साक्षात्कार : 'आज के दौर में स्वच्छंदता और उच्छृंखलता बढ़ी है' (प्रो. सन्तोष कुमार चतुर्वेदी से शशिभूषण मिश्र की बातचीत)

साक्षात्कार : 'आज के दौर में स्वच्छंदता और उच्छृंखलता बढ़ी है'
(प्रो. सन्तोष कुमार चतुर्वेदी से शशिभूषण मिश्र की बातचीत)

प्रश्न 1. संतोष जी! नमस्कार! सबसे पहले यह जानना चाहूंगा आपके नज़रिए से कविता के समक्ष आज प्रमुख चुनौतियां कौन सी हैं ?

उत्तर : शशि जी! हर काल की कविता के समक्ष अपने तरह की चुनौतियां होती हैं। वैसे भी मनुष्य ने अगर आज तक अपने विकास का यह सफर पूरा किया है तो इसके पीछे अपने समय की चुनौतियों से जूझने की उसकी क्षमता ही है। फिर रचना भला कैसे इन चुनौतियों से अलग रह सकती है। आजकल हम 'डिजिटल युग' या 'साइबर युग' में हैं। ऐसे में हमारे समक्ष चुनौतियां भी अलग तरह की हैं। हर वर्ग चुनौती से जूझ रहा है। रोजी रोजगार यानी आजीविका का दबाव, सामाजिक दबाव, नस्लगत, जातिगत, धर्मगत भेदभाव के मुद्दे आदि आदि। आज के दौर में स्वच्छंदता और उच्छृंखलता बढ़ी है। बल्कि कह लें कि यह उच्छृंखलता बेलगाम है। जब हम किसी भी तरह के पारिवारिक, सामाजिक या रचनात्मक अनुशासन को तोड़ते हैं तो कुछ नया रचते हैं लेकिन जब यह तोड़ना उच्छृंखल होता है, तब समस्याएं खड़ी करता है।

प्रश्न 2. पूंजीवादी नीतियों और बाजारवाद ने मनुष्यता के समक्ष किस तरह के संकट पैदा किए हैं ?

उत्तर : पूंजीवाद के सामने आम आदमी लाचार है, अगर आपके पास धन नहीं है तो आपका कोई मूल्य नहीं है। पूंजीवाद और बाजारवाद ने मनुष्यता को स्थगित कर वस्तुओं को उससे अधिक मूल्यवान बना दिया है। आज वास्तविकता की जगह प्रदर्शन ने ले ली है।

प्रश्न 3. शायद इस पूरे परिदृश्य के मूल में तकनीक की अहम भूमिका रही है ?

उत्तर : बिल्कुल! तकनीक ने हमारी उस गंवई दुनिया की संरचना को भी हिला कर रख दिया है, जो भारतीय राज्य की आत्मा हुआ करती थी। ध्यातव्य है कि हमारे समाज की परंपराएं, रस्में, रीति रिवाज, तीज:त्यौहार लगभग सब कुछ हमारी कृषि परम्परा से ही जुड़ी हुई रही हैं। और जब कृषि परम्परा ही बदल गई है तो इसका असर इन सब पर पड़ना लाजिमी है।

प्रश्न 4. कृषि-संस्कृति और किसानी समाज के इस संकट को आप किस तरह देखते हैं ?

उत्तर : शशि जी! देखिए कि अब किसान को भी लॉलीपॉप का लोभ दिया जाता है जिसके जाल जंजाल में उलझ कर वह आत्महत्या करने को विवश है। सही कहें तो यह व्यवस्था द्वारा प्रायोजित हत्या है। ट्रैक्टर और हार्वेस्टर ने खेती की बुनियाद को ही बदल कर रख दिया है। हल, हेंगा, हरीस, जुआठ, बैल अब सब अतीत का हिस्सा हो गए हैं। खलिहान की अवधारणा अब इतिहास बन गई है। आज की पीढ़ी शायद ही खेती की इन शब्दावलियों से परिचित हो।

 प्रश्न 5. संबंधों का संकट भी शायद एक बड़ी चुनौती है! मोबाइल संस्कृति (स्मार्ट फोन) ने हमारे संबंधों के संसार को भी बहुत हद तक बदल दिया है ?

