- हेमन्त कुमार एवं प्रो. जितेन्द्र कुमार प्रेमी
शोध
सार : यह अध्ययन
छतीसगढ़
के
विमुक्त
अनुसूचित
जाति
नट
की
“नट
बोली’’ पर आधारित
अध्ययन
है।
विमुक्त
घुमंतू
प्रवृत्ति
के
कारण
नट
नृजाति
समूह
अलग-अलग
भाषा
एवं
बोली
के
बोलने
वाले
लोगों
के
संपर्क
में
आते
गए
और
इनकी
भाषा-बोली
में
पर-संस्कृतीकरण
ने
पैर
पसार
लिया।
पर-संस्कृतीकरण
के
कारण
वर्तमान
युवा
पीढ़ी
में
कुछ
लोग
ही
अपने
बोली
के
विषय
से
अनभिज्ञ
है।
अधिकांश
युवा
पीढ़ी
अपनी
“नट
बोली’’ से
विमुख
हो
गई
है।
इन
तथ्यों
को
ध्यान
में
रखते
हुये
छत्तीसगढ़
की
नट
जाति
की
नट
बोली
का
लिखित
दस्तावेजीकरण
के
रूप
में
संरक्षण
तथा
अध्ययन
से
प्राप्त
तथ्यों
एवं
निष्कर्षों
के
आधार
पर
नृजाति
समूह
के
सर्वांगीण
विकास (भाषा-बोली)
के
परिप्रेक्ष्य
में
आवश्यकता
आधारित
सुझाव
प्रस्तुत
करने
के
उददेश्य
से
यह
अध्ययन
किया
गया
है।
इस
दस्तावेजीकरण
के
लिए
सहभागी
अवलोकन
पद्धति
तथा
सहायक
उपकरणों
के
रूप
में
साक्षात्कार
निर्देशिका, समूहवार्ता, केन्द्रीय समूहवार्ता
एवं
वयैक्तिक
अध्ययनों
का
प्रयोग
किया
गया
है।
मानवविज्ञान
विषय
अपने
संपूर्णता
के
लिए
जाना
जाता
है
और
भाषा
स्वयं
मनुष्य
के
विकास
का
प्रतीक
है।
भाषा
और
मानवविज्ञान
दोनों
एक
दूसरे
के
पूरक
है।
अर्थात
भाषा
या
बोली
किसी
भी
मानव
समूह, राज्य, राष्ट्र
की
संस्कृति
का
मुख्य
आधार
होती
हैं।
भाषा
एक
ऐसा
माध्यम
है
जो
समाज
तथा
संस्कृति
को
निरंतरता
प्रदान
करता
है।
संस्कृति, समाज एवं
भाषा
विकास
के
उद्भव, विकास
के
क्रम, ध्वनियों के
प्रकार
परिवर्तन, शब्दों के
विविध
प्रकार
तथा
शब्दों
के
अर्थ
का
विस्तृत
अध्ययन
मानवविज्ञान
विषय
प्रस्तुत
करता
है।
बीज
शब्द : विमुक्त, नृजाति, नट, भाषा-बोली, पर-संस्कृतिकरण, समाज।
मूल
आलेख : मानव
और
भाषा
का
संबंध
मानव
सभ्यता
के
जन्म
के
साथ
ही
प्रारम्भ
हुआ
है।
जब
से
इस
पृथ्वी
पर
मानव
सभ्यता
ने
जन्म
लिया
उसके
साथ
भाषा
ने
भी
जन्म
लिया।
यह
अलग
बात
है
कि
भाषा
का
स्वरूप व प्रकार अलग-अलग
था।
मनुष्य
प्रारम्भ
सें
भाषा
का
उपयोग
संकेतो
के
रूप
में
करते
थे
जिसका
स्पष्ट
प्रमाण
हमें
प्राचीन
लिपि
में
लिखे
अवशेषों
पर
संकेतो
(चित्र) के रूप
में
लिखे
लेखों
से
पता
चलता
है
जो
धीरे-धीरे
समयानुसार
प्रचलन
में
अधिक
आने
पर
वह
मानव
समाज
का
एक
अभिन्न
शब्दों/वार्तालाप
के
वाहक
के
रूप
में
परिवर्तन
हो
गया, जो समयानुसार
बदलता
गया
और
संकेतो
से
भाषा
तथा
भाषा
से
लिखित
लिपि
के
रूप
में
आया।
सामान्य
रूप
से
देखे
तो
जब
कोई
मनुष्य
संकेत
के
माध्यम
से
दूसरे
मनुष्य
को
अपने
हाव-भाव, क्रिया, संकेत के
माध्यम
से
अपने
विचार
मंत
को
प्रकट
करता
है
और
उसे
सामने
वाला
व्यक्ति
समझ
लेता
है
तो
वह
भाषा
कहलाती
है।
वर्तमान
समय
में
जो
