कविताएं : संजय साव

कविताएं

 


 तुम एक बरगद सी लगती हो मुझे   

मैं जब भी देखता हूँ तुम्हें
तुम एक बरगद सी लगती हो मुझे
जिसकी खुली हुई जुल्फें
हवा में बिखरी हो ऐसे 
जैसे हो बरगद की लटें,
जिसे बारबार, उछलउछल कर
कोई नन्हासा अबोध बालक
छूना चाहता हो मेरी तरह।
 
मैं जब भी देखता हूँ तुम्हें
तुम एक बरगद सी लगती हो मुझे
जिसकी जड़े निरंतर
कुछ गहरी धँसती जाती है
मुझमें।
जिसकी छतनार छाँव
बनता हो मेरा आशियाँ
जिसमें सदियों
ठहरने काजीचाहे।
 
मैं जब भी देखता हूँ तुम्हें
तुम एक बरगद सी लगती हो मुझे
जिसमें दिखती है मुझे
प्रेम की अमरता,
उदित होता ज्ञान,
सृष्टि की सबसे प्राचीनतम पहचान -
प्रेम.....
         
 
कुछ नया है आज
 
कुछ नया है आज
पर क्या?
मेरे एहसास,
सूरज की रोशनी,
खिले हुए फूल,
हवा में बिखरी खुशबू,
हवा का कोमल स्पर्श।
कुछ पुराना भी है
पर क्या?
पृथ्वी,
सभ्यता,
संस्कृति,
परंपरा,
और मेरा घर,
मेरे घर की दीवारें,
उस पर लटकती घड़ी।
पर उसमें दिखता समय
नया  है आज।
               
 शिरोरेखा
 
मैं, मैं ही रहूँगा,
वही
पर की मात्रा
और उस पर अनुनासिक ()
यानी मैं आज भी शब्द हूँ
और कल भी रहूँगा।
तुम भी वही तुम रहोगी
शाब्दिक।
पर मैं और तुम में
एक समानता है-
शिरोरेखा का
कदाचित यही
मैं और तुम से
हम का होना है।
            
 
पृथ्वी एक कविता है
 
मुझे लगता है
यह पृथ्वी
एक कविता है।
जिसे हम जैसे ही
किसी ने लिखा होगा?
जिसमें हर व्यक्ति
 एक शब्द है
जो कई-कई अर्थ लिए हुए है।
जिसने लिखा होगा
पृथ्वी
कदाचित उसी की संतान ने लिखा होगा
जाति’,
जिस पर सदियों से
रगड़ा जा रहा है रबर
यह जाने वगैर
कि यह पेंसिल की नहीं
पेन की लिखावट है।
जी चाहता है लेप दूँ
उस पर व्हाइटनर
और लिख दूँ
अनल हक़
जो हर शब्द का अर्थ है।
 
मेरे ख़याल
 
आसमाँ में उड़ती
चिड़िया को देख रहा हूँ
और सोचता हूँ
उसमेंमुझमें
क्या साम्य है?
और मुझे
दिख पड़ते हैं
उसके पंख
और मेरे ख़याल।
वह अपने पंखों से
पूरी दुनिया नाप
जाती है
और मैं आपने ख़यालों से।

संजय साव
शोधार्थी, विश्व-भारती विश्वविद्यालय
   
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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