- नीरज
बीज शब्द : हिंदी, पहली, आलोचना, समालोचना, टीका, नाटक, भारतेन्दु, बालकृष्ण भट्ट, परंपरा, पश्चिम, भारतीय।
मूल आलेख : हिंदी जगत में यह सर्वस्वीकृत मान्यता है कि हिंदी आलोचना का विकास आधुनिक काल में गद्य के विकास के साथ हुआ। हिंदी आलोचना पर केंद्रित जो भी पुस्तकें मौजूद हैं उनमें हिंदी आलोचना का विकास भारतेंदु युग से ही माना गया है। प्रश्न यह है कि हिंदी साहित्य की रचनाएँ तो नवीं-दसवीं सदी से ही लिखी जाने लगी थी। जिनका उल्लेख हमें हिंदी साहित्य के अनेक इतिहासों में देखने को मिलता है। ऐसे में एक सहज जिज्ञासा मन में उठती है कि इतनी प्राचीन साहित्य परम्परा में आख़िर आलोचना का विकास उन्नीसवीं सदी से क्यों हुआ? क्या हजार साल तक सिर्फ रचनाएँ होती रहीं और उन पर प्रतिक्रयाएँ (यदि उसे प्रतिक्रिया मानें तो) नहीं होती थी? यदि रचना और आलोचना दोनों साथ-साथ चलने वाली प्रक्रियाएँ हैं तो फिर ऐसा क्यों हुआ होगा कि हिंदी साहित्य के आदिकाल से आधुनिक काल के भारतेंदु युग तक लोग सिर्फ रचनाएँ पढ़ते और सुनते रहे और उनपर प्रतिक्रियाएँ देने से परहेज करते रहे? भला ऐसा कैसे संभव है?
इस तथ्य के अलावा दूसरी तरफ़ एक अन्य तथ्य यह है कि हिंदी की स्रोत भाषा-संस्कृत में आलोचना की एक समृद्ध परम्परा दिखलाई पड़ती है। संस्कृत में ग्रंथों की टीकाएँ अथवा भाष्य लिखने की प्राचीन परंपरा रही है। संस्कृत के लगभग सभी महान ग्रंथों की कई-कई टीकाएँ उपलब्ध हैं। इन टीकाओं में कविताओं की विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएँ तो की ही जाती थीं, इसी बहाने टीकाकार कवि की काव्य-कला पर सटीक और आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी कर करते थे। हकीकत तो यह है कि संस्कृत के कई ऐसे महाकवि या आचार्य हैं जिनके साहित्य का अर्थग्रहण, सहृदय पाठकों को तभी हुआ जब अनेक व्याख्याकारों ने उनपर भाष्य लिखे। कालिदास के भाष्यकार मल्लिनाथ ने तो कहा ही है कि कालिदास की वाणी बिना भाष्य के ‘दुर्व्याख्याविषमूर्छिता’ हो गई थी। मल्लिनाथ ने उसका भाष्य लिखकर उसे सहृदय पाठकों के लिए सुगम बनाया। आखिर आलोचक का काम भी तो यही है! श्यामसुंदर दास लिखते हैं- “साहित्य के क्षेत्र में ग्रंथ को पढ़कर उसके गुणों और दोषों का विवेचन करना और उसके सम्बंध में अपना मत प्रकट करना ही आलोचना कहलाता है।”[1]
कालिदास की तरह ही एक अन्य उदाहरण आनंदवर्धन का भी है, जिनके महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘ध्वन्यालोक’ से सामान्यजन लगभग सौ वर्ष तक अपरिचित रहा। इस ग्रंथ का महत्त्व लोगों को तब समझ में आया जब अभिनव गुप्त ने उसकी 'ध्वन्यालोकलोचन' नाम से टीका लिखी। इस प्रकार संस्कृत साहित्य में एक-एक ग्रंथ के कई-कई भाष्य हमें देखने को मिलते हैं, और इसकी वहाँ एक सुदृढ़ परम्परा भी दिखाई देती है। संस्कृत में टीकाओं के अनेक नाम और रूप प्रचलित थे जैसे- तिलक, लोचन, भाष्य, कारिका, फक्किका आदि। टीकाओं में काव्य विषय की व्याख्या के साथ ही काव्य सौंदर्य का उद्घाटन भी किया जाता था और दोष का निरूपण भी। ये टीकाएँ गद्य और पद्य दोनों रूप में लिखी जाती थी।
