- डॉ. प्रेम कुमार
शोध
सार : हिंदी के
प्रतिष्ठित
साहित्यकार
मलयज
एक
संवेदनशील
कवि
होने
के
साथ-साथ
एक
गंभीर
आलोचक
भी
हैं।
उन्होंने
अपनी
विचारोत्तेजक
लेखनी
द्वारा
आलोचना
के
दोनों
पक्षों(सैद्धान्तिक
तथा
व्यावहारिक
आलोचना)
को
समृद्ध
किया
है।
मलयज
की
आलोचना
दृष्टि
शास्त्रीय
अथवा
विशुद्ध
अकादमिक
आलोचक
से
भिन्न
है। उनकी दृष्टि
में
‘कविता
आत्मसाक्षात्कार
है, और
आलोचना
कविता
से
साक्षात्कार।’ वे
किसी
भी
विषय
अथवा
कृति
का
मूल्यांकन
करते
समय
उसके
आंतरिक
संसार
में
उतरते
हैं।
उनकी
आलोचना
का
परिप्रेक्ष्य
विघटित
होते
मूल्यों
के
दौर
में
संवेदनशीलता
के
नये
आयामों
की
शिनाख्त
है।
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
की
आलोचना
दृष्टि
को
पुनर्व्याख्यायित
करने
में
मलयज
का
महत्वपूर्ण
योगदान
है।
बीज
शब्द : विशुद्ध, अकादमिक, परिप्रेक्ष्य, आलोचना, शिनाख्त, सौन्दर्य-मीमांसा, मानव
मूल्य, नवीन
आयाम, आत्मसाक्षात्कार, पुनर्व्याख्या, आलोचना
दृष्टि, व्यावहारिक
आलोचना, लोकमंगल, विश्लेषण।
मूल आलेख : एक
कवि
के
रूप
में
मलयज
जितने
उम्दा
और
संवेदनशील
हैं, उतना
ही
उनका
आलोचना-कर्म
गंभीरतापरक
और
उल्लेखनीय
माना
जाता
है।
यहाँ
उनके
आलोचना-कर्म
का
विश्लेषण
किया
जा
रहा
है।
जब
हम
मलयज
के
आलोचना
कर्म
पर
विहंगम
दृष्टि
डालते
हैं
तो
ज्ञात
होता
है
कि
उन्होंने
आलोचना
के
दोनों
पक्षों
(सैद्धान्तिक और
व्यावहारिक)
से
संबन्धित
महत्वपूर्ण
कार्य
किया
है।
हिंदी
आलोचना
के
क्षेत्र
में
उनके
इस
अमूल्य
योगदान
को
भुलाया
नहीं
जा
सकता
है।
मलयज
ने
साहित्य
(पद्य और गद्य)
की
रचना-प्रक्रिया, सौन्दर्य
मीमांसा, वस्तु
और
रूप, साहित्यकार
की
ईमानदारी
तथा
आलोचना-प्रक्रिया
आदि
के
साथ-साथ
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल, अज्ञेय, निराला, विपिन
कुमार
अग्रवाल, प्रभाकर
माचवे
इत्यादि
के
साहित्य
का
भी
मूल्यांकन
किया
है।
मलयज
आलोचना
कर्म
को
जिंदा
होने
के
एहसास
से
जोड़कर
देखते
हैं।
उनके
शब्दों
में-
“आलोचना लिखना मेरे
लिए
उतना
ही
जिंदा
काम
है, जितना
कि
कविता
लिखना, आलोचना
भी
उतनी
ही
लिखने
की
कोशिश
करता
हूँ
जो
मुझे
जिंदा
होने
का
एहसास
दिलाए
और
जिंदा
चीजों
के
विषय
में
मैं
एकबारगी
शुरुआत
नहीं
कर
पाता
हूँ, एक
झिझक, एक
संभ्रम
अपने
आप
को
तोलने
का
भाव
मन
में
होता
है
जैसे
मैं
किसी
निजी
और
पवित्र
वस्तु
को
छूने
जा
रहा
हूँ।”[1]
अतः
स्पष्ट
है
कि