उत्तर : आप सही कह रहे हैं  हम लोगों की पीढ़ी शायद वह अन्तिम पीढ़ी है जिसने अपने दादा दादी से कहानियां सुनी हैं। इन कहानियों की व्यक्ति के चरित्र निर्माण में बड़ी भूमिका हुआ करती थी। आज बच्चों के अभिवावक ही मोबाइल में इस कदर उलझे रहते हैं कि उनके पास बच्चों से संवाद की गुंजाइश कम बचती है। बच्चे बी मोबाइल में मस्त हैं। मतलब कि कहने सुनने की जो प्रक्रिया थी, उसका भी अन्त हो गया है। हम लोगों की पीढ़ी शायद वह अन्तिम पीढ़ी है जिसने शुरू में लिखने की शुरुआत भाठा (चाक) और नरकट की कलम से की थी। तब अंग्रेजी लिखने के लिए हम 'जी मार नीब' का इस्तेमाल करते थे। स्याही से ही हमारे बचपन का जीवन सिंचित हुआ और कुछ इस तरह हम अक्षरों और शब्दों की क्यारी से हो कर गुजरे। आज की पीढ़ी के पास मोबाइल है। अब यह पीढ़ी मैसेज भेजती या फॉरवर्ड करती है। लिखती भी है तो की पैड के सहारे, जिसमें तो स्याही की संवेदना है, ही कागज का स्नेहिल सम्पर्क।

 प्रश्न 6. संतोष जी! आप स्वयं कवि हैं ; इसलिए आपसे ही पूछना लाजिमी होगा कि ऐसे समय में कवि और कविता की क्या भूमिका हो सकती है ?

उत्तर : जो कवि इन समस्याओं से दो चार हैं, वही इन्हें अपनी कविताओं में उकेर सकते हैं। भूख की वेदना को जिन्दगी में अनुभव ही कर पाने वाला भूख पर जब कोई कविता लिखेगा तो स्वाभाविक रूप से वह कविता प्रभाव नहीं छोड़ पाएगी। छद्म आखिरकार छद्म ही होता है। वह दूरगामी प्रभाव नहीं छोड़ पाता। हां, हम गूगल और अन्य साधनों के द्वारा भूख पर जानकारियां एकत्रित कर कविता जरूर बना सकते हैं, लेकिन कविता रच नहीं सकते। यह रचना आसान नहीं होता, बल्कि वेदना से भरा होता है। प्रसव की वेदना को वही समझ सकता है जो कुछ रचनात्मक पैदा कर रहा हो। कवि श्रीकान्त वर्मा की मानीखेज पंक्तियां हैं -
चाहता तो बच सकता था

मगर कैसे बच सकता था
जो बचेगा
कैसे रचेगा


प्रश्न 7. आज का व्यक्ति जब अपने तक केंद्रित होता जा रहा है ऐसे में नागरिक बोध का क्या होगा! ऐसी परिस्थितियों के बीच समाज कैसे बदला जा सकता है !

उत्तर : आज माहौल कुछ इस तरह का है कि लोग चुप्पी साध लेते हैं। समझदार लोग तटस्थता की नीति अपनाते हैं। तटस्थता हमारे समय का एक लुभावना टर्म है। लेकिन दिनकर ने लिखा है -जो तटस्थ है, समय लिखेगा उनका भी अपराध।' हमारा वर्तमान इस तटस्थता से जूझने से आप्लावित है।

प्रश्न 8. संतोष जी! अब आते हैं कविता के वर्तमान पर, जिसकी शुरुआत लगभग नब्बे के दशक में होती है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में उपजी परिस्थितियों को आप किस तरह व्याख्यायित करेंगे ?

