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सार : भारतवर्ष
का
मेवाड़ राज्य
इतिहास
गौरव
दृष्टि
से
सुविख्यात
रहा
है
जहाँ
के
शासकों
ने
निरंतर
विदेशी
आक्रान्ताओं
से
संघर्ष
किया।इस
सन्दर्भ
में
मेवाड़
शासक
महाराणा
प्रताप
व
महाराणा
अमरसिंह के सहयोगी
रहे उनके भाई-बांधव
बाठेडा-बम्बोरा(कालांतर
में
कानोड़
जागीर
भी
)ठिकाने के सामंत रावत
भाणसिंह
सारंगदेवोत
का
मुगलों
के
विरुद्ध
संघर्ष
उल्लेखनीय
है
जिन्होंने
ऊंठाला सहित कई
युद्ध
मुगलों
के
विरुद्ध
लडे
और
गयाजी-जगन्नाथपुरीजी
की
तीर्थ
यात्रा
के
दौरान
मगध-बिहार
के
देव-उमगा
क्षेत्र
से
अफगानों
का
प्रभाव
समाप्त
कर
वहां
के
स्वर्गीय
महाराजा
भैरवेंद्र
की
पुत्री
से
विवाह
करके
सारंगदेवोत
सिसोदिया
गुहिलोत
राजवंश
की
स्थापना करके राणा
प्रताप
के
आदर्शों
व
'हिंदुआ सूरज' उपाधि
को
चरितार्थ
किया।
बीज
शब्द : मेवाड़,
राणा
प्रताप,
देव,
उमगा,
भैरवेन्द्र,
रावत
भाण, सारंगदेवोत, सिसोदिया,
गया,
जगन्नाथपुरी।
मूल
आलेख :
भारतीय
उपमहाद्वीप
के
उत्तर-पश्चिमी
भाग में
स्थित
राजस्थान
का
दक्षिणी-पश्चिमी
भू-भाग
मेवाड़
राज्य
के
रूप
में
सुविख्यात
रहा
है।[1]
आर्थिक, राजनीतिक
और
सांस्कृतिक
दृष्टि
से
मेवाड़
राज्य
सदैव
ही
राजनीति
का
केन्द्रबिन्दु
रहा।
प्राचीन
काल
में
मेवाड़
को
‘‘मेदपाट’’ कहा
जाता
था।
क्षेत्रफल
की
दृष्टि
से
यह
तत्कालीन
राजस्थान
का
एक
बड़ा
रियासती
राज्य
रहा।
भारतीय
संघ
में
विलय
से
पूर्व
इसका
क्षेत्रफल
12,691 वर्गमील (2,043.626 वर्ग कि.मी.
या
22,032.92 वर्ग किमी.)
था।[2]
यह
वर्तमान
राजस्थान
में
23°49’
से
25°28’
उत्तरी
अक्षांशों
तथा
73°1’
से
75°49’
पूर्वी
देशान्तरों
के
मध्य
स्थित
एक
विशाल
क्षेत्र
है।
राजनीतिक इकाई
के
रूप
में
मेवाड़
का
विकास
छठी
शताब्दी
के
उत्तरार्द्ध
में
‘‘गुहिल
अथवा
गुहिलोत
वंश’’ की
स्थापना
के
साथ
हुआ।
गुहिल
वंश
के
संस्थापक
गुहिल
थे।[3]
इतिहासकारों
तथा
अभिलेख
सामग्री
के
आधार
पर
गुहिल
की
वंशावली
को
अयोध्यापति
श्री
रामचंद्र
के
ज्येष्ठ
पुत्र
कुश
से
जोड़ा
जाता
है
और
इस
आधार
पर
उन्हें
सूर्यवंशी
घोषित
किया
गया।[4]
गुहिलोत
सिसोदिया
शासकों
ने
मेवाड़
राज्य
पर
7वीं
शताब्दी
से
शासन
करना
प्रारंभ
किया।
मेवाड़
महाराणा
हम्मीरदेव
सिसोदिया
(1326-1364 ई.) के
पौत्र
एवं
महाराणा
खेता
(1364-1381 ई.) के
पुत्र
महाराणा
लाखा
(1381-1411 ई.) के
द्वितीय
पुत्र
अज्जा
के
पुत्र
सारंगदेव
से
उद्भूत‘‘सारंगदेवोत
अज्जावत
सिसोदिया
शाखा’’ प्रसिद्ध
हुई।[5]
इस
शाखा
की
जागीर
में
कानोड़
एवं
बाठेड़ा
ठिकाने
शामिल
रहे।
कानोड़
ठिकाना
मेवाड़
के
सारंगदेवोत
सिसोदिया
सरदारों
का
प्रथम
श्रेणी
का
16 उमरावों के
अंतर्गत
मुख्य
ठिकाना
रहा
है
जो
कि
बाठेड़ा
सहित
इस
शाखा
का
पाटवी
अथवा
मुख्य
ठिकाना
है।
इसके
अतिरिक्त
रावत
अज्जा
का
शासन
उत्तरी
गुजरात
स्थित
ईडर
पर
भी
रहा।
रावत
अज्जा
के
वंशज
रावत
भाणसिंह
हुए
जिन्होंने
मगध
(बिहार में स्थित
औरंगाबाद
जिला)
में
देवउमगा
राज्य
पर
गुहिलोत
सिसोदिया
सारंगदेवोत
राजवंश
की
स्थापना
की।[6]
1576 ई.
