शोध सार : स्त्री पुरुष का सर्वाधिक संवेदनशील संदर्भ दांपत्य का है। परस्पर सहज और स्वाभाविक आचरण ही दांपत्य को सफल और सार्थक बनाता है, जिसका आज नितांत अभाव दिख रहा है। ऐसे समय में बिहारी सतसई मेंचित्रित दांपत्य सहज ही अवलोकनीय है, जबकि ना तो आलोचना जगत में और ना ही अकादमिक गतिविधियों में इनके दांपत्य प्रसंग का कभी जिक्र भी होता है। बिहारी देव के साथ श्रेष्ठता की पृष्ठभूमि में मिश्र बंधुओं, पद्म सिंह शर्मा एवं कृष्ण बिहारी मिश्र के लिए आलोचना के विषय रहे, तो दूसरी ओर उत्कृष्ट काव्य कला की पृष्ठभूमि में आचार्य शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी के लिए भी विषय बने रहे। आम पाठकों के लिए भी शृंगारिक पृष्ठभूमि में नायक-नायिका के संयोग-वियोग संबंधी उधारी अनुभवों के कुशल एवं मनोरंजक चितेरे ही बने रहे, तो कहीं भक्ति-नीति-शृंगार या बहुज्ञता के वस्तुपरक आलोचना द्वारा महिमामंडित किए जाते रहे। इन सबके बीच नायक-नायिका (प्रेमी-प्रेमिका) केंद्रित शृंगार के अलावा स्त्री-पुरुष के दांपत्य का समग्र एवं सूक्ष्म चित्रण आलोचकों के लिए चर्चा योग्य भी महसूस नहीं हुआ। दांपत्य जीवन में विवाह द्वारा प्रवेश से लेकर प्रौढ़ावस्था तक का चित्रण बिहारी को देखने-समझने के लिए आलोचना की चुनौतीपूर्ण जमीन उपलब्ध कराता है। बिहारी के दांपत्य को विषय बनाते हुए प्रचलित आलोचना दृष्टि को जरूरी आयाम उपलब्ध कराते हुए बिहारी के कवि व्यक्तित्व को समग्रता प्रदान करना प्रस्तुत शोध आलेख का अभीष्ट है।
बीज शब्द : स्वकिया, नबोढ़ा, मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा, प्रेषितपतिका, गौना, मुंह दिखाई, प्रवासी, स्वाधीनपतिका, प्रवत्स्यपतिका।
मूल आलेख : इक्कीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में भी साहित्य प्रेमी और आलोचक बिहारी की रचनाओं में अमर्यादित प्रेम, घोर शृंगारिकता, भोग-विलास और रसिकों के मनोरंजन का भरपूर मसाला ही देख पाते हैं। बिहारी साहित्य में उपलब्ध शृंगार के विविध पक्षों का मूल्यांकन नायक-नायिका के संदर्भ में ही किया गया है। कभी
'गागर में सागर' और 'घाव करे गंभीर' की पृष्ठभूमि में, तो कभी भक्ति-नीति-शृंगार या बहुज्ञता की वस्तुपरक आलोचना द्वारा उनकी काव्य-कला को कसौटी बनाया गया है। हिंदी साहित्य के स्थापित विद्वान आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, पद्म सिंह शर्मा, कृष्ण बिहारी मिश्र, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र, बच्चन सिंह आदि ने बिहारी के मूल्यांकन में इन्हीं कसौटियों को आधार बनाया है। आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि —
"बिहारी की कृति का जो अधिक मूल्य आंका गया है, उसे अधिकतर रचना की बारीकी या काव्यांगों के सूक्ष्म विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यत: दृष्टि रखने वाले पारखियों के पक्ष से समझना चाहिए...पर जो हृदय के अंतःस्थल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं, किसी भाव की स्वच्छ-निर्मल धारा में कुछ देर अपना मन मग्न रखना चाहते हैं, उनको संतोष बिहारी से नहीं हो सकता।"1
कहने का आशय यह है कि बिहारी के साहित्य में कला का श्रेष्ठ नमूना तो देखने को मिलता है, पर उसमें उदात्त भावनाओं का नितांत अभाव है। ऐसे विचारों के कारण बिहारी के शिल्प पक्ष पर बार-बार विचार किया गया है, पर उनका भाव पक्ष अपने वैविध्य एवं मार्मिकता की दृष्टि से हमेशा उपेक्षित ही रहा है। विचारणीय है कि शृंगार कला के इतर भी उनकी रचनाओं का एक बृहत हिस्सा आलोचकों की नजर से अछूता रह गया है। दांपत्य ऐसा ही संदर्भ है। उन्होंने शृंगार पक्ष में नायक-नायिका से इतर पति-पत्नी के दांपत्य संबंधों के