- पलक दाधीच
इन दिनों एक अद्भुत यात्रा से गुजरना हुआ। यह यात्रा दक्षिण भारत की यात्रा थी। उत्तर भारत के पश्चिमी राजस्थान में जन्म और यही अपनी पढ़ाई लिखाई करते हुए अब टीचर ट्रेनिंग कोर्स भी राजस्थान के पाली जिले के एक कॉलेज से होने की वजह से मुझे अभी तक राजस्थान भी ठीक से घूमने का मौका नहीं मिला। ऐसे में फिलहाल अपने अध्ययन काल में दक्षिण भारत की यात्रा का सोच भी पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल ही नहीं नामुकिन था। लेकिन यह यात्रा संभव हो पाई एक पुस्तक की वजह से। पुस्तकें हमें घर बैठे देश दुनिया से रूबरू करवाती है। रेने डेकार्ट ने कहा है की ‘अच्छी पुस्तकों को पढ़ना द्वारा दुनिया के बेहतरीन लोगो से संवाद करने जैसा है।’
दरअसल कुछ दिनों पूर्व महाविद्यालय की तरफ से आयोजित एकदिवसीय शैक्षणिक भ्रमण पर अरावली के टॉडगढ़ अभ्यारण्य में बसे राजस्थान के मनाली तो कभी राजस्थान के कश्मीर कहे जाने वाले गोरमघाट जाना हुआ। गोरमघाट राजस्थान का एकमात्र मीटरगेज रेलवे ट्रैक और प्राकृतिक सुरम्य वादियों में कई पर्यटक वदर्शनीय स्थल है। लेकिन यह लेख पश्चिमी राजस्थान के गोरमघाट का यात्रा वृतांत नहीं, बल्कि इस भ्रमण के माध्यम से हुई मेरी दक्षिण भारत की यात्रा का वृतांत है। हुआ यूं की शैक्षणिक भ्रमण के दौरान महाविद्यालय के प्राचार्य महोदय द्वारा हमें गोरमघाट के इतिहास और क्षेत्र की जानकारी उपलब्ध करवाई जा रही थी इसी के साथ उन्होंने जीवन में यात्राओं के महत्व और कई लेखकों द्वारा लिखे गए यात्रा वृतांतों का जिक्र किया। उसके बाद मेरे मन में भी कहीं न कहीं यह उत्सुकता रही, कि कोई यात्रा वृतांत पढ़ना हैं। मेरे अनुरोध करने पर प्राचार्य द्वारा लेखक आलोक रंजन जी की पुस्तक ‘सियाहत : यात्राएँ कभी खत्म नहीं होती’ उपलब्ध करवाई गई। इसी पुस्तक के माध्यम से मुझे दक्षिण भारत का यात्रा वृतांत पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। यात्राऍं कभी खत्म नहीं होती, और होनी भी नहीं चाहिए। यात्राएं हमें जीवन के होने का अहसास, स्फूर्ति, मनोरंजन देती हैं तथा इससे ज्ञानवर्धन भी होता हैं। तो भला कोई यात्राऍं क्यों न करे। सच कहूं तो इस पुस्तक को हाथ में लेने पर सर्वप्रथम पहली बार सुना अनजाना सा नाम ‘सियाहत’ जिसको जानने की इच्छा हुई कि यह क्या है गूगल की सहायता से पता चला कि यात्रा/सफर/पर्यटन को ‘सियाहत’ कहते हैं।
जैसा
कि
अधिकांश
यात्रा
संस्मरणों
में
होता
है, आलोक
रंजन
जी
की
पुस्तक
‘सियाहत’ में भी
वो
सब
हैं, जो
पाठक
को
किसी
यात्रा
संस्मरण
में
चाहिए
होता
है।
सामान्यत:
जो
पर्यटक
यात्रा
करते
समय
रूचि, समय, सुविधा
आदि
दृष्टिकोण
के
चलते
नहीं
