शोध आलेख : चंद्रकिरण सौनरेक्सा के नुक्कड़ नाटक / डॉ. मिथिलेश कुमारी

चंद्रकिरण सौनरेक्सा के नुक्कड़ नाटक
- डॉ. मिथिलेश कुमारी

शोध सार : इस आलेख में नुक्कड़ नाटक के इतिहास का संक्षिप्त परिचय देते हुए 20वीं शताब्दी की विदुषी लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा के कुछ नुक्कड़ नाटकों का विश्लेषण करने की कोशिश की गईं है। चन्द्रकिरण सौनरेक्सा का जन्म 19 अक्टूबर, 1920 . में पेशावर के नौशहरा (पेशावर छावनी अब पाकिस्तान में) में एक अग्रवाल परिवार में हुआ जहाँ इनके पिता सेना में स्टोरकीपर थे। इनके पिता का नाम रामफल तथा माता का नाम जानकी था। स्वाध्याय से उर्दू, बांग्ला, गुजराती, मराठी आदि भाषाएँ सीखी। 11 वर्ष की उम्र में इनकी पहली कहानीअछूतकलकत्ता कीविजयपत्रिका में प्रकाशित हुई। नुक्कड़ नाटकों की रचना हिन्दी साहित्य में उपन्यास, कहानी आदि विधाओं के बनिस्बत कम हुई है।पीढ़ियों के पुल तथा नुक्कड़नाटक संग्रह से इन नाटकों को लिया गया है। यह चन्द्रकिरण जी की एकमात्र नुक्कड़ नाटकों की प्रकाशित पुस्तक है।

बीज शब्द : नुक्कड़ नाटक, भारतीय जन नाट्य संघ, हबीव तनवीर,लोक-नाट्य, पीढ़ियों के पुल, चन्द्रकिरण सौनरेक्सा, सबसे बड़ा कौन, इंतजार, वायदा, चल रे मनवा देसवा की ओर, स्वर्ण मृग।

मूल आलेख :

नुक्कड़ नाटक का संक्षिप्त परिचय -

भारतीय जन नाट्य संघकी स्थापना सन 1943 में मुंबई में हुई थी। तब इप्टा के कई सांस्कृतिक समूह हुआ करते थे पंजाबी, मराठी, गुजराती विंग आदि। इप्टा ने साम्राज्यवादी, फांसीवादी ताकतों के विरोध को नाटकों का विषय बनाया। इप्टा के अधिकतर नाटक खुली जगह पर बेहद सादे लिबास में कस्बों, नगरों, गाँवों में खेले जाते थे। इप्टा ने नाटकों में कई प्रयोग भी किये। मजदूर, किसान आन्दोलनों को मजबूती देने के लिए कई नाट्य प्रस्तुतियाँ दी। ये नाटक जनता को राजनीतिक रुप से जागरुक करने के लिए थे। हबीव तनवीर जी ने सन 1959 में न्यू थिएटर की स्थापना की। वे परंपरागत और लोक-नाट्य शैलियों दोनों को मिलाकर नाटक तैयार करते थे। जिस समय पारसी थियेटर पूर्णतः व्यावसायिक था, दूसरी ओर नाटक बड़े-बड़े प्रेक्षागृहों में दिखाये जाने के कारण एक विशेष वर्ग की अभिरुचियों को पोषित करता था। उस समय इप्टा ने लोक-शैलियों का समावेश नाटकों में किया। हबीब तनवीर ने चरणदास चोरमें छत्तीसगढ़ी लोक कला का प्रयोग किया और इसे छत्तीसगढ़ के लोक-कलाकारों ने प्रस्तुत भी किया। मृच्छकटिकम को उन्होंने जिस ढंग से प्रस्तुत किया वह नाट्य-कला के क्षेत्र में एक नया प्रयोग था। आगरा बाजार’, ‘कुस्तीया का चपरासी’,‘मंगलू दीदीआदि काफी प्रसिद्ध नाटक थे।

सन 1960 के आस-पास कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन के बाद इप्टा आंदोलन भी शिथिल हो गया था, परंतु 70 के दशक से इसकी गतिविधियाँ फिर से तेज हो गईं। मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़ी सभी शाखाएँ नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुतियाँ देती थीं। इसी राजनीतिक प्रतिबद्धता के साथ नुक्कड़ नाटकों का जन्म हुआ। जितेंद्र कौशल ने लिखा है, नुक्कड़ नाटक भले ही अपने स्वरूप, कथ्य को लेकर सर्वथा एक नवीन विधा प्रतीत होता हो लेकिन इतना अवश्य है कि उसके बीज पहले ही हमारी नाट्य परंपरा में विद्यमान रहे हैं। भारत के लिए उसमें कोई नयापन नहीं है, तो नाम में, ही काम में। हमारी लोकधर्मी परंपरा नुक्कड़ नाटक ही तो रही है। गाँव की चौपाल हो या किसी कस्बे में एक चौराहा, नौटंकी, माच, नकल, भवई, तमाशा, जात्रा... सभी एक प्रकार से नुक्कड़ नाटक ही तो हैं।[1]

