शोध आलेख : बहु-संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद की बीच बहस धर्म सम्बन्धी अधिकारों का मुद्दा : एक अध्ययन / डॉ. पयोद जोशी

बहु-संस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद की बीच बहस धर्म सम्बन्धी अधिकारों का मुद्दा : एक अध्ययन
- डॉ. पयोद जोशी

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हिन्दी फिल्म रिफ्यूजीमें जावेद अख्तर के लिखे एक गाने की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

            पंछी नदियाँ पवन के झौकें
            कोई सरहद ना इन्हें रोके।
            सरहद इंसानों के लिए है,
            सोचो क्या पाया तुमने और मैने इंसां होके।

सरहदें प्रकृति ने नहीं, इंसानों ने बनाई। इंसानों ने कब और क्यों ऐसा किया यह बताना तो संभव नहीं है, किन्तु इतिहास बतलाता है कि धरती की छाती इंसानों की बनाई लकीरों से रक्तरंजित होती रही है। समय के साथ लकीरों का घेरा बढता चला गया और बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में प्रथम विश्व युद्ध के बाद इन लकीरों को नए सीरे से खींचा गया और राष्ट्रों का पुर्नसीमांकन किया गया। यह लकीरें इतनी अन्यायपूर्ण थी कि राष्ट्रों के बीच संघर्ष समाप्त नहीं हुए और दो दशक बाद ही दुनिया को दूसरा विश्वयुद्ध झेलना पडा। संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुए। सीरिया के निर्वासित शरणार्थी, म्यामार के रोहिंग्या मुस्लिम, बोसनिया के सर्ब पूरी मानवता से पूछ रहें हैं- सोचो क्या पाया तुमने और मैने इंसां होके।

राष्ट्रवाद को लेकर होने वाली बहस इस विचार पर आधारित है कि एक राष्ट्र क्या है और उसके संघटक क्या हैं? इसलिए हमें सर्वप्रथम राष्ट्र के विचार को समझना होगा। शाब्दिक दृष्टि सेराष्ट्रका अंगरेजी पर्यायनेशनलेटिन शब्दनासीसे बना है जिसका अर्थ है- जन्मना। इस रूप में राष्ट्र समान नृजातीय पहचान वाले लोगों का समूह है। यह राष्ट्र को सांस्कृतिक इकाई के रूप में देखने की धारणा है। इस दृष्टि से राष्ट्र उन लोगों का समूह है जो भौगोलिक कारणों से ऊपजी समान नृजातीय पहचान, रहन-सहन, खान-पान, भाषा और परम्पराओं की एकता से बंधा हो। आरंभिक धारणा राष्ट्र को सांस्कृतिक और नृजातीय इकाई के रूप में देखने की ही रही। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हरडर और फिक्टे जैसे जर्मन दार्शनिकों ने राष्ट्र को सांस्कृतिक समूह के रूप में अवधारणाबद्ध किया। हरडर ने राष्ट्र को भौतिक भूगोल, पर्यावरण और वातावरण के कारण समान जीवन पद्धति, कार्य व्यवहार और सृजनात्मकता वाले लोगों का समूह माना। इन सबसे भी ज्यादा हरडर ने भाषा को राष्ट्र की आधारभूत इकाई माना। उसका मत था कि व्यक्तियों की जन्मना एकता संस्कृति विशेषकर उनकी भाषा में अभिव्यक्त होती है। साहित्य, संगीत, इतिहास और परम्पराएँ एक भाषा के रूप में अभिव्यक्त होकर राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधते हैं। इसलिए हडलर का राष्ट्रवाद इतिहास के नायकों, परम्पराओं और समान स्मृतियों को समान भाषा के माध्यम से अभिव्यक्त कर राष्ट्र की एकता का शंखनाद करता है। हडलर के लिए राष्ट्र एक प्राकृतिक अथवा सावयव इकाई है जो अपनी परम्पराओं, इतिहास और मूलता पर गर्व करता है। वह भाषा के माध्यम से इस गर्व को आने वाली पीढियों को स्थानांतरित करता है और सभ्यता के अनंतकाल तक वह राष्ट्र के गौरव को जीवित रखता है। आधुनिक समाज मनोवैज्ञानिक भी राष्ट्र को इसी रूप में देखने का प्रयास करते हैं। व्यक्ति सुरक्षा और पहचान के संकट से ग्रस्त होकर समूह में रहने का प्रयास करता है। समूह बनाने की प्रक्रिया में वह समान संस्कृति, पृष्ठभूमि और जीवन पद्धति वाले व्यक्तियों के साथ जुडकर राष्ट्र का निर्माण करता है। एंथोनी स्मिथ का भी मत है कि ऐतिहासिक रूप से समान संस्कृति, सभ्यता और भाषा वाले समूह जब अपनी स्वतंत्रता और सम्प्रभुता की रक्षा के लिए राज्य का निर्माण करते हैं तो एक राष्ट्र निर्मित होता है। (स्मिथ : 1986 : 129)