विविध पक्षों को भी विषय बनाया है। विवाह से लेकर प्रौढ़ावस्था तक के अनेक प्रसंग बिहारी की दाम्पत्य-दृष्टि का दस्तावेज प्रस्तुत करते हैं, जिनका पाठ बिहारी सतसई के बिल्कुल ही नए परिप्रेक्ष्य को हमारे सामने उद्घाटित करता है। साहित्य के क्षेत्र में मूल्यांकन की कसौटी स्थापित को पुनर्स्थापित करना नहीं, बल्कि नई उद्भावनाओं की तलाश और उनकी स्थापना है। इसीलिए निर्धारित मूल्यांकन की कसौटियां आज रूढ़ हो चुकी हैं, जिनसे आगे बढ़ते हुए बिहारी सतसई में नए संदर्भों की तलाश की जाए और उस दिशा में बिहारी के कवि कर्म को एक नई पहचान दिलाई जाए। आज भी जब आलोचक समाज बिहारी के संदर्भ में परकिया, स्वकिया नायिकाभेद जैसे सतही मुद्दों में उलझ कर रह गया है, ऐसे समय में मूल्यांकन की रूढ़ कसौटियों से आगे बिहारी के समग्र पुनर्पाठ की नई कसौटी की तलाश अनिवार्य है।
बिहारी के काव्य में चित्रित समस्त स्त्रियां नायिकाएं, प्रेमिकाएं या उपपत्नियां नहीं है। नवोढ़ा, नवयौवन, मुग्धा, मध्या, प्रौढ़ा, स्वाधीनपतिका, प्रवत्स्यपतिका, प्रोषितपतिका आदि नायिकाएं वस्तुतः पत्नियां ही हैं। बिहारी के संदर्भ में आलोचकों के द्वारा प्रयुक्त नायक-नायिका शब्द प्रेमी-प्रेमिका को ही ध्वनित करता है। बिहारी के संदर्भ में ऐसा नजरिया मूल्यांकन के सतही दृष्टिकोण को ही जन्म देता है। ऐसी भ्रांतियों से मुक्त हुए बिना बिहारी का समग्र मूल्यांकन संभव नहीं है। यह ध्यान देने वाली बात है कि बिहारी के काव्य में वर्णित सभी स्त्री-पुरुष नायक-नायिका ही नहीं, पति-पत्नी भी हैं।
स्त्री-पुरुष एक प्राकृतिक अवस्थान हैं। विवाह उपरांत यह इकाई एक युग्म के रूप में दंपती कहलाती है। स्त्री-पुरुष का दांपत्य संबंध विवाह के माध्यम से ही संभव है। मनुष्य के पारिवारिक और सामाजिक जीवन की यह एक अनिवार्य कड़ी है। विवाह एक स्त्री के जीवन की बहुत बड़ी घटना होती है। एक अनजान व्यक्ति के हाथों अपनी पूरी जिंदगी सौंप देना बहुत कठिन होता है। भारतीय हिंदू परंपरा के तहत पाणिग्रहण संस्कार के समय माता-पिता पूरे रीति-रिवाज के साथ अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथ में देते हैं। यह पाणिग्रहण संस्कार इस बात का प्रतीक होता है कि हम हाथ नहीं, अपनी कन्या की पूरी जिम्मेदारी तुम्हारे हाथों में सौंप रहे हैं। पूरे समाज के समक्ष पति के हाथों के पहले स्पर्श से हर स्त्री को लज्जा, संकोच और सुख का अनुभव होता है। इसका बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन हम बिहारी के इस दोहे में देख सकते हैं—
विवाह के समय एक स्त्री हाथ नहीं मानो अपना हृदय अपने पति के हाथों में सौंप देती है। दांपत्य जीवन की सबसे सुंदर अनुभूति यही है, जहां हृदय से हम इस रिश्ते के प्रति समर्पित होते हैं और जहां हृदय का समर्पण होता है, वहीं से प्रेम की शुरुआत भी होती है।
बिहारी के समाज में बाल विवाह का प्रचलन था। उस समय विवहोपरांत विदाई नहीं होती थी, बल्कि कुछ वर्षों बाद नियत तिथि पर पति पत्नी को विदा कर अपने घर ले जाता था। इसे ही उत्तर भारत में गौना कहा जाता था (जिस का प्रचलन आज भी मिलता है)। बिहारी के दोहे में गौने का एक दृश्य अवलोकनीय है—
इस दोहे में सखियों के मुख से अपने गौने की बात सुनकर विवाहिता स्त्री सुख का अनुभव करती है। इस दोहे के अवतरण में श्री जगन्नाथदास रत्नाकर यह लिखते हैं कि
"जिस नायक से इसे प्रेम था उसी से इसका व्याह हो गया है, और अब गौने की बात हो रही है अथवा जिस नायक से इसे प्रेम है वह इसके ससुराल के समीप का रहने वाला है या और किसी कारण इसको आशा यह है कि उपपति से मिलने का अवसर ससुराल में अधिक प्राप्त होगा।"4