लेकिन इसे सीधे-सीधे लोक नाट्य परंपराओं का विकास नहीं कहा जा सकता, इसके उद्देश्य भिन्न थे। नक्सलबाड़ी आंदोलन के उभार के बाद कई राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनीं। इससे लेखकों, रंगकर्मियों में एक नई चेतना आई। मूलतः इन नाटकों की प्रेरणा राजनीतिक है। अतः लोक नाट्य रूपों से जुड़ते हुए भी यह एक नवीन नाट्य रूप था।

हबीब तनवीर का मानना है नुक्कड़ नाटक तात्कालिक बोध से जुड़े आशु सृजन का परिणाम है। इनका मुख्य कार्य सामाजिक मुद्दों अथवा समस्याओं का सार्वजनिक संप्रेषण होता है।[2] इस प्रकार आज का नुक्कड़ नाटक भारतीय जन नाट्य संघ के प्रयासों का प्रतिफल है। प्रलेस ने जो काम साहित्य के क्षेत्र में किया, वही इप्टा ने रंगमंच की दुनिया में किया। हालांकि प्रगतिशील जनवादी साहित्य ने भी इस नाट्य परंपरा को मजबूती देने का काम किया। नुक्कड़ नाटक करने वाली संस्थाएँ मजदूर-किसान आंदोलनों और संघर्षों से जुड़ी रही हैं।

अतः ये कहा जा सकता है कि नुक्कड़ नाटक ने प्रगतिशील जन-आंदोलनों से जन्म लिया है। अब तक आतंकवाद का बहाना’, (गुजरात दंगों पर) वो बोल उठी’, (दिल्ली बलात्कार की घटनाओं पर) औरत’, राजा का बाजा’, मशीन’, संघर्ष करेंगे जीतेंगे हम आदि नाटकों की प्रस्तुतियाँ जन नाट्य मंच ने दी हैं। सबसे सस्ता गोश्त’, गड्ढा’, बम मारो बम’, अंग्रेजों की गुलामी’, एक ही थैली के चट्टे-बट्टे’, हमें मंजूर नहींआदि नाट्य प्रस्तुतियाँ निशांत नाट्य मंच की हैं। हल्ला बोल’, छह पैसे का रुपया’, अँधेरा आफ़ताब मांगेगा’, जनता पागल हो गई है’, गटक चूरमा’, शांतिदूत कामगारआदि महत्त्वपूर्ण नाटक हैं। इसके अतिरिक्त अनेकों नाट्य मंडलियों द्वारा दिन-प्रतिदिन नये-नये नाटकों को लिखा और प्रदर्शित किया जा रहा है। कुछ कहानियों का भी नाट्य रूपांतरण करके नुक्कड़ नाटक के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कुछ साहित्यकारों ने सामाजिक मुद्दों पर जागरूकता फैलाने के लिए भी नाटक लिखे हैं।

सामाजिक, राजनीतिक, प्राकृतिक, सांस्कृतिक किसी भी क्षेत्र से जुड़े ऐसे नाटक जो समाज को आगे ले जाने का काम करें, इन नाटकों का मूल उद्देश्य है, वहीं सरकारी योजनाओं के प्रचार के लिए भी कुछ नाटकों का प्रदर्शन देखने को मिलता है। रमेश उपाध्याय का कहना है, नुक्कड़ नाटक का जन्म जन-आंदोलन से हुआ है और जन-आंदोलनों के दौरान ही उसका उपयोग और विकास हो सकता है।[3] इप्टा, जनम, दस्ता, दिशा, निशांत, प्रजा, प्रेरणा, सफदर स्मृति, संभावना, समुदाय जत्था, अभिव्यक्ति नाट्य एवं कला मंच, बिहार राज्य जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, संकल्प, आवाहन, अरुणोदय, अभियान, अमृतसर कला केंद्र, आदि नाट्य मण्डलियाँ नुक्कड़ नाटक के क्षेत्र में सक्रिय हैं। जनमकी कलाकार माला हाशमी के अनुसार, देश में उत्तर प्रदेश ही ऐसी जगह है जहाँ नुक्कड़ नाटक कम हो रहे हैं। बाकी जगह इनकी संख्या अच्छी है।[4]

नुक्कड़ नाटक आज विश्वविद्यालयों, कॉलेजों में विद्यार्थियों के बीच बहुत लोकप्रिय नाट्य विधा है और अपनी आवाज़ उठाने का एक सशक्त माध्यम। दिल्ली में होने वाले आन्दोलनों और विभिन्न प्रदर्शनों में इनकी भूमिका देखी जा सकती है।

चंद्रकिरण सौनरेक्सा के नुक्कड़ नाटक

चंद्रकिरण सौनरेक्सा जी बींसवी शताब्दी की महत्त्वपूर्ण लेखिका हैं। कहानियों के क्षेत्र में इनका काफ़ी नाम है। अपने समय की लगभग सभी महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं में निरंतर इनकी कहानियाँ छपती रहती थीं। चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी के अब तक चार उपन्यास चन्दन चाँदनी,(1962) वंचिता,(1972) और दिया जलता रहा, (2003) कहीं से कहीं नहीं, (2003) प्रकाशित हो चुके है।सौदामिनी,वे भेड़िए,दूसरा बच्चा, क्लास का कैदी,हिरनी,उधार का सुख,नासमझ,खुदा की देन’, ‘आधा कमरा’, ‘जवान मिट्टी’, ‘मेरी प्रिय कहनियाँआदि कहानी संग्रह छपे हैं। छः बाल साहित्य की किताबेंजिन्होंने इतिहास रचा’, ‘भोंदू और भोलू’, ‘जग्गो ताई,पशु-पक्षी सम्मलेन’, ‘दमयंती’, ‘शीशे का महलतथा आत्मकथापिंजरे की मैनानाट्य साहित्यपीढ़ियों के पुल तथा नुक्कड़ नाटकआदि पुस्तकें प्रकाशित हैं।

