शोध सार : प्रगतिशील कहानी लेखकों में भैरवप्रसाद गुप्त एक ऐसे कहानीकार है, जिन्होंने चौथे दशक (पहली कहानी 'रूमाल') से कहानी यात्रा की शुरुआत की और प्रगतिशील विचारों को कहानियों में जोड़ते हुए उन्होंने कहानी विकास यात्रा में मार्क्सवादी विचारधारा के अनुरूप प्रगतिशीलता को अपनाते हुए मनुष्य के जनजीवन में बदलाव, शोषित, पीड़ित, निम्न वर्ग की विषमता का चित्रण कर सामाजिक समानता के पक्ष को प्रस्तुत किया हैं।उनकी कहानियाँ देशप्रेम, त्याग, बलिदान की भावना से भरपूर सामाजिक विडम्बनाओं के यथार्थ को प्रस्तुत करती है। स्वाधीनता पूर्व की भारतीय समाज की सामंतवादी, सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था की यथास्थिति का अंकन करती हुई दिखाई पड़ती है। उनकी कहानियाँ विशेष रूप से समाज में व्याप्त विसंगतियों की चेतना और सामाजिक परिवर्तन का आग्रह करती हुई दिखाई पड़ती है जिनमें ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्र, अंधविश्वासों तथा रूढ़ियों व परंपराओं के अंतर्विरोधों को प्रस्तुत किया है।
बीज शब्द : भैरवप्रसाद गुप्त, प्रगतिशीलता, कहानी, स्त्री, प्रेमचंद ।
मूल आलेख : भैरवजी की कहानियों में स्त्री जीवन की पीड़ा व उनके अभावों की अभिव्यक्ति भी देखने को मिलती हैं,
जिसे स्वतंत्रता और समानता जैसे मानकों की कसौटी पर कसने का प्रयास किया गया है। किसान,
मजदूर आदि के संगठन और वर्ग संघर्ष का नेतृत्व उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में किया है। कानपुर में अर्जुन अरोड़ा और नेमीचंद्र जैन जैसे प्रगतिशील लेखकों से भैरव जी का संपर्क हुआ,
वे प्रगतिशील लेखक संघ के सदस्य बने और 1948 में कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बने। इस संबंध में वे लिखते हैं कि
"इस दौर में मेरी कहानियों का विषय युद्ध, किसान, मजदूर संघर्ष, सामन्ती तथा पूँजीवादी शोषण था। गाँधीवाद के सुधारवाद पर मेरी आस्था उठ गयीं थी और मेरा लेखन समाजवादी क्रांति के लिये समर्पित हो गया था।"[i]
भैरव जी के लेखन व जीवन में वह साम्य हमें देखने को मिलता है। 'भैरवजी के व्यक्तित्व के कुछ पहलू' शीर्षक लेख में कर्णसिंह चौहान लिखते हैं कि ''यह भैरवजी का एक ओर रूप था- बेहद संवेदनशील, कोमल द्रवणशील और उस किंवदन्ती वाले रूप से एक दम भिन्न जिसमें वे कड़क आवाज़ में ललकारते हुए साक्षात् काल रूप भैरव थे।''[ii] भैरव जी ने अपनी कहानी ‘चुपचाप’, ‘खुदा’, ‘इंसान और जानवर’, ‘दो चरित्र’, ‘अफसर बीवियाँ और मेरे दोस्त की कहानी’
आदि में दिखाया है कि किस तरह सत्ताधारी वर्ग, राजनेता, नौकरशाही और पुलिस के समीकरण से पूँजीपति वर्ग जनसम्पत्ति की लूट में निमग्न हैं। उनकी अनेक कहानियाँ मजदूरों के जीवन पर आधारित है, जिनमें ‘कुते की टाँग’, ‘हड़ताल’, ‘चाय का प्याला’, ‘लड़का’
आदि कहानियाँ उल्लेखनीय है। 'शोले' (1946) उनका पहला उपन्यास है जो बहुत लोकप्रिय हुआ। आपके प्रमुख उपन्यासों में 'मशाल', 'गंगा मैया' ,'जंजीरे और नया आदमी' हैं। भैरव जी का 'जंजीरे और नया आदमी' बाद में 'आग और आँसू' नाम से 1982 में प्रकाशित हुआ। 'सती मैया का चौरा', 'धरती' , 'आशा', 'कालिन्दी', 'काशी बाबू' व 'भाग्य देवता' आदि है। उपन्यासों में उन्हें प्रसिद्धि अधिक मिली होने के बावजूद वे एक सफल कहानीकार भी है उनके कहानी संग्रहों में ‘मुहब्बत की राहें’, ‘फरिश्ता’, ‘बिगड़े हुए दिमाग’,
‘इंसान’, ‘सितार के तार’, ‘बलिदान की कहानियाँ’, ‘मंजिल’, ‘महफिल’, ‘सपने का अंत’, ‘आँखों का सवाल’, ‘मंजली की टिकुली’, ‘और आप क्या कर रहे हैं’
आदि प्रमुख है। आप उपन्यासकार व कहानीकार होने के साथ कुशल संपादक भी रहे हैं। आपने माया, मनोहर कहानियाँ एवं नई कहानी आदि का संपादकत्व भी किया है।
भैरव जी ने 'माया' पत्रिका के संपादन विभाग में काफी समय काम करने के बाद 1954 ई.