उत्तर : मनुष्यता के विकास के लिहाज से 20वीं सदी का अन्तिम दशक कई मामलों में महत्त्वपूर्ण है। राजनीतिक और वैज्ञानिक रूप से कई एक ऐसी घटनाएं घटित हुईं जिसने साहित्यिक, सांस्कृतिक और वैचारिक परिवेश को भी गहरे तौर पर प्रभावित किया। इन घटनाओं की शुरुआत जर्मनी से होती है। जर्मन जनता के दबाव के चलते 9 नवंबर 1989 को उस बर्लिन की दीवार के पतन की शुरुआत हुई जिसने वैश्विक विभाजन के अन्त की शुरुआत की। विश्व इतिहास की यह एक महत्वपूर्ण घटना थी जिसने समाजवाद के पतन को अवश्यंभावी बना दिया। 1990 में विभाजित जर्मनी एक हो गया। इसके साथ ही सोवियत पतन की शुरुआत हुई। और शीत युद्ध की समाप्ति हुई। हालांकि सब कुछ अच्छा ही घटित नहीं हो रहा था।

प्रश्न 9. अंतिम दशक शायद इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसी समय समाजवाद का पतन शुरू हुआ और यहीं से वैश्वीकरण का नव साम्राज्यवादी प्रसार शुरू हुआ!

उत्तर : निश्चय ही। समाजवाद एक बेहतर समाज, एक बेहतर दुनिया की उस अवधारणा को ले कर सामने आया था जिसके मूल में समानता की भावना अंतर्निहित थी। लेकिन समाजवाद के पतन ने यह स्पष्ट कर दिया कि दुनिया अभी इसके लिए तैयार नहीं है। बहरहाल सोवियत पतन के साथ ही पूंजीवादपरस्त वैश्वीकरण की शुरुआत हुई। 1991 का ही वह वर्ष था जब भारतीय वित्त मंत्री मनमोहन सिंह की अगुवाई में उदारीकरण की शुरुआत हुई। इसके साथ ही बाजारवाद की संस्कृति का सामाजिक और निजी जीवन में अनिवार्यतः प्रवेश हुआ। निजीकरण की प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला। इसके साथ ही उस होड़ की शुरुआत हुई जिसमें कुछ भी अनैतिक नहीं था। वे भ्रष्ट लोग, हत्यारे और माफिया जिनकी छवि समाज में अच्छी नहीं थी, वे अब सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे। अब ऐसे घोटाले होने लगे जिसमें मंत्री और नौकरशाह हजारों करोड़ का वारा न्यारा करने लगे।

इस तरह नवपूंजीवाद ने अपनी जड़ें जमानी शुरू कर दी। नवपूंजीवाद के इस आधिपत्य से दो अलग-अलग दुनिया की निर्मिति होने लगी। पहली वह जो अतिशय सम्पन्नता के कारण कृत्रिम जीवन के व्यामोह, आकर्षण में छद्म जीवन जीने लगता है और दूसरी वह जो पूंजी के आतंक और अभाव में सहज, स्वतंत्र जीवन जी पाने के लिए विवश होता है। फलस्वरूप अतिशय स्वतंत्रता की संस्कृति और अतिशय परतंत्रता की संस्कृति का निर्माण होना आरम्भ हुआ। इसने भेदभाव की उस संस्कृति की नींव डाली जिसे लोगों ने अपनी नियति मान लिया।

 प्रश्न 10. इस दौर में क्या भारतीय समाज के भीतर भी कुछ ऐसा घटित हुआ जिसे अभूतपूर्व कहा जा सकता हो ?

उत्तर : यह जरूरी सवाल है। लगभग यही वह समय था जब अयोध्या की बाबरी मस्जिद टूटी और भारतीय धर्मनिरपेक्षता की दीवारें बड़ी तेजी से दरकने लगीं। गांधी का देश अब उनके हवाले था जो उनके हत्यारों के पक्ष में कसीदे काढ़ते फिरते थे। नब्बे के दशक में ही दलित और पिछड़ों की भारतीय राजनीति में भागीदारी शुरू हुई जिन्हें उपेक्षित कर अब सत्ता को प्राप्त नहीं किया जा सकता था।
इन सब घटनाओं से समाज, साहित्य और संस्कृति भला कैसे बिलग रह सकते थे। इन सबका परिणाम यह निकला कि अब गुणवत्ता की जगह प्रचार, गांभीर्य की जगह आत्मप्रशंसा और स्थायित्व की जगह तात्कालिकता साहित्य और जीवन के सामयिक मूल्य के रुप में स्थापित होने शुरू हुए जो 'बेर केर की संगत' जैसे ही थे।

 प्रश्न 11. इस पूरे बदलाव में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे ?

