शोध
सार : मिथकों
की
एक
समानांतर
दुनिया
है, हमारी
वास्तविक
दुनिया
को
बहुत
ठोस
अर्थों
में
प्रभावित, प्रेरित
और
परिवर्तित
करती
हुई।
उन्हें
एक
भिन्न
इकाई
नहीं
माना
जा
सकता
जो
हमारे
कार्य-व्यापारों
से
सर्वथा-सर्वदा
निरपेक्ष
है, परन्तु उनका
कुछ
मौलिक
तत्वगत
वैशिष्ट्य
उन्हें
अलग
से
परिभाषित
करने
की
अपेक्षा
करता
है। सामाजिक-सांस्कृतिक
वर्चस्व
और
मिथकों
के
बीच
एक
बहुकोणीय
और
संस्तरपरक
सम्बन्ध
बनता
है।
भाषा
और
मिथक
की
जुगलबंदी
एक
ऐसे
मनुष्य
को
उद्भूत
करती
है
जिसे
मिथकों
सी
बाहर
पहचाना
नहीं
जा
सकता।
ऐसे
में
मिथक
सतत
प्रवाहित
मूल्यों
के
रूप
में
मनुष्य
को
एक
माध्यम
में
परिवर्तित
कर
देते
हैं, जिसके
पश्चात
मनुष्य
के
जीवन
का
अपहरण
तक
मिथकों
द्वारा
कर
लिया
जाता
है।
नयी-नयी
विश्व
व्यवस्थाओं
में
मिथक
आत्मानुकूलन
करते
चले
जाते
हैं।
उन्हें
विभेद
पाना
अब
भी
एक
बहुत
आदिम
चुनौती
के
रूप
में
हमारे इर्द-गिर्द व्याप्त
है।
बीज
शब्द :
मिथक, संस्कृति, सांस्कृतिक
पूँजी, सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद, वर्चस्व,
भाषा,
ज्ञानोदय,
विश्व-व्यवस्था, संरचनावाद, सामूहिक
अवचेतन।
मूल
आलेख :
“संस्कृति उद्योग
उपभोक्ता
की
कला
नहीं
है,
बल्कि
अपने
पीड़ितों
पर
नियंत्रण
रखनेवालों
की
इच्छा
का
प्रक्षेपण
है।
यथास्थिति
का
अपने
स्थापित
रूपों
में
स्वत:
आत्म-पुनरुत्पादन
अपने
आप
में
वर्चस्व
की
अभिव्यक्ति
है।”[1]
संस्कृति
और
उसके
उत्पादन
के
सम्बन्ध
में
यह
विचार
आधुनिक
समय-समाज
के
तथ्य
के
रूप
में
तो
देखे
ही
जाने
चाहिए
पर,
इसे
आधुनिक
समय-समाज
मात्र
के
लिये
प्रासंगिक
मानकर
सीमित
संभावनाओं
में
छोड़
नहीं
देना
चाहिए।
संस्कृति
और
उसके
वाहकों
के
बीच
का
रिश्ता
अपनी
संरचना
में
हमेशा
कमोबेश
ऐसा
ही
रहा
है।
मिथक
एक
संस्कृति
का
हिस्सा
होकर
एक
अन्य
संस्कृति
का
निर्माण
करते
हैं।
वे
अपनी
उपस्थिति
के
प्रत्येक क्षण में
न
सिर्फ
संस्कृति
को
पुख्ता
कर
रहे, बल्कि वर्चस्व
की
एक
गाथा
भी
बुनते
चले
जा
रहे
हैं।
यह
वर्चस्व
शक्तियों
का
एक
समुच्चय
बनाता
है
जो
वर्चस्वशीलों
के
जीवन
को
सरलता-सुरक्षा-स्थायित्व
तथा
अधिक
सुखद
बनाने
के
लिये
प्रतिबद्ध
होता
है।
संस्कृतियाँ
लोक-जीवन
की
दैनंदिन
आदतों,
अभ्यासों,
प्रयासहीन
जीवन
शैलियों
के
रूप
में
स्वयं
को
प्रस्तुत
करती
हैं।
संस्कृति
संपोषित
जीवन-शैलियों
का
जीवन-मूल्य
बनते-बनते
जीवन-आदर्श
और
जीवन-दर्शन
में
परिणत
हो
जाती
है।
सभ्यताओं
का
पूरा
इतिहास
मिथकों
का
ही
इतिहास
रहा
है
और
इन्हीं
मिथकों
ने
संस्कृतियों
के
मार्ग
भी
प्रशस्त
किये।
साभ्यतिक
मिथकों
में
अनंत
संभावनाएँ
होती
हैं।
संस्कृतियों
की
प्रकृति
और
उसके
वाहकों
की
समुच्चयात्मक
