- प्रोमिला
शोध
सार
: इतिहास और इतिहास
चरित्रों
को
हम
भारतीय
संस्कृति
की
सजीव
विरासत
के
रूप
में
देखते
हैं।
कबीर
का
वृत्त
इस
विरासत
में
अत्यंत प्रभावशाली, ऊर्जस्वित चेतना
सम्पन्न
और
ऐसा
अथाह
प्रेरणा
स्रोत है, जिसे वर्तमान
के
दुर्दान्त
एवं
अस्थायी
सामाजिक, राष्ट्रीय परिदृश्य
में
तरह-तरह
से
याद
करना, विश्लेषित करना
आज
की
आवश्यकता
है।
कबीर
तमाम
प्रतिगामी
शक्तियों
के
विरुद्ध
एक
प्रतिपक्ष
का
प्रतीक
हैं।
यहाँ
न
तो
भोगने
वाले
व्यक्ति
और
रचने
वाली
मनीषा
में
पार्थक्य
है,
न
श्रम
और
कवित्व
में।
जिस
प्रकार
समाज
में
सबके
अपने-अपने
राम
हैं, उसी तरह
साहित्य
जगत
में
सबके
अपने-अपने
कबीर
हैं,
किंतु
आलोचकों, उपन्यासकारों, कवियों के
कबीर
से
इतर
नाटककारों
के
कबीर
कितने
और
क्योंकर
विशिष्ट
हैं, यह परख
महत्त्वपूर्ण
है।
बीज
शब्द : नाटक, समालोचना, मानवीयता, पारसी थियेटर, सत्ता, धर्मांधता, उत्तराधिकार, श्रमशीलता, विद्रोह, सत्य, संघर्ष, वर्तमान, प्रगतिशील चेतना, परिवार।
मूल
आलेख : ‘कबीर क्या
किसी
के
बाप
की
जायदाद
हैं? कबीर तो
हम
रचनाकारों
के
पूर्वज
हैं, बाप-दादा
हैं।
हम
उन्हीं
के
वंशज
हैं, पक्षधर हैं।’1 स्वयं को
आधुनिक
युग
का
कबीर
मानने
वाले
हरिशंकर
परसाई
द्वारा
श्रीकांत
वर्मा
को
लिखे
पत्र
में
की
गई
इस
टिप्पणी
का
अर्थ
केवल
इतना
भर
नहीं
है
कि
कालजयी
कबीर
अपने
आविर्भाव
के
लगभग
छह
सौ
वर्ष
पश्चात
भी
विश्व
पटल
पर
प्रासंगिक
बने
हुए
हैं।
यह
भी
है
कि
उनका
विशिष्ट
सत्य
रचनाकारों
के
उत्तराधिकार
का
हिस्सा
है।
रचनाकार
अपनी
असाधारण
रोशनी
में
पहचान
पाते
हैं।
उन्हें
ग्रहण
करने
के
लिए
वे
कई
बार
अपने
ढंग
से, संवेदना के
अपने
मुहावरे
में
और
अनुभव
तथा
विचार
के
अपने
विन्यास
में
कबीर
को
फिर
से
रचते
हैं।
इस
अर्थ
में
कबीर
बार-बार
पुनर्जीवित
होते
हैं।
यद्यपि
यह
पुनर्जीवन
सन 1964 में
मनाई
गई
शेक्सपियर
के
जन्म
की
चौथी
शताब्दी
के
उपलक्ष्य
में
उनकी
किसी
पंक्ति, उक्ति, बिंब या
लय
का
उपयोग
करते
हुए
अंग्रेजी
के
सौ
कवियों
द्वारा
रचित
कविताओं
की
पुस्तकाकार
परिणिति
जैसा
क्रमबद्ध
नहीं
रहा
है।
बावजूद
इस
तथ्य
के
कि
कबीर
पर
हजारीप्रसाद
द्विवेदी
से
लेकर
डॉ.