उत्तर : सूचना और तकनीकी क्रांति ने ज्ञान और तथ्यों की बाढ़ ला दिया। लेकिन बहुधा यह ज्ञान आधारहीन, कुतर्कों से भरा हुआ और जनता को मूढ़ बनाने वाला साबित हुआ। यह वह ज्ञान था जिसने प्रतिभा या सृजन में इजाफा करने की बजाय संकीर्णता को बढ़ावा दिया। अब बाबा लोगों के चैनल शुरू हो गए जिनके सत्संग और धर्मोपदेश दिन रात लोगों को धार्मिक बनाने में लग गए। कुछ न्यूज चैनलों ने खुलेआम धर्मांधता को बढ़ावा देना शुरू कर दिया। इन सारे घटनाक्रमों ने कला, सृजन और प्रतिभा को बिकाऊ माल के रूप में तब्दील कर दिया। अब बाजार ही सफलता की कसौटी बन गया। बाजार में बिक सकना ही साहित्य की निर्णायक कसौटी बन गई। इन सबने आत्मीय रिश्ते की ताकत को क्षीण कर दिया। भावनाओं और संवेदनाओं को निर्जीव बना दिया। अब व्यक्ति इंसान नहीं रह गया बल्कि एक प्रतिद्वंद्वी मानव बनने की तरफ तेजी से अग्रसर होने लगा। तो संक्षेप में ये वे प्रस्थान बिन्दु थे जिन्होंने बीसवीं सदी के अंतिम दशक में उपजी कविता के लिए प्रस्थान बिन्दु की तरह काम किया। इनसे कविता भी गहरे तौर पर प्रभावित हुई।

 प्रश्न 12. आपकी नज़र में कवि और कविता के मूल्यांकन के पैमाने क्या हो सकते हैं!

उत्तर : कविता के सरोकार अत्यन्त व्यापक होते हैं। एक ही समय में सैकड़ों, हजारों कवि लिख रहे होते हैं। लेकिन पचास सौ साल बाद उनमें से अंगुली पर गिनने लायक रचनाकार ही बच पाते हैं। इस बिना पर हम कह सकते हैं कि अन्तिम तौर पर रचना ही रचनाकार का भविष्य तय करती है। रचनाकार अपनी जिंदगी में तीन पांच कर भले ही अपनी चर्चा कर करा लें, भले ही अपनी समीक्षाएं छपवा ले लेकिन असल मूल्यांकन तो रचनाकार के होने के बाद ही होता है।

 प्रश्न 13. इक्कीसवीं सदी की कविता के सामने प्रमुख लक्ष्य क्या हैं ?

उत्तर : इक्कीसवीं सदी की कविता का फलक और उसके आयाम बहुस्तरीय हैं। इस बहुस्तरीयता के चलते हर कवि की कविता के लक्ष्य स्वाभाविक रूप से अलग अलग हैं। कुछ बातों को छोड़ दिया जाए तो लक्ष्य में केंद्रीयता जैसी कोई बात नहीं है। भ्रष्टाचार, सत्ता की निरंकुशता, बढ़ती हुई सांप्रदायिकता, संकीर्ण सोच आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनसे आज का हर जेनुइन कवि जूझ रहा है।

 प्रश्न 14. कविता में स्थानीयता के संदर्भ को आप किस तरह परिभाषित करेंगे ?

उत्तर : शशि भाई! असल में कवि की स्थानीयताएं ही उसके रचनात्मक लक्ष्य को निर्धारित करती हैं। यह लक्ष्य समय के अनुसार बदलता रहता है। यानी कि कवि के लिए उसके समय का सरोकार ही प्रमुख होता है। इसीलिए वह अनेक कविताएं लिख पाता है।

 प्रश्न 15. रचना के लोकतंत्र को आप किस तरह देखते हैं ?

