शोध आलेख : मध्यकालीन सांस्कृतिक चेतना में नाभादास के भक्तमाल का सांस्कृतिक अवदान / डॉ. छाया चौबे

मध्यकालीन  सांस्कृतिक चेतना में  नाभादास के भक्तमाल का सांस्कृतिक अवदान
- डॉ. छाया चौबे


शोध सार : मध्यकाल का साहित्य हमारी संस्कृति की अमूल्य धरोहर है। उस समय जो भी रचा- बुना गया वह आज के हमारे जीवन-मूल्यों को निर्धारित करता है। मध्यकाल में धर्म, दर्शन, मठसम्प्रदाय से लेकरत्योहारमेलों, रीति-रिवाजों आदि की एक विस्तृत सांस्कृतिक परम्परा देखने को मिलती है जो आज तक अनवरत रूप से हमारे जीवन और रीति-नीति का हिस्सा बना है। शादी-विवाह, पूजा-पाठ, शिक्षा-दीक्षा आदि जीवन प्रणाली का केंद्र मध्यकालीन जीवनगौरव है। इस कड़ी में अगर भक्तमाल को देखें तो यह 16 वीं शताब्दी का ऐसा ग्रन्थ है जिसकी चर्चा के बगैर पूरा मध्यकालीन साहित्य अधूरा है। इस ग्रन्थ में केवल लेखक या मध्यकालीन और पौराणिक संतों का परिचय भर नहीं है बल्कि उस समय के समाज और संस्कृति का भी पूरा परिचय मिलता है। नाभादासीय भक्तमाल मध्यकाल का महत्वपूर्ण ग्रन्थ होने के साथ-साथ शिक्षा, संस्कृति, कला, रहन-सहन आदि का लेखा जोखा भी प्रस्तुत करता है। इन तथ्यों के आलोक में भक्तिकाल पर पुनर्विचार जरुरी हो जाता है।

बीज शब्द : उत्सव-महोत्सव, लोकाचार एवं लोकविश्वास, संतों का समाज में स्थान, शिक्षा व्यवस्था, साहित्य रचना शैली, नृत्य एवं संगीत, सामाजिक नियम निषेध तथा जातियाँ, बाजार व्यवस्था, भक्तमाल परम्परा, धार्मिक साहित्य, सांस्कृतिक चेतना, परचई ग्रन्थ, लोक संस्कृति, पौराणिक साहित्य।  

मूल आलेख : आचार्य द्विवेदी ने सच ही लिखा है –“एक एक पशु ,एक एक पक्षी जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित हैं1 एक लेखक समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करता है। उसके द्वारा रचा गया महान साहित्य केवल उस युग विशेष के लिए महत्वपूर्ण होता है बल्कि सभी कालों तथा युगों के लिए प्रसांगिक बन जाता है। मध्यकाल में जब महान संत कवि अपनी अपनी लेखनी से समाज का उद्धार कर रहे थे तो उन्होंने अपने परिचय विशेष को महत्ता नहीं दी। स्व को समाज का अंग मानकर अपनी रचना समाज को अर्पित की। इस कारण बहुत से लेखक, विचारक ऐसे भी हैं जिनकी रचना ही उनका सम्पूर्ण परिचय है। आधुनिक समय में किसी लेखक का परिचय उसकी रचना में उल्लिखित होता है जो हमें सहज ही प्राप्त हो जाता है, किन्तु अगर मध्यकाल की बात करें तो हमें अलग-अलग अनेक स्त्रोंतों का सहारा लेना होता है। जीवन परिचय के लिए अलग-अलग सम्प्रदायों  में भी संकलन ग्रन्थ रचे गए हैं जैसे वार्ता साहित्य, परचई आदि। मध्यकालीन इतिहास के स्वर्ण युग को देखते हुए उस युग के संतों-महात्माओं, कवियों-लेखकों तथा जन सामान्य के जीवन को जानना हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। इस कड़ी में नाभादास द्वारा रचित भक्तमाल का अवदान अति विशिष्ट और उल्लेखनीय हो जाता है। भक्तमाल पर अपने शोध में डॅा. अभिषेक ने लिखा है किभक्तमाल भक्तों के जीवन को लेकर लिखा गया है, लेकिन साथ ही यह कृति भक्तों के आस-पास की दुनिया, उसमें प्रचलित विश्वास और लोकमान्यताओं तथा उनके रोजमर्रा की जिंदगियों का बड़ा ही सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करता है। मध्यकाल के सांस्कृतिक इतिहास को लिखने वाले लेखकों के लिए यह एक अनिवार्य स्त्रोत है।2  

