- आकाश दीप एवं प्रो. गुड्डी बिष्ट
शोध
सार :
पंजाबी
साहित्य
के
चर्चित
क्रांतिकारी
कवि
अवतार
सिंह
संधु
का
जन्म
जालंधर
जिले
की
नकोदर
तहसील
में
तलवंडी
सलेम
नामक
गाँव
में
9
सितम्बर,
1950 को हुआ था।
साहित्य
जगत
में
इनको
‘कवि पाश’ उपनाम
से
काफी
प्रसिद्धि
प्राप्त
हुई
हैं।
महज
15 वर्ष की अल्पायु
में
पहली
कविता
लिखने
के
साथ
ही
सन्
1988 तक उनके चार
कविता
संग्रह
प्रकाशित
हो
चुके
थे
तथा
इनका
अंतिम
काव्य
संग्रह
इनकी
मृत्यु
(23 मार्च, 1987) के
बाद
प्रकाशित
हुआ
था,
इससे
पूर्व
सन्
1969 में उनके पहले
कविता
संग्रह
‘लोहकथा’ के प्रकाशन
के
साथ
ही
कवि
पाश
की
प्रसिद्धि
एक
चर्चित
क्रांतिकारी
कवि
के
रूप
में
होने
लगी
थी।
कवि
पाश
को
मात्र
क्रांतिकारी
एवं
कम्युनिस्ट
कवि
कह
देने
भर
से
उनके
व्यक्तित्व
व
रचनाधार्मिता
को
आसानी
से
नहीं
समझा
जा
सकता
हैं,
उनकी
कविताओं
के
वास्तविक
मर्म
तक
पहुँचने
के
लिए
कवि
पाश
के
व्यक्तित्व
एवं
रचनाधर्मिता
को
प्रभावित
करने
वाले
विभिन्न
कारक
या
विचारधाराओं
को
सही
से
समझना
अत्यंत
आवश्यक
हैं|
कवि
पाश
को
कविता
लिखने
की
प्रेरणा
कहीं
न
कहीं
पिता
से
प्राप्त
हुई
थी।
पंजाब
प्रांत
मे
जन्म
लेने
के
कारण
कवि
पाश
जैसे
नवयुवक
पर
भगत
सिंह
का
प्रभाव
पड़ना
स्वाभाविक
था।
इन
सबके
अतिरिक्त
1967 में पश्चिम बंगाल
के
नक्सलबाड़ी
क्षेत्र
में
हुए
किसान
विद्रोह
ने
उनकी
राजनीतिक
समझ
को
और
भी
अधिक
विकसित
किया।
बीज
शब्द : क्रांतिकारी,
राजनीतिक,
विचारधारा,
प्रेरणा,
प्रभावित,
भगत
सिंह,
मार्क्सवाद,
शोषण,
संघर्ष,
त्रोतस्की,
कम्युनिस्ट,
शोषक,
शोषित।
मूल
आलेख : क्रान्तिकारी
विचारों
से
ओतप्रोत
कवि
पाश
पंजाबी
साहित्य
के
चर्चित
एवं
महत्त्वपूर्ण
कवि
माने
जाते
हैं।
इनका
मूल
नाम
अवतार
सिंह
संधु
है।
कवि
पाश
का
जन्म
पंजाब
जिले
की
नकोदर
तहसील
के
गाँव
तलवंडी
सलेम
में
9
सितम्बर,
1950
को
एक
मध्यवर्गीय
किसान
परिवार
में
हुआ
था।
इनके
पिता
सोहन
सिंह
संधू
भारतीय
सेना
में
‘सिग्नल
कोर’ की
सेवा
मे
कार्यरत
थे, जहाँ
से
वे
मेजर
के
पद
से
सेवानिवृत्त
हुए।
मध्यमवर्ग
में
जन्मे
कवि
पाश
की
शिक्षा
बहुत
ही
अनियमित
ढंग
से
हुई।
इनकी
तीक्ष्ण
बुद्धि
एवं
संवेदनशीलता
ने
इन्हे
अल्पायु
में
ही
परिवार
की
सीमित
परिधि
से
बाहर
ले
आई।
पाश
ने
जिस
समय
मैट्रिक
की
परीक्षा
भी
उत्तीर्ण
नहीं
की
थी,
उस
समय
उन्होंने
अपनी
पहली
कविता
की
रचना
कर
ली
थी।
शायद
कवि
पाश
को
कविता
लिखने
की प्रेरणा पिता द्वारा रचित
कविताएँ
पढ़ने
से
ही
प्राप्त
हुई
होंगी, क्योंकि उनके
पिता
स्वयं
