शोध सार : परिवार सामाजिक संरचना का एक अहम हिस्सा होता है। यह समाजीकरण के द्वारा बच्चों में परम्पराओं, मूल्यों एवं संस्कृतियों को पोषित करता है। सामाजिक प्रगति के साथ जैसे-जैसे सामाजिक संरचनाएँजटिल होती गईं, वैसे-वैसे व्यक्ति की भूमिकाएँ भी विस्तृत और व्यापक होती चली गईं। इन भूमिकाओं की तैयारी के लिए विद्यालय जैसी संस्थाओं की स्थापना की जाती है। बच्चों की शिक्षा का दायित्व विद्यालय जैसी संस्था के जिम्मे आ गया। वर्तमान समय में विद्यालय, परिवार और नई व्यावसायिक व्यवस्था के बीच संबंधों की मध्यस्थता के लिए प्रमुख संस्थान के रूप में उभरा है। इस लेख में विद्यालय के चयन में परिवार की भूमिका तथा विद्यालय एवं परिवार के सम्बन्धों का विश्लेषण किया गया है।
बीज शब्द : परिवार, विद्यालय, पारिवारिक पृष्ठभूमि, अध्यापक-अभिभावक संघ।
मूल आलेख
: परिवार किसी भी समाज की आधारभूत इकाई होती है। परिवार में बच्चे को अनौपचारिक रूप से न केवल परंपराओं, मूल्यों एवं संस्कृतियों को सिखाया जाता है बल्कि उसकी देखभाल और व्यवहार को भी नियंत्रित किया जाता है। परिवार अपनी सांस्कृतिक पूंजी को भावी पीढ़ी के लिए संरक्षित और समाजीकरण के द्वारा हस्तांतरित भी करता है। परिवार समाजीकरण,
सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण के साथ-साथ बच्चों को समाज की भावी भूमिकाओं के लिए तैयार करने में योगदान करता है। इससे ही बच्चे की सामाजिक पहचान या स्थिति भी निर्धारित होती है। ‘सामाजिक संरचना में परिवार की भूमिका बहुत ही अहम होती है। शिक्षा की प्रक्रिया सामाजिक संरचना में ही विकसित होती है। सामाजिक संरचना समय,
काल एवं परिस्थिति के अनुसार सरल से जटिल होती गयी। ऐसे में व्यक्तियों की भूमिकाएँ भी विशिष्ट एवं विस्तृत होती गयी। इन विशिष्ट एवं विस्तृत भूमिकाओं के लिए व्यक्ति को तैयार करने में परिवार और समुदाय को चुनौतियों का सामना करना पड़ा, तब समाज मूल्यों, परंपराओं एवं संस्कृतियों को औपचारिक शिक्षा के माध्यम से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित करने के लिए और विशिष्ट एवं विस्तृत भूमिकाओं के रूप में व्यक्तियों की तैयारी के लिए विद्यालय जैसी संस्था की स्थापना करता है।’1
विद्यालय, परिवार और नई व्यावसायिक व्यवस्था के बीच संबंधों की मध्यस्थता के लिए प्रमुख संस्थान के रूप में उभरा है। विद्यालय समाज में असमानता के उत्पादन में भी प्रमुख भूमिका निभाता है क्योंकि समाज में विद्यालयों की अलग-अलग श्रेणियाँ हैं जैसे- निजी विद्यालय,
सरकारी विद्यालय, अर्ध सरकारी विद्यालय, बिना फीस या कम फीस वाले विद्यालय और अधिक फीस वाले विद्यालय, हिन्दी या स्थानीय भाषा के माध्यम के रूप में संचालित विद्यालय,
अंग्रेजी भाषा के माध्यम के रूप में संचालित विद्यालय। ‘समाज में जिन विद्यालयों को अच्छा माना जाता है वह न केवल महंगे हैं बल्कि इसमें प्रवेश भी बहुत मुश्किल से होता है। इन स्कूलों में माता-पिता की पृष्ठभूमि,
स्थिति और व्यक्तित्व का परीक्षण भी किया जाता है। इस प्रकार विद्यालयों की गुणवत्ता में भी काफी अंतर होता है। उच्च और मध्यम आर्थिक वर्ग के लोग अपने बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ विद्यालय का चयन करते हैं और चयन में वह बहुत सावधानी बरतते हैं।’2 विद्यालयों की अलग-अलग श्रेणियों में भी बच्चों के परिवार से होने वाली अंतःक्रिया के स्वरूप में अंतर दिखाई देता है। इस लेख में विद्यालय और परिवार के संबंधों का विश्लेषण किया गया है जिसके लिए निम्नलिखित सवालों को संबोधित किया गया है-
परिवार अपने बच्चों के लिए विद्यालयों का चयन किस आधार पर करते हैं? विद्यालय के चयन को कौन से कारक प्रभावित करते हैं? विद्यालय में बच्चों के परिवार एवं अध्यापकों से किस प्रकार की अंतःक्रिया होती है?
