शोध सार : हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन में रीतिकाल को एकांगी नजरिये से अब तक व्याख्यायित किया जाता रहा है, चाहे वह इस दौर के मुग़ल बादशाहों के लेखन के सवाल हो या स्त्री लेखन के सवाल। गार्सा द तासी, मिश्रबंधु, ग्रियर्सन, रामचंद्र शुक्ल बच्चन जाएगा।
बीज शब्द : मुग़ल बादशाह और हिंदी साहित्य, संगीत राग कल्पद्रुम, नादिराते शाही, मुग़लों की हिंदी कविताएँ, सामासिक संस्कृति, मुग़ल और हिंदी भाषा, औरंगजेब की भाषा नीति, आधुनिकता और हिंदी साहित्य, राष्ट्रवादी इतिहास लेखन, हिंदी-उर्दू
मूल आलेख : इतिहास अतीत का वर्तमान में किया गया अध्ययन है। इसी तरह से ‘साहित्य का इतिहास’ साहित्य के अतीत के रूप का अध्ययन और विश्लेषण है। इतिहासकार अपने इतिहास लेखन में किसे किस रूप में शामिल और व्याख्यायित करता है; किसे छोड़ता उसकी अपनी एक ‘दृष्टि’[i]
से निर्मित होती है। उसकी इस दृष्टि का निर्माण विचारधारा, समाज, धर्म, शिक्षा, पूर्वाग्रह जैसे तमाम तथ्यों से गुजरकर होती है। वह साहित्य के इतिहास को अपने विवेचन विश्लेषण के लिए वर्गो उप-वर्गों में भी बांटता है। इस लेख में मेरे विवेचन का विषय इतिहास के पन्नों का वह पूरा दौर है जिसमें मुग़ल वंश के स्थापत्य का स्वर्ण काल कहा जाता है, यानी कि शाहजहाँ का काल। यह इस दौर से आरंभ गुलाम होते जाने का दौर है। मुग़ल वंश क्रमशः धूल धूसरित हो रहा होता है तो दूसरी ओर भारत का ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ भी लड़ा जा रहा होता है। साहित्य का इतिहास पहचानता है। इसकी समय सीमा को मोटे तौर पर सन 1643 से 1857 तक देखा जाता है। सवाल यहाँ यह है कि यह नाम, वर्गीकरण, समय सीमा कहाँ से आई। इन बातों की पड़ताल करने के लिए हमें इतिहास में जाना होगा जहाँ से इसका विचार बिंदु आरंभ होता
अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनी जड़े सुनिश्चित कर लेने के उपरांत अपनी सत्ता को निरंतर स्थायित्व देते रहने के निमित्त उन्हें यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज इन सब को जानने की तैयार की गई। फोर्ट विलियम कॉलेज इसी दुभाषिये की पौध तैयार करने का स्थान था। इसी क्रम में साहित्य
हमारी भारतीय परंपरा में इतिहास लेखन की ‘पाश्चात्य अवधारणा’ के अनुसार इतिहास लेखन नहीं मिलता था तो इन लोगों ने कवियों, रचनाओं को संकलित करने और करवाने तथा समझने का भी प्रयत्न किया। इसमें व्यैक्तिक और सांस्थानिक दोनों स्तरों पर प्रयास किये गए। सन 1839 “फ्रेंच भाषा मे ‘इस्तवार द ला लितरेत्युर एनदुई ए हिंदुस्तानी’ (हिन्दुई और हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास) का अपना विशेष स्थान है, क्योंकि हिंदी साहित्य के दीर्घकालीन गाथा को सूत्रबद्ध रूप में स्पष्ट करने का यह सर्वप्रथम प्रयास था। इसमें गार्सा द तासी का ‘विवरण’ भर दिया अलावा बहुत सारे लोग इससे फायदा नहीं उठा सके, क्योंकि यह मूल रूप में फ्रेंच भाषा में