में
हल्दीघाटी
में
रावत
नेतसिंह
के
प्राणोत्सर्ग
के
बाद
उनके
पुत्र
रावत
भाणसिंह
उत्तराधिकारी
हुए।मुग़ल
अधीनता
स्वीकार
कर
चुके
डूंगरपुर
के
महारावल
आसकरण
और
बाँसवाड़ा
के
महारावल
के
विरुद्ध
मेवाड़
महाराणा
ने
मेवाड़ी
सेना
आक्रमण
हेतु
भेजी, जिसका
नेतृत्व
भाणसिंह
सारंगदेवोत
ने
किया।
सेनापति
भाणसिंह
ने
कुशल
सैन्य-संचालन
का
परिचय
दिया।
1578 ई. में सोम
नदी
(आसपुर के निकट
प्रवाह
क्षेत्र
रखने
वाली
नदी)के
तट
पर
दोनों
सेनाओं
के
बीच
युद्ध
हुआ।
हरावल
में
रहकर
भाणसिंह
ने
भीषण
आक्रमण
किया।
वे
घायल
हुए
और
उनके
काका
रणसिंह
सारंगदेवोत
काम
आए
एवं
महाराणा
की
विजय
हुई।[7] डूंगरपुर के
महारावल
आसकरण
और
बाँसवाड़ा
के
महारावल
ने
पुनः
मेवाड़
की
अधीनता
स्वीकार
की।
रावत
भाण
निरन्तर
मुगलों
से
युद्ध
लड़ते
हुए
महाराणा
प्रताप
(1572-1597ई.)
की
सेवा
करते
रहे। महाराणा
प्रताप
की
मृत्यु
के
पश्चात्
भाणसिंह
महाराणा
अमर
सिंह
प्रथम
(1597-1620 ई.) की
सेवा
में
रहे।
1605 ई. में
मुगल
शासक
जहाँगीर
(1605-1628 ई.) द्वारा
शाहज़ादा
परवेज
के
नेतृत्व
में
भेजी
गई
मुगल
सेना
को
पराजित
करने
में
रावत
भाण
ने
अपूर्व
योगदान
दिया
एवं
ऊँठाले(वल्लभनगर)
की
लड़ाई
में
भी
मुगलों
को
मारकर
चौकी
पर
मेवाड़़ी
सेना
का
कब्जा
कायम
करवाया।[8]
कानोड़
रावत
प्रतापसिंह
कृत
हस्तलिखित
कानोड़
इतिहास
की
डायरी
एवं
बड़वाजी-राणीमंगाजी
की
पोथी[9]
के
अनुसार
ऊँठाले
की
लड़ाई
में
रावत
भाणसिंह
सारंगदेवोत
ने
अपने
चूंडावत
भाईयों
के
पक्ष
में
रहते
हुए
मुगल
सेना
से
लड़ाई
लड़ी
और
यहाँ
से
मुगलों
को
मार
भगाया।
स्पष्ट
है
कि
सारंगदेवोतों
ने
ऊँठाले
की
लड़ाई
में
मुगलों
के
खिलाफ
शक्तावतों
के
बजाय
चूंडावतों
के
पक्ष
में
रहना
उचित
समझा
क्योंकि
चूंडा
व
अज्जा
के
वंशज
पीढ़ियों
से
साथ-साथ
रहकर
ही
मेवाड़
की
सेवा
करते
आ
रहे
थे।
मुगल सेनापतियों
महाबत
खाँ
(1608ई), अब्दुल्ला
खाँ
(1609 व 1611 ई.) एवं
1613 ई. में
राजा
बासु
के
आक्रमणों
का
सफल
प्रतिरोध
करने
में
रावत
भाण
की
महत्वपूर्ण
भूमिका
रही।
जहाँगीर
ने
जब
अपने
पुत्र
खुर्रम
को
1613 ई. में
एक
बड़ी
सेना
के
साथ
मेवाड़
पर
भेजा, उस
समय
भाणसिंह
ने
महाराणा
अमरसिंह
के
साथ
रहकर
मुगलों
से लोहा
लिया।
तीन
वर्ष
तक
लड़ाई
चलती
रही
जिससे
मेवाड़
बरबाद
हो
गया।[10]
अंततः महाराणा
अमरसिंह
ने
उमरावों
की
सलाह
के
अनुसार
1615 ई. में
मुगलों
से
समझौता
किया।
‘‘रावत
भाण’’ मेवाड़
कुँवर
कर्णसिंह
के
साथ
दिल्ली
गये
और
मुगल
शासक
जहाँगीर
के
सम्मुख
शक्ति
व
वीरता
का
उदाहरण
प्रस्तुत
करते
हुए
रावत
भाण
ने
एक
जंगली
भैंसे
का
वध
(झटका) किया। दिल्ली
से
लौटते
समय
1616ई.
में
रावत
भाण
का
मार्ग
में
ही
देहान्त
हो
गया।[11]
कानोड़ तवारीख
के
अनुसार
रावत
भाण
का
विस्तृत
विवरण
-‘‘.........
वि.सं.
1633
(1576ई.) में गद्दी
पर
बैठे
व
महाराणा
प्रताप
की
सेवा
में
वर्षों
तक
कष्ट
सहते
रहे
एवं
मेवाड़
पर
आक्रमण
करने
वाले
मुगलों
से
बराबर
युद्ध
करते
रहे।
अकबर
मेवाड़
पर
सेनाएँ
भेजता
रहा
व
महाराणा
की
सेना
के
साथ
रावत
भाण
शत्रुओं
का
मुकाबला
करते
रहे।
वि.सं.
1662
(1605ई.) में जहाँगीर
ने
सगर
(महाराणा प्रताप के
छोटे
भाई)
को
चित्तौड़
का
राजा
बनाया
व
शाहजादे
परवेज
की
मातहती
में
एक
प्रचंड
सेना
मेवाड़
भेजी।
परंतु
परवेज
को
पराजित
हो
पीछे
लौटना
पड़ा।
.....................वि.सं.
1663
(1606ई. ) में ऊँटाले
के
पास
महाराणा
ने
मुगल
सेना
को
विध्वंस
कर
भगाया
वहाँ
भी
रावत
भाण
लड़ाई
में
घायल
हुए।
मुगल
मनसबदार
महाबतखाँ
एवं अब्दुलाखाँ के
आक्रमणों
का
सामना
करने
में
भी
रावत
भाण
ने
अपनी
वीरता
का
परिचय
दिया।........................................1615 ई. में
महाराणा
की
इच्छानुसार
संधिकर
शाहजादा
बड़े
सम्मानपूर्वक
गोगूंदा
में
महाराणा
से
मिलकर
कुँवर
कर्णसिंह
को
अपने
साथ
अजमेर
ले
गया, कुँवर
के
साथ
रावत
भाण
सारंगदेवोत
बादशाही
मुगल
दरबार
में
भेजे
गये
थे
यद्यपि
दिल्ली
से
लौटते
समय
वि.सं.
