- डॉ. मलखान सिंह
अस्सी का दशक समकालीन हिन्दी कविता का प्रस्थान बिंदु माना जाता है । भाव, विचार, संवेदना और भाषा आदि अनेक स्तरों पर समकालीन हिंदी कविता अपनी पूर्ववर्ती कविता से भिन्नता लिए हुए है । अस्सी से पूर्व की कविता को मोहभंग, निषेध और विद्रोह की कविता माना जाता है । जबकि अस्सी तक आते आते कविता छद्म भावों और कृत्रिम शब्दों से मुक्त होकर वस्तुस्थिति का साक्षात्कार कराने वाली बन जाती है । सामाजिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक स्तर पर संवेदनशील मनुष्य के साथ-साथ निर्णय लेने में सक्षम विवेकवान व्यक्ति की पक्षधर कविता का नाम समकालीन कविता है ।
अलोकतांत्रिक तत्वों का साहसपूर्ण प्रतिकार और अपने वातावरण के प्रति सजगता ही समकालीन काव्य की विशेषता है। जीवन की बिडम्बना को भाषा के माध्यम से उजागर करना समकालीन कवियों की भाषिक संवेदना और सामर्थ्य का प्रमाण है। जो कविता अँधेरे में डूबे लोगों के भीतर चैतन्य का विस्तार नहीं करती - समकालीन कवि उसे कविता नहीं मानता । कविता का वह तत्व जो मनुष्य को संवेदनशील,चिंतनशील और क्रियाशील बनाता है - कवि उसे कविता की आग कहता है। यह आग शब्दों की टकराहट से उत्पन्न होती है और सर्वग्रासी अँधेरे को नष्ट कर देती है । जिस कविता में यह आग नहीं है,वह निष्प्राण कविता है –
टकराते हैं
शब्द से शब्द
एक चिंगारी उठती है
और कविता में आग की तरह
फ़ैल जाती है
आग नहीं तो कविता नहीं ' 1
कविता का मर्म उसकी भाषा में सुरक्षित रहता है- “कविता के अंदर यथार्थ को पाना भाषा के स्तर पर ही उसे पाना है – उसकी मूर्तता ,उसका अमूर्तन दोनों उस भाषा के अधीन हैं जो रचाव भर नहीं होती,एक पूरी दुनिया संवेदना या एक संश्लिष्ट मानसिकता होती है।”2 इस लिहाज से देखा जाये तो समकालीन कविता भाषिक संवेदना की कविता है । समकालीन कवियों को गढ़े हुए,बनावटी-सजावटी,चिपकाये हुए शब्दों से परहेज है । वे अपनी माटी की खुशबू लिए हुए, अनगढ़ , देशी स्वाद वाले, चुटीले-नुकीले, हँसते-बोलते और सवाल करते हुए शब्दों को अपनी कविता में पिरोने वाले कवि हैं। उनके शब्द उनके अनुभव, संवेदना और दृष्टि के संवाहक हैं । वे ऐसे शब्दों के प्रेमी हैं,जो सहजता से काव्य संवेदना को प्रकट कर सकें । उनका मानना है कि भाषा संप्रेष्य और सुबोध तभी बन सकती है जब वह कृत्रिमता से मुक्त हो –
मै उनमें से नहीं हूँ
मेरे भीतर शब्द बच्चों की तरह बड़े होते हैं ।’3
समकालीन
कविता
की
बड़ी
विशेषता
यह
है
कि
वह
वस्तु
जगत
के
रूप-रंग, भाव-विचार, स्वप्न-संघर्ष को जगत
की
भाषा
में
ढाल