विद्यालय में अध्यापक-अभिभावक संघ कैसे विद्यालय और परिवार के संबंध को बेहतर बनाता है? विद्यालय में अभिभावकों को अपने बच्चों संबंधी बातचीत के लिए कितना स्पेस रखा गया है? यह लेख उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के एक सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय* के बच्चों और उनके परिवार तथा विद्यालय के अध्यापकों से होने वाली बातचीत पर केन्द्रित है। यह लेख मेरे पीएच.डी. शोध का हिस्सा है। इस लेख में विद्यालय के कक्षा 12 में पढ़ने वाले 20 विद्यार्थियों और उनके परिवार तथा कक्षा
12 में पढ़ाने वाले 5 अध्यापकों से बातचीत के आधार पर आंकड़ों का संकलन किया गया है। प्राप्त आंकड़ों को वर्गीकृत करते हुए थीम आधारित विश्लेषण किया गया है।
*शोध की नैतिकता को ध्यान में रखते हुए विद्यालय की पहचान गोपनीय रखी गयी है।
विद्यालय के चयन में परिवार की भूमिका -
‘परिवार बच्चे की पढ़ाई के लिए विद्यालय के चयन, कैरियर के मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परिवार की यह भूमिका एक समाज से दूसरे समाज में और एक सामाजिक वर्ग से दूसरे सामाजिक वर्ग में परिवार की साधन संपन्नता और प्रेरणा में भिन्न-भिन्न होती है।’3
चयनित विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चे अधिकतर आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि के हैं। विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों और उनके परिवार से जानने का प्रयास किया गया कि इसी विद्यालय का चयन पढ़ने के लिए क्यों किया गया? बच्चों से की गई बातचीत के आधार पर पाया गया कि अधिकतर बच्चों ने पढ़ाई के लिए विद्यालय का चयन स्वयं किया है,
और अभिभावक भी उनके चयन में अपनी सहमति प्रदान करते हैं। यह चयन माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर किया गया है। विद्यालय का चयन वे अपने समूह साथी से प्रभावित होकर, भाई-बहन से मार्गदर्शित होकर तथा कम फीस के आधार पर किये हैं। दो विद्यार्थियों ने यह भी बताया कि एनसीसी के कारण उन्होने इस विद्यालय का चयन किया है। परिवार के लोगों से बातचीत के आधार पर पाया गया कि यह जनपद का एक अच्छा और नामी विद्यालय है, आस-पड़ोस के लोगों के कहने पर, बच्चों के दोस्त भी वहीं पर नाम लिखवा रहे थे, कम फीस लगती है, इस आधार पर पढ़ाई के लिए विद्यालय का चयन किया गया है। बच्चों एवं उनके परिवार की प्रतिक्रियाओं के आधार पर पता चलता है कि विद्यालय के चयन में परिवार की भूमिका उतनी नहीं रहती है। आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि के होने के कारण परिवार के वयस्क अपनी दैनिक आवश्यकताओं को जुटाने और भविष्य के लिए संचय करने में लगे रहते हैं। वे अपने बच्चों की पढ़ाई पर कम ध्यान दे पाते हैं। परिवार में लोगों का कम पढ़ा-लिखा होने या अनपढ़ होने से भी वे विद्यालय के चयन में कोई निर्णय नहीं ले पाते हैं।
एक तरफ निजी विद्यालय में भारी-भरकम फीस और उसके साथ कोचिंग की भी फीस देने में वह सक्षम नहीं हैं इसलिए अपने बच्चे को इस विद्यालय में पढ़ने के लिए भी प्रेरित करते है। एक बच्चे के पिता ने कहा कि जब हमें अपने बच्चे को कोचिंग पढ़ाना ही है,
हम अपने बच्चे को प्राइवेट विद्यालय में पढ़ने के लिए क्यों भेजें? इससे अच्छा है कि हम सरकारी विद्यालय में अपने बच्चे को पढ़ाएंगे और कोचिंग भी करवा देंगे। हम दो जगह इतना खर्च नहीं कर सकते हैं। इन परिवारों से प्राप्त आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि परिवार का कोई भी वयस्क सदस्य अपने बच्चे से विद्यालय में हुई दैनंदिन क्रियाकलापों पर पूछताछ या बातचीत भी नहीं करता है। शिक्षकों ने भी बताया कि बच्चों का प्रवेश पहले आओ पहले पाओ के आधार पर हो जाता है। विद्यालय में प्रवेश के लिए बच्चे स्वयं आते हैं। बच्चों के माता-पिता इक्का-दुक्का ही आते हैं।