 राष्ट्रवाद की धारणा के विकास क्रम को देखें तो यह एक आधुनिक अवधारणा है जिसका उदय राष्ट्र- राज्य के आगमन के साथ हुआ। इस रूप में इसका इतिहास 200 वर्ष से भी पुराना नहीं है। मैकियावली ने सर्वप्रथम राष्ट्र-राज्य का विचार रखा और सन 1648 की वेस्टफैलिया संधि के साथ राष्ट्र-राज्यों का उदय हुआ। आरंभिक रूप में राष्ट्रवाद 15वीं और 16वीं सदी के पश्चिमी यूरोप में उभरते अभिजनों अर्थातबुर्जुआवर्ग का दर्शन था। यूरोप में जब राष्ट्रवाद का विचार जन्म ले रहा था तो उसका आधार सामंती राज्यों के मुकाबले एक मजबूत राष्ट्र-राज्य का निर्माण करने की सोच थी। स्थानीय संसाधनों की लूट को रोकने के लिए ही विशाल आधुनिक राष्ट्र-राज्यों का विचार सामने आया। राष्ट्रवाद ने बुर्जुआ वर्ग के विभिन तबकों को एकजुट करने का कार्य किया। इससे वह आधुनिक राज्य के भीतर अत्यधिक सत्ता प्राप्ति में सक्षम हुआ और राष्ट्रवाद के रूप में निरंतर व्यक्तियों से यह मांग की जाती रही कि अपने अधिकारों के लिए उनकी प्राथमिक निष्ठा राज्य के प्रति होनी चाहिए। जर्मन आदर्शवादियों ने इस विचार को चरमोत्कर्ष प्रदान किया और राजनीतिक सत्ता को ईश्वरीय मान लिया। उन्होंने भौतिक के पराभौतिक में विलीन हो जाने और एकाकार हो जाने के तर्क को व्यक्ति और राष्ट्र-राज्य के संबंधों पर लागू किया। 20वीं सदी का जर्मनी का रोमांटिक राष्ट्रवाद इस उग्र राष्ट्रवाद के विचार की चरम परिणति थी। यहाँ यह विचार करना आवश्यक है कि अपने स्वरूप में राष्ट्रवाद मनोवैज्ञानिक, राजनीतिक अथवा सांस्कृतिक परिघटना हो सकता है किन्तु अपनी उत्पत्ति और विकास में वह मूलतः एक आर्थिक परिघटना होता है। भले ही ट्यूटन समझ अपने बुर्जुआई लोकतंत्र में प्रतिनिधित्यात्मक शासन को, व्यक्ति की आजादी और उसके अधिकारों के सुरक्षा कवच के रूप में देख रही थी, किन्तु मुक्त बाजार और मुक्त मनुष्य के उसके विचार ने बाजारू पूंजीवाद को जन्म दिया जिसकी अंतिम परिणति राष्ट्रवाद के उभार के रूप में हुई। बाजारू पूंजीवाद के अंतर्गत देशों के मध्य बाजार पर अधिकार की प्रतियोगिता आरंभ हुई और राष्ट्रवाद का उभार हुआ। वस्तुतः जब बाजारवाद मनुष्य को - रूसो की शब्दावली काहिसाबी बुद्धि वाला पतित मनुष्यबना देता है, तब एक दूसरे के संसाधनों को लुटने और उन पर अधिकार करने की अमानवीय प्रक्रिया आरम्भ होती है। इस आर्थिक लूट के लिए संस्कृति एक हथियार के रूप में प्रयुक्त होती है और यहीं से सांस्कृतिक वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा आरम्भ होती है। राष्ट्रवाद इसी प्रतिस्पर्धा का एक उत्पाद है। हमें यहाँ गेलनर के इस तर्क को समझना होगा कि राष्ट्रवाद खेतीहर समाज के मुकाबले आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के ज्यादा अनुकुल है, क्योंकि खेतीहर समाज विकेन्द्रीकरण पर आधारित होता है जबकि आधुनिक औद्योगिक सभ्यता केन्द्रीकृत राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक व्यवस्था की मांग करती है, जो राष्ट्रवाद के नारे से पूरी होती है। एरिक होब्स्बोम जैसे मार्क्सवादी विचारक भी यह मानते हैं कि राष्ट्रवाद पूंजीवाद के विकास का एक खास चरण है। उन्नीसवीं शताब्दी तक राष्ट्रवाद का विचार दिखलाई नहीं देता है। उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रीय झंडा, राष्ट्रीय भाषा और राष्ट्रीय गीत जैसे विचार फैशन बन गए। वहीं प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के साथ ऐसे विचारों को प्रचारित किया गया। होब्स्बोम के मत में पूंजीवादी समाज में लोगों में सामुदायिक एकजुटता का मिथ्या प्रयास किया जाता है, क्योंकि आर्थिक और सामाजिक असमानताओं के कारण उनमें एकजुटता होती नहीं है। इस मिथ्या एकजुटता के लिए ऐतिहासिक निरंतरता और सांस्कृतिक परिशुद्धतावाद का मिथक गढा जाता है।

इतिहासकार बेनेडिक्ट एंडरसन स्वीकार करते हैं कि यूरोपीय देशों की साम्राज्यवादी और उपनिवेशवादी नीतियों के कारण ही राष्ट्रवाद का विचार 19वीं सदी तक गैर यूरोपीय राष्ट्रों तक। बीते दो महायुद्धों के बीच की दुनियाँ, वह दुनियाँ थी जिसमें एक ओर पूर्व के देशों में उपनिवेशवाद के विरूद्ध राजनीतिक मुक्ति का संघर्ष राष्ट्रवाद को उभार रहा था तो दूसरी ओर जापान और जर्मनी जैसे देशों में नस्लवादी राष्ट्रवाद उभर रहा था। नस्लवादी राष्ट्रवाद का यह उभार उदार पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में अंतरनिहित मानव के शोषण के अनेक बिन्दुओं के कारण संभव हुआ। आज हम पुनः इतिहास के उसी मोड पर खडे हैं। गत शताब्दी के अंतिम दशक में नवउदारवाद ने आर्थिक वैभव के जो स्वप्न दिखाए थे, गहरी होती आर्थिक असमानताओं, वैश्विक मंदी और उपभोक्तावाद ने उन सपनों को चकनाचूर कर दिया। दूसरी ओर धर्म और नस्ल आधारित आतंक ने दुनियाँ को भयभीत कर दिया। साथ ही सोवियत संघ के विघटन के रूप में साम्यवादी बिखराव से दुनियाँ समाजवाद को भी दुःस्वप्न की तरह देखने लगी। इन घटनाओं से प्रभावित दुनियाँ में दक्षिणपंथी सत्ताओं का उभार हुआ। यह उभार दक्षिणपंथी सत्ताओं के प्रिय विचार राष्ट्रवाद के साथ हुआ। यदि हम समकालीन राष्ट्रों को देखें तो उसमें अनेक नृजातीय पहचान वाले सांस्कृतिक समूह देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए भारत में 8 प्रमुख धार्मिक समुदाय हैं तथा लगभग 15 प्रमुख भाषाई समूह हैं। भारत में लगभग 60 सांस्कृतिक उपसमूह हैं जो 7 भौगोलिक क्षैत्रों में निवास करते हैं। इसी प्रकार स्विट्जरलैंड में प्रमुखतः फ्रैंच, जर्मन और इटालियन भाषा बोलने वाले लोग रहते हैं। कनाडा में क्यूबिक और अंगरेजी भाषा बोलने वाले पृथक समूह हैं। भूमंडलीकरण के उपरांत तो अमरीका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी सहित अनेक राष्ट्र बहुसांस्कृतिक समूह बनते जा रहे हैं। ऐसे में राष्ट्र को समान नृजातीय पहचान वाले लोगों का समूह मात्र मान लेना उचित नहीं होगा।

 सांस्कृतिक दृष्टि से राष्ट्र को एक संप्रभु राज्य की भौगोलिक सीमाओं के भीतर एकल संस्कृति, एकल भाषा, एकल जातीयता, एकल नस्ल और समान ऐतिहासिक विरासत रखने वाले समूह के रूप में परिभाषित करने की परम्परा का विरोध हम हाब्सबाम, बेनेडिक्ट एंडरसन और आशीष नंदी जैसे विचारकों के विचारों में देखते हैं। आशीष नंदी लिखते हैं, ‘‘........ सम्पूर्ण अर्थों में राष्ट्र कभी नहीं बनता। राष्ट्र समरूपता स्थापित करने की कोशिश करता है और इसके विपरीत विविधताओं की ओर से राष्ट्र और उसे संचालित करने वाले अभिजनों को हमेशा किसी किसी किस्म की चुनौती मिलती रहती है।’’ ( आशीष नंदी : 2005 : 13-14) एंडरसन इसीलिए राष्ट्रों कोकाल्पनिक समुदायमानता है। उसके मत में राष्ट्र एक स्वाभाविक समुदाय की अपेक्षा एक जैसा दिखने की मानसिकता अधिक है। यह मानसिकता शिक्षा, संचार माध्यमों और राजनीतिक सामाजिकरण की प्रक्रिया के द्वारा निर्मित की जाती है। इसलिए राष्ट्र एक गढी गई संकल्पना है। (बेनेडिक्ट एंडरसन : 1996) हाब्सबाम इस विचार से सहमत नहीं है कि राष्ट्रभाषा एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तांतरित होती है और वह किसी राष्ट्र की सांस्कृतिक पहचान का आधार होती है। उसका तर्क है कि हर पीढी अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों के मध्य नजर अपनी भाषा सीखती और अपनाती है। ( हाब्सबाम : 1989) हाब्सबाम के तर्क को इस रूप में समझा जा सकता है कि व्यक्ति जहाँ जाता है, वहाँ की भाषा सीख लेता है। उदाहरणार्थ भारतीयों ने समय के साथ अंगरेजी को अपना लिया या भूमंडलीकरण के दौर में व्यक्ति अपनी व्यावसायिक आवश्यकताओं के अनुरूप भाषाओं को सीख या अपना रहा है। हाब्सबाम यह भी तर्क देता है कि उन्नीसवीं सदी तक अधिकांश लोगों को अपनी भाषा की लिपि का ज्ञान नहीं था और वे केवल मौखिक रूप से अपनी क्षैत्रिय भाषाओं में संवाद करते थे। यह क्षैत्रिय भाषाएँ शिक्षित अभिजात वर्ग की भाषाओं से भिन्न होती हैं। आज भी भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में जहाँ शिक्षित अभिजात वर्ग अंगरेजी में लिखता या बोलता है, वहीं ग्रामीण समाज अपनी क्षैत्रीय भाषा में संवाद स्थापित करता है। ऐसे में एक राष्ट्रभाषा का विचार और उस पर आधारित राष्ट्र का विचार मिथक होगा।