में 'कहानी' पत्रिका का संपादन शुरू किया। 1956 में भैरवजी के संपादन में 'नयी कहानी'
नाम की पत्रिका का एक विशेषांक निकला। 1964 के शुरू में आपने संपादन से हमेशा के लिए अवकाश ले लिया, इसका कारण यह था कि अब प्रकाशक की मनोवृत्ति शुद्ध रूप से व्यावसायिक तथा पूँजीवादी हो गयी थी। 1982 में जनवादी लेखक संघ की स्थापना उन्होंने ही की और उसके प्रथम अध्यक्ष भी बने। वे अच्छे कार्यकर्त्ता थे और अपनी बात पर अड़े रहते थे। प्रगतिशील जनवादी मंच है जिसने समाज में तमाम बुराइयों की पहचान कर उसे बाहर करने का प्रयत्न किया। प्रगतिशील साहित्य जनता की तरफदारी करने वाला साहित्य है,
इसलिए वह उसकी जातीय विरासत,
उसकी साहित्यिक परम्पराओं की रक्षा करने के लिए भी लड़ता है। सन्
1936 मे एक नया साहित्यिक आंदोलन आरम्भ हुआ। अप्रैल,1936
के 'हंस'
में प्रेमचंद में प्रगतिशील लेखक के बारे में लिया था ''जैसा इसके नाम से जाहिर है,
संघ उस साहित्य और कला प्रवृति का पोषक है जो समाज में जागृति और स्फूर्ति लाए,
जो जीवन की यथार्थ समस्याओं पर प्रकाश डाले।''[iii] भैरव जी की कहानियों में हम प्रगतिशीलता के उन तमाम पहलुओं को देख सकते है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने प्रगतिशील लेखकों के नाम अपने संदेश में कहा था ''जनता से अलग रह कर हम बिल्कुल अजनबी बन जायेंगे। साहित्यकारों को मनुष्य से मिल-जुल कर उन्हें पहचानना है मेरी तरह एकान्तवासी रहकर उनका काम नही चल सकता,
मैंने एक मुद्त तक समाज से अलग रह कर अपनी साधना में जो गलती की है,
मैं उसे समझ गया हूँ और यही वजह है कि यह संदेश दे रहा हूँ।"[iv]
प्रगतिशील परम्परा के कहानीकारों में भीष्म साहनी,
अमरकांत,
मार्कण्डेय,
भैरव प्रसाद गुप्त और शेखर जोशी आदि सक्रिय लेखक थे। भैरव प्रसाद गुप्त का सम्पर्क साम्यवादी कार्यकर्ताओं और नेताओं से हुआ जिसके प्रभाव से उनकी विचार धारा में आमूल परिवर्तन हो गया। इन्होंने प्रगतिशील परम्परा में कही कहानियाँ व उपन्यास लिखे जो लोगों के हृदय में घर कर गये।
प्रगतिशील परम्परा के पक्षधर भैरवजी का कथा साहित्य प्रेमचंदीय परम्परा का विकसित रूप है। सामाजिक जीवन का यथार्थ उनकी कहानियों के केंद्र में है। समाज में व्याप्त कुरीतियाँ, विभिन्न स्त्री-समस्याएँ, वेश्या जीवन,
वर्ग संघर्ष, सामन्ती शोषण आदि विशेषताएँ उनके कहानियों के देखने को मिलती है। ग्रामीण जीवन के चरित्रों के बाह्य संघर्ष के साथ उनके आंतरिक द्वन्द्वों का चित्रण उनकी कहानियों में देखने को मिलता है। प्रगतिशील परम्परा के परिप्रेक्ष्य में भारतीय किसानों का संघर्षमयी जीवन का चित्रण प्रस्तुत करने वाले प्रेमचंदोत्तर कहानीकारों में भैरवजी का महत्वपूर्ण स्थान है। इसका चित्रण 'पियारा बुआ', 'मंजिल', 'इंसान', 'सितार के तार', 'महफिल', 'सपने का अन्त' आदि कहानियों में किसान-मजदूर संघर्ष और सामन्ती शोषण है।' 