पीढ़ियों के पुल तथा नुक्कड़ नाटककिताब नुक्कड़ नाटक की है जिसमें दस नाटक सम्मिलित हैं। चंद्रकिरण ने ये नाटक 20वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में लिखें, शायद आत्मकथा लिखने के दौरान। जिस प्रकार उनके अन्य साहित्यिक विधाओं के केंद्र में सामाजिक समस्याएँ रही हैं, उसी प्रकार ये नाटक भी सामाजिक समस्याओं और सवालों पर केंद्रित हैं।

नुक्कड़ नाटक नाम से ही स्पष्ट है, ऐसे नाटक जिनका प्रदर्शन किसी भी खुली जगह गली, चौराहों आदि पर किया जा सके। मूलतः ये नाटक राजनीतिक या सामाजिक विषयों पर केंद्रित रहते हैं। इसका मूल उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बात पहुंचाना होता है। इसलिए ये ज्वलंत विषयों पर तैयार किए जाते हैं, जिससे वर्तमान व्यवस्था की कुरूपताओं और विडम्बनाओं को उजागर किया जा सके। नाटकों में संवाद और अभिनय की मुख्य भूमिका होती है। इस नाट्य-विधा में ढोलक, ड्रम, डफली आदि वाद्ययंत्रों का प्रयोग होता है, आजकल हारमोनियम तथा अन्य कई वाद्ययंत्रों का प्रयोग होने लगा है। एक ही वेशभूषा में पूरा नाटक होता है, खा़सकर काले रंग के कुर्ते का प्रयोग होता है। इसीलिए इस विधा में गंभीर विषयों को भी रोचक शैली में प्रस्तुत किया जाता है। सफ़दर हाशमी का नुक्कड़ नाटक की दुनिया में बहुत नाम है।

चंद्रकिरण ने युगीन सामाजिक समस्याओं को अपने नाटकों का विषय बनाया है जैसे - कॉलेज में विद्यार्थी और शिक्षक के सम्बन्ध, लालच, दहेजप्रथा, घर-परिवार, परिवार नियोजन आदि। इन नाटकों में सूत्रधार के साथ सिपाही पात्र का सृजन भी किया गया है। सूत्रधार और सिपाही दोनों का वार्तालाप नाटक के बीच-बीच में होता रहता है। सूत्रधार कभी अकेले आता है, कभी सिपाही के संग। सूत्रधार और सिपाही के वार्तालाप का एक अंश देखिए, सूत्रधार- पकड़ियो, पकड़ियो अरे पकड़ियो रे सोने का हिरण भागा जाये है.....पकड़ो भाई..... जाने पाये। दूर से सिपाही आता है... सिपाहीअबे अंधे, क्या शोर मचा रखा है? यहां नुक्कड़ पे तुझे सोने का हिरन कहाँ दिखाई दे रहा है। साले कभी सोने का हिरन दुनिया में हुआ है![5]

अधिक सुख-संसाधनों की लालसा में कुछ भी कर जाना, नैतिकताओं, संस्कारों, सामाजिक संबंधों को दरकिनार कर देना आम बात होती जा रही है, जहाँ देखो वहीं स्वार्थ की तूती बोल रही है। खाद्य पदार्थों में मिलावट कर व्यापारी अधिक मुनाफा कमाना चाहते हैं। धन के पीछे इंसान इतना गिर गया है कि नैतिकताओं का खुला माखौ़ल उड़ा रहा है। एक भूखा व्यक्ति चोरी करने जाए तो समझ में आता है कि उसकी भूख और भौतिक परिस्थितियों ने उसे ऐसा करने पर मजबूर किया, लेकिन जिसका घर संसाधनों से भरा पड़ा है, वह चोरी करे, किसी के कान काटे, तो इसे क्या कहेंगे?स्वर्ण मृगनाटक में सेठ धन्नामल एक ऐसा ही चरित्र है जो सड़े-गले मसालों को पीस कर बाजार में बेचता है, उन में अन्य सस्ती और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक चीजों की मिलावट करता है। बस मिर्च के साथ थोड़ा लाल गेरू पिसवा देना; और धनिये के साथ थोड़ी पीली मक्का जिस से जरा रंगत चोखी हो जाये हल्दी की तो कोई फिक्र नईं सड़ी-घुनी सब पिस के पीली हो जागी।[6]

