शोध आलेख : भक्तिकालीन आलोचकीय मानदंड तथा रामचन्द्र शुक्ल / अंकित कुमार वर्मा

भक्तिकालीन आलोचकीय मानदंड तथा रामचन्द्र शुक्ल
अंकित कुमार वर्मा


शोध सार : हिन्दी साहित्येतिहास लेखन में रामचन्द्र शुक्ल कृतहिन्दी साहित्य का इतिहासका महत्त्वपूर्ण स्थान है। आलोचक ने गम्भीर अध्ययन के साथ-साथ विश्लेषण तथा यथापूर्ण मूल्यांकन करके साहित्य का सम्यक् तथा सुसंगत ढाँचा बनाने की कोशिश की है तथा प्रवृत्तियों काल-विभाजन के अनन्तर तत्कालीन परिस्थितियों पर मुकम्मल दृष्टिपात किया है। लेकिन भक्तिकाल विषयक-खण्ड में आलोचक का इतिहासबोध तथा मूल्यांकन पद्धति चिन्तित कर देने वाली है। जिससे हमारे सम्मुख दलित अस्मिता तथा अस्तित्वबोध को लेकर एक नईरिडलखड़ी होती प्रतीत होती है। जिसमें दलित-बहुजन की परम्परा तथा उसकी सभ्यता का सांस्कृतिक आधार नदारद दीखता है। मसलन, रामचन्द्र शुक्ल द्वारा साहित्येतिहास के भक्तिकाल खंड में कर्म, ज्ञान एवं भक्ति को आलोचना का निकष बनाने के कारण निर्गुण काव्यधारा में तथाकथित ज्ञानमार्गी शाखा की उपेक्षा हुई है। जिससे उसका तात्त्विक विवेचनश्रीमद्भागवतगीताकी सैद्धान्तिक परिपाटी में उलझकर रह गया है। जिसके परिणामस्वरूप कबीर तथा रैदास के दलित-चिन्तन का मूल्यांकन गीता केज्ञानयोगकी शब्दावली में संकुचित तथा क्षुद्र बन गया है।

 

          प्रस्तुत आलेख में गीता केज्ञानयोगकी शब्दावली से हटकर कबीर तथा रैदास के चिन्तन को लोकायत कीज्ञानमीमांसाके अन्तर्गत देखने की कोशिश की गयी है। जिससे इन कवियों की मौलिक चिन्तना, उसकी भव्यता एवं विराटता हमारे सामने निखर के आयी है।

 

बीज शब्द : आत्मा, वर्ण-व्यवस्था, ज्ञानमार्गी, नामरूप, ज्ञानमीमांसा, मोक्ष, कर्मफल, पुनर्जन्म, जरा-मरण, दलित अस्मिता, अस्तित्व-बोध, प्रेतयोनि, निर्गुण पंथ, भक्तिकाल, समाधि, साहित्येतिहास इत्यादि।

 