1671 (1615ई.)
में
मार्ग
में
रावत
भाण
का
स्वर्गवास
हो
गया।
इन्होंने
बोरखेड़ा
गाँव
के
पास
राठौड़ों
से
युद्ध
कर
विजय
प्राप्त
की
थी
परंतु
वहाँ
इनके
छोटे
भाई
राघवदेव
काम
आये।
................... .’’[12]
रावत भाण
के
पुत्रों
का
विवरण
इस
प्रकार
रहा:-1. जगन्नाथ
जो
कि
पिता
के
पश्चात् गद्दी पर
बैठे
2.
श्यामसिंह
जिनके
वंशज
कानोड़़़
पट्टे
के
ग्राम
अचलाणे
के
जागीरदार
रहे
हैं
3.
जसवंतसिंह
4.
माधवदास।[13]
बिहार में
स्थित
देवमूँगा
स्टेट
के
वंशज
स्वयं
को
रावत
भाण
के
पुत्र
का
वंशज
बताते
हैं
जिसमें
गयाजी
के
दानपत्र, गयाजी
के
ब्राह्मणों-पंडितों
तथा
राव
भाटों
द्वारा
लिखित
पोथियों
से
इस
संदर्भ
में
जानकारी
प्राप्त
होती
है।
कानोड़
की
तवारीख
एवं
कानोड़-बाठेड़ा
ठिकाने
के
दरबारी
दसून्दी
राव
पीतलिया
साहित्यकारों
के
पुराने
कागजातों
व
कवित्त-छन्दों
में
देवमूँगा
राज्य
व
कानोड़
रावत
का
श्राद्ध-तर्पण
हेतु
की
गई
गयाजी-जगन्नाथपुरीजी
की
तीर्थ
यात्रा
का
उल्लेख
प्राप्त
होता
है।
रावत भाणसिंह
सारंगदेवोत
और
देवमूँगा
राज्य
/
देव-उमगा
राज्य
(बिहार)
इतिहासकार श्री
गदाधरप्रसाद
के
अनुसार,
‘‘........देवमूँगा स्टेट-बिहार
के
गया
जिले
में
औरंगाबाद
सब
डिवीजन
में
स्थित
उमगा
गाँव
का
दूसरा
नाम
मूंगा
भी है।
यहाँ
पहले
एक
पहाड़ी
किला
था।
देव
के
राजा
के
पूर्वज
यहाँ
150 वर्षों तक
राज्य
करते
रहे।
यहाँ
पहाड़ी
पर
स्थित
पत्थरों
का
मन्दिर
60 फीट ऊँचा
है
जो
कि
अत्यधिक
प्रसिद्ध
है।
यहाँ
लगे
शिलालेख
से
यह
मन्दिर
15वीं
शताब्दी
का
जान
पड़ता
है।
मन्दिर
के
दक्षिण
में
एक
तालाब
है
जिसके
पास
पुराने
किले
के
चिह्न
अब भी
मौजूद
हैं।
यहाँ
और
मन्दिरों
के
भी
चिह्न
हैं।
देव
गाँव
पन्द्रहवीं
सदी
का
बना
पत्थर
का
एक
सूर्य
मन्दिर
है
जिसका
गुंबज
करीब
100 फीट ऊँचा
है।
यहाँ
कार्तिक
और
चैत्र
में
मेला
लगता
है।
यहाँ
एक
बहुत
पुराने
राजपूत
घराने
के
राजा
रहते
हैं।
जो
अपना
संबंध
उदयपुर
के
राणा
से
बतलाते
हैं।
कहते
हैं
कि
पन्द्रहवीं
सदी
में
राणा
के
भाई
राय
भानसिंह
‘‘
जगन्नाथ
‘‘
जाने
के
वक्त
इस
ओर
आये
थे।
उमगा
की
निस्पुत्र
विधवा
रानी
ने
इन्हें
पुत्र मानकर
रख
लिया
था
और
अपना
राज्य
इन्हें
सौंपा।
इनके
वंशज
पीछे
देव
चले
आये
और
यहीं
रहने
लगे......।‘‘[14]
औरंगाबाद जिले
के
गजेटियर
के
अनुसार
देवमूँगा
राजवंश
वर्तमान
में
बिहार
राज्य
के
मगध
क्षेत्र
में
स्थित
है।
पूर्व
में
गया
जिला
ब्रिटिशकाल
से
प्रशासनिक
अधिकृत
क्षेत्र
रहा।
औरंगाबाद
सब
डीवीजन
बना, तत्पश्चात्
औरंगाबाद
जिले
में
अवस्थित
हो
गया।
देवमूँगा
राजवंश
दो
राजवंशों
का
एकीकृत
राजवंश
है
अर्थात्
दो
महत्वपूर्ण
राजवंश, उमगा
राजवंश
और
देव
राजवंश
जिनका
अपना
कालखंड
और
स्वर्णिम
इतिहास
रहा।
सामरिक
दृष्टि
से
यह
अतिमहत्त्वपूर्ण
राजवंश
के
रूप
में
विख्यात
हुआ।
कालांतर
में
उमगा
राजवंश
नाम
से
विख्यात
हुआ।
उमगा
राजवंश
चंद्रवंशियों
द्वारा स्थापित
राजवंश
है।
यहाँ
के
प्रथम
चंद्रवंशी
शासक
दुर्दमपाल
थे, जो
चंद्रवंशी
राजवंश
के
मुख्य
संस्थापक
हुए।
राजा
दुर्दमपाल
मगध
के
पाल
राजवंश
के
वंशधर
माने
गए।
इस
वंश
का
स्थापना
वर्ष
1050 ई. के
लगभग
पूर्व
मध्यकाल
में
रहा
है।
प्राचीनकाल
में
मगध
साम्राज्य
के
गुप्त
स्थान
के
लिए
इसका
उपयोग
किया
गया।
आपातकालीन
स्थितियों
में
साम्राज्य
के
विशिष्टगण
इस
स्थान
का
उपयोग
सुरक्षा
कारणों
से
करते
थे।
राजा
दुर्दमपाल
के
बाद
12 राजाओं ने
उमगा
पर
शासन
किया
जो
अग्रानुसार
हैं-
कुमारपाल, लक्ष्मणपाल, चंद्रपाल, अभयपाल
(नयनपाल), सण्डपाल, अभयदेव, मल्लदेव, केशीराज, नरसिंहदेव, भानूदेव, सोमदेव
और
अंतिम
राजा
भैरवेंद्र
थे, जो
‘‘भैरवदेव’’ के
नाम
से
भी
जाने
जाते
थे।
राजा
भैरवेंद्र
का
शासन
स्वर्णकाल