धर्मवीर, पुरुषोत्तम अग्रवाल
तक
विपुल
और
विविध
आलोचनात्मक
साहित्य
रचा
जा चुका है।
गोविंद
त्रिगुणायत
ने
स्थूल
रूप
से
कबीर
संबंधी
लेखन
को
चार
भागों
में
बांटते
हुए
सबसे
पहले
उन
प्राचीन
ग्रंथों
को
रखा
है, जिनमें कबीर
संबंधी
दो-एक
अवतरण
मात्र
मिलते
हैं।
दूसरे
वे
इतिहास
ग्रंथ
हैं, जहाँ कबीर
की
प्रमुख
विशेषताएँ
निर्देशित
हैं
किंतु
समालोचना
से
परे
एकपक्षीय
मत
अधिक
प्रकट
होता
है।
तीसरे, भारतीय धर्म
साधना
की
चर्चा
के
मध्य
कबीर
पर
संक्षिप्त
विचार
करने
वाले
ग्रंथ
शामिल
हैं
(जैसे - मेडिवल मिस्टीसिज्म
- क्षितिमोहन) और
चौथे
कबीर
के
व्यक्तित्व, विचारों तथा
भावों
पर
भूमिका
रूप
में
या
स्वतंत्र
ग्रंथ
रूप
में
विवेचन
प्रस्तुत
करने
वाले
हिंदी
(जैसे-कबीर वचनावली-अयोध्या
सिंह
उपाध्याय ‘हरिऔध’, कबीर ग्रंथावली-बाबू
श्यामसुन्दर
दास), अंग्रेजी (कबीर
एंड
हिज
फोलोअर्स-एफ.
ई.
केई)
तथा
उर्दू
(कबीर पंथ - शिवव्रत
लाल)
भाषाओं
के
ग्रंथ
हैं।2 यह
कड़वा
सत्य
है
कि
लोकचित्त
में
रचे-बसे
कबीर
हिन्दी
लेखकों
की
लेखनी
में
अपने
लिए
कोई
बड़ी
उल्लेखनीय
उपस्थिति
दर्ज
नहीं
करा
सके
हैं।
अन्यथा
अशोक
वाजपेयी
कभी
भी
प्रश्नात्मक
ढंग
से
यह
नहीं
कहते
कि ‘हम अल्पप्राण
कवियों
को कबीर की
परवाह
क्यों
नहीं
है? उत्तर कबीर
आदि
जैसी
दर्पोक्तियाँ
छोड़
भी
दें, तो भी
यह
सच
है
कि हम पिछले लगभग
पचास
वर्षों
में
कबीर
तत्त्व
की
चर्चा
करते
रहे
हैं।
मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन, त्रिलोचन में
ऐसे तत्त्व की
निरन्तरता
का
ज़िक्र
करते
रहे
हैं।
फिर
भी
हमारी
कविता
में, कबीर की
षट्शताब्दी
के
अवसर
पर
उसकी
कोई
गूंज
नहीं
है।’3 विजयदेवनारायण
साही
रचित ‘प्रार्थना : गुरु
कबीरदास
के
लिए’ त्रिलोचन की ‘काशी का
जुलहा’ या केदारनाथ
सिंह
रचित ‘उत्तर कबीर’ जैसे दो-चार
उदाहरणों
के
अलावा
कविता
में
कबीर
की
अनुपस्थिति
संबंधी
उपर्युक्त
पहचान
यहाँ नया गवाक्ष खोलती है। जयन्ती-महोत्सवों, शताब्दी-समारोहों
की
धूम
के
बीच
भी
साहित्य
की
काया
में
अपने
पूर्वजों
की
स्मृति
के
प्रति
रचनाकारों
की
बेध्यानी
का
संकेत
देती
है।
पर
साथ
ही
अन्य
विधाओं
में
कबीर
कितने
और
किन-किन
रूपों
में
दर्ज
हैं, इस पड़ताल
का
रास्ता
भी
तैयार
करती
है।
प्रेमचंद
ने
कहा
था, ‘भावी उपन्यास
जीवन
चरित
होगा, चाहे किसी
बड़े
आदमी
का
या
छोटे
आदमी
का।’ निःसंदेह उनका
आशय
