साक्षात्कार : प्रतिरोध का जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा / महेश कटारे ‘सुगम’ (डॉ. दीपक कुमार की बातचीत)

प्रतिरोध का जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा : महेश कटारेसुगम
(जनवादी ग़ज़लकार महेश कटारेसुगमसे डॉ. दीपक कुमार की बातचीत)
         

          समकालीन हिंदी ग़ज़ल में जनपक्षधर ग़ज़लकारों में महेश कटारेसुगमकी ग़ज़लें अपना अन्यतम स्थान रखती हैं। सुगम की ग़ज़लें अपने समय का आईना हैं जिनमें समकालीन समाज और राजनीति का विद्रूप चेहरा पूरी तरह स्पष्ट नज़र आता है। वे केवल मनबहलाव के लिए गज़लें नहीं लिखते बल्कि वे ग़ज़ल लेखन को समाज में मनुष्यता को बचाए रखने का सशक्त माध्यम मानते हुए अपनी ग़ज़लों के ज़रिए एक जागरूक, प्रतिबद्ध और संवेदनशील रचनाकार होने का धर्म भी निभाते हैं। आइए उनसे बातचीत के ज़रिए समकालीन साहित्य में ग़ज़ल की भूमिका को समझते हैं। 

 

1. नमस्ते सुगम जी। सबसे पहले हम जानना चाहते हैं कि साहित्य की विभिन्न विधाओं में से आपने ग़ज़ल विधा को अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए क्यों चुना और एक ग़ज़लकार के रूप में आपकी यात्रा कैसे शुरू हुई?

सुगम : नमस्ते। यूँ तो साहित्य की विभिन्न विधाओं में मेरा भरपूर काम है लेकिन ग़ज़ल विधा में काम करने का उद्देश्य इतना था कि कम शब्दों में अपनी बात कहने की जो सलाहियत है, वह ग़ज़ल के माध्यम से ही पूरी की जा सकती है। एक शेर अपने आप में अपनी परिपूर्ण अवस्था में संपूर्ण कथ्य और शिल्प के साथ एक गहरी छाप छोड़ता है। दूसरी बात यह भी है कि आज ग़ज़ल साहित्य की केंद्रीय विधा है, जिसे सबसे ज्यादा लिखा-पढ़ा और तरजीह दी जा रही है।

 

2. आपकी अब तक कितनी ग़ज़ल रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं? कृपया नामोल्लेख ज़रूर करें। 

सुगम : ग़ज़ल विधा में दो भाषाओं में मेरा लेखन है। एक समकालीन हिंदी ग़ज़ल और दूसरा बुंदेली ग़ज़ल। समकालीन हिंदी ग़ज़ल मेंआवाज़ का चेहरा, ‘दुआएँ दो दरख़्तों को, ‘सारी खींचतान में फ़रेब ही फ़रेब है, ‘आशाओं के नए महल, ‘शुक्रिया, ‘अय हय हय, ‘ख्वाब मेरे भटकते रहे, ‘कुछ तो है, ‘ऐसी तैसी, ‘ला हौल वला कुव्वतऔरप्रतिरोध के पर्वनाम के ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और बुंदेली ग़ज़ल मेंगाँव के गेंवड़े, ‘बात कैत दो टूक कका जू, ‘अब जीवे कौ एकई चारौ, ‘कछू तौ गड़बड़ हैऔरसुन रये हौनाम के ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।


3.
एक समर्थ ग़ज़लकार के रूप में आपकी ग़ज़लें अपने समय को किस तरह से व्यक्त कर पा रही है? क्या वंचित समाज की पीड़ा भी आपकी ग़ज़लों में व्यक्त हुई है? यदि हाँ, तो किस तरह?
 