माना
गया, वे
वैदिक
धर्म
के
अनुयायी
थे।
उन्होंने
वैदिक
धर्म
की
पुनर्स्थापना
कर
उसका
विस्तार
किया।
उन्होंने
काशी
के
शाकद्वीपीय
ब्राह्मण
को
अपना
राजपुरोहित
नियुक्त
किया
तब
से
आज
तक
उसी
ब्राह्मण
के
वंशज
देवमूंगा
के
पुरोहित
के
पद
पर
रहे
है।
राजा
भैरवेंद्र
का
शासनकाल
1535 ई. से
1587 ई. तक
माना
जाता
है।
उन्होंने
उमगा
पर्वत
पर
कई
मन्दिरों
का
निर्माण
और
पुनर्निर्माण
करवाया। उमगा के
प्रसिद्ध
सूर्य
मन्दिर
को
पुनः
स्थापित
करने
का
श्रेय
भी
उन्हीं
को
है।
बौद्धकालीन
समय
में
वैदिक
धर्म
की
अवनति
हुई
थी।
उमगा
के
चंद्रवंशी
राजाओं
ने
वैदिक
धर्म
का
पुनरोत्थान
किया।
सप्त
सूर्य
मन्दिरों
की
स्थापना, 52 श्रेणी का
चुनाव
कर
शिव-शक्ति
का
आराधना
स्थल
स्थापित
करना, 52 शिवलिंगों की
स्थापना, आदिशक्ति
के
आराधना
स्थल
को
पूर्ण
विकसित
कर
उसका
प्रचार-प्रसार
करके
प्रख्यात
करना
एवं
प्रमुख
कुलदेवी
के
रूप
में
उमगेश्वरीमाताजी
की
पूजा
करना, उमगा
पहाड़
के
निम्न
तलहटी
भाग
में
उमगा
राजवंश
स्थापित
करना
आदि
इनके
प्रमुख
कार्य
थे।
मगध
साम्राज्य, मौर्य, शुंग, गुप्त, वर्धन, पाल
शासकों
के
काल
में
देवमउमगा
राज्य
क्षेत्र
का महत्वपूर्ण स्थान
था
तब
से
यहाँ
इस
क्षेत्र
में
राजवंशों
का
अस्तित्व
रहा
है।
यह
प्रमुख
राजवंशों
के
विभिन्न
कालखंडों
में
प्रमुख
केंद्र
या
जागीरदारी-सामंत
क्षेत्र
रहा।
उमगा
राजवंश
को
पुनः
पल्लवित
करने
का
श्रेय
राजा
भैरवेंद्र
को
ही
जाता
है।
उमगा
राजवंश
स्थल
के
पास
52बीघा/
बिगही
तालाब
है
जो
समकालीन
माना
जाता
है
व
जो
प्रकृति
की
नैसर्गिक
सुंदरता
का
अतुल्य
उपहार
है।
उमगा
सामरिक
दृष्टि
से
अतिमहत्वपूर्ण
रहा
क्योंकि
‘‘जगन्नाथपुरी
(उड़ीसा)’’ जो
सात
प्रमुख
तीर्थस्थलों
में
से एक
है, चारधाम
में
से
एक
धाम
के
रूप
में
अतिमहत्वपूर्ण
स्थल
रहा
है, जिसकी
ओर
यहाँ
से
होते
हुए
ही
कालांतर
से
ही
प्रस्थान
करने
का
महामार्ग
रहा
है।
उमगा
के
पहाड़ों
की
भव्यता, सुन्दरता
अनूपम है।
इन्हीं
पहाड़ों
को
केंद्र
मानकर
तीर्थयात्री
जगन्नाथपुरी
की
ओर
प्रस्थान
करते
थे।
उत्तर
भारत
से
लोग
दक्षिण-पूर्व
की
ओर
यहीं
से
प्रस्थान
करते
थे।
राजा
भैरवेंद्र
ने
राज्य
का
संचालन
किया।
राजा
भैरवेन्द्र
का
कार्यकाल
अफगानों(बिहार
के
अफगान)
के
समकालीन
है
जो
कि
दिल्ली
सल्तनत
व
मुगल
शासकों
का
समय
रहा
जिसमें
विशेष
रूप
से
लोदी
एवं
सूरी
शासनकाल
के
पश्चात्
मुगल
शासक
अकबर
का
शासनकाल
भी
उल्लेखनीय
है।
उमगा
का
पहाड़ी
क्षेत्र
दुर्गम
रहा
है।
सुरक्षा
की
दृष्टि
से
प्राकृतिक
सुरक्षा
से
पूर्ण
है,कालांतर
में
जंगलों
द्वारा
आच्छादित
रहा, जहाँ
जंगली
जानवरों
का
भय
रहा
करता
था।
उमगा
गढ
को
नैसर्गिक
सुरक्षा
प्राप्त
होने
के
कारण
अफगानों
का
प्रभाव
यहाँ
न
के
बराबर
रहा।
संघर्षशील
स्वतंत्र
राज्य
के
रूप
में
इस
राज्य
का
संचालन
अस्तित्वमान
रहा।
राजपूताने
से
लोगों
का
आना-जाना
भी
समकालीन
युग
में
बना
रहा
है।
कई
ऐसे
महत्वपूर्ण
ठिकानों
में
अन्य
कुल
गोत्रों
के
राजवंशों
का
राज
रहा
है, उनका
अविर्भाव
उसी
काल
को
दर्शाता
है।
मुगल
शासक
अकबर
के
मनसबदार
और
आमेर
(जयपुर) के राजा
मानसिंह
कच्छवाहा
ने
पूर्वी
भारत
को
मुगल
साम्राज्य
के
लिए
जीता।
राजा
भैरवेंद्र
का
विवाह
पुष्पवंतीजी
(पुष्पावती जी)
से
हुआ।
उनके
एक
कन्या
का
जन्म
हुआ
जिसका
नाम
भाष्यमति
था
और
इस
पुत्री
के
अतिरिक्त
उनके
अन्य
कोई
पुत्र
नहीं
था।
जब
भाष्यमति
किशोरावस्था
में
थी
तब
उनके
पिता
भैरवेन्द्र
का
स्वर्गवास
हो
गया
था, फलतः
उनके
बाद
उनकी
रानी
पुष्पवंती
ने
राज्य
का
संचालन
किया।
परिणामस्वरूप
उनके
सामंतो
ने
सहायता
देना बंद कर
दिया
और
कई
सामंतों
ने
विद्रोह
करके
अपने-अपने
स्वतंत्र
राज्य स्थापित कर दिये थे।
1585 ई.
