अध्यापकी के अनुभव : नीमच नाके से बालाजी चौराहे तक एक सी तस्वीर / डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

अध्यापकी के अनुभव
नीमच नाके से बालाजी चौराहे तक एक सी तस्वीर
- डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर

       व्यक्ति एक परिस्थिति से निकलकर दूसरी परिस्थिति में इस उम्मीद में जाता है कि उसे वहाँ बेहतर हालात मिले। उसकी यह दौड़ अनंत काल से जारी है। इस दौड़ में कितनी सफलता मिली, यह उसका समय तय करता है। कभी बेहतर तो कभी पूर्व स्थिति से भी भयावह स्थिति में पहुँच जाता है। पर फिर भी उसकी यह दौड़ जारी रहती है। मृग मरीचिका जो ठहरी। प्रोबेशन खत्म होने के बाद यह मृग भी इसी दिशा में दौड़ने लगा। लगभग ढाई साल का समय मनोहरगढ़ प्रयोगशाला में बिताया। फिर ट्रांसफर हो गया। वहाँ के संस्मरण सिलसिलेवार आपके बीच साझा किए जा चुके हैं। आलमास प्रयोगशाला में भी ठीक ढाई साल गुजार लिए हैं। यहाँ से ट्रांसफर तो अभी नहीं हुआ, पर कई साथी यहाँ के प्रयोगों के बारे में जानना चाह रहे हैं। इसलिए अब मनोहरगढ़ की बजाय आलमास प्रयोगशाला की बातें आपसे साझा करने जा रहा हूँ। इस संस्मरण में केवल यहाँ की स्थिति के चित्रण के साथ-साथ विद्यालय की भूमिका को रेखांकित करने का प्रयास हुआ है। पर यह काम बहुत चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि जिस स्थान को आप छोड़ कर  गए हैं उनके बारे में कहना और लिखना आसान होता है, मगर जिस जगह आप काम कर रहे हैं, वहाँ रहकर वहाँ के कार्य और माहौल की समीक्षा करनासांड को लाल  कपड़ा दिखाने' के समान होता है। खुराफाती मित्रों की सलाह पर यह काम करने के लिए भी तैयार हूँ। वैसे भी प्रेमचंद के विद्यार्थीबिगाड़ के डर से ईमान की बात' कहना बंद नहीं करते हैं।

6 जनवरी, 2021 की नींद साथी दिनेश जी पंचोली के कॉल से खुली।बधाई हो डॉक्टर साहेब! आपका ट्रांसफर भीलवाड़ा हो गया है।

यह खबर कोई विशेष चौंकाने वाली नहीं थी, क्योंकि ट्रांसफर के लिए तो मैंने अप्लाई कर ही रखा था। पर खबर इस तरह से और इतनी जल्दी मिल जाएगी, इसकी आशा थी। मैं अपने घर के नजदीक पहुँच जाऊँ, इसकी चिंता मुझसे ज्यादा मेरे स्टाफ साथियों को थी। दिनेश जी बता रहे थे कि ट्रांसफर की लिस्ट का इंतजार करते  हुए आज पूरी रात आँखों में काट डाली।

शुक्रिया सर, जब इतनी मेहनत मेरे लिए आपने कर ही ली तो थोड़ा यह भी बता दीजिए कि किस गाँव में हुआ मेरा ट्रांसफर?”

मांडल ब्लॉक के किसी आलमास में हुआ है सर।

यह नाम पहली बार सुना था। इस नाम को जुबान पर चढ़ने में पूरा एक सप्ताह लगा। गूगल मेप से देखा तो पता चला कि भीलवाड़ा से लगभग 40 किलोमीटर दूर है। स्कूल और आस-पड़ोस से रोते-धोते विदा होकर रवाना हुआ आलमास के लिए। गाड़ी में एक साथी से बधाई लेते वक्त पता चला कि उसका कोई दोस्त उसी क्षेत्र में कार्यरत है।तुम उनसे पूछना कि स्कूल कैंपस कैसा है?” उसने जब अपने दोस्त से पूछा तो जवाब मिला, “जब स्कूल आओ तब देख लेना अभी जान कर क्या कर लोगे?” उनका कहना ठीक भी था, पर स्कूल को लेकर मेरी दीवानगी कैसी थी, यह तो मैं ही जानता था। बड़ा सा कैंपस होगा, खूबसूरत खेल मैदान होगा, चारों तरफ बाउंड्री होगी, हर विद्यार्थी आगे बढ़ने और पढ़ने में विश्वास करता होगा, ऐसे खयाल पूरे सफर और रात भर चलते रहे। चले भी क्यों नहीं, जो चुनौतियाँ प्रतापगढ़ में देखी थी, अब आगे नहीं देखना चाहता था। सपनों की उधेड़बुन से निकलकर जब पापा के साथ ठीक 9:45 बजे स्कूल पहुँचा तो दरवाजा बंद था। घूमने वाले छोटे गेट से निकलकर एक लड़की बाहर आती दिखी तो अपनी आदत के अनुसार बिना जान पहचान के ही पूछ बैठा,