देती
है
।
जगत
विषय
के
साथ
भाषा
भी
देता
है; जो रचनाकार
विषय
को
जगतभाषा
के
रंग
में
और
जगतभाषा
को
विषय
के
रंग
मिला
देता
है, वही रचनाकार
अपनी
रचना को संवेदना
की
भूमि
पर
बड़ा
बना
देता
है
।
कथन
और
कथ्य
के
‘परस्पर
वर्धमान’ सम्बन्ध को
भाषा
के
स्तर
पर
साधना ही रचनाकार
की
सृजनात्मक
प्रतिभा
का
प्रमाण
है
।
दरअसल
भाषा
के
प्रति
संवेदनशील
होना
मानवीय
सभ्यता
और
संस्कृति
के
प्रति
संवेदनशील
होना
है। रूपवादी और
वस्तुवादी
अतिवाद
से
मुक्त
कवि
ही पूरे आत्म
विश्वास
से
यह
कह
पाता है कि
– ‘मै
भाषा
में
मनुष्य
को
रच
रहा
हूँ।’4
समकालीन
काव्यभाषा
अभिजात्यपन
से
पूरी
तरह
से
मुक्त
है
।
वह
लोकभाषा
की
सहजता, सरलता और
आत्मीयता
से
युक्त
है;
उसमे
गाँव
के
रंग, गंध और
स्वाद
विन्यस्त
हैं
।
वह
विद्यापति
की ‘देसिल बयना
सब
जन
मिट्ठा’ वाली भाषिक
संवेदना
की
कविता
है
।
लोक
का
अनुभव
जब
काव्य
संवेदना
में
घुल-मिल
जाता
है
तब
उसकी
अभिव्यक्ति
का
सहज
रूप
ही
उसका
भाषिक
सौन्दर्य
बन
जाता
है
।
लोकभाषा
में
कवि
के
अनुभव
जगत
का
भौगोलिक
संदर्भ
समाया
होता
है
।
समकालीन
कविता
की
भाषा
शब्दकोश
से
नहीं, जीवन-कोश
से
निर्मित
है
इसलिए
समकालीन
कविता
लोक
संवेदना
की
कविता
बन
जाती
है
–
‘जैसे
चींटियाँ
लौटती
हैं/
बिलों
में/
कठफोड़वा
लौटता
है/
काठ
के
पास/
वायुयान/
लौटते
हैं
एक
के
बाद
एक/
लाल
आसमान
में
डैने
पसारे
हुए/
हवाई-अड्डे
की
ओर/
ओ
मेरी
भाषा/
मैं
लौटता
हूँ
तुम
में/
जब
चुप
रहते-रहते/
अकड़
जाती
है
मेरी
जीभ/
दुखने
लगती
है/
मेरी
आत्मा
।’ 5
भाषा सांस्कृतिक तत्वों की वाहक होती है । आज बाजार की भाषा हमसे हमारी भाषिक अस्मिता छीनती जा रही है । लुभावने विज्ञापन और उपभोक्तावादी संस्कृति अंग्रेजी भाषा के माध्यम से बाजारवादी वर्चस्व को मजबूत कर रही है, इसलिए उपनिवेशवादी भाषा अंग्रेजी दिनों दिन हमें हमारी मातृभाषा से काटती जा रही है। अपनी भाषा से कट जाना अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को खो देना है । समकालीन कवि मातृभाषा के माध्यम से स्थानीय पहचान को बचाए रखने की जद्दोजहद करने वाले कवि हैं। उनके अनुसार जो अपनी मातृभाषा के प्रति संवेदनशील नहीं है, वह कवि नहीं है –
मेरी मातृभूमि /मैं कवि नहीं ।’ 6
समकालीन कवि स्थानीय बोध के कवि हैं। इसलिए वे जमीनी भाषा के हिमायती हैं।उनका मानना है कि कवि की भाषा आम लोगों की भाषा होनी चाहिए - उसमें माटी की गंध और ताजे टपके हुए महुए जैसा स्वाद होना चाहिए क्योंकि उसमे मौलिकता,नवीनता और अर्थ गंभीरता पाई जाती है । इसलिए समकालीन कवि उसी भाषा में लिखना पसंद करता है जो उसे जानती है-