एक
कवि
थे
और
‘निर्मल’ उपनाम
से
कविताएँ
लिखते
थे।
वे
इन
कविताओं
के
विषय
मे
किसी
से
बात
नहीं
करते
थे।
एक
बार
पाश
व
इनके
बड़े
भाई
ओंकार
सिंह
को
घर
में
उनके
पिता
द्वारा
लिखी
कविताएँ
मिली,
किन्तु
उनके
पिता
इन
कविताओं
के
विषय
में
चर्चा
करने
के
लिए
सहमत
नहीं
हुए।
सन्
1969 में इनका पहला
काव्य
संग्रह
‘लौहकथा’ प्रकाशित
होने
के
साथ
ही
कवि
पाश
की
प्रसिद्धि
एक
चर्चित
क्रांतिकारी
कवि
के
रूप
मे
होने
लगी।
सन्
1974 में ‘उड्डदे बाजाँ
मगर’
तथा
सन्
1978 मे उनका तीसरा
काव्य
संग्रह
‘साडे
समियाँ
विच’ पंजाबी भाषा
मे
प्रकाशित
हुआ
तथा
कवि
पाश
का
चौथा
काव्य
संग्रह
‘लडांगे साथी’ उनकी
मृत्यु
के
कुछ
दिनों
पश्चात
सन्
1988 में उनकी स्मृति
समारोह
के
अवसर
पर प्रकाशित होकर
सब
के
सामने
आया।
पाश
के
चार
काव्य
संग्रहों
में
लगभग
130 कविताएँ संकलित हैंi इनके अतिरिक्त
उन्होंने
हाक,
सियाड़,
हेम-ज्योति
व
एंटी47
जैसी
पत्रिकाओं
का
संपादन
का
कार्य
भी
किया
है
हाक
और
एण्टी47
हस्तलिखित
पत्रिकाओं
में
उन्होंने
संपादकीय
टिप्पणियाँ
करने
के
साथ-साथ
राजनीतिक-सामाजिक
लेख
भी
लिखें
हैं।
इन
दोनों
पत्रिकाओं
में
उन्होंने
खालिस्तानी
विचारधारा
का
कड़ा
विरोध
करते
हुए
अपनी
क्रांतिकारी
वैचारिकी
का
परिचय
दिया
है।
अपनी
इस
क्रांतिकारी
विचारधारा
और
तत्कालीन
परिस्थितियों
पर
पैनी
लेखनी
चलाने
के
कारण
ही
मात्र
37 वर्ष की आयु
में
(23 मार्च, 1988) कवि
पाश
आतंकवादियों
का
निशाना
बन
गए।
23, मार्च की
तारीख
भारत
के
इतिहास
के
लिए
एक
ऐसा
काला
दिन
है
जिस
दिन
देश
ने
अपना
सच्चा
देशभक्त
शहीद
भगत
सिंह
को
खो
दिया
था
और
इसी
तारीख
को
खालिस्तानी
आतंकवादियों
के
द्वारा
कवि
पाश
की
भी
हत्या
कर
दी
गई।
संयोग
की
बात
है
कि
भगतसिंह
और
कवि
पाश
दोनों
की
हत्या
की
गई, हत्या
का
दिन
भी
एक,
तथा
दोनों
का
अविर्भाव
और
पालन
पोषण
पंजाब
प्रान्त
में
हुआ
और
जन्म
का
महीना
भी
दोनों
का
एक
ही
है
सितंबर
माह।
इन
सब
में
सबसे
बड़ी
बात
यह
है
कि
भगत
सिंह
और
कवि
पाश
के
विचारों
की
साम्यता।
दोनों
हर
स्तर
पर
आमूल
चूल
परिवर्तन
के
पक्षधर
हैं।
भगत
सिंह
एवं
पाश
की
विचारधारा
न्याय, समानता, मानवता, सद्भाव
व
प्रेम
के
लिए
है।
यह
दोनों
प्रत्येक
प्रकार
के
अन्याय, शोषण, पाखंड, अंधविश्वास, संकीर्ण
सोच
आदि
जैसी
विसंगतियों
का
पुरजोर
विरोध
करते
हुए
इन
सब
में
बदलाव
या
परिवर्तन
लाना
चाहते
थे।
भगत
सिंह
के
बारें
में
पाश
लिखते
हैं -
पंजाब को,
बुद्धिवाद की ओर मोड़ा था
जिस दिन फाँसी दी गई
उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली
जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था
पंजाब की जवानी को
उसके आखिरी दिन से
इस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे
चलना है आगे।"[1]
कवि
पाश
को
इस
मुड़े
हुए
पृष्ठ
से
आगे
बढकर
देखने
वाले
नवयुवक
के
रूप
में
जाना
जाता
है।
भगत
सिंह,
लेनिन
को
अपना
आदर्श
मानते
थे
और
कवि
पाश
भगत
सिंह
को।
दोनो
मे
एक
अन्य
साम्यता
यह
भी
थी
कि
फासिस्टों
द्वारा
दोनों
की
हत्या।
एक
ओर
शहीद
भगतसिंह
को
ब्रिटिश
औपनिवेशिक
सत्ता
ने
मारा
तो
दूसरी
ओर
कवि
पाश
को
खालिस्तानी
फासिज़्म
ने।
भगत
सिंह
उन
गिने
चुने
क्रान्तिकारी
विचारकों
में
से
हैं
जो
उस
समय
यह
बात
जोर
देकर
कह
रहे
थे
कि
केवल
अंग्रेजों
के
भारत
से
चले
जाने
से
ही
आम
जनता
की
स्थिति
मे
कोई
परिवर्तन
नहीं
आएगा, बल्कि
परिवर्तन
तो
इस
शोषणकारी
व्यवस्था-तंत्र
को
बदलने
से
ही
संभव
हो
सकेगा।
भगत
सिंह
के
अनुसार
"आजादी
के
मायने
ये
नहीं
होते
कि
सत्ता
गोरे
हाथों
से
कालें
हाथों
में
आ
जाए!
यह
तो
सत्ता
का
हस्तांतरण
हुआ।
वे
लोग
जो
खेतों
में
अन्न
उपजाते
हैं
,
वे
भूखें
क्यों
सोते
हैं।
वह
आदमी
जो
कपड़े
बुनता
है, स्वयं
नंगा
क्यों
है? वह आदमी, जो
मकान
बनाता
है
स्वयं
बेघर
नहीं रहे।"[2]
देश
की
मेहनती
गरीब
जनता
के
लिए
भगत
सिंह
के
क्रान्तिकारी
विचार
आज
पहले
से
कहीं
ज्यादा
प्रासंगिक
हो
चले
है।
छद्म
(छल-कपट) राष्ट्रवाद
व
आस्था
के
नाम
पर
रूढ़िवादी
संकीर्ण
सोच,
साम्प्रदायिक
एवं
जातीय
उन्माद
की
तरफ
धकेले
जा
रहे
देश
में
भगतसिंह
के
विचारों
के
मर्म
को
कवि
पाश
ने
समझा।
भगत
सिंह
के
अनुसार
स्वतन्त्रता
का
वास्तविक
अर्थ
‘मजदूर-किसानों
का
राज, न कि
अंग्रेजों
की
जगह
अभिजात्य
वर्ग/पूंजीपतियों
का
राज।
इसी
तरह
कवि
पाश
के
लिए
भी
भारत
का
अर्थ
था
मेहनतकशों
का
भारत।
कवि
पाश
अपनी
'भारत' कविता
में
कहते
हैं-
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं
इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में हैं,
और वो भूख लगने पर अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए जिंदगी एक परम्परा है और मौत का अर्थ है मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
'राष्ट्रीय एकता' की बात करता है तो मेरा दिल चाहता है-
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ
उसे बताऊँ की भारत का अर्थ
किसी दुष्यंत से सम्बन्धित नहीं
वरन खेत में दायर है
जहाँ अन्न उगता है
जहां सेंध लगती है"[3]
दरअसल
कवि
पाश
की
दृष्टि
में
भारत
का
अर्थ-
किसी