इस मिलावट खोरी की भयावहता को लेखिका ने बड़ी कुशलता से दिखाया है। सेठ धन्नामल की तरह दवाई बनाने वाली कुछ कम्पनियाँ नकली दवाइयाँ बनाती हैं, दूध में मिलावट, घी में मिलावट करती हैं। बुद्ध जिस सम्यक आजीविका की बात करते हैं, वह किसी प्रकार की बेईमानी से मुक्त तथा अपने काम के प्रति नैतिक बोध से युक्त होना है। यह अपने कर्तव्यबोध से भी पलायन है और मनुष्य के नैतिक पतन की पहचान भी। सेठ धन्नामल की आँखें तब खुलती हैं जब उनका बच्चा नकली दही खा कर बीमार पड़ जाता है, दवा भी नकली निकलती है, तब उन्हें समझ में आता है कि वह कितना बड़ा अपराध कर रहे थे। हम सभी सोने के मृग के पीछे भाग रहे हैं। पैसा कमाने के लिए मसालों, दूध, दवाई सब में मिलावट हो रही है। इस भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं किया तो देश रसातल को चला जाएगा। [7]

यह मिलावट खोरी आज कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई है, इसके कारण आये दिन अनेकों बच्चों, बूढ़ों, व्यस्कों की मौत होती रहती है। विभिन्न प्रकार की मानसिक और शारीरिक व्याधियाँ पैदा हो रही हैं। नाटक की गंभीरता को सूत्रधार के कथन रोचक बनाते हैं। पीढ़ियों के पुल नाटक कॉलेजों में शिक्षक-छात्र संबंधों तथा लड़कियों पर टिप्पणियाँ उनके साथ छेड़-छाड़ होने की घटनाओं को दिखाता है। इन लड़कों की मानसिक संरचना अपने शिक्षकों के प्रति बहुत सम्मान जनक नहीं हैं, बल्कि वह बदल रही है। ये बच्चें लड़कियों के साथ अपमानजनक व्यवहार करना अपना जन्म-सिद्ध अधिकार समझते हैं और जब प्रिंसिपल इन पर कार्यवाही करते हैं तो ये हड़ताल करने लगते हैं। यह नाटक इन लड़कों को कैसे सही रास्ते पर लाया जाये, इसका भी एक नमूना पेश करता है। चंद्रकिरण ने बिल्कुल माँ की तरह यहाँ छात्रों को संभाला और सुधारा है। उन्हें स्वयं ये अहसास होने लगता है कि उनके अध्यापक उनकी भलाई चाहते हैं। हालांकि कॉलेजों का माहौल बहुत बदल रहा है, इन समस्याओं को सुलझाना आसान नहीं रह गया है।

रचनाकार समाज के कोने-कोने में लगे जालों को साफ करने का काम करते हैं। वह उस पक्ष पर प्रश्न खड़े करते हैं, जहाँ उन्हें थोड़ा सा भी अँधेरा नज़र आता है। हमारी समझदारी जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से ही बनती है। ये छोटी-छोटी बातें महत्त्वपूर्ण हैं जो थोड़ा-थोड़ा हमें तैयार करती हैं। क्या नैतिक मूल्य हैं? और क्या नहीं? एक संवेदनशील और विवेकी, विचारवान व्यक्ति देख लेता है। भारतीय संस्कृति किसी एक संस्कृति का नाम नहीं है, बल्कि यह विविध संस्कृतियों का सम्मिश्रण है। वर्चस्व की भावना ख़तरनाक है। सबसे बड़ा कौन नाटक में धार्मिक वर्चस्व की भावनाओं को तीन किशोर बच्चों की वार्तालाप के जरिए दिखाया गया है। धार्मिक समस्या को सुलझाना कठिन है। अपने धर्म को श्रेष्ठ मानना और दूसरे धर्म को बुरा मानना, एक ऐसी प्रवृत्ति है जो अहं भाव से उपजी है जब यह प्रवृत्ति नफ़रत में बदल जाती है और इसके लिए लड़ाई-झगड़े होने लगते हैं तो बाबरी मस्जिद विध्वंस, मुज़फ्फरनगर जैसे साम्प्रदायिक दंगे पैदा होते हैं। यह नफ़रत सामाजिक समरसता को सोख लेती है। हिंदू महासभा, बजरंगदल, विहिप जैसे संगठन भारत को अपने विश्वासों और तर्कों के अनुसार बनाने में प्रयासरत हैं। इसके लिए हिंसा, हत्या तक करने से नहीं चूकते हैं। लव जे़हाद, गोरक्षा, हिंदुत्व की परिकल्पना हिंदू राष्ट्रवाद ये सब एक-दूसरे से जुड़ी कड़ियाँ हैं। इन संगठनों को एक विशेष दल द्वारा राजनीतिक संरक्षण मिला हुआ है। सिमी जैसे संगठन प्रतिबंधित हैं, तो इन संगठनों को भी गैर-कानूनी घोषित कर देना चाहिए, क्योंकि दोनों संगठनों का स्वरूप एक जैसा है।

एक दूसरे के धर्म, भाषा, वेशभूषा, रहन-सहन, खान-पान का सम्मान करके ही समाज में सद्भाव बनाए रखा जा सकता है। यह वैयक्तिक स्वतंत्रता के लिए भी ज़रूरी है और सांगठनिक संस्थाओं के लिए भी। सांप्रदायिकता वर्तमान समय की विकराल समस्या बन गई है। सब से बड़ा कौन में देवी-देवताओं को लेकर ही तीन किशोरों के झगड़े से नाटक शुरू होता है और उनके आपसी सद्भाव से नाटक ख़त्म होता है। ओम और सरिता इन बच्चों को बहुत अच्छे से समझाते हैं कि यह व्यर्थ का झगड़ा है।