स्कूल बंद है और तुम भीतर से कैसे रही हो।जवाब मिला, एक्सरसाइज करके रही हूँ।

सुनकर अच्छा लगा। कुछ और पूछता कि इसी दरमियान स्कूल के चपरासी बापू जुझार सिंह जी आए और उन्होंने अभिवादन करके दरवाजा खोला। थोड़े परिचय के बाद आप स्कूल के भीतर ले गए। तुरंत दो कुर्सी निकाल लाए। मैं बैठने की बजाय स्कूल का मुआयना करने लगा। स्कूल को भीतर से देखने के बाद मन थोड़ा खट्टा हो गया। जनम दुखियारे को सुख थोड़े ही नसीब होता है। साठ के दशक की बुनियाद। तो यहाँ पर कोई बड़ी बिल्डिंग थी कोई बढ़िया खेल का मैदान और ही कोई ढंग की बाउंड्री। 12 कक्षाओं को बिठाने के लिए कुल पाँच कमरे। स्कूल के कोने और खाली पड़ी जमीन कांटों और झाड़ियों के लिए रिजर्व थी। गेट बने होने के बावजूद स्कूल कैंपस में पशुओं के चरने के निशान मौजूद थे।

धीरे-धीरे पूरा स्टाफ स्कूल पहुँचा। कुछ साथी जहाँ जिंदादिली से हँसी मजाक के ठहाके लगा रहे थे तो कोई साथी को छेड़ने के इरादे से बहस खड़ी कर रहा था। काम कोई विशेष था नहीं, क्योंकि कोविड-19 चल रहा था। स्कूल में बड़ी कक्षाओं के अतिरिक्त विद्यार्थी नदारद थे। जो स्कूल में थे उनकी संख्या भी बेहद कम। दबाव डालकर स्कूल बुलाने का तो सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि सरकारी आदेश था कि बिना अभिभावक की इजाजत के विद्यार्थी को स्कूल नहीं बुला सकते। कागजी कार्रवाई निपटा कर ज्यादातर साथी छांगे हुए शीशम के पेड़ के इर्द-गिर्द धूप सेकने के साथ-साथ चर्चा में व्यस्त थे। तो ऐसा था आलमास में पहला दिन।

शुरुआती बातचीत से यह जान पाया कि आलमास गाँव के ग्रामीण बहुत भोले और सज्जन है। इनकी सज्जनता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि कोई भी ग्रामीण आपसे बेअदबी में बात नहीं करेगा। अपने काम से काम रखना, दूसरों के काम में दखलंदाजी करना इनकी बहुत बड़ी विशेषता है। मूल रूप से यहाँ के लोग किसान हैं। मानसी नदी के किनारे का यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ है। यहाँ की नदी में हर साल पानी ही जाता है जिससे यहाँ खेतों की सिंचाई में कोई विशेष परेशानी नहीं आती है। कृषि के तौर-तरीके भी ज्यादातर अभी प्राचीन ही है। आज भी यहाँ बैलगाड़ी दिख जाएगी। कुछ-कुछ आधुनिकता की बयार भी पहुँच रही है। यहाँ नौकरी करने के लिए आने वाला शख्स अक्सर यहीं से रिटायर्ड हो कर जाना चाहता है। इसके पीछे भी मुख्य कारण यह है कि गाँव वाले उस कार्मिक को कभी परेशान नहीं करते। स्कूल स्टाफ भी यहाँ ठीक है। आपसी सहयोग और ग्रामीणों की मदद से दो-तीन जगह टीन शेड की व्यवस्था की है। इसके अलावा स्कूल की छोटी-मोटी आधारभूत जरुरतों को पूरा करने के लिए अपनी जेब भी ढीली करता रहता है।