उस भाषा में /
जो मुझे जानती है ।’ 7
कवि का सृजन उसी भाषा का अनुगामी होता है जो कवि को जानती है । जिस भाषा में समय, समाज और संस्कृति से जुड़े अनुभवों-दृश्यों की समायी न हो, समकालीन कवि को वह भाषा स्वीकार नहीं है । समकालीन कवि समाज की भाषा को जीवंत भाषा मानता है। उसके अनुसार समय, समाज की संवेदना उसकी अपनी भाषा में ही सार्थक अभिव्यक्ति पाती है । समकालीन कविता की भाषा अपने पाठकों को नए स्वप्नों की सहयात्री बनाती है और बाजार की चकाचौंध में अँधा होने से बचाती है धीरे धीरे भाषा लुटाती है अपना बेचैन खजाना । विकट से विकट और विषम से विषम स्थिति में नवसृजन के पौधे रोपती है –
जैसे कल देखा मैंने सपना/
बरस रही थी आसमान से आग/
आज मेरी भाषा/
यह पौधा रोप रही है ।’ 8
भाषा
की
सुन्दरता
साहित्यिक
संवेदना
के
अनुरूप
शब्द
चयन
में
है
।
शब्द
चयन
एक
कलात्मक
विवेक
है
।
सही
शब्द
चयन
का
कार्य
अत्यंत
दुष्कर
किन्तु
अंतर्वस्तु
को
अर्थवान
और
प्रासंगिक
बनाने
वाला
है
।
शब्द
पारखी
होना
जीवन
पारखी
होना
है, क्योंकि जीवन
को
दिशा-दृष्टि, पहचान और
संबल देने वाले
सांस्कृतिक
सूत्रों
का
संधान
शब्द
बोध
के
बिना
संभव
नहीं
है
।
जीवनानुभूति
को
सहज
और
सटीक
शब्दों
में
ढाल
कर
प्रस्तुत
करना
समकालीन
कवियों
की
प्रमुख
विशेषता
है
– ‘रचना हृदयपरिवर्तन
की
एक
अहिंसक
प्रक्रिया
है.हिंसा
उस
बिंदु
से
शुरू होती है
जहाँ
शब्द
की
शक्ति
चुक
जाती
है।’9
भाषा का सामर्थ्य ही एक रचना को हिंसा के विरुद्ध विकल्प के रूप में खड़ा करता है, जो अनुभूति को करुणा में बदल दे वही साहित्य है क्योंकि साहित्य का महाभाव करुणा है । जो समाज करुणाहीन होता है, वह समाज पतनोन्मुख होता है । करुणा का आशय दुःख या शोक नहीं है बल्कि वह संवेदनशीलता है जो एक दूसरे से जोड़ती है- “करुणा वह भीतरी नमी है जिसके सूख जाने पर मनुष्य में कोई कल्याणकारी भाव पैदा ही नहीं हो सकता ।’10 साहित्य की नमी यानी संवेदना को सुरक्षित करने वाली भाषा ही उस साहित्य की सुन्दरता है। समकालीन कविता साहित्य की नमी सोख लेने वाले शब्दाडम्बर से मुक्त कविता है अस्तु वह दोहरे चरित्र वाले कवियों व समझौतापरस्त बुद्धिजीवियों पर व्यंग्य करने वाली है । उसका व्यंग्य भावुक उड़ान की उपज या चमत्कारिक प्रयोग नहीं बल्कि विषय की संवेदना को गहराई प्रदान करने वाला है । समकालीन कविता सिर्फ प्रहार ही नहीं करती बल्कि भाषा के हलके में गुल खिलाने की चाहत को पूरा करने के लिए प्रश्न भी करती है –
जंगल से जनता तक /
ढोने से क्या फायदा /
आपै जवाब दो /