मलयज
एक
उत्कृष्ट
साहित्यिक
हैं।
वे
आलोचना
को
भी
कविता
की
भाँति
पवित्र
वस्तु
मानते
हैं।
मलयज
आलोचना
को
भी
रचना
मानने
के
पक्ष
में
हैं।
उन्होंने
सैद्धान्तिक
आलोचना
को
‘मीमांसात्मक
आलोचना’ तथा
व्यावहारिक
आलोचना
को
‘रचनात्मक
आलोचना’ की
संज्ञा
दी
है।
आलोचना को
कविता
के
विपरीत, उल्टा
अथवा
विरोधी
मानना
पूर्णत:
असंगत
है
क्योंकि
आलोचना
कविता
की
प्रतिद्वन्द्वी
नहीं
बल्कि
समानान्तर
संसार
है।
मलयज
कविता
और
आलोचना
के
मध्य
के
संधिसूत्र
को
समझाते
हुए
कहते
हैं-
“कविता कुछ भी
सिद्ध
नहीं
करती, सिवाय
एक
अनुभव
को
रचने
के।
आलोचना
कुछ
भी
प्रमाणित
नहीं
करती, सिवाय
उस
रचे
हुए
अनुभव
को
व्यापक
अर्थ
विस्तार
देने
के।
अर्थ
का
एक
व्यापक
संसार
है, जिसमें
वह
अनुभव
है
और
उस
अनुभव
में
कविता
है
और
आलोचना
भी।
अनुभव
ही
कविता
को
आलोचना
से
जोड़ता
है, पर
कविता
में
इस
जुड़ने
की
अनुभूति
है
और
आलोचना
में
विचार।”[2]
यहाँ
मलयज
ने
कितने
सरल, सहज
ढंग
से
कविता
व
आलोचना
के
अन्तःसम्बन्धों
को
स्पष्ट
कर
दिया
है।
सचमुच
यह
मलयज
की
वैचारिकी
का
अद्वितीय
उदाहरण
है।
मलयज
ने
जीवनानुभवों
को
कविता
में
रचा, और
उन्हें
विस्तार
दिया
आलोचना
में।
अतः
उनके
लिए
आलोचना-कर्म
रचनात्मक
अनुभव
का
पुनर्प्रकाशन
है।
मलयज के
आलोचना
कर्म
के
व्यावहारिक
पक्ष
पर
नजर
डालें
तो
हिंदी
के
प्रतिष्ठित
आलोचक
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
के
आलोचना
कर्म
पर
आधारित
उनकी
पुस्तक
‘रामचन्द्र
शुक्ल’ (1987 ई.)
अत्यंत
महत्वपूर्ण
है।
इस
पुस्तक
में
मलयज
ने
न
केवल
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
के
आलोचना
कर्म
का
विश्लेषण
किया
है
बल्कि
उनकी
आलोचना
दृष्टि
को
भी
पुनर्व्याख्यायित
करने
का
प्रयास
किया
है।
मलयज
के
अनुसार
आचार्य
शुक्ल
के
पास
आंतरिक
उद्देश्य
था
कि
वे
देश
और
काल
को
एक
सूत्र
में
एकाग्र
और
परिभाषित
करें।
देश
के
संदर्भ
में
उनकी
दृष्टि
संस्कृत
क्लासिक्स
और
हिंदी
भक्ति
काव्य
से
निर्मित
हुई
थी।
मलयज
के
शब्दों
में-
“शुक्ल जी यथार्थ
और
आदर्श
दोनों
को
एक
साथ
स्वायत्त
करना
चाहते
हैं।
... ... उन्होंने भारतीय
क्लासिक्स
से
उत्पन्न
अपने
काव्यादर्श
को
अपने
वक्त
का
यथार्थ
बनाकर
पाना
चाहा
और
उस
यथार्थ
को
आदर्श
की
ऊँचाईयों
तक
ले
जाकर
छूना
चाहा।”[3]
निश्चित
ही
आचार्य
शुक्ल
विलक्षण-प्रतिभा
के
धनी
थे।
उनकी
दृष्टि
अत्यंत
विशाल
थी, इसीलिए
उन्होंने
अपने
