शोध सार : सत्ता के ख़िलाफ़
कोई भी
आंदोलन परिवर्तन या सुधार लाने के उद्देश्य से किया जाता है। जब सत्ता या तंत्र आम जनता पर अन्याय करने लगती है और जनता का शोषण बढ़ जाता है तब जनता सत्ता के ख़िलाफ़
संगठित होकर सुनियोजित ढंग से सत्ता का विरोध करती है और वही संघर्ष आंदोलन का रूप धारण करता है। भारत में स्वतंत्रता संग्राम के समय कई आंदोलन हुए। उन आंदोलनों को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है। पहला अंग्रेज़ों
के खिलाफ़ हुए आंदोलन, दूसरा समाज की कुरीतियों के खिलाफ़ हुए आंदोलन।
अंग्रेज़ों
के खिलाफ़ हुए आंदोलनों को दो स्तरों पर देखते हैं मसलन, पहले स्तर के आंदोलनों को अहिंसक प्रवृत्ति का आंदोलन कहा जा सकता है जिसमें सभी तबके के लोग शामिल थे तथा दूसरे स्तर के आंदोलनों को क्रांतिकारी आंदोलन कहा जा सकता हैं। ऐसे दलों को संगठित गुप्त रूप से किया जाता था जिसमें हिंसा के साथ शस्त्रों का भी इस्तेमाल किया जाता है और इसी आंदोलनों में समाज के उग्र प्रवृत्ति के लोगों ने हिस्सा लिया था। इसमें ऐसे लोगों की संख्या ज़्यादा
थी जो सरकार की नज़रों से दूर, नेपथ्य में रहकर उनका हिस्सा बनते थे। वह आर्थिक मदद के साथ ज़रूरी
सामान मुहैया कराते थे। इस संदर्भ में देखें तो क्रांतिकारियों द्वारा आज़ादी के लिए किए गए संघर्षों तथा उनके उद्देश्यों का वर्णन कई साहित्यकारों ने किया।
प्रस्तुत शोध-आलेख में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में क्रांतिकारियों की भूमिका और साहित्य पर पड़े उसके प्रभावों की चर्चा की जाएगी। इसका आधार दुर्गाप्रसाद खत्री का उपन्यास ‘प्रतिशोध’ है। इस शोध-आलेख में मुख्यतः भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हुए क्रांतिकारी आंदोलनों को केंद्र में रखकर यह देखने का प्रयास किया जाएगा कि उपर्युक्त उपन्यास की पृष्ठभूमि क्या है? ऐसे कौन से पात्र हैं जो क्रांति के नारे दे रहे थे तथा आज़ादी दिलाने में उन पात्रों का कितना योगदान है।
बीज शब्द : स्वतंत्रता, आंदोलन, क्रांतिकारी, राजनीति, भारतीय समाज, शांति, हिंसा, सांप्रदायिकता, अहिंसा, शासन, विभाजन, टकराहट।
शोध आलेख : भारत में 19वीं शताब्दी से आंदोलनों का सिलसिला शुरू हुआ। इसका कारण अंग्रेज़ों के अमानवीय व्यवहार व उनकी बर्बरता और उससे उत्पन्न क्षोभ, धर्म व संस्कृति का अपमान, समाज में घोर आर्थिक विपन्नता और वैयक्तिक स्वतंत्रता इत्यादि
माने जाते हैं। ये कुछ ऐसे बुनियादी प्रश्न थे जिसके ख़िलाफ़
भारतीय जनता एकजुट हुई। इसकी एक लंबी प्रक्रिया रही है। 20 वीं शताब्दी में हम देखते हैं कि भारत के विभिन्न प्रान्तों और अखिल भारतीय स्तर पर कई आंदोलन हुए जिनमें बंग-भंग आंदोलन
(1905), ख़िलाफ़त आंदोलन
(1919), सविनय अवज्ञा आंदोलन
(1931)
और भारत छोड़ो आंदोलन
(1942) आदि का नाम मुख्य रूप से लिया जाता है।
दूसरी तरफ़
समाज सुधार के लिए भी आंदोलन चल रहे थे जिसमें- स्त्रियों के अधिकार के साथ उनकी शिक्षा, विधवा-पुनर्विवाह, बाल-विवाह को ख़त्म