प्रवृत्ति
मिथकों
की
व्याख्या
को
प्रभावित
करता
है
पर,
यह
सत्य
नहीं
बदलता
कि
वर्चस्ववादी
तत्व
ही
समय
के
उस
विशिष्ट
दबाव
में
भी
निर्णय
लेने
का
अधिकार
रखते
हैं।
एक सांस्कृतिक
घटक
के
रूप
में
मिथकों
को
हम
सिर्फ़
धार्मिक-आध्यात्मिक-भावनात्मक
आस्थाओं
के
निर्माता
के
रूप
में
नहीं
स्वीकार
कर
सकते, वह
ठोस
वैचारिक
धरातल
का
भी
निर्माण
करता
है
जो
समाज
के
भौतिक
निर्णयों
और
व्यवहारों
में
परिलक्षित
होता
है।
मिथक
नायक-प्रतिनायक
तक
गढ़ते
हैं।
समूह
नायकों
का
चुनाव
करता
है
तो
उसके
तत्वों
का
अनुसरण
भी
करता
है।
वह
खलनायक
से
घृणा
करता
है
तो
खलनायक
के
समानधर्मी
अपने
समकालिक
व्यक्तियों,
प्रतीकों,
विचारों
से
भी
घृणा
करता
है।
यही
वह
कारण
है
जो
वर्चस्व
को
पैदा
करता
है।
भाषा
भी
एक
अति महत्वपूर्ण सांस्कृतिक
घटक
है।
भाषा
और
मिथक
का
सम्बन्ध
प्रथमत:
सरल
पर,
तत्वत:
जटिल
होता
है।
भाषाशास्त्री
मानते
हैं
कि
दुनिया
की
प्रत्येक
भाषाओं
में
शब्दों,
व्याकरणों
का
भेद
अवश्य
है, परन्तु उनकी
आतंरिक
बनावट
में
एक
विस्मयकारी
समानता
है। उनके संरचनागत
स्वरुप
में
एकात्म
लक्षित
किया
जा
सकता
है।
मिथक
भी
अपने
सांस्कृतिक
वैशिष्ट्य
में
संस्कृति
मात्र
के
लगते
हैं
पर
उनमें
एक
अंतर्धारा
होती
है
जो
समूची
मनुष्यता
को
संबोधित
करने
में
सक्षम
है।
मिथकों
का
आतंरिक
संसार
मनुष्य
की
समूची
सभ्यताओं
के
लिये
सन्देश
बन
सकता
है।
एक
संस्कृति
का
अमूर्त
भय,
विषाद,
आकांक्षा
का
स्वप्नवत
गान
का
प्रस्तोता
कोई
मिथक
दूसरी
संस्कृति
के
लिये
भी
प्रेरणा,
आदर्श
बन
सकता
है।
जैसे
भाषा
की
विशिष्टता
उसके
बाह्य
वस्तुओं
के
कारण
होती
है,
उसी
तरह
मिथक
एक
संस्कृति
विशेष
के
अभिन्न
हिस्से
होते
हैं।
इसे
मानव
सभ्यता
के
उद्भव,
विकास,
अंत
और
वर्गीकृत
स्वरूपों
से
समझना
चाहिए।
प्रसिद्ध मानवशास्त्री क्लॉड-लेवी-स्ट्रॉस
भाषा
और
मिथक
के
संरचनावादी
विश्लेषण
को
महत्व देते हैं।
वे
अपने
बचपन
की
घटनाओं
का
जिक्र
करते
हैं,
जिन्हें
उनकी
माँ
ने
बताया
कि
वे
जब
दो
वर्ष
के
थे
और
भाषा
नहीं
जानते
थे
तब
भी
साइनबोर्डों
के
ग्राफिक्स
के
कारण
उनके
अर्थों
को
सरलता
से
समझते
थे।[2]
हम
चीन
की
भाषा
मंदारिन
की
चित्र-विधि
से
परिचित
ही
हैं।
यह
मुख्यत:
इन्द्रियजन्य
बोधों
और
उसके
प्रभावों
पर
निर्भर
करता
है।
स्ट्रॉस
मानव
मस्तिष्क
की
संरचना
में
अभेद
समरूपता
के
प्रबल
प्रस्तावक
हैं।
वे
मानते
हैं
कि
मानव
मस्तिष्क
विषयों
को
उनके
विपरीत
युग्मों
के
रूप
में
पहचानता
है।[3]
यही
संरचना
भाषा
और
मिथक
की
भी
है।
तमाम
जनजातीय
समाजों
में
नातेदारी
व्यवस्था
और
मिथकों
के
अध्ययन
से
वे
इस
निष्कर्ष
पार
आते
हैं
कि
मानव
व्यवहार
के
प्रेरक
तत्व
हर
समाज
में
लगभग