हम
आज
भाषा-बोली
का
प्रयोग
करते
है
वह
एक
संकेत
ही
तो
है।
संकेत
को
आज
हम
यह
मानकर
चलते
हैं
कि
इसका
एक
अमुख
अर्थ
का
बोधक
या
बोध
है
और
यह
संकेत
हमें
खालीस्तान
कार्य
करने
को
कह
रहा
है।
(2010)1
पृथ्वी
पर
जन्म
लेने
वाला
प्रत्येक
मानव
केवल
मानव
से
ही
नहीं
बल्कि
वह
अपने
सम्पर्क
में
आने
वाले
लगभग
सभी
प्रणियों
से
स्थिति-परिस्थिति
के
अनुसार
वह
अपने
विचार
या
भाव
को
दूसरे
जीवों
से
भी
वार्तालाप
या
भाव
या
संकेत
के
माध्यम
से
प्रकट
करता
है।
भाव
या
विचार
को
प्रकट
करने
के
लिए
सदैव
मुख
की
आवाज
की
जरूरूत
नहीं
समझता।
इसे
वह
अपने
संकेत
जैसे-क्रोध
के
लिए
मुख
की
उदासीनता
या
आँख
से
घूरने
की
भाव
प्रवृत्ति
से
हम
सामने
वाले
को
क्रोध
के
भाव
को
प्रकट
करते
है
तो
कभी-कभी
हम
हाँ
नहीं
को
सिर
हिलाकर
संकेत
के
माध्यम
से
अपने
भाव/भाषा
को
प्रकट
करते
हैं।
उसी
प्रकार
से
हम
पशु-पक्षियों
को
अपने
हाथों
से
उसे
सहला
कर
दुलार
(प्यार) करते हैं।
अर्थात
वह
जानवर
हमारे
भाव
को
समझकर
शांत
बैठ
जाता
है
या
गर्दन
हिलाने
लगता
है
या
हाथों
को
चाटने
लगता
है।
इस
तरह
से
संकेतो
से
भावों
को
समझने
की
प्रवृत्ति
मानव
के
साथ-साथ
पशु-पक्षियों
में
भी
है।(2002, 2013)2
भाषा
की
उत्पत्ति
का
कोई
ऐसा
सटीक
व
वैज्ञानिक
प्रमाण
उपलब्ध
नहीं
है
जो
भाषा
की
उत्पत्ति
के
कारणों
या
आधारों
की
खोज
करने
में
सहायक
हो।
भाषा
की
उत्पत्ति
को
लेकर
भाषा-वैज्ञानिको
में
हमेशा
एक-दूसरे
से
विवादास्पद
रहा
है।
इस
संबंध
में
प्रसिद्ध
भाषा-वैज्ञानिक
सक्सेना
का
कहना
हैं “जिन ध्वनि-चिह्नों
द्वारा
मनुष्य
परस्पर
विचार-विनिमय
करता
है, उनको समष्टि
रूप
से
भाषा
कहते
है।”(2000)3 भाषा-वैज्ञानिकों
का
मानना
है
कि
भाषा
की
रचना
या
उत्पत्ति
मानव
समाज
के
माध्यम
से
ही
होता
है।
अर्थात
समाज
में
सामाजिक, आर्थिक, राजनीति, धार्मिक, स्वास्थ्य इत्यादि
सामाजिक
विकास/उत्थान
और
पतन
में
जो
शब्द
या
बातों
का
संबंध
मानव
से
संबंधित
होता
है
वह
सभी
भाषा
से
संबंधित
होता
है।
वह
सभी
भाषा
के
विकास
में
सहायक
होता
है।
भाषा
तथा
समाज
को
प्रमुख
रूप
से
दो
शक्तियाँ
प्रभावित
करती
है।
पहला
आंतरिक
शक्ति,
दूसरी
बाह्य
शक्ति।
दोनों
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष
रूप
से
समाज
और
भाषा
को
प्रभावित
करती
है।
भाषा
की
मुख्य
सम्पत्ति
उनकी
शब्द
भंडार
होती
है।
शब्द-भंडार
में
जिन
शब्दों
का
संबंध
मानव
के
प्राकृतिक
और
सामाजिक
परिवेश
से
है
जो
उनकी
नित्य-प्रतिदिन
की
आर्थिक
एवं
सामाजिक
कार्रवाई
में
काम
आता
है, उसे मूल
शब्द-भंडार
माना
जाता
है।
(2002)4 भाषा
विज्ञान
शब्द
जो
मूलत:
अंग्रेजी
Linguistics से
है
जो
सर्वमान्य
माना
जाता
है।
Linguistics शब्द
की
व्युत्पत्ति
लैटिन
शब्द
Lingua से
हुआ