सुगम : एक समर्थ ग़ज़लकार का यह दायित्व होता है कि वह अपने समय के सच को उद्घाटित करे। समाज में सामाजिक चेतना विकसित करने का प्रयास करे और अपने समाज की विसंगतियों को रेखांकित करे। अब मैं इसमें कहाँ तक सफल हो पाया हूँ, यह तो हमारे पाठक और आलोचक ही तय करेंगे। वैसे मेरी कोशिश रही है कि उपरोक्त बिंदुओं को पूरी शिद्दत के साथ रेखांकित करूँ। इसलिए मैंने अपनी ग़ज़लों में खेत, किसान, मजदूर, दलित, शोषित और पिछड़े तबकों को अपना कथ्य बनाने की कोशिश की और लगभग समाज के उन सारे तबको की समस्याओं पर कलम चलाई जो सामान्य दृष्टिओं में उपेक्षित रहे हैं। मेरे एक शेर के माध्यम से यह बात कहूँ तो-


पूरे दम से आँख मिलाकर प्रश्न करेंगे सरकारों से
वंचित होकर रहें भला क्यों अपने मौलिक अधिकारों से

 

4. समकालीन हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख ग़ज़लकारों के रूप में आप किन रचनाकारों को महत्वपूर्ण मानते हैं? और क्यों

सुगम : समकालीन ग़ज़ल में आज बहुत सारे नाम प्रमुखता के साथ लिए जा सकते हैं, जो ग़ज़ल को नए तेवर और व्यापक सोच के साथ पाठकों के बीच ला रहे हैं। जिसे पाठकों द्वारा सराहा भी जा रहा है लेकिन अभी भी प्रतिरोध के नाम पर अधिकांश हिंदी ग़ज़लकार अपनी रचनाओं पर चुप्पी चस्पा किए हुए बैठे हैं। प्रतिबद्धता उनके लेखन में लगभग नगण्य है या फिर सिरे से गायब है। अभी शायर सत्ता के डर से सच कहने का जोखिम उठाने को तैयार नहीं है और यह लेखक की सबसे बड़ी कमजोरी है और कायरता भी। लेखन को समाज का दर्पण बनाने के लिए प्रतिरोध का जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा अन्यथा हमारी ग़ज़लें प्रशस्तियों के दस्तावेज बनकर रह जाएँगी, जिनका समाज के लिए कोई मूल्य नहीं होगा और एक दिन हमारा लोक इन्हें खारिज कर देगा। मैंने एक स्थान पर लिखा है-


ज़ुल्मों का जब शाही नर्तन होता है
चुप रहना भी मौन समर्थन होता है

 

5. दुष्यंत कुमार ने हिंदी ग़ज़ल को राजनीतिक तेवर प्रदान किया और हिंदी ग़ज़ल को समकालीन समस्याओं से जोड़ा। क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल अब भी राजनीतिक चेतना से संपन्न है?

सुगम : समकालीन ग़ज़ल दुष्यंत जी की ग़ज़लों के बाद अपने आक्रामक तेवरों के लिए ही जानी जाती है। उसमें राजनैतिक, सामाजिक और व्यावहारिक चेतना के स्वर ज्यादा दिखाई देते हैं और यही उसकी उर्दू ग़ज़ल से हटकर एक अलग पहचान भी है। हमारे समकालीन ग़ज़लकार दुष्यंत जी को पूरी तरह से तो नहीं पर आंशिक तौर पर उसका निर्वाह करने की कोशिश जरूर कर रहे हैं और यही कारण है कि दुष्यंत और अदम जैसे तेवर दोबारा देखने को नहीं मिल पा रहे हैं। मैं फिर कहना चाहूँगा कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल सत्ता के प्रतिरोध का पर्याय है और उसे उसी रूप में देखा जाना चाहिए। व्यस्था विरोध के कुछ शेर देखिए-


भूख चिल्लाई व्यवस्था की बढ़ी बेचैनियाँ
ज़ुर्म ठहराया गया उसको बग़ावत लिख दिया
X   X   X
पेट भर रोटी नहीं है काम की दरकार है
लग रहा है मुल्क अपना पेशतर बीमार है

6. हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में स्त्री सरोकारों से जुड़ी हुई रचनाएँ लिखी जा रही हैं, क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में स्त्री के जीवन से जुड़ी हुई समस्याओं को प्रभावी तरीके से अभिव्यक्त किया जा रहा है?