यथार्थ
चरित्र
से
था
न
कि
जीवनीपरक
उपन्यास
से।
किंतु
फिर
भी
महापुरुष
के
तथ्यपरक
चरित्र
की
अपेक्षा
लोग
उसके
चरित्रात्मक
उपन्यास
के
प्रति
सहज
आकर्षित
होते
हैं।
लोक
में
मान्य
और
परिचित
को
नयी
दृष्टि
से
देखकर
लेखक
द्वारा
उसे विपर्यस्त धांधलीपूर्ण, निराकल्पनापूर्ण
से
परे
विलक्षण
तथा
जीवन्त
बना
देने
की
अपेक्षा
रखते
हैं।
हालांकि जटिल विन्यास
के
कारण
इसे
रचना
भी
सरल
नहीं
होता। सन 1970 में कबीर
पर
छोटे
आकार
का
संभवतः
पहला
उपन्यास ‘लोई का
ताना’ लिखने वाले
रांगेय
राघव
कहते
हैं, ‘प्रस्तुत ग्रंथ
में
कबीर
की
झांकी
है।
वैसे
कबीर
के
जीवन-संबंधी
तथ्य
अधिक
नहीं
मिलते।
मैं
उनके
साहित्य
को
पढ़कर
जिन
निष्कर्षों
पर
पहुँचा
हूँ,
उन्हीं
को
मैंने
उनके
जीवन
का
आधार
बनाया
है।’ (लोई का
ताना, भूमिका, पृ.5) ‘देख कबीरा
रोया’ (1996) की प्रस्तावना
में
भगवतीशऱण
मिश्र
का
स्वीकार
है, ‘कबीर के
व्यक्तित्व
और
कृतित्व
को
लेकर
एक
औपन्यासिक
कृति
प्रस्तुत
करना
बहुत
आसान
नहीं
हैं।’ (देख कबीरा
रोया, पृ.5) कैलाश नारायण
तिवारी ‘विरले दोस्त
कबीर
के’ (2015) में खुलासा
करते
हैं, ‘कबीर के
जीवन-संघर्ष
के
बारे
में
इतिहास
तो
चुप
दिखायी
देता
ही
है, तत्कालीन साहित्य
में
भी
इस
विषय
पर
कोई
स्पष्ट
राय
नहीं
दिखायी
देती।’ (विरले दोस्त
कबीर
के, पृ.4) परंतु इतना
होने
पर
भी
मिथिलेश
कुमारी
मिश्र
का ‘कबीर’ और हाल
में
प्रकाशित
डॉ.
देव
प्रकाश
मिश्र
का ‘काशी का
कबीर’ जैसे अनेक
छोटे-बड़े
उपन्यास
महात्मा
कबीर
को
अपने-अपने
रंग
में
शब्दांकित
करते
हैं।
कुछ
सीमाओं
के
बावजूद
ये
सभी
कबीर
के
व्यक्तित्व
को
औपन्यासिक
ढांचे
में
नये
बोध, नये परिवेश
में
गढ़ते
हैं।
कबीर
के
जीवन
का
वृत
मात्र
नहीं
दोहराते,
बल्कि
जीवन
संघर्ष
और
सौंदर्य
की
व्याख्या
करते
हैं।
काल
और
कालातीतता
को
एक
अलग
पटल
पर
रचते
हैं।
तथापि
इस
संदर्भ
में
उल्लेख्य
है
कि
कबीर
के
व्यक्तित्व
के
प्रति
नाटककार
सर्वाधिक
आकर्षित
प्रतीत
होते
हैं और संभवतः
इसका
कारण
कबीरदास
के
व्यक्तित्व
में
रचा-बसा
आमजन
को
प्रभावित
करने
वाला
सौंदर्य
और
नाटकीय
तत्त्व
बनता
है।
नरेन्द्र
मोहन
इसे
रेखांकित
करते
हैं, ‘कबीर की
जिंदगी, वाणी, उनके समय
का
समाज, धर्म और
राजनीतिक
परिवेश
मेरे
सामने
नाटकीय
गतियों
में
ढलने
लगे
तो
किसी
विधा
को
अपनाने
न
अपनाने
का
प्रश्न
कहाँ
उठता
है।’4
नाटक
अपनी
प्रकृति
में
सीधा