करना, समाज में धार्मिक सुधार तथा जाति प्रथा को ख़त्म
करना आदि शामिल था। “उस युग के समस्त प्रगतिशील साहित्य और चिंतन का लक्ष्य सामंती मूल्यों और परंपराओं के बंधनों के ख़िलाफ़
संघर्ष करके स्त्री-पुरुषों में वैयक्तिक स्वतंत्रता की चेतना जगाना और ‘सामाजिक-पारिवारिक अनुशासन’ की जगह समाज और परिवार में लोकतान्त्रिक संबंधों को कायम करने का आदर्श रखना था या वैयक्तिक स्वतंत्रता को पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव बताकर सामंती बंधनों और रूढ़ियों की सुरक्षा करना था।”1 कुछ साहित्यकारों ने सामंतों का विरोध किया तो कुछ ने सामाजिक और राजनीतिक दोनों पक्षों को आधार बनाकर रचनाएँ की। दुर्गाप्रसाद खत्री का लेखन इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण है परंतु दुर्भाग्य की बात है कि आलोचकों ने दुर्गाप्रसाद खत्री के उपन्यासों की चर्चा न के बराबर की।
उपर्युक्त
संदर्भ में खत्री जी के साहित्य का विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि हिन्दी साहित्य में उनका योगदान बहुमूल्य है।
उन्होंने अनेक उपन्यास लिखे जिसमें उस समय का समाज झाँकता है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया। जैसा हमें ज्ञात है कि आंदोलन और क्रांति प्रतिरोध के ही दो स्वरूप हैं। आंदोलन के क्रांतिधर्मी स्वरूप को ही आधार बनाकर उन्होंने दो उपन्यास लिखें; ‘प्रतिशोध’(1925)
को छोड़कर दूसरे उपन्यास ‘रक्त-मंडल’(1926)
पर अंग्रेज़ी
सरकार ने प्रतिबंध तक लगा दिया था। रक्त-मण्डल उपन्यास में प्रतिशोध की कथा को आगे बढ़ाया गया है। रोचक बात यह है कि रक्त-मण्डल को बाद में ‘मृत्यु किरण’ नाम से फिर प्रकाशित किया गया था।
उपन्यास के पहले भाग के पन्द्रहवें संस्करण में ‘दो शब्द’ के रूप में यह सूचित किया गया है कि यह उपन्यास सन् 1923 में लिखा जा चुका था परंतु कुछ कारणों से यह सन् 1926 में प्रकाशित हुआ और बाद में इसे सरकारी आदेशों द्वारा जब्त कर लिया गया– “असहयोग आंदोलन के सिलसिले में सन् 1930,
1931 तथा 1932 का अधिकांश समय इसके लेखक को जेल में काटना पड़ा और कदाचित् इसी कारण सी. आई. डी. की दृष्टि इस उपन्यास पर
पड़ गई। एक दिन अचानक ही लहरी प्रेस पर पुलिस का धावा हुआ और हज़ार
प्रतियों का नया पूरा संस्करण पुलिस उठा ले गई जिसके कुछ समय बाद सरकारी आदेश-पत्र द्वारा यह उपन्यास जब्त घोषित कर दिया गया।”2 स्वाधीनता आंदोलन के समय जेल जाना कई साहित्यकारों के लिए आम हो गया था। यही नहीं उन पर अंग्रेज़ों
की नज़र हमेशा बनी रहती थी।
उत्तर भारतीय हिन्दी रचनाकारों में कई ऐसे रचनाकार हैं जो क्रांतिकारी दलों के सदस्य
थे और अपने साहित्य में उन्होंने उसका सम्यक् चित्रण भी किया है। इस संदर्भ में सीताराम झा
