शोध सार : स्त्री लेखन में राजनीति और राजनीति में स्त्री की सक्रिय सहभागिता का इतिहास भारत में बहुत पुराना नहीं है। स्त्रियों ने विविध साहित्यिक विधाओं में देश के स्वतंत्रतापूर्व और पश्चात की राजनीति को एक अलग नज़रिए के तहत व्याख्यायित एवं विश्लेषित किया है। राजनीति में जिन हिन्दी लेखिकाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही उसमें रमणिका गुप्ता का नाम सबसे अधिक प्रचलित है। पंजाब के संभ्रांत परिवार में पैदा होने वाली रमणिका गुप्ता की कहानी महज़ एक ऐसी स्त्री की कहानी नहीँ जिन्होंने भारतीय राजनीति में पूरी प्रखरता और साहस के साथ भागलिया बल्कि राजेन्द्र यादव की भाषा में “उनकी यह यात्रा भारतीय राजनीति के नाटकीय मोड़ों का इतिहास भी है और विकास भी।”1 रमणिका गुप्ता की आत्मकथा के दोनों भाग ‘हादसे’ (2005) एवं ‘आपहुदरी’ (2015) भारतीय राजनीति के ऐसे दस्तावेज़ हैं जिसमें राजनीतिक संघर्ष, षड्यन्त्र और उसकी सत्तावादी प्रवृतियों का यथार्थ पूरी प्रखरता से चित्रित हुआ है।
बीज शब्द : भारतीय राजनीति, स्त्री आत्मकथा, रमणिका गुप्ता, हादसे, आपहुदरी, पितृसत्ता, आपातकाल, स्त्री विमर्श, स्त्री सशक्तिकरण, मजदूर आंदोलन, आदिवासी आंदोलन, बिहार की राजनीति।
मूल आलेख : राजनीतिक भागीदारी से अभिप्राय केवल ‘मताधिकार’ से नहीं है वरन इसके अंतर्गत राजनीतिक चेतना, सक्रियता एवं निर्णय लेने की स्वतंत्रता भी शामिल है। संविधान द्वारा मताधिकार पाने के बाद भी भारत की संसदीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम रही। राजनीति में जिन महिलाओं की भूमिका थी वे या तो पहले से किसी राजनीतिक संभ्रांत परिवार का हिस्सा थीं या स्वतंत्रता पूर्व से ही आंदोलनों के ज़रिए राजनीति में सक्रिय थी। मध्य एवं उच्च वर्गीय स्त्रियाँ अभी अपने आधारगत अधिकारों के लिए ही संघर्षरत थी। इन परिदृश्यों में पंजाब की एक लड़की का बिहार में बतौर राजनीतिक कार्यकर्ता उभरना और मुख्यधारा की राजनीति में आना, संघर्ष की अपराजेय गाथा है। भारतीय राजनीति का लोकतान्त्रिक स्वरूप जनता के हित का दावा करता है फिर भी उसकी सबसे बड़ी विडंबना है कि उसमें उसी सामान्य जनता का प्रतिनिधित्व नाममात्र होता है विशेषकर अगर वह स्त्री हो तो। इस विडंबना को रेखांकित करते हुए राजेन्द्र यादव लिखते हैं “उत्तर भारतीय राजनीति में स्त्री की स्थिति क्या है? क्या खेतों, खलिहानों, खदानों और आदिवासियों के बीच ज़मीनी लड़ाइयों से उठकर भी वह शीर्ष पर आ सकती है। इंद्रा जी नेहरू जी की बेटी हैं और पद प्रतिष्ठा उन्हें विरासत में मिली है। कितना आसान है कि आज सोनिया और प्रियंका गांधी फिर केंद्र में आ जाएं। अगर वे ठेठ ज़मीन से उठी होती तो कितना ऊपर जा सकती थी।”2 राजनीति में परिवारवाद का होना उसके लोकतान्त्रिक स्वरूप का उपहास है लेकिन भारतीय राजनीति में यह कटु यथार्थ है कि कोई भी राजनीतिक दल इससे पूर्णतः मुक्त नहीं है। एक प्रगतिशील अभिजात्य और संबल परिवार का हिस्सा होने के बावजूद भी रमणिका गुप्ता की राजनीतिक चेतना बहुत अलग थी। वह शुरू से सत्ता विरोधी थीं। 