'पियारा बुआ' कहानी में पियारा बूआ के पिता की मृत्यु होने पर जब बैल भी बिक जाता है तो वह पिसनहारी के साथ कस्बे बेचने जाती है। कुछ दिनों बाद कनिक बाजार में पियारा बुआ मशहूर हो जाती है और भाई धरमू का बडी मुश्किल से पालन पोषण कर धरमू की शादी रचायी और सब की प्यारी 'पियारा बुआ' बन गयी। लेकिन धरमू की पत्नी पियारा बुआ से झगड़ा करती तो पियारा बुआ तो बस नाक तक घूंघट निकालकर रोने लगती है जिनका दर्द किसी से भी देखा नहीं जाता। जिससे लोगों में भय था कि कही पियारा बुआ अपने ससुराल वापस नहीं चली जाये जिससे अपना नाक कट जाये। सुनने वाला कहता है - बाबा ! मोहल्ला-गाँव धरमूआ से बड़ा है, वह अपनी पियारा बुआ को कहीं भी नही जाने देगा। इसी तरह मंजिल' कहानी में गीत गाने वाला ग्वाला जब दूध बेचकर आता है तो बड़ा खुश होता है लेकिन सरयू में तूफान आता है तो वह अपनी पत्नी और बच्चे के बारे में सोचकर दु:खी हो जाता है। जहाँ उसका किसानी सघर्ष सामने आता है, "मैंने कितनी ही बार सावन-भादो में लबालब भरी गंगा को तूफानी रातों में अकेले या अपने साथियों के साथ पार किया था। कितनी ही बार तूफान और आँधियाँ आई थी, और मेरे जीवन के पर्वत से टकराकर चली गई थी। जिसका जीवन स्वयं एक तूफान रहा है, जिसने आँधियों और आफतो की गोद में भी एक जंगली फूल की तरह हमेशा मुस्कुरा रहा है, जिसने क्रांति की ज्वालाओं को चूमने की मेहती इच्छा हृदय में पाल रखी है।"5 यह कहानी फ्लैस बैक पद्धति पर आधारित है जिसमें देशप्रेम व स्वप्रेम की कहानी जिसमें स्वप्रेम के माध्यम से लेखक फिर से अपनी मंजिल की ओर जाता है। साहित्य और समाज का अंत:संबंध भैरव जी की कहानियों की केन्द्रीय वस्तु है। इस संबंध में डॉ. राम विलास शर्मा का यह कथन का उल्लेखनीय है
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"साहित्य का पौधा चूंकि हमारे सामाजिक-जीवन की धरती पर ही उगता है अत: साहित्य का इतिहास सामाजिक इतिहास से अलग न होकर उनका एक अंग होता है।"6 मार्क्सवादी कथाकार होने के नाते उन्होंने अपनी कहानियों में सामाजिक यथार्थ का समावेश मार्क्सवाद के सिद्धान्तों के अनुकूल ही किया।
वर्तमान पूँजीवादी समाज के श्रमिकों के संगठन के द्वारा ही परिवर्तन संभव है। प्रगतिशीलता का मुख्य लक्ष्य पूँजीवादी ढाँचे में परिवर्तन करना है। मजदूर वर्ग की प्रतिरोध चेतना के अंकन की दृष्टि से
'धनिया की साड़ी' 'हड़ताल',
'हनुमान', 'आप क्या कर हैं', 'कुत्ते की टाँग', 'चाय का प्याला', 'लड़का'
आदि कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं। 'धनिया की साड़ी'
कहानी में रमुआ जो किसी सेठ का ठेला चलता है एक दिन जब सेठ की भैंस मर जाती है तो सेठ के दरबान ने रमुआ को कहा ठेलिया लेकर चलो सेठजी बुला रहे है तो"बेगार की बात सोच रमुआ ने दरबान की ओर देखा। दरबान ने कहा दरबान ने कहा
"इस तरह क्या देख रहे हो ! सेठ जी की भैंस मर गई है। उसे गंगा जी में बहाने ले जाना है। चलो, जल्दी करो!"7 यहाँ रमुआ का प्रतिरोध झलकता है।इसी प्रकार 'हड़ताल' कहानी में संघर्ष के प्रथम हथियार के रूप में हड़ताल का चित्रण किया गया है लेकिन अंत में कुछ लोंगो की वजह से हड़ताल में सफलता नही मिलते देख प्रान बाबू दु:खी हो जाते है। इसी तरह का चित्रण 'हनुमान' कहानी में भी किया गया है जिसमें प्रेस मालिक मजदूरों का शोषण करने के लिए पुराने नियमों में परिवर्तन करता है जिससे हनुमान नामक सीधे मजदूर द्वारा भी उसका विरोध होता है यूनियन बाजी से मजदूर व्यवस्था में परिवर्तन होने नही देते है। 'आप क्या कर रहे है'
