- डॉ. राजेन्द्र कुमार सिंघवी
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सार : महाभारत
भारतीय
इतिहास
की
शताब्दियों
पुरानी
वह
घटना
है, जिसे
वेदव्यास
ने
शब्दबद्ध
किया।
यह
ग्रंथ
जिस
युग
में
लिखा
गया,
वहाँ
मूल्य-विहीनता, पतनशीलता, मर्यादा
का
अतिक्रमण
का
दृश्य
पग-पग
पर
दिखाई
देता
है।
'अंधा-युग' धर्मवीर
भारती
रचित
गीतिनाट्य
महाभारत
के
अट्ठारहवें
दिन
की
संध्या
से
लेकर
प्रभास
तीर्थ
में
कृष्ण
की
मृत्यु
के
क्षण
तक
की
घटनाओं
पर
आधारित
है।
डॉ. भारती अपने
युग
की
संक्रांतिकालीन
बेला
के
साक्षी
रहे
हैं।
तत्कालीन
परिस्थितियाँ
जहाँ
एक
ओर
युद्धजनित
त्रासदियों
की
शिकार
मानवता
है, तो
दूसरी
ओर
अंधकारमय
वातावरण
में
भी
जीवन
के
प्रति
उत्कट
भाव-प्रवणता।
इस
संधिकालीन
समय
में
कवि
भारती
के
मन
में
दुविधा, संशय
और
भय
के
साथ-साथ
आस्था
का
स्वर
भी
अंकुरित
होता
है।
कवि
की वैयक्तिक सोच
,दृष्टि
और
दुनिया
को
देखने
का
नजरिया
कविता
की
भाव-संपदा
बनती
है।
‘अंधायुग’ डॉ. भारती
की
एक
ऐसी
रचना
है, जहाँ
वे
नवीन
भाव
और
विचार
बोध
को
जन्म
तो
देते
हैं, परंतु
संपूर्ण
कृतित्व
में
आस्था
और
अनास्था
का
द्वंद्व
निरंतर
जारी
रहता
है। महाभारत
का
यह
घटना-चक्र
संपूर्ण
मानवता
को
संदेश
देता
है
कि
मूल्य-विहीन
होने
पर
पतनशीलता
निश्चित
है।
गांधारी, धृतराष्ट्र, विदुर, युयुत्सु, याचक आदि
पात्रों
की
मनःस्थिति
हमारा
वर्तमान
है
जो
अभी
भी
गतिमान
है।
अंधा-युग
में
अनुभूति
की
पूरी
ऊष्मा
और
जीवन
का
पूरा
आवेग
है।
उसमें
कवि
की
सर्जन
कल्पना
कला
की
पूरी
ऊँचाई
से
रम्यतम
सौन्दर्य
प्रसाधनों
का
चयन
करके
उद्भूत
हुई
है।
फलतः
उक्त
कृति
की
प्रासंगिकता
वर्तमान
में
उन्मेष
मूलक
अर्थवत्ता
प्रदान
करने
में
सक्षम
है।
बीज
शब्द :
मूल्य-बोध,
अभिशाप,
मनोवृत्ति,
आसक्ति,
मर्यादा,
संवेदना,
अनास्था,
अवचेतन,
अर्धसत्य,
त्रासदी,
मानवता।
मूल
आलेख : आचार्य
शुक्ल
के
अनुसार
जिस
प्रकार
आत्मा
की
मुक्तावस्था
ज्ञानदशा
कहलाती
है, उसी
प्रकार
हृदय
की
मुक्तावस्था
