- डॉ. डब्ल्यू. मायादेवी
शाम के 5:00 बज रहे थे और रवि नायक जल्दी-जल्दी कक्षा की ओर आ रहा था। कक्षा में आया तब शैला जोशी मैडम क्लास ले रही थीं। उसने आकर मैडम से कहा– “माया को प्रिंसिपल कुलकर्णी सरबुला रहे हैं।” मैं थोड़ा विचार में पड़ गई। आखिर सर ने क्यों बुलाया होगा, यह प्रश्न मेरे सामने खड़ा था और मैं प्रिंसिपल सर के ऑफिस में चली गई। जाते ही सर ने मेरा परिचय दादागाँवकर सर से कराया। कहा- “यह लड़की आदिलाबाद ज़िले के इंद्रावेल्ली गाँव की है, जो बहुत पिछड़ा एरिया है और वहाँ से यह लड़की पढ़ने के लिए यहाँ आई है। घर की बहुत ग़रीब है लेकिन यहाँ पर सोशल वेलफेयर हॉस्टल में रहकर पढ़ती है। बहुत मेहनती है, दिनभर प्रिंटिंग प्रेस में काम करती हैं और शाम को अपने कॉलेज में पढ़ने आती है। हर वर्ष कॉलेज में भी फर्स्ट आती है इसलिए मेरा विचार है कि आप इसका एडमिशन हैदराबाद विश्वविद्यालय में कराइए। उस समय मैं डिग्री के अंतिम वर्ष में पढ़ रही थी। उस यूनिवर्सिटी की जानकारी माया को नहीं है इसलिए आप उसकी जानकारी माया को दे दीजिए। वह भविष्य में बहुत आगे जाएगी यह मेरा विश्वास है इसका मार्गदर्शन करना हमारे लिए आवश्यक है।” ऐसा कहकर सुरेश कुलकर्णी सर ने उमा दादागाँवकर सर से मेरा परिचय कराया। यह सुनने के बाद दादागाँवकर सर को भी लगा कि इस लड़की की मदद करनी चाहिए और उन्होंने M. A. हिंदी प्रथम वर्ष के प्रवेश के लिए कैसे अप्लाई करना इसकी जानकारी दी। वर्ष 2000 में मैंने एम. ए. प्रथम वर्ष हिंदी के लिए अप्लाई किया। एडमिशन फॉर्म हैदराबाद विद्यालय के एडमिनिस्ट्रेशन बिल्डिंग से लिया। उस समय मैंने वहाँ के कैंपस को देखा तो मुझे में बहुत आनंद हुआ क्योंकि मुझे एक ऐसी जगह पढ़ने का अवसर मिलेगा, इस बात की बहुत ख़ुशी हो रही थी। मैंने पहली बार इतने बड़े कैंपस को देखा था। मेरा मन ख़ुशी के मारे झूम उठा था और मैं सपना देख रही थी क्योंकि हमारे घर में कोई भी पढ़ा-लिखा न था। मैं अपने घर की पहली पीढ़ी की दलित, ग़रीब घर से, एक छोटे गाँव इंद्रवेल्ली, ज़िला आदिलाबाद, तेलंगाना से पढने वाली लड़की थी। जिसने कभी यूनिवर्सिटी नहीं देखी थी।
यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिलने वाला था जिसे मैंने कभी सोचा भी नहीं था। 2500 एकड़ ज़मीन पर बनी हुई यूनिवर्सिटी मैंने अपने जीवन में पहली बार देखी थी। जिसे देखकर मुझे लगा था कि यह स्वर्ग है और मैंने M. A. हिंदी में प्रवेश पाने के लिए जो एंट्रेंस लिखा, उसका रिजल्ट आया मैं अच्छे अंको से पास हो गई थी। मुझे रहने के लिए एल. एच. 1 हॉस्टल में एडमिशन मिला थाl लेडीज हॉस्टल में मुझे एल. एच. 1 कमरा 109 दिया गया। जिसमें और एक सीनियर दीदी सुशीला को रखा गया था। वे केमिस्ट्री डिपार्टमेंट की थीं। मैं कमरे में गई और देखा वहाँ पर दो बेड डाले गए थे। दो कबोर्ड थे। मैंने पूरे रूम को देखा और ख़ुश हुई क्योंकि मैंने अपने इंटर और डिग्री की पढ़ाई सोशल वेलफेयर हॉस्टल में की थी। जहाँ पर एक रूम में 10-10 लड़कियों