1946 में जब महात्मा गांधी ने नोआखाली के दंगों को लेकर आमरण अनशन शुरू किया तो रमणिका गुप्ता ने घर में ही अनशन शुरू कर दिया। पटियाला में गुमशुदा शरणार्थी लड़कियों की तलाश में रखी एक सभा में उन्होंने भाषण देते हुए खुल कर कह दिया था “ये जो यहाँ भाषण दे रहे हैं और लड़कियों को खोजने का आश्वासन दे रहे हैं सबके सब झूठ बोलते हैं। इनके घरों में ही तो लड़कियां हैं। इन्हीं लोगों के घरों में जाइए, एक–एक के यहाँ पाँच–पाँच, दस-दस लड़कियां मिल जाएंगी।”3 तब रमणिका गुप्ता महज़ सत्रह साल की रही होंगी। काँग्रेस पार्टी में उनकी आस्था बचपन से ही थी जो बाद में 1967 बिहार में संविद पार्टी बनने पर टूटी।
राजनीति में प्रवेश करने वाली स्त्री को पहला खतरा यौन उत्पीड़न का होता है। यह खतरा उनके साथ पूरी राजनीतिक यात्रा में अनवरत बना रहता है। राजनीति की शक्ति संरचना में हमेशा से पुरुषों का वर्चस्व रहा। एक कार्यकर्ता से लेकर मंत्री तक अपने ओहदे का गलत इस्तेमाल करता हुआ महिलाओं पर यौन संबंध का दबाव बनाता है। राजनीति में होने वाले यौन उत्पीड़न पर वह लिखती हैं, “वहाँ लोग स्त्री कार्यकर्ताओं को अपना कलेवा मानते थे जिसे भूख लगने पर खाने का एक स्वार्जित जन्मसिद्ध अधिकार उन्होंने प्राप्त कर रखा था। उनकी नज़र में बिना किसी पुरुष नेता – वृक्ष का सहारा लिए महिला नेता – लता पनप और बढ़ नहीं सकती थी।”4 कांग्रेस के प्रति उनकी आस्था टूटने का मूल कारण यही था। वह 1967 में बिहार में काँग्रेस छोड़कर सोशलिस्ट पार्टी की हार
के बावजूद भी
उसमें
शामिल हुईं l
राजनीति में यौन उत्पीड़न का मामला समझौते की शक्ल लिए होता है। उसमें गहरी पेंच होती है जहां राजनेता महिलाओं को सीट और सत्ता का प्रलोभन देकर एक तरह का अघोषित समझौता करते हैं। इस संदर्भ में अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग ‘आपहुदरी’ में वह लिखती हैं कि “राजनीति में समझौता और व्यभिचार ज्यादा चलता है और बलात्कार कम।”5
भारतीय राजनीति में जातिपक्ष एक वृहद विषय है। कई नेताओं के चुनावी मुद्दे जनताहित की जगह किसी क्षेत्र के जाति विशेष के मुद्दे बन जाती है। भारत में कुछ राजनीतिक दलों का विकास जाति उत्थान जैसे गंभीर मुद्दों के बरक्स हुआ लेकिन अधिकतर दल जाति तुष्टीकरण तक ही सीमित रह गए इसी के नतीजन भारतीय राजनीति पर परिवारवाद हावी होता चला गया। इसी राजनीति में जातिगत विद्वेष और भी जटिल हो गए। रमणिका गुप्ता
लिखती हैं, “भूमिहार और राजपूत की लड़ाई में ब्राम्हणों की कूटनीति सदैव से दूसरों को लड़कर स्वयं नेता बने रहना रही, ताकि कोई फैसला ही नहीं हो सके। वे आपस में लड़ते रहे और ब्राम्हण नेता बने रहें।”6
आत्मकथा ईमानदार अभिव्यक्ति की मांग करती है। यह ईमानदारी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा के दोनों भागों का आधारगत गुण है। जहां वह पूरी निर्भीकता से दूसरे राजनेताओं के राजनीतिक दाव-पेंच का वर्णन करती हैं वहीं अपनी रणनीति भी छिपाती नहीं। उनका राजनीतिक जीवन 1960 में धनबाद से शुरू हुआ और 1967-68 तक उनकी राजनीतिक सक्रियता निरंतर बढ़ती रही। इस पूरी समयावधि की
