- मलयज गंगवार एवं डॉ. मीनाक्षी गुप्ता
शोध सार : राजस्थान अनेकता में एकता का अद्भुत संगम है। विभिन्न अगड़ी-पिछड़ी जातियों, जनजातियों तथा प्राकृतिक विविधताओं के मध्य विचरण करते हुए कई घुमंतू समुदाय प्रान्त में अपनी विशेष उपस्थिति दर्ज करवाते हैं, जिनकी अपनी-अपनी संस्कृति व परम्पराएं हैं। इन्हीं में से एक घुमंतू ‘बंजारा-समुदाय’ है, जो अपनी अनूठी शृंगार-परम्परा के लिए जाना जाता है। बंजारों के लोकगीतों में इनकी शृंगार-परम्परा का उल्लेख प्रचुरता से प्राप्त होता है। प्रस्तुत शोध आलेख में राजस्थान के बंजारों के लोकगीतों में उल्लिखित इनकी शृंगार-परम्परा के प्रसाधनों को मानव-देह पर धारण किये जाने के अनुसार वर्गीकृत करने का प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : राजस्थान, घुमंतू-समुदाय, बंजारा, शृंगार-परम्परा, लोकगीत।
मूल आलेख : राजस्थान विविधताओं से भरा हुआ प्रान्त है। यहाँ अरावली की हरी-भरी पहाड़ियाँ हैं, तो तपता हुआ शुष्क-धूसर मरुस्थल भी है, यहाँ राजा-महाराजाओं के महल व किले हैं तो गाँवों-कस्बों के बाहर घुमंतू समुदायों के टांडे, खेड़ा, ढांडी आदि भी हैं। यहाँ ऋषि-मुनियों ने वेदों की रचना की है तो लोक-जीवन के स्वरों से निकले हुए लोकगीत भी हैं। राजस्थानी लोकगीत यहाँ की संस्कृति के भव्य भण्डार हैं, जिनसे प्रान्त में रहने वाले विभिन्न समाजों या समुदायों की अनोखी परम्पराओं की झाँकी प्राप्त होती है। लोकगीत लिखित साहित्य न होकर लोक-मानस की मौखिक अभिव्यक्ति होते हैं, जो भावातिरेक से स्वयं ही गले से फूटने लगते हैं। पुराने समय में घुमंतू बंजारे इन्हीं गीतों को गाते एवं गुनगुनाते हुए अपने टांडे या बालद अर्थात् कारवां के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान को व्यापार के लिए घूमते रहते थे। मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पदमावत’1 में चित्तौड़ के बंजारों का व्यापार के लिए सिंहल-द्वीप जाने का वर्णन है। दण्डी कृत ‘दशकुमारचरितम्’2 में बंजारों का उल्लेख एक मेले में आये हुए व्यापारियों के रूप में मिलता है। बंजारों का मूल-स्थान राजस्थान माना जाता है। वर्तमान में यह समुदाय किसी एक प्रांत का न होकर सम्पूर्ण देश में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है, कहीं कम और कहीं ज्यादा। वर्तमान के यांत्रिक युग में पारम्परिक व्यापार नष्ट हो जाने और समाज की मुख्य धारा से विस्थापित होने के बाद भी बंजारों ने अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये रखा है। इन्होंने अपनी बोली, संस्कृति तथा विशिष्ट शृंगार-परम्परा को मिटने नहीं दिया है। बंजारा गीतों में पर्वों-त्योहारों, प्रथाओं, जीवन-मरण, इनके सुख-दुःख आदि के सजीव चित्रण में परिधानों व आभूषणों का बखान होता है। अपने प्रियतम से उनकी माँग की जाती है या उन्हें प्रियतम को दिया जाता है। विशिष्ट जीवन-शैली के साथ-साथ शृंगार-परम्परा के अंतर्गत ‘कचधार्य’ -अर्थात् केश-सज्जा, ‘देहधार्य’ -अर्थात् देह-सज्जा, ‘परिधेय’ -अर्थात् वस्त्रों से देहावरण करना तथा ‘विलेपन‘ -अर्थात् विभिन्न वस्तुओं का सौन्दर्य व स्वास्थ्य हेतु देह-आलेपन करने की विधाओं3 में किये गए विशेष प्रकार के अलंकरण बंजारों की पहचान बने हुए हैं। इनके लोकगीतों में इनकी शृंगार-परम्परा की इन चारो विधाओं का प्रचुरता से उल्लेख मिलता है, जिससे इनकी विशिष्ट शृंगार-परम्परा का पता चलता है।
कचधार्य :