समय
की
वास्तविकता
को
आलोकित
किया।
भाववादी
विचारक
चेतना
को
प्राथमिक
और
पदार्थ
को
उसका
प्रतिबिम्ब
मानते
हुए
अन्य
सभी
सांसारिक
क्रिया-व्यापारों
को
अज्ञात
बताते
हैं।
भाववादी
विचारक
इस
सम्पूर्ण
सृष्टि
को
किसी
परोक्ष
शक्ति
अथवा
आध्यात्मिक
सत्ता
के
अधीन
मानकर
समस्त
जगत-व्यापारों
की
व्याख्या
कार्य-कारण
संबंधों
की
श्रंखला
के
रूप
में
करते
रहे
हैं।
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
का
चिंतन-दर्शन
भी
भाववाद
से
प्रभावित
है।
मलयज
ने
लिखा
है-
“शुक्ल जी मूलतः
भाववादी
थे
लेकिन
भाव
में
पड़कर
बहना
नहीं, भाव
के
गुण
और
धर्म
को
दृढ़ता
से
पकड़ना, उन्हें
एक
पुष्ट
सांस्कृतिक
एकसूत्रता
में
नियोजित
करना
और
किन्हीं
व्यापक-मानव
मूल्यों
में
अर्थान्तरित
करना
उनकी
समालोचना
का
स्वभाव
था।”[4]
स्पष्ट
है
कि
मलयज
ने
भी
आचार्य
शुक्ल
को
एक
भाववादी
आलोचक
के
रूप
में
देखा, लेकिन
कुछ
अलग
व
बदले
हुए
रूप
में।
मलयज
ने
शुक्ल
को
ज्ञान
से
बंधा
हुआ
भाववादी
बताया।
अतः
आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
भावों
के
भौतिक
आधार
के
साथ
उसके
ज्ञानात्मक
आधार
पर
भी
बल
देते
हैं।
प्राय: आचार्य
रामचन्द्र
शुक्ल
को
‘रसवादी
आलोचक’ कहा
जाना
रूढ़
हो
गया
है।
मलयज
की
दृष्टि
में
यह
सही
न
था
कि
आचार्य
शुक्ल
को
किसी
विशेष
दायरे
अथवा
घेराव
में
रखकर
देखा
जाये।
इस
संदर्भ
में मलयज ने
लिखा
है-
“शुक्ल जी के
रसवाद
पर
दुर्भाग्य
से
रसवाद
की
इतनी
मोटी
परत
चढ़
चुकी
है
कि
उसके
भीतर
छिपे
सामान्य
मनुष्य
को
टटोलना
एक
दुस्साहिक
कार्य
ही
माना
जाएगा।
जो
शुक्ल
जी
के
लोक
जीवन, लोकधर्म, लोकमंगल
आदि
का
अक्सर
हवाला
दिया
करते
हैं, उनकी
दृष्टि
में
भी
लोक
अमूर्त
और
अस्पष्ट
है।
उन्हें
भी
इस
लोक
की
अवधारणा
में
निहित
जीता
जागता
सामान्य
मनुष्य
नजर
नहीं
आता
है
जिसमें
पोथी
से
बाहर
आकर
प्रत्यक्ष
लोक
जीवन
में
शुक्ल
जी
के
मनुष्य
को
खोजने
का
साहस
हो।”[5]
अतः
मलयज
ने
आचार्य
शुक्ल
की
उस
बनी-बनाई
पारंपरिक
छवि
को
तोड़ा
जो
कि
उन्हें
केवल
एक
रसवादी
आलोचक
तक
ही
सीमित
दायरे
में
कैद
करके
देखती
थी।
मलयज
की
दृष्टि
आचार्य
शुक्ल
को
किसी
विशेषण
में
बाँधकर
देखने
की
नहीं
बल्कि
एक
सामान्य
मनुष्य
और
आत्मचेतस
आलोचक
के
रूप
में
देखने
की
पक्षधर
है।
आचार्य रामचन्द्र
शुक्ल
की
शक्ति
और
सीमा
का
जायजा
लेने
वाले
मलयज
की
आलोचना
दृष्टि
का
विश्लेषण
करें
तो
उसमें
कई
अंतर्विरोध
देखने