गौने का प्रसंग सहज ही दांपत्य से जुड़ा है, इसीलिए यहां कोई दुविधा नहीं कि यहां वर्णित स्त्री पत्नी है। जगन्नाथदास रत्नाकर द्वारा प्रस्तुत 'उपपति' की संभावना के कारण दांपत्य के सहज चित्रण में एक व्यतिरेक उत्पन्न होता है, जो विवाहिता के दांपत्य भाव के समानांतर दामपत्येतर प्रसंग में नायिका संदर्भ का संकेत करता प्रतीत होता है। ऐसी संभावनामूलक टिप्पणियां जगन्नाथ दास रत्नाकर की कल्पना मात्र प्रतीत होती हैं। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि दोहा शैली होने के कारण आलोचकों, टिप्पणीकारों, इतिहासकारों के लिए प्रसंग के बारे में विचार बनाते समय अतिघोषित शृंगारिक परिवेश का अतिप्रभाव रहा है। यह स्पष्ट स्वीकार किया जाना स्वयं में एक चुनौती है कि बिहारी के दोहे में संबोधित स्त्री और पुरुष कहां प्रेमी-प्रेमिका है और कहां पति पत्नी? अगर इन दोहों का स्थापित संदर्भों से मुक्त होकर पुनर्मूल्यांकन किया जाए तो बिहारी की रचनाओं के साथ न्याय हो पाएगा। इस दोहे के संदर्भ में यदि जगन्नाथदास रत्नाकर का यह अनुमान है कि वे पहले प्रेमी-प्रेमिका थे और अब विवाह के बाद पति-पत्नी हैं, तब भी गौने के प्रसंग में प्रेम के दांपत्यस्वरूप की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है। यदि यह भी मान लिया जाए कि यह प्रसंग 'उपपति' से जुड़ा हुआ है, तो इसे दांपत्येतर मामला ही माना जाएगा ना कि नायक-नायिका का। एक आम पाठक की नज़र में पहली बार अपने पति से मिलने की उत्कंठा एक स्त्री की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। पारिवारिक मर्यादा के तहत अपनी खुशी छुपाने की कोशिश के बावजूद उसकी आंतरिक प्रसन्नता गालों और आखों से जाहिर हो जाती है। स्थूल सौंदर्य तक सिमट चुके बिहारी के यहां गौने के प्रसंग पर आंखों और गालों के माध्यम से जो भाव प्रकट होता है, वह दांपत्य में कुछ विशेष अर्थ ध्वनित करता है।
ससुराल में आने के बाद सबसे सुंदर रिवाज होता है मुंह दिखाई। परिवार के सभी सदस्य स्त्री को मुंह दिखाई के समय उपहारस्वरूप कुछ ना कुछ देते हैं। मुंह दिखाई पर केंद्रित यह दोहा बहुत अधिक महत्व रखता है—
मुंह दिखाई के बहाने बिहारी के समाज में बहुविवाह का एक साक्ष्य इस दोहे में उपलब्ध होता है। इस दोहे में नई पत्नी या दुल्हन के प्रति परिवार वालों का अनुराग और उपहारस्वरूप कुछ देने की बात तो दृष्टिगोचर होती ही है, साथ ही सौतों का संदर्भ इस ओर इशारा करता है कि तत्कालीन समाज में बहुविवाह का सहज प्रचलन था। बिहारी के दोहे में पति के दूसरे विवाह का स्पष्ट जिक्र भी मिलता है (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या- 600)। पर बहुविवाह प्रथा के कारण परिवार में स्त्रियों की स्थिति बहुत ही दयनीय और कारुणिक थी। सौतों में परस्पर ईर्ष्या, द्वेष और प्रतिद्वंद्विता भरी हुई थी। नई दुल्हन के शारीरिक विकास को देखकर सौतों का दुखी होना (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या - 40), पति के सुघर सौत के वश होने की घटना सुनकर नई दुल्हन का उमंगित होते हुए यह सोचना कि मैं इतनी सुंदर हूं कि अपने पति को जरूर अपने वश में कर लूंगी(बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 346), सौत के पांव में पति द्वारा लगाया गया महावर देखकर पत्नी का उसांस लेना (बिहारी रत्नाकर,दोहा संख्या 507), सौत की अलसाई आंखों को देख कर पत्नी का यह दुख कि पति ने सौत के साथ रात बिताई है (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 662),पत्नी का सौतों को सगर्व दंतक्षत दिखा कर यह जाहिर करना कि पति ने उसके साथ रात बिताई है (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 665), तीज पर्व पर पति के साथ रति सुख ले चुकी पत्नी का मलिन वस्त्र देख कर सजी संवरी सौतों का मुख मलिन हो जाना (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 315) जैसे अनेक प्रसंग तत्कालीन समाज में बहुविवाह प्रथा से जन्मे असंतुष्ट नारी हृदय की व्यथा को वाणी देते हैं। इसका वृहद चित्र हम बिहारी के रचना संसार में देख सकते हैं। इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता की बहुविवाह उस युग का सच था, इसीलिए बिहारी की रचनाओं में उनका उल्लेख होना स्वाभाविक था।
