहीं आ सकी इसलिए आदमी को देखते हैं तो लम्बाई-चौड़ाई देखते हैं। काला-गोरा देखते हैं। एक समय के बाद इंसान की डिग्रियाँ बोनी हो जाती हैं और आचरण रद्दी की टोकरी। कागज़ में लिखित योग्यता से इंसान का व्यक्तित्व मेल नहीं खाता है अब। सभी बराबरी में लगे हैं। आपसी तुलना ने जितना सत्यानाश किया है उतना किसी ने नहीं। भौतिक संसाधनों और संबंधों में संतुलन का गणित हम नहीं समझ सके। अभी गिरने का चरम आना बाकी है। उसके बाद लौटना ही होगा।
(2)
समाज में अधिसंख्य का अभी भी यही मानना है कि नाचना-गाना दोयम दर्जे का काम है। यह किसी बिरादरी विशेष से जुड़ा हुआ काम है। अमूमन रूप से यह नाचना जैसी क्रिया स्त्रियोचित हुनर है। पुरुषों को नृत्य से दूर रखा जाता था या वे दूर रहते थे। मान्यताएं ऐसी बनी कि नृत्य में रूचि रखने वाले पुरुषों को न्यारी नज़र के साथ देखा जाने लगा। उनमें पुरुषत्व की कमी जैसे गुण थोपे गए। शादी-ब्याह में भी बहुत कम ही पुरुष नाचते रहे। बीते दिनों एक वार्तालाप सुना तो दंग रह गया कि विद्यालय के संगीत अध्यापक ने विद्यार्थियों से घुंघरू मंगवाए। लोगों ने साफ़ मना कर दिया कि गायन-वादन करवा लेंगे मगर नृत्य नहीं। संगीत वाले गुरूजी पुरुष थे। कथक सिखाते हैं। ज़ाहिर है उनकी चाल और बातचीत में मुद्राएं लावण्य के साथ बड़ी भावपूर्ण रहती हैं। लचक कर चलते हैं। यह उनका पेशा है। अभिभावकों को लगा कि कहीं यह हमारे लड़कों को ‘कुछ और’ न बना दें। आप जानते हैं भारतीय संस्कृति में कितने बड़े-बड़े विद्वान नर्तक हुए हैं जिन्हें अखिल विश्व में सम्मान मिला। पंडित बिरजू महाराज की कई यादें हैं मेरे पास। गुरु मुन्ना शुक्ला जी ने दिल्ली कथक केंद्र में हज़ारों लड़कों को नृत्य सिखाया है। पंडित दीपक महाराज और उनके बड़े भाई पंडित राममोहन महाराज से कौन परिचित नहीं है। ओड़िसी के महान नर्तक केलूचरण महापात्र अपने आप में विरासत थे। जयपुर घराने के पंडित राजेंद्र गंगानी जी के नृत्य में भक्ति अटूट रूप से उमड़ती है। दक्षिण में जाएंगे तो विद्वान कलामंडलम गोपी का कथकली कोई भूल सकता है। महान गुरु अम्मानुर माधव चाक्यार की कुड़ीयट्टम की मिसाल आज तक कायम है। मार्गी मधु, मार्गी विजय कुमार कितने-कितने नाम है भाई। हुनर और कलाओं में स्त्री-पुरुष जैसा भेद नहीं होता है। हाँ रूचि भिन्न-भिन्न हो सकती है। कुतर्क अच्छा नहीं है। आज फ़िल्मी दुनिया में कितने डांस कोरियोग्राफर पुरुष ही हैं। कलाओं को सिखने के लिए वातावरण की बड़ी भूमिका रहती है तो आज हर जाति-बिरादरी के विद्यार्थी नृत्य-संगीत सीखकर गा-बजा रहे हैं। आख्यानों में पाएंगे कि हमारे यहाँ देवता खुद नृत्य करने लगते थे। श्री कृष्ण इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। नृत्य मनोभाव की एक अभिव्यक्ति है। स्पिक मैके का भला हो जिसने मुझे देशभर के दर्जनों ऐसे लोक नृत्यों की धरोहर से परिचय करवाया कि आज लगता है पुरुषों ने एक से एक नृत्य में अपनी प्रतिभा दिखाई हैं। बिरहा गाते हुए राम कैलाश जी यादव क्या बोल-बनाव करते थे कि दिल उन पर फ़िदा हो जाता था। तारापद रजक की छाऊ मण्डली में तो सारे नर्तक ही पुरुष हैं। अरे हाँ याद आया गोटिपुआ के समूह में सभी लड़के ही नाच करते हैं। क्या गज़ब के करतब और भंगिमाएँ कि देखते रह जाएं। नृत्य में सबकुछ गणितीय है। मैंने विज्ञान के कई विद्यार्थियों को नृत्य में लीन देखा है। कुचिपुड़ी के गुरु जय रामाराव भी एक बड़ा नाम है जो अभी याद आया। खैर जानकारी के अभाव में मान्यताएं हमारी समझ पर प्रश्न चिह्न लगा देती हैं।
(3)