को
मिलते
हैं-
“शुक्ल जी ने
साहित्य
का
अपना
जो
बिम्ब
निर्मित
किया, उसमें
छायावाद-रहस्यवाद
के
लिए
ज्यादा
जगह
ही
न
थी।
कला
और
लालित्य
भी
वहाँ
संदिग्ध
थे, कबीर
के
अक्खड़पन
और
ललकार
के
लिए
कोई
स्थान
न
था।
व्यक्तिवाद
के
साथ-साथ
संघ
शक्ति
के
प्रति
शंका
थी।
शुक्ल
जी
के
काव्य-चिंतन
में
ये
छूटी
हुई
जगहें
जो
एक
दृष्टि
विशेष
और
वास्तविक
जीवनानुभूति
की
द्वंद्वात्मकता
में
अंतर्विरोध
बनकर
प्रकट
हुईं।
द्वंद्वात्मकता
का
यह
अंतर्विरोध
या
अंतर्विरोध
की
द्वन्द्वात्मकता? शुक्ल
जी
की
शक्ति
भी
थी
और
सीमा
भी।”[6]
मलयज
स्वयं
अपने
आलोचना-कर्म
को
लेकर
पूर्णत:
आश्वस्त
नहीं
थे, संभवतः
यही
कारण
है
कि
‘रामचन्द्र
शुक्ल’ नामक
यह
पुस्तक
महत्वपूर्ण
होते
हुए
भी
अधूरी
ही
रह
गई।
शायद
यह
मलयज
की
आलोचना
दृष्टि
और
शक्ति
की
सीमा
है।
मलयज एक
ऐसे
कवि-आलोचक
हैं
जो
अपनी
सहमति
एवं
असहमतियों
को
बिना
लाग-लपेट
के
सहज-सरल
शब्दों
में
धड़ल्ले
से
बोल
जाते
हैं।
नई
कविता
के
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
कवि
‘अज्ञेय’ की
रचनाधर्मिता, उनकी
प्रयोगशील
नीति
और
दृष्टिकोण
से
असहमत
थे।
मलयज
ने
अज्ञेय
के
संदर्भ
में
लिखा
है-
“इस कृत्रिम
भाषा
(किताबी और बनावटी
भाषा)
का
सर्वोत्कृष्ट
उदाहरण
अज्ञेय
हैं।
अपनी
जमीन
से
कटे
हुए
सिर्फ
आधुनिक।
देश
की
ठोस
संस्कृति
की
धूल-मिट्टी-हवा-पानी
से
रहित
एक
अस्वाभाविक
भाषा
और
चिंतन
में
जीते।
अज्ञेय
को
जो
देशी
लेखक
कहता
है, वह
कितनी
बड़ी
भूल
करता
है।
वे
आधुनिक
हैं
और
अंतरराष्ट्रीय
‘कास्मोपालिटन’। केवल
संघर्षों
से
कोई
देशी
नहीं
बनता
है।
सिर्फ
परिवेश
का
इस्तेमाल
देशीपन
का
सबूत
नहीं।”[7]
अतः
स्पष्ट
है
कि
अज्ञेय
के
संदर्भ
में
मलयज
ने
सख्त
और
आक्रामक
रवैया
अपनाया
है।
मलयज
द्वारा
अज्ञेय
पर
लगाये
गए
आरोप
पूर्णत:
सही
नहीं
हैं, किन्तु
फिर
भी
इस
लेख
में
मलयज
ने
अज्ञेय
की
रचना
के
सूक्ष्म
बिन्दुओं
को
पकड़ा
है।
अज्ञेय
के
संदर्भ
में
मलयज
के
उक्त
विचारों
पर
कवि-आलोचक
कुँवर
नारायण
ने
लिखा
है-
“अज्ञेय से असहमति
के
बावजूद
उनकी
कविता
के
जिन
सूक्ष्म
बिन्दुओं
पर
मलयज
ने
उँगली
रखी
है, वहाँ
तक
उन
समीक्षकों
की
भी
दृष्टि
नहीं
गई
जिन्होंने
अज्ञेय
पर
पूरी
निष्ठा
से
लिखा
है।”[8]
यह
पूर्णत:
सच
है
कि
किसी
रचनाकार
से
सहमत
होने
से
अधिक, उससे
असहमत
होने
के
लिए
उसे
अधिक
बारीकियों
से
समझने
की
आवश्यकता
होती
है।
मलयज
ने
अज्ञेय
को