से
1597 ई. का
समय
मेवाड़
में
मुगलों
से
संघर्ष
के
संदर्भ
में
महाराणा
प्रताप
के
शासनकाल
का
शांतिकाल
कहलाता
है, क्योंकि
अकबर
ने
उनके
विरुद्ध
सैन्य
कार्रवाई
बंद
कर
दी
थी।
उस
काल
में
मेवाड़
के
सेनापति
राव
भाण
अपने
पाँच
भाइयों
के
साथ
तीर्थस्थल
गया
(बिहार) व पुरी
(उड़ीसा) की यात्रा
गये
थे।
जब
वो
वापस
लौट
रहे
थे
तब
मगध
क्षेत्र
में
उमगा
के
निकट
संध्या
हो
जाने
के
बाद
उन्होंने
वहाँ
रात्रि-विश्राम
के
लिए
डेरा
डालना
चाहा
तो
उमगा
गढ़
के
द्वारपालों
ने
निषेधाज्ञा
होने
के
कारण
उनको
प्रवेश
नहीं
दिया।
ऐसी
स्थिति
में
उन्होंने
प्रवेश
द्वार
के
बाहर
अपना
डेरा
डाल
दिया।
उस
समय
द्वारपालों
ने
उन्हें
सूचित
किया
था
कि
यहाँ
जंगली
जानवरों
का
भय
रहता
है।
लेकिन
उन्होंने
इस
चुनौती
को
स्वीकार
कर
लिया
और
वहीं
निवास
किया।
रात्रि
में
एक
हिंसक
बाघ
ने
उनके
डेरे
पर
आक्रमण
कर
दिया।
उन्होंने
उस
बाघ
को
तलवार
के
एक
ही
वार
से
मार
गिराया
और
उसे
अपने
सिराहने
रखकर
सो
गये।
प्रातः
लोगों
ने
देखा
कि
उस
वीर
योद्धा
के
सिराहने
बाघ
पड़ा
था।
उनकी
वीरता
का
श्रवणपान
वहाँ
की
रानी
को
हुआ
तो
उन्होंने
राव
भाण
को
उमगा
गढ़
में
आने
का
निमंत्रण
दिया।
इस
निमंत्रण
को
स्वीकार
कर
राव
भाण
ने
राजमहल
में
प्रवेश
किया।
रानी
ने
उनका
परिचय
पूछा
तो
उन्होंने
मेवाड़
राज्य
के
एक
सेनापति
के
रूप
में
अपना
परिचय
दिया।
उस
समय
रानी
ने
उमगा
राज्य
की
यथास्थिति
से
उनका
परिचय
कराया
जिसे
सुनकर
राव
भाण
ने
रानी
को
पूर्ण
सहायता
का
वचन
दे
दिया।
उन्होंने
राज्य
को
कर
नहीं
चुकाने
वाले
सामंतों
को
कर
देने
के
लिए
बाध्य
किया, जो
सामंत
विद्रोही
प्रकृति
के
थे
उनका
दमन
किया।
इस
प्रकार
उन्होंने
राज्य
संचालन
सुव्यवस्थित
किया।
जब
राज्य
संचालन
ठीक
हो
गया
तब
उन्होंने
वहाँ
से
मेवाड़
जाने
की
आज्ञा
मांगी।
उस
समय
रानी
ने
अपने
पुरोहित
के
माध्यम
से
अपनी
पुत्री
भाष्यमति
के
विवाह
का
लग्न
रावत
भाण
संग
करने
हेतु
मेवाड़
भेजा।
मेवाड़ महाराणा
प्रताप
की
स्वीकृति
के
पश्चात्
उदयपुर
से
राणा
राव
भाण
की
बारात
मगध
की
धरती
उमगा
को
गई।
देवउमगा
के
ऐतिहासिक
स्रोतों
में
सामंत
भाणसिंह
सारंगदेवोत
का
उल्लेख
‘‘राणा
रावत
भाणसिंह’’ के
रूप
में
प्राप्त
होता
है
जिससे
तात्पर्य
है-‘‘मेवाड़
महाराणा
या
राणा
जी
के
रावत
भाणसिंह’’।
सांस्कृतिक
पहचान
अलग
होने
से
मगध
और
मेवाड़
के
पारस्परिक
संबंधों
के
लिए
उत्सुकता
थी।
यह
चंद्रवंशीय
उमगा
और
सूर्यवंशीय
मेवाड़
के
समागम
का
उत्कृष्ट
उदाहरण
बना।
ये
घटना
1588ई.
से
लेकर
1597ई.