को रहना पड़ता था लेकिन यहाँ तो केवल दो लड़कियों को ही रूम दिया गया था। फिर भी मैं दुखी हुई। ख़ुशी और दुख के दौर से मैं गुजर रही थी क्योंकि मेरे साथ जो सुशीला दीदी थी वह घर की अच्छी थी, परिवार से संपन्न थी। इसलिए उसके बेड पर जो गद्दी डाली गयी थी, वह महँगी और बहुत अच्छी थी। उसके पास कई सारे कपड़े थे। कई सारे चप्पल थे। उसका बकेट, उसका सामान, सब कुछ बहुत महँगा और अच्छा था। उसकी तुलना में मेरे पास कुछ भी नहीं था। मेरे पास ठीक से गद्दी भी नही थी। मैंने अपने कॉलेज हॉस्टल से लाई चद्दर को ही बेड पर डाला था। जिसे डालने के बाद मैं ख़ूब रोई थी। ठीक से कपड़े भी नही थे। मेरे पास केवल दो-तीन जोड़े कपडे ही थे। अन्य सामान भी ठीक से नहीं था और यह सब देखकर मैं बहुत दुखी होती थी। मेरे पास कुछ भी सामान ना होने के कारण मन के अंदर एक दुख और वेदना हो रही थी। लग रहा था यह ग़रीबी-अमीरी इतनी क्यों है? अपने हिस्से में इतनी ग़रीबी क्यो…? मेरे पास पैसों का अभाव होने के कारण बाहर का कुछ खाती-पीती नहीं थी। क्योंकि बाहर जो है मिर्ची, समोसा, चाय इस प्रकार के जो भी नाश्ते की चीज़ें होती थीं, वो लेने के लिए भी मेरे पास पैसे नहीं होते थे इसलिए मैं हॉस्टल में ही कच्ची सब्जियाँ लाकर अलग से बिजली के एक चूल्हे पर पकाती थी। वहाँ का खाना अच्छा होता था। सब्जियाँ उतनी अच्छी नहीं होती थी। खाकर मन भरता नहीं था इसलिए मैं टमाटर, प्याज, तेल, नमक सब कुछ वहाँ के पकानेवाले अकंल से माँगती थी। शाम के समय थोड़ी-सी सब्जी बना लेती थी जिसमें मेरे क्लास की मेरी मित्र मल्लेश्वरी, अल्ताफ बानू, हसीना, पद्मा, कृष्णवेणी, कविता दीदी, सौजन्या दीदी, शोभा दीदी, और अन्य लोग भी आते थे और हम सब मिलकर हॉस्टल में खाना खाते थे। हॉस्टल के पास कैंटीन था जिसमें लड़कियाँ आलू-पराठा, चपाती या करी खरीदकर खाती थी लेकिन वहाँ से भी मैं यह सारा लेकर कुछ नहीं खाती थी क्योंकि हरदम पैसे की कमी होती थी।
क्लास की लडकियों के पास साइकिल भी होती थी जिससे वे हॉस्टल से कॉलेज जाती थी। लेकिन मेरे पास साइकिल भी नही थी तो मैं पैदल ही चली जाती थी। हॉस्टल में सभी के माँ-पिता हर दो-तीन, छह महीने में एक बार मिलने के लिए आते थे लेकिन पूरे सात साल में मेरे पिता जी और माँ एक बार मिलने आए थे। मैं ही जब गाँव जाना होता था, जाकर आती थी। अन्य लोगों के माँ-बाप मिलने के लिए जब आते थे तब मुझे मेरे माँ-बाप की बहुत याद आती थी। लेकिन वे आ नही पाते थे। मैं बहुत समझदार थी शायद इसलिए हमेशा मैंने अपने छोटी बहनों को खुद से ज़्यादा प्यार किय़ा। हम पाँच बहनें और एक भाई हैं। घर में सबसे बड़ी होने के कारण शायद बचपन से मैं बहुत समझदार थी। मैंने कभी भी अपने माँ-बाप को सताया नहीं। कभी कुछ माँगा नहीं क्योंकि घर की ग़रीबी के कारण मेरे पिताजी रघुनाथ सेठ की दुकान पर हमाली का काम करते थे और मेरी माँ खेत पर काम करती थी। स्कूल जाते समय पिताजी को जब काम करते हुए देखती थी तो मेरा मन भर आता था। पहले एक-एक क्विंटल