हिंदी आलोचना की शुरुआत को लेकर विद्वानों में मुख्यतः दो धड़े हैं। एक मानता है कि हिंदी आलोचना का उद्भव उसकी अपनी स्वाभाविक विकास प्रक्रिया का परिणाम है वहीं दूसरे धड़े का मानना है कि यह पश्चिम से आयातित एक विधा है। यह विवाद बहुत कुछ ‘भक्तिकाल’ और ‘छायावाद’ जैसा ही लगता है। पहले मत के विद्वानों का मानना है कि जिस प्रकार संस्कृत में टिकाएँ लिखी जाती थी उसी तर्ज़ पर हिंदी में भी आलोचना शुरुआत हुई। पहले मत को मानने वाले विद्वान हिंदी आलोचना के आरम्भ को आदिकाल से जोड़कर देखते हैं। इस मत को मानने वाले आलोचकों में विश्वनाथ त्रिपाठी भी शामिल हैं, जो यह कहते हैं कि- “आलोचना उन विधाओं में से है जो पश्चिमी साहित्य की नक़ल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण जन्मी और विकसित हुई है।”[2] आदिकालीन आलोचना के सम्बन्ध में शिवदत्त शर्मा लिखते हैं कि- “उनका (आदिकालीन आलोचना) अवमूल्यन कदापि नहीं किया जा सकता है क्योंकि भावी आलोचना के विशाल प्रसाद की नींव के रूप में उसका काफ़ी महत्त्व है। यह सत्य है कि आदिकालीन और भक्तिकालीन रचनाओं में किसी स्वतंत्र चिंतन के संकेत नहीं मिलते, परंतु कुछ कवियों की रचनाओं में उनकी आलोचनात्मक दृष्टि तथा काव्य सिद्धांत सम्बंधी विचार अवश्य मिलते हैं।”[3] ऐसे ही कुछ उदाहरणों के रूप में हम विद्यापति और के निम्न उदाहरणों को देख सकते हैं। विद्यापति की आलोचना (पंद्रहवीं शताब्दी) इस प्रकार की आलोचना का एक सुंदर उदाहरण है -
ओ परमेसर हर सिरकोई, इ गिच्चइ नाउर मन मोहई।।[4]
[अर्थात काव्य तो लोक- हृदय के लिए आह्लादकारक वस्तु है, दुर्जनों के उपहास से उसकी आभा कभी मलिन नहीं पड़ सकती।]
इसके कुछ समय बाद भक्तिकालीन आलोचना के कुछ उदाहरण भी देखने को मिलते है। जहाँ कोई स्वतंत्र ग्रंथ तो नहीं लिखा गया किंतु फिर भी रचनाकारों के मध्य काव्य-सिद्धांत सम्बंधी चिंता अवश्य दिखाई देती है -
कीरति भनिति भूति भली सोई, सुरसरि सम सब कहँ हित होई।[5]
[तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि, कीर्ति, कविता और संपत्ति वही उत्तम है जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाला हो।]
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।[6]
[शब्द और अर्थ के बीच संबंधों को लेकर तुलसीदास जी कहते हैं कि- वाणी और उसका अर्थ केवल कहने के लिए भिन्न है वास्तव में वे अभिन्न (एक) है जैसे जल और उसकी लहर का संबंद्ध है।]
3. दो कवियों के बीच तुलना के कुछ उदाहरण भी देखने को मिलते है। भिखारीदास द्वारा किया गया तुलना का एक ऐसा ही प्रसिद्द उदाहरण है -
तुलसीगंग दुवौ भये सुकविन के सरदार। [7]
इसके बाद रीतिकाल में भी आरम्भिक आलोचना के कुछ सूत्र उदाहरणस्वरुप देखने को मिलते हैं। जहाँ आलोचना का थोड़ा विकसित रूप हमें दिखलाई देता है। इस काल में प्राय: आलोचक और कवि दोनों एक ही व्यक्ति होते थे, जिन्हें आचार्य-कवि की संज्ञा दी जाती थी। इन्होंने बड़ी संख्या में लक्षण ग्रंथ लिखे। उदाहरण के लिए केशव की ‘रसिकप्रिया’, ‘कविप्रिया’; चिंतामणि की ‘कवि कल्पतरु’, ‘रसमंजरी’; देव के ‘रसविलास’, ‘भावविलास’, ‘शब्दरसायन’ आदि। इस काल की आलोचना के कुछ नमूने निम्न हैं -