मूल आलेख : श्रीमद्भागवतगीताके दर्शन का तात्त्विक सार यह है कि मनुष्य अपने स्वभाव से ही अज्ञानी है। जिसके कारण ही वह सांसारिक उलझनों में फँसा रहता है। वह(जीव) जब आत्मा के अजर-अमरनामरूपीचरित्र तथाकर्मफलकी सत्ता को जान जाएगा तब स्वतः हीजरा-मरणके बन्धन अर्थात्पुनर्जन्मको त्यागकरमोक्षयापरमात्माके मार्ग की ओर उन्मुख हो जाएगा। फिर उसे भले ही योगमार्ग जैसे कठिन रास्ते पर चलकर समाधि की अवस्था से गुजरना पड़े। जिसे कृष्ण के हवाले से व्याख्यायित करते हुए आचार्य रजनीश(ओशो) कहते हैं- “ज्ञानीजन कर्मफल की आसक्ति को छोड़कर जन्मरूपी बंधन से मुक्त हो जाते हैं।[i] सारांशतः गीता के दर्शन में ज्ञान के इसी आधार की चर्चा की गयी है। जिसे रामचन्द्र शुक्ल ने निर्गुण शाखा के कवियों के मूल्यांकन का मानदंड बना दिया है। इस कारण कबीर तथा रैदास के मौलिक चिन्तन की अवमानना होकर रह गयी है। रामचन्द्र शुक्ल भक्तिकाल की उद्भावना में धर्म के इसी प्रवाह को स्वीकारते हुए लिखते हैं- “धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति की तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है।[ii] उनके कहने का आशय यह है कि भक्ति में इन तीनों तत्त्वों का सम्यक् सम्मिश्रण अनिवार्य है, अन्यथा उसमें बाधा आती है। अतएव भक्ति में गुह्य, रहस्य या विलासिता का प्रवेश हो जाता है। इसलिए वे निर्गुण संतों के प्रति अपना मत इस प्रकार प्रकट करते हैं- “कबीर तथा अन्य निर्गुणपंथी संतों के द्वारा अंतस्साधना में रागात्मिकताभक्तिऔरज्ञानका योग तो हुआ, पर कर्म की दशा वही रही जो नाथपंथियों के यहाँ थी।[iii] अब सवाल यह उठता है कि कबीर या रैदास हिन्दुओं की कर्मफल की सत्ता को क्योंकर मानेंगे जब उनको वर्णव्यवस्था के रूप में शूद्रों से भी गया-गुजरा घोषित किया गया। आलोचक ऐसे में पता नहीं क्यों उन्हें हिन्दुओं के कर्मफल वाली व्यवस्था में घसीट रहे हैं। यह इतिहास सिद्ध है कि मनुस्मृति के विधान ने सबसे ज्यादा अपमान एवं अवमानना भरी दारुण स्थिति में शूद्र, अछूत एवं स्त्रियों को रखा है। तब, ऐसे में वेकर्म करो फल की चिंता मत करोवाले दर्शन को क्योंकर स्वीकारेंगे? या किसी आलोचक द्वारा भक्ति मेंधर्मस्वरूपबनने का पुरस्कार पाने के लिए ऐसे दार्शनिक ग्रन्थ के कसीदे क्यों पढेंगे? जो उन्हेंप्रेतयोनिघोषित करता है। विदित है कि कबीर तथा रैदास की पूरी लड़ाई हिन्दुओं की वर्णव्यवस्था तथा अस्पृश्यता से है। तब उनकी काव्य अनुभूति मेंरागात्मिकताकी जगहह्रदय पक्ष शून्यनहीं होगा तो क्या होगा? यहाँ देखा जाए कि रामचन्द्र शुक्ल को एतराज इस बात का है कि कबीर तथा रैदास अपनी अस्तित्व तथा अस्मिता की लड़ाई को छोड़कर सूफियों की भाँति, हिन्दुओं की कहानियों को अपनाकर साहित्य मेंप्रेम की पीरकी अभिव्यंजना क्यों नहीं कर रहे हैं। और क्यों नहीं तुलसी की भाँति वर्णव्यवस्था कोवेदसम्मतमानकर उसका गुणगान कर रहे हैं।