प्राचीन काल में बंजारा स्त्री-पुरुष दोनों ही लम्बे केश रखते थे तथा विभिन्न प्रकार के केश-विन्यासों से स्वयं को अलंकृत करते थे। इनके शारीरिक सौन्दर्य, इनके लम्बे केश, केशों के प्रसाधन में प्रयुक्त किये जाने वाले तेल, कांगसियो, शीशा आदि का उल्लेख इनके लोकगीतों में भी मिलता है-
एक लोकगीत की उपरोक्त पंक्ति में बनी अर्थात् बंजारन को फूलों से सुन्दर व सुकुमार बताते हुए उसके लम्बे-लम्बे केशों व सुन्दर नयनों का वर्णन है। एक अन्य लोकगीत की पंक्ति है-
-अर्थात् देवर तेरे केशों की लटों में तेल लगा हुआ है। इस सम्पूर्ण लोकगीत में देवर-भाभी की छेड़-छाड़ है।
समाज की मुख्य धारा में रहते हुए एक व्यापारी के रूप में बंजारों का सम्पर्क संभ्रांत व्यक्तियों से भी होता था। अतः अपने केशों, मूंछों तथा दाढ़ी को सदैव संवरा हुआ रखने के लिये बंजारों द्वारा अपनी पगड़ी में काष्ठ-निर्मित व सोने-चाँदी के पत्तर से अलंकृत कांगसिया रखने की परम्परा रही है। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में एक बंजारा अपना चेहरा धोने तथा अपने शृंगार के लिये कंघा व शीशा लेकर कुएं पर जाता है, परन्तु वापसी में दोनों वस्तुयें लाना भूल जाने पर वह अपनी भाभी से उनको लाने के लिये मनुहार करता है-
बंजारनों में खुले केश रखने की परम्परा नहीं है। ये अपने लम्बे-लम्बे केशों को विभिन्न प्रकार से विन्यासित रखती हैं। एक बंजारा लोकगीत में देवर अपनी भाभी से दो चोटियाँ बनाने के बजाय एक चोटी बनाने की मनुहार कर रहा है-
सिर के ऊपर अथवा सिर के पीछे इंडोणा रखकर जूड़े बनाये जाते थे। सिर के पीछे बने जूड़े में ‘V’
आकार में लकड़ी की दो पतली शलाखायें- ‘आटी’ लगाने की परम्परा रही है। ये जटिल केश-विन्यास अन्य स्त्रियों की सहायता से बनाये जाते थे। घुमंतू जीवन, राजस्थान में पानी की कमी तथा केश-विन्यास के लिये दूसरों पर निर्भरता के कारण इन केश-विन्यासों को एक-एक मास तक बनाये रखा जाता था। कई बार इनके केशों में जुयें पैदा हो जाते थे-
बनड़ा माथौ पाछौ राख बनड़ी रे जूंआं पड़ गई रे।’’5
वर्तमान में स्वच्छता के प्रति जागरूकता आ जाने के कारण सात-आठ दिन में केशों को एक बार धो लिया जाता है।
देहधार्य :
बंजारा समाज में स्त्री व पुरुष दोनों ही आभूषण-प्रिय हैं। इनकी इसी आभूषण-प्रियता के कारण पुराने समय में इनके अपने सुनार होते थे, जो इनकी बालद के साथ-साथ चलते थे।6 बंजारा बोली में आभूषण को ‘गेणलौ अथवा गेणौ’ कहा जाता है। इनके आभूषण चाँदी के बने तथा प्रायः आकार में बड़े व वजनी होते हैं। चाँदी के अतिरिक्त बंजारे कौड़ी, हस्तिदंत, सीप, रंगीन-प्रस्तर तथा सोने, पीतल, गिलट आदि धातुओं व प्लास्टिक से बने आभूषण भी पहनते हैं। इनके लोकगीतों में आभूषणों का प्रचुरता से उल्लेख मिलता है। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में बंजारन एक ‘गंधी’- गंध व आभूषण विक्रेता से मोल-भाव करते हुये आभूषणों को क्रय कर रही है। इस गीत से बंजारनों द्वारा धारण किये जाने वाले आभूषणों का पता चलता है-
कहो नी गांधीजी थांरौ चुड़ला रो मोल ओ, नणद भोजायां चुड़ला पेहरती रे राज
थांरा चुड़ला रा गांधी मोल नीं तोल ओ, बाई रा चुड़ला रा रिपिया डोढ सौ रे लो
गळा में टेवटौ लावौ गांधी जी, बिछियां में रतन जड़ाव ज्यौ रे लौ
नाक में नथड़ी लाव गांधी जी, नथड़ी रे रतन जड़ाव ज्यौ रे लौ
कमर कंदोरौ लावौ गांधी जी, कंदोरा रै रतन दाळा लगाव ज्यौ रे राज