रसदशा
कहलाती
है, हृदय की
इसी
मुक्ति
साधना
के
लिए
मनुष्य
की
वाणी
जो
शब्द-विधान
करती
आई
है, उसे कविता
कहते
हैं।
अर्थात
आत्म
की
अभिव्यक्ति
ही
रचना
की
प्रथम
प्रक्रिया
है, लेकिन
जब
तक
यह
संवेदना
से
नहीं
जुड़ती
तब
तक
संपूर्ण
सृष्टि
से
नहीं
जुड़
पाती।
सारी
जटिलता
के
बावजूद
कविता
हमारी
संवेदना
के
निकट
होती
है।
संवेदना
ही
कविता
का
मूल
है।
इसे
राग-तत्व
भी
कहा
जाता
है।
यही
संवेदना
समस्त
चराचर
जगत
से
जुड़ने
और
उसे
अपना
लेने
का
सार्थक
प्रयास
करती
है।
कवि
की
इस
वैयक्तिकता
में भी
सामाजिकता
मिली
होती
है। इसी
कारण
उसकी
निजी
अनुभूतियाँ भी
सामाजिक
अनुभूतियाँ बन
जाती
है। इन्हीं
तत्त्वों को
उजागर
करने
का
कार्य
प्रतिभा
करती
है। इसे
कविता
का
मूल
हेतु
माना
गया
है, जिसके
माध्यम
से
कवि
अपनी
रचना
कर
पाता
है।
अतः
कविता
की
रचना
एक
प्रक्रिया
से
गुजरने
के
बाद
प्रभावकारी
बन
जाती
है।
डॉ.
भारती
ने
अपनी
प्रखर
मेधा
का
परिचय
देते
हुए
‘अंधायुग’ में महाभारत
के
मिथकीय
आवरण
में
समकालीन
युद्धजनित
समस्याओं
का
बखूबी
चित्रण
ही
नहीं
किया, बल्कि
निजी
अनुभूति
को
व्यापक
सत्य
के
रूप
में
प्रकट
किया।
‘अंधायुग’ कृति के
रचनागत
उद्देश्य
पर
प्रकाश
डालते
हुए
वे
लिखते
हैं-
“......... इस कृति
का
पूरा
जटिल
वितान
जब
मेरे
अंतर
में
उभरा
तो
मैं
असमंजस
में
पड़
गया।
थोड़ा
डर
भी
लगा।
लगा
कि
इस
अभिशप्त
भूमि
पर
एक
कदम भी
रक्खा
कि
फिर
बचकर
नहीं
लौटूँगा।”1 परन्तु
रचनाकार
अपने
दायित्व
से
विमुक्त
नहीं
हो
सकता, इसीलिए
वे
आगे
लिखते
हैं-
“पर एक नशा
होता
है-
अन्धकार
के
गरजते
महासागर
की
चुनौती
को
स्वीकार
करने
का, पर्वताकार
लहरों
से
खाली
हाथ
जूझने
का, अनमापी
गहराइयों
में
उतरते
जाने
का
और
फिर
अपने
को
सारे
खतरों
में
डालकर
आस्था
के, प्रकाश
के, सत्य
के, मर्यादा
के
कुछ
कणों
को
बटोर
कर, बचाकर, धरातल
तक
ले
आने
का।”2
कितनी बड़ी
विडम्बना
है
कि
उच्च
संस्कृतियों
और
मूल्यों
का
ताज
पहने
हुए
मानव
ही
मानव
आत्मा
के
प्रश्नों
का
उत्तर
नहीं
दे
पाता।
डॉ.