भक्तिकाल में भक्त, भक्ति द्वारा भगवान का सामीप्य प्राप्त करना चाहता है। ईश्वर से निकटता ही भक्त के दुखों का नाश मुक्ति का द्वार है। इसलिए नाभादास ने भक्तों को अपनी रचना का केंद्र बनाया। क्योंकि संत-भक्त अथवा कवि जन-समाज के लिए भक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहें हैं। अतः ईश्वर से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हैं उसकी उपासना करने वाले भक्त। इससे लेखक और जन-समाज दोनों ही नाभादास की रचना का केंद्र बन गए। भक्तमाल में नाभादास ने केवल अपने समकालीन भक्तों का परिचय दिया है बल्कि मिथकीय और पौराणिक भक्तों का भी उल्लेख किया है जो नाभादास के रचनाफलक को और अधिक विस्तार देता है। भक्तमाल के सांस्कृतिक अवदान पर विचार करने के लिए हम इसके उन सामाजिक सन्दर्भों का उल्लेख करेंगे जिससे मध्यकालीन सांस्कृतिक बिन्दुओं को भक्तमाल के हवाले से केन्द्रित किया जा सके। 

1 . भक्तमाल की सामाजिक- सांस्कृतिक  छवियाँ -

भक्तमाल में विशुद्ध रूप से भक्ति का उल्लेख किया गया है किन्तु भक्ति के उन प्रसंगों का उल्लेख करते समय सामाजिक पक्ष को अनदेखा नहीं किया जा सकता। नाभादास ने अकबर से लेकर शाहजहाँ तक का शासन देखा था किन्तु शुरू से ही आश्रम में रहने के कारण वह राजदरबार से कट गए। यही कारण है कि वे अपने गुरु की आज्ञा पाकर भक्तमाल रच देतें हैं किन्तु उसमें राजनीतिक या सामाजिक हलचल का असर नहीं दिखाई देता है।

नाभादास ने भक्तमाल के पूर्वार्ध में पौराणिक और मिथकीय भक्तों का विवरण दिया है जिसमें हमारी संस्कृति के संरक्षित पात्रों का चित्र है जो पुराण तथा गाथाओं और महाकाव्यों में कहे गए हैं। रामायण हमारी संस्कृति का कालातीत अंग है। रामायण के पात्र और उसकी आदर्श कहानी सदा-सदा के लिए हमें और हमारी पीढ़ियों को सत्य-असत्य, नैतिक-अनैतिक का ज्ञान देती रहेंगी। राम, सीता, भरत, विभीषण, जटायु, हनुमान आदि सभी पात्र और खल पात्रों में रावण का नाम भी अमर रहेगा। नाभादास ने इन पात्रों के चित्रण द्वारा अपनी संस्कृति को पुनर्जीवित कर दिया है। वहीं महाभारत जैसे विशाल फलक वाले महाकाव्य के असंख्य चरित्रों में सत्य और आदर्शात्मक पात्रों का चयन किया है, जिससे हम प्रत्येक पात्र को, उसके चरित्र की सत्यता को गहराई से जान सके। युधिष्ठिर, अर्जुन, कुंती, द्रौपदी आदि अनेक पात्रों का चित्रण किया गया है। इन पात्रों का विवरण नाभादास ने भक्तमाल की पृष्ठभूमि मानकर किया है, साथ ही इन चरित्रों के विवेचन से संस्कृति में रचे बसे इन महाकाव्यों का सन्देश भी जन-जन तक प्रेषित किया है।

पुराणों में नाभादास ने भागवत को अत्यधिक प्रतिष्ठा दी है। पुराणों की वंदना करने के साथ-साथ नाभादास ने सभी पात्रों का पृथक वर्णन अपने पूर्वार्ध भाग में किया है। महाराज पृथु, दधीचि, भृगु ऋषि, राजा परीक्षित, सागर जी, राजा दिलीप, मनु, प्रह्लाद, अगस्त्य, बलि, दुर्वासा आदि अनेक पात्रों का विवरण दिया है, जो भक्ति भाव को बढा़ने वाले और हमें सत्य, न्याय और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करने वाले हैं। इन कथाओं में आये इन पात्रों के बारे में पढ़कर इन चरित्रों को हम अपने जीवन में जीने लगते हैं और भक्तिभाव की ओर सहज भाव से आकर्षित होते हैं और यही भाव प्रेषित करना ही नाभादास का सबसे महत्वपूर्ण अवदान है।      