ऐसे परिवार जिसमें माता-पिता किसी प्रतिष्ठित नौकरी पेशे में होते हैं और उनकी शैक्षिक पृष्ठभूमि अच्छी होती है, भविष्य के लिए सचेत एवं जागरूक होते हैं तो वे अपने बच्चों के लिए परिवार में जरूरी एवं आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराते है। इस परिवार में पलने वाला बच्चा उन परिवार में पलने वाले बच्चों से अलग होता है जिसमें संसाधनों का अभाव अथवा सीमित संसाधन होता है। इन घरों का माहौल वह परिवार जो सुविधासम्पन्न होते हैं उससे बहुत ही अलग होता है। बच्चे सभी परिवारों में समान रूप से जन्म लेते हैं लेकिन गरीब परिवार में जन्म लेने के संयोग मात्र से बड़े होते समय उन्हें अवसर या सहारा मिलनें में कई अड़चनें आती हैं। समाज में आदर्श तौर पर ऐसा माना जाता है कि बच्चा विकास करने के लिए किसी भी पद/स्थान की आकांक्षा रखने के लिए स्वतंत्र होता है लेकिन समाज में इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भी दिखाई देते हैं कि किस प्रकार आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि कुछ परिवारों को समृद्ध बनने की संभावना प्रदान करती हैं। बच्चा जिस भी परिवार में पैदा होता है उसकी आर्थिक स्थिति का महत्व कहीं ज्यादा दिखता है। परिवार का एक पहलू यह भी है कि वह किस प्रकार अपने बच्चों के लिए अवसर बढ़ाता है और सत्ता,
संसाधनों एवं सम्मान तक उनकी पहुंच को सुगम करता है।
‘शिक्षित एवं संगठित क्षेत्रों में नौकरी एवं व्यवसायों में कार्यरत परिवार अपने बच्चों को घर पर अच्छा माहौल प्रदान करते हैं साथ ही साथ उनके लिए अच्छे विद्यालय का चयन भी करते हैं। वहीं दूसरी ओर अशिक्षित व अकुशल शारीरिक कामगारों के बच्चे जिनको घर पर अच्छा माहौल भी नहीं मिलता है और वे अपने बच्चों के लिए अच्छे विद्यालय का चयन भी नहीं कर पाते हैं।’4 समाज में जिन परिवारों में शिक्षा को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है उनमें बच्चों की प्रगति एवं उपलब्धि बेहतर पायी जाती है । सुविधासंपन्न परिवारों के भीतर बच्चों के लिए अच्छा माहौल तैयार किया जाता है, घरेलू कामों से दूर रखा जाता है और उनकी पढ़ाई के लिए अच्छे विद्यालय का चयन भी किया जाता है। वहीं सुविधाहीन एवं आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों में बच्चों को घर में न तो अच्छा माहौल और बुनियादी संसाधन मिल पाता है बल्कि पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें संसाधनों को जुटाने में सहयोग करना पड़ता है। यदि सहयोग न करना भी पड़े तो उन्हें पढ़ाई के लिए परिवार से बहुत कम सहयोग मिल पाता है। परिवार की आर्थिक पृष्ठभूमि या उसकी आर्थिक हैसियत बच्चे के समाजीकरण और उसकी शिक्षा पर महत्वपूर्ण असर डालती है। जीवन में खास तौर से शिक्षा में मिलने वाले अवसरों पर परिवार की आर्थिक हैसियत का असर काफी गहरा होता है। आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों की पहुंच अच्छे स्कूलों तक नहीं हो पाती और यही स्थिति चयनित विद्यालय में दिखाई पड़ती है।
विद्यालय एवं परिवार का माहौल एवं बच्चों की उपलब्धि -
‘समाज में प्रत्येक परिवार की सांस्कृतिक पूंजी, सामाजिक पूंजी और घर का माहौल भिन्न-भिन्न होता है। बच्चे के समाजीकरण पर परिवार की पृष्ठभूमि का गहरा प्रभाव पड़ता है। बच्चे के लिए विद्यालय का अनुभव भी अलग-अलग परिवारों में अलग-अलग होता है।’5
ऐसे परिवार जिसमें बच्चों की स्कूली शिक्षा कम उम्र में ही आरंभ हो जाती है उन परिवारों के बच्चों का विद्यालय का अनुभव भिन्न होता है। ऐसे बच्चे विद्यालय की प्रक्रियाओं में अपने आपको अभ्यस्त कर लेते हैं और उनमें डर, शर्माना इस तरह के भाव समाप्त हो जाते हैं। परिवार और विद्यालय के बीच का रिश्ता अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण होता है। ‘विद्यालय का माहौल भी उन बच्चों के माहौल के सबसे करीब होता है जिनके परिवार अपने घर में बच्चों को अपनी बात कहने,
सवाल पूछने, सृजनात्मक गतिविधियों में संलग्न करते हैं।’6 विद्यालय में दिये जाने वाले उदाहरण और विद्यालय के अच्छे रोल मॉडल का उदाहरण भी ऐसे बच्चों का लिया जाता है जो बच्चे पढ़ने में अच्छा कर रहे होते हैं। पढ़ने में अच्छा वही बच्चे करते हैं जिनके परिवार में शिक्षा को लेकर जागरूकता एवं चैतन्यता होती है।
चयनित विद्यालय के अध्यापकों का कहना है कि कक्षा
12 में पढ़ने वाले बच्चों में 10 प्रतिशत बच्चों का प्रदर्शन ही बेहतर है, बाकी 90 प्रतिशत विद्यार्थी या तो औसत दर्जें के हैं या तो उससे भी नीचे हैं। इसके कारणों के बारे में अध्यापक बताते हैं कि बच्चे कक्षा में अनुपस्थित रहते हैं। घर से विद्यालय के लिए निकलते हैं, लेकिन विद्यालय न आकर कहीं और घूमते रहते हैं। बच्चों के माता-पिता खुद या तो अनपढ़ हैं या तो ज्यादा पढे-लिखे नहीं हैं, उनके घर और आस-पास का माहौल भी पढ़ाई के लिए अनुपयुक्त है। बच्चों के अभिभावक कभी उनके बारे में पता करने के लिए विद्यालय में आते भी नहीं हैं। विद्यालय में तो बच्चे केवल
6 घंटे रहते हैं, शेष समय तो वे घर पर ही रहते हैं। कक्षा में बच्चों की संख्या बहुत अधिक है,
बच्चों के लिए प्रश्न पूछने, चर्चा करने का स्पेस नहीं रहता है। अध्यापक कहते हैं कि इक्का-दुक्का बच्चे ही कक्षा में प्रश्न पूछते हैं,
वे कक्षा में सक्रिय नहीं रहते हैं। अध्यापक कक्षा के
5 प्रतिशत बच्चों को ही नाम से जानते हैं क्योंकि वह या तो पढ़ने में तेज हैं या विद्यालय और कक्षा में उनकी सक्रियता अधिक रहती है। अध्यापक औसत दर्जे के बच्चों पर ध्यान नहीं देते हैं, जिसका कारण वह बताते हैं कि कक्षा में बच्चों की संख्या बहुत अधिक है,
एक-एक बच्चों पर ध्यान तो नहीं दिया जा सकता है। तो वहीं पर बच्चों से बात करने पर पता चलता है कि अध्यापक बच्चों से कहते हैं कि तुम लोग कोचिंग में प्रश्न पूछा करो, यहाँ पर मत पूछा करो। एक बच्चा बताता है कि एक बार एक अध्यापक से प्रश्न पूछ लिया तो उन्होने डांट कर बैठा दिया। बच्चे यह भी बताते हैं कि यहाँ पर क्लास भी पूरी नहीं चलती है। बच्चे स्कूल में आते हैं और बैठकर मोबाइल देखते रहते हैं। कक्षा में उपस्थिति के बारे में बच्चे कहते हैं कि विद्यालय में आने-जाने का जब कोई नियम ही नहीं है तो क्या करें। छुट्टी से पहले ही बच्चे विद्यालय से चले जाते हैं,
उनको रोकने-टोकने वाला कोई नहीं है,
अटेंडेंस भी नहीं होती है, तो इससे बच्चा सीख जाता है कि यहाँ पर बिना प्रतिदिन आए भी काम चल सकता है।
आंकड़ों के आधार पर यह पता चलता है कि विद्यालय में कक्षाओं का संचालन ठीक ढंग से नहीं होता है। अध्यापक कई बार अपनी क्लास छोड़ देते हैं। जब अध्यापकों से इस बारेमें बात की गई तो वे कहते हैं कि विद्यालय के अन्य कार्यों में जब संलग्न कर दिया जाता है तो उस समय क्लास नहीं ले पाते हैं। आंकड़ों के संकलन के दौरान अवलोकन किया गया कि कक्षाओं का संचालन नियमित ढंग से नहीं किया जा रहा है, जिससे विद्यार्थियों का प्रदर्शन भी प्रभावित होता है।
परिवार कहाँ रहता है? परिवार में लोग क्या व्यवसाय करते हैं? परिवार की आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है?
परिवार के आस-पास लोगों का घरेलू जीवन किस प्रकार का है? परिवार में शिक्षा का क्या माहौल है? इससे भी बच्चे की उपलब्धि प्रभावित होती है। कुछ परिवार के लोग भी जानते हैं कि विद्यालय में पढ़ाई का माहौल अच्छा नहीं है, लेकिन वे अपनी आर्थिक हालात के आगे कुछ नहीं कर सकते हैं। अधिकतर परिवार के लोगों को यह पता ही नहीं है कि विद्यालय में सभी कक्षाओं का संचालन नहीं होता है। चयनित विद्यालय में वही बच्चे ज़्यादातर पढ़ने आते हैं जो निजी विद्यालयों की फीस वहन करने में असुविधा महसूस करते हैं। ‘विद्यालय में बच्चे की उपलब्धियों का एक जैविक आधार भी होता है (बच्चा बोध के स्तर पर सक्षम हो, कुपोषित या दिमागी तौर पर अक्षम न हो)। बच्चे की जैविक क्षमताओं का विकास काफी हद तक इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस तरह के सामाजिक एवं आर्थिक परिवेश में पला और बड़ा हुआ है और उसने खुद कितनी मेहनत और पहल की है।’7 हर कक्षा में कुछ बच्चे होते हैं जो कि जल्दी सीखते हैं और कुछ धीरे सीखते हैं। यह आम तौर पर सुनने को मिलता है कि जल्दी सीखने वाले बच्चे दूसरों से ज्यादा बुद्धिमान होते हैं। यह भी देखा गया है कि जब धीरे सीखने वाले को ऐसे विद्यालय में डाला जाता है जहां उसे ज्यादा ध्यान और मदद मिलती है तो उसकी सीखने की गति बढ़ जाती है। कोई बच्चा विद्यालय में कैसे सीखता है या उसकी उपलब्धि क्या रहती है, इसका संबंध उसके विद्यालय की परिस्थितियों से, उसके सामाजिक परिवेश से और उसके माता-पिता किन आर्थिक एवं सामाजिक समूहों का हिस्सा हैं, इससे भी रहता है। इनके बिना बच्चों के सीखने की प्रक्रियाओं को और उनकी किस तरह से मदद की जा सकती है, इसे समझना कठिन है।
पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं सामाजिक परिवेश का शिक्षा पर प्रभाव -