मौलवी करीमुद्दीन का ‘तजकिरा इ शुअराई’ तथा महेश दत्त शुक्ल जी का ‘भाषा काव्य संग्रह’ इसी प्रकार के साहित्य इतिहास लेखन के आरंभिक प्रयासों के रूप में गिने जाएँगे। इनमें भी कोई वास्तव में इतिहास न हो कर संकलन मात्र है। इतिहास लेखन की अपनी एक सामने आता है। दरअसल यह सारा विवरण इसलिए है ताकि रीतिकालीन काव्य और हिंदी आलोचना की ऐतिहासिक परंपरा को समझा जा सके। बिना इस पूरी परंपरा को समझे रीतिकालीन हिंदी साहित्य इतिहास आलोचना को समझना कठिन है। यह ग्रंथ हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास है जिसमें “पहली बार कवियों का विवरण कालक्रमानुसार दिया गया है।” काल विभाग, कालों की सामान्य प्रवृत्तियाँ, कवियों पर विस्तारपूर्वक लिखना तथा हर कवि को एक-एक अंक देकर नियत स्थान पर रखना ये कुछ वैज्ञानिकता हैं। इन्होंने “जायसी और तुलसी पर अलग से अध्याय भी लिखा है। संभवतः इन्ही अध्यायों ने आचार्य शुक्ल जी का विशेष ध्यान इन कवियों की ओर आकृष्ट किया होगा” जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने अपने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में रीतिकाल कहा है, उसकी भी प्रेरणा उन्हें इसी से मिली है।
ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ के अध्याय 7 को ‘रीतिकाव्य’ नाम दिया है और इसमें उन्होंने केशवदास, चिंतामणि त्रिपाठी, और बिहारी लाल को मुख्य कवि तथा इस काल को “काव्य प्रतिभा की एक असाधारण श्रेणी प्रस्तुत” करने वाले कवियों के रूप में देखते व्यापक रूप से देखें तो अध्याय 5 मुग़ल दरबार, अध्याय 8 तुलसीदास के अन्य परवर्ती कवि, अध्याय 9 अट्ठारहवीं शताब्दी का काल, अध्याय 10 कंपनी के शासन में हिंदुस्तान, रीतिकालीन काव्य के ही हिस्से हैं। हालांकि 10 वें अध्याय में रीतिकाल और आधुनिक काल दोनों का घालमेल कर बैठे हैं। फिर भी प्रथम इतिहास ग्रंथ के रूप में प्रसिद्ध इस किताब में रीतिकालीन हिंदी आलोचना को लेकर पूर्वाग्रह नजर नहीं आता है, बल्कि बिहारी, केशवदास के साथ ही साथ सुंदरकुंवरी नोटिस भी किया गया है। परवर्ती आलोचना बहुत सारे बिंदुओं को यहाँ से छोड़ना शुरू कर देती है। कहते हैं कि आलोचना निरंतर विकसित होती रहती है। ग्रियर्सन ने ‘सरोज’ को आधार माना था। तकरीबन 94% कवि इन्होंने वहीं से तीनों की ही नीव पर अपना
इस संबंध में सबसे महत्त्वपूर्ण और गंभीर प्रयास के रूप में सन 1929 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी द्वारा रचित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ हमारे सामने आता है। शुक्ल जी ने अपने मध्यकाल को दो भागों में विभाजित किया है जिसमे उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल की संज्ञा दी गई है। इसके 3 प्रकरण इन्होंने किए हैं। प्रकरण 1 जिसमें इस काल का सामान्य परिचय दिया गया है। प्रकरण 2 रीति ग्रंथकार कवि के रूप में नाम निर्दिष्ट किया गया है। इस काल का प्रकरण 3 जिसे शुक्ल जी ने रीतिकाल के अन्य कवि नाम दिया है।
इस पूरे दौर के लगभग 200 वर्ष की कविता में शृंगार का तत्त्व प्रधान रूप से उपस्थित है, ऐसा प्रायः सभी आलोचकों का मत है। यहाँ पर कविता करने की एक निर्दिष्ट ‘रीति’ है। पहले कवि कुछ लक्षण देता है फिर उदाहरण स्वरुप अपनी कविता लिखता है।रीति’ की यह ‘परंपरा’ या ‘शैली’ ने कहीं न कहीं कवियों के स्वतंत्र मूल्यांकन विवेचन को भी प्रभावित किया है। कौन कवि किस वर्ग में है या नहीं है, इस पर काफी लंबी खींचतान भी हुई है।
