आत्मकथ्य : मेरी विचार यात्रा / दिनेश कर्नाटक

मेरी विचार यात्रा
- दिनेश कर्नाटक

जिसे मैं अपनी विचार यात्रा कह रहा हूं, वह कुछ हद तक मेरी होते हुए भी नितांत मेरी विचार यात्रा नहीं है। मनुष्य जो भी अर्जित करता है उसमें पूर्वजों की खोज, चिंतन, परिश्रम, सृजन तथा वर्तमान परिवेश से व्यक्ति की जद्दोजहद का योगदान होता है। व्यक्ति के विचार पहले से मौजूद कई विकल्पों में से चयन कर बनते हैं। वह किसी विचारधारा से कोई एक चीज लेता है, किसी से दूसरी कोई चीज लेता है। इस प्रकार अपने लिए एक रास्ता तैयार करता है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो विचार के स्तर पर बिलकुल नई अवधारणा सामने रखते हैं या चीजों को देखने या समझने का नया नजरिया देते हैं। ऐसा वही लोग कर पाते हैं जिनका जीवन खुद एक उदाहरण होता है।

विचार अपने आस-पास की चीजों, व्यक्तियों तथा घटनाओं को देखकर बनने वाली समझ, राय या प्रतिक्रिया है। यह राय आगे जाकर हमारे क्रिया-कलापों को प्रभावित करती है। जैसे, हमें अपने जीवन को कैसे जीना है, दूसरों के साथ कैसे संबंध बनाने हैं। समाज में अपनी भूमिका को क्या रूप देना है। विचार चीजों तथा स्थितियों के बारे में हमारी प्रतिक्रिया को तय करते हैं यानी चीजों का हमें किस तरह से उपभोग या उपयोग करना है। सबसे बढ़कर विचार जीवन की सार्थकता के सवाल को स्पष्ट करने में हमारी मदद करता है। यानी कैसे हमारा जीवन सार्थक होगा और कैसे निरर्थक होगा? विचार सकारात्मक, नकारात्मक अथवा रचनात्मक हो सकते हैं। विचार सकारात्मक होंगे तो जीवन में सकारात्मकता दिखाई देगी। नकारात्मक होंगे तो हमारी यात्रा नकारात्मकता की ओर होगी। रचनात्मक होंगे तो हम सृजन अथवा निर्माण की दिशा में आगे बढ़ेंगे।

सवाल उठ सकता है कि मनुष्य का अस्तित्व महत्वपूर्ण है या विचार। निसंदेह अस्तित्व का स्थान विचार से अधिक महत्वपूर्ण है। अगर मनुष्य जीवित ही नहीं रहेगा तो उसे विचार का अवसर कब मिलेगा। इसीलिए मनुष्य की विकास यात्रा के एक लंबे दौर को जिसे हम आदि काल कहते हैं, विचारों से अधिक महत्वपूर्ण सवाल अस्तित्व का रहा। जीवन का सवाल इतना चुनौतीपूर्ण था कि विचार का अवसर ही नहीं था। विचार नहीं थे तो विकास नहीं था। जीवन एक प्रकार से ठहर गया था। लेकिन ध्यान रखने योग्य बात है कि जैसे ही अस्तित्व का सवाल हल होता है तो विचार यात्रा आरंभ हो जाती है। मनुष्य के जीवित होने का अर्थ ही है कि वह विचारों के साथ चल रहा है।

अपनी विचार यात्रा के बारे में सोचता हूं तो ऊपर कही बातों के अलावा एक व्यक्ति के विचारों के निर्माण में उसके घर, परिवेश, समाज तथा शिक्षा-दीक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मैंने एक निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार में जन्म लिया, लेकिन बहुत जल्दी हम संयुक्त परिवार से अलग हो गए। वजह यह थी कि संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच कई तरह की गलतफहमियां, अंतर्विरोध, शिकायतें थी। टकराव, मतभेद झगड़े उस दौर का स्थाई राग था। हमेशा किसी किसी बात पर विवाद बना रहता। तब मन में सवाल उठता था कि ये लोग अपने मतभेद दूर कर सहयोग के साथ क्यों नहीं रहते? झगड़े और विवादों की वजह हरेक के द्वारा अपने नजरिए को सर्वश्रेष्ठ समझने की जिद थी। इसके चलते दूसरे की सही बातों को भी स्वीकार नहीं किया जाता था। स्वाभाविक है कि इससे मतभेद बने रहते थे।