मै इसका क्या करूं /
तितली के पंखों में पटाखा बांधकर /
भाषा के हल्के में /
कौन सा गुल खिला दूँ ।’ 11
कवि
उस
कविता
को
रचने
से
इंकार
करता
है
जो
सिर्फ
कवि
कर्म
है
जिसका
कोई
अर्थ
या
सरोकार
नहीं
है
।
कविता
का
सरोकार
उसकी
भाषा
में
बद्ध
होता
है
।
पेशेवर
भाषा
तस्करों
की
इबारतों
में
अर्थ
खोजना
व्यर्थ
है।
वर्तमान
जटिलताओं
में
कविता
भाषा
तस्करों
के
लिए
सिर्फ
माल
है।
हंसाने
गुदगुदाने
सहलाने
और
ऊपर
से
छूकर
निकल
जाने
वाली
भावुक
तरंगे
पैदा
करने
की
कला
में
माहिर
लोग
दरअसल
किसी
बड़े
परिवर्तन
के
हिमायती
नहीं
होते
बल्कि
भाषा
की
चासनी
में
अपनी
कुटिलता
का
जहर
मिलाकर
आम
जन
की
भाषिक
अस्मिता
को
बाजार
में
गिरवी
रखने
वाले
होते
हैं
।
समकालीन
कविता
बाजार
की
इन
षडयंत्रकारी
स्थितियों
में
फंसे
आदमी
का
संक्षिप्त
एकालाप
है–‘कविता
घेराव
में
/किसी बौखलाए हुए
आदमी
का/
संक्षिप्त
एकालाप
है
।’12 एकालाप की
भाषा
को
सुनना
और
उसे
दर्ज
करना
समकालीन
कविता
की
भाषिक
संवेदना
का
सबसे
बड़ा
प्रमाण
है
।
बाजार
के
सामने
लाचार
भाषा
को
देखकर
समकालीन
कवि
कराह
उठता
है
–‘सच
कहूँ
तो
अब
के
पहले
/ कभी इतनी लाचार
नहीं
हुई
थी
हमारी
भाषा
।’
13 बाजारवाद
के
सामने
दिनों
दिन
सार्थकता
खोते
शब्दों
को
देखकर
कवि
का
निराश
होना
स्वाभाविक
है
–“भाषा
का
एक
अदना
कवि
/जब खो चुके
हों
शब्द
अपनी
सार्थकता
/ क्या करे ?’14
कुछ
न
कर
पाने
की
लाचारगी
के
बावजूद
समकालीन
कवि
भाषा
की
बिडम्बना
को
उजागर
करता
है
- यही है हमारे
समय
का
सबसे
बुरा
बिम्ब
/और एक दिलचस्प
प्रहसन
भी
/ कि जो जगह
भरी
होती
थी
कभी
खुबसूरत
शब्दों
से
/ वहां अब चमकदार
जूते भरे हैं
।’15 भाषा
की यह बिडम्बना
हिंदी
समाज
की
मानसिक
बुनावट
तथा
हिंदी
के
प्रति
उसकी
हीनभावना
का
परिणाम
है।
जब
साहित्य
की
भाषा
सच
की
संवाहक
नहीं
होती
तो
वह
बाजारवादी
प्रपंचों
के
षडयंत्र
का
शिकार
हो
जाती
है।
बाजार
भाषा
का
खेल
खेलता
है
।
शब्द
को
उसके
मूल
अर्थ
से
स्थानांतरित
करके
अपने
रंग
में
रंग
लेता
है
।
यह
काम
विज्ञापन
के
द्वारा
आभासी
सच
दिखाकर
करता
है
।
समकालीन
कवि
बाजार
के
इस
रवैये
के
विरुद्ध
आवाज
उठाता
है
–‘शब्दों में नहीं
है
अगर
तुम्हारी
आत्मा
की
झिलमिलाहट
तो
वे झूठे हैं।’16 इस
तरह
समकालीन
कवि
आत्मा
की
आवाज
यानी
सत्य
के
पक्ष
में
कलम
चलाने
की
बात
करता
है।
जो
रचना
सत्यान्वेषी
नहीं
है
वह
साहित्य के उद्देश्य
के
विपरीत
है।
भाषा
पाखंड
के
प्रति
प्रतिकार
धूमिल
की
कविता
कुछ
इस
तरह
से
करती
है-‘
भाषा
उस
तिकड़मी
दरिन्दे
का
कौर
है
/जो सड़क पर
और
है
/ संसद में और
है
।’17
जमीनी सच्चाई
को
विज्ञापन