इन संदर्भों के इतर दांपत्य का उदात्त और उज्जवल स्वरूप भी बिहारी साहित्य में उपलब्ध है। आर्य परंपरा के तहत नई नवेली दुल्हन का नए वस्त्र धारण कर रसोई घर में पहला भोजन बनाना बहुत महत्व रखता है। बिहारी के इस दोहे में हम इसकी झलक देख सकते हैं—
प्रसंग से काट कर देखने पर इस दोहे में सिर्फ शृंगार की फुहार का ही आनंद मिल सकता है, पर बहू के रूप में प्रथम दायित्व से जुड़ती पत्नी का संदर्भ लिया जाए, तो शृंगारिकता को पारिवारिक परिवेश में सहज ही अनोखा आयाम उपलब्ध होता है।
बिहारी ने दाम्पत्य में साहचर्यगत प्रेम को भी विषय बनाया है। पत्नी को हिंडोले पर चढ़ाता पति (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या-67), पति के साथ जलक्रीड़ा करती नवोढ़ा (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या-153), पत्नी को तिलक लगना (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या-513), पत्नी के बाल संवारता पति (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या-480) जैसे सन्दर्भ स्वस्थ दाम्पत्य जीवन के अनिवार्य
पहलू हैं।
दांपत्य के संदर्भ में काम एक अनिवार्य मूल्य है। बिहारी ने रतिक्रीड़ा का खुलकर वर्णन किया है। रत्यारंभ में पत्नी की आंखों में लज्जा का भाव (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 464), रतिश्रमित दंपति (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 643), विपरीत रति (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 137), परस्पर का रूप धारण कर रति (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 155), पति द्वारा दीपक के प्रकाश में रति की इच्छा (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या 463) जैसे कई संदर्भ बिहारी के दोहे में देखने को मिलते हैं। काम के दौरान बिहारी ने पत्नी में लज्जा, संकोच के साथ लगाव, आकर्षण व प्रेम का मनोहारी चित्र प्रस्तुत किया है। दांपत्य के संदर्भ में काम संबंधों को व्यभिचार से नहीं जोड़ा जा सकता। पति-पत्नी के बीच साहचर्य प्रेरित स्वाभाविक चेष्टाओं में
जिस प्रेमभाव का दर्शन दांपत्य की पृष्ठभूमि में किया जाना आवश्यक है, उस प्रेम को नायक-नायिका के संदर्भ में देखने की रूढ़ दृष्टि आज भी प्रचलित है।
परिवार में दांपत्य संबंध की पूर्णता संतानोत्पत्ति में ही तलाशी जाती है। गर्भधारण एक स्त्री जीवन की पूर्णता भी मानी जाती है। एक गर्भवती स्त्री गर्भधारण के दौरान किन परिस्थितियों से हो कर गुजरती है, उसको बयां करता यह दोहा द्रष्टव्य है—
बिहारी का यह दोहा बिहारी के शृंगारेतर संदर्भों का आईना प्रस्तुत करता है। बिहारी ने एक गर्भवती स्त्री की सजीव, सटीक और सार्थक दशा इस दोहे में उकेरी है। डॉ नीलिमा चौहान का रीतिकालीन रचनाकारों के संदर्भ में यह विश्वास है कि—"स्त्री गर्भाशय की उपस्थिति कविता की कल्पना से बाहर की बात है।"8 डॉ नीलिमा ने शायद बिहारी के इस दोहे पर ध्यान नहीं दिया है। एक गर्भवती स्त्री के मन और तन का इतना वस्तुपरक चित्रण बहुत कम कवियों ने किया होगा।
