शोध सार : प्रस्तुत शोध पत्र भारत की जेलों में बन्द उन कैदियों पर लिखा गया है, जिनकी सजा का ऐलान नहीं हुआ है अर्थात् ऐसे कैदी जो जेलों में तो है परन्तु उनका अपराध तय नहीं हुआ है। ऐसे विचाराधीन कैदियों के कारण, हमारी न्याय व्यवस्था के समक्ष मुकदमों का अम्बार लग गया है। अधिकांशतः विचाराधीन कैदी समाज के गरीब तबके से हैं जो वकीलों की फीस देने में असमर्थ हैं , परिणामस्वरूप उनकी जमानत याचिका पर किसी भी प्रकार का ध्यान नहीं दिया जाता है। साथ ही यह प्रशासनिक विफलता भी है कि जिन कैदियों का अपराध ही सिद्ध नहीं हुआ, वे नारकीय जीवन जीने को विवश हैं। समय – समय पर मानवाधिकार आयोग द्वारा जेलों का निरीक्षण भी किया जाता है। ऐसा नहीं है कि आयोग की दृष्टि इन कैदियों पर नहीं पड़ी हो किन्तु यह दुर्भाग्य की बात है कि उनकी दशा में कोई सुधर नहीं हुआ। अतः यह आवश्यक है कि विचाराधीन कैदियों की दशा पर चिन्तन किया जाए और इनकी संख्या, जो इस समय 77प्रतिशत के लगभग है, को कम करने की दिशा में सार्थक कदम उठाए जाएँ। विचाराधीन कैदियों की संख्या प्रत्यक्षतः न्याय व्यवस्था को भी प्रभावित कर रही है। अतः प्रस्तुत शोध पत्र में विचाराधीन कैदियों के संदर्भ में न्याय व्यवस्था में अकादमिक दृष्टि से सुधारात्मक सुझावों पर विचार प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है।
बीज शब्द : विचाराधीन कैदी, न्याय व्यवस्था, अनुच्छेद-21, एन.सी.आर. बी, जमानत, संविधान, मुकदमा, तारीख,चुनौतियाँ।
मूल आलेख : 26 दिसम्बर, 2022 को संविधान दिवस पर भारत की माननीय राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने यह सवाल उठाया कि अगर देश विकास की तरफ जा रहा है तो देश में ज्यादा जेले बनाने की जरूरत क्या है, बल्कि उन्हें कम किया जाना चाहिए। (बी.बी.सी. 01 दिसम्बर, 2022) यह बात राष्ट्रपति ने इस संदर्भ में कही कि जेलों में भीड़ बढ़ गई है और नई जेलें बनाने की आवश्यकता है। नेशनल क्राइम रिकार्डस ब्यूरो की रिपोर्ट में बताया गया कि 31 दिसम्बर, 2021 तक देश की कुल 1319 जेलों में ओसतन हर 100 कैदियों के लिए निर्धारित जगह में 130 कैदी रह रहे है। कुछ राज्यों की जेलों में स्थिति भयावह है, जैसे उत्तरप्रदेश में 100 कैदियों हेतु उपलब्ध स्थान में 208 कैदी और उत्तराराखण्ड की उप जेलों में 100 कैदियों के स्थान पर 300 कैदी रह रहे थे। विचाराधीन कैदियों की संख्या वर्षवार बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय स्तर पर 30 प्रतिशत जेले ऐसी है, जहाँ एक कैदी के स्थान पर तीन या उससे अधिक कैदी रखे जा रहे है और 54 प्रतिशत जेले ऐसी है जहाँ एक कैदी की जगह दो या अधिक कैदी रखे जा रहे है। अण्डमान निकोबार, अरूणाचल प्रदेश, मिजोरम, त्रिपुरा और मध्यप्रदेश को छोड़कर शेष राज्य व केन्द्र शासित प्रदेश में विचाराधीन कैदी 60 प्रतिशत से ज्यादा है। 2018 से 2022 तक मेद्यालय, नागालैण्ड और पुड्डुचेरी को छोड़कर सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों में विचाराधीन कैदियोंकी संख्या में वृद्धि हुई है। (इंडिया जस्टिस रिपोर्ट, 2022) देश की 54 प्रतिशत जेलों में तय स्थान से कई ज्यादा प्रतिशत कैदी भरे हुए है। कई जेलों में यह आंकड़ा 185 प्रतिशत तक है। उत्तरप्रदेश की 57 और मध्यप्रदेश की 40 जेलों में 150 प्रतिशत कैदी है। राजस्थान की 28 जेले अत्यधिक कैदी भार से त्रस्त है। प्रश्न यह उठता है कि भारत की जेलों में कैदियोंकी संख्या