* * *
सतसैया के दोहरे ज्यों नावक के तीर।
देखन में छोटे लगे घाव करे गम्भीर।।
* * *
सूर- सूर तुलसी ससी उड्गन केसवदास।
अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकाश।।
इस दौर की आलोचना को लेकर विश्वनाथ त्रिपाठी का मानना हैं कि- “ये लक्षण ग्रंथ रसवादी दृष्टि से लिखे गये थे और उस रसयुक्त वाक्य को ही काव्य मानते थे- ‘वाक़्यम रसात्मकम काव्यम्’। इस काल की जो रितिबद्धता काव्य के क्षेत्र में दिखलाई पड़ती है वही आलोचना के क्षेत्र में भी। जो एकांगिकता और संकीर्णता काव्य के क्षेत्र में दिखाई पड़ती है वही काव्यशास्त्रीय विवेचन में भी। जीवन का ताज़ा यथार्थ किसी में नहीं है।”[8] किंतु फिर भी हिंदी आलोचना के विकास में इसके महत्त्व को नज़रंदाज नहीं किया जा सकता। इसी विचार से सहमत होते हुए डॉ. अमरनाथ लिखते हैं कि, “भारतेंदु काल के आरम्भ से पूर्व हमें हिंदी आलोचना के तीन रूप प्राप्त होते हैं- (क) लक्षण- ग्रंथों की रचना और उनके आधार पर अलंकार आदि का उदाहरण प्रस्तुत करना, (ख) टीका पद्धति और उसमें कवि के विषय में प्रशंसात्मक उक्तियाँ और (ग) सूक्तियाँ के रूप में कवि से सम्बन्धित उक्तियाँ।”[9]
इसके साथ-साथ दूसरी ओर कुछ विद्वानों का मानना है कि अनेक गद्य विधाओं की तरह ही हिंदी आलोचना का शुभारम्भ भी भारतेंदु युग अर्थात पुनर्जागरण काल से ही होता है। इस पक्ष के विद्वानों का मानना है -
“वस्तुतः हिंदी आलोचना का सूत्रपात ही भारतेंदु हरिश्चंद्र के लम्बे निबंध ‘नाटक’ (1883) से हुआ। तब से यह प्रवाह अबाध गति से चला आ रहा है।”[10]
“हिंदी में शुद्ध व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात भारतेंदु युग में, गद्य के विकास के साथ-साथ प्राप्त होता है। इसके पूर्व हिंदी आलोचना के जो रूप प्रचलित थे उसका श्रेय संस्कृत साहित्य को जाता है।”[11]
“हिंदी साहित्य के विकास के प्रथम दो युगों- आदिकाल और भक्तिकाल में हिंदी के आचार्यों द्वारा साहित्य समीक्षा सिद्धांतों का विकास नहीं हुआ। बल्कि ये आचार्य कवि संस्कृत काव्यशास्त्र से ही प्रेरणा लेते रहे।”[12]
स्पष्ट है कि हिंदी साहित्येतिहास में आलोचना के आरम्भ को लेकर काफी विचार-विमर्श हुआ है। इतना ही नहीं आधुनिक काल से हिंदी आलोचना की शुरुआत मानने वाले विद्वान भी किसी एक रचना को लेकर एकमत नहीं है। कुछ भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध तो कुछ बालकृष्ण भट्ट के ‘सच्ची समालोचना’ को हिंदी की पहली आलोचना मानते हैं। किंतु हमारी दृष्टि में हिंदी आलोचना की वास्तविक शुरुआत भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध से होती है। क्योंकि इसके पहले की पूरी आलोचकीय परम्परा में आलोचनात्मक मूल्यों का गहरा अभाव दिखाई देता है। उसका स्वर बहुत कुछ आदिकालीन रासो काव्य की तरह प्रशंसात्मक है। उसमें तत्कालीन जीवन और यथार्थ का स्पर्श महसूस नहीं होता। ऐसा लगता है जैसे वह किसी दूसरे लोक से उधार ली गयी आलोचना हो। वहीं दूसरी तरफ़ भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध का कथ्य और उसकी भाषा जीवन से संवाद करती मालूम होती है। वह अपने समय की ज़रूरतों से निर्मित हुई आलोचना है। “वहाँ होता है इसलिए यहाँ भी होना चाहिए’- इस विचार की भावना से वशीभूत होकर भारतेंदु ने ‘नाटक’ पर अपने विचार प्रकट नहीं किए हैं। ‘हिंदी के नाटकों का स्वरूप कैसा होना चाहिए’ इसका ध्यान रखकर उन्होंने आपे विचार प्रकट किए हैं। विचारों के इस प्रकटीकारण को ही हम हिंदी आलोचना का आरम्भ मान सकते हैं। भारतेंदु ने नाटक सम्बंधी विचार नाटककर की हैसियत से व्यक्त किए हैं, समीक्षक या आलोचक की हैसियत से नहीं। वे लेख में आद्यांत रचना पर बल देते हैं और नाटककर को किन बातों पर ध्यान देना उचित है यह बताते रहते हैं। इस लेख में उनके सर्जक का चिंतक रूप प्रकट हुआ है।”[13] यहाँ त्रिपाठी जी जिस ‘सर्जक के चिंतक रूप’ की बात कर रहे हैं, अभी तक की हिंदी आलोचना उस चिंतन पक्ष से शून्य थी। भारतेंदु ने मानो इसमें प्राण डाल दिया हो।
भारतेंदु ने नाटक पर विचार करते समय उसकी प्रकृति, समसामयिकता, जनरुचि एवं प्राचीन नाट्यशास्त्र की उपयोगिता पर भी विचार किया है। उन्होंने बदलती हुई जनरुचि के अनुसार नाट्य रचना में परिवर्तन करने पर विशेष बल दिया है। यहाँ आए ‘जन’ शब्द की अलग-अलग विद्वानों ने अपने ढंग से व्याख्या की है। इसी जनरुचि को आगे चलकर बालकृष्ण भट्ट ने ‘जनसमूह के हृदय का विकास’ और रामचंद्र शुक्ल ने ‘संचित चित्तवृत्तियों का विकास’ कहा है, जोकि अपने समय की ज़रूरतों के अनुरूप बदलती रहती है। भारतेंदु लिखते हैं कि, “जिस समय में जैसे सहृदय जन्म ग्रहण करें और देशीय रीति-नीति का प्रवाह जिस रूप में चलता रहे, उस समय में सहृदय के अंत:करण की वृत्ति और सामाजिक रीति पद्धति इन दोनों विषयों की समीचीन समालोचना करके नाटक आदि दृश्य काव्य का प्रणयन करना योग्य है।”[14] यहाँ भारतेंदु आलोचना के लिए किसी भी प्रकार के जड़ नियमों व सिद्धांतों की बात नहीं करते, बल्कि वे सदा परिवर्तनशील सहृदय के अंत:करण और सामाजिक रीति की बात करते है। परिवर्तनशीलता जीवित होने की प्राथमिक शर्त है।
भारतीय आलोचना की शब्दावली में ‘रस’ काफ़ी परिचित और भारी शब्द है। इसकी अनेक विद्वानों ने अपने ढंग से व्याख्या की है। इस पर भारतेंदु ने भी विचार किया है। भारतेंदु की दृष्टि में रस का अर्थ उसकी उपयोगिता से है। उनकी दृष्टि से साहित्य में यदि कोई चीज़ स्थिर/शाश्वत है तो वह ‘रस’ है। इसके लिए विधा की भाषा, रूप, शैली आदि को भी बदला जा सकता है। भारतेंदु का मानना है -
बात अनूठी चाहिए, भाषा कोउ होय।।[15]