देख
पाते, उसे
आलोक
रंजन
जी
ने
बखूबी
जिया
तथा
उसका
विस्तार
से
वर्णन
किया
है।
यहां
झरने, पहाड़, मंदिर, गांव, खाना-पीना, इतिहास
की
परते
है, तो
सामाजिक-सांस्कृतिक
संदर्भ
की
एक
अनवरत
श्रृंखला, और
इन
सबके
साथ
हैं
एक
बिहारी
लड़के
का
दिल्ली
की
तगं
गलियों
और
भीड़भाड़
से
गुजरते
हुए
केरल
के
अनुपम
प्राकृतिक
सौंदर्य
और
आध्यात्मिक
शांति
की
गोद
में
प्रवास
की
एक
बेहतरीन
कहानी।
आध्यात्मिक
शांति
इसलिए
क्योंकि
एक
लेखक
के
लिए
विचारों
को
जो
धार
देनी
होती
हैं, वो
बिना
एकांत
के
संभव
नहीं।
मैं
जब
टीचर
ट्रेनिंग
के
लिए
कॉलेज
कैंपस
के
हॉस्टल
में
रहने
आई
तो
इस
मौके
का
लाभ
उठाने
और
प्रतियोगिता
परीक्षाओं
की
तैयारी
करने
और
अपने
ज्ञानवर्धन
हेतु
अध्ययन
का
समय
निकालने
के
लिए
हम
प्रशिक्षणार्थियों
को
प्राचार्य
द्वारा
कई
बार
प्रेरित
किया
गया।
वे
कहते
है
कि
“एकांत संतो को
नसीब
होता
है।” आज
के
इस
सोशल
मीडिया
और
भागती
दौड़ती
जिंदगी
में
एकांत
मिलना
सबसे
मुश्किल
है
और
किसी
भी
तरह
की
साधना
बिना
एकांत
के
संभव
नहीं।
कोई
कलाकार
हो
या
प्रतियोगी
परीक्षा
की
तैयारी
कर
रहा
विद्यार्थी, दोनों
को
एकांत
में
साधना
का
अभ्यास
आवश्यक
है।
हम
वर्तमान
समय
में
अत्यधिक
सामाजिक
हो
गए
हैं।
हमें
खुद
के
बारे
में
सोचने
तक
का
समय
नही।
खाली
समय
में
मोबाइल
हमारा
सहारा
हो
गया
है, जो
हमारी
साधनाओं
को
कभी
पूरी
नहीं
होने
देता।
आलोक
रंजन
जी
की
पुस्तक
में
उनका
लेखन
और
यात्राओं
का
वर्णन
इस
बात
का
प्रमाण
हैं
की
यह
सब
बिना
कठिन
साधना
के
संभव
नहीं।
जो
मुझ
जैसे
एक
पाठक
को
भी
उस
आध्यात्मिक
रोमांच
का
अनुभव
करवा
सकता
है, तो
रचनाकार
के
प्रत्यक्ष
अनुभव
की
तो
कल्पना
करना
भी
असंभव
हैं।
मात्र
132
पृष्ठ
की
इस
छोटी
सी
पुस्तक
में
लेखक
ने
23
छोटे-छोटे
अध्यायों
में
पूरे
दक्षिण
भारत
का
रेखा
चित्रण
प्रस्तुत
किया
है
कि
उनकी
हर
यात्रा
में
पाठक
उनके
साथ-साथ
चलते
है।
कहीं
भी
तारतम्यता
नहीं
छूटती।
सबसे
खास
बात
है, यात्रा
के
उन
स्थानों, झरनों, मंदिरों, नदियों, सड़कों, पाककला, पौराणिक
स्थलों, बागानों
की
सामाजिक-सांस्कृतिक
संदर्भ
के
साथ
लेखक
इस
विशाल
भारत
के
दक्षिण
और
उत्तर
के
बीच
की
खाई
को
पाटने
की
कोशिश
करते
ही
नजर
आते
है।
एक
ऐसी
खाई
जो
हमने
अपनी
अनभिज्ञता
की
वजह
से
बनाई
हैं।
धर्म
से
लेकर
भाषा, खान-पान
और
रहन-सहन
के
जीवन
कौशल
तक
हमने
जबरदस्ती
उस
खाई
को
बढ़ाया
हैं, जबकि
हमारे
लिए
एक-दुसरे
को
जानते
समझते
हुए
यह
एक
नया
रोमांच
का
अनुभव
होना
चाहिए।
आलोक
रंजन
जी
ने
अपनी
सूक्ष्म
दृष्टि, लम्बे
प्रवास, यात्रा
की
छोटी-छोटी
बातों
को
सहजता
और
सरलता
से
झरनों, नदियों, वन
तथा
अन्य
जगहों
का
अन्वेषण
किया
है।
उनके
जिज्ञासु
स्वभाव