31 दिसम्बर, 2021 तक भारतीय जेलों में कुल 554034 कैदी थे, लेकिन इसमें 22 प्रतिशत कैदी ही सजायाफ्ता थे अर्थात् उनका अपराध सिद्ध हो चुका था, शेष 77.1 प्रतिशत कैदी (427167 कैदी) विचाराधीन थे, जिनका दोष अभी साबित नहीं हुआ था अर्थात् इन कैदियों के विरूद्ध अभी अदालत में प्रक्रिया चल रही है। विचाराधीन कैदियों को मुकदमें की प्रतीक्षा करते हुए या तो रिमांड पर रखा जाता है या वह न्यायिक निर्णय की प्रक्रियाधीन होता है। विचाराधीन कैदियों में अधिकतर वे कैदी होते है जो अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति, अशिक्षा, विधि प्रक्रिया की जानकारी का अभाव आदि कारणों से पेरवी नही कर पाते। यदि उनका अपराध जमानती है, तो उन्हें जमानत नहीं मिल पाती और यदि अपराध 2-3 साल की सजा का है तो वे 10-12 साल निर्णय की प्रतीक्षा में जेलों में गुजार देते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था अपराध सिद्ध होने तक, प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष मानती है। ऐसी स्थिति में विचाराधीन कैदियों की संख्या न्ययिक प्रक्रिया में सुधार की मांग करती है। और उक्त अतिरिक्त कैदी भार का मुख्य कारण भारत की जेलों में 77 प्रतिशत कैदियों का विचाराधीन (अंडरट्रायल) होना है। नेशनल क्राइम ब्यूरों रिपोर्ट, 2021 के अनुसार पिछले दस वर्षो में जेलों में विराराधीन कैदियों की संख्या लगातार बढ़ी है। सत्र् 2011 के अन्त तक भारत की कुल जेलों में 241200 विचाराधीन कैदी थे। सन् 2012 में भारतीय जेलों में मौजूद कैदियों में 64.7 प्रतिशत विचाराधीन थे। 2020 में देश की सभी जेलों में लगभग 76 प्रतिशत विचाराधीन कैदी थे, जिनमें लगभग 68 प्रतिशत या तो निरक्षर थे या ड्राप आउट। भारतीय जेलों में दोषियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की संख्या दुगुनी से भी ज्यादा है। इन विचाराधीन कैदियों की जेल मे अनेक समस्याएं होती है, जिनमें से प्रमुख है -
- न्याय में विलम्ब, न्याय से मनाही हैश्ए न्याय प्रशासन की इस उक्ति के आधार पर विचाराधीन कैदियों को न्याय से दूर रखा जा रहा है।
- कैदियोंके मानवाधिकारों का हनन हो रहा है।
- जेलों में होने वाली हिंसा, विचाराधीन कैदियोंको भी अपनी गिरफ्त में लेती है।
- विचाराधीन कैदियोंके लिए, पृथक से रहने की व्यवस्था नहीं होती। उन्हें जघन्य अपराधियों के साथ ही रखा जाता है, जिससे उनके अपराधी बनने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
- भारतीय जेलों में तयशुदा संख्या से अधिक कैदी भरे हुए है, ऐसे में उनके स्वास्थ्य पर गम्भीर खतरा बना रहता है।
- सालो-साल न्याय की प्रतीक्षा करते विचाराधीन कैदी मानसिक विकारों के शिकार हो जाते है।
- यदि विचाराधीन कैदी अपने परिवार का एकमात्र रोजगार प्राप्त व्यक्ति है तो उसके परिवार पर आर्थिक संकट आ जाता है।
- विचाराधीन कैदी के परिवार को सामाजिक प्रताडनाओं का भी सामना करना पड़ता है।
- गरीब परिवारों के कैदी जमानत नहीं ले पाते और न ही किसी वकील की सेवाएं ले पाते है।