माना
जाती
है, जिसका अर्थ
“जिह्वा’’ है। और
जिह्वा
का
अर्थ
भाषा
से
है।
भाषा
और
मानवविज्ञान
का
संबंध
उसी
प्रकार
से
है
जिस
प्रकार
से
भाषा
और
मानव
का
संबंध
जन्म
से
लेकर
मानव
के
मृत्यु
तक
के
सफर
भाषा
उनके
साथ
रहता
है।
अर्थात
मानव
चाहे
पहाड़ो, जंगलों, आधुनिक नगर
में
रहता
ही
क्यों
न
हो
भाषा
उनकी
अमूल्य
धन/संपत्ति/धरोहर
है।
जब
से
इस
पृथ्वी
पर
मानव
सभ्यता
का
जन्म
हुआ
उसी
के
साथ
भाषा
का
भी
जन्म
हुआ
होगा? प्रारंभिक मानव
सभ्यता
के
समय
मानव
की
भाषा
लिपि
के
रूप
में
न
रह
कर
संकेतों
के
रूप
में
रही
है।
जो
कालान्तर
में
धीरे-धीरे
संकेत
भाषा
में
परिवर्तन
हो
गई।
आज
मानव
अपने
आप
को
श्रेष्ठता
की
श्रेणी
में
रखता
है,
उसका
प्रमुख
कारण
उसकी
भाषा
वाक्य
शक्ति
है।
मानव
जाति
का
सम्पूर्ण
विकास
भाषा
के
माध्यम
से
ही
विकसित
हुआ
है।
निश्चित
रूप
से
यह
कहना
उचित
है,
जो
समाज
सांस्कृतिक
रूप
से
जितना
ज्यादा
विकसित
होगा
उनकी
भाषा
भी
उतना
ही
सुविकसित
संपन्नता
की
ओर
अग्रसित
रहेगा
या
सम्पन
होगी।
(1983)5
भाषा नित्य
परिवर्तनशील
है
जो
समय
स्थान
के
अनुसार
परिवर्तन
होती
है।
भाषा
में
परिवर्तन
के
लिए
उतरदायी
कारक
के
रूप
में
भौगोलिक
स्थितियाँ, सामाजिक-सांस्कृतिक
प्रभाव, वैधानिक व्यवस्था
इत्यादि
को
माना
जाता
हैं।
कालान्तर
में
मानक
भाषा
जो
बोली
का
परिवर्तन
से
उत्पन्न
हुआ
है
जो
मानव
भाषा
में
एक
आदर्श
भाषा
के
रूप
में
स्थान
रखता
है।
मानव
प्राणी
में
कोई
भी
भाषा
सर्वप्रथम
बोली
के
रूप
में
रहती
है।
जिसका
प्रचलन
कुछ
परिवार
ऐरिया
तक
ही
सीमित
रहता
है
जो
धीरे-धीरे
व्यावहारिक
दायरा
बढ़ता
है
और
मानव
के
न्याय, शिक्षा, प्रशासन, पत्र-व्यवहार, साहित्य सृजन
जैसे
कार्य
व्यवहार
में
व्यापक
रूप
से
होने
लगता
है
तो
वह
बोली
भाषा
में
परिवर्तन
हो
जाता
है
उसे
हम
मानक
भाषा
के
अंर्तगत
रखते
है।
भाषा
को
हम
उपभाषा, मिश्रित भाषा
के
रूप
में
देखते
है
ठीक
उसी
प्रकार
से
बोली
को
भी
हम
उपबोली
के
रूप
में
रखते
है।
नृजाति
समूह
“नट’’ में बोली
जाने
वाली
बोली
“बागरीनती’’ का विस्तार
नृजाति
समूह
तक
ही
सीमित
है,
लेकिन
कालान्तर
में
यदि
इनकी
बोली
व्यापक
रूप
में
प्रचलन
में
आ
जायेगी
तो
यह
भी
बोली
से
भाषा
में
परिवर्तन
हो
सकती
हैं? इक्कीसवी सदी
के
प्रभावों
के
परिणामस्वरूप
छत्तीसगढ़
सहित
देश
के
अन्य
राज्यों
में
निवासरत
“नट’’ नृजाति समूह
घोर
परसंस्कृतीकरण
के
दौर
से
गुजर
रहा
है, फलस्वरूप उनमें
सामाजिक
एवं
सांस्कृतिक
विघटन
की
भयावह
समस्या
अमरबेल
की
भाँति
पल्लवित
होती
जा
रही
है।
संस्कृतीकरण
एवं
पर-संस्कृतीकरण
का
सबसे
अधिक
दुष्प्रभाव
इनकी
भाषा, कला एवं
पारम्परिक
सामाजिक
घटकों
पर
पड़ा
है।
धीरे-धीरे
ये
अपनी
सांस्कृतिक
विशेषताओं
को
बिसराते
जा
रहे
हैं
तथा