के थैले (बोरियाँ) होते थे। मेरे पिताजी उसे अपने पीठ पर उठाते थे उस दृश्य को देखने के बाद कई बार मेरी आँखों में पानी आ जाता था और मैं रोती थी। मेरे पिताजी हम लडकियों से बहुत प्यार करते थे। उनकी मेहनत को देखकर मैं कभी पिताजी से कुछ नहीं माँगती थी लेकिन वे हर समय मेहनत कर हमारी ज़रूरतों को पूरा करते थे। इसी कारण मैं जब यूनिवर्सिटी में थी तब भी पिताजी को कष्ट नहीं देती थी। समय के पहले ही समय ने मुझे समझदार बना दिया था।
घर पर बात करने के लिए एस. टी. डी. बूथ से फोन करना पडता था। उस समय मिनट के हिसाब से ज़्यादा बिल आता था। तब मैं गाँव ज़्यादा फोन ही नही करती थी क्योंकि घर में भी फोन नही था। गाँव में एक ज्ञानेश्वर मामा की दुकान थी। कभी अर्जेंट कुछ रहा तो मामा को सुबह फोन करके बता देती थी - “मामा आज माँ-पिता जी को रात में आपके पास आने के लिए बोलिए। मुझे बात करनी है।” तब वे मेरे माँ-पिताजी को किसी को भेजकर बुलाते थे और मैं बात करती थी। तब बहुत आनंद होता था। बाद में सेल फोन आ गए थे। लेकिन उस समय भी मेरे पास फोन का अभाव ही रहा। अन्य लड़कियों के पास मोबाईल फोन देखकर लगता कि अपने पास भी फोन होना चाहिए।
इन सारी कमियों के बावजूद मुझे यूनिवर्सिटी अपनी माँ जैसी लगती थी क्य़ोंकि वहाँ बहुत मन लगता था। जहाँ मेरा कमरा था उसके बिलकुल सामने ही सुबह-सुबह कभी मोर आ जाते तो कभी हिरण आ जाते थे। सुबह-सुबह की चहचहाट मेरे मन को बहुत भाती थी। मैं कभी-कभी ध्यान भी करती थी। मैंने दो बार ध्यान के शिविर किए थे। इस कारण ध्य़ान करना मुझे अच्छा लगता था। वह भी मेरे पढाई के समय बहुत काम आया था। अपने जीवन में मै बाबासाहब और गौतम बुद्ध, महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले इन्हीं को मानती थी इसलिए बुद्ध के विचारधारा से भी प्रभावित थी।
हमारी एम. ए. हिंदी की क्लासेस पहले पुरानी बिल्डिंग में होती थी और वहाँ हॉस्टल से जाने के लिए बहुत समय लगता था लेकिन मैं पैदल ही चली जाती थीl क्लास और कॉलेज का माहौल बहुत ही सुंदर था। एम. ए. का जो सिलेबस था, उसमें मेरा मन अधिकतर आधुनिक काल के साहित्य में ही लगता थाl अगर आदिकाल, मध्यकाल या रीतिकाल की बात की जाए तो मुझे मध्यकाल में कबीर, रविदास, गुरु नानक इत्यादि संत ज़्यादा पसंद आते थेl सबसे ज़्यादा प्रिय कबीर दास रहे क्योंकि कबीर दास को डॉ. बाबा साहेब आंबेडकर ने भी अपना गुरु माना थाl बाबा साहब ने अपने जीवन मे तीन को गुरु माना थाl जिनमें महात्मा गौतम बुध्द, महात्मा ज्योतिबा फुले और कबीर दास थे। कबीर की जो विचारधारा थी वह यथार्थ परक विचारधारा होने के कारण, कबीर में विज्ञान वादी दृष्टिकोण अधिकतर दिखाई देने के कारण, कबीर मन को ज़्यादा छूनेवाले संत दिखाई देते हैंl बाह्य अडंबर पर कबीर ने जो चोट की वह मन को ज़्यादा पसंद आती थी। इस समाज में जातियता होने के कारण उसके अन्याय, अत्याचार से भी हम लोगों को गुज़रना पड़ा था, गुज़र रहे हैं इसलिए जाति-व्यवस्था पर कबीर ने जो प्रहार किया