शुक्ल जी के बाद विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे ‘शृंगार काल’ नाम दिया तथा दो मुख्य भागों में बांटा। रीतिबद्ध और रीतिमुक्त; फिर इन दोनों विभागों के 2-2 उपभाग है यथा-लक्षणबद्ध, तथा लक्ष्यमात्र काव्य ,रहस्योंमुख काव्य और इसी तरीके से बच्चन सिंह ने भी ‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में इसे बद्धरीति तथा मुक्तरीति दो मुख्य वर्गों में बांटा है। इसके बाद इन दो मुख्य वर्गों के भी दो-दो उपवर्ग कर डाले हैं। लब्बोलुआब है कि सीधा साधा अगर इसे रीतिबद्ध, रीतिमुक्त, रीतिसिद्ध में देखा जाए तो कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि रीतिमुक्त और मुक्तरीति दोनों में रीतिमुक्त अभियान ज्यादा प्रचलित है तो इसे अपना लेने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए। रीतिमुक्त काव्य के अंतर्गत हमें कवियों के कई वर्ग उपवर्ग मिलते हैं। मतलब बहुत स्पष्ट है कि जो ‘रीति’ से बध कर नहीं, बल्कि स्वच्छंद भावों के आधार पर रचना कर रहा है, वह रीतिमुक्त कवि है। जो ‘रीति’ परंपरा से प्रभावित है, लेकिन उससे अलग कुछ भक्ति, शृंगार प्रेम, या सूक्तियों की रचना कर रहा है तो वह भी रीतिमुक्त है। हम चाहे तो रीतिमुक्त काव्य की चौहद्दी को इस दृष्टि से देख कर काफी विस्तृत कर सकते हैं और यह सही दृष्टि भी होगी। जिससे रीतिकाल के उन अधूरे पक्षों को सामने लाने में भी सहायता मिल सकती है जो आज तक हिंदी आलोचना के हिस्से से अनदेखा सा से देखने पर हमें मुग़ल बादशाहों की कविताओं के विश्लेषण में आसानी रहती है
जो रीतिकाल की समय सीमा है, वह मुग़ल दरबार या मुग़ल वंश की समय सीमा से भी संबंधित है। सोचने वाला सवाल यह भी है कि उस समय में मुग़ल दरबार में हिंदी की कविताएँ भी की जाती रही होंगी। मुग़ल बादशाहों, उच्च पदाधिकारियों, रानियों द्वारा भी लेखन किया जाता रहा होगा? ऐसा तो है नहीं की रानियाँ दिन रात हरम में सजने संवरने में व्यस्त रहती होंगी? उन्होंने भी कुछ लेखन किया है, ऐसा हमें स्रोतों से पता चलता है। हालाँकि ऐसी कवितायेँ मात्र में कम है। मुग़ल बादशाहों ने भी हिंदी में कविताएँ हैं और वह आज हमें उपलब्ध भी हैं। लेकिन इन सबसे पहले हमें कुछ बातों को जान सुन और समझ लेना
पहली बात कि क्या कारण था की आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में इन मुग़ल बादशाहों की रचनाओं को कोई स्थान नहीं दिया और ना ही उनका जिक्र किया? दरअसल सन 1920 - 30 के दौर में राष्ट्रवाद वाला मसला काफी हावी था। एम गोलवलकर [ii]
इस सांस्कृतिक निर्माण की एक प्रतिक्रिया हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन भी रहा है, इसलिए मुग़ल बादशाहों की कविताएँ इतिहास से बाहर है ।