अपनी रणनीति अभिव्यक्त करते हुए लिखती हैं “मुझे यह कहने मे कोई झिझक नहीं है कि धनबाद में जुझने के लिए जहां मेरी ज़िद ने मेरा साथ दिया, वहाँ मैंने अपने समर्थकों का सहारा लेकर भी अपना साध्य साधा। मैंने अपने दुश्मनों के दुश्मनों का इस्तेमाल भी किया। जहां मैंने नेताओं का सहयोग लिया वहीं मैंने मज़दूरों के हितार्थ नेताओं के विरोधियों का उपयोग भी किया। इससे मेरी शक्ति बढ़ी। इन नेताओं ने मेरा भी कम दोहन नहीं किया। राजनीति में ऐसा होना आम बात है फिर मैं कैसे बच सकती थी।”7 इस अभिव्यक्ति से भारतीय राजनीति की दो बातें प्रकाश में आती हैं। एक तो किस प्रकार ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है’ की कूटनीति के तहत राजनीतिक दल गठबंधन की सरकार बनाते हैं। इसी तरह राजनीति में दोहन का क्रम चलता रहता है।
तत्कालीन बिहार
रमणिका गुप्ता का मुख्य कार्यक्षेत्र था। साठ से लेकर नब्बे के दशक तक के उनके राजनीतिक सफर में बिहार की समूची राजनीति का ब्यौरा उनकी आत्मकथा से
मिलता है। इसमें कोलियरी आंदोलन, जल आंदोलन, आदिवासी आंदोलन, कोयला खदानों का राष्ट्रीकरण तथा तत्कालीन कांग्रेस की सरकार का तख्तापलट इत्यादि महत्वपूर्ण घटनाएं हैं। इन घटनाओं का भी महज़ तथ्यात्मक वर्णन मात्र इन्होंने नहीं किया बल्कि इसके कार्यकारी अवयवों को विश्लेषित करते हुए उनके द्वारा सामान्य जन- जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को भी दर्शाया। कोयला खदानों के कारण वहाँ की आम जनता पर पड़ने वाले प्रभावों को रेखांकित करती हुई वह लिखती हैं, “हर रोज़ नई–नई खदानें खुलने से एक तरफ़ तो उनके जंगल कट गए। खेतों में कोयले की धूल भरने से फसलें नष्ट होने लगीं। खेत धीरे–धीरे कम उपजाऊ हो गए और पहले ही से कम पानी वाले कुएं विस्फोटों से सूखने लगें, पानी के स्रोत बदलने लगें, दूसरी तरफ़ सरकार ने नए वन कानून बनाकर जंगल में उनका प्रवेश वर्जित कर दिया, जिससे उनके जल, जंगल और ज़मीन के पुश्तैनी अधिकार भी खत्म होने लगें।”8
पूंजीवादी व्यवस्था में भ्रष्टाचार एक सामान्य समस्या है। चाहे वह शिक्षा, न्याय या और भी कोई क्षेत्र हो। फिर राजनीति इससे बची कैसे हो सकती है। तत्कालीन बिहार में जब कोयला खदान की ज़िम्मेदारी सरकार ने ठेकेदारों को दी तो वह व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दमित मज़दूरों का शोषण करने लगें। बिना किसी न्यूनतम वेतन के मज़दूरों को घंटों खदानों में खटवाना, उनकी सुरक्षा की कोई व्यवस्था न करना और उन्हें सारी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखना कोयला खदानों के मजदूरों के शोषण की
पराकाष्ठा थी । यह ठेकेदार कानूनी दाव- पेंच जानते थे और उसका इस्तेमाल गरीब मज़दूरों के शोषण के लिए करते थे। “कानून से बचने के लिए ठेकेदार सबके नाम बदल देता था और बच्चों के नाम पर माँ और बाप को खटाता था ताकि कोई स्थायी न होने पाए। कोलियरी का नियम है कि साल में लगातार खदान के ऊपर 240 दिन और भूमिगत खदानों में 180 दिन खटने वाला मजदूर स्थायी हो जाएगा। इन नियमों से बचने के लिए न हांज़री लगती थी, न बी फार्म रजिस्टर भरा जाता था न वेजिज सीट में भुगतान होता था। जाली रजिस्टरों में जाली नाम और जाली अंगूठों के निशान लगाकर खानापूर्ति की जाती थी या अत्यंत वफ़ादार मजदूरों से अंगूठे और पाँव तक के अंगूठे के निशान लगवा लिए जाते थे। 100 मज़दूर खटते थे तो रजिस्टर में 30–35 लिखे जाते थे ताकि अगर श्रम निरीक्षक या खनन विभाग का निरीक्षक कर