सुगम : अन्य विधाओं में स्त्री विमर्श को जिस तरह से रेखांकित किया जा रहा है हिंदी ग़ज़ल में भी उसे समकालीन ग़ज़लकारों ने रेखांकित करने की कोशिश की है। जो आपको प्रकारांतर से तमाम शेरों में देखने को मिल सकता है। समकालीन हिंदी ग़ज़ल सभी विधाओं के समानांतर चलने की कोशिश कर रही है। संभवत कोई भी विषय ऐसा नहीं है जो समकालीन ग़ज़ल में परिलक्षित हो रहा हो। धीरे-धीरे हिंदी ग़ज़ल की दृष्टि और भी साफ हो रही है और वह समाज के सभी तबकों का बहुत ही स्पष्ट रूप से सूक्ष्म अन्वेषण करने में लगी हुई है। यह बात अलग है उसको आलोचकों द्वारा अभी नोटिस में नहीं लिया जा रहा है, यह समकालीन ग़ज़ल का दुर्भाग्य है। मेरी एक ग़ज़ल के दो शेर देखिए जो समाज को स्त्री जीवन की समस्याओं को उसी की नज़र से प्रस्तुत करते हैं-


कह उठी पत्नी कि मेरे दर्द को समझा नहीं
लिख रहे सीता का दुख पर दुख मेरा देखा नहीं
बस समझ रक्खा है मुझको नौकरानी की तरह
कह दिया घर में रहो बाहर समय अच्छा नहीं
 

7. मुंशी प्रेमचंद के समय से ही साहित्य में दलित वर्ग और ग्रामीण जीवन की दुश्वारियों को साहित्य में बयाँ किया जाता रहा है, क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में भी ऐसी प्रवृत्ति दिखाई देती है।

सुगम : उर्दू ग़ज़ल प्रेमी और प्रेमिका की गुफ़्तगू के रूप में चर्चित हुई और काफी लंबे अरसे तक वह इसी रूप में लगातार अपना सफर करती रही। उसके कथ्य में सामाजिक विसंगतियों की कभी कोई बात नहीं हुई।  अधिकांश उर्दू ग़ज़लें दैहिक मानसिकता के इर्द-गिर्द घूमती रही लेकिन हिंदी ग़ज़ल के प्रादुर्भाव के बाद उसके कथ्य में कई तरह के बदलाव हुए, जिसमें दलित पीड़ित शोषित समाज के साथ-साथ गाँव, शहर, भूख, प्यास, उत्पीड़न जैसे ज़िंदगी के लगभग हर पक्ष पर समकालीन हिंदी ग़ज़ल लिखी गई और इस तरह उसका कैनवास व्यापक होता चला गया। आज तो समकालीन ग़ज़ल का परिदृश्य इतना व्यापक है कि पूरी दुनिया इस के आगोश में है। मेरे दो शेर देखिए-


तुम क्या जानो मैंने अपने बचपन में
कितने जूठे दोना पत्तल चाटे हैं
X   X   X
प्रभु की मर्ज़ी शम्बूकों को कत्ल करें
पानी फेरें सपनों और अरमानों पर

8. भारत में किसान और मजदूर की हालत हमेशा दयनीय रही है क्या समकालीन हिंदी ग़ज़ल में इस पक्ष को सामने रखकर भी गज़लें लिखी जा रही हैं ?

सुगम : निश्चित रूप से समकालीन हिंदी ग़ज़ल में गाँव, किसान, मजदूर को केंद्र में रखकर बहुत सारी ग़ज़लें लिखी जा रही है। तमाम जनपक्षधर ग़ज़लगो इस पर बहुत ही मेहनत से काम कर रहे हैं। हमारे गाँव की बदलती हुई तस्वीर और उसके बदलते हुए परिवेश, सामाजिक और राजनैतिक ढंग से हमारे गाँव में जन्म ले चुकी विद्रूपताएँ खुलकर समकालीन ग़ज़ल में परिलक्षित हो रही हैं। किसान जीवन की त्रासदी को व्यक्त करती मेरी ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए-