दूसरी बात इन मुग़ल बादशाहों की रचनाओं की विषय वस्तु क्या है और वह कौन से समाज को दिखाती हैं? क्या इन विषय वस्तु में कुछ ऐसा था जिसे आलोचकों ने साहित्य में लाना ठीक नहीं समझा? तीसरी बात जैसा कि अक्सर बादशाहों को हिंदी विरोधी या ब्रज भाषा के विरोधी के रूप में देखा जाता है, क्या यह तथ्य पूर्णतया सत्य है? विशेष तौर पर औरंगजेब को हिंदी और हिंदू विरोधी माना जाता था, लेकिन उसकी खुद की लिखी कविताओं को देखें और हिन्दू विरोधी कतई नहीं था। औरंगजेब ने खुद ब्रज भाषा में कविताएँ की है तथा सामासिक संस्कृति को व्यंजित करने वाला लेखन उसके काव्य में मौजूद है। एक बादशाह खुद अपने आप को तख्त पर शासन पाने के बाद शिव और गणेश की ही हिन्दू विरोधी घोषित करने का काम भी करते है, पद देखते हैं
एक और हवाले से बात कहना चाहूँगा। Audrey Truschke अपनी पुस्तक ‘AURANGZEB The Man and The
Myth’ में लिखती हैं– “Aurangzeb also spoke
fluent Hindi from childhood and came from the fourth generation of the Mughal
family to do so. Aurangzeb was versed in literary registers of Hindi, likely as
part of his formal training; there are even original compositions in Braj Bhasha,
a literary register of premodern Hindi, attributed to him.”[iv]
इसके अलावा आप संगीत राग कल्पद्रुम की इन पंक्तियों को पढेंगे तो आपको कुछ और बातें भी देखने को मिलेंगी मसलन, “नाम सूची की तालिका में अकबर जहाँगीर शाहजहाँ औरंगजेब आलमगीर मोहम्मद शाह प्रभात बादशाहों का नाम लक्ष्य करने से ही समझ के साथ भगवत लीला एवं प्रेम विषयक गान सुनते थे और स्वयं भी समय-समय पर पद बना कृतकृत्य होते थे। जिस औरंगजेब को कितने ही लोग दारुण विद्वेषी और हिंदू विद्वेषी समझते हैं, उनके रचित पद पढ़ने से इस विषय में घोर पर संदेह होता है कि वास्तव विद्वेषी थे या नहीं। शायद लोग कहें औरंगजेब का नाम रहते भी वह पद औरंगजेब के खास बनाएँ नहीं, किसी हिंदू ने ही लिखे होंगे, इस बात का यह उत्तर दिया जा सकता है कि वह यदि प्राकृत हिंदू विद्वेषी ही होते हैं तो उनके समय के नाम से ज्ञान लीला भी उनके निकट संपूर्ण अवज्ञा को वस्तु नहीं मानी जाती थी। ऐसे दिन बीत गए हैं जब हिंदू-मुसलमान एक दूसरे को आदमी भाव से देखते धर्म विश्वास में कभी भी दुआ देना होते हैं, उल्टे परस्पर धर्म कार्य में सहानुभूति रखते थे। कहने से क्या मुसलमानी असल धारा में समाज धर्म साहित्य और रीत नीति के मध्य जिस भाव का तरंग उठता था, उसका कुछ कुछ आभास हमें राग कल्पद्रुम के नाना पदों से मिला है ।”[v]
मुग़ल दरबारों में हिंदी ब्रज-अवधी जैसी भाषाओं के कवि काफी सम्मान पाते थे। औरंगजेब जैसा तथाकथित कट्टर राजा भी अपनी जन्म भाषा को महत्त्व देता है। जाहिर सी बात है कि वह जन्म भाषा हिंदी है। जहाँगीर का एक कथन है जिसमें वह शाहजहाँ के बारे में लिखता , “अगर शब्शे अज़ मन पुरसद कि अज़ सिफ़ात पसंदीदा चीस कि बाबा खुर्रम न दारद ख्वाहम गुफ़्त कि जबान तुर्की नदारद।”[vi]
मतलब यदि कोई मुझसे पूछे कि शाहजहाँ में कौन सा ऐसा सद्गुण है जो उसे नहीं आता तो वह तुर्की है। शाहजहाँ जन्म से ही हिंदी भाषी था "हिंदी ही उसकी जन्म भाषा थी।"[vii]
यहाँ तक की बंदी दिनों में उसने दारा शिकोह तथा शुजा को हिंदी में ही पत्र लिखे थे।
अब एक एक करके इन मुग़ल बादशाहों की रचनाओं को देखते हैं कि इन्होने अपने लेखन में क्या अभिव्यक्त किया है? शाहजहाँ लिखते हैं,