उत्तर : मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, रघुवीर सहाय, धूमिल, आलोकधन्वा, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल जैसे कवियों ने सैकड़ों कविताएं लिखी। इन कविताओं में एक ही मुद्दे का रिपिटेशन नहीं है। इन कवियों की लगभग हर कविता नया वितान रचती है और पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करती है। हर कवि अपना लक्ष्य अपने तरह से निर्धारित करता है। रचना के लोकतन्त्र की अपनी यही खुबसूरती है। यह रचनाकारों को बांधने की बजाय उन्मुक्त करता है। सभी अपनी तरह से अपने समय की चुनौतियों का सामना करते हुए रचनारत होते हैं। हर स्वतन्त्र रचना अपना काम बखूबी करती है। रचना को किसी सहारे की कोई जरूरत नहीं पड़ती।

 प्रश्न 16. क्या आप मानते हैं कि हमारा लोकतंत्र कई तरह के दबावों में है ?

उत्तर : दरअसल लोकतन्त्र की दिक्कतें उसके अपने मूल में ही हैं। यह जनता का तन्त्र है। जनता जिस तरह का शासक चाहें, चुन सकती है। भारतीय लोकतन्त्र की दिक्कत यह है कि इसके मूल में वह जनता है, जिसे बेहतर तरीके के शिक्षित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। यह जनता खाने पीने और जीने की व्यवस्थाओं में ही मशगूल और परेशान रहती है।

 प्रश्न 17. धर्म की जड़ता को भी क्या आप इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं ?

उत्तर : जनता के मूल चेतना में धर्म है। वह धर्म जो रूढ़ हो कर संकीर्ण हो जाता है। जो दूसरे धर्म वालों को बर्दाश्त नहीं कर पाता। वह धर्म जो खुद को हमेशा खतरे में पाता है। वह धर्म जो पंडे, पुरोहितों और मुल्लो मौलवियों द्वारा संचालित होता है। कोई धर्म खुद में बुरा नहीं होता। उसका स्वरूप मूलतः उदात्त होता है। दुनिया का कौन सा धर्म यह कहता है कि झूठ बोलो, चोरी करो, बड़ों को मारो पीटो, खून खराबा करो। शायद कोई धर्म ऐसा नहीं कहता। लेकिन जो धर्म के ठेकेदार हैं उन्होंने इस धर्म के मूल स्वरूप को ही विकृत कर दिया है।

 प्रश्न 18. और जाति!!!

उत्तर : हमारे समाज की संरचना ही जातिगत है। इस जाति व्यवस्था ने भारत को अतीत में बहुत नुकसान पहुंचाया है और आज भी पहुंचा रहा है। ब्राह्मणवाद ने ढेर सारी दिक्कतें पैदा की हैं। लेकिन दुर्भाग्य से इसके समानान्तर खड़े हुए दलितवाद और पिछड़ेवाद से भी बहुत उम्मीदें नहीं दिखाई पड़तीं। इन जातियों में भी ऐसा तबका है जो सम्पन्न है और उसके खयालात भी कुछ सामंती किस्म के हैं। इस तरह हम चाहें अनचाहें जाति के जंजाल में फंसने या फंसा दिए जाने के लिए बाध्य हैं। जाति का यह जो ठप्पा जन्म के साथ ही लग जाता है, वह मौत के साथ ही समाप्त होता है।

 प्रश्न 19. आपको नहीं लगता अभी भारतीय लोकतंत्र डायवर्टेड रूट में है!

उत्तर : वाज़िब फ़र्माया आपने। वह लोकतन्त्र जिसके ऊपर जिम्मेदारी थी कि वह राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक लोकतन्त्र को विकसित करे, कराए, वह अपने उद्देश्य में पूरी तरह विफल रहा है। हमारे आज के लोकतन्त्र में पूंजी की भूमिका निर्णायक है। जिसके पास पूंजी नहीं, वह चुनाव ही नहीं लड़ सकता। नेताओं की अब कोई प्रतिबद्धता नहीं। वे कपड़ों की तरह ही दल बदलते हैं। सत्ता को येन केन प्रकारेण प्राप्त करना ही राजनीतिज्ञों का अंतिम लक्ष्य है। अब आप इस 'येन केन प्रकारेण' से क्या उम्मीद कर सकते हैं। वह सेवा भाव ले कर राजनीति में आने और राजनीति करने का ढोंग तो अच्छी तरह कर सकता है, इसे हकीकत में नहीं कर सकता।

तो हमारा यह लोकतंत्र है, वह आज भले ही खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र कहे, आज काफी दबाव में है। मुझे क्रान्ति के पूर्व फ्रांस की याद रही है। जब धनी लोग पद और उपाधियां खरीद लेते थे। आज हमारे यहां लोकतन्त्र में यह सब खुलेआम घटित हो रहा है। लोकतन्त्र के ये साइड इफेक्ट्स खुद लोकतन्त्र के लिए ही खतरा बनते जा रहे हैं। इन सबका प्रभाव निश्चित रूप से कविता पर भी पड़ा है।

 प्रश्न 20. हमारी सभ्यता में जिस तरह से हिंसा के लिए जगह बढ़ती जा रही है उसके कारण क्या हो सकते हैं?