की
भाषा
ढक
लेती
है
।
विज्ञापन
की
भाषा
भावहीन, संवेदनहीन और
सत्य
से
परे
गुमराह
करने
वाली
होती
है
।
समकालीन
कवि
बाजार
की
नियति के विपरीत
शब्द
के
भीतर
बैठे
हुए
दहकते
सच
की
तह
तक
जाना
चाहता
है
।
राजेश
जोशी
के
अनुसार
–‘हर
शब्द
के
भीतर
बैठा
है
एक
दहकता
हुआ
सच
/ सच की ताकत
जानते
हो
? नंगा
कर
सकता
है
वह
तुम्हारे
सारे
ताम
झाम
को
।’
18 कवि
का
दहकता
हुआ
सच
बाजार
के
सारे
तामझाम
को
अनावृत्त
करने
के
लिए
पर्याप्त
है
।
इस
तरह
समकालीन
कविता
शब्द
के
भीतर
समाये
सच
को
खोजने
वाली
कविता
है
।
शब्द
भाषा
को
सार्थक
बनाते
हैं– शब्द
भाषा
को
ऊर्जावान
बनाते
हैं –शब्द भाषा
को
गतिशील
बनाते
हैं
–शब्द
भाषा
को
जीवन
देते
हैं
।
जब
शब्दों
की
जगह
चमकदार
वस्तुएं
ले
लेती
हैं
तो
शब्द
अपना
मूल
अर्थ
खोकर
बाजारवादी
दोहन
के
शिकार
हो
जाते
हैं
।
समकालीन कवि के लिए शब्द का महत्त्व अन्न के समान है जैसे अन्न जीवन देता है वैसे ही शब्द भाषा को जीवन देते हैं; एकांत श्रीवास्तव के अनुसार- ‘अन्न हैं मेरे शब्द’ इसलिए समकालीन कवि शब्दों के संस्कार को बचाने वाले कवि हैं । अगर बात की जाए की समकालीन कविता का शब्द सौन्दर्य क्या है ? समकालीन कविता में शब्द सागर में मछली की प्यास की तरह मनुष्य की अतृप्त इच्छाओं को व्यक्त करते हैं, धरती की लय में आदिम राग की तरह गूंजते हैं , जन जन में ऊर्जा भरने वाले अभिनव प्रकाश की तरह चमकते हैं तथा श्रम सौन्दर्य की तरह मानवीय गरिमा को अभिभूत करते हैं ।
उसके शब्द क्या हैं
उसके शब्द :सागर में जैसे मछली की प्यास …
जन जन में भरता ऊर्जा का अभिनव प्रकाश।’ 19
जीवनदृष्टि
और
कलादृष्टि
के
पारस्परिक
द्वंद्व
से
कविता
का
विकास
हुआ
है।
जटिल
और
भयावह
स्थितियां
भवितव्य
को
अबूझ
बना
देती
हैं,ऐसी स्थिति
में
समकालीन
कवि
को
काव्याभिव्यक्ति
के
लिए
परम्परागत
कलावादी
भाषा
असमर्थ
प्रतीत
होती
है। समकालीन कवि
नई
भाषा
भंगिमा
ईजाद
करने
वाली
कवि
हैं जिनके शब्द
नहीं
चमकते
बल्कि
अर्थ
भास्वर
हो
जाते
हैं
।
भाषा
की
तमाम
रूढ़ियों
को
तोड़ते
हुए
भाषा
की
यह
भंगिमा
बयान
की
तरह
आती
है
।
बयान
समकालीन
कविता
की
भाषा
का
मुख्य
सौन्दर्य
है
।
कई
बार
एकदम
गद्य
सा
सपाट
विन्यास
काव्य
भाषा
में
एक
रचनात्मक
तनाव
ले
आने
का
ढंग
बन
जाता
है
।
जहाँ
एक
ओर
भाषा
का
यह
रूप
समाज
के
काम
चलाऊ
ढाँचे
के
अंतर्विरोधों
को
उजागर
करता
है, तो
वहीं
दूसरी
ओर
कठोर
वस्तु
स्थितियों
के
बीच
मानवीय
संबंधों
के
बदलाव
को
नयी
संवेदनात्मक
दृष्टि
देता
है।
संवेदना
और
अनुभूति
से
रहित
बयान
पाठक
को
प्रभावित
नहीं
कर
पाते,वे अखाबरीपन
के