भारती
की
मान्यता
यह
रही
है,
“साहित्य में शब्द
तभी
समर्थ, प्रेषणीय
और
प्राणवान
बनते
हैं, जब
उनमें
मानवीय
मूल्य
आन्तरिक
रूप
से
प्रतिष्ठित
रहता
है।“3
वस्तुतः
असंगतियों
को
अनावृत्त
करना
ही
सृजनधर्मिता
है।
युद्ध के उपरांत स्थितियाँ, मनोवृत्तियॉं एवं आत्माएँ सब कुछ विकृत हो जाती हैं, जहाँ जीवन के प्रति कोई आसक्ति शेष नहीं रह जाती। केवल अतीत की त्रुटियों पर क्षोभ से भविष्य की पटकथा लिखना इतना आसान नहीं होता। अनास्था के इस भीषण वातावरण में कवि ने कहा, "यह कथा ज्योति की है, अंधों के माध्यम से"- तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर गमन का संदेशवाहक यह भारतीय मूल्य-बोध आने वाले भविष्य का निर्माण कर रहा है जो हमारी आस्थावादी सम्यक दृष्टि का विस्तार है। 'अंधायुग' युद्ध के विरुद्ध एक सशक्त अपील है, क्योंकि युद्ध मानव मूल्यों के नकार का उदाहरण है। मर्यादा का बिखराव,रक्तपात और विनाश युद्ध का अंतिम सत्य है। इसमें दोनों ही पक्षों को अपना आत्म-तत्व खोना पड़ता है और महाभारत के युद्ध का परिणाम भी कवि की दृष्टि में कुछ ऐसा ही रहा –
भारतीय चिंतन परम्परा व्यापक दृष्टिकोण पर आधारित है। हमारे जीवन का कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर हमारी परंपरा ने विचार नहीं किया। हमारे शास्त्रों ने जीवन के उज्ज्वल उदात्त पक्ष को ग्रहण करने पर सदैव बल दिया। यह प्रयास भारतीय साहित्य में निरंतर विद्यमान रहा कि नवनीत छूट न जाए, उसी के कारण वैश्विक पटल पर भारतीय साहित्य अप्रतिम गहराई के साथ खड़ा है। अंधा-युग कृति इसी पक्ष को रेखांकित करती है। सुंदर, शुभ और कोमलतम की हार मानवता की पराजय है। द्वापर-युगीन यह कथा आज के समय को भी ध्वनित करती है। मनुष्य का अवचेतन मन सदैव विवेक पर अधिपत्य कर लेता है, इस कारण निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा व्यर्थ सिद्ध हो जाते हैं। युद्ध के इस कारण को खोजते हुए गांधारी ने अपने कथन में इस भाव को व्यक्त किया -
युद्ध
के
समय
सत्य
की
रक्षा
कदापि
नहीं
हो
सकती
और
अंततः
सत्य
का
विस्थापन
गंभीर
परिणाम
चुकाता
है।
अश्वत्थामा
के
अनास्थावादी
चरित्र
निर्माण
के
पीछे
युधिष्ठिर
का
वह
अर्धसत्य
है
जिसके
कारण
उसके
पिता
की
मृत्यु
हुई।
धर्मराज
की
उपमा
से
विभूषित
युधिष्ठिर
'नर
या
कुंजर' अर्थात्
मानव
और
पशु
को
भी
पृथक
नहीं
कर
सके।
इसीलिए
अश्वत्थामा
ने
कहा
कि
मेरे
ह्रदय
के
अंदर
जो
कुछ
भी
अच्छा
था
उसकी
भ्रूण-हत्या
युधिष्ठिर
के
अर्धसत्य
ने
की।
अब
उसके
समक्ष
एक
ही
विकल्प
है
-
वध, केवल वध, केवल वध, मेरा धर्म है।6
