संस्मरण : च्याँऊ म्याँऊ च्युप / नीलू शेखावत

च्याँऊ म्याँऊ च्युप
नीलू शेखावत

        गर्मी और आंधी का मेळ केर-सांगरी का सा मेळ है। दोनों में खाटे खीचड़े-सी पटती है, छाछ राबड़ी-सी बनती है और घी लापसी सी-घुटती है। ठीक ठाक गर्मी पड़ी नहीं कि हवाएँ सुंसाट मचाने लगती हैं, आंधी बावळी होकर दौड़ती है मानो किसी ने उसके पीछे हीड़का हुआ कुत्ता छोड़ दिया हो। हड़डहड़ड करती हुई कभी पेड़ों से टकराती है तो कभी पर्वतों से। कभी जीव-जिनावरों के आळे फंफेड़ती है तो कभी गरीब-गुरबों के छान-झूंपड़े। ऐसी बेहया जात हमने कहीं देखी जो किसी का आशियाना छीनकर खड़-खड़ हँसती हो। पेड़ों पर गोटकड़ी मचकाने का जाने कितना शौक है इसे। अल्ड-अल्ड टूटते पेड़ों के डाळे इसके अट्टहास के साक्षी हैं। बावजूद इसके वर्तमान आंधी हमारे बचपन की आंधी से काफी सभ्य है।

तब आंधी से पहले सुंसाड़ा मच जाता था। इधर सिंझ्या के दिया बत्ती की टेम होती उधर आंधी के आफरने की। काळी-पीळी, आटां-पाटां। चढ़ते समय बिल्ली के पदचापों की तरह चुपचाप चढ़ती। एक बार पूरे आसमान को धूल की काळी पोटों में बांध लेने के बाद सूं-सूं करती हुई हल्के-हल्के ऊपर चढ़ती किंतु अगले आधे एक मिनट में ऐसा तहलका मचाती कि सब ओर अफरा-तफरी के अतिरिक्त कुछ दिखाई देता।

वैसे यह मंजर देखने के लिए लाइट तो रहती ही थी। आंधी सुंसाई नहीं कि लाइट छू। चिमनी जलाना तो सबसे बड़ी चुनौती। खाना बनाती स्त्रियों के कूण्डे में आटा-मिट्टी स्नेह मिलन कर रहे हैं, तेज हवा के साथ चूल्हे से उड़ती चिंगारियाँ अंधेरे में लाल-लाल आतिश-सी उड़ती है। कोई दौड़कर तगारी-टवड़ों से  जलता चूल्हा ढंक रहा है तो कोई आटा और रोटियाँ लेकर अंदर की ओर भागता है। किसीका ध्यान तणी पर सूखे कपड़ों पर जाता है तो किसीका खुले खिड़की दरवाजों पर। किसीकी पाडी चिमक कर भाग रही है तो किसीका बछड़ा। धूळ और धकरोळ के बीच सब ओर से बस एक ही शोर, अरे भागो, भागो, भागो। कुछ आम दृश्य -

हररररररर्र
बा छान उड़ी रे छान
जेवड़ो कठे जेवड़ो 
 
            फरररररररर्र
अरे चारो उडगो रे चारो 
मेण्यो नाखो मेण्यो
 
            हरररररररर्र
अरे झूंपो बळगो झूंपो
रेत नाखो रेत 

 

किसी दिन यदि इसने अपना टाइम टेबल बदला और शाम के बजाय आधी रात को चुन लिया तो घर से बाहर सोए लोगों को अगले दिन अपने ऊपर रेत के टीले उगे मिलेंगे। 

रात में आंधी दिन में लू। आदमी जाए तो जाए कहाँदोपहर की तपी हुई बालू में पैर रख दो तो भड़ीता बन जाए उसका। दिन भर बळती लाय में सिलगते रहो और नीम, खेजड़ी के नीचे माचा डालकर बीजणा हिलाते रहो।

ठंडे पानी की जमकर किल्लत, छाछ राबड़ी की भारी खपत।  लू के लपेटों से आकड़े का दूध तक सूख जाता है फिर हांडी के पानी और गाय-भैंसों के दूध की कौन बिसातभैंसें तो फिर भी नाडी जोहड़े में स्विमिंग सेशन कर लेती हैं, किंतु बाकी जिनावरों की शामत जाती है। कुत्ते गीली मिट्टी में एक हाथ ऊंडी घुरी बनाकर, हाथ भर लंबी जीभ निकालकर 'हम्पू हम्पू' करते हुए लार गिराते हैं, तब भी यह गर्मी बेचारे का पीछा नहीं छोड़ती।