आधुनिकीकरण
के
जाल
में
फँसकर
ये
“ट्रायल
एवं
इरॅर’’ की पद्धति
से
समाज
एवं
राष्ट्र
की
मुख्यधारा
से
विमुख
होते
जा
रहे
हैं।
“नट’’ नृजाति समूह
की
प्रमुख
भाषा/बोली
“बागरीनती’’ है, लेकिन छत्तीसगढ़
में
निवासरत
“नट’’ अब छत्तीसगढ़ी
एवं
हिन्दी
बोली
एवं
भाषा
को
धीरे-धीरे
अपना
रहे
हैं।
वे
आज
अपनी
भाषा/बोली
को
भूलने
की
स्थिति
मे
हैं
या
नयी
पीढ़ी
अपनी
मूलभाषा/बोली
से
अनभिज्ञ
है।
इनके
तमाशा
एवं
कलाबाजियों
एवं
नाच-गानों
में
“बागरीनती’’ की जगह
छत्तीसगढ़ी
एवं
हिन्दी
ने
ले
लिया
हैं।
इस
प्रकार
से
“नट’’ नृजाति समूह
सांस्कृतिक
पतन
की
ओर
उन्मुख
है।
ऐसी
परिस्थितियों
में
“नट’’ नृजाति
समूह
के
सम्पूर्ण
पक्षों
का
लिखित
एवं
ट्ठष्यात्मक
अभिलेखीकरण
किये
जाने
की
नितांत
आवश्यकता
है।
भाषा
मानवविज्ञान:-
मानवविज्ञान
में
भाषा
मानवविज्ञान
के
अतंर्गत
मानव
भाषा
और
मानव
संस्कृति
का
अध्ययन
प्रारम्भ
से
ही
रहा
है।
इस
कारण
मानववैज्ञानिकों
को
विरल
क्षेत्र
से
लेकर
आधुनिक
क्षेत्र
में
फैले
विभिन्न
धर्म
सम्प्रदाय
के
लोगों
की
भाषा-बोलियों
का
विस्तृत
अध्ययन
के
लिए
विभिन्न
सरकारी, अर्धसरकारी, प्राईवेट संस्थाओं
के
माध्यम
से
उनके
ज्ञान
का
उपयोग
करते
है।
विभिन्न
समाजों
में
बोली
जाने
वाली
भाषा-बोली
उस
व्यक्ति
व
समाज
की
सामाजिक
स्तर
को
भी
प्रदर्शित
करती
है।
भाषा
मानवविज्ञान
में
मानवीय
भाषाओं
की
उत्पत्ति
और
उनके
विकास
का
विस्तारपूर्वक
अध्ययन
मानववैज्ञानिकों
के
द्वारा
किया
जाता
है।
भाषा
की
संरचना
की
बात
करे
तो
मानव
भाषाओं
की
एक
क्रमबद्धतापूर्वक
भाषा
की
व्यवस्था
होती
है
और
इस
व्यवस्था
का
क्रम
नियमित
रूप
से
एक-दूसरे
से
संयुक्त
रूप
से
जुड़े
हुआ
रहता
है।
जुड़े
हुए
विभिन्न
अंगों/क्रमों
से
मिलकार
ही
भाषा
की
संरचना
का
निर्माण
होता
है।
जिसमें
वर्णमाला, शब्दावली, वाक्य, व्याकरण एवं
लिपि
मूल
रूप
से
इनके
तत्त्व
होते
हैं।
मानवविज्ञान
की
मदद
से
भाषा
के
आदिम
स्वरूप
का
पता
लगाया
जाता
है।
किस
प्रकार
शुभ-अशुभ
घृणा-वाचक
शब्दों
के
लिए
शुभ
शब्दों
का
प्रयोग
किया
जाता
है,
हमें
मानवविज्ञान
बताता
है।
(2006)6
भाषा की
परिभाषा:-
मानव
अपने
नित्य
दैनिक
जीवन
व्यवहार
में
भाषा
का
प्रयोग
विस्तृत
रूप
में
करता
है।
इस
संदर्भ
में
प्रसिद्ध
भाषावैज्ञानिक
ब्लॉक
एवं
ट्रैगर
भाषा
को
परिभाषित
करते
हुए
कहते
है
कि
“भाषा
यादृच्छिक
ध्वनि
संकेतों
की
वह
व्यवस्था
है, जिसके द्वारा
कोई
समाज
विचारों
का
आदान-प्रदान
करता
है।’’ स्वीट महोदय
भाषा
के
संदर्भ
में
कहते
है
कि
“स्वष्ट
ध्वनि
संकेतों
द्वारा
विचारों
की
अभिव्यक्ति
को
भाषा
कहा
जा
सकता
है।’’ देवेन्द्रनाथ शर्मा
के
अनुसार
“उच्चरित
ध्वनि-संकेतों
की
सहायता
से
भाव
या
विचार
की
पूर्ण
अभिव्यक्ति
भाषा
है।’’ (2002)7