यह तो है एक पक्ष जो प्रारंभिक सूचना के आधार पर था, पर इसका दूसरा पक्ष क्या है जिसकी ओर स्कूल के हालात इशारा कर रहे थे, इसे भी जानना जरूरी समझा। स्टाफ के साथियों से अनौपचारिक वार्ता, विद्यार्थी के साथ घुलमिल कर और गाँव वालों की दहलीज पर जा-जाकर यहाँ के हालात समझाना शुरू किया। कई चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। मेरा मानना है कि प्रतापगढ़ में विद्यार्थियों का बड़ा भाग लापरवाह बहुत है क्योंकि वहाँ के एक बहुत बड़े वर्ग को अभी तक शिक्षा के वास्तविक महत्व का पता नहीं चल पाया है। इसके चलते विद्यार्थी अक्सर स्कूल से नदारद रहते हैं। वहाँ पर पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति का भी वैसा विकास नहीं हो पाया जैसा मैदानी इलाकों में अक्सर पाया जाता है। वहाँ के विद्यार्थियों ने अपनी जरूरतों को भी इतना सीमित कर रखा है कि उनकी ज्यादातर जरूरतें आसपास के प्राकृतिक संसाधनों से पूरी हो जाती है।

यह एक सचाई है कि आलमास क्षेत्र के ज्यादातर विद्यार्थी मुझे निराश दिखें। निराशा इस कदर छाई हुई है कि एक जागरूक नागरिक को डराने के लिए काफी है। प्रतापगढ़ के मुकाबले यहाँ के विद्यार्थी थोड़े खुले हुए हैं। पर प्रश्न पूछने का रिवाज यहाँ पर भी बहुत कम दिखा। अक्सर विद्यार्थी प्रश्न करते ही नहीं है और जो करते हैं वे भी काफी घबराहट के साथ। क्रॉस क्वेश्चन का तो सवाल ही नहीं उठता। एक तरफा संवाद यहाँ की कक्षाओं की भी विशेषता हैं। ज्यादा सवाल जवाब करो तो वही निराशा भरा जवाब मिलता है,

सर, पढ़ लिख माने काइ करनो। मान तो विमल को थेलो उचा गुजरात जाणो है।

पढ़ गए तो ज़िंदाबाद , नहीं तो अहमदाबाद।

इस निराशा की गंभीरता का पता इसी से चल जाता है कि आजादी के इतने वर्षों के बावजूद आलमास गाँव में जिस वक्त मैंने जॉइन किया तब तक एक भी सरकारी कर्मचारी गाँव का नहीं था। जहाँ के विद्यार्थी आठवीं पास करने के बाद ही गुजरात जाने का सपना देखने लग जाते हो तो भला शिक्षा को एक बेहतर नागरिक बनाने का माध्यम कैसे समझा जाएगा? हमारे समाज को यह समझने की जरूरत है कि शिक्षा का उद्देश्य केवल रोजगार देना भर नहीं है, बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण  विकास करना है। जब शिक्षा को केवल रोजगार तक ही सीमित कर दिया जाता है तब शिक्षा के उद्देश्य की वहीं मौत हो जाती है।

पर फिर भी हम जो चाहे माने समाज तो यही मानता है कि पढ़ लिख कर अच्छा रोजगार मिल जाए, इसलिए पढ़ो। और चूंकि नौकरियाँ तो है नहीं, इसीलिए पढ़ कर क्या करोगे? तो नारा लगाओ-

अहमदाबाद, ज़िंदाबाद।

विमल का थेला, ज़िंदाबाद।

 अजीम प्रेमजी फाउंडेशन से जुड़े मोहम्मद उमर ने हमारी एक अनौपचारिक बातचीत में इसी नारे का उल्लेख किया था और बताया कि हमारे क्षेत्र के विद्यार्थी भी यही नारा लगाते हैं। यानी हर जगह शिक्षा और रोजगार के बीच के केवल इसी संबंध को मान्यता मिली हुई है। इसके सामने शिक्षा के सारे गुण आज भी समाज के एक बड़े भाग को बकवास नजर आते हैं।