गर्मी तो बकरी को भी लगती है, मगर बंवळ के पातड़े खा-खा कर इतनी बावळी हो जाती है कि तिकुणी 'नारेली' से मुँह पर बलिश्त भर के कान लटकाए 'डफाचूक' हुई फिरती है। वैसे बकरी जाड़ को नहीं रोक सकती चाहे 'कलोपणा' हो जाए। उसे बांठका-बोझका किए बगैर 'जख' नहीं पड़ती। 

मुँह उठाकर चलना तो लल्डी ने भी सीखा। हालांकि बिचारी मुँह उठाए भी तो किस मुँह से उठाए, गर्मियों में उसके डोळ का जो बेडोळ होता है, उसे या तो लल्डी जानती है या मेरे जैसे ठाले बैठे लोग। गोल गुलगले जैसी लल्डी कतरकर केकड़ा बना दी जाती है। 

गर्मियों में बच्चें और भेड़ें एक जात के हो जाते हैं- गोळ मोडी चकलोडी। बालों के अवरोध के अभाव में श्वेद बिंदुओं की धार कनपट्टी से सीधी प्रवाहित होती है। पसीना पोंछने के लिए बाँह कटी बंडी को इतना खींचा जाता है कि बेचारी घुटनों पर जाती है। बकरियों की तरह बच्चों को भी गर्मी नहीं लगती। लगती है मगर उन्हें पता नहीं चलता इसलिए बड़ों को बार-बार बताना पड़ता है -

तावड़ो लाग ज्यासी, तावड़ो लाग ज्यासी, तावड़ो लाग ज्यासी।

उन्हें कौन समझाए कि खेजड़ी के खोखे गर्मी में ही झड़ते हैं, मोरों की पाँखें गर्मी में ही खिरती है, अमरूद के बोर और नीम की निमझर गर्मी में ही फूलती है। आपातकाल ऐसा कि घर से बाहर पैर रखने दे घरवाले। घर के दरवाजे पर बड़े-बूढ़े तोंद उघाड़े माचों पर पसरे रहते हैं, कोई निकले तो निकले कैसे?

कड़ी निगरानी में कभी-कभार तो बिल्ली के भाग के छींके टूट सकते हैं, किंतु हर बार ऐसा संभव नहीं। यही वह समय है जब बालक दुस्साहसी बनते हैं। किसीके भीतर 'चरण धरत शंका करत, भावत नींद शोर'- वाला चोर जागता है, स्लो मोशन में बिना शोर किए पूरे परिवार को चकमा देकर फुर्र होने वाली चौर्य कला में निपुणता इसी पाबंदी के दौरान प्राप्त करते हैं। बड़ी-बड़ी दीवारों पर चढ़ने और फांदने वाली सेंधमारी भी यहीं से शुरू होती है, हाथों में चप्पलें पहनकर बेतहाशा दौड़ने वाले एथलीट इसी उम्र और परिस्थिति में बनते हैं। ऊँचे पेड़ों पर चढ़ना और पतली डालियों पर सरपट दौड़ना, लंबूटना खतरों के खिलाड़ी बनने की पूर्व तैयारी ही होती है। कुल मिलाकर गर्मियों में हर बालक 'खापरिया' बन जाता है या कह लें परिस्थितियों से मजबूर माड्याणी बन जाना पड़ता है।

यह खापरिया खाप जिस ओर मुड़ती है, ज्ञान के द्वार खोलती नहीं, तोड़कर रख देती है। पेड़ों की संगत करके वनस्पति विज्ञान के बड़े-बड़े रहस्य इनकी जेब में रहने लगे। सफेदे को सूंघकर बता दिया कि विक्स बनाना कितना आसान है।

"सफेदे को काजल-सा महीन पीस लो, उसमें मोम मिला लो और डब्बी में भर लो। बन गई विक्स! सफेदे के दो पत्तों को जोड़कर जोरदार 'पटपटी' बनती है। भायले ठीक ठाक गाते हों तो बैठकर पटपटी की संगत दो जिसका नांव!