भारत भौगोलिक रूप से एक जैसा नहीं है। कहीं पहाड़, कहीं मैदान, कहीं अति ठंड तो कहीं ज्यादा गर्मी। इन प्राकृतिक विविधताओं का प्राणियों के रहन-सहन, खान-पान, शारीरिक गठन आदि पर प्रभाव पड़ता है, इस अंतर को विशिष्टता की तरह ही लेना चाहिए। दक्षिण भारत में नारियल का तेल ज्यादा प्रयोग होता है उत्तर भारत में सरसों का।सब से अच्छा कौननाटक में खान-पान, रहन-सहन के अंतर को दिखाते हुए समरसता पर बल दिया गया है। ओम - नारियल तेल खा़लिश सिर में लगाने की चीज़ है। ये लोग जाने कैसे उसे खाते हैं! एक दम वाहियात और अज़ब लोग हैं लक्ष्मी अम्मा कह रही थी, अपना मकान मालिक कैसा सरसों का तेल में पका के खाना जाता है। मेरी बिहारी बाई तो वह सिर में लगा के आता (नाक सिकोड़ के) एक दम तेज बास मारता।[8]

उपर्युक्त वाक्यों में यह दिखाया गया है कि सब की अपनी पसंद, नापसंद होती है लेकिन सब एक दूसरे के साथ मिलकर रहते हैं जो शाकाहारी हैं, वे मांसाहारी को इसी प्रकार नापसंद करते हैं। अगर आप स्वयं दूसरे की पसंद के अनुसार नहीं चल सकते तो दूसरों की जिंदगी में क्यों दखल देते हैं। इस नाटक का पात्र ओम अपने किराएदार पंजाबी परिवार के मांसाहारी होने और लक्ष्मी अम्मा के नारियल तेल में खाना पकाने को लेकर झगड़ा करता है, लेकिन उसकी पत्नी सब से मिलकर रहना चाहती है। लड़ाई करने के वक्त ओम यह भूल जाता है कि तबियत खराब होने पर सरदारनी ने ही फोन कर एंबुलेंस बुलाई थी, लक्ष्मी सांभर-डोसा बनाकर भेजती है तो बड़े चाव से खाते हैं। इस नाटक में तो उस मामले को घर के अंदर दिखाया गया है, लेकिन यह मनोवृति घर के बाहर देश में व्याप्त है। यह सोच कहीं हवा से नहीं आती। तथाकथित हिंदुत्ववादी संगठन इस सोच और नफ़रत को पैदा करते हैं। राजनीतिक चरित्र समाज का चरित्र बन गया है। अपने स्वार्थ के लिए ये शाकाहार-मांसाहार की राजनीति करते हैं।

घर-परिवार की समस्याओं का कोई एक कारण नहीं होता, परंतु रचनाकार एक रचना में एक ही मुद्दे को उठा सकता है। घर-परिवार नाटक में छोटे परिवार का गुणगान है। अधिक बच्चें होने से वक्त और ऊर्जा उन में ही खप जाती है। पति-पत्नी अपने लिए वक़्त नहीं निकाल पाते। बच्चों और घर के कामों के बीच सुरेश और सरिता साथ-साथ वक्त नहीं गुजार पाते, इससे सविता चिड़चिड़ी हो जाती है और दोनों के जीवन में बोरियत पैदा हो जाती है। राजेश और मीरा का एक बच्चा है। वह साथ-साथ फिल्म देखने, घूमने जाते हैं। बड़े परिवार के चूल्हे में सब ख़त्म, पिकनिक, सैर-सपाटा, गाना-बजाना सब भस्म।[9]सविता- आते साल ही मुन्ना जी तशरीफ ले आये फिर सुधा और अब यह मुन्नी। पाँच सालों में कैसे नींद भर सोते हैं जाना नहीं। आज एक को बुखार, कल दूसरे को खांसी, परसों तीसरे को पेचिश....... सुरेश- मुझे देखो और सबक लो एकदम कोल्हू का बैल हो गया हूँ। तेरी भाभी पाँच साल पहले जापानी गुड़िया सी लगती थी; आज टूटी गुजरिया और फटी बँसुरिया सी बजती है।[10]

भारत में सन 1952 में परिवार नियोजन कार्यक्रम शुरू हुआ। ये नाटक उसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर लिखा गया है। व्यवहारिक रूप से भी यह बात सत्य है कि अपनी जिंदगी का अधिकांश वक्त बच्चों के पालन-पोषण में खर्च कर देने के कारण माता-पिता अपने लिए कुछ नहीं कर पाते। ज्यादा बच्चें हो तो आधी जिंदगी उसी में चली जाती है। भारत विश्व में जनसंख्या में चीन के बाद दूसरी संख्या पर है। अति जनसंख्या बहुत सारी नीतियों को प्रभावित भी करती है। ज़्यादा बच्चें परिवार और देश दोनों के लिए ठीक नहीं है। इस नाटक में दो परिवारों के चित्रण से तुलनात्मक रूप में यह स्पष्ट किया गया है कि सविता और सुरेश कैसे एक-दूसरे से ही झगड़ने लगते हैं, बोरियत स्थाई रूप ग्रहण कर लेती है, वहीं मीरा और राज एक बच्चा होने पर अन्य कार्यों में भी उतनी ही रुचि लेते हैं। उनके पास अपने लिए भी वक़्त रहता है।