ज़ब्त करके भी ले जाए तो वह पूरे मज़दूरों के नाम न जान पाए और मज़दूरों को स्थायी करने का दावा सिद्ध न हो सके।”9 इस तरह भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार और श्रम की राजनीति के गूढ़ रहस्यों का पर्दाफाश वे अपनी आत्मकथा में करती हैं।
देश में निजीकरण का दौर शुरू हो चुका था। प्राकृतिक संसाधन बड़ी कंपनियों की गिरफ्त में आ रहे थे। इससे आदिवासी इलाके सबसे अधिक प्रभावित हुए। उनकी खेती की ज़मीन, पीने की पानी के नदी, संसाधनों के जंगल को हथियाकर उनकी आजीविका पर प्रहार किया जा रहा था। यह केवल भौतिक हमला ही नहीं अपितु सांस्कृतिक हमला भी था। रमणिका गुप्ता जितने दिन राजनीति में सक्रिय रहीं आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ती रहीं। उन्होंने आदिवासियों को एकत्रित किया और जल, जंगल, ज़मीन की लड़ाई को बुलंद किया। यह लड़ाई आदिवासी अस्मिता की लड़ाई भी थी। उनके नेतृत्व में 1968 में हज़ारीबाग में एक रैली निकली जिसमें 1500 आदिवासियों ने भाग लिया। इतनी भीड़ उस समय केवल प्रतिष्ठित नेताओं की रैलियों में होती थी। उनका नारा ‘घूस नहीं घूसा देंगे’ काफ़ी चर्चित हुआ। उनके संघर्ष और आदिवासियों के एकजुट प्रयास के सामने पुलिस भी हार गई। उन्होंने लिखा है, “घूस नहीं घूसा देंगे’ नारे के डर से जंगल के सिपाहियों ने जंगल में जाना छोड़ दिया था। राज्य सरकार ने तीसरे दिन हमें बुलाकर समझौता किया।”10
1970 में तत्कालीन बिहार में खदानों का राष्ट्रीकरण हुआ। सारी कोकिंग कोल खदानों पर सरकारी अधिकारियों का अधिकार हो गया। “कोयला मज़दूरों में खुशी की लहर दौड़ गई थी – उन्हें शोषण से मुक्ति का आकाश नज़र आने लगा था, हालांकि यह मुक्ति आसानी से नहीं मिलने वाली थी।”11 यह निर्णय वहाँ के मज़दूरों के लगातार संघर्ष का परिणाम था।
साल 1971 भारतीय राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण साल था। उस साल इंदिरा गांधी की सरकार केंद्र में थी। जब देश विभाजित हुआ तब भारत का उत्तर पश्चिमी भाग पाकिस्तान बना और बंगाल से जुड़ा पूर्वी भाग (आज का बांग्लादेश) पूर्वी पाकिस्तान बना। 1971 में इंदिरा गांधी सरकार के हस्तक्षेप से पूर्वी पाकिस्तान एक स्वतंतत्र देश के रूप में बांग्लादेश बना। यह निर्णय कांग्रेस सरकार के लिए
‘मील का पत्थर’ साबित हुआ। इंदिरा गांधी सरकार की इस सफलता पर बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी ने सभा आयोजित की। सभा में मंच पर इंदिरा गांधी की उपस्थिति में रमणिका गुप्ता ने अपने भाषण में कहा, “लोग तो इतिहास बनाते हैं लेकिन आपने तो भूगोल बना दिया है। बांग्लादेश नाम से एक नया देश खड़ा कर दिया है। इसलिए आपके रहते देश पर कोई खतरा नहीं है।”12 आत्मकथा में इस दृश्य को राजनीति में महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से भी देखा जा सकता है। जहां एक महिला राजनीति में निर्णायक की अहम भूमिका पर पदासीन हैं तो दूसरी कार्यकर्ता के रूप में।