उतरार्ध भाग में नाभादास ने पुराणों और कल्पना की दुनिया से बाहर आकर अपने समाज के उन चरित्रों को खड़ा किया हैं , जो हमारे ज्यादा निकट हैं, हमारे अपने जनजीवन से निकले चरित्र हैं। इसमें समकालीन पात्र और कुछ नाभादास से पूर्व के हैं। कलयुग तक के इन चरित्रों के वर्णन में नाभादास इन पात्रों को ऐसे प्रस्तुत करते हैं, मानों वे भी मिथकीय या पौराणिक हों। इन यथार्थवादी पात्रों में वहीं करिश्माई प्रभाव दिखता है जो पूर्वार्ध के पौराणिक पात्रों में हैं। नाभादास ने परम्परागत ढाचें के अनुसार ये शैली अपनाई है जिसमें जादू या करिश्माई यथार्थ पात्रों को और अधिक जीवंत बनाता है। डॉ. झा ने इस तथ्य का विवेचन करते हुए हुए लिखा है - मध्ययुग तंत्र-मंत्र और जादू टोने का युग था। सिद्धों और योगियों के नाम से अनेक अलौकिक एवं चमत्कार पूर्ण कथाएँ प्रचलित थीं। साधारण जनता की बात ही क्या, सामंत एवं कई राजा-रईस भी इन योगियों के किस्से सुनकर अभिभूत थे। जयपुर अधिपति पृथ्वीराज ऐसे ही किसी योगी के शिष्य बन गए, जिसका प्रधान गढ़ गलता था। साधारण जनता में जादू टोने वाले साधुओं के प्रति भय मिश्रित श्रद्धा भावना व्याप्त थी। इन योगियों के प्रभाव से समाज में भक्ति भावना का लोप हो रहा था।गोरख जगायो जोग, भक्ति भगायो लोगकहकर तुलसी दास ने इसी तथ्य की ओर इशारा किया था। यही कारण है की भक्त कवियों को भी भक्ति भावना का प्रचार करने के लिए अलौकिक कथाओं का सहारा लेना पड़ा। मध्य युग की किसी भी रचना में अलौकिक घटनाओं की असंख्य कहानियाँ प्राप्त होंगी। सूर, कृष्ण के बाल लीला के क्रम में अनेक अलौकिक दृश्य प्रस्तुत करते हैं और बहुत से असुरों का बध करते है। तुलसी ने मानस में ऐसी अलौकिक घटनाओं का अम्बार लगा दिया है। रामचन्द्र ने पहले माता कौसल्या को चतुर्भुज रूप के ही दर्शन दिए किन्तु माता की विनती पर शिशु रूप ग्रहण किया। हनुमान का समुद्रलंघन, सुरसा के बदन से निकलना आदि अनेक चमत्कारिक घटनाएँ हमें मिलती है।’’3

नाभाजी तुलसीदास के समकालीन थे। भक्ति की महत्ता प्रदर्शित करने के लिए भक्तों के जीवन से सम्बंधित अनेक अलौकिक कहानियों का वर्णन उन्हें भी करना पड़ा। भक्तों पर भगवान किस प्रकार कृपालु हो जाते हैं, किस प्रकार रक्षा करते हैं और भक्तों का कार्यसाधन करते हैं यही दिखाकर परोक्ष ढंग से भक्तिभावना का प्रचार करना की भक्तमाल का रचना उद्देश्य था। अन्य मध्ययुगीन रचनाओं से भक्तमाल में अंतर यह है कि जहाँ अन्य रचनाओं में पौराणिक व्यक्तियों के साथ अलौकिक कथाएं सम्बद्ध हैं वहां भक्तमाल में ऐतिहासिक पुरुषों के साथ भी।4  उत्तरार्ध भाग में नाभादास ने जो चरित्र खड़े किये है उन भक्तों के प्रसंगों में जीवन तथा समाज और संस्कृति के अनेक तत्त्व दिखाई पड़ते हैं। सांस्कृतिक अवदान की चर्चा हेतु हम अब उन प्रसंगों पर प्रकाश डालने का प्रयास करेंगें-

1.1.उत्सव-महोत्सव -

सम्पूर्ण भक्तमाल में संत समाज और उसके क्रियाकलापों में महोत्सव का विशेष महत्व है। मंदिर में भजन-कीर्तन के बाद प्रसाद वितरण कर भगवान की आराधना में नृत्य-गीत आदि प्रस्तुत करना ही महोत्सव कहा गया। ऐसे असंख्य स्थल मिले हैं जहाँ महोत्सव की चर्चा है। इनमें नृत्य और गीत का भी विशेष महत्व है। श्रीविट्ठल जी के पुत्र कान्हरदास की महिमा का वर्णन करते समय महोछोयानि महोत्सव का यह वर्णन देखिये-

मधुपुरी महोछो मंगलरूप कान्हर कैसो को करै ।।
चरि बरन आश्रम रंक राजा अन पावै
भक्तनि कौ बहु मान बिमुख कोऊ नहिं जावै ।।
बीरी चन्दन बसन कृष्ण कीरतन बरखै
प्रभु के भूषन देय महामन अतिसय हरखै ।।
बीठल सुत बिमल्यौ फिरै, दासचरण राज सिर धरै ।।
मधुपुरी महोछौ मंगलरूप कान्हरकेसौ को करै ।।  १५२ ।। (६२) 5

 

भाव इस प्रकार है कि मथुरापुरी में मंगलरूप महाउत्सव श्रीकान्हरजीके समान और कौन कर सकता है? जिस उत्सव में चारों वर्ण, चारों आश्रम के जन, राजा से रंक तक सबको सादर भोजन अन्न मिलता था और भगवदभक्तों का अतिसम्मान से सत्कार होता था, विमुख कोई नहीं जाता था। सभा समाज में चन्दन माला, मेवादिक और वस्त्र दिये जाते थे। फिर गुणीजन श्रीकृष्णकीर्तन यशगान की वर्षा करते थे, उस समय श्रीकान्हरजी प्रभु के भूषण उतार गुणीजनों को देकर मन में अति आनन्दित होते थे। श्रीविठ्ठलजी के परम विमल पुत्र श्रीकान्हरजी संतों के चरणों की रज शीश पर धारण करने के लिए प्रमुदित चारों ओर फिरते थे।