यह बताता चलू कि यहाँ का बालाजी चौराहा  क्षेत्र का जंक्शन है जो केरिया, काशीराम जी खेड़ी, आलमास को जोड़ता है। यहाँ जिला मुख्यालय से जोड़ने वाली केवल दो बसें चलती हैं जो लाछुड़ा से शुरू होकर आस-पास के गाँवों से गुजरते हुए जिला मुख्यालय तक जाती है। एक बस कंचन कपड़ा फैक्ट्री की आती है जो मजदूरों को ढोकर मांडल ले जाती है। वहीं चार अन्य बसें जो रोज इस क्षेत्र से होकर गुजरती है, वे 12वीं पास विद्यार्थियों को भीलवाड़ा कॉलेज नहीं, बल्कि गुजरात ले जाती है। ज्यादातर कुमावत समाज के नौजवान कंधे जो गाँव की सूरत बदलने की ताकत रखते हैं, वे इन बसों के मुसाफिर आठवीं  क्लास से ही हो जाते हैं। पानी पुरी, गन्ने की चरखी, आइसक्रीम का ढेला, किराने की दुकान या फिर कबाड़ी का धंधा इनकी जवानी को अपनी तरफ खींचता है। 12वीं तक जो विद्यार्थी गुजरात, खेती और पढ़ाई में बटा हुआ रहता है, वह इसके बाद गुजरातवासी बन जाता है और पीछे छोड़ जाता है बूढ़े माँ-बाप।

दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंदु है शिक्षा के वास्तविक बिंदु को नासमझ पाने के कारण क्षेत्र में फैला रूढ़िवाद। इस रूढ़िवादिता का सबसे बड़ी शिकार बनती है यहाँ की लड़कियाँ। कम उम्र में शादी हो जाना प्रतापगढ़ की तरह यहाँ पर भी आम बात है। शादी के तुरंत बाद ससुराल, घर और शिक्षण संस्थान के बीच फँसी लड़कियों को अपनी पढ़ाई की कुर्बानी देनी पड़ती है। लड़कियाँ यहाँ पर बहुत कम अनुपस्थित रहती है। इसका मुख्य कारण लड़कियाँ ही बताती है, “कम से कम सीनियर तक तो पढ़ ले, इसी बहाने थोड़ी अपनी जिंदगी भी जी ले।अनौपचारिक वार्ताओं में वे फूट पड़ती है,

सर, माने पढावे वो। हारा वाळा (ससुराल वाले) ले जाबा आबा वाळा।

यूनिफार्म की चुन्नी की कोर से आँसू पोंछते क्षितीज की ओर देखने लग जाती है। घोर निराशा से भरे ऐसे शब्द किसी तीर की तरह कलेजे में चुभ जाते हैं। ऐसे वाक्य एक शिक्षक के लिए मरण वाक्य के समान होते हैं, पर क्या करें, मरा हुआ शिक्षक विद्यार्थियों की समस्याएँ थोड़े ही समझ पाता है। वह थोड़ी देर उस छात्रा की नज़र का पीछा करता है पर उसकी नज़र इस अनिश्चित अंतहीन दूरी को देखकर घबरा जाती है। तत्काल वह अपनी नज़र फेर लेता है। और फेरे भी क्यों नहीं, उसकी खुद की परेशानियाँ भी तो बहुत है।

खेल के मैदान भी उनके लिए स्कूल तक ही है, वह भी कई तरह की सामाजिक काट-छाँट के बाद। टूर्नामेंट के खिलाड़ी के रूप में दूसरे गाँव में जाकर खेलना तो यहाँ असंभव सा है। यह बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरे आने से पूर्व कभी भी कोई महिला टीम बाहर खेलने के लिए नहीं गई। सह-शैक्षणिक गतिविधियाँ स्काउट-गाइड, एन सी सी, एस पी सी जैसे शब्द कभी सुनें ही नहीं, चाहें वो छात्र हो या छात्रा। एन एस एस भी कागजों के बोझ नीचे दबी कसमसाती कभी-कभी अपने होने का अहसास कराती रहती है।