नट
बोली
पर
अन्य
भाषा-बोलियों
का
प्रभाव:-
नृजाति
समूह
“नट’’ जो कि
छत्तीसगढ़
राज्य
के
लगभग
सभी
जिलों
में
स्थायी/अस्थायी
रूप
से
निवासरत
है।
छत्तीसगढ़
राज्य
में
विभिन्न
धर्म, सम्प्रदाय, जाति, जनजातीय के
लोग
निवास
करते
है
जो
अपने
विभिन्न
सामाजिक-सांस्कृतिक, रीति-रिवाज, भाषा, बोली, रहन-सहन
के
लिए
जाने
जाते
हैं।
जिस
प्रकार
छत्तीसगढ़
राज्य
छत्तीसगढ़ही
बोली
संस्कृति
के
लिए
भारत
के
अन्य
राज्यों
से
अपनी
अलग
पहचान
रखता
है।
ठीक
उसी
प्रकार
खेल-तमाशा
दिखाने
के
लिए
“नट’’ (ड़गचगहा) जाति
जो
छत्तीसगढ़
राज्य
में
घुमंतू/अर्धघुमंतू
जाति
के
रूप
में
पहचाने
जाते
हैं।
इनकी
अपनी
एक
बोली
है
जिसे
“बागरीनती’’ (नट बोली
या
ड़गचगहा
भाषा/बोली)
कहते
है।
पर-संस्कृतीकरण
का
प्रभाव
इनकी
भाषा-बोली
पर
स्पष्ट
देखने
को
मिलता
है।
आधुनिकीकरण
का
प्रभाव
इनके
खेल-तमाशा
के
साथ-साथ
इनकी
भाषा-बोली
पर
भी
पड़ा
है।
वर्तमान
युवा
पीढ़ी
के
बहुत
से
बच्चे
अपने
मूल
भाषा-बोली
से
अनभिज्ञ
है
या
यू
कहें
की
युवावर्ग
मूल
भाषा-बोली
को
लगभग
भूल
सी
गई
है
और
मूल
भाषा-बोली
के
जगह
अन्य
समाजों
के
द्वारा
बोले
जाने
वाली
भाषा-बोली
जैसे-हिन्दी, छत्तीसगढ़ही, भोजपुरी, गुजराती को
अपना
लिया
है।
नट
बोली
की
परिवर्तन
व
परिवर्तन
के
कारणः-
“नट’’ बोली के
परिवर्तन
का
प्रमुख
कारक
के
रूप
में
हमें
इनकी
घुमंतू/अर्धघुमंतू
प्रवृत्ति
का
होना
प्रतित
होता
है।
घुमंतू
प्रवृत्ति
में
ये
जब
दूसरे
प्रदेशों
को
भिच्छावृत्ति, खेल-तमाशा
दिखाने
के
लिए
जाते
हैं
तो
वह
दूसरों
को
देखकर
उनकी
हाव-भाव, भाषा-बोली, संस्कृतियों का
नकल
करते
हैं।
धीरे-धीरे
अपने
भिच्छावृत्ति, खेल-तमाशा
में
अपने
मूल
संस्कृति
भाषा-बोली
को
छोड़ते
हुए
या
यू
कहें
की
अपने
भाषा-बोली
के
प्रचलन
को
कम
कर
हिन्दी, छत्तीसगढ़ही, भोजपुरी, गुजराती जैसे
भाषा-बोली
को
शामिल
करने
लगे
और
वर्तमान
समय
में
लगभग
अपने
सभी
खेल-तमाशा
में
हिन्दी, छत्तीसगढ़ही, भोजपुरी, गुजराती गानों
का
उपयोग
खेल-तमाशा
के
लिए
करते
है, जो परिवर्तन
के
कारक
को
दर्शाता
है।
दूसरा
कारण
हम
“नट’’ जाति का
स्थायीकरण
को
देखते
है
क्योंकि
प्रारंभ
में
“नट’’ जाति पूर्ण
रूप
से
घुमंतू
प्रवृत्ति
के
थी
लेकिन
समय
अनुसार
इस
जाति
ने
पूर्ण
घुमंतू
को
त्याग
कर
अर्धघुमंतू
में
अपने
आप
को
बदला
है।
क्योंकि
सरकार
द्वारा
चलाये
जाने
वाली
विकासीय
योजना
जब
से
जमीनी
स्तर
पर
लागू
हुई
है, तब से
सरकारी
योजनाओं
के
लाभ
के
उदेश्य
से
छत्तीसगढ़
राज्य
के
“नट’’ जाति के
लोगों
ने
अर्धघुमंतू
में
अपने
आप
को
परिवर्तन
किया
है
और
सरकारी
योजनाओं
के
लाभ
लेने
लगे
हैं।
सरकारी
योजना
के
लाभ
लेने
के
उदेश्य
से
स्थायी
निवास
में
अपने
आप
को
जब
से
बदला
है
उसी
के
साथ
इनकी