भौतिक पूंजी का असमान वितरण परिवारों के बीच असमानताओं का प्रमुख घटक है, लेकिन इन असमानताओं के अलावा और भी बहुत कुछ है जो परिवारों में असमानताओं का पुनरुत्पादन करता है। परिवार के पास भौतिक पूंजी के अलावा सांस्कृतिक पूंजी भी होती है जिसमें ज्ञान, कौशल, भाषा आदि पर उसका अधिकार होता है जो कि उनके विशिष्ट जीवन एक हिस्सा होता है। परिवार के पास संबंधों के नेटवर्क के रूप में इसकी अपनी सामाजिक पूंजी भी होती है जो कि आंशिक रूप से अतीत से प्राप्त की गई होती है और आंशिक रूप से इसके सदस्यों की पहल के माध्यम से बनाई गई होती है। समाज में अलग-अलग परिवारों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी की मात्रा परिवर्तनीय होती है। ‘परिवार की सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी उसके संबंधों के नेटवर्क में शामिल भी होती है जो पूरे परिवार या उसके व्यक्तिगत सदस्यों के हितों को बनाए रखने और आगे बढ़ाने के लिए सक्रिय होती है। जिस समाज में परिवार की प्रतिबद्धता या उसकी पृष्ठभूमि मजबूत होती है वहां बच्चे अपने माता-पिता के सामाजिक संपर्कों से लाभान्वित होते हैं परिवार अपने सदस्यों की संभावनाओं को आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी का उपयोग भी करते हैं।’8
परिवार के सदस्यों एवं बच्चों से बातचीत के आधार पर यह पता चलता है कि वे परिवार जो किसी सर्विस क्लास में नहीं उनका कहना है कि बच्चा अपने पैरों पर खड़ा हो जाये, कोई छोटी-मोटी सरकारी नौकरी लग जाये, दू चार पैसा का आदमी बन जाएँ हम यही चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर जिनके परिवार में लोग सर्विस क्लास में हैं वे अपने बच्चों आईएएस,
टीचर,
डॉक्टर और इंजीनियर बनते हुए देखना चाहते है। वे अपने बच्चों को इसके लिए आवश्यक सुविधाएं भी मुहैया करवाते है। सर्विस क्लास के परिवार के बच्चों की संख्या बहुत कम है। 20 में से केवल 2
ही परिवार मिले जो किसी सर्विस क्लास में हैं नहीं तो 18
परिवार के लोग दिहाड़ी मजदूर या असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। समाज में प्रत्येक परिवार अपने बच्चों को एक निश्चित मुकाम जैसे कि नौकरी को हासिल करने की आकांक्षा रखता है। समाज में सुविधा सम्पन्न परिवार इस आकांक्षा की प्राप्ति में लगातार सचेत एवं जागरूक रहते हैं, वहीं दूसरी ओर सुविधा से वंचित परिवार अपने बच्चों को इसके लिए तैयार करने में अक्षम होते हैं। उनके पास सुविधाओं का अभाव रहता है और वे अपनी रोज़मर्रा की आवश्यकताओं को जुटाने में अपने को व्यस्त रखे हुए होते हैं। सरकारी विद्यालय जिसका मैंने अध्ययन किया है उसमें पढ़ने वाले अधिकांश बच्चों के परिवार अपने बच्चों के लिए सचेत एवं जागरूक नहीं हैं। सचेत एवं जागरूक न होने का कारण उनकी व्यस्तता है वे अपने बच्चों पर अधिक समय नहीं दे पाते हैं।
‘परिवार बच्चे के सामाजिक माहौल का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा होता है। बच्चे का पारिवारिक माहौल या उसकी आर्थिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि उसके भविष्य को कुछ हद तक निर्धारित करती है।’9 उच्च वर्ग या प्रतिष्ठित वर्ग का परिवार कई प्रकार की मनोवैज्ञानिक विफलताओं के बावजूद अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पूंजी को अपने बच्चों तक पहुंचाने में सफल रहते हैं। परिवार के भीतर सामाजिक एवं सांस्कृतिक पूंजी को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तानांतरण प्रत्यक्षतः नहीं किया जाता बल्कि यह जटिल सामाजिक और शारीरिक प्रक्रियाओं द्वारा निर्देशित होता है। ‘उच्च आर्थिक वर्ग और सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से सुविधासंपन्न वर्ग के लोग अपने बच्चों के लिए सांस्कृतिक पूंजी को संचरित तो करते ही हैं और साथ ही साथ बच्चों की शिक्षा और प्रशिक्षण के लिए भी जल्दी सक्रिय हो जाते हैं। ऐसे परिवार में लोग न केवल स्वयं अपने बच्चों के कैरियर के प्रति अधिक सचेत एवं जागरूक रहते हैं बल्कि अपने बच्चों को भी कैरियर के प्रति सचेत और जागरूक करते रहते हैं। वहीं दूसरी ओर कम संसाधनों वाले परिवारों के बच्चे सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से कमजोर होते हैं। उनका सामाजिक नेटवर्क कमजोर होता या तो प्रभावी नहीं होता है।’10
विद्यालय में बच्चों के परिवार और अध्यापकों की अंतःक्रिया -
विद्यालय में अध्यापक ही एक ऐसा कर्मी होता है जो परिवार और विद्यालय के मध्य होने वाली अंतःक्रिया में सेतु का कार्य करता है। बच्चों से प्रत्यक्ष अंतःक्रिया के द्वारा ही अध्यापक न केवल बच्चे से बल्कि उसके परिवार से जुड़ता है। अध्यापक बच्चों को शिक्षित ही नहीं करता है बल्कि बच्चों के कैरियर में मार्गदर्शन एवं उनकी शिक्षणेत्तर समस्याओं को भी हल करने का प्रयास करता है।