पगां में कड़ला लावौ गांधी जी, बिछियां तो लावौ गांधी जी बाजणा रे राज।’’7
इसी प्रकार एक अन्य लोकगीत के माध्यम से बंजारनों द्वारा धारण किये जाने वाले अन्य विविध प्रकार के आभूषण पता चलते हैं-
रखड़ी रो भारी छै बणाव, अे जोरावर बनड़ी
कानां ने कुंडळ बनड़ी आपने जो सोवे, झुठणा रो जड़यौ छै जड़ाव
बय्यां ने चुड़लौ बनड़ी आपने जो सोवे, गजरा रो जड़यौ छै जड़ाव
पगल्यां ने पायल बनड़ी आपने जो सोवे, बिछियां रो जड़यौ छै जड़ाव।’’8
बंजारा लोकगीतों में उल्लिखित इन विभिन्न प्रकार के आभूषणों को शारीरिक अंगों पर धारण किये जाने के अनुसार निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है-
शिरोभूषण : बंजारों में सिर पर आभूषण धारण करने की परम्परा नहीं है। पुराने समय में ये अपनी पगड़ी में केश-सज्जा के लिये कांगसिया तथा सेना को रसद पहुँचाने के समय नीम की टहनी रखते थे। नीम की टहनी को देखकर मार्ग में आवागमन करने के लिये इन्हें प्राथमिकता दी जाती थी। बोर या बोरिया, रखड़ी व मैंमद स्त्रियों द्वारा धारण किये जाने वाले मुख्य शिरोभूषण हैं। स्त्रियाँ अपने विशिष्ट केश-विन्यासों में चाँदी की बनी अलंकृत चिमटियों का प्रयोग करती हैं। जंजीर से जुड़ी दो अलंकृत चिमटियाँ- ‘वाक्कल’ या ‘वाकलखाना’ एक प्राचीन शिरोभूषण है। केशों में इसको लगाने पर इसकी जंजीर बंजारन के ललाट को सुशोभित करती है। शिरोभूषण के रूप में तथा केश-विन्यासों को लम्बे समय तक स्थिर बनाये रखने के लिये काले रंग के धागे व चीड़ों से बनाये गये टोपीनुमा जाले को सिर पर बाँधने की परम्परा है। यह जाला अन्य शिरोभूषणों को धारण करने में भी सहायक होता है।
नासिका-भूषण : बंजारा पुरुषों द्वारा नासिका में आभूषण धारण करने की कोई परम्परा नहीं है। बंजारा स्त्रियाँ अपनी नासिका में बाली, फिणी, नथ, भूरिया, लूंग, कांटा, फूली आदि आभूषण धारण करती हैं।
कर्णाभूषण : बंजारा स्त्री-पुरुषों के कर्णाभूषणों का उल्लेख इनके लोकगीतों में भी मिलता है। ऐसे ही एक लोकगीत में एक स्त्री अपने देवर को अपने पति का कर्णाभूषण पहने देखकर उसको ऐसा करने के लिये टोकती है, तब उसका देवर उसे बताता है कि भाभी मैंने इसको भैय्या द्वारा देने पर ही पहना है-
भावज वीरा दीन्हां ने म्हैंई पहरिया अेलो, झबरक देवरियौ।’’9
पुरुषों द्वारा कान के निचले हिस्से में धारण किये जाने वाले अन्य कर्णाभूषण गोखरू, झेला, मुरकी, गुरदा, कुड़क, लूंग, चौकड़ी आदि हैं। पुराने समय में कान के ऊपरी हिस्से में ‘कनिया’ पहना जाता था, जो अब चलन में नहीं है। टोटी, पीपल-पत्र, कर्णफूल, झुमका, कुण्डल, बाली, फिणी, लूंग, कांटा आदि बंजारनों के मुख्य कर्णाभूषण हैं।
ग्रीवा के आभूषण : बंजारा समाज में ग्रीवा में विभिन्न प्रकार के आभूषण धारण किये जाते हैं। एक गीत के प्रस्तुत अंश में भाभी द्वारा धारण किये हुए ‘टेवटा’ एंव ‘बाड़लौ’ की तथा भाई की ‘रेशम की डोर’ की प्रशंसा है-
मांदलिया, फूल, हंसली, टीक, कंठी, गोप आदि पुरुषों के ग्रीवाभूषण हैं। पुराने समय में बंजारे अपने कुर्ते में जंजीर से जुड़े हुये बटन लगाया करते थे। यह जंजीर ‘सांकली’ कहलाती थी।
स्त्रियों का ग्रीवाभूषण ‘टेवटा’ चैकोर अलंकृत लटकन तथा रंगीन चीड़ों से बना होता है। चाँदी की ठोस बनी हुई ‘बाड़ली’ अथवा ‘बाड़लौ’ का मुख्य आकर्षण इसके नक्काशीदार तथा घुंघरू लगे हुये दोनों सिरे होते हैं। हंसली, हमेल, कण्ठी, कंठला, टीक, फूल, लालों का हार, डोडी-बीज आदि बंजारनों द्वारा ग्रीवा में धारण किये जाने वाले अन्य आभूषण हैं। ‘कंठला‘ प्राचीन आभूषण है। इसकी रंगीन धागों से बनाई गई डोरी के मध्य में चाँदी का एक बड़ा चैकोर लटकन तथा इसके दोनों ओर एक रुपये के सिक्के नाके लगाकर पिरोये जाते थे। घुंघरू लगी हुयी चाँदी की बनी सांकल का स्त्रियाँ अपने बांये वक्ष-स्थल की तरफ लगाकर चोली अथवा कुर्ती को अलंकृत करती हैं।