जनसंवाद
है
और
कबीर
जनसंस्कृति
के
जनसंवादी
चितेरे, नाटककारों ने
बार-बार
इन
दोनों
को
अपनी
लेखनी
से
एकमेक
किया
है। हिन्दी रंगमंच
से
पहले
काठियाड़
की ‘सूरविजय नाटक
समाज’ व्यावसायिक मंडली
के
वैतनिक
नाटककार
किशनचंद ‘जेबा’ ‘कबीर’ नामक नाटक
में
चमत्कारिक
घटनाओं
के
समावेश
के
साथ
संत
कबीरदास
के
जीवन
के
आधार
पर
साम्प्रदायिक
एकता
का
विषय
उठाते
हैं। ‘महात्मा कबीर’ रचकर श्रीकृष्ण ‘हसरत’ जीवन, भक्ति और
दर्शन
संबंधी
उनके
मन्तव्यों
का
प्रस्तुतीकरण
करते
हैं।
कबीर-युग
में
जब
अंग्रेजों
और
गांधी
का
नामोनिशान
तक
न
था ‘हसरत’ कौतुक एवं
राष्ट्रीय
भावना
के
उद्बोधन
के
लिए
नाटक
में
हिन्दू-मुस्लिम
एकता
पर
भाषण
देते
समय
गांधी
जी
और
मौलाना
शौकत
अली
को
हाथ
मिलाते
दिखाते
हैं।
कबीर
के
ताली
बजाने
पर
महारानी
विक्टोरिया
और
जार्ज
पंचम
उपस्थित
हो
जाते
हैं।
किंतु
कुल
मिलाकर
पारसी
थियेटर
की
परिधि
वाला
कबीर
चमत्कारों
के
जरिये
फंतासी
में
जकड़ा
रह
जाता
है।
कबीरदास
की
लोक
चेतना
से
अंकुरित
उच्चतर
मानव-मूल्य
दर्ज
नहीं
हो
पाते।
नाटक
को ‘सिद्धांतों का
कर्म
में
अनुवाद’ (सुजाता नाटक
के
प्राक्कथन
से)
मानने
वाले
गोविन्द
वल्लभ
पंत सन1975 में छात्रोपयोगी
नाटक ‘काशी का
जुलाहा’ रचते हैं।
इतिहास, मिथक और
कल्पना
के
संयोग
से
रचे-बसे
तीन
अंकों
के
इस
नाटक
में
कबीर
की
जीवन-साधना
और
उस
साधना
में
आने
वाले
व्यतिक्रमों
का
चित्र
आकार
लेता
है,
पर
साथ
ही
समसामयिकता
का
आग्रह
नाटक
को
कमजोर
कर
देता
है।
न
केवल
ऐतिहासिक
तथ्यों
की
उपेक्षा
होती
है,
बल्कि
कबीर
का
चरित्र
भी
हास्यास्पद
बन
जाता
है।
साधु
राम
शास्त्री
मध्ययुगीन
भारतीय
समाज
में
व्यापत
धर्मांधता, सामयिक विसंगतियों
पर
टिकी
व्यवस्था
की
अमानवीयताओं
से
टकराने
वाले
कबीर
के
संघर्षपरक
व्यक्तित्व
तथा
विचारों
को ‘संत कबीर’ में आकार
देते
हैं।
खुलासा
करते
हैं
कि ‘हिन्दुओं और
मुसलमानों
को
एक-दूसरे
के
निकट
लाना
ही
इस
पुस्तक
का
मुख्य
प्रयोजन
है।’5 इस ऐतिहासिक
जीवनी
रूपी
नाटक
में
कबीर
विद्रोही
के
स्थान
पर
शांत, गंभीर, सजग समाज
चिंतक, सुधारक तथा
सांप्रदायिक
एक्य
के
विधात्री
बनते
हैं।
कबीर
कहते
हैं, ‘संसार के
सर्वसाधारण
लोग
आपस
में
लड़ना
नहीं
चाहते,
किंतु
यह
धर्म
के
ठेकेदार
भोले-भाले
लोगों
को
लड़ा
देते
हैं।
जब
तक
जनता
इन
मुल्लाओं
और
पंडितों
के
जाल
से
मुक्त
न
होगी
तब
तक
उसे
सुख
और