घर से बाहर भी लड़कियाँ पढ़ने जा सकती है।यह तर्क और इससे जुड़े तथ्य अभी भी ज्यादातर गाँव वाले स्वीकार नहीं कर पाए हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि जो शादीशुदा नहीं हैवे घर पर रहकर प्राइवेट पढ़ते हुए घर और खेती के काम में हाथ बटांती है। इन सबके बीच अगर कोईऊँच-नीच' हो गई तो पूरे क्षेत्र की लड़कियों की आजादी पर ताले पड़ जाते है, भले ही गलती उनकी हो। कॉलेज की नियमित छात्राओं की संख्या इकाई के आँकड़े तक सीमित है। पुत्र मोह यहाँ बहुत है। इस क्षेत्र में कई परिवार ऐसे हैं जो बेटे की आस में 5-6 संताने पाल रहे हैं। चिंता, गणी, रामगणी, धापु जैसे लड़कियों के नामों में छुपे मनोविज्ञान और इतिहास से इसकी पुष्टि कर सकते हैं।

अशिक्षा रूढ़िवादिता के साथ अंधविश्वास भी बढ़ाती है, इस तथ्य से आलमास भी अछुता नहीं है। यहाँ जीमणे बहुत होते हैं। खर्चीली शादियाँ, आडंबर, मृत्यु भोज और अंधविश्वास यहाँ पूरे पाँव जमाए हुए हैं। पक्की सड़कें और कुछ जगह नालियाँ होने के बावजूद कई बार सड़कें कीचड़ से लथपथ ही दिखती हैं जो बिमारियों को निमंत्रण देती है। हारी बीमारी के समय यहाँ टोने-टोटके का रिवाज अभी भी ज़िंदा है। इन सब के चलते ग्रामीण क़र्ज़ के चक्र में भी फँस जाते हैं। इस क़र्ज़ को चुकाने के लिए स्वाभाविक है एक ही रास्ता दिखता है, वह है गुजरात।

अब ऐसे समाज में भला राजनीतिक जागरूकता कहाँ से आएगी। आलमास गाँव पंचायत हेड क्वार्टर होने के बावजूद जहाँ तक मुझे जानकारी है, आजादी के बाद से अब तक कोई भी सरपंच इस गाँव से नहीं बना है। सरपंच सीट पर अक्सर नजदीक के हिसनीया गाँव के नेता ही बैठते आए हैं। आलमास, काशीराम जी की खेड़ी, किशनपुरा, सोदानपुरा, गोवर्धनपुर हिसनीया राजस्व ग्राम के जोड़ से बनी इस पंचायत में हिसनीया गाँव ही शैक्षिक, आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से आगे हैं। मैं इसका मुख्य कारण शिक्षा के प्रति जागरूकता को मानूंगा। किसी भी क्षेत्र में शिक्षा के बिना सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक चेतना नहीं सकती। इस सच्चाई को हिसनीया वाले अच्छे से जान गए हैं। उम्मीद है इस पंचायत के अन्य गाँव भी इस हकीकत को जल्द ही समझेंगे।

इस सारी परिस्थिति को समझने के बाद मन में एक प्रश्न उठता है कि समाज को इस माहौल या निराशा से निकालने का जिम्मा किस के माथे हैं? हर व्यक्ति के अपने अपने तर्क और अपने-अपने जवाब हो सकते हैं। आपकी इस बात को ध्यान में रखकर मैं अपना पक्ष रख रहा हूँ। राज्य पाठ्यचर्या की रूपरेखा (SCF) बनाने की प्रक्रिया के दरमियान आर एस सी आर टी उदयपुर में मैंने यह जाना कि हमारे विद्यालय का माहौल जैसा होगा, वैसा ही हमारा समाज बनेगा। गाँव के लोग अगर जागरूक नहीं है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी स्कूल की है। शिक्षा में वैज्ञानिक चेतना के बिंदु होने बावजूद अगर समाज में अंधविश्वास नहीं मिट रहा है तो उन कारणों की तलाश करनी होगी जो स्कूल के भीतर शिक्षक के दोहरे व्यवहार में होते हैं। जातीय गैर बराबरी के साथ-साथ लैंगिक असमानता समाज से नहीं मिट रही तो इसके पीछे कहीं कहीं कक्षा और स्कूलों के वातावरण को समता की कसौटी पर फिर से परखने की जरूरत है। रोजगार के लिए पलायन करना स्कूल की प्रासंगिकता पर ही सवाल खड़े करता है। गाँव वाले अपने अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं है और वे भोले होकर राजनीतिक चेतना से 'रिते' है तो इसका मतलब यह निकाला जाना चाहिए कि विद्यार्थियों के राजनीतिक ज्ञान का मूल्याँकन केवल कक्षा पास करने के लिए किया जा रहा है। समाज अगर अपने अधिकारों, कलाओं को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहा है तो भाषा साहित्य की कक्षा में कहीं कहीं खराबी रह गई है। विद्यार्थी अगर दब्बू बन रहे हैं तो इसके पीछे का कारण अनुशासन पालन का एक तरफा होना है। यानी स्कूलों के भीतर अनुशासन के सारे नियम प्रायः विद्यार्थियों के लिए होते हैं। इस तथाकथित अनुशासन का पालन बड़ी कड़ाई से कराया जाता है। क्या शिक्षक भी अनुशासन के नियमों का पालन विद्यार्थी की तरह करते हैं? इस प्रश्न पर अलग-अलग राय हो सकती है। कड़े और एकतरफा अनुशासन के नियम से डरे विद्यार्थी समाज के भीतर बड़ों द्वारा किए जाने वाले गलत कार्यों का विरोध इसी वजह से नहीं कर पा रहे हैं। जब स्कूलों में दोहरे मापदंड को मौन स्वीकृति मिलेगी तो स्कूल से निकला नागरिक दोहरा व्यवहार करेगा।