भाषा-बोली, संस्कृति में
भी
बदलाव
हुआ
है।
प्रारंभ
में
“नट’’ जाति के
लोग
गांव
से
कुछ
दूर
बसते
(डेरा डालते) थे
लेकिन
जैसे-जैसे
गांव
की
अबादी
बढ़ने
के
साथ-साथ
बस्ती
के
आकार
भी
बढ़ने
लगा
फलस्वरूप
गांव
के
मुख्य
बस्ती
“नट’’ जाति के
बस्ती
के
नजदीक
धीरे-धीरे
आने
लगी
और
वर्तमान
समय
में
हम
देखते
है
कि
छत्तीसगढ़
में
अधिकांश
“नट’’ बस्ती गांव
के
बीचों
बीच
बसी
हुई
मिलती
है।
सघन
बस्ती
के
कारण
नृजाति
समूह
अन्य
दूसरे
समाजों
के
संपर्क
में
अधिक
आने
के
कारण
वह
दूसरे
समाजों
की
संस्कृतियों
को
देखकर
उनकी
तरह
अपनी
संस्कृति
(रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, भाषा-बोली, संस्कृति रीति-रीवाज)
को
करने
लगा
या
अपनाने
लगा
जिस
कारण
से
नृजाति
समूह
की
भाषा-बोली
में
पर-संस्कृतीकरण
का
प्रभाव
हमें
देखने
को
मिलता
है।
नट
बोली की
सामान्य शब्दकोश
-
क्र. |
हिन्दी |
नट
बोली |
छत्तीसगढ़ही
|
अंग्रेजी
|
1 |
माँ या
माता जी |
या |
दाई/महतारी/अम्मा
|
Mother |
2 |
पिता जी
|
बाप |
ददा |
Father |
3 |
दादा/बाबा
|
दादो |
बबा |
Grand father |
4 |
दादी |
दादी |
बूढी दाई/कका
दाई |
Grand mother |
5 |
नाना |
दादो |
बबा |
Maternal |
6 |
नानी |
दादी |
ममा दाई
|
Grand mother |
7 |
पति |
माटी |
घरवाला/डौंका
|
Husband |
8 |
पत्नी
|
बियर |
घरवाली/डैंकी
|
Wife |
9 |
लड़का |
सोकरो
|
टुरा |
Boys |
10 |
लड़की |
सोकरी
|
टुरी |
Girls |
11 |
पुत्र
|
सोकरो/दिकरो |
टुरा/लड़का
|
Son |
12 |
पुत्री |
सोकरी/दिकरी
|
टुरी/ लड़की
|
Daughter |
13 |
चाचा |
कांको
|
कका |
Uncle |
14 |
चाची |
काकी |
काकी |
Aunty |
15 |
सास |
हंऊ |
सास |
Mother in law |
16 |
ससुर |
हांरो
|
ससुर |
Father in law |
17 |
साला |
सांरो
|
सारा |
Brother in law |
18 |
साली |
सारी |
सारी |
Sister in law |
19 |
बहन |
बेहेन
|
बहनी |
Sister |
20 |
भाई |
भाई |
भाई/भई
|
Brother/Cousin |
अध्ययन
का उदेश्य - प्रस्तुत
अध्ययन
“छत्तीसगढ़
की
नट
बोली
पर
पर-संस्कृतीकरण
के
प्रभाव
का
नृजाति
भाषावैज्ञानिक
अध्ययन’’ पर आधारित
लेख
है।
जिसके
प्रमुख
उददेश्य
निम्न
प्रकार
से
हैं-
(1) नट
बोली
में
हो
रहे
परिवर्तन
व
परिवर्तन
के
कारकों
को
ज्ञात
करना।
(2) नट
बोली
को
प्रभावित
करने
वाले
अन्य
भाषा-बोली
के
प्रभाव
को
ज्ञात
करना।
(3) छत्तीसगढ़
के
नट
बोली
का
लिखित
दस्तावेजीकरण
के
रूप
में
संरक्षण
करना।
पूर्व
शोध साहित्यों
की समीक्षा : एल्विन
(1939)8
ने
बैगा
जनजातीय
समूह
की
बैगानी
बोली
का
विस्तारपूर्वक
अध्ययन
करते
हुए
बताया
कि
बैगानी
बोली
की
उत्पत्ति
तथा
इनका
विस्तार
कैसे
हुआ
साथ
ही
पर-संस्कृतीकरण
के
कारण
इनकी
बोली
में
कैसे
परिवर्तन
हो
रहे,
को
अपने
अध्ययन
में
इंगित
किया