इंतजा़रनाटक भी इसी प्रकार पारिवारिक मसले को लेकर लिखा गया है। इसमें एक ऐसे मुसलमान परिवार का चित्रण है जहाँ सिर्फ़ पति-पत्नी और दो छोटे बच्चों के अतिरिक्त परिवार में दूसरा कोई नहीं है। इन छोटे बच्चों को वह किसके सहारे छोड़कर बाहर जायें। एक लोग जाएँ तो एक लोग को घर में रहना होगा। बार-बार यूसुफ अपनी फूफी़ को बुलाता है। दोनों बच्चों के प्रसव के वक्त भी फूफी ही घर और बच्चा संभालती है। युसूफ और जमीला के बीच प्यार और अपनत्व भरा रिश्ता है। वह जमीला की मदद भी करता है। युसूफ को फिल्में देखने का बहुत शौक है, परंतु वह बिना जमीला के कभी फिल्म देखने नहीं जाता। अंत में इसमें भी कम बच्चें पैदा करने का संदेश है, कुछ नहीं जी! जमाने के साथ चलना चाहिए। अपनी जिंदगी का सुख चैन गँवाना हो, तो दो बच्चें ही काफी हैं। इन्हें ही तालीम देकर अच्छा इंसान बना सकें तो समझेंगे जन्नत नसीब हो गई, साथ ही आखिर अपनी भी कोई लाइफ है। कुछ मौज़ मस्ती जिंदा रहने के लिए टॉनिक है।[11] घर-परिवार में सविता और सुरेश संयुक्त परिवार में दु:खी हैं तो इंतज़ार में एकल परिवार में भी समस्या है। परेशानियाँ और दुःख ज़िंदगी भर साथ नहीं छोड़ते, यह व्यक्ति पर निर्भर करता है कि वह किस तरह उसका सामना करता है।इंतजा़रमें यूसुफ बहुत समझदारी से खुशी-खुशी हर समस्या का निदान ढूंढता है।

इंतजार,वायदा,चल रे मनवा देसवा की ओरनाटकों में मूल प्रश्न के अतिरिक्त परिवार नियोजन का भी संकेत है। आर्थिक तंगी में बच्चों और बड़ों की जरूरतों के बीच खींच-तान होती रहती है। वायदा नाटक में जगदीश (बच्चा) का मनोवैज्ञानिक चित्रण है। जब बार-बार उसे साइकिल दिलाने का वादा करके नहीं दिलाया जाता, यहाँ तक कि उसके गुल्लक के पैसे एक बार उसकी छोटी बहन सुधा के इलाज में और दूसरी बार उसकी माँ के प्रसव के दौरान अस्पताल में खर्च हो जाते हैं तो वह अपना गुस्सा अन्य चीजों पर निकालता है। वह अपने छोटे भाई से नफ़रत करता है, उसे लगता है कि उसी की वजह से उसे साइकिल नहीं मिली। जब जगदीश मुन्ना को थप्पड़ मारता है तब उसके माता-पिता शंकर-सावित्री को एहसास होता है। सावित्री अपने कंगन गिरवी रखकर उसे साइकिल दिलाते हैं। बच्चें को यह विश्वास दिलाने का और कोई तरीका़ नहीं था कि माँ-बाप उसे भी प्यार करते हैं। इसी विषय पर वायदा नाम से चंद्रकिरण की एक कहानी भी है, कथानक काफी मिलता-जुलता है, परंतु नाटक में बच्चे का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ज़्यादा अच्छे से दिखाया गया है।

दहेज लेना-देना हमारे समाज में एक ऐसी मनोवृति बन गई है जिसके कारण स्त्रियों का शोषण होता है। घरेलू हिंसा के कारणों में दहेज़ एक प्रमुख कारण है। 1983 ई० में दिल्ली में दहेज विरोधी आंदोलन हुए थे। राधा कुमार ने स्त्री संघर्ष का इतिहास पुस्तक में दहेज उत्पीड़न की शिकार महिलाओं के अनुभव दर्ज किये हैं। चन्द्रकिरण दहेज नाटक में दहेज़ उत्पीड़न या दहेज विरोधी आंदोलन का कोई दृश्य नहीं रचती, बल्कि दहेज को मिटाने की बात करती है। स्वदेश इस नाटक का आदर्शवादी पात्र है। उसकी सगाई दो साल पहले ही रिश्ते की एक गरीब बिन बाप की बेटी से हो चुकी है, परंतु राय साहब की बेटी का रिश्ता आने पर माँ उस रिश्ते को स्वीकार कर लेती हैं और उस सगाई को भूल जाती है। राय साहब बिन मांगे ही मोटा दहेज देने को तैयार हैं। स्वदेश इस घटना से बहुत दु:खी होता है और वह राय साहब की बेटी से शादी नहीं करना चाहता। उसे यह उषा के प्रति अन्याय लगता है। धनी बेटी के योग्य वह नहीं है, परंतु स्वदेश का सच्चरित्रवान होना राय साहब को पसंद है। वह अपनी बेटी के लिए उसका चुनाव इसीलिए करते हैं। अंत सुखद है। स्वदेश की मां दहेज़ का लोभ छोड़कर स्वदेश की बात मान लेती हैं। यह नाटक आदर्शवादी और प्रेरक है।