दांपत्य का एक सुखद और आवश्यक पहलू रोमांस होता है। कहा जाता है कि उम्र ढलने के साथ प्यार भी कहीं ना कहीं बूढ़ा हो जाता है। युवावस्था के प्रेम पर हर कवि ने अपनी कलम चलाई है, पर आज तक किसी ने प्रौढ़ावस्था के प्रेम को विषय नहीं बनाया है। प्रौढ़ दंपती के परस्पर प्रेम को प्रदर्शित करता यह दोहा बिहारी की मौलिक उद्भावना का साक्ष्य पेश करता है —
इस दोहे में गुरुजनों के समक्ष पारिवारिक मर्यादा का निर्वहन करते हुए भी पत्नी अपने पति के प्रति प्रेम प्रदर्शित करती है। पति पुत्र को प्रेम बस चूमता है और पत्नी अपने उसी पुत्र को बुलाकर, उसी जगह चूमती है, जहां पति ने चूमा था। दंपती द्वारा परस्पर प्रेम प्रदर्शन का यह तरीका भारतीय मर्यादा के अनुरूप है। ऐसे दोहे परिवार की स्वस्थ भूमि पर प्रेम की पवित्र अनुभूति को गरिमा के साथ प्रस्तुत करते हैं।
नैहर जाना हर स्त्री के लिए प्रफुल्लता का विषय है, पर पति से प्रेम करने वाली और प्रेम पाने वाली स्त्री के लिए नैहर जाना आसान नहीं है। ऐसी स्त्री का बड़ा ही मनोवैज्ञानिक चित्रण हम इस दोहे में देख सकते हैं—
दूरजोधन लौं देखिंयत तजत प्रान इहि बार।।" 10
नैहर जाने की खुशी के बीच पति से बिछड़ने का दुख एक ऐसी द्वंद्वात्मक स्थिति पैदा करता है कि वह बेचैन हो जाती है। डॉ बच्चन सिंह इसे मध्यवर्गीय स्त्री का स्वाभाविक आचरण मानते हुए लिखते हैं —
"मुग्धावस्था में उसे नैहर जाते समय प्रिय के वियोग का दुःख नहीं होता था ……किन्तु अब मध्यावस्था में उसे ससुराल के प्रति मोह हो गया है, किन्तु नैहर का ममत्व भी कैसे छूट सकता है ? इसलिए वह एक प्रकार के द्वन्द्व में पड़ गई है। एक ओर तो उसे प्रिय से बिछुड़ने का दुःख है और दूसरी ओर मायके जाने का हर्ष भी हो रहा है । इस तरह की मनोदशा प्रायः मध्यवर्ग में ही विशेष रूप से देखी जाती है।"11 बच्चन सिंह ने दांपत्य संबंधी अनुभूतियों को वर्गीय परिप्रेक्ष्य में देखा है, जो तर्कसम्मत प्रतीत नहीं होता। मानवीय अनुभूतियों को वर्गीय ढांचे में बांट कर देखना संवेदनशील आलोचना की कसौटी नहीं हो सकता। हम कह सकते है कि दांपत्य का एक सुखद और उदात्त स्वरूप भी बिहारी की रचनाओं में उपलब्ध है, जो संख्या में कम होते हुए भी सहज संवेदना से आपूरित हैं।
प्रेम दांपत्य का प्राण तत्व है। जहां प्रेम है, वही दांपत्य सफल हो सकता है। ऐसे ही दंपती के अलौकिक प्रेम को बिहारी ने इस दोहे में प्रस्तुत किया है—
इस दोहे में बिहारी ने एक ऐसे दंपती की बात की है, जिनके प्रेम ने उनके दो शरीरों को एक आत्मा में तब्दील कर दिया है। यह दोहा प्रेम की प्रगाढ़ता का उदाहरण पेश करता है। जगन्नाथ दास रत्नाकर इस दोहे के लिए दंपती शब्द का स्वयं इस्तेमाल करते हैं। बिहारी अपने समय और समाज के सतर्क और सचेतन रचनाकार हैं। बिहारी जब ऐसे दंपतियों की बात कहते हैं, तो यह मात्र उनकी कोरी कल्पना नहीं है। ऐसे दोहे पुख्ता प्रमाण हैं कि उनके समाज में भी अच्छे दंपती मौजूद थे।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को बिहारी साहित्य में प्रेम का कृत्रिम स्वरूप ही दिखाई देता है। इसीलिए वे कहते हैं कि —
"असल में बिहारी की प्रतिभा प्रेम के उसी पहलू को अधिक अनुभूतिगम्य बना सकी है, जो अनेक प्रकार की कृत्रिम (यत्नज) और सहज अंगचेष्टाओं से अभिव्यक्त होती है।"13
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के लिए पति के प्रवास गमन के समय नबोढ़ा की मनःस्थिति को व्यक्त करता यह दोहा द्रष्टव्य है। —
पति के प्रवास गमन की बात सुनकर प्रवत्स्यपतिका पत्नी (वह पत्नी जिसका पति परदेश जाने वाला हो) पारिवारिक मर्यादा के तहत कुछ बोल नहीं पाती। पति ने डबडबाई आंखों से उसे परदेश जाने का समाचार दिया था। प्रिय पति के सजल नेत्रों को याद करके अपने आसुओं और अपनी पीड़ा को छुपाने की कोशिश करती है। पति को विदा करते हुए भावावेग में गला इतना अवरुद्ध हो जाता है कि कुछ बोल भी नहीं पाती। एक पत्नी के लिए वह क्षण कितना दारुण होगा? उस स्थिति में उसके मन में उठने वाली भावनाओं का इतना मनोवैज्ञानिक चित्रण बिहारी की संवेदनशीलता का ही प्रमाण है।