बाहु-भूषण : कड़ोलिया व वींटी बंजारों के मुख्य बाहु-भूषण हैं, जो चाँदी के ठोस बने हुए तथा सिरेदार होते हैं। इनके दोनों सिरों पर नाहर या नाग की मुखाकृति बनी होती है, जिससे ये क्रमश: ‘नाहर-मुखी’ अथवा ‘नाग-मुखी’ कहलाते हैं। कड़ोलिया प्रायः दोनों कलाइयों में धारण किये जाते है। वींटी को अनामिका में धारण किया जाता है।
बंजारनों के बाहु-भूषण सम्पूर्ण बंजारा समाज की पहचान हैं। चूड़, कातरिया, मूठिया, बाजूबंद, कांकण, गजरा, चूड़ी, हथ-पान, बींटी, अंगुतला आदि बंजारनों के मुख्य बाहु-भूषण हैं। चूड़ बंजारनों का सुहाग-सूचक आभूषण होता है। चाँदी के बने चूड़ व मूठिया बांहों में क्रमश: कांख से लेकर कोहनी तक तथा कोहनी एवं कलाई के मध्य में धारण किये जाने वाले ‘गावदुम’ आकार के आभूषण होते हैं। चूड़ या चुड़ले हस्ति-दन्त के भी बनते थे। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में एक स्त्री द्वारा चुड़ले पहन कर सूरज-पूजा करने की अपनी कामना व्यक्त करने पर पति उसे हस्ति-दन्त के बने चुड़ले बनवाने का आश्वासन देता है-
भाटी राणी मती राखौ मनड़ा में भांत ओ, चुड़लौ चिराऊं हस्ती दांत रो।’’
‘वींटी’ अंगूठियाँ होती हैं तथा ‘अंगुतला’ अंगूठे में धारण किया जाता है। पुराने समय में हाथ की प्रत्येक अंगुली में धारण की जाने वाली वींटी की अलग-अलग बनावट व नाम- फूला, पावला, छल्ला, दावणा, पोलरी आदि होते थे।
कटि-भूषण : बंजारा स्त्री-पुरुषों के कटि-प्रदेश का आभूषण ‘कंदोरा’ बाँधकर धारण किया जाता है। पुरुषों का कंदोरा सूत अथवा रेशम का बना होता था, परन्तु सम्पन्न बंजारे चाँदी का कंदोरा भी धारण करते थे। बंजारनों का कन्दोरा ‘झालरो’ भी कहलाता है। यह चाँदी का बना हुआ तथा एक सिरे से दूसरे सिरे तक जंजीरों, घुंघरू, नगीनों तथा छोटे-छोटे लटकन आदि से अलंकृत होता है। पुराने समय में इसे चवन्नी, अठन्नी, चीड़ आदि से भी अलंकृत किया जाता था।
पदाभूषण : तोड़ा, जेला, कड़िया अथवा कड़ी, कड़ला, रमझोल, पेंजणी, पायल आदि आभूषण बंजारनों द्वारा पाँव में टखनों अथवा एंड़ी से ऊपर धारण किये जाते हैं। बंजारनें दोनों पाँवों के अंगूठों में अंगुतला तथा पाँव की अंगुलियों में चटकी, छलकी व फूलिया धारण करती हैं। पुराने समय में अंगुतला व चटकी दोनों को बिछिया के समान सुहाग-सूचक माना जाता था तथा चटकी को दांयें पाँवों की सबसे छोटी अंगुली में पहना जाता था।11 एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में एक बंजारे को सन्देश भेजा जा रहा है कि वह बनी के लिए चूड़े व पायल लेकर आये एवं बनी के बिछियों को रत्न-जटित करवाए-
वनी रे पगों में पायल लावजो, वनी रे वीछिया रे रतन जड़ावो।।’’12
पुरुषों द्वारा पदाभूषण के रूप में चाँदी की ठोस बनी हुई ‘लंगर-बेड़ी’ को केवल बांयें पाँव में धारण किया जाता था। वर्तमान में इसका चलन नहीं है। राजशासन में इसको धारण करना प्रतिष्ठा का सूचक था। सामन्त आदि राजकीय पुरुष राजा की अनुमति से ही पाँव में लंगर-बेड़ी अथवा कड़ा धारण करते थे।