भारतीय न्याय व्यवस्था दोषी साबित होने तक, प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष मानती है। ऐसी स्थिति में विचाराधीन कैदियों की संख्या और उनकी समस्याओं को दृष्टिगत रखते हुए कतिपय उपाचारात्मक उपायों की आवश्यकता है। जमानत योग्य कैदियों की विचाराधीन अवधि निर्धारित सजा-अवधि से अधिक हो जाती है। भारत के माननीय राष्ट्रपति से पूर्व भी न्यायविदों ने जेलों में बन्द विचाराधीन कैदियों पर चिन्ता व्यक्त की है। सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार टिप्पणी की थी कि जब विचाराधीन बंदी अनिश्चित समय के लिए जेल में रहते है, तब संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन होता है। इन विचाराधीन कैदियों में अधिक संख्या गरीब, अशिक्षित या अल्पशिक्षित लोग है, जो निःशुल्क विधिक सहायता से अनभिज्ञ है। अक्टूबर, 2013 में केन्द्र सरकार ने यह सुझाव ठुकरा दिया था कि जेल में एक नियत अवधि गुजार चुके सभी विचाराधीन कैदियों को स्वतः जमानत मिल जानी चाहिए। एक जनहित याचिका पर सुनवाई के क्रम में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने कहा कि जमानत के बारे में कोई तयशुदा फार्मूला बनाना गैर कानूनी एवं अवांछित है। जैसा कि पूर्व में उल्लेखित है कि भारतीय न्याय व्यवस्था, दोषी साबित होने तक प्रत्येक व्यक्ति को निर्दोष मानती है, तो इस सिद्धान्त के अनुसरण में चार्जशीट पेश होने के बाद विचाराधीन कैदियों को जेल में रखना, उनके मानवाधिकारों का उल्लंघन है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अनुसार निष्पक्ष और न्यायपूर्ण स्वतन्त्रता का अधिकार, प्रत्येक नागरिक को है। जिसके अनुसार कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जायेगा। जब तक जेलों में बन्द विचाराधीन कैदियों को विधिक प्रक्रिया अपना कर सजा नहीं दी जाती, तब तक उनको जेल में रखना संविधान के अनुच्छेद-21 की भी स्पष्ट अवहेलना है और यह अवहेलना कैदियों को जमानत न मिलने के कारण हो रही है। हाल ही में एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि केवल इस वर्ग के कैदियोंके मामले निपटाने में देश की अदालतों को 700 वर्ष लगेंगे। आज भारत मे चार में ही तीन कैदी इस वर्ग में है जबकि वैश्विक औसत 3 मे से एक का है। वर्तमान विचाराधीन कैदियों में हर माह 5 हजार कैदी और जुड़ जाते है। 54 कॉमनवेल्थ देशों में, अंग्रेजों की दी गई समान अपराध न्याय प्रणाली है। यह सभी देश ब्रिटेन के उपनिवेश रहे है। इनमें से बांग्लादेश में 80 प्रतिशत कैदी विचाराधीन है। इसके बाद भारत का स्थान है। एक लोकतान्त्रिक देश के लिए यह चिन्ता का विषय है कि जेलों में 77 प्रतिशत ऐसे लोग बन्द है जिन पर अभी कोई अपराध सिद्ध नहीं हुआ है। उससे भी ज्यादा गम्भीर बात यह है कि इनमें अधिकांश गरीबी के कारण जमानत मिलने के उपरान्त भी बांड न भर पाने के कारण जेल में बन्द है।
25 सितम्बर, 2018 भारत की सभी जेलों के दशा का अवलोकन करके अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने हेतु, सर्वोच्च न्यायालय से सेवानिवृŸा न्यायाधीश अमिताभ राय की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर की अध्यक्षता वाली खण्ड पीठ ने आदेश दिया कि यह समिति महिला कैदियों की स्थिति एवं क्षमता से अधिक बन्दियों को रखे जाने एवं अन्य समस्याओं पर समीक्षा करेगी और इसमें सुधार के उपाय सुझायेगी। न्यायालय द्वारा कहा गया कि कैदियों के भी मानवाधिकार होते है और उन्हें जानवरों की तरह नहीं रखा जा सकता। जस्टिस अमिताभ राय समिति ने विभिन्न जेलों का निरीक्षण करके निम्नांकित विचार प्रस्तुत किए -
1. कैदी मानवाधिकारों के उल्लघंन का शिकार है।
2. रसोई अस्वास्थकर है।
3. जेलों में भीड़-भाड़ है।
4. कर्मचारी संख्या में काफी कम है।
5. भीड़भाड़ को कम करने के लिए स्पीड़ ट्रायल होना चाहिए।
6. सर्वाधिक परेशानी विचाराधीन कैदियों को होती है, जो बिना सुने सालों तक सलाखों के पीछे रहते है। उनकी संख्या दोषियों के अनुपात में अत्यधिक है।