शांति
की
सांस
लेना
नसीब
न
होगा।’6 कबीरदास
की
यह
समस्या
न
हिन्दू
की
समस्या
है, न मुसलमान
की, यह मनुष्य
मात्र
की
वह
समस्या
है
जो
हमारे
समय
में
कबीर-काल
से
अधिक
भयावह
और विकराल है।
बीसवीं
सदी
के
नौंवे
दशक
में
तीन
नाटककार-मणि
मधुकर, भीष्म साहनी
और
नरेन्द्र
मोहन
महात्मा
कबीर
के
व्यक्तित्व
और
कार्यों
को
उपजीव्य
बना
उल्लेखनीय
नाटक
रचते
हैं।
इकतारे
की
आँख
(1980) में
मणि
मधुकर
कबीर
के
सर्वविदित
विद्रोही
व्यक्तित्व
के
उद्घाटन
के
साथ
उसे
एक
हृदयालु
सामाजिक
प्राणी
के
रूप
में
उभारते
हैं।
दो
भागों
में
विभाजित
कृति
के
पूर्वार्ध
में
कबीर
पर
नाटक
खेलने
की
चर्चा
के
क्रम
में
समकालीन
समाज, राजनीति और
जीवन
के
विभिन्न
पक्षों
में
व्यापत
बुराइयों
का
प्रकटीकरण
होता
है।
आडम्बरों, पाखण्डों, अंधविश्वासों की
दलदल
में
फँसी
काशी
नगरी
प्रत्यक्ष
होती
है।
कबीर
रैदास
के
साथ
सामाजिक
बुराइयों, अमानवीय परिस्थितियों
का
विरोध
करते
हैं,
पर
यह
गैर
सामाजिक
शक्तियों
को
रास
नहीं
आता
है।
वे
कबीर
को
समाप्त
करने
पर
तुल
जाती
हैं।
नाटक
के
उत्तरार्ध
में
लोई
कबीर
की
निकटता, कबीर का
साहूकार
के
साथ
भाग
गई
अपनी
पहली
पत्नी
धनिया
के
प्रति
आक्रोश, कबीर के
गुण्डा
बने
पुत्र
कमाल
का
हृदय
परिवर्तन
और
कबीर
का
तृप्ति
के
साथ
मगहर
में
प्राण
त्यागना
दर्ज
होता
है। ‘नाटक मुख्यतः
कबीर
को
आधार
बनाकर
चलता
है
तथा
कबीर
के
माध्यम
से
मानव
त्रासदी
और
आधुनिक
भावबोध
को
प्रस्तुत
करता
है।’7 असल में
सच्चा
नाटककार
जीवन
की
सार्थकता
और
सच
के
अन्वेषण, पहचान हेतु
विभिन्न
स्थितियों, परिस्थितियों का
सूक्ष्म
विश्लेषण
करता
है।
उसके
नियामक
सत्तात्मक
संबंधों, ऐतिहासिक शक्तियों
के
हस्तक्षेप
से
नया
विचार
गढ़ता
है।
नाटककार
की
प्रतिबद्धता
जनता
के
हृदय, जीवन के
आदर्श
और
यथार्थ
से
होती
है।
कुछ
किवदंतियों, कुछ कल्पना
के
आधार
पर
भीष्म
साहनी ‘कबिरा
खड़ा
बजार में (1981) कबीरदास के
अपने
देखे
तथा
भोगे
हुए
जीवन
से
गठित
ज्ञानात्मक
संवेदन
से
उनका
व्यक्तित्व
रूपायित
और
प्राणान्वित
करते
हैं।
वे
स्पष्ट
कहते
हैं
कि ‘सब संत
भक्तों
के
समान
अपने
परिवेश
को
जाना, परखा और
उसमें
व्याप्त
विसंगतियों
को
मिटाने
के
लिए
संघर्ष
भी
किया
है।
इसलिए
कबीर
की
सही
पहचान
उनके
संघर्षों
तथा
संघर्षों
से
उत्पन्न
विचारों
में
है, जो मध्यकालीन
होकर
भी
हमारे
वर्तमान
से
जुड़े
हुए
हैं।’8 कर्म से