हम किसान हैं और किसानी अपनी पूँजी है
गौरवशाली यही कहानी अपनी पूँजी है
अथक परिश्रम अन्न उगाना अपना पेशा है
देना सबको दाना पानी अपनी पूँजी है
मोटा खाते और पहनते हम सीधे सच्चे
निर्धनता की रीत पुरानी अपनी पूँजी है


9 : उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में संवेदना और शिल्प के स्तर पर आप क्या अंतर मानते हैं

सुगम : उर्दू ग़ज़ल और हिंदी ग़ज़ल में संवेदना के स्तर पर बहुत सारी विभिन्नताएँ देखी जा सकती हैं। जहाँ उर्दू ग़ज़ल प्रेम से पगे सूक्ष्म एहसासों के स्तर पर व्यक्ति को संवेदित करती है, वहीं हिंदी ग़ज़ल रोजमर्रा की दु:, तकलीफें, ज़रूरतें, परेशानियों से सीधी रूबरू है। इसमें ज़िंदगी का वह हर पक्ष शामिल है जिससे आदमी की ज़िंदगी प्रभावित होती है। हिंदी ग़ज़ल में ज़िंदगी का कोई भी ऐसा पहलू नहीं है जो अछूता हो और उस पर लिखा ना गया हो।

 

10. आपने कहा कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल सत्ता के प्रतिरोध का पर्याय है  तो क्या हिंदी ग़ज़ल से रुमानियत पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है

सुगम : हिंदी ग़ज़ल से रूमानियत पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है और ही समाप्त हो सकती है। क्योंकि रूमानियत भी ज़िंदगी के एहसासों का एक हिस्सा है। जो आदमी को संवेदित करता है। प्रेम की स्वीकार्यता को नकारा नहीं जा सकता। प्रेम अत्यावश्यक जरूरतों की तरह हमारी ज़िंदगी से जुड़ा हुआ है इसलिए उसे खत्म होना भी नहीं चाहिए।

 

11. कुछ ग़ज़लकार मानते हैं कि देवनागरी में लिखी हुई ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल है, आप इससे कहाँ तक सहमत हैं? 

सुगम : मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूँ। देवनागरी में लिख देने भर से कोई ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल नहीं हो जाती।  हिंदी ग़ज़ल की अब तो एक व्यापक परंपरा है। उसका कथ्य पूरी तरह से अलग है।

 

12. समकालीन कविता और समकालीन हिंदी ग़ज़ल में आप विशेष तौर पर क्या अंतर मानते हैं

सुगम : समकालीन कविता और समकालीन हिंदी ग़ज़ल मुख्यतः शिल्प के स्तर पर एक दूसरे से पूरी तरह से अलग हैं। समकालीन कविता किसी तरह के छंद से अनुशासन से बंधी नहीं होती है। वह अपने आप में अपना स्वतंत्र विन्यास रखती है। जबकि समकालीन हिंदी ग़ज़ल पूरी तरह से एक छंद बद्ध विधा है। जिसका एक अपना अनुशासन है बह्र है, वज़न है, मतला है, मक्ता है, शेर हैं और ये सारी चीज़ें हिंदी ग़ज़ल की अनिवार्य शर्तें हैं जो उसे हिंदी कविता से अलग करती हैं।

 

13. समकालीन कविता में छंद की उपेक्षा की गई है, इस आधार पर हिंदी ग़ज़ल की छन्दोबद्धता को आप आधुनिक जीवन की जटिल मानसिक संक्रियाओं को व्यक्त करने में समर्थ मानते हैं अथवा नहीं