नीम की निमोळी आम का ही लघु रूप है, वो तो सूवटे इनको पकने नहीं देते अन्यथा नीम पर आम लगते! बोरड़ी (झाड़ी) के बोर सुखाकर पीस लो तो बोरकुट लेने दुकान की ओर भागना पड़े और ही घरवालों से पैसे मांगने पर पटीड़ पड़े। प्राणी शास्त्र का अध्ययन ऐसा कि आसपास रहने वाले पक्षियों की भाषा और मनोविज्ञान की सटीक व्याख्या। लाल कमेड़ी और धोळी कमेड़ी सगी बहनें हैं। धोळी भगवान का नाम लेती है। उसकी बोली नहीं सुनी?

क्या कहती है?

क्या कहती है- केसो तू माधो तू, केसो तू माधो तू (कुक्कू कूकुक्कू कू)

लाल वाली कहती है- काम कर ले काम, काम कर ले काम (कुटड़ कुटड़ कू, कुटड़ कुटड़ कू )

दोनों में बनती नहीं। लाल वाली गुस्सा कर करके लाल ही हो गई।

लाल वाली चाय भी पीती है इसलिए छोटी और काळूंटी रह गई।

मोल्डी (मोरनी) टुग टुग करती ढेलरियों (बच्चों) को कहाँ ले जा रही है?

भगवान के पास! पँखों में रंग भरवाने।

मखमल सावन की डोकरी की खाल से बनता है।"

किंतु कई बार बेचारे ये विद्वान घरवालों के धक्के चढ़ जाते हैं। जोरदार सुंतायी! दो चार दिन सुंतायी का असर होता है। कुछ पर होता,कुछ पर नहीं होता। जिन पर नहीं होता उनके लिए तो 'बे ही कुंवाड़िया बे ही बेंसा' मगर जिन पर होता वे चारदीवारी के भीतर ही भीतर घरवालों को छकाते हैं।

हर समय एक ही रट- प्यास लगी है।

हर एक घंटे में एक ही बातबहुत भूख लगी है, कुछ खाना है। पानी की हांडियाँ नीचे उतर आती है परिंडे से। 

"लो लिकळो जितना लिकळना है"- बड़े फुफकारते हैं।

शाम होने तक दही को जावणी खाली, राबड़ी की हांडी डम-डम और छाछ की बिलोवणी में 'हळदी हाट्ंया' बोलने लगेगी। सूर्य की अग्नि से बेफिक्र होकर नंगे पैर यहाँ वहाँ भटकने वाले दुर्धर्ष योद्धा जठर अग्नि से त्रस्त। घरवाले इनसे और गर्मी से दो बाजू त्रस्त। 

घरवाले पसीजते नहीं पर बैसाख कभी-कभी पसीजकर बाजरी बोने जितना तो नहीं पर मिट्टी के डगळे फूटने लायक छांटा-छिड़का कर देता है। वैसे बैसाख की बाजरी और पहली पोत के बेटे किसकी किस्मत में होते हैं? (कहावत)

अब अंदर बैठकर सिर्फ एक ही खेल खेला जा सकता है - ढूला-ढूली (गुड्डा-गुड्डी)

पूरा का पूरा अभिनय का खेल। वस्तुतः अभिनय हर मनुष्य के जाये में बीज रूप में विद्यमान है। बिन बताए, समझाए कितना सुंदर अभिनय कर लेता है और जीवन भर कर लेता है। फर्क सिर्फ इतना है कि बचपन में जो प्रकट रूप में होता है, वह समझदारी के साथ छद्म होता जाता है।

माँ बनकर रोटी का प्रबंध करना कैसे सीख लेते हैं!

हमें इस अभिनय के लिए चारा-घर में जगह मिलती जहाँ किसिम-किसिम का चारा रहता। ल्याळ्या (गुंवार के डंठलों का चारा) को छोड़कर सब चारे हमारे काम के होते।  हम वहीं से अपने संसाधन जुटाते।

पाले (बेर की झाड़ी का चाराकी रोटी, लूंग (खेजड़ी के पत्तों का चारा) के बिस्कुट, गुणे (मोठ मूंग के डंठल का चारा) की नमकीन,फळगटी (गुंवार की फलियों का चारा) की चिप्स और कुत्तर की डबल रोटी बनाते। घर की औरतों का अभिनय करते हुए ओढनी से गज भर का घूंघट निकालते। यह बात अलग है कि उस ओढनी की पटली निक्कर में और पल्ला बांडी बाँह वाली बनियान में खोंसते। जांघों तक पैर भले निरावरण रहे, घूंघट छाती तक खींच लेते। अकेले खेलते तब भी 'छिस्स-छिस्स' करके होठों में ही बुदबुदाते। 