आभूषणों से शृंगार के अतिरिक्त देहधार्य की अन्य विधाओं के अन्तर्गत बंजारा स्त्री-पुरुष अपने शरीर को गोदनों, मेंहदी व अलक्तक से भी अलंकृत करते हैं। पुराने समय से ही प्रेम की प्रतीक मानी जाने वाली मेंहदी से बंजारनों द्वारा अपने अथवा अपने प्रियजन के हाथों व पाँवों पर फूल-पत्ती, बेल-बूटे, सूरज-चाँद आदि अनगढ़ अलंकरण तथा प्रियजनों के नाम रचाने की परम्परा रही है। बंजारा समाज में मेंहदी के गीत चाव से गाये जाते हैं-
आ तो झीणोड़ै कपडै़ ऊं मैंदी चाळ, प्रेम रस मैंदी रंग लागौ।’’13
मांगलिक अवसरों पर पाँवों को अलक्तक से अलंकृत करने की तथा हथेलियों को गुलाबी करने की परम्परा रही है। इनके लोकगीतों में कुमकुम लगे पाँवों से आँगन मंड जाने का उल्लेख है- ‘‘अे कूंकूं भर रा पगल्या मंड गया ओ।’’14 वर्तमान में विभिन्न अवसरों पर पुरुषों के ऊपर शगुन-स्वरूप अलक्तक के छींटे डालने की परम्परा है, जो ‘रँग-छांटणो’ कहलाती है।
राजस्थान में पुष्पों की कम उपलब्धता तथा शृंगार की इस विधा पर व्यय करने की आर्थिक अक्षमता के कारण बंजारा समाज में पुष्पों से शृंगार करने का चलन नहीं रहा है। सामान्यतः धार्मिक व सामाजिक रीतियों के अवसर पर विशिष्ट अतिथियों का स्वागत पुष्प-मालाओं से किया जाता है। शृंगार-प्रिय बंजारनें अपवाद-स्वरूप अपने केशों को पुष्पों से सज्जित कर लेती हैं।
परिधेय :
राजस्थान के गर्म वातावरण में घुमन्तू जीवनयापन करने वाले बंजारों में श्वेत रंग के तथा बंजारनों में श्वेत रंग की एकरूपता को तोड़ते हुये रंगीन व विभिन्न प्रकार से अलंकृत वस्त्र व परिधान धारण करने की परम्परा है। बंजारा लोकगीतों से इनके परिधान व परिधानों के स्वरूप का भी पता चलता है। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में स्त्रियों के घाघरे में पीले रंग की मगजी लगे होने, उस पर मोतियों की कढ़ाई होने तथा पुरुषों द्वारा कुरता धारण करने का उल्लेख है-
ससुराजी रे पहरवानै मोटौ कुड़तौ, म्हारी सोगड़ी रे घाघरो किशनगढ़ रो।’’15
पुरुष-परिधान : बंजारा समाज के पुरुषों का वेश सामान्य है। बंजारे कुर्ते को ‘कमीज’ अथवा ‘खमीस’ बोलते हैं। आज इनके उस ऊपरी परिधान को ‘खमीस’ कहा जाये अथवा कुर्ता, इनके शारीरिक गठन पर खूब फबता है तथा देखने वाले को आकर्षित करता है। लोकगीत के प्रस्तुत अंश में घर आये अतिथि बंजारे की खमीस की प्रशंसा का भाव है-
ओरे खमीसेन देकन मन भाव रसीया, ओ रसीयार लांबे लांबे खमीस।’’16
पुराने समय में सम्पन्न बंजारे अंगरखी पहनते थे। वर्तमान में इसको धारण करने का चलन समाप्त हो चुका है। बुजुर्ग बंजारे ही इसे विशेष अवसरों पर धारण करते हैं। अंगरखी का उल्लेख बंजारों के लोकगीतों में भी मिलता है। ऐसे ही एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में एक स्त्री अपने देवर को अपने पति की अंगरखी पहने देखकर उसको ऐसा करने के लिये टोकती है, तब उसका देवर उसे बताता है कि भाभी मैंने इस अंगरखी को भैय्या द्वारा देने पर ही पहना है-
भावज वीरो दीदी ने म्हें ई पहरिया अेलो, झबरक देवरियौ।’’17
इस गीत के अनुसार अंगरखी सोने की बनी है- ‘‘सोने री अंगरखी’’। इससे ज्ञात होता है कि बंजारे संभवतः सुनहरी जरी की कढ़ाई की हुई, गोटा अथवा गोटा-पत्ती का काम की हुई, ब्रोकेड अथवा सुनहरे वरक, रोगन अथवा खड़ी की छपाई की हुई अंगरखी भी धारण करते थे। बंजारे अधोवस्त्र के रूप में श्वेत रंग की धोती या पायजामा धारण करते हैं-
धोळोड़ी रो ग्यान बताव रे, धोळौ कईजै मरवण धोतियौ।।’’