‘श्याम’ ने ‘भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और हिन्दी उपन्यास’ पुस्तक में लिखा है। जिसका आशय है- ‘हिन्दी उपन्यास को ही सौभाग्य प्राप्त है कि इसके अनेक लेखक क्रांतिकारी दलों के मुख्य सदस्य और नायक रहे हैं।’ उदाहरण के रूप में यशपाल, अज्ञेय, मन्मनाथ गुप्त आदि साहित्यकारों को देखते हैं।
‘प्रतिशोध’
उपन्यास सन् 1925 में प्रकाशित हुआ। संक्षेप में उपन्यास का सार-तत्त्व
इस प्रकार है- कहानी घनघोर जंगल के बीच एक शिवालय से शुरू होती है जहाँ भरी दुपहरी में मूर्ति के सम्मुख एक योगी बैठा
है और ध्यानमग्न योगी के पीछे दो तेज़स्वी युवक बैठे हुए हैं। कहानी योगी द्वारा दिए गए आदेशों से आगे बढ़ती है। दोनों नव युवक रक्त-मण्डल के सदस्य हैं। गुरु की आज्ञा का पालन कर जनता की शक्ति बढ़ाने के लिए लोगों में धर्म और जाति के नाम पर आपसी फूट पैदा करने वाली बात दोनों युवक संगठन के मुख्य लोगों को बताते हैं। इस संगठन का हिस्सा बनते हुए एक भीड़ दिखाई देती है जिसमें सैकड़ों लोग भाग लेते हैं। यही नहीं उन मुख्य चारों सदस्यों में नाम बदलकर एक अंग्रेज़ी
जासूस रघुबीर
सिंह शामिल होता है।
जासूस रघुबीर
सिंह को बचाने के लिए रक्त-मण्डल का सदस्य उन्हीं
का बेटा अमरसिंह आता है। अंत में रक्त-मण्डल का सदस्य होने के नाते न मिलने का दोनों वादा करते हैं। दूसरे बयान (भाग) में उपन्यासकार ने एक रईस लक्ष्मीकांत को अमरसिंह की वजह से क्रांतिकारी बनते हुए दिखाया है। अमरसिंह का भरोसा जीतने के लिए वह अपना अंगूठा काट देता है। तीसरे बयान में प्रांत में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो जाते हैं, सैकड़ों आम लोगों की जानें
जाती हैं तथा सरकारी कर्मचारियों की हत्याएँ की जाती हैं। क्रांतकारियों यानी ‘भयानक चार’ को लगता है कि इससे जनता की शक्ति बढ़ेगी तथा अंग्रेज़ों
से लड़ सकेंगे।
उपन्यास के अंतिम चौथे बयान में दिखाया गया है कि सांप्रदायिक दंगे अंग्रेज़ों
की सोची-समझी साज़िश
के तहत हुई थी और यह रक्त-मण्डल के मुखिया को पता चल जाता है। रक्त-मण्डल को कुछ दिनों के लिए बंद कर दिया जाता है। अंग्रेजों के द्वारा इसके कई सदस्यों की हत्याएँ कर दी जाती हैं तथा सैकड़ों को जेल में डाल दिया जाता है। इस तरह रक्त-मण्डल सिर्फ़
काग़ज़ों
पर ही रह गया। नवयुवकों को भड़काने वाला योगी अंग्रेज़ी
सरकार का ही जासूस फतेहउद्दीन था जिसका अंत में उसीके बेटे जमालउद्दीन ने हत्या कर दी। उस दौरान बेटे जमालउद्दीन की भी मृत्यु हो जाती है क्योंकि वह भी
रक्त-मण्डल का ही सदस्य था। क्रांतिकारी अमरसिंह कई अफ़सरों की हत्या करता है तथा रघुबीर सिंह का अंत में थोड़ा बहुत हृदय परिवर्तन होता है और नौकरी से इस्तीफ़ा देकर अपने बेटे के साथ कहीं दूर चला जाता है।
संपूर्ण
उपन्यास पहले बयान पर ही आधारित है जहाँ
योगी दोनों युवकों से कहता है कि ईश्वर की कृपा से मुझे देश का भविष्य दिख रहा है प्रांत में अपनी दुर्दशा होने वाली है इसलिए हमें संघर्ष करना होगा– “इसके लिए इसे बलि देनी होगी, सुख की बलि, स्वार्थ की बलि, शांति की बलि, शरीरों की बलि