के
मध्य
की
है।
उस
समय
के
वर्णकार
कहते
हैं
कि
रंग
बिरंगी
पगड़ी
में
मेवाड़
से
बराती
आये
थे।
राजपूताने
से
आये
लोगों
का
आवागमन
पहले
भी
था।
राव
भाण
के
पूर्व
विजय
अभियान
में
राजपूताने
से
अन्य
गोत्रों
के
राजपूतों
का
भी
आगमन
हुआ
था।
राव
भाणसिंह
से
कन्या
भाष्यमती(भासमती)
का
पाणिग्रहण
संस्कार
पूरा
किया
और
उनका
निवास
उमगा
गढ़
में
ही
रहा
व
महारानी
पुष्पावती
की
पूरी
सहायता
की
गई।
यहाँ
से
‘‘सूर्यवंशी
सारंगदेवोत
सिसोदिया’’ कुल
के
अध्याय
का
प्रारम्भ
हुआ।
विवाह
संस्कार
के
ऊपरान्त
राणा
रावत
भाणसिंह
ने
अपनी
नव
वधू
के
साथ
उदयपुर
प्रस्थान
किया
या
नहीं, इसका
कोई
प्रमाण
नहीं
मिलता
है।
महारानी
पुष्पावती
राजा
भैरवेन्द्र
की
मृत्युपरान्त
राज्य
का
संचालन
अकेले
कर
रही
थी।
अतः
राज्य
को
सुदृढ़
रखना
उनके
लिए
चुनौतीपूर्ण
था
जिसके
दो
प्रमुख
कारण
थे-
(1)विद्राही
सामंतों
की
उपद्रवकारी
गतिविधियाँ
एवं
राज्य
की
विधिव्यवस्था
को
बनाए
रखना (2) उमगा
राज्य
के
पश्चिमी
भाग
पर
मुगलाधीन
अफगान
मनसबदारों
का
बलपूर्वक
अनधिकृत
अतिक्रमण
अर्थात्
कब्जा
था।
इस
प्रकार ये समस्याएँ
देवमूंगा
राज्य
की
सम्प्रभुता
के
लिए
खतरा
एवं सामरिक दृष्टि
से
चुनौतीपूर्ण
थी।
रावत
भाण
ने
रानी
पुष्पावती
के
सहायतार्थ
उमगागढ़
में
कई
वर्षों
तक
निवास
किया
एवं
राजा
भैरवेन्द्र
के
राज्य
को
अफगानों
व
विद्रोही
सामंतों
से
लड़ते
हुए
सुरक्षित
बनाए
रखा।
राज्य
सैन्य
व्यवस्था
सुचारू
रूप
से
स्थापित
कर
प्रशासन
एवं
राजस्व
व्यवस्था
को
सुदृढ़
किया।
महारानी
पुष्पावती
उनको
पश्चिम
की
ओर
नदी
पार
जाने
से
मना
किया
करती
थी
अर्थात्
पश्चिम
की
ओर
राज्य
विस्तार
का
निषेध
करती
थी
क्योंकि
मुगल
सत्ता
का
विस्तार
एवं
राज्य
की
संकटपूर्ण
स्थिति
के
कारण
भाणसिंह
जी
के
सम्मुख
पहले
से
ही
बहुत
सी
चुनौतियाँ
थी।
उमगा
के
पश्चिमी
भाग
में
कुटुम्बा, सीरीश, चंद्रगढ़, पवई
आदि
शक्तिशाली
सामंतों
का
क्षेत्र
था
जो
अपने
दुस्साहस
व
वीरता
से
तत्कालीन
मुगल
शासक
को
भी
अपना
लोहा
मनवा
चुके
थे।
अतः
ये
सभी
क्षेत्र
हमेशा
विद्रोही
गतिविधियों
के
केन्द्र
रहे।
राव
भाणसिंह
के
रानी
भाष्यमती
से
चार
पुत्र
हुए
- 1.
सहस्त्रमलसिंह
2.सिंहमलसिंह
3.दादुरसिंह
4.
भारथीसिंह।
राव
भाण
ने
अपने
पुत्रों
के
नामकरण
मेवाड़ी
मातृभाषा
के
अनुसार
किया
क्योंकि
मगध
इतिहास
में
इस
तरह
के
नाम
नहीं
मिलते
हैं।
नामकरण
संस्कार
में
इन
नामों
का
प्रयुक्त
करना
रावत
भाण
की
लम्बे
समय
तक
उमगा
राज्य
में
उपस्थिति
को
दर्शाता
है।
उमगा
राज्य
के
मेवाड़ी
राजवंशीय
हो
जाने
के
कारण
पड़ौसी
राज्यों
एवं
क्षेत्रीय
जनसमुदाय
ने
इसे
‘‘मेवाड़ी
राजवंश’’ से
सम्बोधित
करना
शुरू
कर
दिया
जो
कि
बाद
में
‘‘मेवाड़ी’’ शब्द
से
अपभ्रंश
होने
के
कारण
‘‘मड़ियार
या
मड़ियौर’’ (मड़ियारी)
भी
कहलाता
है
एवं
यहाँ
के
राजपूत
सरदारों
को
भी
‘मेवाड़ी’ होने
के
कारण
‘मड़ियार’ कहते
हैं। ये उपर्युक्त
घटनाक्रम
1588ई.
से
लेकर
1597 ई. के
मध्य
घटित
हुआ।
रावत
भाणसिंह
की
पहली
धर्मपत्नी
का
नाम
टोंकरा
के
बड़वा
कृपालसिंह
की
पोथी
के
अनुसार
विनोदकँवर
राठौड़
थी
जो
कि
देवराजसिंह
राठौड़
की
पुत्री
थी।
उनसे
एक
पुत्र
का
जन्म
हुआ
जिनका
नाम
जगन्नाथसिंह
रखा
गया
एवं
जो
रावत
भाण
की
मृत्यु
के
बाद
मेवाड़
राज्य
के
कानोड़
ठिकाने
में
भाण
के
उत्तराधिकारी
हुए।
दूसरी
धर्मपत्नी
रानी
भाष्यमती
(मगध-उमगा) थी।
रानी
भाष्यमती
के
ज्येष्ठ
पुत्र
सहस्त्रमल
उमगा
राज्य
के
प्रथम
सूर्यवंशी
सारंगदेवोत
सिसोदिया
शासक
हुए
जो
कि
17शताब्दी
के
प्रथम
दशक
में
1609ई.