सुगम : समकालीन हिंदी ग़ज़ल छन्दोबद्धता के कारण कभी-कभी अपने भावों को अभिव्यक्त करने में समस्याएँ तो पैदा करती हैं लेकिन ग़ज़लगो की कुशलता इसी बात पर निर्भर करती है कि वह अपनी बात छंद के अनुशासन में पूरी तरह करने में समर्थ हो। यह कार्य दुष्कर तो अवश्य है पर असंभव बिल्कुल नहीं है। ग़ज़ल लिखने का अभ्यास करते-करते रचनाकार इसमें पारंगत हो जाता है और वह अपनी अभिव्यक्ति को ग़ज़ल के अनुशासन में बड़े शानदार तरीके से अभिव्यक्त भी कर पाता है। कई ग़ज़लकारों में आप इस बात को बड़ी आसानी से देख सकते हैं और महसूस भी कर सकते हैं।


14 :
हिंदी ग़ज़ल के प्रति आलोचकों का रवैया सकारात्मक नहीं रहा है, इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं

सुगम : आपकी यह बात पूरी तरह सच है कि हिंदी ग़ज़ल के प्रति आलोचकों का रवैया कभी भी सकारात्मक नहीं रहा। कारण तो तमाम हो सकते हैं लेकिन जहाँ तक मैं सोच पाया हूँ कि समकालीन हिंदी कविता को लेकर ही अधिकांश आलोचकों ने अपनी आलोचना दृष्टि विकसित की। समकालीन कविता यूरोपीय कविता के प्रभाव में लिखी गई और उसकी आलोचना के तमाम टूल्स भी यूरोपीय ही थे जो इस्तेमाल किए गए, जबकि छंदबद्ध कविता पूरी तरह से भारतीय कविता है तो अधिकांश आलोचकों ने इसे दोयम दर्जे की कविता मानकर इसे अनदेखा करने की कोशिश की। दूसरी बात जो मैं समझ सका हूँ आलोचना के यूरोपीय टूल्स पर यह छंदबद्ध भारतीय कविता खरी उतरती भी कैसे? क्योंकि इसके लिए आलोचना के देसी टूल्स विकसित किए जाने चाहिए थे जो नहीं किए गए। अतः विदेशी साँचों में हमारी यह देसी कविता कभी भी फिट नहीं बैठी और आलोचक इससे हमेशा कन्नी काटते रहे।


15 :
क्या हिंदी ग़ज़ल में आलोचना को विकसित करने की दिशा में हिंदी ग़ज़लकारों के द्वारा भी प्रयास किए जा रहे हैं ? यदि हाँ, तो आप इसे किस तरह देखते हैं ?

सुगम : समकालीन हिंदी ग़ज़ल की आलोचना स्थापित आलोचकों द्वारा तो सदा ही उपेक्षित रही है। बहुत कम आलोचक ऐसे हैं जिन्होंने समकालीन हिंदी ग़ज़ल की समुचित आलोचना की हो।  हिंदी ग़ज़ल की आलोचना हिंदी ग़ज़लकारों ने ही की है, जो ज्यादा मायने नहीं रखती और विश्वसनीय भी नहीं लगती क्योंकि कोई भी रचनाकार अपनी चीज को कमतर कैसे आँकेगा। यही कारण है कि समकालीन हिंदी ग़ज़ल की अभी तक जो आलोचना हुई है उसमें कोई तरीके की बात उभर कर सामने नहीं सकी है। दूसरी बात अधिकांश ग़ज़लकार एक दूसरे की या तो बहुत सारी कमियाँ निकालते हैं या फिर कसीदे पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। इस तरह की दोनों बातें ही ग़ज़ल का सटीक मूल्यांकन करती हुई नजर नहीं आती। जब तक कोई आलोचक तटस्थ रहकर आलोचना नहीं करेगा तब तक उस विधा पर संपूर्णता से बात नहीं हो सकती।  आज वक्त की माँग है कि ग़ज़ल के कुछ मापदंड आलोचकों द्वारा स्थापित किए जाएँ और उनके आधार पर समकालीन ग़ज़ल की आलोचना की जाए तो ग़ज़ल की बहुत सारी खूबियाँ और खामियाँ सामने आएँगी, जिससे नए रचनाकारों का मार्गदर्शन हो सकेगा।

 

16 : आज हिंदी ग़ज़ल के प्रति नए पाठकों और लेखकों में अत्यधिक उत्साह देखने को मिल रहा है, इसके क्या लाभ और क्या हानियाँ हैं?