बहुत
बारीकी
के
साथ
समझा
है।
फलस्वरूप
वे
अज्ञेय
के
दृष्टिकोण
से
असहमत
हुए।
हालाँकि
अपनी
असहमति
को
उन्होंने
बड़ी
ही
ईमानदारी
के
साथ
व्यक्त
भी
किया
है।
जैनेन्द्र कुमार
के
साहित्य
के
संदर्भ
में
मलयज
ने
जो
आलोचनात्मक
व
चिंतनपरक
लेखन
किया
है
उससे
स्पष्ट
हो
जाता
है
कि
वे
जैनेन्द्र
कुमार
के
विचारों
से
कई
स्थानों
पर
असहमत
होते
हुए
भी
उन्हें
एक
महान
रचनाकार
मानते
हैं।
मलयज
की
दृष्टि
में
वे
अत्यंत
महत्वपूर्ण
रचनाकार
इसलिए
भी
हैं
क्योंकि
वे
युगीन
परिस्थितियों
को
भलि-भाँति
देख-समझ-परखकर
साहित्य
सृजन
करते
हैं।
मलयज
की
दृष्टि
में
जैनेन्द्र
कुमार
नारी
चेतना
की
साहित्यिक
अभिव्यक्ति
करने
वाले
महान
रचनाकार
हैं।
मलयज से
पूर्व
‘लघुमानव’ की
अवधारणा
को
लेकर
नई
कविता
के
कवि
और
आलोचकों
में
लम्बी
बहस
चली
आ
रही
थी।
यह
बहस
इतनी
बढ़
चुकी
थी
कि
एक
परंपरा
का
रूप
ले
चुकी
थी।
लघुमानव
की
अवधारणा
को
हिंदी
कविता
(नई कविता) से
संपृक्त
करने
वाले
पहले
कवि-आलोचक
लक्ष्मीकान्त
वर्मा
हैं, उन्होंने
नई
कविता
और
लघुमानव
पर
काफ़ी
कुछ
लिखा।
उनके
समानान्तर
ही
‘महामानव’ की
अवधारणा
पर
भी
प्रश्नचिह्न
लगने
शुरू
हो
गए
और
एक
लम्बी
बहस
चल
पड़ी।
इस
लम्बी
बहस
का
वर्णन-विश्लेषण
विजयदेव
नारायण
साही
ने
‘लघुमानव
के
बहाने
हिंदी
कविता
पर
एक
बहस’ नामक
एक
लम्बे
और
विचारोत्तेजक
निबंध
में
किया
है।
तदुपरान्त
मलयज
ने
भी
अपनी
वैचारिक-आलोचनात्मक
दृष्टि
से
विजयदेव
नारायण
साही
के
लघुमानव
की
शिनाख्त
की
है।
वे
लिखते
हैं-
“सामान की फेहरिस्त
टटोलने
पर
जो
समीकरण
हाथ
लगता
है
वह
है-औसत
आदमी।
क्षण-क्षण
का
यथार्थ, बाह्यारोपित
विचारधारा
या
दर्शन
का
विरोध।
कारखाना
वही
है
जहाँ
से
नई
कविता
की
सैद्धान्तिक
मान्यताएँ
अक्सर
आकार
पाती
रही
हैं, एक
संक्रांतिकालीन
परिवेश
में
व्यक्ति
की
स्वानुभूति।
इस
कारखाने
में
ढलकर
जो
लघुमानाव
निकला
उसे
लक्ष्मीकान्त
वर्मा
ने
जिस-जिस
‘मानव’ के
विरुद्ध
खड़ा
किया
उसकी
सूची
लम्बी
है, पर
प्रमुख
है
नीत्शे
का
‘अतिमानव’ और
मार्क्स
का
‘समूह
मानव’।”[9]
अतः
मलयज
ने
लघुमानव
शब्द
के
स्थान
पर
‘औसत
आदमी’ शब्द
का
प्रयोग
किया
है
और
वे
उसे
एक
सामान्य
सामाजिक
मानव
मानते
हैं।
उनकी
दृष्टि
में
आज
का
मानव
पहले
के
मानव
से
काफ़ी
अलग
और
बदला
हुआ
है, स्वतंत्रता
पूर्व
के
जीवन
से
निश्चय
ही
भिन्न
है
स्वतंत्रता
के
पश्चात
का
मानव
जीवन।
जो
कि
मूल्य
संक्रमण
से
उत्पन्न