शिक्षा या समझदारी का यही अर्थ है कि आप सही-गलत को समझते हैं। दूसरे की सही बात से सहमति जताते हैं तथा गलत बात को तर्क के साथ खारिज करते हैं। आप में दूसरे को सुनने-समझने का धैर्य होता है। आप गलत बात के लिए जिद नहीं करते। इस प्रकार एक विवेकवान व्यक्ति, परिवार, देश या समाज टकराव के बजाय मिलकर सही दिशा में कार्य करता है जबकि एक पिछड़ा हुआ तथा अशिक्षित व्यक्ति, समाज और देश आपस में संघर्ष करता नज़र आता है।

मेरी विचार या संवेदना के निर्माण की प्रक्रिया में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। मैंने घर में स्त्रियों को प्रेमपूर्ण तथा उदार पाया। वे दिन भर घर के कामों में व्यस्त रहती। घर के लोगों से लेकर मवेशियों के भोजन रखरखाव का इंतजाम करती। खेती-बाड़ी का ख्याल रखने के साथ, घर को साफ- सुथरा रखती। रिश्ते-नाते सामाजिकता को निभाती। त्योहार रीति-रिवाजों का दायित्व उन्हीं के ऊपर होता। इस प्रकार उनकी भूमिका रचनात्मक जोड़ने वाली थी, जबकि अपवाद को छोड़कर पुरुष शिकायत, नाराजगी या टकराव की भूमिका निभाते हुए दिखते थे। इसलिए स्त्रियों के प्रति मेरे मन में हमेशा कृतज्ञता भरोसे का भाव रहता है।

हर व्यक्ति की विचार निर्माण की प्रक्रिया सवालों के साथ शुरू होती है कि क्या सही है और क्या गलत। सही गलत को पहचानने में कथा, बोध कथा तथा कहानियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मेरे विचार निर्माण में बुद्ध के जीवन से जुड़ी हुई बोध कथाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही। पहली कहानी वह जिसमें घायल हंस को लेकर बुद्ध का अपने भाई के साथ विवाद होता है और यह स्थापित होता है कि घायल हंस पर उसे मारने वाले का हक है अथवा बचाने वाले का? दूसरी कहानी वह है जिसमें युवा बुद्ध अपने सारथी के साथ शहर की यात्रा पर निकलते हैं और गरीबी, बीमारी, अभाव तथा मृत्यु के रूप में जीवन के सत्य से परिचित होते हैं। इन दोनों कहानियों ने एक ओर मेरे सामने जीवन की सार्थकता के सवाल को स्पष्ट किया, वहीं दूसरी ओर जीवन के सत्य को समझने में मदद की।

बाद में सुदर्शन की हार की जीत, प्रेमचंद की दो बैलों की कथा, ईदगाह, पंच परमेश्वर, बड़े भाई साहब आदि तथा रामायण, महाभारत की कथाओं ने मेरी वैचारिकी के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डायमंड पॉकेट बुक्स से प्रकाशित होने वाली जयशंकर प्रसाद तथा शरत चंद की पेपर बुक पुस्तकें पढ़ी। कादंबिनी, सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, हंस आदि पत्रिकाओं का नियमित पाठक रहा। उस दौर में रूसी साहित्य भी सहजता से उपलब्ध था। रूस के महान लेखकों टॉलस्टॉय, गोर्की, चेखोव, दोस्तोयोवस्की आदि को पढ़ने का अवसर मिला। चेखोव, मोपासां तथा हेनरी की कहानियों से विशेष  प्रभावित हुआ। अज्ञेय, जैनेंद्र, यशपाल, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, अमरकांत, शेखर जोशी जैसे रचनाकारों की लेखनी का प्रभाव पड़ा।