एक
जैसे
रहे
हैं।
इसीलिये
प्रलय
और
सृजन
जैसे
विषयों
पर
बनने
वाले
मिथक
तमाम
सभ्यताओं
में
रूपगत
भिन्नता
रखते
हुए
भी
वस्तुगत
समानता
के
साथ
ही
परिलक्षित
हैं।
स्त्री-पुरुष संबंधों से
सम्बंधित
मिथकों
में
भी
सभी
संभव
पहलुओं
की
प्रकृति
एक
समान
नज़र
आती
है।
कहना
उचित
होगा
कि
मिथकों
का
मनोवैज्ञानिक
तंत्र
सभ्यता
संस्कृति
की
रूपगत
विशिष्टताओं
के
नीचे
एक
है।
उनमें
कहीं
अंतर
आता
है
तो
वह
विशेष
संस्कृति
के
जैविक
अभिलक्षणों
के
वरण
के
कारण
आता
है।
क्योंकि
अब
तक
की
सम्पूर्ण
विकासक्रमात्मक
मानव-यात्रा
में
सामाजिक
सम्बन्ध
कभी
भी
साम्यवादी
नहीं
रहे
हैं।
हर
समाज
में
एक
पदानुक्रम
अनिवार्यत:
मौजूद
रहा
है।
इसीलिये
किसी
भी
संस्कृति
में
समानता
का
स्वप्न
इतना
स्थायी
नहीं
हो
सका
कि
मिथकीय
अभिव्यक्तियों
में
उसकी
कोई
छाया
देखी
जा
सके।
इसे
इस
तरह
भी
कहना
होगा
कि
चूँकि
मिथकों
ने
भी
सामाजिक
पदानुक्रम
को
भंग
कर
समानता
का
कोई
वैकल्पिक
आख्यान
नहीं
रचा,
इसीलिये
भौतिक
रूप
से
वह
परिकल्पना
मूर्त
नहीं
हो
सकी।
एक
आदर्श
समाज
में
किसी
भी
तरह
की
श्रेणीबद्धता
मनुष्यता
के
विपरीत
पड़ेगी।
परन्तु,
मिथकों
में
यह
प्रवृत्ति
मौजूद
है
और
वे
इनका
संचार-प्रसार
भी
करते
हैं
तथा
इस
प्रक्रिया
में
संस्कृति
संवाहक
की
भूमिका
में
स्वयं
को
उपस्थित
कराये
रखती
हैं।
इस
समस्या
का
एक
महत्वपूर्ण कारण वैयक्तिक
चेतना
में
इस
सांस्कृतिक
अभ्यास
का
गहरा
प्रभाव
होना
भी
है।
मार्क्स-एंगेल्स
कला
के
विषय
में
लिखते
हैं-
“कम्युनिस्ट समाज
में
चित्रकार
नहीं
होते,
अपितु
केवल
वे
लोग
होते
हैं,
जो
अन्य
कार्य-कलापों
के
साथ
चित्रकारिता
करते
हैं।”[4]
लेकिन
किसी
भी
समाज
ने
इस
आदर्श
को
अभी
पा
लेने
का
दावा
नहीं
किया
है,
कोशिश
ज़रुर
की
है।
मिथकों
का
प्रतीकीकृत
सत्य
भी
समानता
का
कोई
संकेत
नहीं
रचता,
क्योंकि
वह
समाज
में
नहीं
है
और
सामाजिकों
के
आदर्श,
स्वप्न,
उद्देश्य
में
नहीं
है।
मिथक
और
मिथकीय
विश्लेषणों
को
दो
कालखंडों
में
विभक्त
करके
समझने
की
आवश्यकता
है।
आधुनिकता,
वैज्ञानिक
स्वभाव,
औद्योगीकरण,
वैश्वीकरण
की
परिघटनाओं
से
पूरी
संस्कृति
को
केंद्र-परिधि
जैसे
रूपकों
में
नहीं
समझा
जा
सकता।
संस्कृतियाँ
अपनी
इकाई
में
स्वतंत्र
थीं।
उन
पर
किसी
वैश्विक
केन्द्रीय
निर्देशों
का
नियंत्रण
नहीं
था।
अपनी
स्वतंत्र
संरचना
में
निश्चित
ही
केद्र-परिधि
का
निर्माण
करती
थीं
परन्तु
उन्होंने
लगाम
किसी
एक
सत्ता
को
नहीं
सौंपा
था।
मिथकों
के
प्रचलित
प्रारूप
उसी
कालखण्ड
के
हैं।
जब
से
ज्ञानोदय
ने
संस्कृति
की
इस
मौलिकता
को
गहरा
प्रभावित
किया।
बुद्धि
और
तार्किकता
ने
मनुष्य
के
भीतर
उस
विवेक
को
पैदा
किया
जिसने
सृष्टि
के
हर
रहस्य
को