देकर ही देश के निवासी अपनी अभिलाषा पूरी कर सकेंगे।”3 योगी अपने तर्कानुसार देश की शांति भंग करने तथा सांप्रदायिक हिंसा कराने के लिए दोनों युवकों को मार्गदर्शित करता है। यही मार्गदर्शन प्रांत में दंगों
का कारण बनता है। दोनों युवकों के तर्क उस बहुरूपिये योगी के आगे टिक नहीं पाते और षड्यन्त्र में फँस
जाते हैं। दोनों युवक अपनी मंज़िल यानी जंगल व दलदल को पार कर ऊँची
पहाड़ी पर पहुँचते है और वहाँ एक गुफा को पार कर तलहटी के मैदान में पहुँचते हैं। जहाँ
लगभग दो सौ आदमियों का झुंड मौजूद होता है। सभी
ने
लाल रंग के कपड़े पहन
रखे हैं और मुँह
लाल कपड़ों से ढका है। सभी आदमियों को तीन आदमियों द्वारा संचालित किया जाता है। उनमें से एक आदमी भीड़ को संबोधित करते हुए कहता है– “कहना नहीं होगा कि
वह प्रतिज्ञाएँ कर लेने के बाद ही हम लोग इस योग्य होंगे कि ‘रक्त-मण्डल’ के सदस्य बन सकें।”4
आगे वह आदमी प्रतिज्ञा लेने के तौर पर कहता है कि अपने धर्म और जाति को अपने देश के लिए न्योछावर करना होगा, दया और करुणा का त्याग करना होगा तथा रिश्तों का भी त्याग करना होगा, निज, मित्रता, प्रेम और विचार को भी त्यागना होगा। अगर रक्त-मण्डल में रहना है तो उसकी सभी आज्ञाओं का पालन करना
होगा। ज़रूरत पड़े तो पिता या बेटे की हत्या के साथ अपनी जान देने के
लिए हमेशा तत्पर रहना होगा। शपथ के तौर पर वह आगे कहता है कि– “...आज से ऐसी चेष्टा करूँगा
जिससे इस प्राचीन राज्य पर धोखेबाजी से जो दुष्ट जाति क़ब्ज़ा
कर बैठी है उसके प्रति जनता का असंतोष बढ़े, जनता में बल उत्पन्न हो, और देश भर की
सब जातियों में परस्पर प्रेम तथा सोहार्द्र....”5 यह सब कहता ही है तब तक योगी से मार्गदर्शित युवक ने सभा भंग कर दी।
रक्त-मण्डल के मुख्य सदस्यों का कहना था कि ‘हमारा देश आज दो सौ वर्षों से ग़ुलाम है और यहाँ के असली राजा निष्क्रिय हो गए हैं’ जिसकी वजह से एक विदेशी जाति शासक बन गई है। लेखक ने सीधे तौर पर अपने समाज के यथार्थ को उपन्यास में दर्ज किया है। अंग्रेज़ी
शासन ने समाज को निष्क्रिय बना दिया। उपन्यास में लेखक ने उन रक्त-मण्डल के चारों सदस्यों का परिचय कुछ इस प्रकार दिया है– “मैं गुरबक्श सिंह पश्चिम की गदर पार्टी का मुखिया हूँ। ये अल्लादीन इस देश की दक्षिणी सीमा की उस मशहूर
पार्टी के मुख्य कार्यकर्ता हैं जिसने शासकों की नाक में दम कर दिया है,
ये रासबिहारी मशहूर बम-गैंग के सर्वेसर्वा हैं और ये रघुनाथ
सिंह उत्तर के क्रांतिकारियों के सरगना हैं।”6 गदर पार्टी के मुखिया का कहना था कि जब तक सभी संगठनों को एक साथ नहीं करेंगे तब तक इन टुकड़े-टुकड़े संगठन से सफलता नहीं मिलेगी और शासन की दमनकारी नीतियाँ संगठनों को नष्ट कर देंगी। ठीक ऐसे ही देश में कई संगठन सक्रिय थे जो स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए लिए कुछ भी कर सकते थे। रक्त-मण्डल नामक संगठन में ही सभी संगठनों को मिला देना चाहिए और फिर एक साथ संचालन करना होगा। उपन्यास में इन चारों में एक जासूस रघुबीर सिंह है मसलन, ये चारों एक दूसरे के नाम से वाक़िफ़