1.2. संतों का स्थान -

              भक्तमाल में ऐसी अनेक कहानियां मिलती हैं, जो इन संतों के व्यापक प्रभाव को दर्शाती हैंश्री अनन्तानन्द जी और उनके शिष्यों को सम्भर प्रदेश के माली ने पुष्प लेने से मना कर दिया और अगले दिन उद्यान में एक भी पुष्प नहीं मिला, तब राजा सारी कथा जानकर श्री अनन्तानन्द जी से इतने प्रभावित हुए कि सारा प्रदेश ही श्री अनन्तानन्द के समक्ष शरणागत होकर भगवतभक्त हो गया।6 इसी प्रकार सिकन्दर लोदी ने कबीर के प्रभाव से भयग्रस्त होकर कबीर को सीकड़ में डालकर गंगा के तीर पर छोड़ दिया जिसका कबीर के संत होने से कोई प्रभाव नहीं पड़ा, सभी बंधन स्वतः खुल गए।7

आमेर के राजा ने रूपगोस्वामी और सनातन जी दोनों भाइयों के दर्शन किये और हठपूर्वक दान में लाल पथरों से गोविन्द जी का मंदिर बनवा दिया। वहीं राजा जयसिंह ने श्रीगोविंद की एक मूर्ति जयपुर में स्थापित की।8 संगीतकार हरिदास के दर्शन के लिए राजा लोग द्वार पर खड़े रहते थे। बादशाह अकबर वेष बदलकर हरिदास से मिलने आये थे।9 साधू संतों को वस्त्र, चन्दन माला आदि दान करने का उल्लेख कान्हरजी के प्रसंग में भी आता है।10 इसी प्रकार जब नींवा जी किसी किसान के घर में पधारते हैं तो वह किसान उनके चरण धोकर साष्टांग दण्डवत करता है।11 इन सभी घटनाओं में हमें हमारी संस्कृति की झलक मिलती है जो आज भी अनेक बाधाओं के बाद भी निरंतर प्रवाहित है

 1.3. शिक्षा -

शिक्षा का हमारी संस्कृति के निर्माण में अथक योगदान है। समाज में अनपढ़ से ज्यादा प्रभावशाली एक शिक्षित होता है। भारत में शिक्षा की प्राचीन संस्थाओं में देश विदेश से अनेक छात्र पढने के लिए आते थे। वैदिक परम्परा में गुरु -शिष्य को वेदों का ज्ञान कराता था जिसे शिष्य उस ज्ञान कंठस्थ कर लेते थे जिसे श्रुति परम्परा कहा जाता है। भक्तमाल में नाभादास ने अकबर द्वारा पुस्तकालय बनवाकर अपनी संस्कृति को संरक्षित करने के स्तुत्य प्रयास का उल्लेख किया है। जीवगुसाई के महात्म्य से प्रभावित होकर अकबर ने वृन्दावन में एक विशाल पुस्तकालय बनवाने का आदेश दिया जिसमें सब वेद, पुराण, उपपुराण, स्मृतियाँ, शास्त्र और संहिता आदि सब प्रकार की संस्कृत पोथियाँ रखने का निर्देश दिया।12 किसी मुस्लिम शासक द्वारा हिन्दू धर्मग्रंथों को संरक्षित करना अपने आप में समन्वय की मिसाल है। 

1.4. साहित्य -

मध्यकाल में रचे गये ग्रन्थ भक्तमाल की अपनी अलग विशिष्टता है। भक्तमाल दोहे और चौपाई छंद में रचित है। नाभादास ने इस छंद विशेष में सभी भक्तों का विवेचन किया है जिसे गागर में सागर कहा जाता है। रचना कर्म, जीवन दर्शन और सामाजिक धेय सबका समग्र विवेचन इन पंक्तियों में देखा जा सकता है। चमत्कारिक घटनाएँ इस शैली का महत्वपूर्ण अंग है। पौराणिक तथा मिथकीय कथाओं में देवताओं की कथाएं चमत्कारिकता से पूर्ण हैं। विष्णु का चक्र, ब्रह्मा के चार हाथ, रावण के दस मुख आदि बातें जनसमाज बिना किसी दुविधा के सच्चे मन से स्वीकार करता है, इसीलिए नाभादास ने अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन भक्तों के विवरण में चमत्कारिक शैली का प्रयोग किया है। सूफी संत औलिया हो या कोई साधू फकीर सभी अपनी अदृश्य ताकतों और चमत्कारिक शक्तियों के कारण समाज में विशेष ख्याति प्राप्त थे, जिन्हें सम्पूर्ण जनसमाज पूज्यनीय समझता था। ये समाज में सभी बाधाओं का निराकरण भक्ति तथा ईश्वर कृपा द्वारा मानते थे। इन्ही कारणों से नाभादास ने अपने समाज की इन सभी विशेषताओं को अपने लेखन में स्थान दिया है।