उत्तर : जब जब समाज कट्टर होता है या कह लें जब जब सत्ता पर कट्टरपंथियों का वर्चस्व स्थापित होता है, तब तब हिंसा बढ़ जाती है। ऐसे में मनुष्यता गर्त में चली जाती है, जबकि जाति, नस्ल, धर्म, वर्ग, क्षेत्र, भाषा आदि प्रमुख हो जाते हैं। इन सबके पुरोधा यह बात भूल जाते हैं कि मनुष्य के होने से ही जाति धर्म है, बोली भाषा है, समाज और देश है।

 प्रश्न 21. इन परिस्थितियों में आप मीडिया की भूमिका को किस तरह देखते हैं ?

उत्तर : दुर्भाग्यवश हमारी मीडिया की भूमिका  इस समय काफी खराब है। जिस मीडिया के कंधों पर समाज को दिशा देने की जिम्मेदारी थी, वही मीडिया कर्तव्यच्युत हो कर आज विष वमन कर रही है। उद्घोषकों की भाषा मीडिया की भाषा नहीं लगती, बल्कि आज वह उस भकाऊं की (भाषा की) तरह है, जिसका इस्तेमाल मां पिता अपने छोटे बच्चो को डराने में किया करते थे। वास्तव में एक दिक्कत यह भी है कि मीडिया जन सरोकारों वाला क्षेत्र है। इस क्षेत्र में विशेष तौर पर प्रशिक्षित लोगों को आना चाहिए। आज हकीकत यह है कि जिसकी कहीं नौकरी नहीं लगती, वह पत्रकार बन जाता है। आज भी पत्रकार बनने के लिए किसी खास योग्यता की जरूरत नहीं पड़ती। तो जब ऐसे लोग मीडिया में आयेंगे तो बंटाधार तो करेंगे ही। हमने आज जो समाज रच डाला है, वह अराजक, अभद्र और अनुशासनहीन समाज में तब्दील हो चुका है जिसमें अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह जैसी नैतिक बातें करने की मनाही है।

 प्रश्न 22. ऐसे में कविता की क्या भूमिका हो सकती है ?

उत्तर : देखिए बंधु! कवि के पास कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसके घुमाते ही समस्याएं खत्म हो जाती हैं। कविता का असर दूरगामी और देरगामी होता है। यह वितान एक दिन में नहीं बनता। यह आहिस्ते आहिस्ते बनता है। तुलसी के 'रामचरितमानस' ने भारतीय जनता के दिलों में जगह बनाई। लेकिन इसमें भी काफी समय लगा। दरअसल हम उस समय और समाज में रह रहे हैं जो पढ़ने लिखने की संस्कृति से बहुत दूर खड़ा है। रामचरित मानस जैसी रचना को भी हम लोग लाल, पीले कपड़ों में बांध कर करीने से मानस पाठ के लिए रख देते हैं। उसे एक रचना के रूप में पढ़ने देखने की संस्कृति का विकास आज तलक नहीं हो पाया।

 प्रश्न 23. सोशल मीडिया और वर्चुअल माध्यमों में कविता की भाषा,अभिव्यक्ति और शिल्प पर क्या प्रभाव पड़ा है? इन माध्यमों से कविता के प्रसार और प्रभाव में किस तरह के बदलाव आए हैं?