वैज्ञानिकता
के
माध्यम
से
समझना
शुरू
किया।
सांस्कृतिक
टकराव
पैदा
हुए
और
साथ
ही
उनका
संक्रमण
भी।
पर
सांस्कृतिक
टकरावों-संक्रमणों
से
पूर्व
प्रत्येक
संस्कृति
विशेष
का
अपना
आर्जित
मिथक
रहा
है।
हम
उन्हें
उनकी
विशिष्टता
में
देखेंगे
तभी
उनका
प्रच्छन्न
सत्य
शोध
पाएँगे।
ज्ञानोदय
से
पूर्व
प्रत्येक
संस्कृति
अपने
भूगोल,
समाज,
आर्थिकी,
धर्म
जैसे
निर्णायक
तत्वों
से
नियंत्रित-निर्धारित
थी।
मिथक
और
संस्कृति
का
जो
भी
सम्बन्ध
बनता
था
वह
एक
निश्चित-सीमित
संसार-खण्ड
के
भीतर
ही
बनता
था।
जैसा
कि
स्वाभाविक
है
कि
मानव-मात्र
होने
के
कारण
उस
कालखण्ड
के
प्रत्येक
मिथक
में
कुछ
संकेतित
सत्य
सार्वभौम
होते
थे
परन्तु
संस्कृति
की
मौलिकता-विशिष्टता
के
कारण
उनमें
कुछ
संस्कृति-विशेष
को
संबोधित
सत्य
ही
होते
थे।
वे
सत्य
किसी
सार्वभौम
मूल्य
का
इशारा
न
करके
अपने
वाहक
समाज
के
परिचय
के
रूप
में
मिथक
का
हिस्सा
बने
रहते
थे।
मिथकों
के
जीवन
के
लिये
यह
आवश्यक
भी
था
कि
संस्कृति
के
भीतर
से
ही
कुछ
ऐसी
सामग्रियों
का
चुनाव
किया
जाय
जो
भ्रम
को
और
अधिक
मजबूत
कर
सके।
जैसे
मिथकों
में
संज्ञाओं
का
प्रयोग
सदैव
ही
संस्कृति
सापेक्ष
हुआ
है
ताकि
उस
संस्कृति
के
अभ्यासिक
उन
संज्ञाओं
के
कारण
मिथकों
में
शर्तहीन
आस्था
प्रकट
कर
सकें।
इसी
तरह
मिथकों
में
भौगोलिक
विवरण
भी
बहुधा
उसी
सांस्कृतिक
क्षेत्र
का
पाया
जाता
है
जिससे
मिथक
की
सम्बद्धता
रहती
है।
सामाजिक
सम्बन्धों
का
क्रम
भी
हू-ब-हू
मिथकों
का
विषय
बन
जाता
है।
ज्ञानोदय
के
पूर्व
के
मिथकों
से
उनकी
संस्कृति
का
सम्बन्ध
द्वंदात्मक
ही
रहा
है
पर
वह
एक
सीमित
इकाई
के
रूप
में
ही
संचालित
था।
मिथकों
को
वर्चस्वशील
रचते
थे
और
मिथक
वर्चस्वशीलों
के
वर्चस्व
को
और
दृढ़
बनाते
थे।
यह
प्रक्रिया
ज्ञानोदय
के
बाद
भी
ऐसे
ही
रही
है
पर
उसमें
आये
अभूतपूर्व
परिवर्तनों
को
आगे
समझेंगे।
ज्ञानोदय
से
पूर्व
यातायात-परिवहन
की
जनसुलभ
सुविधा
न
होने
के
कारण
संस्कृतियाँ
अलग-अलग स्वतंत्रता, निरपेक्षता
में
विकसित
हुईं।
उनकी
बहुवचनात्मकता
ही
उनकी
मौलिकता
तय
करती
थी।
संस्कृति
विशेष
से
जुड़ी
मिथकीय
परिकल्पनाएँ
भले
ही
दूसरी
संस्कृति
तक
पहुँच
जाती
थीं
पर,
वे
एक
सूचना
के
तौर
पर
ही
ग्रहण
की
जाती
थीं।
उनका
संचार-प्रसार
करके
उन्हें
सामूहिक
अवचेतन
का
हिस्सा
बना
देने
की
परियोजना
का
उदय
नहीं
हुआ
था।
मिथक
एक
सांस्कृतिक
सामग्री
और
आवश्यकता
पड़ने
पर
सांस्कृतिक
पहचान
के
रूप
में
भी
उल्लेखनीय
बनते
थे।
क्योंकि
मिथक
के
गहरे
सांस्कृतिक
सन्दर्भ
भी
बनते
हैं
इसलिये
मिथक
की
सम्पूर्ण
व्याख्या
के
लिये
यह
भी
आवश्यक
होगा
कि
संस्कृति
की
गहरी
समझ
विकसित
की
जा
सके।
यह
संभव
हुआ
ज्ञानोदय
के
बाद।