'दुष्यन्त
से
सम्बन्धित
नहीं
है
न
ही
राष्ट्रीय
एकता
की
बात
करने
वालों
से
है,
बल्कि
उनके
लिए
इस
शब्द
का
अर्थ-
मेहनतकश
लोगों
के
भारत
से
है,
उनके
संघर्षमय
व्यक्तित्व
से
है, भूख से
है,
उनकी
चिन्ताओं
से
है
और
उन
मेहनतकश
लोगों
से
है
जो
आज
भी
वृक्षों
की
परछाई
से
वक्त
नापते
हैं।
कवि
पाश
का
जीवन
एवं
काव्य,
शहीद
भगत
सिंह
के
साथ-साथ
कार्ल
मार्क्स
के
वर्ग
संघर्ष
लेनिन,
त्रोत्सकी, स्टालिन,
जर्मन
कवि
बर्तोल्त ब्रेख्त
तथा
स्पेनिश
कवि
पाब्लो
नेरुदा
आदि
से
प्रभावित
रहा है।
इन
चिंतकों
से
ही
प्रभावित
होकर
कवि
पाश
की
राजनीतिक-सामाजिक
एवं
साहित्यिक
समझ
और
अधिक
विकसित
होकर
जनविरोधी
बातों
को
जानने
का
प्रयास
करती
हुई
दिखाई
देती
हैं।
कवि
पाश
की
अधिकांश
कविताएँ
सत्यता
व
क्रांति
की
कविताएँ
हैं,
ये
कविताएँ
शोषक
वर्गों
की
पराजय
तथा
शोषितों
की
विजय
निश्चित
करने
हेतु
क्रांति
का
आह्वान
करती
हैं।
समाज
में
एक
शक्तिशाली
मनुष्य
द्वारा
दूसरे
मनुष्य
के
शोषण
पर
आधारित
व्यवस्था
का
लंबे
समय
से
वर्चस्व
रहा
है
तथा
इस
वर्ग
के
प्रतिनिधि
पूंजीपतियों
का
उत्पादन
के
साधनों
पर
अधिकार
होने
के
कारण
इन्होंने
निम्न
वर्ग
के
मनुष्यों
के
अधिकारों
का
हनन
कर
उन
पर
अत्याचार
किए
हैं।
मनुष्य
द्वारा
मनुष्य
के
शोषण
पर
आधारित
दूषित
व्यवस्था
के
नाश
हेतु
उन्होंने
सदैव
संघर्षमय
कार्य
किए
हैं,
कवि
पाश
शुरू
से
ही
ऐसा
समाज
चाहते
थे
जहाँ
व्यक्ति
स्वतंत्रता
एवं
समानता
से
जीवन
का
निर्वाह
कर
सके,
जहाँ
न
कोई
राजा
होगा
न
ही
कोई
प्रजा,
समाज
मे
सभी
मनुष्यों
को
आर्थिक,
सामाजिक,
धार्मिक
सभी
क्षेत्रों
मे
समान
अधिकार
प्राप्त
हो,
कवि
पाश
ऐसे
ही
एक
वर्गहीन
समाज
के
निर्माण
के
सपने
देखते
थे,
इसीलिए
“इनकी मुख्य
रूप से
प्रेरणा का
स्रोत मार्क्सवाद
का वर्ग
संघर्ष है
तथा इससे
उनमे उग्रता
अधिक मुखर
हुई है।”[4]
इसीलिए
तो
वे
‘लडांगे साथी’ कविता
में
लिखते
हैं
-
“हम
लड़ेंगे
साथी
उदास मौसम से
हम लड़ेंगे
साथी
गुलाम इच्छाओं
से
हम चुनेंगे
साथी
जिंदगी के सपने”[5]
मार्क्सवाद
से
प्रभावित
कवि
पाश
की
एक
अन्य
कविता
'लोहा' शीर्षक
कविता
हैं
इसमें
उन्होंने बिंबों के
प्रयोग
से
समाज
के
वर्ग-विभेद
एवं
वर्ग
द्वन्द
की
स्थिति
को
समाप्त
करने
का
प्रयास
किया
है।
प्रत्येक
समाज
की
सामाजिक
व्यवस्था
मे
एक
वर्ग
के
पास
लोहे
की
कुर्सियाँ, सेफ-अलमारियाँ
है
तथा
अन्य
दूसरे
वर्ग
के
पास
ऐसे
लोग
है, जो
लोहे
को
पीट-पीट
कर
यह
सब
वस्तुएँ
निर्मित
करते
हैं।
बावजूद
इसके
ये
लोग
स्वयं
अभावग्रस्त
जीवन
जीने
को
विवश