सन 1960 के बाद से राजनीतिक और सांस्कृतिक रूप से संगठित राष्ट्र की अवधारणा को बहुसंस्कृतिवाद की ओर से चुनौती दी जाने लगी। राष्ट्रवाद और बहुसंस्कृतिवाद दोनों ही अवधारणाएँ अस्मिता और पहचान की राजनीति से जुड़ी हैं। किन्तु जहाँ राष्ट्रवाद नृजातीय, भाषाई, सांस्कृतिक और इतिहास की समरूपता के आधार पर लोगों को एक राष्ट्र के रूप में सुगठित करता है, वहीं बहुसंस्कृतिवाद यह तर्क देता है कि एक समाज विविधताओं का जटिल समुच्चय है जिसके भीतर अलग-अलग भाषाओं, संस्कृतियों और नृजातीय पहचान के लोग रहते हैं। राष्ट्रवाद एकता के नाम पर इन विविधताओं को समाप्त करने का प्रयास करता है जबकि बहुसंस्कृतिवाद इन विविधताओं को अक्षुण्ण रखना चाहता है। इस प्रकार राष्ट्रवाद में व्यक्ति की अस्मिता राष्ट्र में विलीन हो जाती है, किन्तु बहुसंस्कृतिवाद इस वैयक्तिक अस्मिता को राष्ट्र से ऊपर तरजीह देता है। यद्यपि अमरीका जो कि प्रवासियों का राष्ट्र है, सदैव से एक बहुसांस्कृतिक राष्ट्र रहा है, किन्तु वहाँ भी सन1960 में काले लोगों के अपने अधिकारों को लेकर आंदोलनरत होने के उपरांत ही बहुसंस्कृतिवाद की चर्चा होने लगी। आस्ट्रेलिया में भी सन 1970 के बादएशियाकरणकी नीति को अपनाते हुए बहुसंस्कृतिवाद को मान्यता मिलने लगी। न्यूजीलैण्ड में मौरी संस्कृति की भूमिका ने पृथक संस्कृति को राष्ट्र में मान्यता प्रदान की गई है। कनाडा में फ्रेंच भाषी क्यूबिक, अंगरेजी भाषाई बहुसंख्यकों और असंख्य भारतीयों के समूह को राष्ट्रीय मान्यता प्रदान की गई है। यूनाइटेड किंगडम में बहुसंस्कृतिवाद मानता है कि वहाँ एशियाई और अफ्रीकी काले लोग श्वेत अंगरेजों के साथ घुलमिल गए हैं। जर्मनी में भी तुर्कियों की संख्या बढी है।

राष्ट्रवाद और बहुसंस्कृतिवाद का संबंध राष्ट्रवाद के स्वरूप पर निर्भर करता है। उदार राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद बहुसंस्कृतिवाद को स्वीकार करके चलते हैं। उदार राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद सांस्कृतिक एकरूपता के स्थान पर राजनीतिक एकरूपता को महत्त्व देते हैं। उनके लिए एक राष्ट्र के भीतर विविध संस्कृतियाँ इस राजनीतिक एकता के साथ घुलमिल जाती हैं कि वे सभी एक संविधान द्वारा संरक्षित हैं। विविध भाषा और संस्कृतियों को अपनाने वाले लोगों के नागरिक अधिकार समान हैं और संविधान द्वारा संरक्षित हैं। बहुसंस्कृतिवाद इस प्रकार उदारवाद और उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रवाद के साथ घुला मिला है। यह सिद्धांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सहिष्णुता का अनुरक्षक है। किन्तु बहुसंस्कृतिवाद और उदारवाद की समान सोच के उपरांत भी उनमें सैद्धांतिक अंतर देखा जा सकता है। व्यक्तिवाद जो उदारवाद की मूल धारा है, व्यक्ति की पहचान उसकी योग्यता तथा क्षमताओं के साथ जोडता है, कि नृजातीयता, भाषा, क्षैत्र, जाति, धर्म अथवा इन जैसी अन्य सामुदायिक पहचानों के साथ इस रूप में व्यक्तिवाद बहुसंस्कृतिवाद और राष्ट्रवाद दोनों के परे जाकर देखता है और एक अर्थ में अंतरराष्ट्रवाद का समर्थन करता है। व्यक्तिवादअच्छे जीवनके लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रत्येक की स्वतंत्रता के प्रति सहिष्णुता को स्वीकार करते हुए सार्वभौमवाद की ओर बढता है। इस क्रम में वह खान-पान, रहन-सहन, भाषा, पहनावा, वैवाहिक संबंधों आदि में आजादी की मांग करता है और इन सभी क्षैत्रों में व्यक्ति को स्वयं चयन का अधिकार देना चाहता है। यहाँ वह सामाजिक सहिष्णुता के प्रति सहिष्णु है और सामाजिक असहिष्णुताओं के प्रति असहिष्णु। किन्तु बहुसंस्कृतिवाद अनेक बार उदारवाद के इस रूप को सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के रूप में देखता है जिसके अन्तर्गत पाश्चात्य मूल्यों, विश्वासों और मान्यताओं को अन्य संस्कृतियों पर लादने का प्रयास किया जाता है। उदाररवादी मूल्य अनेक बार व्यक्ति स्वतंत्रता के नाम पर अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करते हैं जिसमें अन्य संस्कृतियाँ अपना विलोपन देखने लगती है और यहीं वह इस सांस्कृतिक वर्चस्व को चुनौती देने के लिए संकीर्ण राष्ट्रवाद की राह पर चलने लगती है। आज जो हम दुनियाँ में देख रहे हैं, वह यही है। उदारवाद और बहुसंस्कृतिवाद दोनों ही विविधताओं को पोषित करने की बात करते हैं, किन्तु आर्थिक लाभ कमाने की आशा में उदारवाद सांस्कुतिक साम्राज्यवाद कायम करने की चेष्टा करता है। इसलिए उदारवाद युयुत्सु राष्ट्रवाद में तब्दील हो जाता है। जैसा कि अभिजीत पाठक मानते हैं कि ‘‘यह एक प्रकार के वर्चस्ववाद के स्थान पर दूसरे प्रकार के वर्चस्ववाद लाता है।’’ ( अभिजीत पाठक : 2013 : 86)