आधुनिक
विश्व
व्यवस्था
ने
सांस्कृतिक
साम्राज्यवाद[5]
जैसी
अवधारणा
को
जन्म
दिया।
राजनीतिक
उपनिवेशवाद
के
अंत
के
पश्चात्
एकबारगी
राष्ट्रों
की
स्वायत्तता
का
स्वप्न
सच
होता
हुआ
नज़र
आया, पर यह स्थिति
किसी
झलक
जैसी
ही
रही।
उदारीकरण,
भूमंडलीकरण
ने
एक
बार
फिर
विश्व
को
केन्द्रीय
सत्ताओं
के
अधीन
लाकर
खड़ा
कर
दिया।
न
सिर्फ़
स्वप्नों,
आकांक्षाओं
का
वितरण
किया
गया
बल्कि
उन्हें
अनुकूलित
करने
के
लिये
तमाम
अनैतिक
माध्यमों
का
निःशंक
प्रयोग
किया
गया।
इस
तरह
से
उपनिवेशवाद
का
संकुचन
एक
नयी
नियंत्रक
पद्धति
के
आरंभ
के
रूप
में
दृष्टिगत
होता
है।
राष्ट्रों
की
सांविधानिक
भौगोलिक
सीमाओं
को
निरर्थक
सिद्ध
करने
के
लिये
एकल
संस्कृति
का
प्रसार
और
उसे
जड़
प्रदान
करने
की
प्रतिबद्धता
उस
अदृश्य
शक्ति
की
पहचान
है।
जीवन
के
प्रत्येक
क्षेत्र
में
एक
संस्कृति
के
सार्वभौमीकरण
की
प्रक्रिया
लगातर
तेज़
हो
रही
है।
इस
परियोजना
में
विज्ञान
और
तकनीक
अपूर्व
उत्प्रेरक
की
भूमिका
बनकर
शमिल
हुए।
संस्कृति
के
स्तर
पर
ऐसा
परिदृश्य
नजर
आता
है
जिसमें
कोई
राष्ट्र
अपनी
अलग
सांस्कृतिक
पहचान
के
साथ
अस्तित्व
ही
नहीं
रखता।
बस
पृथ्वी
का
एक
हिस्सा
है
जो
कोक
पी
रहा
है
और
दूसरा
हिस्सा
है
जो
कल
पीने
की
आदत
डाल
लेगा।
एक
हिस्सा
फ़ोन
की
बजती
घंटी
के
पार
‘हैलो’ बोल रहा
है
तथा
दूसरा
हिस्सा
कल
‘हैलो’ बोलना सीख
जाएगा।
कह
सकते
हैं
कि
यह
ताक़तवर,
प्रासंगिक
संस्कृति
की
अंतर्राष्ट्रीयता
है।
पर,
मिथकों
की
भूमिका
इस
पूरे
खेल
में
कहीं
छुपी-छुपी
कहीं
खुली-खुली
सहज
ही
लक्षित
की
जा
सकती
है।
स्थानीयतावादी
संस्कृतियाँ
भी
अपनी
पहचान
और
संस्कृति
के
संघर्ष
में
डटे
रहने
के
लिये
मिथकीय
आधारों
को
मजबूत
करती
हैं।
उनकी
प्रवृत्ति
भले
ही
विस्तारवादी
न
हो
पर
अपनी
पहचान
के
दावे
की
प्रक्रिया
में
ये
संस्कृतियाँ
मिथकों
की
व्याख्याओं
को
उस
समाज
के
नियंत्रक
समूहों
के
पक्ष
में
घटित
कराती
हैं।
स्थानीय
संस्कृतियों
की
आतंरिक
संरचना
में
सत्ता
का
वही
गणित
काम
कर
रहा
होता
है
जो
वैश्विक
इकाई
के
स्तर
पर
संचालित
होता
है।
स्थानीय
सांस्कृतिक
सत्ताएँ
दो
स्तरों
पर
प्रतिरोधों
का
सामना
कर
रही
होती
हैं।
प्रथमत:
इन्हें
वैश्विक
परियोजनाओं
के
साम्राज्यवादी
संस्करणों
से
स्वयं
के
अस्तित्व
को
बचाकर
अपनी
प्रासंगिकता,
महत्व और बहुधा
श्रेष्ठता
को
साबित
करना
होता
है।
दूसरा
संघर्ष
स्थल
उन
संस्कृतियों
के
वाहक
समुदायों
की
आतंरिक
सत्ता-संरचना
होता
है।
इन
समुदायों
के
हितों
के
बीच
भी
ऐसा
तनाव
पैदा
हो
सकता
है
कि
वे
परस्पर
विपरीत
खड़े
हो
जाए।
मिथक
इस
पूरी
घटना
में
कभी
भी
परिदृश्य
से
ओझल
नहीं
होता।
कभी
अंतर्धारा
बनकर,
कभी
प्रकट
उत्प्रेरक