के
कारण
उन्होंने
यात्रा
के
दौरान
हर
उन
स्थानों, जहां
सामान्य
पर्यटक
जाने
का
सोचते
भी
नहीं, का
आनंद
लेते
हुए
विस्तृत
वर्णन
किया
हैं।
इस
तरह
लेखक
द्वारा
यात्रा
के
दौरान
हुए
छोटे-छोटे
घटित
घटनाओं
को
लिखते
हुए
मनोरम
दृश्यों
के
बारे
में
बताया
हैं।
पुस्तक
की
कई
पंक्तियों
इस
यात्रा
के
रोचक
और
रोमांच
से
पूर्ण
होने
की
घोषणा
कर
देती
हैं।
‘मील
का
दसवां
पत्थर’ शीर्षक
वाले
अध्याय
के
अन्तर्गत
नदी
और
झरनों
का
वर्णन
करते
हुए
प्रकृति
की
शिक्षा
को
आधुनिक
मानव
जाति
की
गला
काट
प्रतियोगिता
भरे
जीवन
पर
कटाक्ष
ही
समझा
जा
सकता
हैं।
“शायद
पानी
के
देश
में
अपने
पीछे
वालों
को
जगह
देते
हुए
आगे
बढ़ते
रहने
की
रवायत
होगी, इसलिए
यह
रूकता
नहीं।”
“झरने
भी
मनुष्यों
की
तरह
होते
हैं, जो
छोटा
वो
अकेला, जो
बड़ा
उसके
यहां
चहल-पहल।”
इन
दोनों
ही
पंक्तियों
में
लेखक
द्वारा
प्रकृति
और
मानव
स्वभाव
की
तुलना
करते
हुए
उपमाओं
का
प्रयोग
बेहतरीन
तरीके
से
किया
गया
है।
मलयालम
कवि
ओ.एन.वी
कुरूप
की
मृत्यु
के
बाद
लोगों
द्वारा
की
जा
रही
चर्चाओं
व
लगे
पोस्टर
को
देख
लेखक
सोचते
है
कि
कवि
की
पहुंच
कितनी
हो
सकती
है।
वे
ताड़ी
की
दुकान
पर
कवि
के
बारे
में
लिखी
पंक्तियां
उद्धृत
करते
है–
“बिकॉज़
ही
वाज
ए
पोयट
ऑफ
ओर्डिनरी
मैन
विद
ओर्डिनरी
आइडियाज।” लेखक कहते
है
कि
“आप
एक
कवि
को
बिना
उसकी
भाषा
जाने
भी
सम्मान
दे
सकते
हैं।”
लेखक
द्वारा
बताया
गया
कि
“मेहमान
नवाज़ी
के
लिए
भाषा
कोई
अवरोध
नहीं
बन
सकती।
गर्मजोशी
से
भरे
हृदय
के
आगे
जुबानी
सम्बोधन
ज्यादा
मायने
नहीं
रखते।” दिवाकरनजी व
उनके
परिवार
द्वारा
की
गई
हृदय
से
मेहमान
नवाज़ी
का
वर्णन
तथा
भोजन
की
पसंद-नापसंद
को
लेकर
कि
उसका
कोई
वैज्ञानिक
कारण
नहीं
ढूंढा
जा
सकता।
आलोक
रंजन
जी
ने
अपने
इस
यात्रा
वृतांत
में
मुतुवान
के
बीच
‘तेरा’ गांव, वर्कला
कोवलम, ऐहोल, बीजापुर, गुंटूर, कन्याकुमारी
आदि
प्रसिद्ध
क्षेत्रों
का
मनोरम
दृश्य
पेश
किया
है।
लेखक
ने
सामान्य
लोगों
के
जीवन
के
साथ
वहां
के
आदिवासियों
के
जीवन
दर्शन, 22 वर्षीय
सुगु
नामक
लड़के
के
जीवन
कौशल, पेड़
पर
बनाए
घरों
में
रहना
(माड़म), हाथियों
के
झुंड
से
सामना, खाई, जोंक
से
बचना, झरनों
व
समुद्री
तटों
पर
रूक-रूक
कर
नहाना, वन
यात्रा
के
दौरान
चदंन
के
पेड़
को
लेकर
रहीम
के
दोहे
का
जिक्र
व
उन
पर
सांप
जैसे
मिथकों
का
खंडन, वहां
के
लोगों
द्वारा
अनेक
चुनौतियों
का
सामना
करते
हुए
जीवन
यापन
करने
का
विस्तृत
वर्णन
किया
हैं।
‘तेरा’ गांव के
सुगु
के
जीवन
कौशल
को
देख
लेखक
कहते
है
कि
“कहाँ
हम
किताबी
ज्ञान
में
छात्रों
को
आंकने, रोजगार
के
लिए
परीक्षा
लेने
और
परीक्षाओं
के
आधार
पर
बच्चों
का
वर्गीकरण
करने
में
लगे
रहते
है!!