है।
हट्टन
(1969)9
ने
अंगामी
नागा
के
संदर्भ
में
उनके
भाषा-बोली
पर
हो
रहे
परिवर्तन
व
परिवर्तन
के
कारको
का
विस्तारपूर्वक
वर्णन
किया
है।
साथ
ही
अंगामी
नागा
बोली
की
उत्पत्ति
के
आधार
को
अलौकिक
दैवीय
शक्ति
से
बताया
है।
जिसके
कारण
अंगामी
नागाओं
की
बोले
जानी
वाली
बोली
एक
समान
है,
का
वर्णन
किया
है।
निरगुने
(2011)10
ने
भाषा
को
मानव
की
अमूल्य
धरोहर
के
रूप
में
वर्णन
किया
है।
रसेल
एवं
हिरालाल
(1916)11
ने
The Tribes and Castes of The
Central Provinces of Indai. Vol.
IV में “नट’’ जाति के
सामाजिक, आर्थिक, राजनीति एवं
भाषा-बोली
पक्षों
को
लेकर
विस्तारपूर्वक
वर्णन
अपने
लेख
में
किया
है।
उसी
प्रकार
से
कन्नौजे
(2015)12
ने
अपने
पीएचडी
शोध
प्रबंध
में
पूर्वी
उत्तर
प्रदेश
की
“नट’’ जाति का
सामाजिक, आर्थिक एवं
निर्धनता
को
लेकर
कार्य
किया
है।
गौतम
(2015)13
ने
घुमंतू
समुदाय
और
स्वास्थ्य
प्रणाली
को
लेकर
एक
विस्तारपूर्वक
अध्ययन
अपने
पीएचडी
शोध
प्रबंध
में
किया
है।
धारासुरे
(2021)14
ने
अपने
पीएचडी
शोध
प्रबंध
मराठी
से
हिन्दी
में
अनूदित
विमुक्त
एवं
घुमंतू
जनजातियों
के
संदर्भ
में
विस्तारपूर्वक
अध्ययन
किया
है।
शोध
प्रविधि एवं
अध्ययन क्षेत्र : यह अध्ययन
छत्तीसगढ़
की
“नट’’ बोली पर
पर-संस्कृतीकरण
के
प्रभाव
का
नृजातिभाषावैज्ञानिक
अध्ययन
पर
आधारित
है।
जो
पूर्ण
रूप
से
छत्तीसगढ़
राज्य
के
“नट’’ जाति के
संदर्भ
में
किया
गया
है।
अध्ययन
की
प्रकृति
पूर्ण
रूप
से
सैद्धान्तिक
एवं
प्राविधिक
परिप्रेक्ष्य
रूप
से
यह
अध्ययन
पूर्ण
रूप
से
नृजाति
भाषावैज्ञानिक
अध्ययन
है
तो
वहीं
दूसरी
ओर
व्यावहारिक
और
प्राविधिक
रूप
से
गुणात्मक
एवं
वर्णात्मक, अन्वेषणात्मक शोध
अध्ययन
भी
है।
नृजाति
भाषावैज्ञानिक
अध्ययन
हेतु
छत्तीसगढ़
राज्य
के
दो
संभाग
रायपुर
एवं
बिलासपुर
का
चयन
किया
गया
है।
डाटा
संकलन
के
लिए
साक्षात्कार
निर्देशिका, संरचित साक्षात्कार
अनुसूची, समूहवार्ता, केन्द्रीय समूहवार्ता
तथा
वयैक्तिक
अध्ययन
जैसे
गुणात्मक
शोध
उपकरणों
का
उपयोग
किया
गया
है।
परिणाम
एवं निष्कर्ष : प्रस्तुत
अध्ययन
छत्तीसगढ़
की
“नट’’ बोली पर
पर-संस्कृतीकरण
के
प्रभाव
का
नृजाति
भाषावैज्ञानिक
अध्ययन
पर
आधारित
लेख
है।
छत्तीसगढ़
में
“नट’’ नृजाति समूह
को
विमुक्त
अनुसूचित
जाति
के
अतंगर्त
रखा
गया
है।
“नट’’ जाति घुमंतू
प्रवृत्ति
के
कारण
एक
गांव/शहर
से
गांव/शहर
में
खेल-तमाशा, भिच्छावृत्ति के
लिए
घूमते
हुए
अपना
व
अपने
परिवार
की
भरण
पोषण
करते
है।
घुमंतू
प्रवृत्ति
के
कारण
नृजाति
समूह
अन्य
दूसरे
जाति-जनजातियों
के
समूहों
के
लोगों
के
संपर्क
में
लगातार
बने
रहता
है।
लगातार
दूसरे
समूहों
के
संपर्क
में
बने
रहने
के
कारण
दूसरों
की
संस्कृतियों
को
अपनाने
/ ग्रहण करने