बनकर,
कभी
स्वयं
एक
घटक
बनकर
मिथक
का
एक
अनिवार्य
हस्तक्षेप
समाज
के
गतिशील स्वरुप को
प्रभावित
करता
है।
अंतर्विरोध
ज्ञान
के
संसार
में
शाश्वत
सत्य
का
स्थान
ले
चुका
है।
उसकी
क्रियाविधि
पर
बहस
की
संभावना
निश्चित
ही
बनी
रहेगी
पर
उसकी
अनिवार्यता
की
वैज्ञानिकता
सर्वमान्य
है।
सांस्कृतिक
अंतर्विरोध
समाज
की
जैविक
समस्याओं,
गतियों,
गुणों,
वृत्तियों
और
अभिलक्षणों
के
कारण
पैदा
होता
है।
मिथक
यहाँ
भी
उन्हें
बनाने
और
निर्धारित
करने
में
प्रत्यक्ष
भूमिका
निभाता
है।
माओ
अंतर्विरोध
के
सन्दर्भ
में
कहते
हैं- “तमाम
वस्तुओं
में
निहित
अंतर्विरोधपूर्ण
पहलुओं
की
अंतर-निर्भरता
तथा
उनके
बीच
का
संघर्ष
ही
उन
वस्तुओं
के
जीवन
को
निर्धारित
करते
हैं
तथा
उनके
विकास
को
आगे
बढ़ाते
हैं।
ऐसी
कोई
वस्तु
नहीं
जिसमें
अंतर्विरोध
निहित
न
हो,
अंतर्विरोध
के
बिना
विश्व
ही
न
रहेगा।”[6]
एक
सांस्कृतिक
अवयव
के
तौर
पर
मिथक
समाज
के
और
स्वयं
संस्कृति
के
अंतर्विरोधों
को
उद्घाटित
करता
है।
मार्क्स-एंगेल्स
की
द्वंदात्मक
भौतिकता
मिथकों
पर
भी
लागू
होकर
समाज
का
एक
निर्णायक
हिस्सा
बनती
है।
क्योंकि
मिथकों
के
स्वप्नवत्
स्वरुप
के
कारण
उसका
कोई
अंतिम
आशय
नहीं
तय
किया
जा
सकता
या
उसके
अंतिम
अभिप्राय
के
प्रति
अटल
नहीं
हुआ
जा
सकता
इसलिये
वे
स्वयं
यह
अवकाश
प्रस्तुत
कराते
हैं
कि
उनकी
परिकल्पना
के
सम्मुख
कोई
प्रतिकल्पना
भी
वैकल्पिक
आस्थाओं
के
साथ
मिथकों
को
ग्रहण
करे।[7]
एक
ही
समाज
में
एक
ही
व्यक्ति
या
समूह
की
पहचान
के
कई
आधार
और
सन्दर्भ
संभव
है,
प्राय:
होते
भी
हैं।
इस
परिस्थिति
में
मिथक
के
भीतर
से
पैदा
होनी
वाली
पहचानों
के
भी
बहुविध
सन्दर्भ
बनते
हैं।
उन्हीं
बहुविध
सन्दर्भों
में
अंतर्विरोधात्मक
संघर्ष
चलता
रहता
है।
संस्कृति
की
श्रेष्ठता-निम्नता की
मान्यता
भी
मिथकों
और
उनसे
आधार
पाने
वाले
अनुष्ठानों
से
गहरे
जुड़ती
है।
तथाकथित
ऊँची-श्रेष्ठ
जातियाँ
अपनी
सांस्कृतिक
श्रेष्ठता
को
बारम्बार
दृढ़
करने
के
लिये
तमाम
सामाजिक
अनुप्रयोग
करते
हैं।
तथाकथित
निम्न
अपनी
हैसियत
को
बढ़ाने
के
लिये
और
स्थानीय
सत्ता-संरचना
में
अपना
महत्व
बढ़ाने
के
लिये
उनकी
संस्कृति
का
अनुसरण
और
नक़ल
करते
हैं।
कई
बार
ऊँची
जातियाँ
अपनी
श्रेष्ठता
परिधि
का
द्वार
अन्य
के
लिये
मजबूती
से
बंद
रखते
हैं
तो
कई
बार
सांस्कृतिक
विस्तार
के
लिये
निम्न
जातियों
को
अधिकाधिक
शामिल
करने
की
परियोजना
पर
काम
करते
हैं।
भले
ही
वे
उस
सांस्कृतिक
परिदृश्य
में
द्वितीयक
नागरिकता
के
लिये
जीने
के
लिये
विवश
रहें।
संस्कृतीकरण[8] की इस
प्रक्रिया
में
भी
मिथकों
का
एक
उपकरण
के
रूप
में
उपयोग
किया
जाता
है।
इस
बहस
को
जनसंस्कृति
बनाम
अभिजात संस्कृति के
निरंतर