अव्यवस्था
का
परिणाम
है
जिससे
जूझना
नयी
पीढ़ी
की
नियति
बन
चुकी
है।
इस
बदले
हुए
नये
मानव
को
चाहें
लघुमानव, नव
मानव, पवित्र
मानव, जो
भी
कह
सकते
हैं।
अतः
उन्होंने
‘लघुता
की
महत्ता
प्रदान
करने
की
भावना’ से
अधिक
सामान्य
मनुष्य
को
महत्व
दिया
है।
यहाँ
वे
अपने
गुरू
और
नई
कविता
के
प्रमुख
कवि
आलोचक
विजयदेव
नारायण
साही
के
निकट
दिखाई
पड़ते
हैं।
साही
ने
भी
लघु-महा
अथवा
दीर्घ
की
बहस
में
न
पड़कर
सहज
मानव
या
सामान्य
मानव
की
संज्ञा
दी
है।
मलयज ने
काव्य-भाषा
पर
बहुत
ही
बारीकी
के
साथ
विचार-विमर्श
किया
है।
काव्य-भाषा
से
संबन्धित
उन्होंने
कई
लेख
लिखे
हैं-
(1) काव्यभाषा का
इकहरापन
(2) नया रचनाकार
: अभिव्यक्ति की
समझ
(3) बिम्ब कविता। ये
तीनों
लेख
उनकी
आलोचनात्मक
पुस्तक
‘कविता
से
साक्षात्कार’ (1979) ई.
में
संकलित
हैं।
इनके
अतिरिक्त
भी
उन्होंने
काव्यभाषा
से
संबन्धित
कई
महत्वपूर्ण
लेख
और
लम्बी
टिप्पणियाँ
अपनी
डायरी
में
की
हैं।
द्विवेदी
युग
की
काव्य
भाषा
के
संदर्भ
में
वे
लिखते
हैं-
“द्विवेदी युग
की
भाषा
बहिर्मुखी
है, पर
सामाजिक
नहीं, क्योंकि
उसमें
कवि
की
अपनी
सामाजिकता
के
साथ
दूसरे
व्यक्ति
की
सामाजिकता
का
दखल
नहीं
है।
कवि
देश
की
दुर्दशा
पर
चाहे
विलाप
करे, चाहे
पश्चिमी
तौर-तरीकों
पर
विलाप
करे
या
समाज
की
कुरीतियों
पर
विलाप
करे।
सब
में
वह
अपनी
ही
लाठी
हाँकता
है।
... अपने दृष्टिकोण
पर
खड़ा
होकर
बाहर
को
भीतर
समेटता
है। ... कुल
मिलाकर
इस
युग
में
लेखन
आदर्शवादी
और
उद्देश्यपरक
था।”[10]
भाषा, सौन्दर्य, रूचि
और
अनुभव
सँजोने
वाला
तंत्र
उनके
बुनियादी
विश्लेषण
के
आधार
रहे
हैं।
मलयज
के
व्यापक
चिंतन
क्षेत्र
में
नये
भावबोध
के
अतिरिक्त
नये-नये
संदर्भों
में
मानव-जीवन
और
संवेदनाओं
की
व्याख्या
तो
समाहित
है
ही
, साथ
ही
उसमें
इतिहास
के
प्रति
दायित्व
बोध
तथा
आज
के
जीवन
सत्य
को, आज
ही
के
संदर्भों
में
देखने
का
प्रयास
भी
अंतर्निहित
है।
दुर्भाग्य
की
बात
है
कि
गहन
साहित्य
विचारक
मलयज
के
साहित्य
पर
बेहद
कम
लोगों
ने
लेखनी
चलाई।
इस
संदर्भ
में
रवि
भूषण
लिखते
हैं-
“मलयज फ़िलहाल कहीं
से
भी
साहित्यिक-वैचारिक
परिदृश्य
में
नहीं
हैं।
संभव
है
कि
कवियों, आलोचकों, गम्भीर
पाठकों
और
सुधीजनों
को
उन
पर
कुछ
भी
लिखना
आज
के
समय
में
सब
कुछ
‘शुभम
शुभम’ है
और
आलोचना
में
शिखर
आलोचक
पर
लिखे
जा
रहे
संस्मरणों
का
अंबार
है।”[11]
अतः
स्पष्ट
है
कि
साहित्य-अध्येताओं
और