अट्ठारहवीं और उन्नीसवीं सदी का यूरोपीय साम्राज्यवाद आर्थिक तथा राजनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी एशिया, अफ्रीका अन्य देशों को गुलाम बना रहा था। उपनिवेशवाद के खिलाफ खडे हुए राष्ट्रवाद ने इस साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद से लोहा लिया और इस क्रम में अपनी विविधताओं को एकता में संयोजित किया। भारत इसका महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। आज तीसरी दुनियाँ के ये मुल्क राजनीतिक रूप से तो आजाद हो गए किन्तु आर्थिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद से मुक्ति नहीं मिल पाई। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में प्रवेश करते हुए दुनियाँ के अधिकांश देशों के सत्ता प्रतिष्ठानों ने पूंजीवादी खेमे के नवउदारवादी विकास प्रतिमानों को र्निवैकल्पिक मानते हुए स्वीकार कर लिया। यहाँ तक कि सोवियत संघ, चीन और भारत जैसे समाजवादी अगुआ राष्ट्रों ने भी विकास के इस नवउदार प्रतिमान को अपनी आर्थिक नीतियों में प्रमुखता से स्थान दिया। इस नवउदारवादी प्रतिमान में वैश्विक आर्थिक शक्तियों द्वारा स्थानीय संसाधनों की लूट और अति उपभोक्तावाद के नकारात्मक प्रभाव सम्मिलित थे। विशेषकर स्थानीय जनता को यह अनुभव होने लगा कि स्थानीय संसाधन उनकी पहुँच से बाहर हो रहे हैं। सच्चिदानंद सिन्हा के शब्दों में, ‘‘.. यह व्यवस्था सारे संसार को कुछ सशक्त पूंजीवादी प्रतिष्ठानों यानि बहुर्राष्ट्रीय कम्पनियाँ और उनके संकेन्द्र के सबसे सबल केन्द्र अमरीका के हितों की रक्षा का माध्यम बनी हुई है। संसार को एक करने की इसकी दृष्टि पूरी तरह एक आयामी है। यह सिर्फ व्यापार के लिए दुनियाँ को एक करना चाहती है- बाकी सारी बाते आनुषंगिक है।’’ (सिन्हा : 2003, भूमिका) अतः भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के स्थानीय प्रभावों से भयभीत जनता को दक्षिणपंथ का राष्ट्रवाद लुभाने लगा।

बहुसंस्कृतिवाद को दूसरी चुनौती अनुदारवादी तथा विस्तारवादी राष्ट्रवाद से मिली है। अनुदारवादी राष्ट्रवाद सांस्कृतिक समरूपता और कुछ संदर्भों में नस्लीय परिशुद्धता के विचार को अपनाता है। वह राष्ट्रीय पहचान को एक सांस्कृतिक पहचान के साथ जोडता है और उससे इतर सांस्कृतिक पहचान रखने वालों को राष्ट्र सेबाहरकर देना चाहता है। अनुदारवाद स्थायी और सफल समाज का आधार समरूप सांस्कृतिक पहचान को मानता है। सांस्कृतिक विविधताएँ समाज में संघर्ष पैदा करती हैं और इन संघर्षों में ताकतवर समूह अपने सामाजिक बल का प्रयोग करता है। इसलिए बहुसांस्कृतिक समाजों में संदेह और नृजातीय तथा नस्लीय हिंसाएँ जारी रहती हैं। अनुदारवाद के मत में ये हिंसाएँ असहिष्णुता, असहजता और सामाजिक असमानताओं का परिणाम नहीं है, अपितु यह एक स्वाभाविक सामाजिक मनोविज्ञान का परिणाम है। अनुदारवाद सांस्कृतिक विविधता को रोकने के लिए प्रवासियों पर प्रतिबंध और अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यको द्वारा थोपे गये सांस्कृतिक जीवन मूल्यों को अपनाने की तानाशाहीपूर्ण रणनीति अपनाता है। भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के दुष्परिणामों का प्रचार कर 21वीं सदी के इस मुहाने पर अनुदारवादी राष्ट्रवाद का विचार अनेक देशों के सत्तातंत्रों तक पहुँच गया है। विस्तारित राष्ट्रवाद अनुदारवादी राष्ट्रवाद से एक और कदम आगे बढकर यह मानता है कि राष्ट्रीय समुदाय की ताकत नृजातीय और सांस्कृतिक एकता पर निर्भर करती है। एक बार पुनः स्पष्ट कर दें कि यहाँ उनके लिए एकता एकरूपता में बदल जाती है। उनके इस सांस्कृतिक एकता अथवा समरूपता के नारे में जो अल्पसंख्यक समुदाय फिट नहीं बैठते, उन्हें वे राष्ट्र से बाहर कर देना चाहते हैं। नाजीवाद ने इसी समरूपता आधारित राष्ट्रीय एकता के तर्क के आधार पर विधर्मियों अथवा अन्य नस्लीय पहचान रखने वालों का खून बहाया। नस्लीय घृणा का यह चरम स्वरूप बहुसंस्कृतिवाद का कट्टर विरोधी है।

विस्तारित राष्ट्रवाद अनुदारवादी राष्ट्रवाद से और आगे जाकर अपनी संस्कृति और मान्यताओं को पूरी दुनियाँ पर लाद देना चाहता है और वह इसके लिए आतंक और भय निर्मित करता है। नस्लवादी नहीं भी हो, तब भी यह तय है कि वे विविध सांस्कृतिक समुदायों के बीच शत्रुता पैदा करते हैं। साथ ही साथ विस्तारित और अनुदारवादी राष्ट्रवाद आधुनिक बहुसांस्कृतिक समाजों में सामाजिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक समरूपता स्थापित करने के लिए दमन और हिंसा का कुचक्र चलाता है। आधुनिक वैश्विक आतंकवाद इसी की देन है। धर्म और नस्ल आधारित इस आतंकवाद ने मनुष्य के जीवन के मूल अधिकारजीवन के अधिकारको ही खतरे में डाल दिया है। धर्म और नस्ल आधारित आतंकवाद ने मनुष्य के जीवन के मूल अधिकार और राष्ट्रवाद के बीच तीखी बहस को जन्म दिया है। एक ओर आतंकी संगठनों ने राष्ट्र-राज्यों के समानांतर सत्ता स्थापित कर नागरिक अधिकारो को कुचल दिया है, वहीं जीवन बचाने के लिये कई राष्ट्रों के नागरिक निर्वासित होकर दूसरे देशों में शरण लेने को मजबूर हुए हैं। ऐसे में शरणार्थियों एवम् प्रवासियो को लेकर राष्ट्रवाद मानव अधिकारों की बहस सामने आई है। कई बार राजनीतिक शक्तियाँ राष्ट्रवाद के नाम पर मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने के लिये जीवन और सम्पदा के खो जाने का भय निर्मित करती है और मिथ्या प्रचार को काम में लेती हैं। ऐसे में राष्ट्रवाद जीवन और सम्पदा के खो जाने का भय दिखाकर मनुष्य की स्वतंत्रताओं का दमन करने लगता है। इसमें सबसे ज्यादा भय अल्पसंख्यको के भाषाई और सांस्कृतिक अधिकारों को होता है। 