अश्वत्थामा का प्रतिशोध यहीं तक सीमित नहीं रहता। वह सत्य रूपी संजय और भविष्य रूपी याचक की हत्या का प्रयास भी करता है। धर्म के पक्ष में खड़ा रहने वाला युयुत्सु अभिशप्त जीवन जीता है, दोनों ही पक्षों से प्रताड़ित होता है और अंततः आत्महत्या करता है। यह विपरीत समय का दर्दनाक सच है। युयुत्सु की आत्महत्या पर कृपाचार्य का यह कथन भयंकर परिणाम की ओर इंगित करता है -
नैतिकता
के
पतन
से
मनुष्य
स्वार्थी
हो
जाता
है।
धृतराष्ट्र
महाभारत
के
ऐसे
ही
पात्र
हैं।
उनका
अंधापन
कुंठा
एवं
स्वार्थपरता
ने
मानवीय
त्रासदी
को
आमंत्रित
किया।
युद्ध
के
अंत
में
विदुर
के
समक्ष
जब
वह
अपने
पश्चाताप
भरे
शब्दों
में
पीड़ा
को
प्रकट
करते
है
तो
वह
स्वयं
ही
उन
कारकों
को
उजागर
कर
देते
है, जिससे
युद्ध
की
नियति
बनी
–
अंधा-युग' नाटक
में
धर्मवीर
भारती
ने
पौराणिक
कथा
के
माध्यम
से आधुनिक
भावबोध
को
स्थापित
किया
है।
इस
नाटक
में
अमर्यादित
और
अनैतिक
आचरण
का
विरोध
दिखाई
देता
है।
इस
संबंध
में
विदुर
ने
एक
जगह
कहा
है,
“मर्यादा मत तोड़ों
तोड़ी
हुई
मर्यादा
कुचले
हुए
अजगर
सी
गुन्जालिका
में
कौरव-वंश
को
लपेट
कर
सुखी
लकड़ी-सा
तोड़
डालेगी।“
इसमें लेखक ने
पौराणिक
कथा
के
माध्यम
से
आधुनिक
भाग
बोध
का
रूपांतरण
किया
है।
इस
नाटक
में
नाटककार
ने
युध्द
के
परिणाम
धर्म-अधर्म, आदर्श-यथार्थ
आदि
जीवन
सत्यों
को
शब्दायमान
किया
है।
अश्वत्थामा
का
प्रतिशोध
ब्रह्मास्त्र
का
संधान
हमें
उस
परमाणु
त्रासदी
का
चित्र
बताता
है,
जहाँ
अज्ञेय
के
शब्दों
में
मानव
का
रचा
हुआ
सूरज
मानव
को
भाप
बनकर
सोख
जाता
है।
व्यास
की
यह
चेतावनी
विष्णु
यथार्थ
को
प्रकट
करती
है
–
‘अंधायुग’ में प्रभु अपने अवसान के क्षणों में जब ध्वंस का दायित्व अपने ऊपर लेते हैं तो भविष्य की कल्पना भी रखते हैं। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन है- “आस्था का प्रश्न संजय, युयुत्सु और अश्वत्थामा के माध्यम से कवि ने प्रस्तुत किया है और अनास्था को आस्था की भूमिका के रूप में स्वीकार किया है।”10 विदुर का निवेदन इसी का प्रमाण है -
मनुष्य
के
समस्त
अनैतिक
क्रियाकलापों
का
परिणाम
और
नैराश्य
का
फल
प्रभुता
की
मृत्यु
के
रूप
में
प्राप्त
होता
है।
‘अंधायुग’
में
‘कृष्ण’ का चरित्र
जिस
रूप
में
प्रकट
हुआ
है, उस
बारे
में
कतिपय
आलोचकों
का
मत
है
कि
भारती
जी
ने
भारतीय
संस्कृति
में
कृष्ण
के
प्रति
आस्था
को
कम
कर
दिया
है, किंतु
गहराई
से
दृष्टिपात
करें
तो
यह
प्रकट
होता
है
कि
कृष्ण
की
मृत्यु
अश्वत्थामा
के
अनास्था
भाव
को
समाप्त
कर
देती
है।
'अंधा
युग' में
प्रभु
श्री
कृष्ण
की
मृत्यु
और
उसके
उपरांत
अश्वत्थामा
का
आत्मबोध
हमें
आश्वस्त
करता
है
कि
भारतीय
मूल्यों
की
आस्थावादी
दृष्टि
का
फलक
भविष्य
को
संचित
करने
वाला
है, क्योंकि
कृष्ण
भविष्य
के
रक्षक
हैं, अनासक्त
है।