भारतेंदु हरिश्चंद्र रस के साथ ही अनुभव को भी महत्त्व देते हैं। उनकी दृष्टि में ऐसा रस जो अनुभव-सिद्ध न हो, किसी काम का नहीं। “वाह वाह! रसों का मानना भी वेद के धर्म का मानना है कि जो लिखा है वही माना जाए और इसके अतिरिक्त करे तो पतित होय। रस ऐसी वस्तु है जो अनुभव सिद्ध है। इसके मानने में प्राचीरों (चहारदीवारी) की कोई आवश्यकता नहीं, यदि अनुभव में आवे मानिए, न आवे न मानिए।”[16]
इसे ही आगे चलकर बालकृष्ण भट्ट ने लिखा की ‘वेद जिन महापुरुषों के हृदय का विकास थे वे अब नहीं रहे, अब का साहित्य तो जनसमूह के हृदय का विकास ही है।’ अनुभव की प्रामणिकता को ध्यान में रखकर ही महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कहा था- “चीनी से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षु से लेकर राजा पर्यन्त मनुष्य, बिंदु से लेकर समुद्र पर्यन्त जल, अनंत आकाश, अनंत पृथ्वी, अनंत पर्वत सभी पर कविता हो सकती है।”[17] इसे ही रामचंद्र शुक्ल ने नयी शब्दावली गढ़कर ‘लोकमंगल की साधनावस्था’ कहा है। भारतेंदु द्वारा अपने निबंध में इस प्रकार के संकेत, आलोचना को अपने युग के अनुरूप गढ़ने की कोशिश नहीं तो और क्या है!
लेकिन जब हम भारतेंदु कृत 'नाटक' को हिंदी की पहली आलोचना मानते हैं तो हमें बच्चन सिंह जैसे प्रतिष्ठित आलोचकों के मत का भी स्मरण होना चाहिए जो कहते हैं कि हिंदी की पहली आलोचना भारतेन्दु कृत 'नाटक' नहीं बल्कि बालकृष्ण भट्ट द्वारा रचित 'सच्ची समालोचना है। बच्चन सिंह लिखते हैं कि, “यों सैद्धांतिक आलोचना के नाम पर भारतेन्दु ने नाटक पर एक निबंध लिखा था और प्रेमघन ने बाणभट्ट पर एक भावुकतापूर्ण प्रशस्तिमूलक लेख; किन्तु वास्तविक आलोचना का समारम्भ बालकृष्ण भट्ट के निबंधों से होता है। भट्ट जी हिंदी के पहले आलोचक हैं और 'संयोगिता स्वयंवर' पर लिखी गयी उनकी आलोचना पहली आलोचना(1886) है।”[18]
यहाँ ध्यातव्य है कि बच्चन सिंह भारतेन्दु कृत 'नाटक' के ऐतिहासिक महत्त्व को तो स्वीकार करते हैं, लेकिन उसे हिंदी की पहली आलोचना नहीं मानते है। संभवत: बच्चन सिंह इस निर्णय तक इसलिए पहुंचे होंगे क्योंकि वे आलोचना को उसकी ‘उपादेयता और इतिहास-बोध’ की तुला पर तौल कर देखते है। आलोचना का उद्देश्य या उसकी सार्थकता क्या है? इसे समझाते हुए बच्चन सिंह बालकृष्ण भट्ट के उसी निबंध से एक वाक्य उद्धृत करते है कि, "जो जाति जिस समय जिस भाव से परिपूर्ण या परिलुप्त रहती है वे सब भाव उसके उस समय के साहित्य की समलोचना से अच्छी तरह प्रकट हो सकते है।"[19] बालकृष्ण भट्ट के इस वाक्य पर टिप्पणी करते हुए बच्चन सिंह आगे लिखते हैं कि- "स्पष्ट है बालकृष्ण भट्ट आलोचना को इतिहास से सम्बद्ध प्रासंगिकता से संदर्भित करके देखना चाहते हैं। 'रणधीर प्रेममोहिनी' नाटक को ट्रेजेडी कहना उनकी नाटक संबंधी आलोचकीय समझदारी का सूचक है। नाटक और कथा-साहित्य की आलोचना के लिए अंग्रेजी साहित्य के आधार पर जो कथानक, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि प्रतिमान बने, उनका प्रयोग भट्ट जी ने 'संयोगिता स्वयंवर' की आलोचना में किया है।"[20]