समाज के एक बहुत बड़े भाग को आईना तभी तक पसंद आता है जब तक उसकी सुंदरता को वह दिखाता रहे। पर जब व्यक्ति की कुरूपता को वह दिखाने का प्रयास करता है तो लोग सच्चाई को स्वीकार करने के बजाए आईने को दोष देने लगते हैं। कई बार इससे नजरें भी चुराता है। स्वस्थ आलोचना का दायरा लगातार सिमट रहा है। वैसे भी आलोचना शब्द को ही हमारा समाज अभी तक नहीं समझ पाया है। ऐसे में  आलोचना के उद्देश्य तक पहुँचने के लिए तो अभी बहुत लंबा सफर तय करना है।

यह संस्मरण किसी को खुश नहीं कर पाएगा। पर मैं दरबारी बाजा नहीं हूँ कि दरबार को खुश करने के लिए बजता रहूँ। आसपास की जड़ता को चुनौती देना मुर्दा होने की निशानी होती है और मैं अभी मरना नहीं चाहता।

इस संस्मरण का अंत उदय प्रकाश की "मारना" कविता के साथ कर रहा हूँ -


आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं सोचता
 
आदमी
मरने के बाद
कुछ नहीं बोलता.
 
कुछ नहीं सोचने
और कुछ नहीं बोलने पर
आदमी
मर जाता है।

 

डॉ. मोहम्मद हुसैन डायर
व्याख्याता हिंदी, रा. . मा. वि, अलमास, ब्लॉक- मांडल, जिला- भीलवाड़ा
dayerkgn@gmail.com, 9887843273

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

22 टिप्पणियाँ

  1. ऐसे ही अपने अनुभव और छोटी छोटी उपलब्धियों को भी उजागर करते रहें। अगली किस्त के इंतजार में

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  2. विश्वगुरु के रूप में बढ़ते kadam

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  3. नीलम कटलाना
    प्रयास करते रहे,आपके प्रयास एक दिन जरूर रंग लाएंगे,आपको देखकर मैं भी उत्साहित हो जाती हूं.....प्रयास ही आपका पुरुस्कार है,सफलता गौण और मंजिल बहाना......चरेवेति....चरेविती

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  4. श्रीमान आपकी अध्यापकी का अनुभव बहुत ही उमदा लगा, और आपके द्ववारा साँझा की गई एक एक लाइन सच्चियों से भरी हुई हैं आलमास पंचायत आज भी बहुत पीछे हैं, इसे किस तरह बेहतर किया जा सकता हैं इस तथ्य पर भी टिप्पणी कीजिये जिस पर हम युवाओ की दृष्टि पहुँच सके |
    प्रभु लाल प्रजापत
    (BA-MA,B.ED,PGDCA)

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    1. शुक्रिया आपका
      आलमास के संबंध में यह पहला भाग है। अभी आगे कई और संस्मरण लिखने बाकी है जिनमें इस गांव की समस्याओं की चर्चा के साथ-साथ बेहतर बनाने पर भी बातें की जाएगी इसके अलावा मुझसे जो कुछ भी बन पड़ रहा है वह कार्य जिस तरह से कर रहा हूं उसकी चर्चा भी होगी