वह मन को ज्यादा भाता था, पसंद आता थाl इस कारण मध्यकाल में सर्वाधिक लोकप्रिय मेरे कबीर ही रहे है। कबीर को हमने प्रोफ़ेसर गोपेश्वर सिंह से पढ़ा था, जिन्होंने बहुत अच्छी तरह से कबीर को समझाया थाl जो मन को शुद्ध करने वाली बातें थी वह ज़्यादा पसंद आती थी l बुद्ध की विचारधारा कबीर में दिखाई देती थी इसलिए कबीर ज़्यादा पसंद आते थेl हिंदी साहित्य के इतिहास को प्रोफ़ेसर रवि रंजन सर पढ़ाते थेl जिन्होंने बहुत अच्छी तरह से समझाने का प्रयास किया थाl उनकी क्लास में भी कई बार मेरी आँखें भर आती थींl बहुत अच्छी तरह से सर क्लासेस समझाते थे, उसमें उन्होंने कबीर को भी अच्छी तरह से समझाया थाl वैसे ही बाबा नागार्जुन भी मन को बहुत प्रभावित करते थेl उन्होंने भी सर्वहारा वर्ग की जो बात की, ग़रीबों की , किसानों की जो बात उन्होंने की, वह भी बहुत ज़्यादा पसंद आती थी और प्रगतिवाद में भी ज़्यादा मन लगा हुआ होता थाl वैसे ही आधुनिक काल में भारतेंदु युग बहुत पसंद आता था जिसमें देश भक्ति के कारण मन को छूनेवाली देशभक्ति थीl उस समय अंग्रेज़ों का शासन था और उसके विरुद्ध जो आवाज़ उठाई थी, उससे भी हम प्रभावित होते थे। यहाँ के जो धार्मिक पंडा पुजारी थे, उनको भी डांटने का काम किया वह भी ज़्यादा अच्छा लगता थाl प्रोफ़ेसर कृष्ण सर आधुनिक काल पढ़ाते थे, नवजागरण पढाते थे। जिसमें राजा राममोहन राय, एनीबेसेंट, दयानंद सरस्वती, स्वामी विववेकानंद की चर्चा होती थी। इस कारण यह विषय भी बहुत पसंद आता थाl कृष्णा सर का पढ़ाने का अंदाज़ बहुत अलग था क्योंकि उनका पढ़ाना बहुत अच्छा लगता थाl मिलनसार स्वभाव होने के कारण सारे विद्यार्थी सर की क्लास में अनेक सारी शंकाओं को पूछते थे और सर बहुत अच्छी तरह से समझाते थे इसलिए सर की क्लास में सारे लोग ख़ुश होते थेl प्रो. चतुर्वेदी सर भारतीय काव्यशास्त्र पढ़ाते थे, जो कठिन लगता था लेकिन सर ने भी हमेशा अच्छी तरह से समझाने का प्रयास किया। उन्होंने भी अपनापन बताया, अच्छा मार्गदर्शन कियाl विद्यार्थियों के साथ प्रेम भरा व्यवहार करते थेl प्रो. शशि मैडम ने भी हमें पढ़ाया है। मैडम छायावाद को बहुत अच्छे से समझाती थीं, मैडम तेलुगू भाषी थी लेकिन जब क्लास सुनते थे तो लगता था कि मुँह से मोती गिर रहे हैं। इतनी अच्छी और शुद्ध हिंदी मैडम बोलती थीं और पढ़ाती थीं। उनकी क्लास में भी हम लोगों को आनंद आता थाl उन्होंने धूमिल को पढ़ाया थाl धूमिल भी बहुत पसंद आने वाले व्यक्तित्व के धनी थेl उन्होंने शब्दों के साथ जो चमत्कार किया वह बहुत अच्छा थाl प्रो. वेंकटरमन राव सर ने हमें भाषाविज्ञान पढ़ाया इसमें भाषा का सविस्तार अध्ययन कैसे करना चाहिए उसके बारे में विस्तृत जानकारी देते थेl सर का मार्गदर्शन व्यावहारिक और शैक्षणिक रहाl बहुत सुंदर ढंग से क्लास पढ़ाते थेl प्रोफेसर श्यामराव सर ने हमें गोदान पढ़ाया था जिसमें होरी का चरित्रांकन समझाया थाl जो भारतीय किसानों का प्रतिनिधित्व करते थे। रात-दिन मेहनत करने के बाद दो वक़्त का गुजारा ठीक से नहीं कर सकतेl इसलिए प्रेमचंद बहुत पसंद आने वाले रचनाकार थे, जिन्होंने समाज के अंतिम तबके के लोगों के सुख-दुख को अपने साहित्य का नायक बनाया। एक गरीब किसान को अपने साहित्य में पहली बार स्थान दिया।
