- राकेश कुमार खटीक
शोध सार : समाज निरंतर
प्रगतिशील
है।
प्राचीनकाल
से
वर्तमान
तक
ज्ञान
कि
विभिन्न
अवस्थाओं
से
सतत
प्रवाहमान
है, इस
परिवर्तन
को
व्यक्ति, समय-सापेक्ष
और
समाज
के
भीतर
घटने
वाली
घटनाओं
का
चित्रण
विविध
आयामों
एवं
संदर्भों
के
साथ
उपस्थित है।
समाज
की
प्रगतिशीलता
का
मूल्यांकन
उसके
शैक्षिक
प्रकल्पों
में
आए
बदलाव
को
महसूसता
हुआ
अपने
को
रेखांकित
करता
चलता
है।
हिंदी
उपन्यास
अपने
विकास
क्रम
में
समाज
की
घटनाओं
का
एक
क्रमिक
जीवंत
दस्तावेज
है।
साहित्य
के
लिए
महत्वपूर्ण
हो
जाता
है
कि
समाज
में
घट
रही
घटनाओं
का
सूक्ष्मता
के
साथ
अवलोकन
करें, एवं
साथ
ही
व्यक्ति
और
समाज
में
आए
बदलाव
का
चिन्हांकन
करते
हुए
आने
वाली
पीढ़ियों
के
लिए
नए
मार्ग
प्रशस्त
करता
चले।
हिंदी
उपन्यास
परम्परा
में
भारतीय
समाज
कि
कई
समस्याओं
का
बहुत
गहराई
के
साथ
संवेदनाओं
का
चित्रण
हुआ
है।
शैक्षिक
जीवन
भी
भारतीय
सामाजिक
जीवन
का
अनिवार्य
हिस्सा
रहा
है।
ये
जरूर
है
कि
कुछ
कम
ही
उपन्यासकारों
ने
इस
पर
अपनी
लेखनी
चलाई
है।
लेकिन
जो
लिखा
गया
है।
वह
अपनी
पूरी
शिद्धत
के
साथ
उपस्थिति
दर्ज
करता
है।
आजादी
के
इतने
वर्षों
बाद
आज
भी
हमारी
शिक्षा
प्रणाली
उस
शिखर
को
नहीं
छू
सकी, जिस
अतीत
को
देखकर
हम
गौरवान्वित
महसूस
करते
रहे
हैं
साथ
ही
भारत
के
जिस
शैक्षणिक
स्वर्णिम
इतिहास
पर
हम
खड़े
हैं, उसके
भविष्य
की
चिंता
की
रेखाएं
क्यों
उठ
खड़ी
हो
रही
है? लाजमी
हो
जाता
है कि
इसके
लिए
हमें
सामाजिक
व्यवस्था
के
साथ
शैक्षिक
जीवन
कि
वर्तमान
स्थिति
को
टटोलते
हुए, मौजूदा
दौर
में
यह
राह
निकलेगी
कैसे? इन्ही
सवालों
कि
चिन्हांकन
महत्वपूर्ण
जाता
है, वर्तमान
समय
में
वो
छात्र
जो
स्वयं
ही
भटकाव
असंतोष
शिक्षा
के
मूल्यों
के
प्रति
गैर
जिम्मेदार
रवैया
अख्तियार
किए
हुए
है
या
फिर
वे
संस्थाऐं
जो
छात्रों
के
भविष्य
निर्माण
का
भार
अपने
ऊपर
लादे
हुए
है।
जिन
शिक्षण
संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों
पर
जिम्मेदारी
हैं
क्या
वे
इसके
लिए
तैयार
है
या
नहीं, इन्हीं प्रश्नों
का
संदर्भित
उपन्यासों
में
छात्रों
के
शैक्षिक
जीवन
की
तलाश
महत्वपूर्ण
हो
जाती
है।
बीज शब्द
:
शिक्षा, शिक्षक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय
परिसर, छात्र-जीवन, छात्र-आंदोलन, छात्र-राजनीति, शैक्षिक
वातावरण।
मूल आलेख : छात्र
जब
विश्वविद्यालय