किस्से कहानियों वाले हमारे देश में अपार साहित्य मौजूद है जो प्रत्येक परम्परा को अनेक दास्तानों, कहानियों द्वारा व्यक्त करता है जिससे जटिल दर्शन में हमारा ज्ञान जनसमाज से वंचित रह जाये। यही कारण है कि वेदों और उपनिषदों के ज्ञान से ज्यादा लोकप्रिय पौराणिक तथा मिथकीय कहानियां हुई। जो कथाओं के माध्यम से जन समाज के हृदय  में प्रवेश कर जाती हैं।

नभादास के भक्तमाल की टीका जो प्रियादास ने रची तथा सीतारामशरण रुपगोस्वामी ने गद्य में इसकी टीका लिखी तो इन कहानियों को और अधिक विस्तार मिला। भक्तमाल का मंचन भी किया गया ताकि इसका प्रभाव जन-जन तक सुगम हो जाये।

1.5. लोक-विश्वास -

प्रत्येक समय और समाज के अपने प्रचलित लोकविश्वास होते हैं। ये लोकविश्वास इतने प्रबल होते हैं कि इनमें तर्क का कोई स्थान नहीं होता। समाज इन प्रथाओं, विश्वासों को जीवन का अंग मानता है या कहें ये विश्वास लोक में घुले-मिले रहते हैं। भक्तमाल इन प्रसंगों से भरा पड़ा है। मीराबाई को सर्प ने तीन बार काटा किन्तु सर्प का मीराबाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।13 कामध्वज चिता के समीप वृक्षों पर जो बहुत से प्रेत रहते थे वे चिता के धुएं से प्रेतयोनी से मुक्त होकर शुभगति को प्राप्त होते हैं।14 इसी प्रकार तुलसीदास नित्य शौच के लिये नदी के पार जाते थे और शेष जल को कंटकी बैर के वृक्ष में डाल देते थे। वहां एक प्रेत रहता था जो अशुद्ध जल पीकर बहुत प्रसन्न रहता था। एक दिन प्रेत प्रसन्न होकर तुलसीदास से बोला कि मुझे श्रीराम के दर्शन करा दो, जिसके लिए तुलसीदास ने उन्हें हनुमान से प्रार्थना करने को कहा।15

1.6. सामाजिक नियम-निषेध -

लोक के अपने नियम-निषेध होते। बुद्ध का दर्शन इस संदर्भ में ज्यादा क्रांतिकारी है क्योंकि सबसे पहले वह परम्परागत भाषा की जड़ता पर प्रहार करता है। मध्यकाल में संतों ने भी सबसे पहले भाषाई वर्चस्व पर प्रहार किया। कबीर के कहा- संकीरत है कूप जल, भाखा बहता नीरइस प्रकार इन संतों ने जनसमाज से उनकी भाषा में भक्ति और प्रेम का संवाद किया।

नाभादास ने ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख किया है जिसमें निम्न वर्ग, उच्च वर्ग की पाखण्डता का खंडन करता है। इस कड़ी में रामानुज के शिष्य रामानंद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। रामानंद के शिष्य निम्न वर्ग से थे जिसमें कबीर को सबसे बड़ा समाज सुधारक माना जाता है। नाभादास ने लिखा है कबीर के संदर्भ में -

भक्तिविमुख जो धर्म सो अधरम करि गयो

जोग जग्य, व्रत, दान, भजन बिनु तुच्छ दिखायो ।।16  समाज में निम्न वर्ग का कोई संत हो तो उसे लोग श्रद्धा का पात्र समझते थे। रैदास चमार जाति के थे किन्तु समाज में उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त थी -

 वर्णाश्रम अभिमान तजि पदरज बन्दे जस की
 संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानि बिमल रैदास की ।।17

संस्कृत में आदि कवि वाल्मीकि निम्न जाति के थे किन्तु सम्पूर्ण समाज में उनकी प्रसिद्धि संत लेखक के रूप में है। इससे यह ज्ञात होता है की समाज की बंदिशे बाद में जटिल होती गईं। गुरु द्वारा साधक को मन्त्र दिया जाता था। जिसे किसी और को बताने पर मन्त्र सिद्धि समाप्त हो जाती है ऐसा लोक विश्वास है। अतः समाज में ब्राहमण वर्ग इस मन्त्र सिद्धि तथा गुरु मन्त्र द्वारा अपना प्रभाव बनाये हुए थे। इस परम्परा को रामानुज ने तोड़ कर भक्ति का मार्ग सबके लिए सुगम बना दिया। गुरु मन्त्र को सभी के बीच जाकर गोपुर पर्वत पर चढ़कर जोर-जोर से मन्त्र का उच्चारण कर दिया

गेपुर है आरूढ़ उच्च स्वर मन्त्र उचारयो
सुते नर परे जागि, बह्त्तरी श्रवणनि धारयो
तितनेई गुरुदेव पधति भई न्यारी न्यारी
कुरूतारक शिष्य प्रथम भक्ति वपु मंगलकारी।।
कृपागेपाल करुना समुद्र रामानुजसैम नहीं बियो ।।
सहस्त्र आस्य उपदेश करि, जगत उधारन जगत कियो ।।18