शिकार
हो
जाते
हैं।
रघुबीर
सहाय
की
कविता
अखबारी
होने
के
कारण
आगे
के
कवियों
के
लिए
प्रतिमान
नहीं
बन
सकी।
आज
का
कवि
रघुबीर
सहाय
की
अपेक्षा
धूमिल
के
निकट
अधिक
जाना
चाहता
है।समकालीन
कवि
अखबारीपन
से
अधिक
नाटकीयता,कहन की
अपेक्षा
संवाद
पर
अधिक
बल
देता
है।
संवाद
के
लिए
सहज
भाषा
की
जरूरत
होती
है।
समकालीन
कविता
सहज
संवाद
की
कविता
है।
जहाँ
भाषागत
स्वाभाविकता
टूटती
है, वहीं कलावाद
हावी
हो
जाता
है
।
कला
का
अतिरेक
कविता
के
कथ्य
को
ढक
लेता
है,जिससे कविता
कमजोर
हो
जाती
है
।
समकालीन
कविता परम्परागत कला
मूल्यों
व
प्रतिमानों
की
पूर्णत:
विरोधी
नहीं
है
परन्तु
वह
उन
प्रतिमानों
को
नये
जीवन
बोध
से
युक्त
करके
अधिक
संप्रेष्य
बनाने
की
कोशिश
करती
है। समकालीन कविता
कलाविहीन
नहीं
है
बल्कि
अपनी
अंतर्वस्तु
के
अनुरूप
कला
को
समाहित
करने
वाली
कविता
है
।
यहाँ
भाषा
का
सौन्दर्य
जीवन
बोध
की
नवीनता
के
साथ
विकसित
होता
है
।
भाषा
शब्द, रूप और
भावव्यापी
होती
है.
सृजन
द्वारा
शब्द
सार्थक
हो
जाता
है।
इस
प्रकार
कहा
जा
सकता
है
कि
सार्थक
सृजन
में
भाषा
कलात्मक
उत्कर्ष
पाती
है।
समकालीन
कवि
अपने
समय
की
सरहदों
को
पार
कर
कभी
अतीत
की
स्मृतियों
से, कभी भविष्य
के
स्वप्नों
से
जुड़
जाता
है.जहाँ
से
वह
ताकत
पाता
है-
पाथेय
निर्मित
करता
है
किन्तु
अपने
पाठक
को
किसी
नास्टेल्जिया
का
शिकार
नहीं
बनाता
है
।
मामूलीपन
के
बीच
यह
कविता
उभर
कर
मानवीय
व्यवहार
के
मुक्कमल
अनुभव
की
कविता
बन
जाती
है
।
इस
प्रकार
समकालीन
कविता
स्वप्नों-
स्मृतियों, जीवन की
धड़कनों
और
प्रकृति
के
राग-
रंगो
से
जोड़ने
वाली
भाषा
की
कविता
बन
जाती
है
।
आज
का
कवि
जीवन
से
जुड़ी
भाषा
का
प्रेमी
है
।
वह
बाजार
की
भाषा
के
स्थान
पर
जीवन
की
भाषा
को
महत्व
पूर्ण
मानता
है,उसे बाजार
के
शोर
में
खो
गए
जीवन
को
तलाश
है
।
उसे
ऐसी
भाषा
प्रिय
है
जिसमें
जीवन
के
सभी
रंग
खिलखिलाते
हों - ऐसी
हो
भाषा
/ कि उसमें हो
पूरे
जीवन
का
रंग
।"20
जिस
भाषा
में
जीवन
जगत
न
धड़कता
हो
वह
भाषा
कविता
की
भाषा
नहीं
बन
सकती
।
जीवन
की
अनुगूँज
समकालीन
कविता
के
शब्द-शब्द
में
समायी
है
– ‘शब्दों के अर्थ
में
जन-जन
के
चेहरे
जगमगाते
हैं-
चमकती
हैं
आँखें
ये
अनुभव
दमकते
हैं
।’ 21 क्रिया की
अन्तस्फूर्ति
से
शब्द
को
जोड़कर
अर्थदीप्ति
पैदा
करना
– शब्दों
के
तनाव
में
व्यंजना
की
कौंध
विकसित
करना
–कथन
की
भंगिमा
में
अर्थ
तरंग
पैदा
करना
–पद्य
को
गद्य
की
बांह
में
वक्तव्य
की
तरह
टांग
कर
सटीक
किन्तु
सीधे
अर्थ
संप्रेषित
करना
–शब्द
की
गूंज
मात्र
से
वाक्य
की
गति
में
अनोखे
अर्थ
भर
देना
–कविता
को