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हमने देखा कि उदार राष्ट्रवाद के आर्थिक सार्वभौमवाद और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की प्रतिक्रिया में अनुदारवादी और विस्तारवादी राष्ट्रवाद ने दुनियाँ में अपनी राजनीतिक जडें जमाई हैं। इस राष्ट्रवाद में अंतरनिहित सबसे बडा खतरा यह है कि वह बहुसंख्यक वर्ग को मानव अधिकारों की सार्वभौमिकता के नाम पर लामबद्ध करता है। उसका सीधा सा तर्क यह होता है कि सभी मनुष्य समान हैं, इसलिए सभी के अधिकार भी समान हैं। वह इस तर्क को नजर अंदाज करता है कि यथार्थ में समानता प्राप्त करने के लिए समान व्यवहार के स्थान पर पृथक-पृथक समाजों के विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखना आवश्यक है। इसके उलटराष्ट्रवादसमरूपता के विचार को प्रोत्साहित करता है और एक राष्ट्र के नागरिकों के लिए समान नागरिक अधिकारों का विचार रखता है। भारत में समान नागरिक संहिता की मांग को इसी रूप में देखा जा सकता है। किन्तु हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान, परम्परा और स्तरीकरण समान नहीं हैं , इसलिए सामाजिक न्याय को दृष्टिगत रखते हुये संविधान विभेदीकृत नागरिकता का प्रावधान करता है। भारत के संविधान में अनुच्छेद 15, 16, 26, 27, 345 आदि इसी तरह के प्रावधान है।राष्ट्रवादराष्ट्र की एकता के लिए इन विभेदीकृत नागरिक अधिकारों को चुनौती के रूप में देखता है और उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। इस प्रकारराष्ट्रवादमानव के नागरिक अधिकारों को चुनौती देता है। आइरिस मेरियन यंग इस प्रकार की ‘‘सार्वभौमिक नागरिकता’’ की अवधारणा को प्रभावी समूहों का छदम विशेषाधिकार कहती हैं। ( यंग :1989 : 250-74 ) विल किमलिका तर्क देते हैं कि एक राष्ट्र में बहुसंख्यक वर्ग द्वारा लिए गए आर्थिक एवम् राजनीतिक निर्णय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वर्ग की सामाजिक संस्कृति को दबा देते हैं। ( किमलिका : 1995 : 2 ) वस्तुतः सार्वभौमिक मानव अधिकार समाज में बड़ी संख्या में मौजूद जातीय, धार्मिक एवम् भाषाई समूहों के अधिकारों को समायोजित नहीं कर सकते। परिणामस्वरूप शोषित समूह स्वयं को सार्वभौमिक मानव अधिकारों से बहिष्कृत पाते हैं। इसलिए विभिन्न सामाजिक समूहों में मौजूद विभिन्नताओं को स्वीकार करते हुए इनकी पृथक विशिष्ट परिस्थितियों को मान्यता दिया जाना आवश्यक है। अधिकार वैयक्तिक नहीं होकर सामूहिक होते हैं और समाज के विभिन्न समूहों की स्थिति में भिन्नता है, अतः राज्य द्वारा प्रदत अधिकारों में और इस हेतु निर्मित विधियों में भिन्नता संभव है। किन्तुराष्ट्रवादका विचार इन भिन्न विधिक प्रावधानों को राष्ट्रीय एकता और अखंडता के लिए खतरा मानता है और इन्हें समाप्त कर देने और समान संहिताओं की निरन्तर मांग करता है।

राष्ट्रवादसम्पूर्ण शक्ति को राज्य में केन्द्रित करने का आकांक्षी होता है। उसका तर्क यह होता है कि व्यक्ति के अधिकारों का संरक्षण करने के लिए एक शक्तिशाली राष्ट्र-राज्य आवश्यक है। आज से लगभग पांच सदी पूर्व जब यूरोप मेंराष्ट्रवादका विचार जन्म ले रहा था, तो उसका मूल में सामंती राज्यों के मुकाबले एक मजबूत राष्ट्र-राज्य स्थापित करने का विचार सन्निहित था। व्यक्ति की स्वतंत्रता और सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए ही छोटे-छोटे सामंती राज्यों को समाप्त कर आधुनिक राष्ट्र-राज्यों ने जन्म लिया। मैकियावली हाब्स इसीलिए शक्तिशाली राष्ट्र-राज्यों का समर्थन कर रहे थे। किन्तु लोकतंत्र के विस्तार के साथ यह धारणा बदलती गई। वर्तमान में व्यक्ति के अधिकारों के संरक्षण के लिए राष्ट्र-राज्यों में शक्ति के केन्द्रीयकरण का तर्क स्वीकार्य नही है। इस संदर्भ में लास्की के तर्क को देखा जा सकता है। वह कहता है कि अधिकारों की प्राप्ति के प्रश्न पर राज्य का बल पूर्वाग्रहों से प्रेरित होता है। राज्य का निर्णय प्रायः उनके पक्ष की ओर झुका हुआ होता है जो लोग वास्तव में सत्ता में होते हैं। वह उसी बात को सही या अधिकार मानता है जिसे वह मानता आया है। राज्य साधनों को विषेषतः ज्ञान और आर्थिक शक्ति को ऐसी समानता के साथ नही बांटता जिससे नीतियाँ समान रूप से प्रभावित हो सकें। अतः लास्की इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि अधिकारों की संरक्षा और न्यूनतम न्याय की उपलब्धता के लिए राज्य की शक्ति का बिखराव आवश्यक है। इसीलिए हेराल्ड लास्की का मानना है कि समाज संघात्मक है और शक्ति विभाजन मनुष्य की सामाजिकता की भावना की सहज अभिव्यक्ति है। ( लास्की : 2011 : 75-125 ) हेराल्ड  लास्की का यह तर्क हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचने में सहायक है कि चूंकि राष्ट्रवाद राज्य की शक्ति का बिखराव नहीं करके उसके केन्द्रीयकरण पर बल देता है, इसलिए वह मानव अधिकारों की संरक्षा में सहायक नहीं बनकर बाधक ही अधिक सिद्ध होता है।

राष्ट्रवाद का सबसे बड़ा खतरा यह है कि छोटी और अल्पसंख्यक संस्कृतियों और परम्पराओं को नष्ट कर एक बडी संस्कृति को संरक्षित करता है। कार्ल वालफैंग ड्यूष तथा गेलनर राष्ट्रवाद और संस्कृतियों के आपसी प्रभावों का विश्लेषण करते हैं, गेलनर कहते हैं, ‘‘यह विचार एक मिथक है कि राष्ट्र एक प्राकृतिक संस्था है या यह आदमी को परिभाषित करने का ईश्वर-प्रदत्त तरीका है या यह लोगों की राजनीतिक नियति है जिसे हासिल करने में कई बार ज्यादा वक्त लग जाता है। दरअसल कई बार राष्ट्रवाद ने पहले से मौजूद संस्कृतियों को राष्ट्रों में बदल दिया। कई बार इसने संस्कृतियों का निर्माण किया और अमूमन इसने पहले से कायम संस्कृतियों को नष्ट कर दिया; कई बार इसका विपरीत भी हुआ। यह हकीकत है, भले ही इसके अच्छे नतीजे निकले हों या बुरे।’’ ( कार्ल वालफैंग ड्यूष : 1962 तथा गेलनर : 1983 ) ‘वर्चस्व आधारित राष्ट्रवादविविधता को अस्वीकृत कर समरूपता आरोपित करने की कोशिश करता है और इस प्रक्रिया में वह अपनी मान्यताओं को अन्य अल्पसंख्यक समूहों पर लादने का प्रयास करता है। इसका परिणाम धार्मिक उन्माद से जन्मी हिंसाओं और छोटे समूहों के बहिष्करण के रूप में हमारे सामने आता है। अमरीका, आस्ट्रेलिया और कई पश्चिमी देशों में एशियाई तथा अफ्रीकी देशों के नागरिकों पर हमले, अफगानिस्तान में तालिबान का शासन, सीरिया, म्यामार और बोसनिया में अल्पसंख्यकों का निर्वासन, पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिन्दुओं और भारत में अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर हमले इसका ताजा उदाहरण हैं।