उत्तर : सोशल मीडिया ने कविता की दुनिया में एक क्रान्तिकारी बदलाव ला दिया है। कविता की अलग अलग तरह की आवाजें जगह जगह से रोचक तरीके से उठ रही हैं। सोशल मीडिया पर अदना से अदना कवि भी आता है, और अपनी कविता डाल देता है। फौरी टिप्पणियां भी वाह, उम्दा, बहुत सुन्दर, बेहतर के रूप में आती हैं। लेकिन कोई गम्भीर बात नहीं हो पाती। बहुत कम कविताएं होती होंगी जिन पर कोई गम्भीर टिप्पणी आती होगी।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि कविता की भाषा, अभिव्यक्ति और शिल्प पर इसके दूरगामी प्रभाव पड़े हैं। कविता की भाषा उन्मुक्त हुई है लेकिन इस पर इतराया नहीं जा सकता। अधिकांशतया यह बेहद सहज हो जाती है जिसमें कहीं कोई परत नहीं दिखाई पड़ती। कविता चाहें जितनी सपाट हो, बिम्ब तो उसके लिए आधारभूत आवश्यकता की तरह हैं। ऐसे बिम्ब जिससे मन मुग्ध हो जाए। कई एक जगहों पर कवि इतने जटिल हो जाते हैं कि उसकी कविता पढ़ते हुए लगता है किसी मुश्किल में फंस गए हों। बहुत कम ऐसे हैं, जिनकी कविता सधी हुई होती है।

जहां तक मंच उपलब्ध कराने की बात है, सोशल मीडिया का कोई सानी नहीं। इसने संपादकों के वर्चस्व को खत्म किया है। किसी भी पत्रिका की अपनी सीमा होती है। लेकिन यह सोशल मीडिया असीम है। इसका स्वरूप वैश्विक है। फेसबुक, ब्लॉग्स, वेबसाईट्स पर प्रकाशित सामग्री को विश्व में कोई कभी कहीं पढ़ देख सकता है। यह एक बड़ी ताकत है। अब डिजिटल प्रिंटिंग तकनीक ने परंपरागत छपाई माध्यमों को बड़ी चुनौती दे डाली है।

 प्रश्न 24. संतोष जी! आप स्वयं 'पहलीबार' नामक ब्लॉग का संचालन एक दशक से भी अधिक समय से कर रहे हैं। कविता की रचनाशीलता में इन ब्लॉग्स की क्या भूमिका पर आपका क्या कहना है ?

उत्तर : जानकीपुल, समालोचन, अनुनाद, असुविधा, अनहद, लिखो यहां वहां, सिताबदियारा, सदानीरा, समकालीन जनमत ने ब्लॉगिंग में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वरिष्ठ लेखक भी इन ब्लॉग्स पर अपनी रचनाएं प्रकाशित होते देखना चाहते थे। इसने दूरदराज क्षेत्रों के रचनाकारों और नए लेखकों के लिए बेहतर मंच उपलब्ध कराया है। आज भी इनमें से कई ब्लॉग्स पर छपना लेखकों, कवियों के लिए प्रतिष्ठा की बात होती है।

 प्रश्न 25. आपके अब तक तीन कविता संग्रह प्रकाशित और चर्चित रहे हैं। अपनी कविताओं के बारे में कुछ बताएं ?

उत्तर : (मुस्कुराते हुए) अपने ही बारे में और अपनी कविताओं के बारे में क्या बोलूं! इनके बारे में दूसरे बोलें, यही बेहतर है। आपके सवालों का ट्रैक सही है, ये हमारे समय और साहित्य के ज़रूरी मुद्दे हैं, इन पर बात होनी चाहिए।

 प्रश्न 26. क्या आपको लगता है कि आज कविता की  सम्मुख आलोचना मौजूद है? कविता की  समकालीन आलोचना पर आपकी क्या राय है?

उत्तर : यह सर्वविदित तथ्य है कि आलोचना रचना के पीछे पीछे चलती है। बहुत हद तक यह सही है। लेकिन मैं इसे थोड़ा संशोधित कर यह कहना चाहता हूं कि आज की आलोचना समकालीन रचना के बहुत पीछे चल रही  है। आलोचना काफी मेहनत का काम है। इसके लिए आवश्यक तौर पर कविता को उनकी पंक्तियों के बीच जा कर पढ़ना होता है। अपनी वैचारिकी सुनिश्चित करनी होती है। पहले लिखे गए और समकाल के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन करना होता है।  तो इन सबमें एक आलोचक को काफी परिश्रम करना होता है। इस तरह आलोचना समय और परिश्रम साध्य दोनों होती है।
आज इसके लिए समय किसके पास है। रामविलास शर्मा, नामवर सिंह या मैनेजर पाण्डेय होना सच कहें तो "एक आग का दरिया है और डूब कर जाना है" जैसा है। इन आलोचकों के आलेख ही बता देते हैं कि कितना परिश्रम उसे लिखने में किया गया है। सुविचारित आलोचना पुनर्रचना की शक्ल ले लेती है और रचना के समानान्तर खड़ी दिखाई पड़ती है।