है,
लेकिन
अब
यह
लोग
लोहे
की
शक्ति
को
समझने
के
पश्चात
स्वयं
के
लिए
लोहे
से
निर्मित
लोहे
की
पिस्तौलें, बन्दूकें
एवं
बमों
को
नया
रूप-आकार
देकर
नई-नई
चीजें
गढ़
रहें
है।
कवि
पाश
लोहे
की
शक्ति
को
व्यक्त
करते
हुए
लिखते
हैं-
मेरे पास लोहे की बंदूक है
मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हो लोहा जब पिघलता है
तो भाप नहीं निकलती जब कुठाली उठानेवालों के दिलों से
भाप निकलती है
तो लोहा पिघल जाता है
पिघले हुए लोहे को किसी भी आकार में
ढाला जा सकता है,
कुठाली में देश की तकदीर ढली होती है
यह मेरी बंदूक
आपके बैंकों के सेफ;
xxxxxxxxxxx
लेकिन आखिर लोहे को पिस्तौलों,
मार्क्सवादी
विचारधारा
में, कार्ल
मार्क्स
वर्गवाद
और
सामंतवाद
के
खिलाफ
विरोध
करते
थे।
उनका
विचार
था
कि
वर्गवाद
के
कारण, धनराशि
और
संपत्ति
के
मालिक
श्रमिक
वर्ग
का
शोषण
करते
हैं
और
अधिकांश
धनराशि
उनके
हाथों
में
एकत्र
हो
जाती
है।
मार्क्स
की
क्रांतिकारी
विचारधारा
का
मुख्य
उद्देश्य,
श्रमिक
वर्ग
की
स्वाधीनता
और
समानता
स्थापित
करना
था।
वे
सामंतवादी
समाज
की
जगह
समतावादी
समाज
की
स्थापना
करना
चाहते
थे, जहाँ
समतावादी
सोच
वास्तव
में
एक
समानांतर
और
वर्गमुक्त
समाज
की
प्रार्थना
करती
है।
हालांकि, व्यावसायिक
और
सामाजिक
रूप
से
परिवर्तित
समाज
को
प्राप्त
करने
के
लिए, क्रांति
की
आवश्यकता
मानी
जाती
है
जिसका
आह्वान
लेनिन
और
उनके
बाद
स्टालिन
ने
किया।
इसका
मुख्य
कारण
था
कि
व्यावसायिक
श्रमिकों
और
कमजोर
वर्गों
को
शक्तिशाली
बनाने
और
वर्गविहीन
समाज
की
स्थापना
करने
के
लिए
क्रांति
की
नितांत
आवश्यकता
होती
है।
परिणामस्वरूप
कवि
पाश
शोषणमयी
व्यवस्था
के
प्रति
शुरू
से
ही
विद्रोही
रहे
हैं
और
जिन
कुव्यवस्थाओं
के
चलते
मानवता
का
कत्ल
किया
जाता
रहा
हो
वे
ऐसी
दूषित
व्यवस्थाओं
को
समाप्त
करने
के
लिए
स्वयं
भी
कातिल
बनने
के
लिए
तैयार
हो
जाते
हैं-
मैं कातिल हूँ उनका जो इंसानियत को कत्ल करते हैं
हक को कत्ल करते हैं सच को कत्ल करते हैं”[7]
कवि
पाश
की
‘हाथ’ कविता शोषक
वर्गों
को
दंड
विधान
देने
की
प्रेरणा
से
भरी
हुई
है।
समाज
मे
निम्न
वर्ग
के
साथ
बहुत
अन्याय
हो
चुका
है
और
अब
इस
वर्ग
को
शोषण
के
विरुद्ध
खड़ा
होकर
अपने
अधिकारों
के
लिए
आवाज
उठानी
पड़ेगी।
इसी
उद्देश्य
से
कवि
ने
इस
कविता
में
निम्न
वर्ग
के
हृदय
मे
क्रांति
की
भावना
जगाने
का
प्रयास
किया
हैं-
जोड़ने के लिए ही नहीं होते
न दुश्मन के सामने खड़े करने के लिए ही होते हैं
यह गर्दनें मरोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ यदि हों तो