में
उमगा
राज्य
की
गद्दी
पर
बैठे।
रावत
भाण
1597ई.
के
उपरान्त
मेवाड़
लौट
आए
थे।
भाणसिंह
का
मगध
उमगा
राज्य
में
अपने
भाइयों
के
साथ
आगमन
हुआ
था।
इन
7 भाइयों का
विवरण
अग्रानुसार
है-
1.
रावत
भाण
2.
बाघसिंह
3.
रघुदाससिंह
4.
केशरदास
5.
नारायणदास
6.
बैरीशालसिंह
7.पंचायणसिंह।
उमगा
राज्य
के
लिखित
इतिहास
के
अनुसार
रावभाण
सिंह
अपने
भाइयों
में
से
सबसे
बड़े
थे
एवं
अपने
पिता
नेतसिंह
के
उत्तराधिकारी
नियुक्त
होकर
बम्बोरा
ठिकाने
की
जागीरदारी
प्राप्त
की।
परम्परागत
तौर
पर
वे
मेवाड़
महाराणा
के
प्रमुख
विश्वसनीय
सेनापति
थे।
प्रतीत
होता
है
कि
महाराणा
प्रताप
के
अंतिम
जीवनकाल
में
जब
वो
आंत-संबंधी
व्याधि
से
ग्रसित
एवं
अस्वस्थ
थे
तब
महाराणा
प्रताप
के
बुलावे
एवं
आदेश
पर
उमगा
गढ़
से
विदा
होकर
उदयपुर
आ
गये।
महाराणा
प्रताप
की
1597ई.
में
मृत्यु
उपरान्त
वे
महाराणा
अमरसिंह
के
शासन
काल
में
मुगलों
से
लड़ते
रहे
एवं
मेवाड़
राज्य
के
प्रमुख
सेनापति
के
रूप
में
अपने
कर्तव्यों
का
निर्वाह
करते
रहे
।
बाँसवाड़ा
व
डूंगरपुर
राज्यों
के
विद्रोहों
का
दमन
कर
पुनः
रावत
भाण
ने
उनकों
मुगल
अधीनता
से
मुक्त
कराकर
मेवाड़
राज्य
में
मिला
लिया।
रावत
भाण
के
मेवाड़
लौट
जाने
एवं
रानी
पुष्पावती
(नानीमाँ) के संरक्षणकाल
में
1609ई.
में
राजा
सहस्त्रमलसिंह
उमगा
की
गद्दी
पर
बैठे
परन्तु
पिता
के
मेवाड़
लौट
जाने
से
पुत्र
को
अपने
मूल
गौत्र
का
एवं
मेवाड़
राज्य
संबंधी
सांस्कृतिक
परम्पराओं
का
पूर्णरूपेण
ज्ञान
नहीं
हो
पाया।
इस
प्रकार
चंद्रवंशी
रक्षेल
कुल
के
राजा
भैरवेन्द्र
की
धर्मपत्नी
पुष्पावती
ने
अपनी
पुत्री
भाष्यमती
के
पुत्र
राजा
सहस्त्रमलसिंह
सारंगदेवोत
को
दत्तक
पुत्र
व
दत्तक
राजवंश
के
तौर
पर
स्वीकार
कर
राज्याभिषेक
का
पूर्ण
आयोजन
अपने
राजपुरोहितों
से
करवाया।
राजा
सहस्त्रमलसिंह
ने
अपने
छोटे
भाई
सिंहमलसिंह
को
‘रणकप्पि’, दादूरसिंह
को
‘गढ़
बनियाँ’ एवं भारथीसिंह को
‘महुआवा’ की
जागीरें
प्रदान
की।
उमगा
(देवमूंगा) के
सूर्यवंशी
सारंगदेवोत
सिसोदिया
राजवंश
की
वंशावली
अग्रानुसार
है-
1.रावत
भाणसिंह
2.
महाराजा
सहस्त्रमलसिंह
3.
महाराजा
ताराचंदसिंह
4.
महाराजा
विश्वम्भरसिंह
5.
महाराजा
कल्याणसिंह
6.
महाराजा
अतिबलसिंह
7.
महाराजा
नयनपालसिंह
8.
महाराजा
प्रतापसिंह
9.
महाराजा
प्रबलसिंह
10.
महाराजा
छत्रपतिसिंह
11.
महाराजा
फतेहनारायणसिंह 12. महाराजा
घनश्यामसिंह
13.
महाराजा
जयप्रकाशनारायणसिंह
(‘वीर
भारतेन्दु’ की
उपाधि
से
सम्मानित)
14.
महाराजा
भीष्मनारायणसिंह
15.
महाराजा
जगन्नाथप्रसादसिंह।
महाराजा
प्रतापसिंह
तक
इस
सिसोदिया
राजवंश
ने
उमगागढ़
को
अपनी
राजधानी
बनाए
रखते
हुए
इस
राज्य
पर
शासन
किया।
तदुपरान्त
महाराजा
प्रबलसिंह
ने
दिल्ली
के
मुगल
शासकों
के
सहयोगी
एवं
स्वतंत्र अफगानों पर
आक्रमण
कर इनके अधीन
रहे
देव
किले
एवं
देवराज्य
क्षेत्र
को
अफगान
पठानों
को
पराजित
करके
विजित
किया
एवं
इन
पर
शासन
कर
रहे
दिल्ली
के
अफगानी
शासक
एवं
सुर
राजवंश
(1540-1557ई.)
के
संस्थापक
शेरशाह
सुरी
(1540-1545ई.)
के
सहसाराम
अफगान
सल्तनत
के
ही
उत्तराधिकारी
रहे
अफगानी
नौरंगशाह
के
वंशजों
को
महाराजा
प्रबलसिंह
ने
पराजित
करके
मार
डाला
एवं
उमगा
राज्य
का
विस्तार
करके
देव
राज्य
को
भी
मुस्लिम
शासन
से
मुक्त
करवा
के
नवीन
‘देवमूँगा
राज्य’ की
स्थापना
की
जिसकी
राजधानी
उमगा
के
स्थान
पर
‘‘देव’’ रखी
गई।
देव
किला
अफगानी
मुस्लिम
वास्तु
शिल्प
का
उदाहरण
है
जो
कि
16वीं
शताब्दी
ई.