विद्यालय के अध्यापकों से बातचीत के आधार पर पता चलता है कि बच्चों के परिवार से कोई भी विद्यालय में अपने बच्चों की प्रगति के बारे में जानने नहीं आता है। वे कहते हैं कि उन्हें अपने बच्चों की पढ़ाई की कोई चिंता ही नहीं है। वे चाहते हैं कि हमारा बच्चा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बन जाए लेकिन उसके लिए क्या करना है इसके बारे में परिवार के लोगों को पता नहीं है और ना ही इसकी कोई प्राथमिकता है। वे कभी यह भी नहीं देखने या पता करने आते हैं कि हमारा बच्चा क्या कर रहा है क्या पढ़ रहा है विद्यालय आया या नहीं आया। एक अध्यापक कहते हैं कि जब वे खुद अनपढ़ हैं तो अपने बच्चे को क्या पढ़ाएंगे। एक और अध्यापक का कहना है कि कई बार तो बच्चों के अभिभावक को हम बुलाते-बुलाते थक गए लेकिन कोई भी विद्यालय में नहीं आया। सभी अध्यापक कहते हैं कि विद्यालय में पीटीएम नहीं होती है यदि पीटीएम होने लगेगी तो हमारे ऊपर भी काम का दबाव बढ़ जाएगा तो हम भी नहीं चाहते हैं कि विद्यालय में पीटीएम हो। वैसे ही विद्यालय में काम बहुत है एक काम और मत बढ़ाइए। पीटीएम होने लगेगी तो हमारे ऊपर काम का बोझ और बढ़ जाएगा। एक क्लास में 100
से अधिक बच्चे हैं पीटीएम करवाएंगे तो सबको एडजस्ट कहां करेंगे। एक दूसरे अध्यापक का कहना है कि प्राइवेट विद्यालय में परिवार के लोग अपने बच्चों की फीस देते हैं। इसलिए वहां जाकर के अपने बच्चे की पढ़ाई के बारे में पता भी करते हैं, लेकिन इन स्कूलों में फीस बहुत कम लगती है नाम मात्र की फीस लेने से वह अपने बच्चों के बारे में पता करने नहीं आते हैं। केवल इक्का दुक्का बच्चों के परिवार के लोग ही फीस जमा करने और कुछ शिकायत करनी होती है या उनके बच्चे की कोई शिकायत होती है तब आते हैं। सभी अध्यापकों का कहना है कि ऐसे माता पिता जो सर्विस क्लास में हैं या नौकरी में हैं वे अपने बच्चों के बारे में कभी-कभी पता करने चले आते हैं। जो अपने बच्चों के बारे में विद्यालय में पता करने नहीं आते हैं,
उन माता-पिताओं के बारे में विद्यालय के अध्यापकों की धारणा है कि वे अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर के चिंतित नहीं हैं। वे अपने बच्चों को फीस व आवश्यक संसाधन तो मुहैया करा देते हैं लेकिन उनसे दैनंदिन विद्यालय की गतिविधियों पर बात नहीं करते हैं। हमारे विद्यालय में बच्चे 6
घंटे रहते हैं बाकी समय तो घर पर ही रहते हैं। बच्चों के पिता बाहर काम करते हैं शाम को आते हैं तो थक जाते हैं, माँ को बच्चे गुमराह करते हैं या समझते ही नहीं।
विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों के परिवार के सदस्यों से बातचीत करने पर पता चलता है कि एक अभिभावक कहते हैं कि हम तो विद्यालय में अपने बच्चे के बारे में पता करने नहीं जा पाते हैं। एक बार फीस भरने गए थे तो एक टीचर से मिले थे। एक बच्चे के अभिभावक कहते हैं कि विद्यालय में कभी बुलाया ही नहीं जाता और कभी पीटीएम भी नहीं होती है। एक और बच्चे के अभिभावक कहते हैं कि विद्यालय जाने से क्या फायदा जब जाओ तो टीचर क्लास में रहते हैं और कहते हैं आज समय नहीं है कल आइएगा। एक बार विद्यालय गया था तो एक टीचर से मैंने कहा कि माड़साहब तनी हमरे लड़ीकवा पर ध्यान दीहा। अर्थात मेरे बच्चे पर थोड़ा ध्यान दीजिएगा तो वे मेरे बच्चे को नाम से पहचान ही नहीं पा रहे थे फिर मैं अपने बच्चे को क्लास से बुलाकर उनसे मिलवाया। एक बच्चे के अभिभाभक अपनी भाषा में कहती हैं कि हम त पढले-लिखले नाहीं हई, येनकर पापा बहरे रहलन, हम स्कूले में जाइके मास्टरन से कइसे बतियाईब। मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूँ इनके पापा बाहर रहते हैं तो मैं विद्यालय जाकर टीचर क्या बात करूंगी। एक और अभिभावक बताते हैं कि एक तो हम इतना व्यस्त रहते हैं हम अपनी मजदूरी छोड़े अपना काम छोड़े तब हम विद्यालय जाएं और विद्यालय जाने पर भी अध्यापक ठीक से बात ना करें तो हमारे जाने का क्या फायदा है। एक दूसरे अभिभावक का कहना है कि हम त अनपढ़ गंवार हई, हम स्कूलवां जाईबो करब त मास्टर साहब से का बतियाइब। मैं पढ़ा लिखा नहीं हूँ। विद्यालय में अध्यापक से मैं क्या और कैसे बात करूंगा। इनको लगता है कि अपनी बात एक ऐसी भाषा जो कि विद्यालय में बोली जाती है उसमें नहीं रख पाएंगे तो उनकी टीचर के सामने एक खराब इमेज बनेगी इस कारण से वह विद्यालय नहीं जाना चाहते हैं। एक अभिभावक का कहना है कि अध्यापक हम लोगों की ही गलती निकालते हैं वह कहते हैं कि आपका बच्चा तो हमारे यहां केवल 6 घंटे ही रहता है ज्यादातर समय तो वह आपके पास ही रहता है। अध्यापक हमारे बच्चों को ध्यान से नहीं पढ़ाते हैं।