लगा
है।
स्थायी व
आधुनिकीकरण
भी
“नट’’ जाति की
भाषा-बोली
को
बहुत
प्रभावित
किया
है।
स्थायीकरण
के
कारण
“नट’’ नृजाति समूह
के
लोग
दूसरे
समूहों
के
लोगों
के
संपर्क
में
तीव्रगति
से
आया
है।
जिस
कारण
से
वर्तमान
युवा
“नट’’ पीढ़ी के
बहुत
से
लोग
अपने
मूल
भाषा-बोली
से
अनभिज्ञ
होते
जा
रहे
है।
आज
“नट’’ जाति के
द्वारा
दिखाये
जाने
वाला
खेल-तमाशा, धार्मिक-सामाजिक
कार्य, वाद-विवाद, बातचीत में
अधिकांश
रूप
से
छत्तीसगढ़ही, हिन्दी, भोजपुरी एवं
गुजराती
भाषा-बोली
का
उपयोग
अधिक
करने
लगा
है।
परिणामस्वरूप
आज
का
युवावर्ग
अपनी
मूल
भाषा-बोली
से
धीरे-धीरे
दूर
होते
जा
रहा
है।
या
यूं
कहें
कि
अपनी
मूल
भाषा-बोली
को
भूलने
लगा
है।
अध्ययन
से
प्राप्त
परिणामों
के
आधार
पर
स्पष्ट
है
कि
वर्तमान
युवा
पीढ़ी
अपने
पंरम्परिक
खेल-तमाशा
एवं
भाषा-बोली
से
धीरे-धीरे
विमुख
(भूलने)
होती
जा
रही
है, और
अन्य
निकटम
जाति-जनजातीय
समूहों
के
सम्पर्क
में
रह
कर
उनके
भाषा-बोली
एवं
संस्कृतियों
को
अपनाने
लगी
है।
(1)भोला नाथ तिवारी : भाषा विज्ञान, किताब महल, इलाहाबाद, 2010, पृ.1-10
(2) रामविलास शर्मा :भाषा और समाज, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002, पृ.62-63
(3) कविता रस्तोगी : समसामयिक भाषाविज्ञान, सुलभ प्रकाशन, लखनऊ, 2000, पृ.03
(5) रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव : भाषाशास्त्र के सूत्रधार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1983 पृ. 93-94.
(6)कपिलदेव द्विवेदी: भाषा-विज्ञान एवं भाषा-शास्त्र, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी, 2006, पृ. 25
(8) Elwin, Verrier. (1939). The Baiga. London: John Murray (Reprint: 2007, New Delhi: Gyan Publishing House.
(9) Hutton, J.H. (1969). The Angami Nagas. U.P.: Oxford University Press.
(10) Nirgune, Vasant. (2011). Nimadi Muhavren. Bhopal: Aadivashi Lokkla or Tulsi Sahitya Acadmy.
(11) Russell, R. V, and Hira Lal. (1916). The Tribes and Castes of The Central Provinces of Indai. Vol. IV. London: Macmillan and Co., Limited St.
(12) (2015)https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/449348,28.02.2023.
(13) (2015)https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/455011,28.02.2023.
(14) (2021)https://shodhganga.inflibnet.ac.in/handle/10603/414901,28.02.2023.
शोधछात्र, मानवविज्ञान अध्ययनशाला, पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)
joshi9926124815@gmail.com, 9399838938
jitendra_rsu@yahoo.co.in, 8103866976
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