        बकौल रामचन्द्र शुक्लसूफी कवियों ने जो कहानियाँ ली हैं वे सब हिन्दुओं के घरों में बहुत दिनों से चली आती कहानियाँ हैं जिनमें उन्होंने आवश्यकतानुसार हेर-फेर किया है। कहानियों का मार्मिक आधार हिंदू है।[iv] शायद इसलिए ही वे कबीर से चिढ़कर लिखते हैं­- “कबीर ने अपनी डाँट-फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।[v] कबीर की भाषा से हिन्दू और मुसलमान भले चिढ़े हों लेकिन स्वयं आलोचक जरूर चिढ़ गए हैं और इस बात की गवाही उनकी लिखत देती है।उधर शास्त्रों का पठन-पाठन कम लोगों में रह गया, इधर ज्ञानी कहलाने की इच्छा रखने वाले मूर्ख बढ़ रहे थे जो किसीसद्गुरु के प्रसादमात्र से ही अपने को सर्वज्ञ मानने के लिए तैयार बैठे थे। ...और कुछ लोग झाँझ-खंजड़ी लेकर उनके पीछे हो लेते थे। ...‘भक्तिके नाम पर ही वे वेदशास्त्रों की निंदा करते थे, पंडितों को गालियाँ देते थे और आर्य धर्म के सामाजिक तत्त्व को समझकर लोगों में वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे थे।[vi] यह कितना बड़ा विरोधाभास है कि वे एक तरफ़ कबीर आदि संतों कोज्ञानीबोल रहे हैं तो दूसरी तरफ़ उन्हेंमूर्खघोषित कर रहे हैं। बताइए यह उनकी दलितों एवं शूद्रों के प्रति खीज नहीं तो क्या है? उपर्युक्त दी गयी आलोचक की इस लिखत का विश्लेषण किया जाए तो कुछ बातें निकलकर आती हैं।

क.           कबीर ने ब्राह्मण के माहात्म्य को चुनौती देकर वेद की प्रामाणिकता की अवेहलना की है। इसलिए वे मूर्ख हैं।

ख.           उन्होंने सगुण भक्ति की महिमा का बखान नहीं किया है, इसलिए निर्गुणरूपीसद्गुरु की महिमाको अनन्त बताकर स्वयं को सर्वज्ञ मानने का भ्रम पाल लिया है।

ग.            झाँझ-खंजड़ी लेकर निर्गुण रूपी ग़लत मार्ग पर चल निकले हैं।

घ.            भक्तिका नाम लेकर वेदों कोअपौरुषेय मानकर उसकी निंदा करने लगे हैं।

ङ.            पंडितों की निंदा करने लगे हैं।

च.           आर्यों द्वारा प्रदत्त वर्ण-व्यवस्था के निहितार्थों को समझकर उसका नाहक ही विरोध कर रहे हैं। 


जबकि इससे इतर तुलसी की वर्ण-व्यवस्था के समर्थन वालीलोकधर्मीकविता पर उनकी कलम चलती है, तब उनके हृदय के उद्गार खिलने लगते हैं। उन्हीं के शब्दों में- “यदि बड़े छोटों के प्रति दु:शील होकर हर समय दुर्वचन कहने लगें, यदि छोटे बड़ों का आदर सम्मान छोड़कर उन्हें आँख दिखाकर डाँटने लगें तो समाज चल ही नहीं सकता। इसी से शूद्रों का द्विजों को आँख दिखाकर डाँटना, मूर्खों का विद्वानों का उपहास करना गोस्वामीजी को समाज की धर्मशक्ति का ह्रास समझ पड़ा। ...राजसमाज यदि नीति विरुद्ध आचरण करने लगे, शूद्र यदि ब्राह्मणों को आँख दिखाने लगें अर्थात् अपने-अपने धर्म से समाज की श्रेणियाँ च्युत हो जाएँ, तो फिर से लोकधर्म की स्थापना कौन कर सकता है?”[vii] ऐसे में उनकी इस लिखत का भी विश्लेषण कर लिया जाए।


क.       यदि शूद्र ब्राह्मणों को दुर्वचन कहने लगें अर्थात् उनके द्वारा बनायी गयी वर्णव्यवस्था को मानकर उसकी आलोचना करने लगें, तब समाज चल नहीं सकता।

ख.   समाज को संचालित रखने के लिए वर्णव्यवस्था श्रेष्ठ है। क्योंकि उसमेंपूजिय विप्र शील गुण हीनाजैसी आदर्श व्यवस्था निहित है।