कांग्रेस ने अपने कार्यकाल में कई महत्वपूर्ण योजनाएं बनाई लेकिन उनके निर्वाहन का दायित्व कांग्रेस कार्यकर्ता पूरी ज़िम्मेदारी के साथ नहीं निभा सके। सरकारी खज़ाने से जनता के लिए बनी योजनाओं के तहत जो राशि आती थी उनका पानी मंत्री, विधायकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक सुख जाता है। जैसे दुष्यंत कुमार की पंक्ति है कि ‘यहाँ तक आते–आते सुख जाती हैं कई नदियां, मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा होगा।13
1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गरीबी-उन्मूलन के लिए 20 सूत्रीय कार्यक्रम की घोषणा की थी। इसके अंतर्गत अन्तर्गत गरीबी हटाओं, जनशक्ति, किसान मित्र, श्रमिक
कल्याण जैसे कई
बिन्दु सम्मिलित थे। इसी योजना के अंतर्गत खेतिहर मजदूरों को उनकी तय मजदूरी भी मिलना निश्चित थी किन्तु राजनीति में भ्रष्टाचार के कारण मजदूरों को कभी उनकी मजदूरी पूरी नहीं मिलती थी। इसपर एकबार रमणिका गुप्ता बिहार के कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी से लड़ गई। "उन्होंने मुझसे पूछ लिया “क्या आप आई. जी पुलिस हैं की सब कांग्रेसी महाजनों और सूदखोरों को गिरफ़्तार करवा रही हैं? इन खेतिहर मजदूरों को आप पूरी मजदूरी दिलवा देंगी तो फिर हमें पूछेगा कौन? दरअसल, आपको कम्युनिस्ट पार्टी में रहना चाहिए था। खेतिहर मजदूरों को अगर पूरी मजदूरी दिला दीजिएगा तो फिर हमारे पास
मुद्दा क्या बचेगा?”14
इस प्रसंग से
भारतीय राजनीति की बड़ी चोरी सामने आती है जो उसकी मूल प्रवृत्तियों में शामिल है। हर चुनाव में विकास के मुद्दे उठाना और उन्हें कभी पूरा न होने देना ताकि अगले चुनाव में वही मुद्दे पुनः उठाए जा सके। रोटी और पानी जैसे आधारगत समस्याएं इस देश में दशकों से चलती आ रही हैं और आज भी बनी हुई हैं। उसके पीछे इन्हीं राजनीतिक कूटनीतियों का हाथ है जिसे लगभग सभी राजनीतिक प्रतिनिधि पल्लवित और पोषित करते हैं। लेकिन इनमें रमणिका गुप्ता जैसी राजनीतिक प्रतिनिधियों का अपवाद भी है जो जनता के हक को उस तक बिना किसी काट-छाट के पहुंचाना चाहती हैं। ऐसा करने वाले प्रतिनिधियों के रास्ते में उनके ही पार्टी के लोग बाधा बनते हैं। यह इस बात को भी दर्शाता है कि किसी एक दल में होकर उसकी विचारधारा का दावा करने वाले सदस्य वास्तविकता में कितने दोहरे चरित्र के होते हैं।
आत्मकथा में जहां रमणिका गुप्ता एक तरफ़ इंदिरा गांधी सरकार की बांग्लादेश के निर्माण पर मुक्त कंठ से प्रसंशा करती हैं वहीं दूसरी तरफ़ कांग्रेस के सहकर्ताओं के कूटनीति की पोल भी खोलती हैं। चरित्र की यह निष्पक्षता उनके पूरे जीवन और आत्मकथा में भी बनी रही। किसी दल विशेष की सदस्य होने के बावजूद भी रमणिका गुप्ता की राजनीतिक विचारधारा तथा नीति स्वतंत्र और निष्पक्ष थे। वो सच का साथ देने के लिए दूसरी पार्टी के मुद्दों का भी समर्थन करतीं और झूठ और अन्याय होने पर अपनी पार्टी के लोगों की कड़ी आलोचना भी करती थीं। इसी से संबंधित एक प्रसंग वह अपनी आत्मकथा में लिखती हैं जब विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के एक विधायक अपने क्षेत्र की एक नाबालिक बच्ची के साथ बलात्कार का मामला सदन में उठाते हैं और एक लेडी डॉक्टर के द्वारा बच्ची की गलत रिपोर्ट निकाल कर अपराधी की मदद का आरोप लगाते हैं। रमणिका उनके द्वारा उठाए इस मामले का समर्थन करती हैं और सत्ता पक्ष की स्त्री विधायकों से कहती हैं, “पार्टी का नहीं औरत का पक्ष देखो और मंत्री से जवाब मांगों।”