जुलाहे
कबीर
की
आध्यात्मिक
चेतना
मानव
तथा
सामाजिक
पक्ष
से
इतर
नहीं
थी।
कबीर के विचार
को
भीष्म
साहनी
धुरी
बनाते
हैं, जिसमें युगीन
चेतनाएँ, विसंगतियाँ एवं
विद्रूपताएँ
अपने
यथार्थ
रूप
में
सन्निहित
होती
हैं। वह जानते
हैं
कि
मनुष्य
के
बहुत
से
संकट
किसी
सामाजिक
त्रासदी
की
उपज
होते
हैं।
उनके
कबीर
परिवार, समाज, धर्म और
सत्ता
के
पक्षों के मध्य
पूर्ण
ओजस्विता
के
साथ
तानाशाही, अनाचार, धर्मान्ध शक्तियों
के
वर्चस्व
के
समक्ष
निर्द्वन्द्व
और
निर्भीक
खड़े
नजर
आते
हैं।
अपनी
समष्टि
वृति
के
साथ
शाश्वत
मानवीय
मूल्यों
की
चिंता
करते
हुए
वह ‘इंसान को
इंसान
के
रूप
में’ देखने की
चाह
रखते
हैं।
नरेन्द्र
मोहन
भीतरी
अनुगूँज
और
घेराव
को
न
टाल
सकने
के
क्रम
में
सन 1988 में ‘कहै कबीर
सुनो
भाई
साधो’ सृजते हैं।
उनका
तर्क
है
कि ‘दहाड़ते हुए
आतंक
के
बीच
कबीर
ने
हर
खतरा
और
जोखिम
उठाते
हुए, सच कहने
का
ही
नहीं, सच को
जीने
और
उसे
अमल
में
लाने
का
साहस
किया।
मनुष्य
की
हालत
को
बदलने
के
लिए
जीवन
से
बड़े
मूल्य
की-
सिर
दे
देने
की, शहादत की
कल्पना
करते
हैं
और
यही
इस
नाटक
का
केंद्रीय
स्वर
है
जिसे
आप
तक
पहुँचाने
का
प्रयत्न
किया
गया
है।’9 यहाँ सत्य
के
प्रकटीकरण
हेतु
दो
समानांतर
ताने-बाने
बुने
गए
हैं।
पहले
ताने
में
गायक-गायिका
द्वारा
छह
सौ
वर्ष
पूर्व
की
स्थितियों
के
साथ
कबीर
का
स्थूल
परिचय
देते
हुए
उनकी
मान्यताओं
का
प्रकाशन
होता
है।
जन
से
इन
मान्यताओं
की
टकराहट
एक
प्रतिसंसार
की
सर्जना
करती
है, आस्था, अनास्था का
द्वंद्व
जन्मता
है
और
धुंध
छट
जाने
पर
अनाविल
दृष्टि
प्राप्त
होती
है।
दूसरे
बाने
में
समाज
के
समक्ष
सत्य
की
रोशनी
में
विद्रोह
करते
हुए
कबीर
और
उसके
जीवन
से
संबंधित
लोग
आते
हैं।
नाटक
के
अंत
में
जब
सभी
मिलकर
गाते
हैं, ‘कालखंड को
चीर।
गूंजती
है
कबीर
की
वाणी..’ तो इतिहास
वर्तमान
काल
पर
दस्तक
देने
लगता
है।
कबीर
की
नाटकीय
शक्ति, उनमें अंतर्निहित
क्रियाओं
को
तथा
जनचेतना
को
इन
तीनों
नाटककार
ने
रंगभाषा
के
मुहावरे
में पकड़ा है।
लव
कुमार
लवलीन
इनकी
एकसूत्रता
पर
लिखते
हैं, ‘मणि मधुकर
के
नाटक ‘इकतारे की
आँख’ में सामाजिक
अन्याय
एवं
विसंगतियों
के
विरोध
में
संघर्ष
करने
वाले
कबीर
का
व्यक्तित्व
भीष्म
जी
के
नाटक
में
किंचित
विस्तार
एवं
संशोधन
के
साथ
विकसित
हुआ
है
जबकि
इन
दोनों
नाटकों
की
अपेक्षा
नरेंद्र
मोहन
के