ग.    जो वर्णव्यवस्था को नहीं मानते हैं, वे मूर्ख हैं।

घ.    यदि वर्ण-व्यवस्था विशृंखल हो जाये तथा लोग अपने कर्मों का त्याग करने लगें, तबलोकधर्मकी स्थापना नहीं हो सकती। तो ये आलोचक केलोकमंगलसम्बन्धी विचार हैं! जिससे उनकी पूरी आलोचना प्रक्रिया तथा प्रतिमान बने हुए हैं। यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है कि आलोचक को कबीर तथा अन्य निर्गुण कवियों से सिर्फ़ इस बात से मुख़ालफ़त रही है कि क्यों नहीं वेवर्ण-व्यवस्थाको ईश्वर प्रदत्त मानकर उसको सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं। ऐसे में आलोचक मैनेजर पाण्डेय का यह कथन सन्दर्भवान जान पड़ता है- “भक्तिकाव्य में जहाँ वर्णाश्रमवादी समाज व्यवस्था, उस व्यवस्था के पोषक शास्त्रों और उन शास्त्रों को धारण करने वाले पंडितों का विरोध दिखाई देता है वहाँ आचार्य शुक्ल की भौहें तन जाती हैं। ऐसा विरोध सबसे अधिक निर्गुण काव्य में है, इसलिए उसके सामने आते ही शुक्लजी कटु हो जाते हैं।[viii] तो इस प्रकार देखा जा सकता है कि आलोचक के साहित्यिक-प्रतिमान मानदंड भी मुख्यतः ब्राह्मणी व्यवस्था से ही उपजे हुए हैं।

          यहाँ स्पष्ट बता दिया जाए कि कबीर तथा रैदास ऐसी किसी भी अनुमानपरक सत्ता से वास्ता नहीं रखते जो उन्हें भौतिक जगत् अर्थात् यथार्थ से दूर ले जाए। इसलिए वे हिन्दुओं कीपुनर्जन्मकी शब्दावली को चुनौती देने में लग जाते हैं। वस्तुतः यह एक ऐसी शब्दावली है जिसके द्वारा ब्राह्मणों ने दलितों को पूर्वजन्म का कर्म बताकर सत्ता अपने हाथ में बनाए रखी तथा वर्णाश्रम को वेदसम्मत बताकर स्वयं को भूदेव कहकर पुजवाया। इसी सत्ता तंत्र एवं शक्ति-संघर्ष को स्पष्ट करते हुएजातिवादी कौननामक लेख में पुरुषोत्तम अग्रवाल लिखते हैं- “इहलोक से परलोक तक, इस जन्म से पीछे और आगे अनंत जन्मों तक चलने वाले इहलौकिक-पारलौकिक शक्ति विमर्श एवं सत्ता तंत्र का नाम है वर्णाश्रम और जातिव्यवस्था।[ix] सत्ता एवं शक्ति को संचालित करने मेंआत्मा की शाश्वतताकी अहम् भूमिका है। गीता के अनुसार आत्मा को अजर-अमर, अचल तथा सर्वव्यापी घोषित किया गया है।इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते हैं और इसको आग जला नहीं सकती है, इसको पानी भिगा या गला नहीं सकता और वायु सूखा भी नहीं सकती है।[x] इसलिए आत्मा का पुनर्जन्म होना ज़रूरी है। बकौल हरेन्द्र प्रसाद सिन्हाआत्मा का पुनर्जन्म मोक्ष की प्राप्ति के लिए होता है। गीता में मोक्ष को चरम लक्ष्य माना गया है।[xi] लेकिन इससे इतर कबीर तथा रैदास के दर्शन में जब आत्मा ही नहीं है तो पुनर्जन्म किस चीज़ का होगा? और जब पुनर्जन्म ही नहीं है तो मोक्ष की प्राप्ति भी क्योंकर होगी? इस तरह ये दोनों कवि लोकायत की परम्परा को आत्मसात करते हुए अन्धविश्वास के सम्पूर्ण बन्धन 'पुनर्जन्म' को तोड़ते हुए नज़र आते हैं। हिन्दुओं की आत्मा, कर्मफल तथा परलोक की शब्दावली पुनर्जन्म से ही परिचालित है। इसलिए कबीरपुनर्जन्मपर चोट करते हुए कहते हैं-