15 आगे वह लिखती हैं “मुझे कई बार लगता था की जैसे विधायक अपनी- अपनी पार्टी के बधुआ गुलाम हों! कई बार विधायक को न चाहते हुए भी विधानसभा में सच का साथ न देकर अपनी पार्टी की गलतियों पर पर्दा डालने में सहयोग करना पड़ता है।”16
रमणिका गुप्ता अपनी पूरी आत्मकथा में स्त्रियों के साथ हुए हर तरह के अन्याय, अत्याचार और शोषण को रेखांकित करते हुए उनके कार्यकारी घटकों की तीखी आलोचना करती हैं। बचपन से ही विद्रोही स्वभाव होने के कारण अपने आसपास होने वाले स्त्री-दलन और पितृसत्ता के खिलाफ़ वह मुखर विरोध प्रकट करती हैं। चाहे वह मौलिक अधिकारों का प्रश्न हो, स्त्री-शिक्षा का सवाल हो, प्रेम-विवाह की आज़ादी हो या स्त्री-देह और यौनिकता की स्वतंत्रता हो, उन्होंने हर पक्ष पर अपना निर्भीक मत ज़ाहिर किया। अपनी आत्मकथा ‘हादसे’ में कई जगहों पर उन्होंने भारतीय राजनीति में स्त्री की दमित अवस्था को उजागर किया है। इसमें राजनेताओं की पुरुषवादी आलोचना करते हुए एक जगह लिखती हैं, “नेताओं के यहाँ औरतों को फुसलाने और फ़साने के लिए विधिवत दलाल होते हैं जो केवल औरतों को डिमॉरलाइज़ करने में माहिर होते हैं ताकि राजनीति में आई स्त्रियाँ इनकी शर्तों पर जीने को विवश हो जाएं।”17 अपनी बोल्ड अभिव्यक्ति द्वारा वह स्त्री अस्मिता के साथ दलित और आदिवासी अस्मिताओं पर भी बात करती हैं। एक लंबा समय उन्होंने दलित और आदिवासी बस्तियों में बिताया है। वहाँ रहकर अपनी राजनीतिक कार्यशीलता से उन्होंने उपेक्षित वर्ग के समाज में अस्मिता की चेतना का संचार किया। आंदोलन के लिए मज़दूरों को संगठित करते हुए वो उनसे कहती हैं कि “चूहों की तरह बिलों में घुट-घुटकर मरना है या बाहर आकर लड़ते हुए?”18 संसदीय गठन के बाद भारतीय राजनीति में ऐसी कम ही महिला प्रतिनिधि थीं जिन्होंने स्तरीय रूप से लोगों को संगठित कर आंदोलन करवाएं, जनता के मौलिक अधिकारों और आधारगत सुविधाओं के लिए लड़ाइयाँ लड़ीं।
राजनीति और स्त्री यह दो शब्द कई हज़ार सालों से विविध संदर्भों में एक दूसरे से जुड़े हैं। मिथकीय कथाओं को देखें या देश – दुनिया के इतिहास को स्त्री की राजनीति में प्रत्यक्ष सहभागिता न होते हुए भी राजनीति का सारा खेल उसके इर्द – गिर्द खेला गया। स्त्री हमेशा से एक संपत्ति की तरह देखी गई। उसे जीतने – हारने या लूटने की कथाओं और घटनाओं से इतिहास और साहित्य भरा हुआ है। स्त्री की सीमाओं का निर्धारण करने वाला पुरुष प्रधान समाज उसके लिए अपनी सुविधा के अनुरूप एक निश्चित खाँका तैयार करता है। स्त्री का राजनीति में प्रवेश उस खाँके को तोड़ने का सबसे सशक्त माध्यम है। जब राजनीति में स्त्री की सहभागिता बढ़ती है तब राजनीति और समाज में तो आवश्यक परिवर्तन आते ही हैं उसके अपने भीतर भी बहुत कुछ बदल जाता है। वह संपत्ति समझी जाने वाली रूढ़ मानसिकता को तोड़ कर समष्टि की ओर बढ़ती है। उसे अपनी व्यक्तिगत