चैट जीपीटी के दौर में लेखक अपने सृजनात्मक रचना-कर्म को लेकर चिंता में हैं। प्री-वेडिंग के बाद अब पोस्ट वेडिंग भी आ गया है। कॉलोनियों के बगीचों में खेलना मना है। कागज़ के स्थान पर किंडल आ गया है। ट्विटर की चिड़ियाँ पर कुत्ता भौंक रहा है। तमाम बाज़ारी ख़बरों के बीच सुना है दिल्ली में ‘वैखरी’ नामक आयोजन ने बहुत सार्थकता जनी है। गिरने और मरने के दौर में बनारस में नागरी प्रचारिणी सभा का व्योमेश भाई के प्रधानमंत्रित्व में नया जनम हुआ है। सुखद खबर यह कि अरसे बाद भीलवाड़ा में बीते दिनों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का ‘पी.यू.सी.एल सम्मलेन’ हुआ है। सुखद यह भी है कि कोरोना के लम्बे अंतराल के बाद स्पिक मैके का आठवां इंटरनेशनल कन्वेंशन नागपुर में होने जा रहा है। ‘हिन्दवी’ चैनल के ‘संगत’ सीरिज में अब तक ग्यारह बड़े रचनाकारों से बढ़िया बात करके अंजुम शर्मा ने साहित्य जगत में आस लगाई है। लगने लगा है कि अब खाली साहित्य पढ़ने से काम नहीं चलेगा बल्कि इतिहास भी पढ़ना पड़ेगा। जब सिलेबस कम किए जाने के समाचार मिले तो लाइब्रेरी कल्चर को बढ़ाने की जिम्मेदारी उठानी होगी। आकांक्षा है कि नई शिक्षा नीति कुछ राह दिखाएगी। किताबें चयन का विषय है। ‘हर-कुछ’ पढ़ लेने से ‘हर-कुछ’ बन जाने का भय विद्यमान रहता है। बनना केवल और केवल हमारे आसपास पर निर्भर है। अपने आसपास को लेकर सदैव सतर्क रहें।
(4)
पत्रिका का छियालीसवाँ अंक बेहद सामान्य अंक है। रचनाओं में विविधता आपके लिए लेकर आए हैं। धरोहर स्तम्भ में डॉ. पयोद जोशी का आलेख बेहद ज़रूरी आलेख है। पुष्पराज यादव, दीपक ग़ाज़ीपुरी, सुमित चौधरी, संजय साव और मोहित दशोरा की काव्यात्मक रचनाएं आस जगाती हैं। ऐसे नए रचनाकारों का यहाँ हमेशा स्वागत है। कथाकार कविता जी, समालोचक डॉ. सत्यनारायण व्यास और महेश कटारे जी से संवाद छापकर अंक समृद्ध हुआ है। डॉ. हेमंत कुमार और डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर अब हमारे पक्के स्तम्भ-लेखक हैं। अनुभव होता है कि ये दोनों लम्बे टिकेंगे। राजाराम भादू जी और सूरज बडत्या जी से हमने निवेदनपूर्वक लिखवाया है। संपादक मंडल के साथी डॉ. मुकेश कुमार मिरोठा की अंडमान की यात्रा का दस्तावेज़ भी छपा है। अनुक्रमणिका में सांस्कृतिक विरासत, लोक-संसार, स्त्री-समाज सहित योग और मीडिया से जुड़े कई आलेख हैं। ‘केम्पस के किस्से’ कॉलम में पहली दफा पुष्पा कुमारी को अवसर दिया है। प्रतिक्रियाएं आएंगी ऐसा लगता है। पत्रिका को दस वर्ष पूरे हो चुके हैं। आशा है इस वर्ष से ज्यादा जवाबदेही के साथ सम्पादन कार्य करेंगे। जल्दी ही सम्पादन टीम में कुछ बदलाव के साथ नए वित्तीय वर्ष में कुछ योजनाएं लेकर आना है। ऐसा मन बन रहा है। समस्त पाठकों की बेहतरी की कामना के साथ।
- माणिक
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)
महत्वपूर्ण और प्रासंगिक। समसामयिक तत्व भरपूर। तथ्यों से सराबोर संपादकीय। बधाई आपको। सफलतापूर्वक एक दशक की यात्रा पूर्ण करने पर पत्रिका और इसकी टीम को भी बधाई और अनन्त मंगलकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले 'अपनी माटी ' द्वारा एक दशक का सफर तय करने पर हार्दिक बधाई💐।सम्पादकीय जिस तरह का है वैसा लिखने की परम्परा सम्पदक सम्प्रदाय में नहीं मिलती।पहला परिच्छेद आईना लिए खड़ा है।यह दिखाने के लिए कि मुस्कुराते मुखौटों के नीचे हमारे चेहरे कितने उदास,निराश और रोबोटिक हैं।दूसरे परिच्छेद में यह बात सशक्त ढंग से उभरी है कि हमारी कला विषयक धारणाएँ कई बार कूपमंडूकता जनित होती हैं।परम्परा, संस्कृति, नैतिकता की जमीन उनके नीचे नहीं होती।इसके लिए शलाका पुरुषों का स्मरण महत्त्व रखता है।तीसरा परिच्छेद अँधेरे में उम्मीद जगाते दीयों की लौ को समर्पित है।अंतिम परिच्छेद में प्रस्तुत अंक की विषयवस्तु की ओर एक इंगित है।
जवाब देंहटाएंआपका सम्पादकीय नये क्षितिज खोलता है | साहित्य, कला और संगीत के बीच की आवाजाही का रेखांकन करना विशेष है | प्रयाग शुक्ल, उदयन वाजपेयी, अशोक भौमिक और अशोक वाजपेयी की याद आना मायने रखता है | स्पीक मैके का अवदान विचारणीय है | एक बार पुनः आपको और आपकी पत्रिका के परिवार को हार्दिक शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंमाणिक जी नमस्कार
जवाब देंहटाएंमाणिक जी नमस्कार, आज यात्रा के दौरान अपनी माटी से पहली बार मिला, लगा अर्से से जारी तलाश जैसे गंतव्य तक पहुंच गई हो, ताजा अंक और सम्पादकीय पढ़ा, अच्छा लगा, हिन्दी में स्तरीय प्रकाशन के लिए साधुवाद, और दस सालों की तपस्या के लिए हार्दिक बधाई,
जवाब देंहटाएंडॉ मयंक दीक्षित
9425121880
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