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  5. आपका यह सफर बहुत सफल होने की शुभकामनाएं हम करते हैं कि आप ऐसे काम करते रहें आगे भी सरकारी स्कूल के अंदर आप जोर जोर से काम करते रहे और संघर्ष करते रहे ओ नई नई चुनौतियों का सामना करते रहें चुनौतियों का सामना करना जीवन का संघर्ष है

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  6. डायर साहब आप की तो बात ही निराली है आप जहां जाते हैं वहां नए-नए प्रयोग करते हैं आपका प्रयास बहुत अच्छा है हम प्रतापगढ़ में आपकी कमी महसूस करते हैं

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    1. शुक्रिया आपका
      एक शिक्षक का धर्म यही है कि वह नित नए प्रयोग करता रहे और वही करने का प्रयास कर रहा हूं। प्रतापगढ़ मेरे व्यक्तित्व के भीतर तक बस गया।

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  7. इस संस्मरण के माध्यम से आलमास के यथार्थ से रूबरू हुए, लेकिन यहाँ तक रुकजाना खलता हैं। जो सुधार यहाँ आवश्यक हैं उस ओर भी ध्यान खींचना चाहिए।
    शैली उम्दा हैं, इससे भी अच्छा प्रयास किया जा सकता है।
    किसी जगह भाषा की सहजता के बीच संबंध छूटा हुआ लगता हैं। एक जगह लिखा हैं "एक बस कंचन कपड़ा फैक्ट्री की आती है जो मजदूरों को ढोकर मांडल ले जाती है।" ये मजदूर भी सामाजिक प्राणी हैं, ढोया सामान जाता हैं। फिर भी अच्छा बन पड़ा हैं। शुभकामनाएँ।

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    1. एक ईमानदार आलोचनात्मक टिप्पणी की है आपने।
      शुक्रिया मेरी कमियों की ओर इशारा करने के लिए। अलमास के संबंध में यह पहला संस्मरण है। आगे के संस्मरण में सुधार की गुंजाइश वाले बिंदुओं पर चर्चा करने के साथ-साथ यहां किए जा रहे नवाचार की चर्चा भी की जाने की कोशिश होगी जैसा कि मनोहर गढ़ प्रयोगशाला से संबंधित संस्मरणों में हुआ करती थी।
      भाषा को और बेहतर बनाने का प्रयास करने की कोशिश करूंगा। मजदूरों को ढोकर ले जाने वाली पंक्ति काफी गंभीरता से विचार करने के बाद लिखी थीं। आपका नजरिया अलग हो सकता है पर मैं इस पर कायम हूं। कभी मौका मिला तो आपके साथ पूंजी, मजदूर और सामान पर चर्चा कर अपने ज्ञान में विस्तार करने का प्रयास करूंगा

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  8. यह संस्मरण गांव एवं विद्यालय की वास्तविक स्थिति का चित्रण करता है जिसका साक्षी मैं स्वयं हूं। संस्मरण में कुछ जगह सहज एवं विनम्र शब्दों का प्रयोग करें ताकि संस्मरण और प्रभावशाली बनाए जा सके। नकारात्मकता के साथ-साथ सकारात्मकता का भी संदेश प्रदान करें। संस्मरण हृदय को प्रफुल्लित करने वाला एवं समाज की वास्तविक समस्याओं से अवगत कराने वाला है। डायर सर जी के इतना व्यस्त होते हुए भी अपनी बखूबी से जिम्मेदारियां निभा रहे हैं।धन्यवाद
    प्रकाश खोईवाल

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    1. ईमानदार टिप्पणी के लिए शुक्रिया। भाषा शैली और सुधार करने का प्रयास करूंगा। जहां तक सकारात्मकता का प्रश्न है मुझसे शुतुरमुर्गी सकारात्मक धारण नहीं की जाती। जो देख रहा हूं वही लिख रहा हूं और मैं इसमें कोई समझौता नहीं करना चाहता।

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  9. डॉ. हेमंत कुमारजुलाई 20, 2023 10:07 pm

    स्कूल ही नहीं डायरी में समूचे इलाके के जनजीवन का वस्तुगत अंकन है।कम उम्र में ब्याही लड़कियों की पीड़ा वाला प्रसंग काफी मार्मिक बन पड़ा है।शिक्षा का मकसद महज रोजगार मानने का सिद्धांत सर्वमान्य हो गया है।आपका काम और लेखन दोनों महत्त्वपूर्ण हैं।

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