निष्कर्ष : यह सही है कि हिंदी आलोचना का जो स्वरुप आज हमें देखने को मिलता है वह बहुत कुछ बालकृष्ण भट्ट की 'सच्ची समालोचना' के अनुरूप है, जिसकी ओर बच्चन सिंह जी अपने इतिहास ग्रन्थ में संकेत भी किया है। लेकिन इससे भारतेन्दु कृत ‘नाटक’ नामक आलोचनात्मक निबंध का ऐतिहासिक महत्त्व कम नहीं हो जाता है। हमें भारतेन्दु की इस रचना को आलोचना की एक विकसित विधा की तरह नहीं देखना चाहिए बल्कि उसे आरम्भिक प्रयासों के रूप में एक प्रस्फुटन की तरह देखना चाहिए। इस प्रकार भारतेन्दु की रचना 'नाटक' का अपना एक स्थायी महत्त्व है। इस दृष्टि से भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध को हिंदी की प्रथम आलोचना का उदाहरण माना जा सकता है।
[1] डॉ. श्यामसुंदर दास, सहित्यलोचन, लोकभारती प्रकाशन (2017), नई दिल्ली, पृ. सं.193.
[2] विश्वनाथ त्रिपाठी, हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (2018), पृ. सं.17.
[3] डॉ. शिवदत्त शर्मा, International journal of applied research, (2016), पृ. सं. 79.
[4] रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण 2014, पृ. सं. 24.
[5] हनुमानप्रसाद पोद्दार(टीकाकार), रामचरितमानस, गीताप्रेस गोरखपुर, गोरखपुर, संस्करण 2018, पृ. सं. 18.
[6] हनुमानप्रसाद पोद्दार(टीकाकार), रामचरितमानस, गीताप्रेस गोरखपुर, गोरखपुर, संस्करण 2018, पृ. सं. 23.
[7] रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण 2014 , पृ. सं. 159.
[8] विश्वनाथ त्रिपाठी, हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन (2018), नई दिल्ली, पृ. सं. 16.
[9] डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन (2018), नई दिल्ली, 68.
[10] रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन (2016), नई दिल्ली, पृ. सं. 228.
[11] डॉ. अमरनाथ, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन (2018), नई दिल्ली, पृ. सं. 67.
[12] रामचंद्र तिवारी, हिंदी साहित्य का गद्य इतिहास, वाराणसी, (2016), पृ. सं. 113.
[13] विश्वनाथ त्रिपाठी, हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (2018), पृ. सं. 20.
[14] विश्वनाथ त्रिपाठी, हिंदी आलोचना, राजकमल प्रकाशन, (2018), नई दिल्ली, पृ. सं. 18.
[15] भारतेन्दु हरिश्चंद्र, कर्पूर मंजरी, हिंदी समय, 09.05.2023
भारतेंदु हरिश्चंद्र :: :: :: भारतदुर्दशा :: नाटक (hindisamay.com)
[16] रामचंद्र तिवारी, हिंदी साहित्य का गद्य इतिहास, वाराणसी, (2016), पृ. सं. 115.
[17] रामचंद्र तिवारी, हिंदी साहित्य का गद्य इतिहास, वाराणसी, (2016), पृ. सं. 117.
[18] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, नौवां संस्करण, 2017, पृ. सं. 304.
[19] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, नौवां संस्करण, 2017, पृ. सं. 305.
[20] बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, नौवां संस्करण, 2017, पृ. सं. 305.
पीएचडी शोधार्थी, दिल्ली विश्वविद्यालय नई दिल्ली-110007
9716632367
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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