थे लेकिन चेहरे से नहीं। इसी संदेह को लेकर कहानी आगे बढ़ती है और जासूस की जानकारी देने वाले गुरुतुल्य महाबीर
सिंह का
ख़ून
रक्त-मण्डल का ही सदस्य अमरसिंह अपने जासूस पिता को बचाने के लिए कर देता है।
दोनों के सिद्धांत एक-दूसरे से भिन्न थे। रघुबीर
सिंह अंग्रेज़ों
का समर्थक था और अमरसिंह एक आंदोलनकारी, जो अंग्रेज़ों
के ख़िलाफ़
था। अमर अपने पिता से कहता है कि–“... पर मेरे आपके सिद्धांतों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़
है। आप पुराने ज़माने में घूमते हुए राक्षसों के शासन को अच्छा समझते हैं पर मैं वर्तमान में रह रहा हूँ और उसे देखते हुए इन अंग्रेज़ों
के राज्य को बहुत बुरा समझता हूँ तथा उसे हटाकर अपने देशवासियों को ही हुकूमत की गद्दी पर पुनः बैठा देखना चाहता हूँ।”7 दोनों के उद्देश्य एक दूसरे से भिन्न थे। स्वाधीनता आंदोलन के समय ऐसे ही कितने युवक थे जिन्होंने घर-परिवार व समाज से बगावत की और रघुबीर सिंह के जैसे बहुत से लोग थे जो अंग्रेज़ी
हुकूमत के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थे। जिससे समाज में आंतरिक व मानसिक द्वन्द्व बना रहा।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बहुत से ऐसे क्रांतिकारी हुए जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपनी जान की भी परवाह नहीं की। जमालुद्दीन उसका उदाहरण है। वह मरते हुए कहता है– “भाई अमर, इस कटार ने बाप बेटे ...दोनों .....का खून.....पिया है.......इसे भयानक चार....तक पहुँचा
देना और कह देना कि जमाल बदला लेकर मरा!!”8 इस तरह उसने एक ऐसे इंसान की हत्या की जो सैकड़ों मौत का ज़िम्मेदार था। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान कई छिटपुट क्रांतिकारी आंदोलन भी हुए जिसमें बड़े पैमाने पर शहादतें हुई और जो बच गए उन्हें अंग्रेज़ी
हुकूमत ने सलाख़ों
के पीछे पहुँचा दिया। क्रांतिकारियों का मानना था अगर विद्रोह किया जाएगा और शस्त्रों का इस्तेमाल किया जाएगा तो आज़ादी आसानी से मिल जाएगी, लेकिन परिस्थितियाँ अनुकूल न थी। उपन्यास (प्रतिशोध) के शुरूआत में ही लिखा है– “अंग्रेज़ों के क्रूर शासन से दु:खी होकर आख़िर
कुछ नवयुवकों ने सशस्त्र विद्रोह कर दिया और देशद्रोहियों तथा अंग्रेज़ों
के ख़ुशामदी लोगों को भी दंड देना प्रारंभ किया। परंतु अंग्रेज़ों
ने इस विद्रोह का प्रतिशोध लिया मक्कारी तथा नृशंस दमन से”9 क्रांति के कारण दोनों तरफ़
परिवर्तन हुआ; कई लोगों की जानें
गईं। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अंग्रेज़ी
शासन और आंदोलनकारियों के मध्य की टकराहटों में भारतीय जनता का ज़्यादा
नुकसान हुआ। बेकसूर लोगों से अंग्रेज़ी
शासन ने सब कुछ छीन लिया।
जैसा कि हम जानते हैं युद्ध किसी के लिए भी लाभदायक नहीं होता बल्कि इससे सभी का नुकसान होता है अंतर बस इतना है किसी तरफ़