चंद्रकिरण ने ऐसी ही छोटी-छोटी घटनाओं पर नुक्कड़ नाटक लिखे हैं। अपनी कहानियों में वह विधवाओं को बहुत हीन-दीन स्थिति में जीने को मजबूर दिखाती हैं, परंतु अवरोध नाटक में एक विधवा अपने घर-परिवार के भरोसे नहीं बैठती, अपने लिए स्वयं रास्ता बनाती है। सिर्फ दसवीं पास वह नर्स बनने की पढ़ाई करना चाहती है, ससुराल के लोगों को यह पसंद नहीं, वे उसे घर से निकाल देते हैं। अपनी सहेली मारिया की मदद से एक दिन वह नर्स बन जाती है। अन्त में उसकी ससुराल वालों को अपने किये पर पछतावा होता है और छोटी बहू भी उन्हें माफ़ कर देती है। फिल्मों की तरह इन नाटकों का अंत सुखद होता है। मध्यवर्गीय चेतना में नौकरी को लेकर भी अलग-अलग धारणा व्याप्त है। अध्यापिका बनाना पसंद करते हैं, परंतु नर्स या प्राइवेट नौकरी को हेय दृष्टि से देखते हैं। चंद्रकिरण की कहानियाँ यथार्थवादी है, परंतु नाटक आदर्शोन्मुख यथार्थवादी हैं।

कुछ नाटकों में कहानियों की संरचना का प्रभाव है। नुक्कड़ नाटक एक अलग ही नाट्य विद्या है। इसमें अभिनय, संवाद, स्वरों के उतार-चढ़ाव का ज़्यादा महत्त्व है। इसके दर्शक हर आयु, वर्ग, समूह के होते हैं। अतः विषयवस्तु चयन बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। विषय ऐसा हो जो रोचक तथा सोदेश्यपूर्ण हो। ध्यानाकृष्ट करने के लिए डमरु, ढोल, डफली, डफ आदि का प्रयोग किया जा सकता है या ऐसा सूत्र वाक्य जो सहसा ही जनता को आकृष्ट करे। संवाद लंबे होने से अभिनय में समस्या उत्पन्न होती है। इस प्रकार संवादों की भूमिका अहम हो जाती है। संवाद जितने तीव्र, संक्षिप्त और व्यंग्यपूर्ण हो, नाटक उतना ही ज़्यादा प्रभावी होता है। असगर वजाहत जी के नाटक सबसे सस्ता गोश्तको उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। कथ्य,भाषा, संवाद हर-एक दृष्टि से यह नाटक बेजोड़ है। नाटक की शुरुआत विस्फोटक या अतिनाटकीय होनी चाहिए जैसे कोई तीव्र स्वर वाला गीत, नृत्य, ढोल या किसी वाद्य यन्त्र की आवाज़,चीख-पुकार, लड़ाई का दृश्य आदि। हबीब तनवीरमानते हैं कि नाटक में बहुत ज्यादा समझाने की बजाय दर्शकों की समझ पर छोड़ देना चाहिए। चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी ने नाटकों में संयत शब्दावली का प्रयोग किया है। सूत्रधार के संवाद दिलचस्प और छोटे हैं। सूत्रधार द्वारा प्रयुक्त कुछ गीतों के उदाहरण

 

मेरा टेसू यहीं खड़ा,

खाने को मांगे दही बड़ा।

इस टेसू की ऊंची शान

खींचेगा यह सब के कान।[12]

 

हवा के परों पर आया है संदेश

चल रे मनवा सब छोड़-छाड़ अपने देश

भर गया दिल शहर के झमेले देख

बढ़ा ले कदम फटाफट मुड़के ना देख।[13]

 

मिलावट मिटाओ

ईमानदारी लाओ

वरना!

देश रसातल को

चला जाएगा

चला जाएगा।[14]

 

हास्य-व्यंग्य-विनोदपूर्ण भाषा सूत्रधार और सिपाही द्वारा बोले गए कथनों में दिखाई देती है। ये कथन कहीं गीतों के रूप में है, तो कहीं संवादों के रूप में। नाटक में अन्य पात्रों के द्वारा लंबे वाक्यों का प्रयोग नाटक को कमजोर बनाता है। नुक्कड़ नाटक में जितना कम वाक्यों का प्रयोग होता है, नाटक उतना ही प्रभावशाली होता है। नाटकों में आदर्श पात्रों की भाषा में भी कोमलता है। मांग के अनुसार बंगाली, पंजाबी पात्रों का प्रयोग हुआ है और ये पात्र अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं। हास्य व्यंग्यपूर्ण संवाद भी कुछ जगहों पर आये हैं, परंतु कहीं-कहीं लंबे संवाद नाटक को बोझिल और कमजोर बना देते हैं। जैसे, अध्यापक तो पूरी उम्र सीखता है पिछले पन्द्रह दिन के अनुभव से मैंने जाना आज का युवा वर्ग अधिक सजग और सतर्क है। आँख मूंद कर वह किसी को भी, चाहे वह आयु में बड़ा हो या ज्ञान में, अपना सम्मान नहीं देगा। इसीलिए अपनी बात तुम्हें आदेश के स्वर में नहीं समझा सके हम। सो हमने अपने हथियार बदल दिए बस! पढ़ना चाहोगे, पढ़ाएंगे, वरना जैसी जनता की मर्जी। स्टाफ-मीटिंग करके मैंने अपने सभी सहयोगियों को समझा दिया था कि वे आप लोगों की इच्छानुसार चलें![15]