शीत-संघर्ष
से
भी
समझा
जा
सकता
है।
जब
किसी
संस्कृति
को
जन-संस्कृति
कहा
जाता
है
तो
उसका
यह
आशय
नहीं
कि
वह
एक
पूर्णतया
निरपेक्ष,
स्वतंत्र
और
चुनी
हुई
संस्कृति
है।
अभिजात
वर्ग
उसके
निर्माण
में
आवश्यक
हस्तक्षेप
करता
है
और
अपने
हितों
के
अधिक-से-अधिक
अनुकूल
बनाये
रखने
के
लिये
प्रतिबद्ध
होता
है।
जन-संस्कृति
का
स्पष्ट
आशय
किसी
समाज
के
श्रमिक
समूहों
के
द्वारा
अनुसरित
संस्कृति
से
है।
व्यक्ति
की
ही
तरह
समूहों
के
भी
सत्य
और
स्वप्न
दोनों
होते
हैं।
सत्य
और
स्वप्न
दोनों
ही
ग्रहित
हो
सकते
हैं,
उनका
निर्धारण
बाह्य
भौतिक
कारकों
द्वारा
संभव
है।
परन्तु,
मनुष्य
मात्र
होने
के
कारण
मनुष्य
की
कुछ
इच्छाएँ
नैसर्गिक
होती
हैं, जैसे-
समानता,
स्वतंत्रता,
सम्मान
इत्यादि
पाने
की
आकांक्षा।
यही
कारण
है
जो
अभिजात
द्वारा
प्रस्तावित,
आरोपित
स्वप्न
और
सत्य
के
पार
आमजन
बार-बार
विद्रोह
करता
है।
नम्बूदरीपाद
लिखते
हैं-
“मानव समाज में
एक
निरंतरता
है,
सांस्कृतिक
निरंतरता।
बेशक
यह
निरंतरता
अपने
आप
में
पूर्ण
नहीं
है।
इसके
साथ-साथ
उसके
विभाजन
भी
हैं।
हर
बार
अतीत
संरक्षित
रहता
है।
लेकिन
हर
बार
अतीत
से
मुक्ति
भी
होती
है। मानव समाज
के
विकास
की
द्वंदात्मक
प्रक्रियाँ
यही
है।”[9]
अतीत
संरक्षित
रहता
है,
इसलिये
मिथक
इतनी
लम्बी
साभ्यतिक
यात्रा
करके
भी
जीर्ण
नहीं
दिखायी
देते।
लेकिन,
हर
बार
मनुष्य
की
वही
नैसर्गिक
वृत्ति,
जो
समानता,
सुरक्षा,
स्वतंत्रता
जैसे
मूल्यों
के
लिये
अग्रसर
रही
है,
अतीत
के
जीर्ण-शीर्ण
बंधनों
को
तोड़कर
हमेशा
नयी
होकर
प्रकट
हो
जाती
है।
इस
द्वंदात्मकता के भी
भौतिकवादी,
वैज्ञानिक
निहितार्थ
होते
हैं।
इसे
किसी
वायवीय
या
लोकोत्तर
कारण
के
रूप
में
नहीं
रेखांकित
किया
जा
सकता।
निष्कर्ष
: संस्कृति
को
प्राचीन
और
आधुनिक
दो
खण्डों
में
विभक्त
करने
पर
उनसे
मिथक
के
संबंधों
में
भी
कमोवेश
परिवर्तन
आयेंगें।
प्राचीन
संस्कृतियों
की
विश्व-व्यवस्था
केंद्रीकृत
न
होकर
एक
सीमा
तक
स्वतंत्र
थे।
आधुनिक
संस्कृतियों
में
विज्ञान
के
तकनीक
के
बवंडर
ने
मिथकों
में
मौजूद
पारलौकिक
को
चुनौती
तो
दी
है
पर,
उनकी
धार्मिक
संलग्नताओं
और
दबावों
ने
उन्हें
अब
भी
अधिकांशत:
प्रश्नातीत
ही
रखा
है।
नयी
विश्व-व्यवस्था
में
एक
केन्द्रीय
संस्कृति
के
उभार
ने
संस्कृति
और
मिथक
के
संबंधों
की
नयी
संरचना
को
जन्म
दिया
है।
यह
संस्कृति
पूंजीवाद की
है।
पूंजीवाद
एक
आर्थिक
प्रणाली
के
रूप
में
उत्पादन
के
साधनों
को
पूँजी
के
मालिकों
के
हाथों
में
दे
देता
है
जो
एक
ऐसी
समाज-व्यवस्था
का
निर्माण
करते
हैं
जिसमें
सामाजिक
संबंधों
का
मौद्रीकरण
करके
जीवन
को
आर्थिक
बंधनों
में
बाँध
दिया
जाता
है।
जब
पूँजी
ही
लक्ष्य