 

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भारत का संविधान अनुच्छेद 25 से 28 तक अपने नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है तथा अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा का अधिकार प्रदान करता है। अनुच्छेद 25 अंतःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। अनुच्छेद 26 धार्मिक कार्यों के प्रबंधन की स्वतंत्रता प्रदान करता है। अनुच्छेद 27 किसी धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय की स्वतंत्रता प्रदान करता है तो अनुच्छेद 28 शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थिति के संबंध में स्वतंत्रता प्रदान करता है। अनुच्छेद 29 अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपी या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार देता है। अनुच्छेद 30 इसके लिए अपनी धार्मिक शिक्षण संस्थाओं की स्थापना और उनके प्रबंधन का अधिकार देता है। किन्तु पिछले दिनों के निम्नांकित घटनाक्रम संविधान से मिले इन अधिकारों को चुनौती प्रदान करते दिखते हैं-

1. नरेन्द्र दाभोलकर, गौरी लंकेश और कुलबर्गी की हत्या
2. गौमांस सेवन पर छिड़ा विवाद
3. मोब लिचिंग की घटनाएँ
4. एन. आर. सी. पर छिड़ा विवाद
5. कर्नाटक में हिजाब पर मचा बवाल
6. तीन तलाक का मुद्धा

नरेन्द्र दाभोलकर, गौरी लंकेश और कुलबर्गी की हत्या जहाँ संविधान के अनुच्छेद 21 में दिए जीवन के अधिकार और अनुच्छेद 19 में अंतरनिहित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सीधा हमला लगता है, वहीं हिजाब और गौ मांस पर छिड़ा विवाद व्यक्ति की अनुच्छेद 19 में उल्लिखित मौलिक स्वतंत्रताओं का सवाल उठाता है। इन सभी घटनाओं ने अनुच्छेद 25 के अंतर्गत प्रदत अंतःकरण की और धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता को भी संदिग्ध बनाया है। कर्नाटक में हिजाब पर मचे बवाल ने यह सवाल खड़ा किया है कि अनुच्छेद 25 की सीमा क्या है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता के अधिकार की सीमा क्या है ? इसी प्रकार एन. आर. सी. पर छिड़े विवाद ने अनुच्छेद 5 में निहित नागरिकता की परिभाषा और उपबंधों को ही बदलने का प्रयास किया है। नीरजा जायल इस खतरे के बारे में लिखती हैं, ‘‘भारत में धर्म तटस्थ कानूनों का क्षरण हुआ है तथाजस सेंगुइनसनागरिकता का अधिकाधिक समेकन हुआ है।.......दलितों और मुस्लिमों के विरूद्ध पहचानवादी हिंसा के नियमतिकरण और सामान्यीकरण ने उनकी नागरिकता को और अधिक अनिश्चित बना दिया है।’’ (नीरजा जायल : 2019) नीरजा जायल का यह लेख एन आर सी के खतरों की गहरी पड़ताल करता है और बतलाता है कि नागरिकता का निर्धारण अब जन्म स्थान के स्थान पर वंश के आधार पर किए जाने के खतरे बढ़ गए हैं। वस्तुतः भारत जैसे बहुसांस्कृतिक समाज मेराष्ट्रीयताका एक आधार नागरिकता का संवैधानिक अधिकार होता है। किन्तु नागरिकता सार्वभौम हो या विभेदीकृत, राजनीतिक विमर्श का यह महत्वपूर्ण बिन्दु है।सार्वभौम नागरिकतासिद्धांततः बहुसांस्कृतिक समाज की बहुलता की अस्वीकृति है और ऐसे मेंराष्ट्रकी आधारभूत एकता ही तिरोहित हो जाती है। संविधान निर्माताओं ने इस समस्या के समाधान के रूप मेंविभेदीकृत नागरिकताके विचार कोसार्वभौम नागरिकतापर वरीयता दी। जहाँसार्वभौम नागरिकताका विचार, सांस्कृतिक बहुलता को अस्वीकृत करता है, वहींविभेदीकृत नागरिकताका विचार पहचान एवम् विभिन्नताओं को मान्यता देता है। इसीलिए भारत में आजादी के उपरांत जब संविधान के अंतर्गत समाज की सांस्कृतिक बहुलता को दृष्टिगत रखते हुएविभेदीकृत नागरिकताको अपनाया गया तो पहचान की राजनीति ने अपने पंख पसारे। नागरिकता आधारित अधिकारों का अधिकतम लाभ प्राप्त करने की चेष्टा नेपहचान की राजनीतिके दायरे को भी बढाया है। इससे उत्पन्न खतरों ने बहुसंख्यकवाद की राजनीति कोविभेदीकृत नागरिकताके मुकाबलेसार्वभौम नागरिकताको बेहतर विकल्प के रूप में प्रचारित करने का अवसर दिया। किन्तुसार्वभौम नागरिकतासांस्कृतिक बहुलता का अंत करराष्ट्रकी आधारभूत एकता को तिरोहित कर सकती है। सार्वभौम नागरिकता राष्ट्रीय अल्पसंख्यक वर्ग, अप्रवासियों और शरणार्थियों के मानव अधिकारों को चुनौती प्रस्तुत कर सकती है। सार्वभौम नागरिकता का विचार भाषाई अल्पसंख्यकों, आदिवासियों एवम् दलितों के विरूद्ध दमन का बहुसंख्यकों के हाथ में हथियार होगा। समकालीन राष्ट्रवाद बहुसंख्यकवाद की राजनीति के जरिए सार्वभौम नागरिकता कोराष्ट्रकी एकता का मूल आधार के रूप में प्रकट कर रहा है जो कि एक काल्पनिक एकता है।  कुल मिलाकर आज धर्म संबंधी अधिकारों को लेकर बहस जारी है और एक राष्ट्र के भीतर विविधताओं को समाप्त करने का चलन बढ़ रहा है। आज बहुसंख्यक राष्ट्रवादियों का सीधा सा तर्क यह है कि सभी मनुष्य समान हैं, इसलिए सभी के अधिकार भी समान हैं। वह इस तर्क को नजर अंदाज करता है कि यथार्थ में समानता प्राप्त करने के लिए समान व्यवहार के स्थान पर पृथक-पृथक समाजों के विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों को ध्यान में रखना आवश्यक है। ऐसे में हमारे सामने समाधान क्या है ?