धर्म और ईश्वर से मेरी मुलाकात वैसी ही हुई जैसे सभी की होती है। ईश्वर पर बड़ी आस्था थी। बड़ों ने समझाया था कि हमारे आस-पास जो कुछ है सब उसी की रचना और कृपा है। मुझे भी ऐसा ही लगता था। अपने धर्म को सबसे श्रेष्ठ और अपने ईश्वर को सबसे महान समझने लगा था। बैठकर पूजा करता। जब पूजा से कोई अनुभूति नहीं हुई तो ध्यान लगाकर ईश्वर की प्रतीति की कोशिश करता, मगर कोई अनुभव नहीं हुआ। गीता प्रेस की किताबें पढ़ी। रामायण, महाभारत, पुराण जो हाथ लगा पढ़ता चला गया। लगा ईश्वर और मनुष्य के बीच एक बड़ी दीवार है, उससे मुलाकात या उसकी प्रतीति आसान नहीं। धीरे-धीरे देखा लोग पूजा-पाठ करते हैं, फिर उसे भूलकर दुनियादारी में लग जाते हैं। लड़ाई-झगड़ा, छल-कपट, झूठ-चालाकी, मारपीट, चोरी-चकारी सब चलता रहता है। यानी ईश्वर लोगों को बदल नहीं पाता। उसके होने से गरीबी, अन्याय, अत्याचार कुछ नहीं रुकता।

ईश्वर की तलाश की इस यात्रा में सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव था, कबीर से मुलाकात। उन्होंने समझाया 'मोको कहाँ ढूंढे बन्दे मैं तो तेरे पास।... ढूंढन चाहे तो तुरत ही मिलिहों सब सांसों की सांस में।' कबीर ने ईश्वर से मुलाकात का बड़ा सूत्र दिया। फिर विवेकानंद, दयानंद सरस्वती, जे.कृष्णमूर्ति, ओशो आदि को पढ़ा। आगे जाकर समाज विज्ञान और विज्ञान के अध्ययन के बाद कबीर के ज्ञान मार्ग ने ईश्वर से मुलाकात करवा दी। मनुष्य के विकास क्रम को जानने के बाद समझ में आया कि ईश्वर और धर्म की रचना मनुष्य ने की है। मनुष्य में जीवन मूल्यों आदि के रूप में जो भी श्रेष्ठ है, ईश्वर उसकी कल्पना है। ईश्वर में खुद कोई शक्ति नहीं है। मनुष्य ही उसे शक्तिशाली बनाता है। वह महान और उदार लोगों के हाथ में होता है तो वे एक मानवीय दुनिया बनाते हैं। धूर्त लोगों के हाथ में होता है तो वे झगड़े व भेदभाव से भरी दुनिया का निर्माण करते हैं। इस बोध के बाद ईश्वर, पूजा-पाठ, रीति-रिवाज व कर्मकांडों के प्रति मेरे दृष्टिकोण को ज्ञानमार्गी कहा जा सकता है। मुझे ज्ञान से विज्ञान की ओर पहुँचे तथा धर्म से अध्यात्म की ओर पहुँचे लोग अधिक प्रिय हैं। धर्म में अटका हुआ व्यक्ति, देश-समाज पुरातनपंथी, दकियानूस, झगड़ालू और पिछड़ा रह जाता है, जबकि विज्ञान की तरह अध्यात्म के तल पर पहुँचे लोग व समाज एक प्रेमपूर्ण, खुशहाल, समावेशी देश व समाज का निर्माण करते हैं। इस प्रकार मैं सब की आस्था का सम्मान करता हूँ, धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित होता हूँ।  सामाजिक प्राणी होने के नाते मानता हूँ कि हमारे भीतर सब को स्वीकार करने तथा सबके साथ जीने की सहनशीलता होनी चाहिए।

गांधी को एक व्यक्ति के रूप में तथा एक विचारक के रूप में जानने-समझने का द्वंद कई स्तरों पर चला। पहले उन्हें राष्ट्रपिता के रूप में ही जाना और समझा। इसका परिणाम यह हुआ कि जब बाद में एक प्रगतिशील संगठन से जुड़ा तो उनके पास गांधी की सिर्फ आलोचना ही थी। परिणाम यह हुआ कि मैं भी गांधी विरोधी बन गया। लेकिन जब आगे जाकर उनके दक्षिण अफ्रीका के जीवन संघर्ष पर केंद्रित गिरिराज किशोर का उपन्यासपहला गिरमिटियापढ़ा तो गांधी को लेकर मेरे पूर्वाग्रह काफी हद तक दूर हुए। फिर उनकी आत्मकथासत्य के प्रयोगको पढ़ा तो उनके विचारों को समझा। अब गांधी के प्रति मेरा दृष्टिकोण संतुलित था।