शिरोवस्त्र के रूप में बंजारों में एक विशेष प्रकार की पगड़ी धारण करने की परम्परा रही है, जिसका वस्त्र बीस हाथ लम्बा होता था। समय के साथ-साथ स्थान विशेष के प्रभाव से जो बंजारा जहाँ रहता था, वह उस स्थान में प्रचलित पगड़ी को ही बाँधने लगा। पुराने समय में बंजारों में श्वेत रंग की पगड़ी बाँधने की परम्परा थी, परन्तु वर्तमान में ये बंधेज, लहरिया की रंग-बिरंगी पगड़ियों के अलावा एक रंग की पगड़ी भी बाँधते हैं। ये कंधों पर अंगोछा व पाँवों में चमड़े की बनी जूतियाँ धारण करते हैं।
स्त्री-परिधान : बंजारनें रंग-बिरंगे तथा अलंकृत परिधान धारण करना पसन्द करती हैं। इनके पारम्परिक परिधान ओढ़नी, कांचली व घाघरा हैं। इनके यह परिधान विशेष रूप से अलंकृत व निर्मित होते हैं, जो इनके सौन्दर्य को बढ़ाने के साथ-साथ बंजारा समाज के परिचायक भी हैं। बंजारा समाज में ओढ़नी को ‘चूंदड’, ‘हालूड़ौ’ या ‘लूगड़ौ’ भी कहा जाता है। बंजारनों की पारम्परिक ओढ़नी लेस, गोटा, कौड़ी, धातु की टिकड़ियों आदि से सज्जित होती थी तथा इसकी किनारी पर ढेर सारे घुंघरू लगाये जाते थे। पुराने समय में ओढ़नी लाल रंग की तथा बंधेज के बारीक काम की हुई होती थी। लाल रंग की ओढ़नी का उल्लेख इनके गीतों में भी है-
रातोड़ी रो ग्यान बताव रे, रातौ कईजै मरवण लूगड़ौ।।’’
बंजारनें जूड़े में ‘V’ आकार में लगी दोनों ‘आटी’ पर दो अलग-अलग ओढ़नी ओढ़ लेती थीं। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में एक स्त्री का देवर उससे दो ओढ़नी के बजाय केवल एक ओढ़नी को ओढ़ने के लिए कह रहा है-
वर्तमान में बंजारनें ऊपरी वस्त्र के रूप में कुर्ती व कांचली को एक साथ धारण करती हैं, परन्तु पुराने समय में वे केवल कांचली धारण करती थीं। कांचली में पीछे का भाग नहीं होता है। पारम्परिक कांचली विभिन्न प्रकार के वस्त्रों के टुकड़ों को हाथ से सिलकर कौड़ी, मनका, कांच, लेस तथा गोटा आदि लगाकर अलंकृत की जाती थी। कांचली में बहुत सारे कांच लगाये जाते थे, इसीलिये इसका नाम ‘कांचली’ पड़ गया।18 एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में एक बंजारन अपने प्रियतम से अपनी कांचली में कांच लगवाने के लिये तथा बदले में उसे कोट दिलाने के लिये कह रही है-
बंजारा स्त्रियों के अधोवस्त्र घाघरा को ‘फेटिया’ कहा जाता है। बंजारनों का पारम्परिक फेटिया अत्यंत घेरवाला तथा चुन्नटदार होता है। प्राकृतिक रंगों से ठप्पा-छपाई की दाबू कला से अलंकृत किये जाने के कारण ‘फेटिया’ में नीले रंग की अधिकता रहती है। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में बंजारन का नीले दरिया जैसा घाघरा हिलता हुआ सुन्दर बताया गया है-
लोकगीतों में स्त्रियों के पाँवों की जूतियों का भी उल्लेख है। लोकगीत के इस अंश में एक बंजारन सज-धजकर, कानों में बाली धारण करके रथ में बैठ कर जब मेला देखने जाती है, तब मार्ग में उसकी जूतियाँ फट जाती हैं-
विलेपन :
बंजारा समाज में शरीर को स्वच्छ, सुवासित व आकर्षक बनाने हेतु ‘तेल-मालिश’ करने व ‘पीठी’ लगाने की परम्परा रही है। विवाह के अवसर पर भावी वर-वधू को तेल चढ़ाया व घी पिलाया जाता है। एक लोकगीत के इस अंश में जब भावी वर के शरीर पर तेल चढ़ाया व पीठी लगाई जा रही है तभी उसको लड़ाई पर जाना पड़ रहा है। उसके शुभ-चिंतक उसको तेल चढ़ाये जाने, उसके हाथ में कांकड़-डोरा बँधे होने आदि की दुहाई देकर उसे लड़ाई पर जाने से रोकते हैं-
काना पाछौ जा परौ, अे पाछौ जा परौ, तेल रे चढ़ियोड़ा कानजी
पाछौ जा परौ, थारै हाथां रे डोरड़िया बाधाओ, पाछौ जा परौ।’’21