अस्मिता की पहचान के साथ अपनी सामाजिक अस्मिता का बोध भी होता है। अपने जीवन में राजनीति का प्रभाव बताते हुए रमणिका गुप्ता लिखती हैं, “जीवन की उस लंबी लड़ाई की शुरुआत हुई जो व्यक्ति नहीं बल्कि समूह, समष्टि और व्यवस्था के परिवर्तन से जुड़ी थी। उसमें अकेली ‘मैं’ नहीं थी बल्कि समष्टि थी। समष्टि के प्रतीक ‘मैं’ – एक व्यापक दृष्टि का रूप ‘मैं’। मैं समाहित हो गई थी उस समूह में और समूह व्याप्त हो गया था मुझमें।”19
निष्कर्ष : रमणिका गुप्ता की आत्मकथा महज़ एक स्त्री द्वारा देखे और भोगे हुए यथार्थों का व्याख्यान नहीं है। वह भारतीय राजनीति का नाटकीय इतिहास भी है। भारतीय राजनीति और भारतीय राज्य के दमन का खुला आख्यान है जिसमें उन्होंने बड़ी प्रखरता से राजनीतिक विडंबनाओं को रेखांकित किया है। राजेन्द्र यादव ने उनकी आत्मकथा को ‘एक औरत की नहीं, राजनीतिक कार्यकर्ता की कहानी अधिक’ माना है। उनकी आत्मकथा में स्त्री, दलित एवं आदिवासी विमर्शों का स्वर प्रमुख है। राजनीति में पितृसत्ता के कारण होने वाले स्त्री दमन की इतनी उनमुक्त अभिव्यक्ति हिन्दी की किसी अन्य आत्मकथा में नहीं मिलती। इनकी आत्मकथा में साठ के दशक से नब्बे के दशक तक की भारतीय राजनीति की महत्वपूर्ण घटनाओं का ब्यौरा है। जिसमें कच्छ आंदोलन से लेकर बिहार के कोलियरी खदानों के संघर्ष, आदिवासी, दलित, स्त्री संघर्ष, आपातकल आदि जैसी घटनाएं शामिल हैं। पंजाब के संभ्रांत परिवार में पैदा हुई एक ज़िद्दी लड़की किस तरह बिहार के उपेक्षित वर्ग के संघर्षों की साथी बनती हैं फिर कांग्रेस की जिलाध्यक्ष और ‘मांडू विधान सभा’ की सदस्य भी बनती हैं। अपनी आत्मकथा में वह बताती हैं कि किस तरह राजनीति में स्त्री की सहभागिता उसके समूचे अस्तित्व को बदल देती है। वह लिखती हैं कि “राजनीति में देर तक टिक जाने वाली औरतों को उनकी सहन- शक्ति के कारण स्वभावतः एक प्रतिष्ठा मिल जाती है। वे एक ऐसे स्तर पर पहुँच जाती हैं जहां औरत का लिंग या व्यक्ति गौण हो जाता है।”20 उन्होंने अपनी राजनीतिक पहचान के लिए किसी का सहारा नहीं लिया, उन्हें राजनीति में पुरुषवाद के वृक्ष का सहारा लेकर लता की तरह नहीं बढ़ना था। उनकी आत्मकथा के दोनों भाग इस बात का प्रमाण है कि भारतीय राजनीति में बतौर महिला वह एक लता नहीं बल्कि पेड़ की तरह बढ़ी जिसने हाशिए के समाज के लाखों लोगों को छाया दी।
1. रमणिका गुप्ता, हादसे, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2010, पृष्ठ-02
2. वही, पृष्ठ-07
3. वही, पृष्ठ-21
4. वही, पृष्ठ-27
5. रमणिका गुप्ता, आपहुदरी, सामयिक प्रकाशन, 2016, पृष्ठ-381
6. वही, पृष्ठ-359
7. वही, पृष्ठ-361
8. रमणिका गुप्ता, हादसे, राधाकृष्ण प्रकाशन, 2010, पृष्ठ-65
9. वही, पृष्ठ-69
10. वही, पृष्ठ-77
11. वही, पृष्ठ-151
12. वही, पृष्ठ-152
13. दुष्यंत कुमार, साये में धूप, राधाकृष्णन प्रकाशन, 2018, पृष्ठ-15
14. रमणिका गुप्ता, हादसे, राधाकृष्णन प्रकाशन, 2010, पृष्ठ-186
15. वही, पृष्ठ-252
16. वही, पृष्ठ-255
17. वही, पृष्ठ-245
18. वही, पृष्ठ-85
19. वही, पृष्ठ-79
20. वही, पृष्ठ-263
शुक्रिया मैम
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