इन कविताओं में एक कविता में आपको रीतिकाल की परम्परा अनुसार शृंगार मिलेगा तो दूसरी कविता में स्त्री के प्रति फूहड़ सामंती मानसिकता का तत्कालीन कविता का रूप जबकि तीसरी कविता में कृष्ण जो उस समय भक्ति के नहीं, शृंगार के आलम्बन है उनका वर्णन। आप यह देख सकते हैं कि उस समय समाज की सभी विशेषताएँ इनके काव्य में मौजूद हैं। लेकिन बहादुर शाह ज़फर की कविता को देखेंगे तो कुछ अलग माजरा नजर आता है जैसे -
दरअसल ये सारी कविताएँ एक एक करके इसलिए दी गई हैं ताकि हम भारत के सामासिक संस्कृति की शनै-शनै विकसित होती परंपरा को समझें और यह भी समझने की कोशिश करें कि कैसे इसी रीतिकाल के दौर में ही हिंदी-उर्दू भाषा को अलगाने का काम हुआ। उस साजिश की ऐतिहासिक प्रक्रिया को समझना होगा जो अंग्रेजों ने धर्म को भाषा के साथ जोड़ने का उपक्रम कर के किया था। औरंगजेब हो या मुहम्मद शाह, किसी ने भी हिंदू देवी-देवता ,हिंदू प्रतीकों, फाग, तीज त्यौहार, जलसा या मुहर्रम इनमें किसी में भी कोई अलगौझा नहीं देखा। लेकिन बाद में विकसित हुई हिंदी आलोचना ने इन मुग़ल बादशाहों की कविताओं को हिंदी साहित्य इतिहास से अलग जरूर रखा।
सन 1929 के आसपास हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा जा रहा था उस समय हिंदू राष्ट्रवाद वाला विचार भी बहुत कुछ जेहन में गूंज रहा था। हो सकता है कि शुक्ल जी ने कुछ बिंदु वहाँ से भी उधार लिए हो? बाद की आलोचना ने भी इसी तरह का काम किया है। हालांकि बच्चन सिंह ने ‘हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास’ में रीतिकाल के परिप्रेक्ष्य में बात करते हुए उर्दू काव्य को इसी रीतिकालीन भाग में ही शामिल किया है, लेकिन यहाँ भी एक दिक्कत है कि मुग़ल बादशाहों की पूरी हिंदी रचनाएँ गायब हैं।
हमें इन रचनाओं को उनके विषय वस्तु को उनके काव्य गुण को बकायदा अध्ययन करना चाहिए। यह उस दौर को समझने का एक उत्तम जरिया हो सकता है। साथ ही साथ इसके द्वारा हम उर्दू भाषा के बनने की इस ऐतिहासिक प्रक्रिया को तमाम कवियों के काव्य में आए तथ्यों से मिला कर देख सकते हैं। इस क्रम में हमें कई नई बातें देखने, समझने, सुनने में आयेंगी। शाह आलम सानी के काव्य में शादी ब्याह के अवसर पर स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले गीत जिससे ‘सीठना’ भी कहते हैं, खूब लिखे हुए मिलते हैं। ऐसी कविताएँ वही कवि लिखेगा जिसे भारतीय संस्कृति की जानकारी तो हो ही, उसे इस संस्कृति से रागात्मक संबंध भी हो। खुद इन बादशाहों ने भी नायिका भेद की भी कविताएँ की हैं जो कि उस समय परंपरा के रूप में अनवरत चल रही थी।
बहादुर शाह जफर की कविताओं का उदाहरण जो पीछे दिया है, वह बादशाह की आँखों से देखे हुए बेनूर होते हुए भारत का चित्र है जिसे एक बादशाह ने अपनी कलम से कलमबद्ध किया है। इसी दौर में एक स्त्री अपनी व्यथा हुए लिखती हैं, “सुन री सहेली मोरी पहली, बाबल घर में रही अलबेली, माता-पिता ने लाड से पाला।”[xvii]