प्रेम की सच्ची कसौटी विरह होता है। जिसका प्रेम जितना प्रगाढ़ होगा, उसका विरह उतना ही दारुण। विरह में सुख के समस्त साधन दुख की अनुभूति कराते हैं। बिहारी का काव्य इसका ज्वलंत उदाहरण पेश करता है। बिहारी ने विरह का एक अनिवार्य कारण प्रवास को माना है। बिहारी की अधिकांश पीड़ित नायिकाएं प्रोषितपतिका हैं, जिनके पति उनसे दूर चले गए हैं और पति के प्रवासगमन के कारण वे ससुराल में अकेली हैं। ऐसी स्त्री परिवार में नगण्य और निरर्थक महसूस होती है। जब पति साथ होता है, तभी स्त्री का सम्मान होता है। पति के बिना एक स्त्री का जीवन कितना सारहीन होता है, इसका हृदयस्पर्शी चित्रण बिहारी के दोहों में देखने को मिलता है। आचार्य शुक्ल जैसे विद्वान बिहारी के विरह वर्णन में उहात्मकता ही देखते हैं। यह बड़े खेद की बात है कि आज तक दांपत्य के ऐसे संवेदनशील संदर्भ विद्वानों और आलोचकों के चिंतन का विषय नहीं बन पाए। पति वियोग में दिन-रात आसुओं में डूबी विराहिणी पत्नी की पीड़ा को वाणी देता यह दोहा अवलोकनीय है —"स्यौं बिजुरी मनु मेह आनि इहाँ बिरहा धरे।
श्याम के मथुरा जाने पर सूर ने निसिदिन गोपियों को रोते हुए दिखाया है, तो बिहारी ने आठौ जाम (आठों पहर)। निसिदिन और आठौ जाम वस्तुतः दिन रात का ही पर्याय हैं। कहने का आशय है कि कृष्ण के वियोग में सूर की गोपियों की जो दशा हुई, वही दशा बिहारी सतसई में पतियों के वियोग में पत्नियों की भी हुई, जिसे नायिका के रूप में लिया जाता रहा है।
बिहारी का दांपत्य प्रेम एकनिष्ठ प्रेम है। बिहारी के दांपत्य में प्रेम का स्वच्छ और निर्मल प्रवाह दिखाई पड़ता है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र बिहारी को रीतिकाल के रसिक कवियों की कोटि में शामिल करते हुए कहते हैं—"प्रेम भावना-प्रधान एवं एकोन्मुख होता है, विलास रसिकता उपभोग-प्रधान एवं अनेकोन्मुखी होती है, तभी तो प्रेम में तीव्रता होती है, रसिकता में केवल तरलता। रीतिकाल के प्रतिनिधि कवि बिहारी, मतिराम, पद्माकर, रसिक ही थे, प्रेमी नहीं।"17 इस मत से पूर्णता सहमत नहीं हुआ जा सकता।
बिहारी के ऐसे कई दोहे हैं, जिनमें एकनिष्ठ प्रेम का मर्मस्पर्शी चित्र दिखाई देता है। विशेषकर दांपत्य संदर्भ में पति वियोग में प्रतिक्षण विकल पत्नी की पीड़ा को व्यक्त करता यह दोहा द्रष्टव्य है—
सोते, जागते, सपने में, प्रेम में, क्रोध में, चैन में और बेचैनी हर अनुभूति में वह अपने प्रिय पति का ही स्मरण करती है। सारी चेष्टाओं में प्रेम की व्याप्ति प्रेम को अलौकिक बनाती है। दांपत्य प्रेम का इतना सहज और स्वाभाविक चित्र हम बहुत कम कवियों में देख पाते हैं। बिहारी का रचना संसार आलोचकीय उपेक्षा का शिकार हुआ है, तभी ऐसे संदर्भों की ओर आलोचकों का ध्यान नहीं गया।
बिहारी सामंती समाज के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। माना गया है कि बिहारी का रचना संसार पतनोन्मुखी समाज की देन है। बिहारी की रचना दृष्टि पर विचार करते हुए बच्चन सिंह का मंतव्य है—
"जिस वातावरण में बिहारी का समय व्यतीत हो रहा था, वह विलासिता से ओत-प्रोत था।……वे अपने युग के प्रति पूरी तरह से ईमानदार थे। नायिकाओं के सहज सौंदर्य और भोलेपन से उनको कुछ विशेष लेना देना नहीं था वह उनके अंदाज और शोखी पर फिदा थे, जो एक विशेष प्रकार के दृष्टिकोण का द्योतक था।"19