होगी
तो
उसके
निर्माण
के
लिये
संस्कृति
के
सभी
सम्भव
स्थलों
का
इस्तेमाल
किया
जायेगा।
मिथकों
का
सम्बन्ध
जन-भावनाओं
से
नाभिनालबद्ध
रहता
है।
पूँजी
अर्थ-प्राप्ति
के
लिये
उन
नाजुक
भावनाओं
को
कैश
कराती
है।
मिथकीय
चरित्रों
की
मूर्ति,
तस्वीर,
इलेक्ट्रॉनिक
रूप,
सिनेमाई
प्रयोग,
साहित्यिक
स्वरुप
इत्यादि
प्रत्यक्ष
उदाहरणों
से
इसे
पुष्ट
किया
जा
सकता
है।
पूँजीवाद
इस
भविष्य
से
निरपेक्ष
रहता
है
कि
प्रचलित
मिथकीय
स्वरूपों
में
क्या
मनुष्यता
के
पक्ष
में
है, और क्या-क्या
मानवता
के
लिये
अनिवार्यत:
त्याज्य
है।
वह
मुख्यधारा
की
मिथकीय
मान्यताओं
का
अध्ययन
करता
है
और
उन्हें
विषय
बनाता
है
जिसमें
किसी
तरह
के
प्रश्नबिंदु
के
लिये
कोई
अवकाश
नहीं
रहता। वह
स्वयं
एक
शक्ति
के
रूप
में
प्रकट
होता
है। इसका
परिणाम
यह
होता
है
कि
सांस्कृतिक
परिवेश
में
मिथकों
के
कारण
पैदा
होनेवाले
सांस्कृतिक
प्रदूषणों
के
उत्पादन
का
त्वरण
बढ़
जाता
है।
इति।
[1] Theodor W. Adorno, The Culture Industry: Selected Essay on Mass Culture, Psychology Press, V.K. 2001, p112
[2] Claude L`evi-Strauss, MYTH AND MEANING: Cracking the code of Culture, SCHOCKEN BOOKS, NEW YORK, 1995, p16
[3] अभय कुमार दुबे (सं.), समाज विज्ञान विश्वकोश, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 1845
[4] मार्क्स-एंगेल्स, साहित्य और कला, राहुल फाउंडेशन, लखनऊ, 2006 पृष्ठ 169
[6] माओ-त्से-तुंग, कला, साहित्य और संस्कृति, शिवकुमार मिश्र (सं.), वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2021 पृष्ठ 118
[7] “मिथक का तीसरा कार्य समाजशास्त्रीय है- निश्चित सामाजिक आदर्शों को आधार देना और वैध बनाना और यह वह बिंदु है जहाँ मिथक स्थान के आधार पर भिन्न होते हैं। आपके पास बहुविवाह के लिये एक मिथक हो सकता है और एकविवाह प्रथा के लिये भी एक मिथक हो सकता है। दोनों ठीक हैं। यह आपकी स्थानीयता पर निर्भर करता है। यह मिथक का समाजशास्त्रीय कार्य है जो पूरी दुनिया में ग्रहण किया गया है। यह चलन से बाहर है।” Joseph Campbell, The power of Myth, Anchor Books, New York, 1991, p36
[8] अभय कुमार दुबे (सं.), वही, 1886
[9] ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद, कला, साहित्य और संस्कृति, वाणी प्रकाशन,नयी दिल्ली, 2002, पृष्ठ 106
शोधार्थी, भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली, 110067
paragpawan578@gmail.com, 9398142610
यह कौनसी शोध प्रविधि है जिसमें निष्कर्ष में संदर्भ डाले जाते हैं और किसी और के मत को उद्धृत किया जाता है।
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