भीतरी
और
बाहरी
तनाव
से
मुक्त
कर
अर्थ
की
नवीनता
विकसित
करना-भाषा
को
स्थानीय
रंग
में
रंगना
और
भाषा
की
आडम्बरपूर्ण
दीवार
गिराकर
बिम्बों,चित्रों की
वास्तविक
दुनिया
को
सर्वसमावेशी
बनाना
ही
समकालीन
काव्यभाषा
का
वैशिष्ट्य
है।
वस्तुतः
समकालीन
कविता
के
कथ्य
और
कथन
को
किसी
विशेष
सांचे
में
बांधा
नहीं
जा
सकता
है।उसके
वैविध्य
व
गतिशील स्वरूप को
देखते
हुए
बस
यही
कहा
जा
सकता
है
कि
समय
चाहे जितना जटिल
और चुनौतीपूर्ण क्यों
न
हो, जीवन के
राग
,रंग
और
गंध
से
भरे
शब्द
कविता
को
संजीवनी
देते
रहेंगे।
जहाँ
कविता
का
भाषिक
सौन्दर्य
उसकी
वस्तु
संवेदना
के
अनुकूल
शब्द
विधान
है
तो
वहीं
वस्तुसौन्दर्य
कवि
की
अनुभूतिपरक
- मूल्यपरक चेतना
है
।
कह
सकते
हैं
कि
शब्दों
की
अदालत
में
अन्याय
के
विरुद्ध
बुलन्द आवाज ही समकालीन कविता
है।
संदर्भ :
1. लीलाधर मंडलोई - एक
बहुत
कोमल
तान
,अंतिका
प्रकाशन
गाजियाबाद,
पृष्ठ
13
2. परमानंद श्रीवास्तव, समकालीन कविता
: नए प्रस्थान - वाणी
प्रकाशन, 2014, पृष्ठ
46
3. लीलाधर मंडलोई - दानापानी
मेधा
बुक्स
दिल्ली,
पृष्ठ
19
4. मंडलोई , रात बिरात, आधार प्रकाशन
हरियाणा
1995 ‘वक्तव्य’ से
5. केदारनाथ सिंह, अकाल में
सारस, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 1988, पृ.46
6. लीलाधर मंडलोई - भीजै
दास
कबीर, वाणी प्रकाशन
नई
दिल्ली
पृष्ठ
11
7. लीलाधर मंडलोई, लिखे में
दुक्ख
(भाषा-1
शीर्षक
कविता
से), कविता कोश
8. लीलाधर मंडलोई, लिखे में
दुक्ख
(भाषा-2
शीर्षक
कविता
से), कविता कोश
9. विश्व नाथ
प्रसाद
तिवारी - संकलित
निबंध - राष्ट्रीय
पुस्तक
न्यास, भारत पृ.14
10. तदैव, पृ.15
11. प्रो. लालचंद - लोकतंत्र
और
धूमिल
अक्षर
प्रकाशन
दिल्ली
2020, पृ.32
12. तदैव, पृ.
33
13. मदन कश्यप,
कुरुज, पृ. 66
14. तदैव, पृ. 67
15. राजेश जोशी, दो पंक्तियों
के
बीच, पृ. 74
16. एकांत श्रीवास्तव
मिट्टी
से
कहूँगा
धन्यवाद
प्रकाशन
संसथान, पृ. 65
17. धूमिल - लोकतंत्र
और
धूमिल
-
भूमिका
- प्रो लालचंद, अक्षर
प्रकाशन
दिल्ली
2020 पृ.
32
18. राजेश जोशी, नेपथ्य में
हंसी
पृ. 39
19. गोबिन्द प्रसाद
यह
तीसरा
पहर
था
अनुज्ञा
प्रकाशन
शाहदरा
दिल्ली, पृ. 88
20. राजेश जोशी, नेपथ्य में
हंसी, पृ. 64
21. मुक्तिबोध - समकालीन कविता
नये
प्रस्थान - परमानन्द श्रीवास्तव, वाणी प्रकाशन,
दिल्ली,
पृ. 37
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिंदी, भारतीय भाषा केन्द्र, जे.एन.यू.,नई दिल्ली,
malkhan1979@gmail.com, 9990765648
अच्छा आलेख
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