स्पष्ट है कि बिहारी की रचना में नारी केवल मनोरंजन का साधन मात्र है। एक ऐसा समाज जो पुरुष द्वारा शासित है, उस समाज में स्त्री मात्र भोग्या या मन बहलाने की वस्तु है। अगर हम बिहारी सतसई का गहन अनुशीलन करें तो, बिहारी के प्रति ऐसी पारंपरिक दृष्टि खंडित हो जाएगी। बिहारी का गृहस्थ पुरुष स्त्री को सिर्फ भोग्या के रूप में नहीं देखता, उस से अटूट प्रेम भी करता है, उसकी चिंता भी करता है। बिहारी द्वारा पत्नी के विरह में व्याकुल, बेचैन, पीड़ित पति का दृष्टांत उनकी रचना के प्रति एक वैज्ञानिक नजरिए की मांग रखता है—
प्रवासी पति अपनी पत्नी की याद में अत्यंत दुख और वेदना का अनुभव करता है। यह सोच कर कि उसकी विरहिनी पत्नी अगर उसे दुखी और कातर सुनेगी तो, उस पर क्या बीतेगी? वह अपने दुखों को प्रकट नहीं करता, बल्कि उसे यह संदेश भेजता है कि उसके (पत्नी के) ध्यान में वह ऐसा मग्न रहता है कि दुख का एहसास ही नहीं होता। बिहारी ने सिर्फ पत्नी को ही नहीं, बल्कि पति को भी विरहाकुल दिखाया है, जो बिहारी के प्रति एक नए नजरिए की मांग करता है।
बिहारी का दांपत्य प्रेम विरह की स्थिति में असह्य वेदना का कारण बनता है। प्रवास की पीड़ा पत्नी को ही नहीं, पति को भी बेचैन करती है। यह दोहा विचारणीय है—
कबूतर के जोड़े को देख कर प्रवासी पति अत्यंत पीड़ा का अनुभव करता है। उसे यह महसूस होता है कि रोजी-रोटी की तलाश में वह अपने परिवार से दूर कितना अकेला और असहाय हो गया है। आज उसे यह लगता है कि उससे भाग्यशाली तो यह पक्षी है, जो अपनी जोड़ी के साथ प्रेम के क्षण व्यतीत कर रहा है और दूसरी तरफ वह अपनी पत्नी की याद में वेदना का अनुभव कर रहा है। एक युवक की आर्थिक मजबूरी ने उसे किस तरह अपनों से दूर प्रवासी बनने को मजबूर कर दिया है, इसकी मर्मस्पर्शी व्यंजना इस दोहे को कालजयी बनाती है। उत्तर भारत की ऐतिहासिक परंपरा का एक बहुत बड़ा साक्ष्य है अर्थाभाव के कारण नवयुवकों का रोजगार की तलाश में विदेशगमन या प्रवास। आज भी न जाने कितने ग्रामीण नवयुवक अपने ही देश के नगरों और महानगरों में प्रवासी होने का दंश झेल रहे हैं। कोरोना काल में लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों की समस्याओं की ओर हम सबका ध्यान आकर्षित किया। आज से लगभग 360 वर्ष पहले ही जिस बिहारी ने प्रवासी जीवन की विडंबाओं से हमारा परिचय करवा दिया था, उनका साहित्य आजतक आलोचकों की नजर से ओझल रहा है।
किए न को अंसुवा - सहित सुवा ति बोल सुनाई।।"22
ऐसे दोहों के प्रति कदाचित संवेदनशील नजरिए की आवश्यकता है। आलोचकीय चश्मों से किसी रचनाकर का मूल्यांकन सतही और एकांगी नजरिए को पोषित करता है। रचनाकारों के प्रति तटस्थ और अन्वेषी नजरिया न केवल रचना प्रति, बल्कि समय और समाज के दायित्व के निर्वहन की जवाबदेही को भी तय करता है। यह आज के आलोचकों के लिए एक चुनौती है कि वे रचना के साथ न्याय करे।
बिहारी ने जहां भी मुक्त हो कर मानवीय संवेदना की ईमानदार प्रस्तुति की है, वहां एक सजग और सचेतन रचनाकार के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज की है। प्रवासी पति घर लौटने वाले हैं, यह समाचार सुनकर पत्नी की खुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। पिय आगमन का हर्ष बयां करता यह दोहा अवलोकनीय है—
"कहिं पठई जिय-भावती पिय आवन की बात। फूली आँगन मैं फिरै आँग न आँग समात ||"23
एक पत्नी की स्वाभाविक अनुभूति का सहज प्रकाशन इस दोहे में हुआ है। डॉ नगेंद्र रीतिकाल से संदर्भ में कहते है कि "साँचा चाहे जैसा भी रहा हो, इसमें ढली शृंगारिकता ही है। इसकी अभिव्यक्ति में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया गया है । इस काल की कविता से विवेकहीन एवं विलासमयी वासना की श्रृष्टि होने लगी।"24