लोहा पिघलाती गर्मी में चारे की अंधेर कोठरी में तपन से सीजते समय किसी बड़े का दिल पिघला होगा-

" बाहर निकलो! कीड़ा-कांटा खा गया तो लेने के देने पड़ जायेंगे।"

 बाल संसार में बड़ों का फिर से दखल और उस कोठरी से भी बेदखली।

.      "बाहर खेलो तिबारे में"- उनका आदेश हुआ।

तिबारों तक डेरा आते-आते आधा जेठ निकल जाता। जेठ सारी बात को नेठ। जेठ जी की गर्मी को ठंडे छींटे देने 'लोरें' (छोटी छोटी सूखी बदलियाँ) समदर की तरफ तेजी से दौड़तीं। इतनी तेज मानों साँझ में आए मेहमानों को घर छोड़कर पनिहारी घड़ा लेकर निकली हो और उसका सारा ध्यान घर की ओर हो।

लोर बाई ! गोर बाई!
घड़ला ऊपर डोर बाई
समदा माँही डोर उसारो 
धरती माता मरे तिसाई 

महीने भर से डांग-पटेलाई के बल पर जमी हुई आंधी बारिश को कैसे टिकने दे? ज्यों ही जल भरी घटाएँ हाथ से हाथ पकड़कर घेरा बनाए, आंधी घाट में गळेटे की तरह धमके। बिल्ली के झपट्टे से बिखरे कबूतर के पंखों की तरह बिचारी बादळी गुड़ती-पड़ती-आखड़ती आखिर छिन्न भिन्न हो जाती है। रोज बादल आए पर आंधी की फटकार से ऊपर से ऊपर निकल जाए। मोर खूब बोले पर सुने कौन? वैसे भी मोर के तो बोलना हाथ है, बरसना तो मेह के हाथ है!

सब माथे हाथ देकर बुलाए, धरती का हिया खन्नाए बादल का कलेजा पसीजे मगर बरसे कैसे

'बिल्ली बाजारां जावे तो घणी पण कुत्ता जाबा कोनी देवे।'

यह बात हुई जेठ की किंतु जेठ जी के बाप लगते हैं 'षाढ़' जी। निशीथकाल जाते-जाते जैसे भूत-भैरवों का प्रभाव घटने लगता है वैसे ही जेठ जी के दम पर कूदने वाले आंधी बाई ढीले पड़ने लगते हैं।

आसमान की आँखों में ललाई गई है। अंबर रातो मेह मातो। 

आंधी ज्यों ही सिर उठाती है,बिजली की कड़कड़ाहट और मेघों की गड़गड़ाहट से थरथराने लगती है। यह जितने वेग से मिट्टी उड़ाए, उससे दुगुने बल से षाढ की बरखा उसे जमा दे। 

अब आंधी के दिन लद गए। पेड़ों की धूल धुल गई। कच्चा हरा रंग निखर गया। गर्मियों में धूल में लोटकर नहाने वाली चिड़कलियाँ अब पानी के खड्डों में पंख फुरफुरा रही हैं। ताप से तपते जीव-जिनावर सुख की साँस लेते हैं। सबके दिन फिरते हैं! पारा उतरता है एक रोज, पृथ्वी जैसे आग के गोले का भी।

ताल, ताली, तलैया सब ओर पानी पानी पानी।

गर्मी में बीजणा हिलाने वाले हाथों में अब फावड़े हिल रहे हैं। कांधों पर जेळी रखे लोग खेतों के मार्ग आबाद कर रहे होते हैं। आंधी से उड़ी फाहियाँ फिर से बाड़ों पर छप रही होती है। यही वह समय है जब घर के बड़े लोग बच्चों की कुचरनी छोड़कर 'सींव' कुचरनी शुरू करते हैं। 