मेरा मानना है कि हमारे समय की कविता के साथ या सम्मुख आज की आलोचना ना के बराबर है। बल्कि समग्रता में कहें तो है ही नहीं। क्या बात है कि आज भी मुक्तिबोध, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, धूमिल से आगे की बात आलोचना नहीं कर पाई है। कई ऐसे महत्त्वपूर्ण वरिष्ठ कवि हैं, जिनका समुचित मूल्यांकन आज तक नहीं हो पाया है। आज आलोचना भी संबंधपरक या मुंहदेखी हो गई है। अगर कवि से आलोचक के रिश्ते खराब हैं तो वह आलोचना तो छोड़िए, अपने दोयम तीयम दर्जे के आलेख में भी आलोचक उस कवि का नाम तक नहीं लेगा। खारिज करने का उपक्रम पहले भी चलता रहा है। आज यह कहीं अधिक भयावह है।

एक और दिक्कत है। कविता ऐसी विधा है जिसमें दुनिया भर में सर्वाधिक लेखन होता है। सही कहें तो आज कविता के नाम पर कूड़ा कहीं अधिक है। बेहतर कविता कम, कह लें बहुत कम लिखी जा रही है। बेहतर कविता या संग्रह का पाठक आज भी स्वागत करते हैं, इंतजार करते हैं। और रचना में अगर दम खम है, तो वह अपने बूते ही कालजई होने का माद्दा रखती है। आलोचक किसी रचनाकार के पक्ष में चाहें जितना ढोल पीट ले, रचना अगर कमजोर है तो वह लम्बी दूरी कतई तय नहीं कर सकती। फिर साहित्य है तो उम्मीद भी है। कई एक युवा आलोचक ऐसे हैं जो बेहतर कर रहे हैं।

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        प्रोफेसर सन्तोष कुमार चतुर्वेदी इलाहाबाद विश्वविद्यालय इलाहाबाद से प्राचीन इतिहास के साथ साथ मध्यकालीन एवम आधुनिक इतिहास में एम. . और प्राचीन इतिहास में डी फिल।महाविद्यालय  प्रोफेसर, इतिहास के  पद पर कार्यरत। इतिहास की चार किताबें प्रकाशित : भारतीय संस्कृति, भोजपुरी लोकगीतों में स्वाधीनता आन्दोलन, भक्ति काल का वर्तमान परिप्रेक्ष्य, बोलशेविक क्रान्ति कविता की चार  किताबें : पहली बार, दक्खिन का भी अपना पूरब होता है, चुनिंदा कविताएं, उम्मीद से बनते रास्ते 1997 से 2010 तक साहित्यिक पत्रिका 'कथा' के सहायक सम्पादक। 2011 से 'अनहद' नामक साहित्यिक सांस्कृतिक पत्रिका का प्रकाशन। अब तक अनहद के 10 अंक प्रकाशित। एक ब्लॉग 'पहली बार' का 2011 से संचालन। छात्रों के लिए इतिहास के एक अन्य ब्लॉग 'इतिहासनामा' का 2021 से संचालन।

 प्रोफेसर सन्तोष कुमार चतुर्वेदी
skchistory@gmail.com, 9450614857

        युवा आलोचक शशिभूषण मिश्र ने पिछले एक दशक में अपनी लेखकीय उपस्थिति से हिंदी की कथा-आलोचना में एक संभावनाशील पहचान बनाई है। वर्तमान में वह 'लमहीपत्रिका के कविता आधारित अंकों का अतिथि संपादन कर रहे हैं। वर्तमान में वह बांदा स्थित राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी के सहायक प्रोफेसर हैं।

शशिभूषण मिश्र
sbmishradu@gmail.com, 9457815024

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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