भारत में शास्त्रीय राष्ट्रवाद जो मुक्ति संग्राम के दौरान उपनिवेशवाद विरोध के रूप में निर्मित हुआ, समाज की विविधताओं को स्वीकार करते हुए उनके भीतर एकता को भारत की सांस्कृतिक पहचान के रूप में देख रहा था। जहाँ ब्रिटिश सत्ता भारत में अपने शासन को इस तर्क के साथ जायज ठहराने का प्रयास कर रही थी कि यहाँ के समूहों के मध्य पारम्परिक विभाजनों और संघर्षों को बाहरी सत्ता द्वारा सुलझाना आवश्यक है, वहीं भारतीय राष्ट्रवादी नेताविविधताओं के भीतर एकताको भारत की सांस्कृतिक विरासत मानते थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है कि, ‘‘अगर ईश्वर चाहता तो सारे देशवासियों को एक ही भाषा बोलने वाला बना सकता था.... भारत की एकता हमेशा से विविधता में एकता के उसूल पर ही निर्भर थी और रहेगी।’’ ( आशीष नंदी : वही : 27 ) रवीन्द्रनाथ के लिए भारत की परम्परानस्लों के आपसी समायोजनके लिए सक्रिय रहती है औरनस्लों के बीच वास्तविक अंतर को स्वीकार करते हुए एकता का आधार तलाश करती है। ( आशीष नंदी : वही : 27 ) गांधी अपनेहिन्दुत्वकी व्याख्या में एक सर्वसमावेशी सोच के साथ सभी धार्मिक समूहों को एकाकार कर लेते हैं और हिन्दुत्व को सत्य की खोज के रूप में परिभाषित करते हैं। वहीं नेहरूजीओ और जीने दोके सिद्धांत के साथ विविधताओं को राष्ट्र की एकता के रूप में समायोजित कर लेते हैं। ( आशीष नंदी: वही : 28 ) वस्तुतः ये नेता अपनी सीमित करने वाली अस्मिताओं के पार जा सकते थे। किन्तु दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद इस व्यापक रूप से साझी भारतीयता को समस्यामूलक बना देता है, क्योंकि वह एकरूपता को एकता के समानार्थक समझ बैठता है और एकरूपता निर्मित करने के लिए द्वैधता के सिद्धांत को अपनाता है। वस्तुतः राष्ट्र विविधताओं का समुच्चय है और इन विविधताओं के भीतर एकता एक काल्पनिक आदर्श ही हो सकता है। हाँ, इन विविधताओं के साथ रहते हुए एकता की बात की जानी चाहिए और यह तभी संभव है जब हम बहुलतावाद को स्वीकार करें। जैसा कि ऊमेन तर्क देता है कि हमें समेकित संस्कृति के स्थान पर बहुल संस्कृतियों की भिन्नताओं और विविधताओं का जश्न मनाना होगा। तभी इन बहुल संस्कृतियों के मध्य सह अस्तित्व संभव होगा और हम एक राष्ट्र के रूप में संगठित रह पायेंगे और मानव के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित कर पायेंगें।

देशभक्ति मनुष्य की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसे आरोपित करने की आवश्यकता नहीं है। व्यक्ति की आजादी और राष्ट्र की एकता के बीच उचित समन्वय का मार्ग विविधताओं की पुष्टि और स्वीकृति से ही निकलता है। जान स्टुअर्ट मिलऑन लिबर्टीमें व्यक्ति और समुदाय दोनों के लिए सहिष्णुता को आवश्यक मानता है। उसके मत में असहमतियाँ और विविधताएँ समाज को पोषित करती हैं। वैचारिक विमर्श और वाद-प्रतिवाद से समाज के हित में बेहतर विचार की सृष्टि संभव होती है। मिल के मत में व्यक्ति की आजादी का अर्थ है- मुक्त इच्छा का प्रदर्शन। व्यक्तित्व का अधिकार चुनाव का अधिकार है। सारी सृजनात्मक क्षमताएँ और जीवन की अच्छी चीजेंजीने के प्रयोगोंसे ही विकसित हो सकती है। मिल के अनुसार दमन विकास के लिए हानिकारक है, क्योंकि दमन जनित बुराईयाँ, भलाईयों से अधिक होंगी। व्यक्ति की असीम विविधता के कारण दमन अर्थहीन है। चूंकि विविधता अच्छी बात है इसलिए उसे बढाना चाहिए, कि उसका दमन करना चाहिए। हमें मिल की यही बात गांधी से सीखने को मिलती है।

गांधी के सक्रिय राजनीतिक जीवन में प्रवेश के समय भारत जलियावाला बाग की दुःखान्तिका से जुझ रहा था तथा भारतीय मुस्लिम समुदाय ब्रिटिश शासन की तुर्की के प्रति नीतियों के विरूद्ध संघर्षरत् था। गांधी ने इस अवसर को हिन्दू-मुस्लिम एकता में अभिवृद्धि के प्रयोग के रूप में प्रयुक्त किया। उन्होनें हिंदुओं से अपील की कि वे मुस्लिम समुदाय के इस संघर्ष में उनका साथ दें। 24 नवम्बर, 1919 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने दिल्ली में गांधी की अध्यक्षता में यह फैसला लिया कि जब तक ब्रिटिश शासन तुर्की के सम्राट को पुर्नस्थापति नहीं करता है, तब तक सरकार से सभी प्रकार का सहयोग वापस ले लिया जायेगा। इस प्रकार सन 1920 . में हिन्दू एवं मुसलमानों ने एकजुट होकर ब्रिटिश शासन का असहयोग आरम्भ कर दिया। खिलाफत और जलियाँवाला बाग हत्याकांड के विरूद्ध दोनों समुदायों का यह संगठित राजनीतिक संघर्ष था। हालांकि आलोचकों का मानना यह था कि गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन में खिलाफत का मुद्दा सम्मिलित कर लेने से यह आंदोलन पंथनिरपेक्ष नहीं रह कर साम्प्रदायिक होने लगा था। वस्तुतः उनके मत में खिलाफत आंदोलन एक कमजोर साम्राज्य के कमजोर शासक को बचाने के लिए किया गया आंदोलन था। स्वयं तुर्की के लोगों ने इस आंदोलन का समर्थन नहीं किया और वहाँ के शासक को हटा कर मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में तुर्की को पंथ निरपेक्ष राज्य घोषित कर दिया। गांधी की दूर दृष्टि इसे समझ नहीं पाई। किन्तु गांधी ने अपने फैसले को सही ठहराया कि इस आंदोलन में हिन्दू-मुस्लिम एकजुट होकर संघर्षरत् हुए जो उस समय की आवश्यकता थी। ‘‘स्वराज’’ के साथ जुड़ने से मुस्लिम वर्ग में राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ। बंग-भंग के बाद यह आंदोलन भारतीय मुसलमानों में राजनीतिक चेतना जागृत करने में सर्वाधिक सफल रहा। इससे पूर्व राजनीतिक चेतना केवल अभिजनवादी मुस्लिम तबके तक सीमित थी, अब वह आम मुस्लिम तक विस्तारित हुई। इन सभी के बावजूद, असहयोग आंदोलन के बाद, हिन्दू-मुस्लिम एकता गर्त में जाने लगी। एक ओर जहाँ मुसलमानों ने तबलीग और तंजीम आंदोलन आरम्भ किए, वहीं हिन्दू भी पीछे नहीं रहे और उन्होनें शुद्धी तथा संगठन आंदोलन आरम्भ किए। दोनों ही समुदाय की प्रतिक्रियावादी ताकतों ने लोगों की साम्प्रदायिक भावना को उकसाना आरम्भ किया। नए संगठनों के उदय से साम्प्रदायिक उन्माद बढ़ा और अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे हुए। सन 1925 . में पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत में हिंसक उपद्रव में 155 लोग मारे गए। सन् 1926 . में कलकत्ता में तीन बार दंगे हुए, जिनमें 138 लोग मारे गए। सन् 1923 . से सन् 1927 . के बीच संयुक्त प्रांत में 91 साम्प्रादियक उपद्रव हुए। गांधी इन घटनाओं से द्रवित होकर तीन सप्ताह के उपवास पर चले गए। यह उपवास उन्होने दिल्ली में मुहम्मद अली जिन्ना के घर रह कर किया। ( चन्द्र, प्रकाश : 1998 : 75 )