कहानी बाल मजदूर वर्ग के संघर्ष की कहानी जिसमें बालक (नवाब) लोंगों को खानसामगीरी छोड़कर कारखानों के काम करने की सलाह देता हैं,
एक लड़के का पुरानी व्यवस्थाओं के प्रति विरोध देखने को मिलता है।
भैरवजी ने शिक्षा समस्या और उससे उद्भूत बेकारी की समस्या को अपनी कहानियों में अभिव्यक्त किया है। उनकी बहुचर्चित 'मास्टरजी',
'आप क्या कर रहे है' व 'बिगड़े हुए दिमाग' कहानियाँ है। 'मास्टरजी' कहानी में देशप्रेमी नेताजी अपनी पुत्री की शिक्षा का दायित्व मास्टरजी (योगेश) को देते हुए वे कहते है कि उसकी शिक्षा पर उसकी माता का प्रभाव न पड़े तथा उसे देश-प्रेम की शिक्षा देना वह बी.ए. पास करती है तो उसका विवाह एम.ए. पास लड़के अनिल से होता है जिसे वह पहले पसंद नहीं करती है जब मास्टरजी ने शीला से कहा कि ''कलाकार कृति हीरा हैं! कुपात्र के हाथ में जाकर भी उसकी चमक मंद नही पड़ती। वह चमकती रहती है अनन्त काल तक कोहनूर की तरह।"8 तब शीला को उसकी (अनिल के) वास्तविकता का ज्ञान हो जाता है तो वे दोनों वैवाहिक जीवन के साथ देश सेवा में लग जाते है। उसी तरह 'आप क्या कर रहे है' कहानी के बालक नवाब पुल के पास सार्इकिल उठाने वाले लड़कों को स्वयं पढ़ाता भी है और इंकलाब अखबार बाँटकर लोगों में शिक्षा के प्रति जाग्रति फैलाता है। 'बिगड़े हुए दिमाग' कहानी में भी शिक्षा के प्रति लेखक का दृष्टिकोण का पता चलता है। भैरवजी शिक्षा पद्धति के प्रति जागृत थे और वें शिक्षा की जागृति से ही शोषण का अंत होना मानते है।
प्रेमचंद और उनके बाद प्रगतिवादी कहानीकारों ने स्त्री समस्याओं की यथार्थ अभिव्यक्ति का चित्रण अपनी कहानियों में किया। इसी क्रम में भैरव जी की कहानियों में भी स्त्री जीवन की सुंदर अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। बाल-विवाह, विधवा-विवाह, अनमेल विवाह आदि हिन्दू-समाज की वैवाहिक प्रणालियों के कारण स्त्रियों की स्थिति बहुत सोचनीय थी। भैरवजी ने अपनी कहानियों में स्त्री समस्याओं को उठाया है। 'मास्टरजी' कहानी में शीला अपनी पसंद से शादी नहीं कर पाती है, जिसमें शीला के कुछ दिन अनिल के साथ रहने से उनकी माँ को यह भय रहता है कि लोग कई उल्टी-सीधी बात न करे दे तो उससे शादी करवाने के लिए मजबूर हो जाती है। शीला के माँ ने कहा "मास्टर जी, शायद आपको पता नहीं कि शीला के पिता मेरे तौर तरीकों से खुद भी चिढ़ते थे और इसलिए वह जब तक रहे, शीला को मेरे निजी संसर्ग में आने से भरसक रोकते रहे। इसी बात को लेकर न जाने कितनी बार हम में लड़ाई झगड़े हुए।"9
कहानी 'पियारी बुआ' की नायिका जो विवाह के तीन माह बाद पति और छह माह बाद ही पिता की मृत्यु होने पर छोटे भार्इ का पालन-पोषण करती है लेकिन भाभी के घर में आने पर पियारी बुआ को रोना पड़ता है अत: लोंगों को भय रहता है कि वह कर्इ वापस ससुराल नहीं चली जाये जिससे उनकी नाक कट जाये। उसी तरह ''मंजिल' कहानी में सुनयना द्वारा लेखक को उसकी माँ और पत्नी के प्रेम का चित्रण बता कर लेखक को फिर से मंजिल की ओर लाना जिसमें उसकी माँ और पत्नी की दयनीय स्थिति का चित्रण अद्भूत है।