में
अफगानों
द्वारा
विजित
कर
लेने
के
पश्चात् इसके प्रवेश
द्वार
को
‘‘पश्चिममुखी’’ बना
लेते
हैं
एवं
इस
किले
की
कई
स्थापत्य
संरचनाओं
पर
आज
भी
इस्लामी
स्थापत्य
शैली
का
प्रभाव
देखा
जा
सकता
है।
महाराजा
प्रबलसिंह
ने
इस
मुगल-अफगान
अधीन
किले
को
जीतकर
इसका
पुनः
हिन्दु
स्थापत्य
शैली
के
अनुसार
जीर्णोद्धार
करवाया।[15]
निष्कर्ष
: मेवाड़ महाराणा
प्रताप
ने
अपने
राज्य
की
स्वतंत्रता
के
विचार
मेवाड़
तक
ही
सीमित
नहीं
रखे
तभी
तो
उनके
रावत
भाण
सारंगदेवोत
जैसे
पराक्रमी
सामंत
मेवाड़
के
संघर्ष
के
विचारों
को
पूर्वी
भारत
तक
पहुंचाने
में
सफल
रहे
जिनसे
प्रेरणा
लेकर
देव-उमगा
राजवंश
भी
स्वतंत्रता
हेतु
संघर्षशील
रहा।
इस
प्रकार
गुहिलोत
सिसोदिया
राजवंश
की
विचार
पताका
शूरवीरता
के
साथ
मगध
में
भी
लहराने
लगी।
[1] कविराजा श्यामलदास, वीर विनोद, भाग-1,महाराणा मेवाड़ हिस्टोरिकल पब्लिकेशन ट्रस्ट,उदयपुर एंड राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर, पृ. 99-100; ओझा गौरीशंकर हीराचन्द, उदयपुर राज्य का इतिहास,भाग-1,राजस्थानी ग्रंथागार,जोधपुर,2015,पृ. 1-2; अहमद शाहिद, मध्ययुगीन राजपूताने की शासन प्रणाली,अपोलो प्रकाशन,जयपुर,2006, पृ.38
[2] Compiled by Erskine, Major K.D. Imperial Gazetteer of India, Provincial Series Rajputana ,Books Treasure,Jodhpur,2007, Pg. no. 107; ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 2; मेनारिया, डॉ. शिवचरण, उत्तर मुगलकालीन मेवाड़,संघी प्रकाशन,जयपुर,1986, पृ. 9
[3] कविराजा श्यामलदास, वीर विनोद, भाग-1, पृ. 248-250; ओझा गौरीशंकर हीराचन्द, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 65-66
[4] कविराजा श्यामलदास, वीर विनोद, भाग-1, पृ. 230-232; ओझा गौरीशंकर हीराचन्द, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 65; भण्डारी सुख सम्पत्ति राय, भारत के देशी राज्य, पृ. 5
[5] कविराजा श्यामलदास, वीर-विनोद, भाग-1, पृ. 308; ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 270, पाद टिप्पणी क्र.सं. 4
[6] कानोड़ का इतिहास (हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख), पृ. 1-4,45(प्रताप शोध प्रतिष्ठान,उदयपुर में संग्रहित)
[8] कानोड़ का इतिहास (हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख), पृ. 31
[9] कानोड़ रावत प्रतापसिंह कृत हस्तलिखित कानोड़़ इतिहास की डायरी, पृष्ठ सं.24 ; टोंकरा के बड़वा कृपाल सिंहजी की पोथी,पाना संख्या.42 ; राणीमंगाजी की पोथी,पाना संख्या.35(भींडर-उदयपुर)
[10] कानोड़ का इतिहास (हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख), पृ. 31
[11] कानोड़ का इतिहास (हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख), पृ. 31-32
[12] तवारीख सार राजस्थान कानोड़़, मेवाड़़, पृ. 34(हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख,प्रताप शोध प्रतिष्ठान,उदयपुर में संग्रहित)
[13] टोंकरा के बड़वा कृपाल सिंह की पोथी के अनुसार, पाना नं.24(टोंकरा,मध्यप्रदेश); तवारीख सार राजस्थान कानोड़़, मेवाड़़, पृ. 34-36;ठिकाना कानोड़ तवारीख याददाश्त, पृ. 1, रावत भाण की मृत्यु का विवरण प्राप्त होता है(हस्तलिखित अप्रकाशित तवारीख,प्रताप शोध प्रतिष्ठान,उदयपुर में संग्रहित)
[14] श्री गदाधरप्रसाद अम्बष्ठ विद्यालंकार, ‘‘बिहार दर्पण‘‘, ग्रंथमाला कार्यालय, बांकीपुर, प्रथम संस्करण, 1940, पृ.सं. 280-81
[15] देवमूँगा इतिहास संदर्भित संपूर्ण लेखन व संकलन में मुख्य रूप से घटराईन (बिहार) के अभिषेक सिंह जी सारंगदेवोत (सिसोदिया) की भी मुख्य भूमिका रही जिन्होंने गयाजी-हरिद्वार के पण्डाजी की पोथियों, गया के पुरोहितों की पोथियों सहित देवमूँगा स्टेट व इस राज्य के अधीनस्थ जागीरदारी ठिकानों के अभिलेखीय संग्रहों जैसे कि घटराईन की वंशवृक्षावली आदि का संकलन कर रुचिकर-पठनीय इतिहास लेखन में महत्वपूर्ण सहयोग किया ;कानोड़ राजमाता इंद्रा कुंवर(85वर्ष) और अभिषेक सिंहजी(उम्र41वर्ष,दिल्ली में कार्यरत इंजिनियर) का साक्षात्कार और इनके साथ किया गया देव-उमगा (बिहार)का सर्वे।
सहायक आचार्य, इतिहास, मेवाड़ विश्वविद्यालय, चित्तौडगढ़ (राजस्थान)
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