शृंगारिकता के जिस लौकिक पक्ष में विवेकहीन एवं विलासमयी वासना का ही दर्शन नगेंद्र जैसे आलोचकों ने किया, उस शृंगारिकता का स्वरूप ही बदल सकता है, यदि 'सांचा' ध्यान में लाया जाए तो। नायिका के सौंदर्य एवं नायक-नायिका के परस्पर मिलन के अवसरों के लिए नगेंद्र का यह विचार बहुत हद तक स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन बिहारी द्वारा वर्णित दांपत्य के विभिन्न संदर्भों को अध्ययन का विषय बनाया जाए, तो रीतिकालीन शृंगारिकता का पर्याप्त संयमित और मर्यादित पहलू उजागर किया जा सकता है।
निष्कर्ष : निःसंदेह हम कह सकते हैं कि बिहारी का दांपत्य वर्णन सहज, सजीव और सार्थक है। भोग-विलासी युग में प्रेम से सिंचित दांपत्य बिहारी के मूल्यांकन की कसौटीयों एक नई कसौटी साबित होती है।पाणिग्रहण से लेकर प्रौढ़ावस्था तक दांपत्य के बहुरंगी चित्र बिहारी के काव्य में उपलब्ध हैं। बिहारी का दांपत्य संदर्भ स्त्री-पुरुष संबंधों के अपेक्षित स्वरूप को निर्मित करता है। बिहारी का पति पुरुष कहीं भी शोषण, दोहन या अत्याचार करता दिखाई नहीं देता। न हीं बिहारी की पत्नियां घरेलू हिंसा की शिकार ही दिखती हैं। बिहारी के काव्य में स्वाधीनपतिका नारी का जिक्र मिलता है। स्वाधीन पतिका नारी वह नारी है, जो अपने ऊपर किसी का नियंत्रण बर्दाश्त नहीं करती अथवा जिसका पति उसके वश में हो (बिहारी रत्नाकर, दोहा संख्या-480)। बिहारी की स्वाधीन पतिका नारी आज की स्वतंत्र नारी का ही पर्याय है। बिहारी के पति पुरुष स्त्री को प्रेम करने वाले प्रेमी पुरुष हैं। समकालीन स्त्री विमर्श के हवाले से प्रेम का चूक जाना दांपत्य संबंध के टूटने का एक अहम कारण माना गया है, ऐसी परिस्थिति में एक दंपति को प्रेमी युगल के रूप में प्रस्तुत करना बिहारी की रचना दृष्टि की विशेषता है। इसे युगीन प्रभाव के रूप में अगर देखा जाए तो भी, यह एक अपेक्षित अनिवार्यता तो जरूर है।
संदर्भ :
1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, तृतीय संस्करण -2004, पृष्ठ संख्या-171
2. श्री जगन्नाथदास रत्नाकर : बिहारी रत्नाकर, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण 2004,
पृष्ठ संख्या -131
3. वही, पृष्ठ संख्या -82
4. वही,
पृष्ठ संख्या-82
5. वही, पृष्ठ संख्या -144
6. वही, पृष्ठ संख्या -221
7. वही, पृष्ठ संख्या -310
8. संपादक मुकेश गर्ग : स्त्री की नजर में रीतिकाल, “रीतिकाल में स्त्रियों की यौनिकता का सवाल उर्फ देह अपनी बाकी उनका” नीलिमा चौहान, वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2020, पृष्ठ संख्या-48
9. बिहारी रत्नाकर, पृष्ठ संख्या -279
10. वही, पृष्ठ संख्या -31
11. बच्चन सिंह : बिहारी का नया मूल्यांकन, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय संस्करण 1999, पृष्ठ संख्या-117
12. बिहारी रत्नाकर, पृष्ठ संख्या-207
13. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी : हिंदी साहित्य उद्भव और विकास, राजकमल प्रकाशन, चौथी आवृत्ति 2000, पृष्ठ-179
14. बिहारी रत्नाकर, पृष्ठ संख्या-190
15. वही, पृष्ठ संख्या-206
16. आचार्य रामचंद्र शुक्ल :भ्रमर गीत सार, विद्या प्रकाश प्रेस, चतुर्थ संस्करण, पृष्ठ संख्या-140
17. आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र : हिंदी साहित्य का अतीत, भाग 2, वाणी प्रकाशन, संस्करण 2012,
पृष्ठ संख्या-58
18. बिहारी रत्नाकर, पृष्ठ संख्या-118
19. बच्चन सिंह : बिहारी का नया मूल्यांकन, लोकभारती प्रकाशन, द्वितीय लोकभारती संस्करण 1999,
पृष्ठ-11
20. बिहारी रत्नाकर, पृष्ठ संख्या-270
21. वही, पृष्ठ संख्या-279
22. वही, पृष्ठ संख्या-246
23. वही, पृष्ठ संख्या-129
24. https://www.hindigrema.com/2020/06/history-of-hindi-literature-reetikal
.html?m=1
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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