दरअसल इन कविताओं के द्वारा खत्म हो रहे रीतिकाल और आधुनिकता के बीच हो रहे संक्रमण के दौर को समझने में भी बहुत मदद मिल सकती है। जब तक रीतिकाल खत्म होता है, अंगरेज पूरे देश में बस चुके थे और उन्होंने एक-एक कर क्रमशः पूरे भारत को गुलाम बनाने की प्रक्रिया को पूरा कर लिया था। रेलवे के द्वारा एकीकरण की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी जिसके बारे में बुकानन ने लिखा है कि ‘रेल रूपी इस्पात’ ने भारत के गांव को बेध डाला था।
यह जो पूरा रीतिकाल या रीतिमुक्त काव्य है, इन सारे बदलावों स्थितियों का साक्षी रहा है। इन सारी बातों पर हिंदी आलोचना को विचार करना चाहिए तथा इन नए सूत्रों तथ्यों से तालमेल बिठाकर रीतिकाल को नए तरीके से समझने की जरूरत है। ताकि हम यह जान सके की आधुनिक काल की पूर्व पीठिका के रूप में रीतिकाल की क्या ‘ऐतिहासिक उपादेयता’ रही है। हम यह भी जान सकते हैं कि गुलाम होते हुए भारत के जनमानस में उथल-पुथल की प्रक्रिया चल रही थी जिससे एक लावा के रूप में 1857 की महान क्रांति होती है। बाकी घनानंद, आलम, बोधा, ठाकुर और कुछ अन्य कला के रूप में प्रसिद्ध प्रिय कवियों के काव्य पर काफी साहित्यिक, मार्मिक और काव्यशास्त्रीय आलोचना की जा चुकी है। वैसे भी आलोचना सही का या जो कुछ छूट गया है, उसको तथा तटस्थ होकर सही तथ्यों को दिखाती है। शायद रीतिमुक्त के बहाने से रीतिकाल को एक सही नजरिए से देखा जा सके, क्योंकि हिंदी के‘प्रख्यात आलोचक’ शुक्ल जी ने जाने अनजाने में ही दो विरोधाभासी बयान एक साथ अपने ‘हिंदी साहित्य के इतिहास’ में लिखा है। पहला “हिंदी काव्य अब पूर्ण प्रौढ़ता को पहुँच चुका था”[xviii]
तथा “वागधारा बधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी थी।”[xix] देखने वाली बात यह है कि पूर्ण प्रौढ़ता में पहुँचे हुए काव्य में ऐसी क्या बात है थी कि ज्ञान एक सीमित दायरे में होकर ही बहने लगा था?
शुक्ल जी के साहित्य इतिहास लेखन की एक बड़ी खासियत यह भी है कि उन्होंने अपनी आलोचना में काफी कुछ सूत्र बिंदु छोड़ रखा है। जिस हिंदी-उर्दू भाषागत अलगाव की बात मैं अभी थोड़ी देर पहले पिछले कुछ पन्नों में कर रहा था उसके बारे में भी स्पष्ट संकेत देते हुए लिखते हैं, "इसका तात्पर्य है कि संवत 1800 तक आते आते मुसलमान हिंदी से किनारा खींचने लगे थे। हिंदी हिंदुओं के लिए छोड़ कर अपने लिखने पढ़ने की भाषा फारसी ही रखना चाहते थे जिसे उर्दू कहते हैं।"[xx]
यह एक शायद बड़ी विशेषता है शुक्ल जी के इतिहास लेखन की कि अपनी तमाम अच्छाइयों बुराइयों विसंगतियों के बावजूद आज भी जब हमें कहीं आगे बढ़ना होता है तो हम एक बार शुक्ल जी के इतिहास लेखन से जरूर दो-दो हाथ करते हैं। फिलहाल रीतिकाल को समग्रता में समझे जाने की जरूरत है, ताकि हम उस रीतिकाल को सिर्फ शृंगार काल या विलासी काल के रंगीन चश्मे वाले मोह से मुक्त हो सके।
[ii] एम् एस गोलवलकर, विचार नवनीत (बंच ऑफ थॉट का हिंदी अनुवाद ), नवनीत प्रकाशन, जयपुर, संस्करण, 2018. पृ. 68
[vii]वही, पृ. 28
[viii]वही,पृ. 36
[xviii]रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास , नागरी प्रचारिणी सभा काशी संस्करण, संवत 2063, पृ.129
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