असल
परीक्षा
तो
वास्तविक
जिदंगी
लेती
हैं।” लेखक की
ये
पंक्तियां
समूची
शिक्षा
व्यस्था
और
मूल्यांकन
प्रणाली
पर
एक
प्रश्न
चिन्ह
खड़ा
करती
है।
वहां
का
तोली
का
खेल, जो
कि
शिकार
के
प्रशिक्षण
के
लिए
तथा
वहां
के
परिवेश
व
पूर्वजों
द्वारा
प्राप्त
ज्ञान
कि
वो
लोग
कुछ
फल
पेड़ो
पर
रहने
देते, जिससे
किसी
अन्य
की
भूख
शांत
हो
सके।
इस
तरह
उनकी
जीवन
शैली
हमसे
अलग
जरूर
है, पर
उस
स्तर
पर
उनको
असभ्य
या
पिछड़ा
नहीं
कहा
जाना
चाहिए।
लेखक
द्वारा
पुस्तक
के
अंत
में
हम्पी
तथा
आसपास
के
ऐतिहासिक
क्षेत्र
की
यात्रा
व
60
किमी
की
साइकिल
यात्रा
का
रोमांच
का
जिक्र
एक
और
सिहरन
पैदा
करता
है, तो
उसी
दौरान
दूसरी
तरफ
तीन
जर्मन
टूरिस्ट
से
हुई
दोस्ती
वैश्विक
सीमा
रेखाओं
के
बंधनों
को
पार
करती
हुई
नजर
आती
है, जिनमें
एक
लड़की
‘आयलिस’ जिसने
लेखक
को
जर्मनी
घुमने
आने
के
लिए
निमंत्रण
देते
हुए
कहती
है
की
‘जर्मनी
आओ।
वीजा
की
प्रक्रिया
में
सभांल
लूगीं।’
इस
तरह
लेखक
द्वारा
प्रत्येक
अध्याय
में
सौंदर्य
की
सुखानुभूति, सांस्कृतिक
व
धार्मिक
महत्व, इतिहास, भय, रोमांच, जोखिम
से
भरी
यात्रा
का
अनुभव
कराया
गया
है, जिससे
पुस्तक
पढ़ते
हुए
स्वयं
के
वहां
होने
और
आनंद
की
अनुभूति
हुई।
भाषा
की
समस्या
और
उसके
मायनों
को
समझाते
हुए
लेखक
ने
अतिंम
रूप
से
यही
निष्कर्ष
दिया
कि
उत्तर
भारत
से
कई
विभिन्नताओं
के
बावजूद
भाषा
कोई
अवरोध
नहीं
बन
सकती, हृदय
के
आगे
जुबानी
संबंध
कोई
मायने
नहीं
रखते।
मेरा
यात्रा
वृत्तांत
या
पुस्तकें
पढ़ने
में
कोई
ज्यादा
रुचि
नहीं
रही
कभी।
अब
तक
स्कूली
शिक्षा
और
ग्रेजुएशन
में
पाठ्यक्रम
से
अधिक
कभी
कुछ
पढ़ने
का
अवसर
ही
नही
मिला।
लेकिन
प्राचार्य
सर
की
प्रेरणाओं
और
इस
पुस्तक
के
अध्ययन
ने
मेरी
रुचि
को
बढ़ा
दिया
है।
अब
नियमित
रूप
से
पुस्तक
पढ़ने
की
आदत
सी
बना
ली
है, जो
जिंदगी, देश–दुनिया
से
लेकर
जीवन
के
अन्य
आयामों
को
समझने
में
मदद
करें।
प्राचार्य
सर
द्वारा
ही
जानकारी
प्राप्त
हुई
की
इस
पुस्तक
के
लेखक
को
वर्ष
2017
में
साहित्य
में
देश
का
सर्वोच्च
‘नवलेखन
का
ज्ञानपीठ
पुरस्कार’ प्राप्त
हुआ
है।
प्रशिक्षणार्थी (बीएड प्रथम वर्ष)
श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथ मानव हितकारी संघ महिला शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय, राणावास (पाली), राजस्थान
palakdadhich537@gmail.com, 9887234227
इस छोटी सी बालिका ने इस उम्र में इतनी सारी बातें गहनता से बताना एक बहुत ही शानदार रूप से आगे बढ़ने का रास्ता दिखाई दे रहा है
जवाब देंहटाएंअनायास ही सुश्री पलक दाधीच ने प्रचलित शुष्क पुस्तक समीक्षा को एक आत्मीय आधार दे दिया। उन्होंने पुस्तक पढ़ी नहीं आखर-आखर के सहारे खुद यात्रा की यात्रा की है। आलोक रंजन जी की पुस्तक के उद्धृत अंश लेखिका के चयन की दृष्टि को उजागर करते हैं। नवांकुर को उदग्र आकाश छूने की शुभकामनाएँ।
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