आंकड़ों में पाया गया कि अध्यापक एवं बच्चों के परिवार से संवाद बहुत ही न्यूनतम या न के बराबर ही होता है अध्यापक भी परिवार से संवाद करने से कतराते हैं वे अपना समय अपने व्यक्तिगत कामों में लगाना चाहते हैं शिक्षकों को अभिभावकों से संवाद का कोई समय और स्थान निर्धारित नहीं किया गया है अभिभावकों में विद्यालय एक ऑफिस दफ्तर का प्रतीक है वह प्रधानाचार्य व अध्यापक से बात करने में झिझक महसूस करता है। यह झिझक उसके भीतर क्यों है? यह उसके भीतर कहाँ से आई? क्योंकि उसमें विद्यालय का परिवेश यह विश्वास ही नहीं पैदा किया कि वह घर पर बोली जाने वाली भाषा में भी अध्यापक से बात-चीत कर सकता है और अपने बच्चे की प्रगति और समस्या को जान सकता है। एक अभिभावक कहते हैं कि विद्यालय जाने पर अध्यापक हमेशा बच्चे की कमी व गलती निकालते हैं कई बार अध्यापक अपनी पहचान वालों को ज्यादा तवज्जो देते हैं। कम पढ़ा लिखा होने के कारण मुझे टीचर की भाषा में बात करने में दिक्कत आती है इसलिए मुझे उनसे बात करने में झिझक भी महसूस होती है।
हमारा बच्चा कॉपी किताब लेकर बैठा तो रहता है जब हम इतना पढ़े-लिखे ही नहीं है तो हम उसके बारे में क्या जाने। कई अभिभावकों का कहना है कि विद्यालय में जाएंगे तो रोजी रोटी कौन कमाएगा, एक दिन स्कूल गए तो एक दिन की दिहाड़ी मारी जाएगी,
स्कूल गए भी तो टीचर मिलें और बात करें इसकी भी संभावना कम ही रहती है। हम पढ़े लिखे नहीं हैं तो वहां जाकर क्या पूछेंगे वह हमारे बच्चों का नाम भी नहीं जानते हैं। एक अभिभावक कहते हैं कि टीचर के हाव-भाव तौर तरीका थोड़ा विचित्र होता है वह ठीक से बात ही नहीं करते हैं।
एक अध्यापक अभिभावकों के बारे में कहते हैं कि वे ठेला लगाते हैं, दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, कई बार तो अपने बच्चों को भी ठेले पर सब्जी बेचते हुए देखा है। उनके यहाँ से सब्जी लेता हूँ तो उसके पापा कहते हैं कि मास्टर साहब तनी हमरो लड़ीकवा क ध्यान रखिहा। एक अध्यापक ही अध्यापकों के बारे में कहते हैं कि अध्यापक अब केवल नौकरी करते हैं।
‘अध्यापक और अभिभावक के बीच होने वाली अंतःक्रिया बहुत महत्वपूर्ण होती है यह अंतःक्रिया ही उस अभिभावक के विश्वास को मजबूत करती है या कमजोर करती है। अध्यापक ही परिवार और विद्यालय के संबंधों को आकार देता है। यदि अध्यापक अभिभावक की सामाजिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर संवाद करता है तो वह अभिभावकों को कम या अधिक महत्व देता है। संबंधों को आकार देने में अध्यापक अभिभावक की अंतःक्रिया बहुत ही महत्वपूर्ण होती है।’11 इस विद्यालय में अभिभावक अध्यापक की संप्रभुता से टकराव वाली स्थिति से बचता है।
अध्यापक और बच्चों के संबंध में एक अध्यापक, अभिभावक, रोल मॉडल,
गाइड एवं नेतृत्वकर्ता के रूप में हो सकता है। अध्यापक बच्चों के परिवार से जुड़कर बच्चों के अधिगम में विस्तार के लिए सुझाव देता है। वह परिवार के सदस्यों को उनके बच्चों के प्रदर्शन से अवगत कराता है और उनकी प्रगति की समीक्षा भी प्रस्तुत करता रहता है। विद्यार्थी का नाम,
पृष्ठभूमि,
पढ़ाई का स्तर, व्यक्तित्व के माध्यम अध्यापक उसकी पहचान निर्मित करता है। यही पहचान अध्यापक को विद्यार्थी के परिवार से भी जुडने का अवसर प्रदान करती है। सैद्धान्तिक तौर पर विद्यालय में बच्चे, परिवार एवं अध्यापक के बीच अंतःक्रिया इसी प्रकार होती है। अध्यापक न केवल बच्चों के परिवार से भी बातचीत ही करता है बल्कि उन्हें सलाह भी देता है उनके भविष्य के लिए सुझाव भी देता है उनकी अधिगम स्तर की जानकारी भी देता है। समान्यतः सैद्धान्तिक रूप से एक अध्यापक अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों से पहचान विकसित करता है किन्तु व्यावहारिक तौर पर ऐसा सत्य नहीं है। आनुभविक स्तर पर विद्यालय के शिक्षकों से बातचीत के माध्यम से यह पाया गया कि कि वे अपनी कक्षा के कितने बच्चों को नाम से जानते और पहचानते हैं तो ज्ञात हुआ कि ऐसा कोई अध्यापक नहीं है जो अपनी कक्षा के 5 प्रतिशत से अधिक बच्चों का नाम जनता है। अध्यापक का इस बारे में कहना है कि मैं यहाँ पर पहचान बनाने नहीं आता,