इसी प्रकार छात्र जीवन में भगत सिंह, राहुल सांकृत्यायन को पढ़ने का मौका मिला। समाजवादी साहित्य तथा विचारों को पढ़ा। समाजवाद के विचार से प्रभावित हुआ।विकल्प नाम के संगठन के साथ कुछ समय काम किया। समझ में आया कि कैसे पूंजीपतियों तथा राजनेताओं का गठजोड़ गरीबों को गरीब बनाये रखने के लिए उन्हें सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, धर्मांधता तथा जातिवाद में उलझाए रखता है। प्रगतिशील साहित्य से अंध राष्ट्रवाद की विसंगतियों को समझने में मदद मिली। मगर एक प्रकार का अतिवाद भी वहाँ नज़र आया कि सोचने या विचार का यही तरीका सही है, बाकी सब गलत है।

विचार के नाम पर गिरोहबंदी और अपने समर्थकों से सैनिक बनने की अपेक्षा सही नहीं लगी। धीरे-धीरे समझ में आया कि किसी भी प्रकार का अतिवाद गिरोहबंदी अंततः तानाशाही व्यवस्था को ही जन्म देती है। लोकतंत्र जीने का बेहतर तरीका है। जहां संकीर्ण राष्ट्रवाद धर्मांधता में बुराई नजर आई, वहीं विचार के नाम पर हिंसा तथा कट्टरता को भी जायज नहीं समझ पाया। गांधी की अहिंसा, सत्याग्रह, साध्य के लिए साधन की पवित्रता जैसे विचार अच्छे लगे।

बाद में अंबेडकर को पढ़ा तो लोकतंत्र, समानता तथा बंधुत्व का उनका विचार अच्छा लगा। यह समझ भी बनी कि दुनिया को किसी एक संस्कृति, धर्म, विचार के रंग में रंगने की सोच अच्छी नहीं है। एक अच्छी दुनिया समाज वही होगा जहां सबको साथ लेकर चलने की उदारता होगी। इस प्रकार जब अपने देश के संविधान से परिचय हुआ तो लगा कि किसी व्यक्ति को विचार निर्माण के लिए इधर-उधर जाने की जरूरत ही नहीं है, संविधान के रूप में हमारे पास संतुलित तथा सार्वभौमिक विचारों का प्रकाश स्तंभ मौजूद है। हमारे पूर्वजों ने संविधान के रूप में देश-दुनिया के सभी श्रेष्ठ विचारों को इसमें समाहित कर दिया है।

हमारे संविधान में समानता, न्याय, बंधुत्व, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण आदि जीवन के मार्गदर्शक तथा मूलभूत सिद्धांतों को जगह दी गई है। यदि अपने देश के बच्चों को संविधान की प्रस्तावना स्कूली शिक्षा के दौर में बहुत अच्छे से पढ़ाई-समझाई जाए तो उनके विचार संतुलित उदार होंगे। अगर मैं खुद से पूछूं कि मेरी विचारधारा क्या है? मेरा जवाब होगा, भारतीय संविधान के मार्गदर्शक सिद्धांत ही मेरी विचारधारा है।

इस सब के साथ ही समय-समय पर अपने विचारों को जाँचते रहना भी मैं जरूरी समझता हूँ। इसके लिए खुद पर नज़र रखना आवश्यक है। यदि मेरे भीतर गुस्सा, नफ़रत, निराशा, ईष्या, शिकायत, तुलना आदि है तो तय है कि विचारों में गड़बड़ है। अगर जीवन में उम्मीद, करुणा, प्रेम, सामूहिक कोशिश, रचना, खुशी सराहना आदि है तो मैं सही दिशा में हूँ।


दिनेश कर्नाटक
मुक्तिबोध’, ग्राम पो..- रानीबाग, जिला-नैनीताल (उत्तराखंड) 263126
9411793190

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

3 टिप्पणियाँ

  1. इस सुंदर आत्मकथ्य के लिए लेखक को बहुत बधाई।
    उनकी सुविचारित मनोभूमि को जानना एक पाठक के रूप में बहुत रुचिकर है।
    वैचारिक उन्मेष का यह सृजनात्मक प्रतिफलन बहुत प्रेरक भी है।
    आभार धन्यवाद

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  2. अपनी विचारयात्रा के विभिन्न पड़ाव और उनसे हासिल मूल्यों को काफी गंभीरता से लिखा है ।

    आप हमेशा गंभीर और आधारभूत मानवीय संवेदनाओं सिद्धांतों की बात करते हैं और उनकी यहां जड़ें दिखती हैं ।
    वृक्ष जितना जमीन के ऊपर होता है उससे कहीं अधिक वो जमीन के नीचे होता है ।
    🙏

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