बंजारों के एक लोकगीत में बावड़ी पर दातून करने का उल्लेख है-
स्नान एंव केश-धावन : शारीरिक स्वच्छता एंव अच्छे स्वास्थ्य हेतु ऋतु अनुसार गर्म या ठंडे जल से स्नान करना एक आवश्यक प्रक्रिया है। एक लोकगीत के प्रस्तुत अंश में राधा नाम की बंजारन को शीत ऋतु में गर्म पानी से स्नान करने का निर्देश देने के साथ ही कहा जा रहा है कि वह पहले अपने पति को स्नान कराये, फिर स्वयं स्नान करे-
राधा पहली थारा पति नै झुलाय, पछै ओ थांरौ झूलणौ।’’23
पुराने समय में स्नान के दौरान शरीर व केशों की स्वच्छता हेतु मुल्तानी मिट्टी का प्रयोग करते थे तथा केशों को स्निग्ध बनाने के लिये उन पर नारियल, सरसों या चम्पा आदि तेलों का लेप किया जाता था। एक लोकगीत में सिर को मुल्तानी मिट्टी से धोने व उस पर चम्पा का तेल लगाने का उल्लेख है-
सुवास : पुराने समय में इलायची, लौंग, केसर, मिस्री, सूखे मेवे आदि का व्यापारी होने के कारण बंजारे इन पदार्थों का भी सेवन सुवास, सौन्दर्य व स्वास्थ्य के लिये करते थे। सुगन्धित पदार्थों का विक्रेता ‘गंधी’ कहलाता था। बंजारे सुवास के लिये कस्तूरी का भी प्रयोग करते थे। एक लोकगीत में एक गंधी के बेटे द्वारा सोने की डंडी व चाँदी के पलड़े की तराजू से कस्तूरी तोलने का उल्लेख है-
बंजारों में ताम्बूल सेवन की भी परम्परा रही है, जिससे इनका मुख तो सुवासित होता ही था, साथ में अधर भी रंजित हो जाते थे। एक लोकगीत के इस अंश में एक बंजारा अपनी प्रेयसी से स्वयं को महल अर्थात् घर में आने देने के लिये विनय करते हुए उसे लालच दे रहा है कि वह तम्बोली की दुकान से पान का बीड़ा लाया है-
ताम्बूल का सेवन सूखे गले को तर करने के लिए तथा बिगड़े स्वर को ठीक करने के लिए भी किया जाता था-
म्हारा गीतेरयां रा रहग्या जाडा हाद, बायांसा म्हांनै पान दो।’’
काजल : बंजारनों को काजल तथा सुर्मा लगाना अत्यन्त प्रिय रहा है। ये बुरी नजर से बचने के लिये काजल की टीकी भी लगाती हैं, जिसका उल्लेख इनके लोकगीतों में प्राप्त होता है-
-अर्थात् सुन्दर नयनों वाली लड़की तेरे ऊपर काजल की लगी हुई टीकी शोभा दे रही है।
सिन्दूर तथा बिन्दी-टीका : हिन्दू संस्कृति में सिन्दूर सुहाग का प्रतीक माना जाता है, परन्तु बंजारा समाज में सिन्दूर के सन्दर्भ में ऐसी कोई मान्यता नहीं है। बंजारनों के ललाट पर लगे हुए टीके की शोभा का उल्लेख इनके लोकगीतों में भी प्राप्त होता है। एक लोकगीत की इस पंक्ति में एक बंजारा अपनी प्रेयसी के ‘टीके की आभा’ के साथ-साथ उसके बाहु-भूषण- ‘बंगड़ी’ व शिरोभूषण- ‘बोर’ की प्रशंसा कर रहा है-
थांनै बंगड़ी नै बोरियौ सोवै हो राज।’’25
अधर-रंजन तथा नख-रंजन : विवाहित बंजारनों में अधर-रंजन का विशेष चाव होता है। अपने होठों को लालिमा प्रदान करना इनका दैनिक शृंगार है। लाक्षारस तथा मेंहदी से नख-रंजन करना पुरानी परम्परा है। बंजारनें प्रायः हाथों व पाँवों को मेंहदी से अलंकृत करने के साथ ही अपने नखों को भी मेंहदी से लाल कर लेती हैं। बंजारों में अधर-रंजन की कोई परम्परा नहीं है। ताम्बूल के शौकीन बंजारों के अधर ताम्बूल सेवन से स्वतः ही रंजित हो जाते हैं।