बहुरि नहिं आवना या देश।
जो जो गये बहुरि नहिं आये पठवत नहिं संदेस[xii]
बहुरि हम काहै को आवहिंगे।
                बिछुरे पंच तत्त्व की रचना, तब हम रामहि पावहिंगे।।[xiii]

 

        (हम इस संसार में दुबारा क्यों आएँगे? जो इस संसार से मरकर चले गए, वे पुनः कभी लौट के नहीं आए, और ही उन्होंने कभी लौट के आने का सन्देश दिया।)

        (हम इस संसार में पुनः क्यों आएँगे? इस पंच तत्त्वों से बने स्थूल शरीर के बिछड़ते ही, हम राम को पा जाएँगे।)

        इसी प्रकार पुनर्जन्म-विरोधी रैदास कहते हैं -


कागद कंवल मति मसि कर निर्मल, बिन रसना निस दिन गुन गाऊँ।
कहै रैदास राम भज भाई, संत साखि दे बहुरि आऊँ।।[xiv]

इस प्रकार देखा जा सकता है कि कबीर तथा रैदास यदि किसी भी भारतीय परम्परा से मेल खाते हैं तो वह एक मात्र लोकायत की भौतिकवादी शाखा है। हाँ, ईश्वर को लेकर विवाद किया जा सकता है कि ये दोनों कवि परोक्ष रूप में ईश्वर की सत्ता के अस्तित्व को क्यों नहीं नकार सके? इस प्रश्न का जवाब भी हमें तात्कालीन सामाजिक परिस्थितयों के आलोक में खोजना होगा। आलोचक कँवल भारती मानते हैं कि ये कवि इस्लामिक सत्ता के मौजूद होने के कारणकाफ़िरकरार दिए जा सकते थे। इसीलिए उन्होंने चार तत्त्वों का निषेध करके पञ्च तत्त्व आधारित परोक्ष सत्ता को अपने चिंतन में शामिल कर लिया। कबीर के प्रसंग में कँवल भारती की यह टिप्पणी संदर्भवान है- “कबीर को गगन तत्त्व जोड़ना पड़ा। यह समय की आवश्यकता थी। कबीर अनीश्वरवादी रहकर मुस्लिम शासन में कट्टरपंथी ब्राह्मणों और मुल्लाओं के कोपभाजन बनना नहीं चाहते थे। इसलिये, उन्हें ईश्वर को जोड़ना पड़ा।[xv] इस प्रकार कबीर-रैदास का चिंतन भारतीय परंपरा में होते हुए भी विशिष्ट है। इसमें हिन्दुओं की व्यवस्था के तिरोभाव के साथ-साथ अपने निराकार ईश्वर की भी कल्पना है।

        निर्गुण काव्य में कबीर तथा रैदास की चिन्तना अवर्णवादी है। कहने का तात्पर्य यह है कि वे हिन्दुओं की किसी भी प्रकार की वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते हैं। कबीर तो स्वयं को उस देश का वासी तक घोषित करते हैं जहाँ जाति-कुल-वर्ण जैसी कोई अमानवीय व्यवस्था नहीं है-

हम वासी उस देश को, जहाँ जाति बरन कुल नाहिं।[xvi]