सुगम : यह बात सच है कि समकालीन ग़ज़ल तमाम उपेक्षाओं के बाद भी आज साहित्य की मुख्यधारा में बनी हुई है। बहुत सारे नए रचनाकार और पाठक लगातार सामने रहे हैं।  नए रचनाकारों का सामने आना कोई बुरी बात नहीं है बल्कि यह एक सुखद सौभाग्य है, जिससे यह ज्ञात होता है कि ग़ज़ल के प्रति जनमानस का रुझान और अभिरुचि निरंतर और तेजी से विकसित हो रही है। इस तेजी से बढ़ते हुए रुझान को लेकर कुछ चिंताएँ अवश्य हैं कि बहुत सारे नये रचनाकार समकालीन ग़ज़ल को समझे और जाने बगैर कुछ भी उल-जलूल रच रहे हैं। नए रचनाकारों को चाहिए कि वे ग़ज़ल के मानदंडों को पहले बारीकी से समझें, खूब पढ़ें, मनन करें और फिर ग़ज़ल लिखें तो वह हमारे समाज के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण होगी।

 

17 : क्या हिंदी कविता की तरह हिंदी ग़ज़ल में भी गंभीर ग़ज़ल और मंचीय ग़ज़ल जैसे भेद किए जाते हैं? यदि हाँ, तो आप किसे अधिक महत्व देते हैं और क्यों?

सुगम : कवि सम्मेलन के मंच आजकल जिस तरह से सजाए जा रहे हैं, वहाँ पर सस्ती लोकप्रियता और हास्य के नाम पर कुछ भी उल-जलूल परोसा जा रहा है, जिसे शुद्ध मनोरंजन भी नहीं कहा जा सकता। कविता को निम्न स्तर पर लाने की मंचों में एक होड़ सी लगी हुई है। मंचीय कविता की स्थितियाँ बेहद दयनीय और सोचनीय अवस्था में गई हैं। जिन रचनाकारों ने कविता को अपनी कमाई का साधन बना लिया है। उन्हें कविता की गंभीरता और स्तरीयता से कुछ भी लेना देना नहीं है। वे साहित्यिक होकर सिर्फ व्यवसाय के लिए कविता का मुखौटा लगाकर धन कमाने में मशगूल हैं। ऐसे लोगों के बारे में कुछ कहा जाना भी व्यर्थ ही है।


18.
अंत मे नए ग़ज़लकारों को आप क्या संदेश देना चाहते हैं?

सुगम : नए कलमकारों से यही कहना चाहूँगा कि ग़ज़ल लिखने के पूर्व  ग़जल को पढ़ें, समझें और खूब रियाज़ करें और सबसे पहले अपने आप से पूछें कि आखिर वे ग़ज़ल क्यों लिख रहे हैं? जब उन्हें इस बात का समुचित उत्तर प्राप्त हो जाए तब ग़ज़ल को बेहतर ढंग से रच पाएँगे जो लोक-कल्याणकारी होगी। खुद को भी सुख देगी और समाजोपयोगी भी होगी। नए ग़ज़लकारों के लिए मेरी एक ग़ज़ल के कुछ शेर-


ग़ज़ल की अब नई तैयारियाँ हैं
नज़र चौकस सभी हुश्यारियाँ हैं
निभाना चाहते हैं फ़र्ज़ अपने
बड़ी शेरों की ज़िम्मेदारियाँ हैं
हैं इसके काफिये अंगार जैसे
रदीफ़ों में छुपी चिंगारियाँ हैं

ग़ज़ल के विविध पक्षों पर हमसे खुलकर बातचीत करने और अपने विचारों को बेबाकी से प्रस्तुत करने के लिए आपका हार्दिक आभार, सुगम जी !

 

डॉ. दीपक कुमार
सहायक आचार्य (हिंदी), राजकीय महाविद्यालय खैरथल (राज.)

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)  अंक-46, जनवरी-मार्च 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : नैना सोमानी (उदयपुर)

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