7. 30 कैदियों पर कम से कम एक वकील होना चाहिए।
8. विडियों कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अदालतों में भौतिक पेशी की आवश्यकता को समाप्त किया जा सकता है।
9. पाँच वर्ष से अधिक समय से लम्बित अपराधों का निस्तारण करने हेतु विशेष न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिए, जो त्वरित गति से मुकदमों का निपटारा कर सके।
10. जो कैदी जमानत की व्यवस्था करने में असमर्थ है, उन्हें व्यक्तिगत पहचान बांड पर रिहा किया जाना चाहिए।
11. जहाँ गवाह मौजूद है, वहाँ स्थगन नहीं दिया जाना चाहिए। कैदियों को प्रभावी कानूनी सहायता प्रदान की जाए। साथ ही उन्हें व्यावसायिक कौशल विकसित करने की शिक्षा दी जाए।
12. छोटे अपराधों के लिए, अपराधियों को जेल भेजने के बजाय न्यायालय स्वविवेक की शक्तियों का प्रयोग करते हुए जुर्माना और चेतावनी जैसी सजा भी दे सकते है।
वर्ष 2017 में भारत के विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि जिन विचाराधीन कैदियों ने सात साल तक के कारावास के अपराधों के लिए अपनी अधिकतम सजा का एक तिहाई हिस्सा जेल में रहकर काट लिया है, उन्हें जमानत पर रिहा कर देना चाहिए। माननीय राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने विचाराधीन कैदियों के बारे में कहा था कि ओडिशा और झारखण्ड में अनेक गरीब विचाराधीन कैदी इसलिए वर्षो से जेल में है, क्योंकि वे जमानत राशि जमा नहीं करा सकते। इसके बाद विदेश मंत्री ने बजट भाषण में बताया कि सरकार ऐसे लोगों की जमानत राशि देने की स्कीम लाएगी। अब गृह मंत्रालय ने नई स्कीम की घोषणा की है, जिसके अन्तर्गत राज्य सरकारों को यह राशि इस आशय के साथ दी जायेगी कि वे गरीब विचाराधीन कैदियों की पहचान कर, उन्हें रिहा करने का प्रबन्ध करें। (दैनिक भास्कर, 04 अप्रेल, 2023)
विचाराधीन कैदियों के परिप्रेक्ष्य के साथ, अन्य बिन्दुओं पर भारतीय न्याय व्यवस्था में सुधारात्मक विचारों का सत्कार किया जाना चाहिए। स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने 15 जुलाई, 2010 को अवमानना याचिका का निस्तारण करते हुए टिप्पणी की थी कि न्यायाधीश समाज के प्रति उत्तरदायी हैं। (The Hindu 14 June, 2010) न्यायाधीश के पास सत्य को पहचानने की कोई अचूक शक्ति नहीं है। मुकदमों में कोई भी पक्ष अनुचित हो सकता है। स्वयं की शक्ति को सर्वशक्तिमान मान लेने से अन्याय की सम्भावना हो सकती है। (राज्य बनाम नन्दलाल जायसवाल 1987, एस.सी 251, पृ. 287) न्यायालय के यह उज्ज्वल पक्ष है, जहाँ न्यायाधीशों ने अपने निर्णयों में न्यायिक व्यवस्था को ओर बेहतर बनाने के संकेत दिए। न्यायिक व्यवस्था को अधिक सुदृढ़ बनाकर विचाराधीन कैदियों की समस्याओं को कम किया जा सकता है। भारत की न्यायिक व्यवस्था के सम्बन्ध में अकादमिक दृष्टि से कतिपय सुझाव अग्रानुसार हो सकते है –
2. न्यायाधीशों के कार्यभार को दृष्टिगत रखते हुए नवीन पद सृजित किए जाए।
3. न्यायालयों की सुनवाई की विडियो रिकॉडिंग हो, जो गोपनीय रखी जा सकती हैं । इससे कोई भी पक्ष अपने वक्तव्यों से मुकर नहीं सकेगा।
4. महज किसी को परेशान करने के लिए दायर की गई याचिकाओं पर कठोरता का रूख अपनाया जाए। यदि ऐसे याचिकाकर्ता को अविलम्ब दण्डित किया जाता है, तो विचाराधीन कैदियों की संख्या स्वतः ही कम हो जायेगी।
5. E-Courts की स्थापना में तेजी लाई जाए एवं इनका प्रचार-प्रसार हो।
6. प्रत्येक वाद के निस्तारण की समय सीमा तय हो और जहाँ विधि प्रावधानों में समय सीमा तय है, उसका पालन हो।