नाटक ‘कहै कबीर
सुनो
भाई
साधो’ में कबीर
का
व्यक्तित्व
और
कृतित्व
दोनों
समान
रूप
से
अभिव्यक्त
होकर
चरम
तक
पहुंचे
हैं।’10 समूहगत अनुभव
की
परिणति
के
कारण
तीनों
नाटक
नाट्यानुभूति
देने
में
समर्थ
हैं,
पर
साहनी
जी
का
सशक्त
कबीर
अधिक
गहनता
से
सत्ता-शासक
के
अमानुषिक
अत्याचार, तिरस्कारपूर्ण व्यवहार, निरंकुश अहमन्यता, धार्मिक कट्टरता
का
साकार
प्रतिपक्ष
बनता
है।
कबीर
का
क्रांतिधर्मी
युगदृष्टा
रूप
बारम्बार
नाटककारों
को
आमंत्रण
देता
है।
कबीर
के
अक्खड़-फक्कड़
स्वभाव, श्रमशीलता पर
भरोसा
करने
वाले
निडर
व्यक्तित्व
को
सभी
अपनी-अपनी
समझ
से
देखते, अनुस्यूत करते हैं।
यथार्थ
और
फंतासी
के
समिश्रण
से
इतिहास
और
वर्तमान
को
एक
बनाते
हुए
महावीर
अग्रवाल
का
नौ
दृश्यों
वाला ‘काशी का
जुलाहा’ आता हैं
और
नाटक
का
निष्कर्ष
कबीर
की
एक
पंक्ति, 'धूल की
जो
परत
समाज
पर
चढ़ी
है, उसे झाड़
सकना
अब
एक
कबीर
के
बूते
की
बात
नहीं’, में संश्लिष्टि
पाता
है।
राजेश
जोशी
विजयदान
देथा
की
कहानी ‘दूजौ कबीर’, रांगेय राघव
के
उपन्यास ‘लोई का
ताना’ तथा हजारीप्रसाद
द्विवेदी, अली सरदार
जाफरी, प्रभाकर माचवे, रामकुमार वर्मा, धर्मवीर भारती, नामवर सिंह
के
लेखन
से
अंशों
को
लेकर ‘कहन कबीर’ को आकार
देते
हैं।
नाटक
का
आरंभ ‘सतगुरु कबीरदास
का
देहांत
हो
गया’ की घोषणा
पर
सूत्रधार
द्वारा ‘कबीर से
इनका
कोई
लेना-देना
नहीं
है।
ये
उनकी
बानी
के
लिए
नहीं, उनके जिस्म
के
लिए
लड़
रहे
हैं।’ से होता
है।11 पहली
बार
कबीर
की
प्रेमकथा, लोई के
साथ
उनके
वैवाहिक
संबंध
की
अंतरंगता, संकटों तथा
चुनौतियों
को
नाटककार
प्रताप
सोमवंशी ‘लोई : चलै
कबीरा
साथ’ में अंकित
करते
हैं।
लोई
केंद्रित
होने
पर
भी
नाटक
कबीर
के
चरित्र
को
मंच
प्रदान
करता
है।
इसके
अतिरिक्त
डॉ.
रामकुमार
वर्मा
ने ‘ज्यों की
त्यों
धरि
दीनी
चदरिया’ एकांकी रेडियो-रूपक
में
कबीर
की
जीवनी
प्रस्तुत
की
है।
उनके
विषय
में
प्रचलित
किंवदंतियों
में
रंग
भरकर
उन्हें
सजीव
किया
है।
कबीर
को
सबसे
बड़ा
व्यंग्यकार
मानने
वाले
प्रेम जनमेजय ने ‘देखो कर्म
कबीर
का’ एक अन्य
रेडियो
नाटक
में
सीधे, सरल ढंग
से
कबीर-वाणी
की
वर्तमान
प्रासंगिकता
को
रेखांकित
किया
है। ‘पुरुष स्वर- …कबीर
ने
समाज
में
एक
पूर्ण
मनुष्य
की
कल्पना
की
है।
पूर्ण
मनुष्य
वही
है
जो
आत्मनिर्भर
है।
मन
यदि
पवित्र
नहीं
तो
धार्मिक
कर्मकांड
करने
का
क्या
लाभ!