        इसलिए वे वैष्णव भी नहीं हैं और जब वैष्णव नहीं हैं तब गीता को आधार बनाकर उनका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। पर खेद की बात है कि रामचन्द्र शुक्ल ने उनका मूल्यांकन हिन्दू शास्त्रों के अधीन करने के साथ-साथ रामानंदी चश्मे से भी किया है। बकौल आलोचकसारांश यह कि कबीर में ज्ञानमार्ग की जहाँ तक बातें हैं वे सब हिन्दू शास्त्रों की हैं जिनका संचय उन्होंने रामानंद जी के उपदेशों से किया।[xvii] इसी कारण से इन कवियों की सम्पूर्ण प्रभा मलिन होकर रह गयी है। उनकी लड़ाई शास्त्रों से है पर उनका मूल्यांकन भी उसी को प्रतिमान बनाकर किया गया। इसलिए हिंदी साहित्य में कबीर एवं रैदास को साहित्य में उचित न्याय नहीं मिल सका है।

निष्कर्ष : निर्गुण काव्यधारा में कबीर तथा रैदास लोकायत की भौतिकवादी वैचारिकी से प्रभावित हैं। इसमें वर्ण-व्यवस्था, चमत्कारिकता तथा अन्धविश्वास की जड़ता को तोड़करज्ञानमीमांसाकी नींव रखने की प्रतिबद्धता है। इनके यहाँ ईश्वर को छोड़कर अनुमानित सत्ता का पूर्णतः नकार है। इनकी लड़ाई ही दलित होने के कारण सम्पूर्ण वर्ण-व्यवस्था से है इसलिए वे उसे कर्मणा मानने के भी पक्षधर नहीं है। यही कारण है कि हमें इन कवियों के मूल्यांकन के लिए गीता ही नहीं हिन्दू धर्म के सभी शास्त्रों को अलग रखना होगा। तभी हम इस काव्यधारा के साथ न्याय कर पाएंगे। इन कवियों की सम्पूर्ण लड़ाई जिन शास्त्रों से हैं यदि उसी को प्रतिमान बनाया जाएगा तब इनकी मौलिक चिन्तना पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा। इसलिए लोकायत दृष्टि से विवेचना करने में इनकी प्रासंगिकता निखरकर आती है। प्रस्तुत काव्यधारा के मूल्यांकन में यह बेहद ज़रूरी है कि आलोचना के प्रतिमान भी इसी तरह के ही होने चाहिए। अस्तु।

      

सन्दर्भ :
[i]आचार्य रजनीश, ओशो, कृष्ण गुरु भी सखा भी, डायमंड पॉकेट बुक्स, ओखला, फेज-२, नई दिल्ली, २०२१, पृ. ५१
[ii]आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, २०१२, पृ. ३९
[iii]वही, पृ. ४२
[iv]वही, पृ. ४६
[v]वही, पृ. ६६
[vi]आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, गोस्वामी तुलसीदास, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली २००८, पृ. २६
[vii]वही, पृ. ४२
[viii] मैनेजर पांडेय, भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, १९९७, पृ. २८
[ix] संपादक. राजकिशोर, हरिजन से दलित, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, १९९४, पृ. ९८
[x]प्रो. हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशिंग हाउस, नारायणा इंडस्ट्रियल एरिया, फेज १, नई दिल्ली, १९९३, पृ. ७५
[xi]वही, पृ. ७५,७६
[xii]डॉ. धर्मवीर, महान आजीवक कबीर, रैदास और गोसाल, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, २०१७, पृ. ४३६
[xiii]वही, पृ. ४३६
[xiv]वही, पृ. ६३६
[xv]कँवल भारती, आजीवक परम्परा और कबीर अर्थात् दलित धर्म की खोज, स्वराज प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, २००९, पृ. ९१
[xvi]वही, पृ. भूमिका से
[xvii]आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, २०१२, पृ. ५०
 

अंकित कुमार वर्मा
सहायक प्रोफ़ेसर (हिंदी), जतन स्वरूप (पीजी) कॉलिज, सिकन्द्राबाद, बुलंदशहर 203205
kumarankit8998@gmail.com 8948887969

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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