मैं जो पढ़ती थी, पूरी मेहनत और लगन से पढती थी, लगता था कि बहुत दूर से आई हूँ इसलिए पढ़ाई करना मेरा प्रथम कर्तव्य है। क्योंकि इतनी ग़रीबी में माँ-बाप ने मुझे यहाँ पर पढ़ने के लिए भेजा है तो उसका क्यों न फ़ायदा कर लें। कुछ ना कुछ बन कर जाना ही अच्छी बात है। कुछ न कुछ एक दिन अवश्य बनूँगी। यह मैंने अपने मन में ठान लिया था इसलिए मैं बहुत ही लगन से पढ़ाई करती थी। हमारा सेमेस्टर सिस्टम था तो दो साल में 4 सेमेस्टर होते थे। चारों सेमेस्टर में मेरे अंक सबसे ज़्यादा रहे इसलिए मैं क्लास में प्रथम आई और मुझे दो गोल्ड मेडल क्लास में सबसे टॉप करने के लिए व दूसरा sc-st में टॉप करने के लिए दिए गए। मेरा जन्म एक दलित परिवार में होने के कारण मैं दलित परिवार से थी इस कारण मुझे एस. सी., एस. टी. में भी गोल्ड मेडल हासिल हुआ। यह दीक्षांत समारोह हाइटेक सिटी में किया गया था जिसमें उस समय के आन्ध्रप्रदेश के गवर्नर सुशील कुमार शिंदे आए हुए थे। उनके हाथ से मुझे गोल्ड मेडल मिलने वाला था। इस बात की मुझे बहुत ज़्यादा ख़ुशी थी क्योंकि यूनिवर्सिटी जैसे लेवल पर गोल्ड मेडल हासिल करना, मेरे लिए छोटी बात नहीं लगती थी। मैने डिग्री कालेज में भी गोल्ड मेडल पाया था। प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के बावजूद भी मैंने बहुत मेहनत की थी। जिसका फल मिलने वाला है ऐसा मुझे लगता था और ऐसे शुभ अवसर पर क्यों ना मेरे माता-पिता को बुलाया जाए? ऐसा मुझे लगा और मैंने अपनी माँ और पिताजी दोनों को भी दीक्षांत समारोह के लिए बुलाया था। जिसमें हम लोगों को ग्राउंड फ्लोर के बड़े हाल में बैठने के लिए सुविधाएँ की गई थीं। जो गेस्ट आए हुए थे उन लोगों को फर्स्ट फ्लोर में बिठाया गया और उन लोगों को बड़े स्क्रीन पर दिखाया गया। गवर्नर के हाथों गोल्ड मेडल मिला, उस समय मैं बहुत ख़ुश थी और इस ख़ुशी को मेरे माँ-बाप ने भी देखा था। मेरे माँ-बाप भी उस समय बहुत ख़ुश थे। उन्हें बहुत आनंद हुआ था। हमारी बेटी को गोल्ड मेडल मिला है, करके गाँव में भी सबको बता रहे थे जब यह बात मेरे गाँव इंद्रावेल्ली में पहुँची तो वहाँ के मेरे स्कूल के हेड मास्टर थे शिवाजी सर उन्होंने उनके पाठशाला में मुझे चीफ गेस्ट के रूप में बुलाया और उसमें उन्होंने मेरा सम्मान किया। उन्होंने मेरा स्वागत किया। सभी विद्यार्थियों के सामने कहा कि सभी को माया जैसा बनना है। यह मेरे लिए बहुत गर्व की बात थी जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती। जिस समय इस गोल्ड मेडल के फ़ोटो आए थे उसे बाद में मेरे गाँव इंद्रावेल्ली के इनाडू नामक दैनिक न्यूज़ में भी डाला गया था जो उस समय चर्चा का विषय हुआ था। सारे समाज के हमारे लोग मुझे खूब सारा प्यार दे रहे थे, खूब सारी बधाई दे रहे