यदि
अपने
आत्मत्याग
से
ही
शांति
की
स्थापना
होती
है
तो
वह
इस
हेतु
भी
उपस्थित
हैं।
यह
विचार
महान
भारतीय
सनातन
परंपरा
का
उद्घोष
करता
है।
स्वयं
अश्वत्थामा
का
कथन
प्रमाणित
करता
है -
यही आस्था भाव कवि को सृजनात्मक धर्म की ओर प्रेरित तो करता है, पर अंतस् में निहित व्याकुलता द्वंद्व को जन्म देती है। जो कवि संक्रमणकालीन परिस्थितियों और विसंगतियों का द्रष्टा हो, वह अपने भावों को निश्चित रूप से इन्हीं शब्दों में प्रकट करेगा। शत्रु के मन से घृणा भाव की समाप्ति आस्थावादी दृष्टि का विस्तार करती है। मानवता के नए वितान की रचना करती है। जैसा कि अश्वत्थामा ने कहा –
आस्था और अनास्था के द्वंद्व में भी कवि का समष्टि भाव ही अधिक मुखर रहा है। ‘अंधायुग’ में युयुत्सु का चरित्र आस्था के प्रति अनास्था भाव को प्रकट करने वाला है, वहीं कृष्ण की मृत्यु पर अश्वत्थामा का आस्थावान् बन जाना अपूर्व है। कवि की मानवतावादी चेतना भी क्रियात्मक एवं रचनात्मक शक्ति रखती है। कुंठा, आकुलता, हिंसा, विकृति, रक्तपात और बर्बरता में भी कृष्ण का यह आश्वासन सर्जन का संदेश देता है, यथा -
कवि
की
मान्यता
यह
रही
है-
“साहित्य में शब्द
तभी
समर्थ, प्रेषणीय
और
प्राणवान
बनते
हैं, जब
उनमें
मानवीय
मूल्य
आन्तरिक
रूप
से
प्रतिष्ठित
रहता
है।”15 यही
आस्था
भाव
कवि
को
सृजनात्मक
धर्म
की
ओर
प्रेरित
तो
करता
है, पर
अंतस्
में
निहित
व्याकुलता
द्वंद्व
को
जन्म
देती
है
।
जो
कवि
संक्रमणकालीन
परिस्थितियों
और
विसंगतियों
का
द्रष्टा
हो, वह
अपने
भावों
को
निश्चित
रूप
से
इन्हीं
शब्दों
में
प्रकट
करेगा।
अंत
में
अश्वत्थामा
का
आस्थावादी
होना
मानवता
की
विजय
है।
कृष्ण
मृत्यु
को
वरण
करके
भी
भारतबोध
की
मूल्य
चेतना
को
जीवित
रखने
में
सफल
रहे
हैं।
आस्था
और
अनास्था
के
द्वंद्व
में
भी
कवि
का
समष्टि
भाव
ही
अधिक
मुखर
रहा
है।
‘अंधायुग’ में युयुत्सु
का
चरित्र
आस्था
के
प्रति
अनास्था
भाव
को
प्रकट
करने
वाला
है, वहीं
कृष्ण
की
मृत्यु
पर
अश्वत्थामा
का
आस्थावान्
बन
जाना
अपूर्व
है।
निष्कर्ष
: डॉ. धर्मवीर
के
काव्य
में
युगीन
विद्रुपताओं, वेदना
व
पीड़ा
की
गाथाओं, युद्ध
जनित
विषमताओं, मानवता
को
त्रास
पहुँचाने
वाली
कई
घटनाओं
के
चित्रण
के
बावजूद
वे
अपनी
आस्था
का
स्वर
तलाश
करते
हैं।
‘अंधा युग’ की
संपूर्ण
रचना-प्रक्रिया
में
आस्था
और
अनास्था
के
द्वंद्व
में
आस्थावादी
दृष्टि
का
आकर्षण-
पाठकों
को
सदैव
आकर्षित
करता
है
और
भावी
मूल्यों
के
निर्माण
की
प्रेरणा
भी
देता
है। युद्ध
की
विभीषिका
से
त्रस्त
मानवता,परमाणु
बमों
की
भयंकरता, मनुष्यता
की
पीड़ा, मानव
मूल्यों
की
मर्यादा
आदि
के
माध्यम
से
'अंधा
युग' को
न
केवल
वर्तमान
में
बल्कि
आने
वाले
समय
में
भी