कपड़े के ढूला-ढूली के सहारे उन्हें कुछ दिन स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है। वही ढूला-ढूली जिन्हें गर्मी के दिनों में ठाले हाथों से बड़े जतन और लाड-कोड से बनाया गया था। सुंदर-सुंदर रंग-बिरंगे कपड़ों की कतरन से  ढूली के बेसों का निर्माण हुआ तो सफेद कपड़ों से ढूले के बागे का। लाल चिरम चिरमी से मुख मंडल बना तो गले में हँसली के लिए सप्तवर्णी धूप-छाँही चमकती आभा वाले भींगे के खोल का उपयोग। सुराहीदार गर्दन बनाने के लिए धागों का लंबा कसाव। बित्ते-बित्ते भर की आकृतियाँ मगर सृष्टि भर का सौंदर्य समेटे हुए। झिरमिर बिरखा झीणी बायरी संग सब कुछ बढ़िया चल रहा होता है कि नाचती में कूदती आती है- गुड्डी बोळावणी ग्यारस। 

अपने सुख का त्याग अपने हाथ से ही करो तो दुःख भासेगा।  तुमने गीली मिट्टी से घर बनाया तो तुम्हीं लात मारकर उसे फोड़ो और फिर आनंदित होकर गाओ-

म्हे ही खेल्या म्हे ही भिजाण्या 
म्हे ही खेल्या म्हे ही भिजाण्या 

ढूला-ढूली का तिरोहन भी अपने हाथों से ही करना होता है। सुखद सर्जन का विसर्जन भी सुखद हो, इसलिए ढूला-ढूली को सिंणगारा जाता है। भाते के लिए गेंहू की घूघरी बनाई जाती है और छोटी-छोटी पोटलियों में बांधी जाती है। मूंजे  के चिकने डोकों को दोफाड़ करके सांकेतिक नाव बनाई जाती है। युगल का सामान और भाता बांधकर तालाब की ओर प्रस्थान। तालाब नहीं तो खेत में भरी ताली भी काफी है। ढूला-ढूली नौका विहार करते हुए जल समाधि ले रहे हैं और बच्चें तालियाँ बजा कर गा रहे हैं-

ढूली मरगी ढूलो रोवे
च्याँऊ म्याँऊ च्युप 
ढूली मरगी ढूलो रोवे
च्याँऊ म्याँऊ च्युप 

खैर! ढूली के लिए तो बेचारा ढूला ही रोएगा, बाकि सब तो गुड़-घूघरी खाकर अपने काम में लगेंगे, बारिश जो हो गई है।


नीलू शेखावत
शोधार्थी, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर

अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

5 टिप्पणियाँ

  1. डॉ. हेमंत कुमारजुलाई 17, 2023 7:17 am

    अगर बिज्जी की आत्मा किसी में उगी है तो इस संस्मरणकार की आत्मा में।राजस्थान की मरुमाटी की गरमी के दिनों का लोक जीवन अपने समूचे रंगों- रूपों में यहाँ खिल उठा है। आँधी का वर्णन अभूतपूर्व है - हर्रररररररर...शर्ररररररर......। लाल व सफेद कमेड़ी की बोली पढ़ते हुए आपको 'परती परीकथा' के रेणु याद आएँगे। 'अवस देखिए देखन जोगू।'

    जवाब देंहटाएं
  2. लोक-रंग का ऐसा उद्घाटन अपूर्व है। शब्द-शब्द में एक जीवंतता, वाक्य-वाक्य में अर्थवत्ता व्यंजना। हमारी पीढ़ी ने जिसे अनुभूत किया, प्रतीत होता था कि वह अकथ है; लेकिन लेखिका ने अपनी प्रज्ञा से उसे साकार कर दिया। ऐसी अद्भुत शैली, अभिनव बिंब और चित्रात्मकता। गद्य में कविता कहना इसी को कहते हैं। साधु 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. लोक विदुषी नीलू शेखावत के लेखों में माटी की सौंधी खुशबू है। हर बार इनके लेखों की प्रतीक्षा रहती है। अपनी माटी के संपादक से आग्रह है कि उनके लेख निरंतर प्रकाशित किया करें।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत जोरदार।।अद्भुत शैली

    जवाब देंहटाएं
  5. वाह! अपनी माटी कहां से ढूंढ़कर लाता है ऐसे नायाब हीरे! राजस्थानी लोक पर पढ़ने को मिलना तो जैसे दुर्लभ सा हो चला है, ऐसे में नई पीढ़ी में लोक जीवन की ज़मीन से इतनी गहराई से जुड़े रहने वाले विद्यार्थी साहित्य के लिए सुखद आश्चर्य हैं।

    देशज शब्दों की मिठास और बाल मनोविज्ञान की ताजगी आलेख को मनोहर बना रही है। ऐसे आलेख छापते रहिए। अपनी माटी को नये अंक की शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

और नया पुराने