हीर' के हाथ से चूरी पकड़ने के लिए ही नहीं होते
सैदे' की बारात रोकने के लिए भी होते हैं
कैदों‘ की कमर तोड़ने के लिए भी होते हैं
हाथ श्रम करने के लिए ही नहीं होते
शोषक हाथों को तोड़ने के लिए भी होते हैं”[8]
पश्चिम
बंगाल
मे
सन्
1967 में नक्सलबाडी
क्षेत्र
में
शुरू
हुए
किसान
आन्दोलन
ने
न
सिर्फ
देश
को
अपने
दायरें
में
लिया,
बल्कि
कवि
पाश
भी
इससे
काफी
प्रभावित
हुए।
उस
समय
भारतीय
पूँजीवाद
के
गहन
आर्थिक
- राजनीतिक संकट
के
मध्य, मेहनतकश
जनता
विद्रोह
की
ओर
अग्रसारित
हो
रही
थी, जिसको
पहली
चिंगारी
नक्सलबाड़ी
क्षेत्र
के
गाँवों
में
किसान
विद्रोह
के
रूप
में
सामने
आई।
इस
आन्दोलन
को
दिशा
देने
के
लिए
माओवादियों
की
एक
नई
पीढ़ी
जिसने
स्तालिनवादी
संसदवाद
को
चुनौती
दी
और
इस
आन्दोलन
का
मार्ग
प्रशस्त
किया।
देखा
जाएँ
तो
कवि
पाश
की
राजनीतिक
गतिविधियाँ
बहुत
तीव्र
रही
हैं।
विभिन्न
दलों
से
जुड़ने
के
बाद
भी
वह
कभी
भी
आमजन
एवं
इनकी
समस्याओं
के
लिए
लड़ना
उनका
सदैव
धर्म
रहा
है।
परंतु
पाश
की
विशेष
पहचान
किसी
राजनीतिक
दल
के
कार्यकर्ता
के
रूप
में
नहीं
थी, बल्कि
वह
एक
क्रांतिकारी
एवं
जुझारू
कवि
के
रूप
में
देखे
जाते
रहे
हैं।
विभिन्न
दलों
के
बदलते
विचार
एवं
अवसरवादी
नीति
ने
पाश
के
आंतरिक
मन
को
झकझोर
दिया।
यहीं
कचोट
हमेशा
उनकी
परेशानी
का
मुख्य
कारण
रही
है।
जो
‘हमारे समय में
(साडे समिया विच)’
काव्य
संग्रह
के
समय
पूर्णतः
चरम
पर
नज़र
आती
है।
‘हमारे समय में’
कविता
मे
पाश
ने
कम्युनिस्ट
दलों
का
क्रांति
को
मार्ग
से
छोड़कर
संसद
मे
जाकर
अपने
सिद्धांतों
से
भटक
जाना
व्यक्त
हुआ
है-
“यह
शर्मनाक
हादसा
हमारे
साथ
ही
होना
था
कि दुनिया के
सबसे
पवित्र
शब्द
ने
बन जाना था
सिंहासन
की
खड़ाऊँ
मार्क्स का सिंह
जैसा
सिर
दिल्ली के भूलभुलैयों
में
मिमियाता
फिरता
हमें ही देखना
था
मेरे यारों, यह
कुफ्र
हमारे
समयों
में
होना
था…”[9]
देश
की
मेहनतकश
जनता
के
प्रति
सहानुभूति
कवि
पाश
के
काव्य
का
मुख्य
ध्येय
रहा
है।
शोषक
वर्ग
ने
शोषित
के
प्रति
अत्याचार
एवं
अन्याय
के
द्वारा
ऐसी
दमघोंटू
स्थितियाँ
पैदा
कर
दी
है,
जिनके
परिणामस्वरूप
कवि
पाश
की
क्रांति
फलित
और
शोषित
वर्ग
की
दयनीय
दशा
में
परिवर्तन
लाने
के
उद्देश्य
से
वे
लिखते
हैं
कि
-
बहन की शादी पर लिया गया कर्जा,
इतना रंग नहीं जुट पाएगा
कि चित्र बना सके एक शांत, मुस्कुराते आदमी का
जिंदगी की तमाम रातें भी लगाकर
तारों की गिनती नहीं कर पाएगा,
नक्सलबाड़ी
क्षेत्र
मे
हुए
किसान
विद्रोह