इस प्रकार के संवाद नाटकीय प्रवाह और प्रभाव को बाधित करते हैं। संवाद जितना तीव्र और तीखा हो नुक्कड़ नाटक उतना ही प्रभावशाली होता है। चन्द्रकिरण के नाटकों में कहीं-कहीं तीव्र गति के संवादों का अभाव है। बावजूद,‘स्वर्ण-मृग’, इंतजार’, चल रे मनवा देसवा की ओर’, वायदा’, सबसे बड़ा कौन’, सब से अच्छा कौन नाटकीय दृष्टि से अच्छे बन पड़े हैं। रूप पर बात करते हुए सव्यसांची ने लिखा है, समाज का पूर्ण विश्लेषण प्रस्तुत करना घातक है, क्योंकि सब कुछ बताने के चक्कर में नाटक उबाऊ और भाषण मात्र बनकर रह जाता है। किसी एक खा़स मुद्दे पर दो एक सांग-रुपकों के आधार पर एक ऐसा ठोस ढांचा रचा जाये,जो कम से कम एक मुद्दे पर अपने सत्य को स्थापित कर सके तो वह प्रयास काफी होता है और सर्वव्यापी या सम्पूर्ण नाटकों की बनिस्बत कुछ ज्यादा दूर तक ले जाता है।[16] इस दृष्टि से इनके नाटकों में कहीं-कहीं ये बोझिलता है।

निष्कर्ष : चन्द्रकिरण जी ने अपने समय और समाज में मौजूद मुख्य समस्याओं को नुक्कड़ नाटकों का विषय बनाया है। दहेज़, परिवार नियोजन, बच्चों की शिक्षा, घर-परिवार, स्वास्थ्य, मिलावट-खोरी, धार्मिक सामाजिक विभेद, बच्चों और किशोरों के मनोवैज्ञानिक विषयों को उपर्युक्त नाटकों में देखा जा सकता है। इन नाटकों में रंगमंचीय संकेत तथा अभिनय संकेत दिया गया है। चन्द्रकिरण अभिनय संकेत देती हैं, परन्तु अभिनेता की कल्पना के लिए उन्मुक्तता इनके नाटकों में देखी जा सकती है। गति या लय नुक्कड़ नाटकों के प्रस्तुतिकरण में एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जिसका निर्धारण नाटक की संरचना, संवाद, अभिनय आदि से होता है। भाषा की सहजता, संप्रेषण शक्ति और विषय-वस्तु की दृष्टि से नुक्कड़ नाटककमजोर नहीं हैं, परन्तु प्रस्तुतिकरण में जिस गति का महत्त्व होता है उसका इनके कुछ नाटकों में अभाव है। हिंदी साहित्य में बहुत अच्छे नुक्कड़ नाटकों का अभाव है। चंद्रकिरण जितना सफल उपन्यासकार और कहानीकार हैं, संभवतः उतना सफल नुक्कड़ नाटककार नहीं हैं। बावजूद अपने समय में उपस्थित विभिन्न समस्यायों को आधार बनाकर उन्होंने बेहतरीन नुक्कड़ नाटक लिखें।

संदर्भ :
[1] विनय, अश्विनी पाराशर (संपा),दीर्घा, उत्कर्ष प्रतिष्ठान, लखनऊ, सितम्बर, 1985,पृ.19
[2] कुसुमलता मलिक, हिंदी रंग आंदोलन तथा हबीब तनवीर,स्काई बुक इंटरनेशनल, 2011, पृ.19
[3] प्रज्ञा, नुक्कड़ नाटक रचना और प्रस्तुति, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय नई दिल्ली, 2006 पृ.16
[4] वही, पृ.16-17         
[5] चन्द्र किरण सौनरेक्सा,पीढ़ियों के पुल तथा नुक्कड़ नाटक, अंतरा प्रकाशन, प्र.सं. 2008, पृष्ठ 9
[6] वही, पृष्ठ 11
[7] वही, पृ.18
[8] वही, पृ. 113
[9] वही, पृ. 99
[10] वही, पृ. 95-97
[11] वही, पृ. 64
[12] वही,पृ. 111
[13] वही, पृ. 83
[14] वही, पृ. 19
[15] वही पृ. 35-36
[16] प्रज्ञा, नुक्कड़ नाटक रचना और प्रस्तुति, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली, 2006, पृ. 76

डॉ. मिथिलेश कुमारी
जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली से हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट
maybemithil@gmail.com, 8851973012

  अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati)
चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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