निष्कर्ष : इस प्रकार बंजारा लोकगीतों के अवलोकन से इनकी विशेष शृंगार-परम्परा का ज्ञान होता है। एक समय समाज की मुख्य धारा में रहते हुए बंजारे व्यापारी के रूप में आम लोगों को उनके दैनिक-जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति करने के साथ-साथ युद्ध के समय सेना को रसद सामग्रियाँ पहुँचाते थे, परन्तु वर्तमान काल में व्यवसायों का औद्योगीकरण होने तथा कस्बों व गाँवों का नगरों में समाहित होते जाने से इनकी सम्पूर्ण जीवन-शैली में परिवर्तन हो रहा है। बंजारों की शृंगार-परम्परा भी इस परिवर्तन से अछूती नहीं है- मुल्तानी मिट्टी का स्थान साबुन व शैम्पू ने तथा अंगरखी व कुर्ते का स्थान शर्ट व टी-शर्ट ने ले लिया है। आज परंपरागत आभूषणों को गलवाकर आधुनिक डिजायन के आभूषण गढ़वाये जा रहे हैं। वर्तमान में पारंपरिक शृंगार-परम्परा मुख्यतः समाज के वरिष्ठ या बुजुर्ग व्यक्ति ही अपनाये हुए हैं। किसी भी समाज में होने वाले इस तरह के परिवर्तनों को समझने में लोकगीतों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लोकगीत किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित नहीं होते, अपितु इनको रचने में सम्पूर्ण समाज का योगदान होता है और ये उस समाज की संस्कृति का प्रतिबिम्ब होते हैं। पुराने समय में प्रकृति की गोद में अपने ‘टांडे’ बसाकर जीवनयापन करने वाले घुमंतू बंजारों के लोकगीत आज सभी के लिए सांस्कृतिक धरोहर सरीखे हैं, जो इनकी विशिष्ट शृंगार-परम्परा एवं इनके गौरवशाली अतीत को उजागर करते हैं।
1. मलिक मुहम्मद जायसी, पदमावत, व्याख्याकार- वासुदेवशरण अग्रवाल, द्वितीय संस्करण, साहित्य सदन, झांसी, 1961, पृ. 84-93
2. पी. डब्ल्यू. जैकब, हिन्दू टेल्स-दशकुमारचरितम् का अंग्रेजी अनुवाद, स्ट्रैहान एण्ड कम्पनी, लंदन, 1873, पृ. 228
3. कालिदास, मेघदूतकाव्यम, टीकाकार- मल्लिनाथ, गणपत कृष्णाजी मुद्रणालय, मुंबई, 1894, पृ. 91
4. संपादक- जयपालसिंह राठौड़, बंजारों का सांस्कृतिक इतिहास, प्रथम संस्करण, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2015, पृ. 39
5. वही, पृ. 46
6. नीलम शेखावत, राजस्थान में आभूषण कला एवं संस्कृति, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, 2014, पृ. 95
7. संपादक- जयपालसिंह राठौड़, बंजारों का सांस्कृतिक इतिहास, प्रथम संस्करण, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2015, पृ. 53
8. वही, पृ. 42-43
9. वही, पृ. 103
10. वही, पृ. 109
11. नीलम शेखावत, राजस्थान में आभूषण कला एवं संस्कृति, अंकुर प्रकाशन, उदयपुर, 2014, पृ. 99
12. संपादक- जयपालसिंह राठौड़, बंजारों का सांस्कृतिक इतिहास, प्रथम संस्करण, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2015, पृ. 40
13. वही, पृ. 52
14. वही, पृ. 96
15. वही, पृ. 107
16. डॉ. गणपत राठौड़, बंजारा लोकगीतों का सांस्कृतिक अध्ययन, चन्द्रलोक प्रकाशन, कानपुर, 2014, पृ. 26
17. संपादक- जयपालसिंह राठौड़, बंजारों का सांस्कृतिक इतिहास, प्रथम संस्करण, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2015, पृ. 103
18. यशवन्त जाधव, बनजारा जाति-समाज और संस्कृति, द्वितीय संस्करण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020, पृ. 163
19. संपादक- जयपालसिंह राठौड़, बंजारों का सांस्कृतिक इतिहास, प्रथम संस्करण, राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर, 2015, पृ. 107
20. वही, पृ. 57
21. वही, पृ. 68-69
22. वही, पृ. 94
23. वही, पृ. 59
24. वही, पृ. 43
25. वही, पृ. 110
malyaj11gangwar@gmail.com, 8094001994
एसोसिएट प्रोफेसर, डिज़ाइन डिपार्टमेंट, वनस्थली विद्यापीठ, टोंक, राजस्थान
meenakshi.bid@banasthali.in, 8058442291
एक टिप्पणी भेजें