समाज के ये नियम ब्राह्मणों ने अपने हितों की रक्षा के लिए बनाये थे, जिससे वे अपने अनुकूल सामाजिक व्यवस्था कायम रख सकें। ब्राह्मण वर्ग गुरु मन्त्र देना, यज्ञ कराना, पाप-पुण्य का लेखा-जोखा करके, समाज को भयभीत बनाये रखना चाहते थे। इन सामाजिक विधानों द्वारा ये वर्ग ; रक्त के आधार पर समाज में निम्न वर्ग पर अपनी श्रेष्ठता बनाये रखना चाहते थे। जिससे सभी वर्ग ब्राहमण वर्ग के आधिपत्य में रहें, विशेषकर निम्न वर्ग। यदि समाज में कोई वर्ग इनके द्वारा बनाये गए नियमों का उल्लंघन करता है तो ब्राह्मण वर्ग उस व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार कर देते हैं। तत्वा-जीवा नामक दो भाइयों का संदर्भ आता है जिसमें दोनों भाई नित्य ही वैष्णव भक्तों की सेवा करते थे और उनके चरण धोकर एक सूखे पेड़ में डाल देते थें। एक दिन कबीर के धुले हुए चरण जल से पौधे में पत्तियाँ गयीं और उन दोनों भाइयों ने कबीर को अपना गुरु बना लिया। एक ब्राह्मण द्वारा किसी जुलाहे से दीक्षा लेना ब्राह्मण वर्ग को कैसे स्वीकार्य होता इसलिए सबने मिलकर उन दोनों भाइयों को बहिष्कृत कर दिया। अब वे अपनी बेटियों और बेटों का विवाह उस ब्राह्मण समाज में नहीं कर सकते थे, तब तत्वा-जीवा ने आपस में एक दूसरे की बेटी और बेटे से शादी का प्रस्ताव तय करके सारे समाज में घोषणा कर दी और अन्ततः सभी ब्राह्मणों ने क्षमा याचना कर उन्हें समाज में बने रहने की स्वीकृति दे दी।19  इसी प्रकार चित्तौड़गढ़ की रानी झाला ने रैदास की शिष्या बनकर समाज के परम्परागत बन्धनों को तोड़ने का काम किया और समाज के जड़ वर्ग को एक चुनौती दी।20  ज्ञानदेव के पिता को भी समाज से बहिष्कृत कर दिया गया क्योंकि उन्होंने गृहस्थ जीवन अपना लिया। उन्हें वेदमंत्र देकर ज्ञानदेव के ऊपर कठोर बंदिशे लगायी गयीं।21  समाज की ये बाधाएं और उनका निराकरण दोनों ही नाभादास के भक्तमाल में द्रष्टव्य है। जो हर श्रोता तथा पाठक को प्रगतिशील समाज के निर्माण की प्रेरणा देता है, जिसमें जाँति-पाँति, वर्ण भेद का कोइ स्थान नहीं होता है।

1.7. नृत्य और संगीत -

ऐसा भी कहा जाता है कि संसार में बढ़ते घृणा, द्वेष, ईष्या, घृणा, क्रोध और दुःख को देखकर ब्रह्मा जी ध्यानमग्न हुए और उन्होंने पांचवें वेद नाट्यवेद की रचना की। बौद्धिक पक्ष ऋग्वेद सेसंगीत सामवेद से, अभिनय यजुर्वेद से और रस अथर्ववेद से लिया गया। इसी को आधार मानकर भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र की रचना की।22  नाभादास के भक्तमाल में नृत्य का उल्लेख अनेकशः हुआ है। जब भगवान् के भंडारे में उत्सव होता है तो नृत्य के द्वारा भक्त स्वयं को ईश्वर को समर्पित करता है। प्रभु के पद गाकर भक्त ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करता है और गाते-गाते नाचने लगता है। इन दोनों कलाओं का आपस में गहरा सम्बन्ध है। भक्तमाल में एक भक्त का उल्लेख करते हुए नाभाजी लिखते हैं कि वह भक्ति में विभोर होकर नृत्य करने लगता है- पायनि नुपुर बाँधि नृत्य नगधर हित नाच्यौ 23  एक और प्रसंग में जयदेव नृत्य करके और गा कर प्रभु को प्रसन्न करते है। 24 श्रीबिट्ठलदास के प्रसंग में वर्तिक तिलक में प्रियादास नृत्य उत्सव का उल्लेख इस प्रकार करते हैं - बड़े धूमधाम से समाज ;उत्सवद्ध होता था मानो उत्सव के सोते समुद्र में पहुचते थे। गुणियों का नाचना-गाना भी भले प्रकार से होता था। एक दिन एक गुणवती नटी ने भगवान् के आगे ऐसा नृत्य और कीर्तन किया कि बेसुध होकर बिठ्ठलनाथ ने सब संपत्ति क्या अपने प्रिय पुत्र को भी भगवत पर न्योछावर करके, उस नटी को दे दिया।25 वहीं बल्लभ जी के लिए लिखते हैं- “नृत्य गान, गुण निपुण रास में रस बरषावतअर्थात वे नृत्य, संगीत और गुणों में प्रवीन थे।26  इसी प्रकार नरसी जी के यहाँ दो गाने वाली स्त्रियाँ अति उत्साह से गाने का निवेदन करने लगी तब नरसी जी ने कहा- यहाँ धन नहीं मिलेगा, श्री हरि भक्ति चाहो तो बालों को मुड़ाकार विरक्त होकर, प्रेम से गाकर प्रभु से प्रेम लड़ाओ।27  और मीरा के विषय में तो सारा जगत जनता है- नृत्यति नुपुर बांधि के, नाचत लै करतार।कृष्ण के सम्मुख अपने पद मीरा गाकर नाचा करती थीं।28 ऐसे ही तानसेन ने एक नवीन पद रचकर गाकर अकबर को सुनाया था।29  संगीतरत्नाकर, रागमाला, रंगरासी के रचियता श्रीकृष्णदास थे जिन्होनें संगीत के इन महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। निमदेव ने विष्णुपद गाकर गाय को जीवित कर दिया।30  इन ग्रंथों में नृत्य गान का भेद विस्तार पूर्वक दिया गया है। जिससे इनकी महिमा का वर्णन नाभादास ने किया है।31  रामविलास शर्मा लिखते हैं -