के
नेतृत्व
में
जो
माओवादिओं
की
पीढ़ी
सामने
आई।
उसने
स्टलिनवादी
संसदवाद
चुनौती
देते
हुए
स्वतंत्र
विद्रोह
के
मार्ग
को
अपनाया,
लेकिन
वे
स्टालिनवाद
की
प्रारंभिक
प्रस्थापनाओं
से
स्वयं
को
प्रथक
रखने
मे
असफल
रहें|
कवि
पाश
ने
नक्सलबाड़ी
क्षेत्र
में
हुए
किसान
संघर्ष
पर
गंभीर
राजनीतिक
मनन
और
विश्लेषण
कर
उन्होंने
इस
आन्दोलन
के
सही
निष्कर्ष
निकाले।
"कवि पाश जो
नक्सलबाड़ी
के
दिनों
से
ही, स्तालिनवाद
का
कटु
आलोचक
था, अब
माओवादी
'चीनी
रास्ते' के
दिवालियापन
को
स्पष्ट
रूप
से
देख
रहा
था।
सत्तर
के
दशक
के
पूर्वाद्ध
में
ही
पाश, अक्टूबर
क्रान्ति
के
सह-नेता
लिओन
ट्रोट्स्की
और
उसके
'सतत्
क्रान्ति' के
सिद्धान्त
की
ओर
घुमा।"[11]
कवि
पाश
के
साहित्यिक
जीवन
में
ट्रोट्स्की
से
हासिल
क्रान्तिकारी
विरासत
का
प्रभाव
स्पष्ट
रूप
से
देखा
जा
सकता
है,
इस
सन्दर्भ
मे
तेजवंत
गिल
पाश: द
पोएट एंड
मैन ' में लिखते
हैं
कि
“ट्रॉट्स्की ने
क्रांतिकारी
कविता
के
बारे
में
पाश
के
दृष्टिकोण
को
नवीनीकृत
करने
का
कार्य
किया।”[12] ट्रोट्स्की
और
इनके
सतत
क्रान्ति
के
सिद्धान्त
ने
न
सिर्फ
पाश
की
कविता
को
गहराई
और
परिपक्वता
दी, बल्कि
उसकी
राजनीतिक
क्रांतिकारी
का
भी
मार्ग
प्रशस्त
किया।
जुलाई,
1974 को अपने
मित्र
शमशेर
संधू
को
एक
पत्र
मे
पाश
ने
लिखा-
"आजकल में ट्रोट्स्की
को
पढ़
रहा
हूँ।
उसकी
आत्मकथा
इंग्लैण्ड
से
मंगवाई
है
और
1905 के असफल
विद्रोह
के
विषय
में
उसकी
किताब
मुझे
भगवान
से
मिल
गई
थी।
मैंने
इन
दो
किताब
से
बहुत
सीखा
है,
जल्दी
ही
मैं
उसकी
बाकी
किताबें
भी
हासिल
कर
लूँगा।
यार!
बडी
असाधारण
और
जुझारू
आत्मा
है
उसकी। इसके बाद
फिर
लेनिन
को
पढूंगा मैनें उसे
अव्यवस्थित
रूप
से
आधा
ही
पढ़ा
है
पर
जिससे
हमें
इतनी
आशाएँ
हो, उसकी
समस्त
जानकारी
सभी
तरह
से
आवश्यक
है।"[13]
कवि
पाश के जो तीन काव्य संग्रह
प्रकाशित
हुए
थे।
उनमें
से
'उड्ड़दे बाजा मगर' एवं 'साडे समिया विच' पर ट्रोटस्की
के क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव साफ साफ
नज़र
आता
है
जिसे बातों
ही
बातों
में
उन्होंने
कई
अवसरों
पर
स्वीकार
भी
किया
है। अवतार सिंह के पहले
कविता
संग्रह 'लोह कथा' के समय तक
इनका
राजनीतिक-सामाजिक
अभिव्यक्ति
(कला) पक्ष पूरी
तरह
से प्रौढ़ नहीं हुआ था। कवि
पाश माओवादी तथा स्तालिनवादियों के विचारों को
अच्छी
तरह
से
समझने
के
बाद
इनसे
वे
प्रसन्न
नहीं थे ।
‘कामरेड से बातचीत
2’ कविता में कविवर
पाश
अपनी
इस
खिन्नता को व्यक्त
भी
करते
हुए
कहते
हैं-
निरी वर्ग-शत्रु !