उपयोगी
माना
जाएगा।
वस्तुतः
धर्मवीर
भारती
ने
धर्म, दर्शन, समाज
की
शोषित
करने
वाली
रूढ़ि, मृत
परम्परा
व
सड़े-गले
मूल्यों
को
चुनौती
दी
है, अशिव
को
जन्म
देने
वाली
मान्यताओं
के
प्रति
अनास्था
बरती
है, किंतु
मानवतावादी
पक्षों
को
ध्यान
में
रखकर
आस्था
व
विश्वास
को
भी
उसी
निष्ठा
से
सृजित
किया।
धर्मवीर भारती ने अंधा युग में महाभारत के जिस कथावृत्त को प्रस्तुत किया है उससे निकलने वाले संकेत आधुनिक वैश्विक संदर्भ में और अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं ।पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक सुविधाओं की यथार्थ अभिव्यक्ति जिस दृश्य बिंब के साथ उपस्थित होती है, वह कालजयी है। कवि ने वर्तमान संकट बोध को अभिव्यक्ति देने के लिए इतिहास के पीठ पर वर्तमान को बोझ बनाकर नहीं रखा है, बल्कि कथा का हर बिंदु, हर संदर्भ, वर्तमान युग की समस्याओं और स्थितियों को संकेतित करता है। अतः स्पष्ट है कि पुरानी कथा में वर्तमान चेतना का समावेश मूल्यवान बन गया है। हिन्दी साहित्य का वर्तमान समय संक्रमणकालीन वेला से गुजर रहा है, नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञास्फोट की प्रतिध्वनि में बौद्धिकता साहित्य के मस्तिष्क पर विलास कर रही है । हृदय पक्ष अमा-निशा के गर्त में दुबक कर बैठा है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य की आंकाक्षी भारतीय साहित्यिक विरासत विद्रुपताओं से ग्रस्त होती जा रही है। आस्था, अनास्था, नव्य-पुरातन, पौर्वात्य-पाश्चात्य के द्वन्द्व में फँसा साहित्य पटल स्वयं ‘अर्थ-वलय’ से ग्रसित है। भक्ति के अजस्र स्रोत विलुप्त हो रहे हैं, ऐसे समय में ‘अंधा-युग’ की स्मृति हमें गंतव्य का बोध करायेंगी।
संदर्भ :
- डॉ.
धर्मवीर भारती,
अंधायुग,
किताब महल,
इलाहाबाद, सं.
1999, भूमिका, पृ.3
- पूर्ववत्,
पृ.3
- डॉ.
धर्मवीर भारती,
मानव मूल्य
और साहित्य,
भारतीय ज्ञानपीठ,
नई दिल्ली-32,
सं. 2006, पृ.177
- डॉ.
धर्मवीर भारती,
अंधायुग, किताब
महल, इलाहाबाद,सं.
1999, पृ.11
- पूर्ववत्,
पृ.19
- पूर्ववत्,
पृ.36
- पूर्ववत्,
पृ.85
- पूर्ववत्,
पृ.16
- पूर्ववत्,
पृ.73
- डॉ.
रामस्वरूप चतुर्वेदी,
हिन्दी नव
लेखन, भारतीय
ज्ञानपीठ, काशी,
सं.1960, पृ.60
- डॉ.
धर्मवीर भारती,
अंधायुग,
किताब महल,
इलाहाबाद,सं.
1999, पृ.19
- पूर्ववत्,
पृ.95
- पूर्ववत्,
पृ.95
- पूर्ववत्,
पृ.99
- डॉ. धर्मवीर भारती, मानव मूल्य और साहित्य, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-32, सं. 2006, पृ.177
सहायक आचार्य-हिन्दी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
आभार।
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