प्रेमचंदोत्तर कहानियों में देश-प्रेम और क्रांतिकारी जीवन का चित्रण किया गया। उस समय देश में कई जगहों पर स्वतंत्रता आंदोलन चल रहे थे जिसका प्रभाव भैरवजी की कहानियों में देखा जा सकता है। उनकी कहानियों में क्रांतिकारियों की सुंदर अभिव्यक्ति देखने को मिलती है। भैरवजी की कहानी 'बिगडे़ हुए दिमाग' जिसमें धीरेन हाई स्कूल में पढ़ने शहर जाता है जहाँ सत्याग्रहियों के शामिल हो जाता है, गाँधीजी के जन आंदोलन छेड़ने पर वह भी उसमें कुद पड़ता है घर परिवार के विरोध के बावजूद धीरेन कहता है " पिता जी, यो समय बर्बाद ना कीजिए। मेरा दिमाग ठीक है। गोरों की गोलियों का मुकाबला करने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है।"10 जिसमें उनके पिता उसे बिगड़े हुए दिमाग की उपाधि देते है और कहते है कि बिगड़े हुए दिमाग गोलियों के आगे ही ठीक होते हैं। जिसमें प्रसिद्ध कहानी 'मास्टरजी' जिसमें एक राजनेता जो अपनी पुत्री (शीला) को देश-प्रेम की शिक्षा देना चाहता है जिसकी जिम्मेदारी योगेश नामक अध्यापक को देता है। शीला जो बी.ए.,
एम.ए. होती है उसके साथ प्रभाव से अनिल जो रास्ता भटका हुआ,
वापस देश सेवा में लग जाता है क्रांतिकारी हो जाता है, मास्टरजी एक आंदोलन में शीला व अनिल को बचाने में शहीद हो जाते है। 'मंजिल' कहानी जिसमें लेखक जो विवाह के एक वर्ष बाद ही देशसेवा व आंदोलन के भाग लेने के लिए घर छोड़ कर चला जाता है, लेकिन बाद में उनकी मंडली के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष को जब जेल हो जाती है तो उनकी मंडली टूट जाती है तब वापस पाँच वर्ष बाद ही घर की याद आती है।
भारत की जनता गरीबी, बीमारी, अज्ञान, बेकारी आदि के दलदल में फँसी हुई थी। इस आर्थिक तंगी के मूल कारण को पहचानने का प्रयास करते समय हमें ऐसा मालूम पड़ता है कि भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी आदि इसके लिए पूर्ण जिम्मेदार है। 'हड़ताल' कहानी में जब कर्मचारी वेतन बढ़ाने के लिए हड़ताल करते है लेकिन अंत में कुछ भ्रष्ट कर्मचारी शाम को उस दिन की भी हाजिरी के दस्तखत बना आते है। और हड़ताल असफल करवाते है। उसी तरह 'बिगड़े हुए दिमाग' कहानी में भी कुछ जयचंदों के अंग्रेजों से मिलने से सत्याग्रहियों व क्रांतिकारियों को जेल जाना पड़ता है। 'हनुमान' कहानी में भी वर्माजी को रातों रात सुपरवाइजर का पद दे दिया जाता है जो मजदूरों का शोषण करने में प्रेस मालिक की मदद करवाता है।
भैरवजी की कहानियाँ पढ़ते हुए बार-बार लगा कि लेखक काल्पनिकता से वैचारिक यथार्थ की ओर बढ़ा है, 'मजनूँ का टीला' कहानी जिसे एक रोमानी फैंटसी की तरह बुन दी गयी है। दोनों प्रेमी मजनूँ के टीले पर एक पूर्णिमा की रात को मिलने के लिए तैयार होते है और वहाँ आते है,