थे यह मेरे लिए बहुत ख़ुशी की बात थी। दलित परिवार में जन्म होने के बावजूद भी हमारे हेडमास्टर जो सवर्ण समाज के हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने मुझे उत्साह दिया, प्यार दिया क्योंकि मैं स्कूल में भी अनेक सारे प्राइज जीत लेती थी, अनेक भाषण मैंने दिए थे। वाद-विवाद में भाग लेती थी, निबंध प्रतियोगिता में भाग लेती थी और इन सारी चीज़ों को शिवाजी सर ने देखा था। इसलिए सर ने मेरा सत्कार किया। एम. ए. के मेरे क्लासमेंट जो थे उनमें अल्ताफ बानू, मल्लेश्वरी, पद्मावती, कृष्णावेणी, विद्यावती, हसीना यह मेरी सहेलियाँ थीं। अल्ताफ बानू आंध्रा के चित्तुर जिले से आई हुई थी जो मेरे साथ बहुत अच्छे-से रहती थी, मेरे सुख-दुख में शामिल होती थी। हम लोग जब क्लास से 4:00 बजे हॉस्टल में आते थे। उस समय हम लोगों को भूख लगती थी। और पैसे ना होने के कारण बाहर से हम लोग खरीदते नहीं थे बल्कि गेहूँ का दलिया जो है, गोप्स से खरीद लेते थे और रूम में आने के बाद उस दलिया की खिचड़ी बनाते थे। गेहूँ के दलिया की खिचड़ी जिसमें प्याज, हरी मिर्च, करी पत्ता डालकर उसको हम लोग बनाते थे और गरम-गरम खाते थे। क्लास के लड़कों में चंदू खंदारे, सुरेश, अमोल, सतीश, प्रसाद, सतेन्दर, मल्लिक थे; जो बहुत ही अच्छे थे। हमारे कक्षा में सभी का मिलनसार स्वभाव था। एक दूसरे की मदद करते थे। अगर किसी कारणवश कोई नहीं आता तो उसे नोट्स बुक लेकर देना, उसको समझाना इस तरह की मदद करते थे। सुख-दुख में सभी एक दूसरे के शामिल होते थे। हम लोग स्वागत पार्टी भी करते थे जो नए विद्यार्थी हमारे जूनियर साथी आते थे उनका स्वागत समारोह किया जाता था। मै छोटी-मोटी कविताएँ बचपन से लिखती थी। स्वागत समारोह पर कविता लिखी थी, ‘हमारा हिंदी विभाग कैसा है?’ जो सबको बहुत पसंद आई और सबने उसे पसंद किया। मुझे भी बहुत अच्छा लगा था और उसी तरह हम लोगों को भी सेंड ऑफ़ पार्टी दी गई जिसमें सारे लोग दुखी थे। इसके बाद की पढाई के लिए सीट मिलेगी या नहीं, इस बात का दुख रहता था लेकिन बाद में
मैने वहीं से एम. फ़िल. और पी. एचडी. की पढाई की और आज मैं उस्मानिया विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्षा हूँ। इसका श्रेय केवल हैदराबाद यूनिवर्सिटी को जाता है। इसलिए वह मेरी माँ है जिसने मुझे इस कुर्सी पर बैठाया है। मैं उसकी आजन्म ऋणी रहूँगी।
डॉ. डब्ल्यू. मायादेवी
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, उस्मानिया विश्वविद्यालय, हैदराबाद
dr.mayadevi186@gmail.com, 9705999842
अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका
माया जी आपका संघर्ष और सफलता सभी के लिए प्रेरक है | आप अपनी जीवन-कथा को आत्मकथा का रूप दीजिये | आपका और 'अपनी माटी' का विशेष आभार |
जवाब देंहटाएंआज हम हैदराबाद विश्वविद्यालय में है और आपका लेख हमें 24 साल पहले के विश्वविद्यालय ले गया। खुबसूरत यादे साझा करने के लिए शुक्रिया मैम ✨✨✨
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