यह मेरी विद्वता भरी पुस्तकों के नीचे
गीटे छिपा देती है
लाख समझाने पर भी समाज के भविष्य से
थाली खेलने की ज्यादा चिंता करती है
उसका लेनिन को 'गंजा पकड़ने वाला' कहना
और माओ को शर्मा थानेदार-जैसे गलीज से मिला देना
भला तुम खुद सोचो
कितना असहनीय है”[14]
माओवादियों तथा स्तालिनवादियों के विचारों
को
भलीभाति
समझने
के
कारण
कवि
पाश
की
वैचारिकी
लिओन
ट्रोट्स्की की
ओर
जाने
के
बाद
अब वह लिओन ट्रोट्स्की के 'कला साहित्य' से
संबंधित
उनके विचारों का पूर्ण रूप
से
समर्थन कर रहे थे। कवि पाश
का विभिन्न दलों से जुडने के कारण उसने उन धूर्त स्तालिनवादी नेताओं
का वास्तविक चेहरे को सबके सामने लाकर
रख
दिया
था।
‘कामरेड
से
बातचीत’ कविता
में
कवि
पाश
ने
इन
धूर्त
कार्यकर्ताओं
एवं
नेताओं
को
बेनकाब
करते
हुए
लिखा
–
भगत सिंह, लेनिन, ट्रॉटस्की जैसे उन तमाम क्रांतिकारियों के पदचिन्ह पाश का मार्गदर्शन कर रहें थे। 'साडे समियाँ विच' की भूमिका में कवि पाश ने कविता में संबोधन शैली की प्रशंसा करते हुए कालिदास के प्रभाव को स्वीकार किया है। इसके साथ ही कमलादास, नेरूदा व नाज़िम हिकमत का प्रभाव भी उन्होंने स्वीकार किया है। पाब्लो नेरुदा की कविताओं ने ही कवि पाश को एहसास कराया कि कविता क्या कर सकती है। पंजाब में खालिस्तान उग्रवाद के समय में कवि पाश तीन तरह के संघर्षो से जुझ रहे थे। एक ओर पूँजीवाद सत्ता, दूसरी तरफ खालिस्तानी और ट्रोटस्की की तरफ पाश का मुड़ना व उसकी विचारधारा का खुला समर्थन करना, पाश को स्तालिनवादी कम्युनिस्टों के विरुद्ध ले आया जिसमें कविता ही उनका हाथियार थी। 1 जुलाई, 1974 को शमशेर संधू को लिखे पत्र में पाश लिखते हैं, "मैंने पाब्लो नेरूदा की पुस्तकें पिछले दिनों पढ़ी हैं। मनतरंग व बीस प्यार कविताएँ, इन पुस्तकों ने मुझे पहली बार एहसास कराया है कि कविता क्या होती है व कितनी मार सकती है। इन पुस्तकों ने मेरा जीवन में विश्वास और पक्का किया है उसने मुझे, अंधेरे, चुप व सौंदर्य की आंतरिक परतों के दीदार कराएं है। उसने इन चारों के बारे में बहुत लिखा है, बहुधा दोहराया भी है। पंजाबी में इन चारों को लेकर किसी के प्रति भी कभी कुछ लिखा नहीं गया। वह एक कवि है, जिसके पास केवल लिखा अंगुलियाँ व नाखून ही नहीं भुजाएँ भी है व भुजाएँ भी आकाश की भाँति फैली हुई। वह एक कवि है, जो मुझे आनन्द भी देता है व प्रेरणा भी। मैं तुम्हें कैसे बताऊँ अब कि में पाब्लो नेरुदा को कितना प्यार करने लगा हूँ|”[16]
निष्कर्ष : कहा जा सकता है कि कवि पाश के जीवन में अनेक व्यक्तियों के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा है जिनमें शहीद भगत सिंह उनके जीवन में आदर्श रहें हैं। भगत सिंह की विचारधारा न्याय, समानता, समता, मानवता, सद्भाव प्रेम व स्वतन्त्रता आदि के मर्म को कवि पाश ने समझा, साथ ही उनकों अपने जीवन में ग्रहण किया। इनके अतिरिक्त ट्रोटस्की, नेरुदा, लेनिन, कमलादास, नाज़िम जैसे क्रांतिकारियों ने पाश की राजनीतिक एवं साहित्यिक जीवन को और अधिक गहनता, समझने का नजरिया और परिपक्वता प्रदान की जिसकी छाप कवि पाश के जीवन एवं साहित्यिक कर्म पर स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
[11] राजिंदर राजेश त्यागी, अवतार सिंह पाश : उनका युग, कविता और राजनीति
http://workersocialist.blogspot.com/2015/04/blog-post.html
[13] चमन लाल, वर्तमान के रू-ब-रू : पाश, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ. 42
सूर्या नगर नजीबाबाद रोड कोटद्वार, पौड़ी गढ़वाल,उत्तराखण्ड, पिन कोड 246149
akas23.deep@gmail.com, 9557275867
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