बिना
मन
परिवर्तन
के
मानवीय
समाज
को
कैसे
बदला
जा
सकता
है।
यही
कारण
है
कि
कबीर
ने
सभी
धर्मों
के
कर्मकांड
का
सार्थक
एवं
रचनात्मक
विरोध
किया।
कबीर
की
धर्मनिरपेक्षता
में
पलायन
नहीं
हैं, अपितु
निडर
आलोचना
का
आक्रमण
है।’ रंगकर्मी शेखर
सेन
ने
लम्बे
शोध
से
तैयार
एकल
सांगीतिक
नाटक 'कबीर' में कबीरदास
के बचपन से
लेकर
मृत्यु
तक जीवन के
हर
रंग
को
अवधी
भाषा
में
रूपाकार
दिया
है। कहा जा
सकता
है
कि
मानवीय
स्थितियों
की
पड़ताल
के
स्वायत्त
प्रस्थान
के
रूप
में
कबीर
का
अनेकानेक
बार
स्वीकार
नाटककारों
की
अंतर्दृष्टि
से
संभव
होने
वाली
सत्य
की
कौंध
का
द्योतक
बनता
आया
है।
उनके
लिए
कबीर
की
आध्यात्मिक
खोज
सामाजिक
संवेदन
के
तंतु
से
निसृत
है।
कबीर
की
विभ्रांति
तथा
वेदना
का
उत्स
वास्तविक
जीवन
से
जुड़ा
है।
उनकी
भावुकता
में
सामाजिक
चिंताओं
की
विचारगम्यता
निहित
है।
सीधे
तौर
पर
ही
नहीं, बल्कि
म़ॉरिशस
के
हिन्दी
कथाकार
अभिमन्यु
अनत
के ‘देख कबीरा
हांसी’, शिवकुमार जोशी
द्वारा
गुजराती
से
हिन्दी
में
अनुदित ‘कहत कबीर’ जैसे नाटकों
में
व्यापक
स्तर
पर
कबीर
के
विचारों
को
प्रतीकात्मक
रूप
से
उजागर
करके
वर्तमान
स्थितियों
पर
करारा
व्यंग्य
परिलक्षित
है।
असल
में
नाटक
प्रश्न, विद्रोह, संघर्ष के
सर्जनात्मक
और
संहारात्मक
दोनों
रूपों
को
जीवन
के
विभिन्न
संदर्भों, पक्षों से
जोड़कर
विविध
प्रकार
से
अंकित
करने
वाली
विधा
है।
ये
नाटक
में
विकास
गति
के
नियम
तत्त्व
तथा
रूप
गठन
के
साधक
तत्त्व
रूप
में
सक्रिय
रहते
हैं।
जब-जब
कबीर
के
जीवन
के
अंतः-बाह्य
प्रश्नों, संघर्षों से
प्राणभूत
नाटक
इस
विद्रोही
चेतना
से
चैतन्ययुक्त
होकर
आये
हैं, पूर्वाधिक जीवन
संपृक्त
मर्मस्पर्शी
एवं
साधारण
जन
के
निकट
साबित
हुए
हैं।
गिरीश
रस्तोगी
लिखती
हैं, ‘कबीर का
व्यक्तित्व
हिंदी
साहित्य
में
संघर्ष, विद्रोह, पौरुष का, मानवीय मूल्यों
का
क्रांतिकारी
व्यक्तित्व
रहा
है।
एक
ऐसा
व्यक्तित्व
जिसने
मानवीय
संवेदना
और
प्रगतिशील
चेतना
को
प्रतिष्ठित
किया जिसने निर्भीकतापूर्वक
अपनी
परंपराओं, रूढ़ियों अंधविश्वास
और
पाखंड
की
सांप्रदायिकता
का
खुलकर
विरोध
किया।’12 नाटककारों
ने
सामाजिक
जीवन
एवं
युगीन
हलचलों
को
कबीर
के
काल, परिवेश से
एकमेक
कर
उन्हें
बार-बार
ऐंद्रिय
संवेदन
में
बदला
है।
यहाँ
कबीर
मानवता
के
सच्चे
संदेशवाहक
हैं।
उनका
जीवन
संघर्ष, उनकी मनःस्थिति
और
मानवीय
संबंधों
के
प्रति
उनके
समर्पण
भाव
को
रंगभाषा
के
माध्यम
से
अभिव्यक्त
करते
हुए, उनके चिंतन
जगत
के
मूर्धन्य
पक्षों
को
नाटककारों
ने
उद्घाटित
किया
है।
कहा
जा
सकता
है, ये सभी
नाटक
अपनी
सीमाओं
और
कमियों
के
बावजूद
कबीर
को ‘मध्यकालीन कवि’ परिसर से
बाहर
निकाल ‘मनुष्य की
स्वतंत्रता
के
प्रतिबद्ध
चिंतक’ रूप में
प्रतिष्ठित
करने
का
सशक्त
एवं
व्यवस्थित
प्रयास
बने
हैं।
1. देवव्रत जोशी, कबीर किसकी जायदाद हैं, ग्रंथ अकादमी प्रकाशन, दिल्ली, प्र.सं. 2021, पृ. 110
एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, अंग्रेज़ी एवं विदेशी भाषा विश्वविद्यालय, हैदराबाद-500007,
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