7. लम्बित वादों की सुनवाई हेतु विशेष न्यायाधीशों को दायित्वों सौंपा जाए, जो केवल बैकलॉग पूरा करें।
8. वकीलों की फीस का मानदण्ड तय किया जाए, जिससे गरीब तबके के कैदियों को राहत मिल सके।
9. न्यायालयों में गरिमा और विश्वास का माहौल हो, ना कि भय का।
10. यदि कोई विचाराधीन कैदी बिना किसी युक्ति युक्त कारण के आहत किया जाता है, तो उसे शिकायत करने का उचित माध्यम प्राप्त हो।
11. अकारण बार-बार तारीख पड़ने की प्रवृति बन्द होनी चाहिए।
ऐसा नहीं है कि भारतीय न्याय व्यवस्था अपनी कमतरियों और सुधार की आवश्यकताओं से अनभिज्ञ है। इण्डिया जस्टिस रिपोर्ट 2022 के अनुसार देश में प्रति दस लाख की आबादी पर पचास न्यायाधीश होने चाहिए किन्तु सिर्फ 15 ही है। ऐसी स्थिति में विचाराधीन कैदियों की सुनवाई का रास्ता और दुर्गम हो जाता है। आर्थिक दृष्टि से भी बात की जाए तो न्यायपालिका पर प्रति व्यक्ति राष्ट्रीय व्यय 146 रूपये है। कोई भी राज्य अपने कुल वार्षिक व्यय का एक प्रतिशत से अधिक न्यायपालिका पर खर्च नहीं करता। देश की 80 प्रतिशत आबादी मुफ्त कानूनी सहायता की पात्र है, फिर भी इस पर प्रति व्यक्ति सालाना 3.84 रू. व्यय होते है। (दैनिक भास्ककर, 05 अप्रेल, 2023) भारतीय न्यायपालिका के समक्ष अनेक चुनौतियां है, जिसका समाधान करके लम्बित मुकदमों का निस्तारण किया जा सकता है। भारत के न्यायालयों में लगभग पाँच करोड़ मुकदमें लम्बित है। (NDTV.com 09 Feb. 2023), जिनमें 69000 सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है एवं 5,98,7,477 मुकदमें देश के उच्च न्यायालयों में लम्बित है। इन लम्बित मुकदमों के कारणों से विशेषज्ञ परिचित है। अब भारतीय प्रशासन की जरूरत है कि न्यायालयों की संख्या बढ़ाई जाए। जो न्यायालय पहले ही स्थापित है उनमें रिक्त पदों को तुरन्त भरा जाये।
न्याय व्यवस्था में त्वरित न्याय की व्यवस्था को अपनाये बिना विचाराधीन कैदियों की तकलीफों को कम नहीं किया जा सकता। न्यायालयों को अपनी पहल पर ऐसी जाँच एजेन्सियां बनानी चाहिए, जो विचाराधीन कैदियों के अपराधों की सजा का मूल्यांकन करके उनकों जमानत दे और गरीब विचाराधीन कैदियों का बांड सरकार भरे। कुछ सकारात्मक प्रायासों से ही हम विचाराधीन कैदियों को जीवन की स्वतन्त्रता और मानवाधिकारों की रक्षा कर सकते है और न्यायपालिका के लम्बित मुकदमों का भार कम किया जा सकता हैं। यह जरूरी है कि समय-समय पर कैदियों के स्वास्थ्य की जाँच होती रही। तारीखें देकर मुकदमों को लम्बित रखने को रवैया समाप्त होना चाहिए। तब ही न्याय व्यवस्था अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है।
- बी.बी.सी. 01 दिसम्बर, 2022
- https:/ncrb.gov.in
- दैनिक भास्कर, 05 अप्रेल, 2023
- Legalservisinda.com (The Problems of Undertrials)
- दैनिक भास्कर, 12 अप्रेल, 2023
- The Times of India, 27 Januray, 2014
- The Hindu 01 July, 2013
- The Hindu 14 June, 2010
- कोर्ट न्यूज 2010-2018, न्याय विभाग
- डॉ. सुरेन्द्र कटारिया, भारत में प्रशासनिक संस्कृति मलिक एण्ड कम्पनी, 2014
- डी.डी. बसु, भारत का सविधान LEXISNEXIS, Gurugaon, (Haryana) 2022
- NDTV.com 09 Feb. 2023
आचार्य (लोकप्रशासन), मा.ला. वर्मा राजकीय महाविद्यालय, भीलवाड़ा (राज.)
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सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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