हिन्दुस्तानी संगीत के राग इतने मधुर हैं कि उन्हें सादे ढ़ग से गाया जाये तो वे जनता का मन मोह लेते हैं, ये राग लोकसंगीत से ही उत्पन्न हुए हैं। हिन्दी के संत कवि अपने भजन जनता के लिए रच रहे थे और उन्ही के लिए गाते थे। संगीत और काव्य में सामंजस्य था, विरोध नहीं। इस प्रक्रिया से केवल हिन्दी काव्य वरन हिन्दी संगीत भी अहिन्दी प्रदेशों में लाकप्रिय हुआ।’’32  आज के समय में संगीत की लोकप्रियता को इस बात से समझ सकते है कि मेला, विवाह, उत्सव तथा आध्यात्मिक आयोजन संगीत के बिना अपूर्ण है।

1 .8. बाज़ार-व्यवस्था -

बाज़ार का स्थान हमारी सभ्यता में प्राचीन काल से ही रहा है। किसी स्थान विशेष की वस्तु वहां की संस्कृति का भी प्रतीक होती है। कालीन, दरी, साड़ियाँ, आभूषण आदि ऐसी अनेक वस्तुएं हैं जो स्थान विशेष की संस्कृति को दर्शाती हैं।

नाभादास ने भक्तमाल में ऐसे अनेक विवरणों को प्रस्तुत किया है जो बाजार की संस्कृति को दर्शाती हैं। बनिया, तुला आदि अनेक बाजारी सभ्यता की वस्तुओं का विवरण है।  जैसे-प्रभु सेवा के लिए पीपा जी की पत्नी श्री सहचरी अन्न के गोले में जिसे बाजार कहा गया वहां जाकर बैठ गयी, किन्तु भगवत प्रेम में मग्न देखकर किसी की दृष्टि अपवित्र नहीं हुई और लोगों ने अनाज के ढेर लगाकर भगवत भक्ति में सहयोग दिया।33  ऐसे ही संतों को भोजन कराने के लिए वस्तु विक्रय हेतु कबीरदास बाज़ार जाकर अपने बुने हुए वस्त्र बेचते हैं। अतः सभी सभ्यताओं में बाजार को क्रय-विक्रय तथा संस्कृति का केन्द्र माना गया है। यहाँ भी नाभादास मध्यकालीन समाज को दिखा रहें हैं।

भक्तमाल की रचना का उद्देश्य भक्ति का प्रसार करना था जिसमें सभी का समाहार कर लिया गया। वेद, पुराण, महाकाव्य, इतिहास आदि सभी परम्पराओं को समेट कर एक ऐसी संस्कृति का निर्माण किया गया, जहाँ सबको समान सामाजिक प्रतिष्ठा के साथ प्रेमपूर्वक जीवन-यापन करने का अधिकार मिले। भक्ति की एक समांतर रेखा खीची गयी, जिसमें सभी को बराबरी का दर्जा देकर समाज को उन्नत बनाने का प्रयास किया गया। एक प्रगतिशील समाज के जीवन मूल्य और प्रथाएं-परम्पराएँ भी उन्नत होती हैं, जिनसे मिलकर हमारी संस्कृति का समृद्ध ढांचा विकसित होता है। कैलाशचंद्र शर्मा के महत्वपूर्ण शोध की की कुछ पक्तियां जो भक्तमाल के विवेचन में उपयुक्त प्रतीत होती हैं -

इसकी एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि प्राचीन जाति, कुलगत - वंशगत परम्पराएँ मान्यताओं को सतत चोट पड़ती रही। परम्परागत रुढियों पर संस्कारगत आघात इन रचनाओं तथा इनके द्वारा निर्मित वातावरण से पड़ा। कबीर विषयक निर्देश इसके ज्वलंत उदाहरण कहे जा सकते हैं। कहना होगा कि इन रचनाओं ने जनसाधारण पर अपना मनोवैज्ञानिक प्रभाव डाला है। इस रचना की परम्पराओं में ऐसी अनेक कहानियाँ जिनके द्वारा भगवान प्रसन्न हुए। धीरे-धीरे भगवत भक्ति के कारण समाज में व्यक्ति को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया जाने लगा। निर्गुण साधको ने व्यक्ति और भगवान् के अवतारों को महत्व नहीं दिया है फिर भी उन्होंने संतों को भगवान के रूप में देखा और भगवान् के अवतारों को किसी किसी दिव्य रूप में मानने लगे।34