बल्कि मैं पढ़ाने आता हूँ। एक अध्यापक ने बताया कि कक्षा में 100
से अधिक बच्चे पढ़ते हैं ऐसे में सभी का नाम याद करना संभव नहीं है। एक अध्यापक का कहना है कि मैं चेहरे से अपनी कक्षा के सभी बच्चों को पहचानता हूँ लेकिन नाम से नहीं। वहीं एक अध्यापक कहते हैं मैं उन बच्चों को नाम से जनता हूँ जो कक्षा में सक्रिय रहते हैं और कुछ प्रश्न पूछते हैं। इससे पता चलता है कि शिक्षकों को विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों से कोई खास लगाव नहीं है। ऐसे में जब अध्यापक बच्चों को ही नहीं पहचानते हैं तो उनके परिवार के सदस्यों से कितनी अंतःक्रिया होती होगी।
विद्यालय में अध्यापक-अभिभवाक संघ -
विद्यालय में बच्चे के अभिभावक की भागीदारी को आसान बनाने के लिए इस संघ का गठन किया जाता है। यह एक ऐसा मंच है जहां पर बच्चों से संबंधित प्रत्येक प्रकार की समस्या,
सुझाव और शैक्षिक प्रगति से संबंधित अंतःक्रिया अभिभावकों तथा अध्यापकों के बीच होती है। यह बच्चे,
उनके माता-पिता और अध्यापक के बीच अंतःक्रिया को बढ़ावा प्रदान करने का एक मंच है जिसके माध्यम से विद्यालय में शिक्षा के स्तर को बेहतर बनाने का प्रयास किया जाता है। यह शैक्षिक उद्देश्य, प्रक्रिया और परिणामों को भी बेहतर बनाने के लिए विचार करता है। संघ बच्चों की शिक्षा एवं शिक्षणेत्तर समस्या, सुझाव एवं शैक्षिक प्रगति से संबंधित, परिवार एवं अध्यापक के बीच अंतःक्रिया को आयोजित करता है।
विद्यालय से प्राप्त आंकड़ों से यह पता चलता है कि अध्यापक-अभिभावक संघ का गठन प्रत्येक वर्ष किया जाता है। प्रत्येक माह में एक दिन अध्यापक अभिभावक संघ की बैठक का भी आयोजन भी प्रस्तावित किया जाता है किन्तु यह सब केवल कागज पर ही होता है। विद्यालय के अध्यापक भी कहते हैं इसकी बैठक कब आयोजित की जाती है मुझे भी नहीं पता। बच्चों से भी इसके बारे में बात करने पर पता चला कि यह क्या है?
इसके बारे में हमें कुछ भी पता नहीं है और ना ही इस प्रकार की कभी बैठक आयोजन किया जाता है। बच्चों के परिवार के लोगों को भी इसके बारे में कोई भी जानकारी नहीं है। इसके कारणों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि विद्यालय में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के हैं। उनके परिवार के लोग अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों को जुटाने में व्यस्त रहते हैं और वे भी इस प्रकार के किसी संघ से परिचित नहीं हैं। एक अध्यापक कहते हैं कि पानी ऊपर से नीचे बहता है उनका इशारा विद्यालय-प्रशासन की ओर है। विद्यालय का प्रशासन ही इसके लिए तत्पर नहीं दिखाई देता है।
निष्कर्ष : सरकारी सहायता प्राप्त विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों और उनके परिवार से प्राप्त आंकड़ों का उपर्युक्त विश्लेषण सरकारी विद्यालयों एवं उसमें पढ़ने वाले बच्चों के परिवार के संबंधों का एक छोटा सा हिस्सा उजागर करता है कि इसमें पढ़ने वाले ज़्यादातर बच्चों का परिवार आर्थिक एवं सामाजिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि का है। बच्चों के परिवार में अभिभावक कम पढ़ा-लिखा होने या अनपढ़ होने से भी वे विद्यालय के चयन में कोई निर्णय नहीं ले पाते हैं। वे विद्यालय आकर अपने बच्चों की प्रगति से संबंधित जानकारी भी हासिल नहीं करते हैं। इसके लिए विद्यालय में कोई दिन/तिथि तथा स्थान को भी निर्धारित नहीं किया जाता है। विद्यालय से बच्चों के परिवार का संबंध बहुत ही निम्नतम पाया गया है। इस आधार पर यह कह सकते हैं कि परिवार और विद्यालय जैसी सामाजिक संस्थाएं भी असमानता को ही उत्पन्न करती हैं या बनाए रखती हैं। परिवार भी न केवल सामाजिक नियंत्रण का एक सक्रिय एजेंट है बल्कि यह सामाजिक स्थान का भी निर्धारण करता है। परिवार के संगठन और रूप में आ रहे परिवर्तनों के बावजूद यह वैसा ही बना हुआ है। वे परिवार जो आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सक्षम नहीं हैं उनके बच्चों को विद्यालयी माहौल में अपने को ढालने में समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे परिवार के बच्चों के हित को ध्यान में रखते हुए बेहतर स्कूली शिक्षा के अवसरों का विस्तार करने की आवश्यकता है।
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अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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