ज़्यादा
होता तो किसी तरफ़
कम होता है। युद्ध हो या आंदोलन वहाँ कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो सिर्फ़ अपना फ़ायदा
या नुकसान देखते हैं। ऐसे लोग अपनों से गद्दारी, बेईमानी और षड्यंत्र
करने के लिए तत्पर रहते हैं। योगी नामक पात्र उसका उदाहरण है। युवक स्वाधीनता प्राप्त करने के लिए वर्तमान अंग्रेज़ी
सरकार से संघर्ष करने के लिए तत्पर रहते हैं। इसी का फायदा उठाकर योगी देश में आज़ादी के नाम पर सांप्रदायिक दंगे तथा भारतीय समाज में फूट डालने के इरादे को संघर्ष का नाम देता है। योगी के माध्यम से अंग्रेज़
भिन्न-भिन्न जातियों के बीच विद्वेष पैदा करना चाहते थे।
अंग्रेज़ी
सरकार जानती थी कि लोगों के बीच फूट डालेंगे तभी भारत पर लंबे समय तक शासन करना संभव हो पाएगा– “ये अंग्रेज़
बड़े चालाक हैं। ये अच्छी तरह से जान गए हैं कि इस मुल्क की रिआया उनसे नाराज़ हो गई और उन्हे यहाँ से हटा देना चाहती है। इस बात को रोकने के लिए रिआया में आपस की फूट फैलाने से बढ़कर और क्या तरकीब हो सकती है।”10 चूँकि भारतीय समाज में विभिन्नता के बावजूद भी सौहार्द्र व एकता थी इसलिए उनकी मनसा बहुत ही ख़तरनाक थी– “इस देश के सभी निवासियों में इस समय बड़ा प्रेम है। परस्पर एक दूसरे के गले लग रहे हैं, हिंदुओं के तीर्थों की रक्षा के लिए मुसलमान खड़ा होता है और मस्जिदों को बचाने के लिए ब्राह्मण आगे बढ़ते हैं। फल क्या है,
देखते हो? परस्पर का विश्वास और विश्वास से उत्पन्न शांति। शांति कायरता की जननी और निरुत्साहिता की भगिनी है।
...इसीलिए कहता हूँ कि अगर हमें देश को शक्तिशाली बनना है तो यहाँ के निवासियों को आपस में लड़ा देना चाहिए पहले उनमें फूट उत्पन्न करनी चाहिए और इसके बाद परस्पर एक दूसरे पर अविश्वास। हर एक को दूसरे का ऐसा शत्रु बना देना चाहिए कि वे परस्पर एक दूसरे के
खून
के प्यासे हो जाएँ। जब यह अवस्था होगी तो दूसरे से लड़ने के वास्ते सभी अपना बल बढ़ाएँगे। वही बल जब ख़ूब बढ़ जाएगा तब ऐसा उपाय करेंगे कि हम सब पुनः एक हो जाएँ
और उस समय का हमारा ऐक्य इस देश को स्वतंत्र होने की शक्ति प्रदान करेगा।”11 यह सुनकर युवकों को लगता हैं कि इससे देश में खून-ख़राबा होगा, चारों तरफ़
मार-काट होगी और अंत में होता भी वही है।
लेखक ने अपने समय के यथार्थ को बिना डरे दिखाया। जो हो रहा था बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया– “कुछ ही घंटे पहिले यहाँ के हिंदुओं और सिक्खों में दुबारा भयानक मारकाट हो गई जिसके सबब से सैकड़ों ही जानें गई।”12
लेकिन योगी अपने तर्कों से उनकी बुद्धि को भ्रष्ट कर देता है। युवकों के साथ आम जनता भी उनका शिकार बन जाती है। योगी जैसे लोगों को भय था कहीं हमारे ही ख़िलाफ़
बगावत न कर दें इसलिए योगी जैसे लोग उन्हीं
के संगठन का हिस्सा बनकर अपने काम को अंजाम देते थे।