कुछ आलोचकों का यह भी मानना है कि तत्कालीन कांग्रेस पूर्णतः धर्म निरपेक्ष नहीं थी। गाँधी जैसे नेता अनेक बार हिन्दू धर्म के प्रतीकों एवं विचारों को राष्ट्रीय  आंदोलन में प्रयुक्त कर रहे थे। उदाहरणार्थ गाँधी ने स्वराज को ‘‘रामराज्य’’ कहना आरम्भ कर दिया था। इससे मुस्लिम समुदाय खुश नहीं था। मुस्लिम समुदाय के भीतर यह संदेह पैदा हो रहा था कि कांग्रेस द्वारा शुरू किया गया आंदोलन कहीं हिन्दू आंदोलन तो नहीं है। किन्तु गांधी के लिए धर्म का अर्थ हिन्दू, मुसलमान अथवा सिक्ख, ईसाई नहीं है। वे तो इन सभी धर्मो के भीतर जोधर्महै, उसकी खोज करते हैं और यह धर्म है-ईश्वर में विश्वास। ( सरकार , सुमित : 1995 : 271-273 ) एक ईश्वर में विश्वास ही हर धर्म का मूल आधार है। ( गांधी, मो. . : यंग इंड़िया : 09.01.1930 ) दुनियाँ के सभी धर्म उसी एक बिंदु पर पहुँचने वाले अलग - अलग मार्ग है। ( गांधी, मो. . : हरिजन : 02.02.1934 ) सभी धर्मो के भीतर निहित मूलभूत एकता के बारे में गाँधी का विचार था कि, ‘‘मैं जगत के समस्त महान धर्मों के मूलभूत सत्य में विश्वास रखता हूँ। मेरा यह विश्वास है कि वे सब ईश्वर प्रदत्त है और मेरा यह भी विश्वास है कि वे धर्म उन प्रजाओं के लिए आवश्यक थे जिनके बीच में उनका प्रकटीकरण हुआ था। मैं मानता हूं कि अगर हम सब विभिन्न धर्म-ग्रंथों को उन धर्मो के अनुयायियों के दृष्टिकोण से पढ़ सकें, तो हमें पता चलेगा कि बुनियाद में वे सब एक ही है और सब एक दूसरे के सहायक है। ( गांधी, मो. . : हरिजन : 16.02.1934 ) सभी धर्मों के मध्य मूलभूत एकता को स्वीकार करने के कारण ही गांधी अपने 18 बिन्दू के रचनात्मक कार्यक्रम में साम्प्रदायिक एकता को प्रथम बिन्दू के रूप में सम्मिलित करते हैं। देश में शांति तथा सुव्यवस्था के लिए साम्प्रदायिक एकता की महत्ता को जितना उन्होनें समझा था, शायद  ही और किसी ने समझा हो। उन्होनें इस तथ्य को अच्छी तरह से हृदयंगम कर लिया था कि भारत नाना धर्म, जातियों एवं संस्कृतियों का देश है, जब तक उनमें परस्पर सहानुभूति और सहिष्णुता का भाव नहीं रहेगा, देश उन्नति नहीं कर सकता इसीलिएहिन्द स्वराजमें उन्होने लिखा कि, ‘‘हिन्दुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं, उससे एक राष्ट्र मिटने वाला नही है। जो नये लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते। वे उसकी प्रजा में घुल-मिल जाते हैं। ..... अगर हिन्दू माने कि सारा हिन्दूस्तान सिर्फ हिन्दुओं से भरा होना चाहिए तो यह एक एक सपना ही समझिए।.... हिन्दू, मुस्लमान, पारसी, ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, वे एक देशी, एक मुल्की है। वे देशी भाई हैं और उन्हें दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा। दुनियाँ के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक धर्म नहीं किया गया, हिन्दुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।’’ ( गांधी, मो. . : 2000 : 31 ) इस प्रकार गाँधी ने स्पष्ट कर दिया कि विधर्मी मनुष्य भी एकजुट होकर भारतीय समाज में शांति से रह सकते हैं। भारत को एक धार्मिक राष्ट्र बनाना केवल इसकी धार्मिक विविधता के साथ अपितु उसमें अन्तर्निहित एकता के साथ भी खिलवाड़ होगा। वस्तुतः गाँधी भारत को एक ऐसे मनोहर उपवन के तुल्य बनाना चाहते थे जिसमें विभिन्न धर्म और सम्प्रदाय सुवासित पुष्पों की तरह सुरभित हों। हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं साम्यता को प्रकाशित करते हुए उन्होनें लिखा कि, ‘‘बहुतेरे हिन्दूओं और मुसलमानों के बाप दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गये? धर्म तो एक ही जगह पहुचने के लिए अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते अपना लें, इससे क्या हो गया, उसमें लड़ाई काहे की। .... जैसे मुसलमान मूर्ति का खण्डन करने वाले हैं,  वैसे ही हिन्दुओं में भी मूर्ति का खण्डन करने वाला एक वर्ग देखने में आता है। ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढ़ेगा, त्यों-त्यो हम समझते जायेंगे कि हमें पसंद आने वाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो तो भी उससे बैर भाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं, हम उस पर जबरदस्ती करें।’’ ( गांधी, मो. . : 2000 : 32 ) गांधी के ये विचार ही राष्ट्र और उसके प्रति धर्म तथा धर्म के प्रति राष्ट्र के विचार को सही अर्थों में समझा सकते हैं।

संदर्भ :
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12. नीरजा जायल, समकालीन भारत में नागरिकता का पुर्नविन्यास, ; साउथ एशिया, जर्नल ऑफ़ साउथ एशिया स्टडीज, वॉल्यूम 42, 2019
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17. गांधी,मोहन दास करमचंद, हरजिन, 16.02.1934
18 गांधी, मो. . : हिन्द स्वराज, 2000 पृ. 31
19. गांधी, मो. . :: हिन्द स्वराज, 2000 पृ. 32
 
डॉ. पयोद जोशी
सह आचार्य, राजनीति शास्त्र
माणिक्य लाल वर्मा राजकीय महाविद्यालय, भीलवाड़ा
  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

2 टिप्पणियाँ

  1. यह एक बहुत जरूरी आलेख है। जिस तरह का मौजूदा दौर है ऐसे वक्त में इस विषय पर इतना बेबाकी से लिखना बड़ी हिम्मत का काम है। यह शोध आलेख यूरोप में पैदा हुई राष्ट्रवादी विचारधारा के उत्थान के कारणों की पड़ताल करते हुए इसके कारण पैदा हुए गंभीर खतरों पर अपनी राय रखता है। लेखक महोदय को इतने गंभीर लेखन के लिए बधाई।

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  2. राष्ट्रवाद की वैचारिकी का दर्शन , समाज, राजनीति, इतिहास, धर्म और कानून के साथ क्या गुल खिलाता है | उसका बारीक विश्लेषण विशेष महत्त्व रखता है | तिब्बत और चीन के बीच संबंधों को कैसे देखा जाए ? इस पर आपकी टिप्पणी की अपेक्षा रहेगी | आपको बधाई और हार्दिक शुभकामनाएँ |

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