समीक्षकों
ने
मलयज
के
प्रति
उदासीनता
बरती
है
जबकि
मलयज
के
चिंतन
का
धरातल
अत्यंत
व्यापक
फ़लक
पर
फैला
हुआ
है।
मलयज
ने
हिंदी
कविता
पर
विचार-विमर्श
तो
किया
ही
है, साथ
ही
उन्होंने
हिंदी
के
गद्य
साहित्य
का
मूल्यांकन
भी
उतने
ही
मनोयोग
के
साथ
किया
है।
अपने
गहन
अध्ययन
से
मलयज
ने
हिंदी
साहित्य
की
सम्पूर्ण
विकास-यात्रा, उसके
विभिन्न
सोपान, सामाजिक-साहित्यिक
परिस्थिति
व
प्रवृत्तियों
तथा
विभिन्न
नई
विधाओं
के
उद्भव
और
विकास
को
बखूबी
देखा, समझा
और
परखा
है।
निष्कर्ष : कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मलयज की आलोचना दृष्टि में नई कविता, प्रयोगवाद, प्रगतिवाद, छायावाद और द्विवेदी युग के प्रमुख कवि और उनकी काव्य-रचनाएँ समाहित हैं तो, वहीं गद्यालोचना दृष्टि में कथासम्राट प्रेमचन्द, समालोचक रामचन्द्र शुक्ल, कहानीकार सुदर्शन, जैनेन्द्र कुमार, इलाचन्द्र जोशी और रमेशचन्द्र शाह आदि का गद्य साहित्य समाहित है। अतः साहित्य की प्राय: सभी विधाओं के विकास और उसके बदलते रूपों पर मलयज की दृष्टि थी। मलयज एक प्रतिभावान कवि-आलोचक हैं और उनकी आलोचना दृष्टि अपने समय, समाज और साहित्य से जुड़े बुनियादी प्रश्नों से टकराती है एवं काफ़ी हद तक उनका निराकरण करने का भी प्रयास करती है। मलयज की आलोचना दृष्टि अत्यंत पैनी है। उनकी दृष्टि साहित्य, साहित्यकार, समकालीन परिस्थितियों के साथ-साथ उस पूरी परंपरा के प्रति भी सचेत होकर देखती है जिससे उस रचना तथा रचनाकार को रचनात्मकता की खाद प्राप्त हुई है। मलयज का आलोचनात्मक कर्म किसी साहित्यकार की चाटुकारिता अथवा व्यर्थ का भारी-भरकम शब्दाडंबर नहीं है बल्कि विभिन्न विषयों का अपने ढंग से गंभीर विचार-विमर्श समाया हुआ है। किसी कृति की आलोचना करने से पूर्व उस कृतिकार का परिवेश विभिन्न प्रश्नों के साथ उठ खड़ा होता है जिनसे वे रू-ब-रू होते हैं। ये प्रश्न उन्हें बेचैन करते हैं, वे इन प्रश्नों के उत्तर की खोज में निकल पड़ते हैं, यह यात्रा उनके विचारों के मंथन की यात्रा होती है और उत्तर की खोज के उपरांत ही वे उन्हें लेख अथवा आलोचनात्मक निबंध के रूप में व्यक्त करते हैं।
[1] नामवर सिंह, (सं.), मलयज की डायरी, भाग 01, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण 2000, पृ. 04
अध्यक्ष, हिंदी विभाग, निर्वाण विश्वविद्यालय जयपुर
premkumar.sahitya@gmail.com, 9990418965
एक टिप्पणी भेजें