भारतीय समाज में आज़ादी के समय सांप्रदायिक दंगे बहुत हुए, चाहे वह हिंदू-मुस्लिम हो या सिख-ईसाई सभी एक दूसरे के ख़िलाफ़ दिखाई देते हैं। हिन्दू-मुस्लिम दोनों को राजनीतिक लाभ के लिए विभाजित करने का प्रयास किया जाने लगा। किन्तु कुछ लोग जानते थे कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के बग़ैर उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ लड़ा नहीं जा सकता इसलिए भारत में चल रहे सभी छोटे बड़े संगठनों के साथ सभी धर्मों के लोगों को शामिल किया जाए–“राष्ट्रीय आंदोलन में किसी भी अन्य विराट और सर्वग्राही आंदोलन की तरह पुरातनपंथियों से लेकर वामपंथियों तक सबको शामिल किया। 1920 के दशक में तो इस आंदोलन में सांप्रदायिकों को भी शामिल किया गया। शर्त सिर्फ़ यह थी कि वे हिन्दू-मुस्लिम एकता, समेकित भारतीय संस्कृति को स्वीकार करें और सांप्रदायिक घृणा को फैलाए बगैर उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष में शामिल हों।”13 ऐसे विचार देखते-देखते कुछ समय बाद धराशायी हो गए और आज़ादी के बाद भारत का विभाजन हो गया। ऐसा हम कह सकते हैं कि अंग्रेज़ों ने जो सोचा था, वह कर दिखाया।
उपन्यास के अंत में सांप्रदायिक घृणा ने जगह बना ली। सभी समुदायों के सभी वर्गो ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और अपना सब कुछ देश के नाम कर दिया जैसे रईस लक्ष्मीकांत ने अपना अंगूठा काटकर क्रांतिकारी होने का सबूत दिया। उससे यह ज्ञात होता है कि देश के सभी समुदाय के लोग देश के लिए कुछ भी कर गुज़रने के लिए तैयार हैं। लेकिन समाज में कुछ धूर्त किस्म के लोग भी मौजूद थे जिन्होंने समाज में हिंसा फैलाने का काम किया– “खूब! इन दोनों बेवकूफों के जरिये मैं इस मुल्क भर में वह आग लगा दूँगा
कि बड़े-बड़े लीडरों के होश पैतरे हो जायँगे! अगर मेरी किस्मत ने मेरा साथ दिया तो मैं ज़रूर
मुहमाँगा इनाम पाऊँगा। साहब कलक्टर बहादुर को ऐसा वफादार कोई भी नौकर न मिला होगा।”14 देश में स्वाधीनता प्राप्ति के लिए रक्त-मण्डल नामक जैसे कई सारे संगठन बने और अंग्रेज़ों
ने उन संगठनों में अविश्वास फैलाकर एक-दूसरे संगठनों में मतभेद पैदाकर उन्हे आंतरिक रूप से कमज़ोर कर दिया और यही नहीं अपनी दमनकारी नीतियों के सहारे उन्हें ख़त्म
कर दिया– “हुकूमत के एक ज़रा-से इशारे पर तुम्हारे मण्डल की छीछा लेदर हो गई, पचासों सदस्य पकड़े गए, कितने ही मुखिया मारे गए और कितने ही जेलखानों में पहुँच गए।”15
रक्त-मण्डल जैसे संगठन सिर्फ़ सरकारी काग़ज़ों
पर रह गए। क्रांतिकारियों का रक्त-मण्डल धीमा पड़ गया है। देश पहले की तरह चलने लगा, चारों तरफ़
शांति हो गई। रक्त-मण्डल जैसे संगठनों से अंग्रेज़ों
में भी भय बनने लगा था लेकिन आपसी भेद पैदाकर ऐसे संगठनों को ख़त्म
कर दिया गया। एकता में स्थायीपन न होने के कारण अंततः उपन्यास में रक्त-मंडल को समाप्त कर दिया जाता है। क्रांतिकारियों ने जन्मभूमि उद्धार के सपनों की
खातिर
अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया तथा मरते दम तक संघर्ष करते रहे।
स्वाधीनता आंदोलन के समय ‘हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ(1924)’
की स्थापना की गई थी। यह मान सकते हैं कि यही संघ उपन्यास में ‘रक्त-मण्डल’ के स्वरूप में
दिखाई देता है। स्वाधीनता आंदोलनों में हिंसा और अहिंसा का द्वन्द्व और इन विचारों की टकराहटों को उपन्यास में अमरसिंह और रघुबीर
सिंह के माध्यम से देखा जा सकता है। बहुत सारे फौजियों के साथ क्रांतिकारियों की जानें गईं। रघुबीर
सिंह कहता है– “अमर, इससे तुम यह तो समझ ही गए होगे कि ताक़तवर अंग्रेज़ी सरकार के मुकाबिले में शस्त्र विद्रोह करना कितनी बड़ी मूर्खता है।
...अगर थोड़े से लोग चाहें कि डरा धमकाकर और पिस्तौलों या बमों के ज़ोर से कुछ कर लें तो यह उनकी महज बेवकूफी है। हमारी गवर्नमेंट इतनी कमज़ोर नहीं है कि इने-गिने पागलों से डर जाए!”16 वो कहता है कि विश्वास रखो,
तुम लोगों को इस रास्ते से सफलता कभी नहीं मिलेगी। अमर भी जवाब देते हुए कहता है कि जब तक हमारी हार होगी तब तक ही लोग हमें पागल कहेंगे और हमारी हार हमारे ही लोगों के धोखे से होती है। एकता के बल पर ही बड़ी लड़ाई लड़ी जा सकती और जीता भी जा सकता है और यही कारण रहें कि कई स्वतंत्रता आंदोलन विफल हुए।
निष्कर्ष : क्रांतिकारियों का स्वाधीनता प्राप्ति के लिए तरीक़े अलग हो सकते हैं लेकिन उद्देश्य एक ही था अंग्रेज़ों
से मुक्ति। दुर्गाप्रसाद खत्री के प्रतिशोध उपन्यास में स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि की झलक पूरी तरह से दिखाई देती है। उत्तर भारत में आज़ादी के लिए जो भी घटनाएँ घट रही थीं
उसका यथार्थ चित्रण किया गया है। वर्तमान परिस्थितियों को आधार बनाकर उपन्यास को आगे बढ़ाया है। उपन्यासकार की मौलिकता यही है कि बहुत कम कल्पनाओं का सहारा लेकर देश व भारतीय समाज तथा अंग्रेज़ी
सरकार की वास्तविकता को सामने रखा है।
दुर्गाप्रसाद खत्री ने समाज में फैले सांप्रदायिक दंगों के साथ भारतीय राजनीति व आंदोलनों में शामिल मध्यवर्ग तथा उच्चवर्ग को भी दिखाया है। यह दोनों वर्ग अपने स्तर पर संघर्ष करते हुए दिखाई देते हैं। उपन्यास का विस्तृत विश्लेषण करने की आवश्यकता है चूँकि
इस उपन्यास में सिर्फ़
क्रांतिधर्मिता नहीं है बल्कि इसमें हिंसा और अहिंसावादी विचारों की टकराहटों को भी समाहित किया गया है। समाज में हो रहे परिवर्तन व्यक्तिगत मुक्ति के साथ आंदोलनकारियों के बीच प्रेमपूर्ण संबंधों को भी दिखाने का प्रयास किया
गया
है| लेकिन उपन्यास के केंद्र में स्वाधीनता आंदोलनों में क्रांतिधर्मिता की अहम भूमिका रही है और उसको पृथक रूप में नहीं देखा जा सकता।
3. दुर्गाप्रसाद खत्री, प्रतिशोध, लहरी बुक डिपो, तेरहवां संस्करण 2010, पृष्ठ संख्या : 4
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली
pinky986878@gmail.com, 9968785610
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