निष्कर्ष : भक्त चरित्र के वर्णन के साथ-साथ उस व्यक्ति या पात्र से जुड़ी अन्य चमत्कारिक घटनाओं के साथ मध्यकालीन समाज का जन-जीवन, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, प्रथाएं-परम्पराएँ आदि अनेक बातों की जानकारी भी हमें भक्तमाल से प्राप्त  होती है। भक्तमाल एक मल्टीलेयर्ड टेक्स्ट कहा जाता है जिसके गूढ़ स्तरों को समझना बहुत दुरूह काम है। यही कारण है की इस टेक्स्ट पर बहुत कम काम हुए हैं। भक्ति की अवधारणा और संतों, भक्तो के विवेचन के बीच इन चमत्कारिक घटनाओं के साथ उस समाज का जो दृश्य उपस्थित होता है वह निःसंदेह आलोचना शोध की बड़ी सामग्री है। भक्तमाल के हवाले से भारत की सांस्कृतिक यात्रा का भी परिचय मिलता है जिसमें सम्प्रदायों की मुठभेड़ में जातिविहीन समाज की कल्पना जिसमें भक्ति के निकष पर सबको समानता देना नाभादास के एक बड़े विजन को दर्शाता है। शैव और नाथपंथी कट्टरताओं और भक्ति विषयक मानदंडो की विवेचना का विषय भले अलग हो सकता है किन्तु भक्तमाल के द्वारा बहुआयामी परतों में संस्कृति का चित्रण उस युग के समाज का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करता है इससे सभी सहमत होंगे जिसकी व्याख्या मध्यकालीन इतिहास की विवेचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है उन्हीं कुछ बिन्दुओं की पड़ताल करना ही इस शोध का लक्ष्य रहा है।


सन्दर्भ :
1.  हजारी प्रसाद द्विवेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2006, पृष्ठ संख्या 11
2.   डॅा. अभिषेक : भक्ति की अवधारणा और भक्तमाल साहित्य, शोधग्रंथ जे .एन यू . पृष्ठ संख्या 152
3.  नरेंद्र झा : भक्तमाल पाठानुशीलन एवं विवेचन, पटना ,अनुपम प्रकाशन,1978, पृष्ठ संख्या 72
4.   वही, पृष्ठ संख्या 72
5 . नाभादास : भक्तमाल, प्रियादासजी टीका कवित्त और सीतारामशरण भगवानप्रसाद रूपकला  विरचित भक्तिसुधास्वाद तिलक सहित, लखनऊ तेजकुमार बुक डिपो प्रा . 2005,  पृष्ठ संख्या 152
6   नाभादास: भक्तमाल, पृष्ठ संख्या 299
7   वही, पृष्ठ संख्या  488-489
8   वही, पृष्ठ संख्या 597
9   वही, पृष्ठ संख्या 602-603
10     वही, पृष्ठ संख्या 908  
11    वही, पृष्ट संख्या 612
12     वही, पृष्ठ संख्या 310
13     वही, पृष्ठ संख्या 438
14     वही, पृष्ठ संख्या 762
15     कैलाशचन्द्र शर्मा : भक्तमाल और हिंदी काव्य में उसकी परम्परा, मंथन प्रकाशन,रोहतक, पृष्ठ संख्या 409
16    नाभादास : भक्तमाल, पृष्ठ संख्या 479
17    वही, पृष्ठ संख्या 470
18    वही, पृष्ठ संख्या 261
19    वही, पृष्ठ संख्या 436
20    वही, पृष्ठ संख्या 478
21    वही, पृष्ठ संख्या 381
22    वही, पृष्ठ संख्या 736
23     वही, पृष्ठ संख्या 351
24     वही, पृष्ठ संख्या 585
25     वही, पृष्ठ संख्या 590
26    वही, पृष्ठ संख्या 684
27     वही, पृष्ठ संख्या 717
28    वही, पृष्ठ संख्या 721
29    वही, पृष्ठ संख्या 332
30    वही, पृष्ठ संख्या 890
31     रामविलास शर्मा : भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश, नई दिल्ली, किताबघर प्रकाशन, 2009, पृष्ठ संख्या.146
32     नाभादास : भक्तमाल, पृष्ठ संख्या 504
33     वही, पृष्ठ संख्या 484
34    कैलाशचन्द्र शर्मा : भक्तमाल और हिंदी काव्य में उसकी परम्परा, पृष्ठ संख्या 417

                             

डॉ. छाया चौबे
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, विभागाध्यक्ष हिंदी, महर्षि विश्वामित्र महाविद्यालय, बक्सर (बिहार )


 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati) चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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