जहाँ मुहब्बत के फरिश्ते के रूप में मित्र और पागल मजनूँ के रूप में स्वयं प्रिया के पिता बनते है। जहाँ प्रेम में पागल मजनूँ को देखकर प्रिया को छोड़कर भाग जाता है जिससे प्रिया को प्रेम के झूठे प्रेम का नाटक समझ में आता है और उससे नफरत करने लगती है। वक्त पर कलर्इ खुल गर्इ और पिता ने कहा कि -"बेटी, मुझे खुशी होती, अगर प्रेम मेरी कसौटी पर सच्चा उतरता, मगर वह तो झूठा था।"11और इस तरह एक पिता द्वारा अपनी बेटी को झूठे प्रेम से अवगत करवाया है।
इसी तरह 'एक पाँव का जूता' कहानी के बाबूजी जैसे चरित्र का निर्माण हुआ है।
"जिन्होंने पहले बूढे किसान का जूता बाहर फैका लेकिन जैसे ही उन्हें मालूम हुआ जब बूढे किसान ने बाबूजी कहकर पुकारा तो मेरे ऊपर घड़ों पानी पड़ गया, फिर बोला कि मेरा पाँव भूभर के जल जायेगा। जब वह बूढ़ा किसान एक पाँव में जूता डाले, दूसरा नंगा पाँव पिघलते कोलतार पर पड़े देख मुझे ऐसा लगा कि वह नंगा पाँव अंगार पर नही, मेरी छाती पर चल रहा है, और मैं कुलचा जा रहा हूँ कुलचा जा रहा दू बब्बू की माँ, मैं क्या करूँ ? क्या करू?"12
यह कहानी लेखक के मजदूर के प्रति स्नेह की भावना प्रदर्शित करती है। भैरवजी की कहानियों का मूल स्वर सामाजिक यथार्थ का है जो भावुकता की कच्ची जमीन से उढ़कर यथार्थ की कठोर जमीन पर पहुँच चुका है।
निष्कर्ष : यह कहा जा सकता है कि कहानी साहित्य में भैरव प्रसाद गुप्त एक ऐसे प्रतिबंद्ध लेखक है जिनकी कहानियों में कथ्य की दृष्टि से यथार्थवादी और मानवतावादी रूप उभर कर सामने आता है। भैरवजी ने अपनी कहानियों में तत्कालीन समाज की समस्याओं की अभिव्यक्ति अत्यंत मार्मिकता के साथ की है। किसान-जमीदार संघर्ष, मजदूर-पूँजीपति संघर्ष, सामंती शोषण, विधवा समस्या, स्त्री जीवन, शिक्षा समस्या, राष्ट्रीय आंदोलन, अंधविश्वास, रूढ़ियाँ आदि भैरवजी की कहानियों की प्रमुख समस्याएँ हैं। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी इनमें से कई समस्याएँ आज भी भयावह रूप में समाज में मौजूद हैं हालांकि शिक्षा से दलित, आदिवासी, स्त्री आदिहाशिए पर रखे गए मनुष्यों का जीवन स्तर कुछ ऊपर जरूर उठा है,
लेकिन उतने सुधार नहीं हो सके जो होने चाहिए थे। अतः हम कह सकते है कि भैरवजी की कहानियाँ प्रगतिशील परम्परा पर खरी उतरती हुई दिखाई पड़ती हैं।
1. भैरव प्रसाद गुप्त : मेरी कहानियाँ, दिशा प्रकाशन, दिल्ली, 1986, पृ. 12
2. विद्याधर शुक्ल(स.) : भैरवप्रसाद गुप्त व्यक्ति और रचनाकार, प्रभा प्रकाशन, इलाहाबाद, 1984, पृ. 43
3. रामविलास शर्मा : प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 239
4. वही, पृ. 245
5. भैरव प्रसाद गुप्त : मंजिल, कल्याण साहित्य मंदिर, प्रयाग, 2002, पृ. 124
6. रामविलास शर्मा : प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ, वाणी प्रकाशन, नर्इ दिल्ली, 2014, पृ. 6
7. भैरव प्रसाद गुप्त : दस प्रतिनिधि कहानियाँ, किताबघर प्रकाशन, 2013, पृ. 39
8. भैरव प्रसाद गुप्त : मंजिल, कल्याण साहित्य मन्दिर, प्रयाग, 2002, पृ. 24
9. वही, 17
10. भैरव प्रसाद गुप्त : बिगड़े हुए दिमाग, कल्याण साहित्य मंदिर, प्रयाग, पृ. 19
11. वहीं, पृ. 75
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