परिसर
में
दाख़िल
होता
है, तो
वह
विभिन्न
प्रकार
की
जीवन
आकांक्षाओं
को
संजोए
हुए
होता
है।
जिसमें
परिवार
समाज
और
राष्ट्र
की
कई
उम्मीदों
का
एक
एहसास
भी
लिए
होता
है।
व्यक्ति
निर्माण
में
शिक्षा
की
अहम
भागीदारी
है! इस
पर
प्रो.कौल
लिखते
है
कि
"शिक्षा
व
व्यक्ति
के
लक्ष्य
एक
ही
हैं।
व्यक्ति
में
मौजूदा
जिज्ञासा
व्यक्ति
के
सर्वांगीण
विकास
से
एक
श्रेष्ठ
समाज
व
राष्ट्र
निर्माण
का
पुनरुत्थान
किया
जा
सकता
है।
शिक्षा
एक
सामाजिक
प्रक्रिया
है।
यह
दर्शन, मनोविज्ञान
व
विचारधारा
के
सिद्धान्त
पर
आधारित
है।
शिक्षा
द्वारा
जीवन
के
सर्वांगीण
विकास
अथवा
व्यक्ति
में 'प्राकृतिक
रूप' से
विद्यमान
अन्तर्निहित
रचनात्मक
क्षमता
को
मूर्तरूप
देने
वाली
शक्ति
है।
शिक्षा
का
उद्देश्य
सहज
गुण
व
सहज
क्षमताओं
को
विकसित
करना
है।"1
विश्वविद्यालय
परिसर
विद्यार्थी
जीवन
का
महत्वपूर्ण
बिंदु
है
यही
से
एक
सफल
जीवन
जीने
के
प्रति
भविष्य
का
निर्धारण
तय
होना
है।
एक
डॉक्टर
एक
इंजीनियर, एक
प्रशासनिक
अधिकारी, एक
वकील, एक
राजनेता
या
एक
समाजसेवी
या
और
कोई, सब
कुछ
यहीं
से
ही
तय
होना
है।
छात्र
के
भीतर
कई
तरह
के
विचार
आंदोलित
होते
हैं
कि
उस
दौर
में
वह
कच्चे
घड़े
के
समान
होता
है।
उसके
अंतर्मन
में
कई
विचारों
की
उठा
पटक
चलती
है।
अब
जिम्मेदारी
विश्वविद्यालय
परिसर
और
वहाँ
की
नीति
को
तय
करने
वाले
प्रोफेसरों
के
कंधों
पर
आ
जाती
है।
अगर
सब
कुछ
सही
रहा
तो
निश्चित
रूप
से
वह
अपने
लक्ष्य
को
प्राप्त
कर
लेगा।
लेकिन
यह
सब
कुछ
इतना
आसान
नहीं
है, क्योंकि
छात्र
जीवन
के
नानाविद
थपेड़ों
को
झेलना
सिखाता
भी
है
और
इन्हीं
संघर्षों
के
बीच
एक
व्यक्ति
का
निर्माण
होता
है।
विश्वविद्यालय
परिसर
छात्रों
के
शैक्षिक
जीवन
को
अनुकूलित
करने
की
प्रक्रिया
का
हिस्सा
है।
जिसके
माध्यम
से
व्यक्ति
स्वयं, परिवार, समाज
और
राष्ट्र
निर्माण
के
मापदंडों
पर
दृढ़ता
के
साथ
अग्रसर
होकर
अपने
को
आत्मसात
करता
चलता
है, और
स्वयं
को
भी
निर्मित
करता
चलता
है।
व्यक्ति
निर्माण
प्रक्रिया
की
अंतिम
पाठशाला
विश्वविद्यालय
है।
यही
वह
दहलीज
है, जहाँ
छात्रों
के
जीवन
का
उत्थान
एवं
पतन
निर्धारित
होता
है।
जीवन
पथ
पर
अनेकों
राहें
उनमें
से
एक
राह
को
चुनना
और
उस
पर
चलने
की
प्रक्रिया
का
आरंभ
होता
है।
यह
निर्माण
विद्यार्थी
को
स्वयं
ही
अपने
समय
की
पहचान
करते
चलना
होगा
कि
हमें
किस
दिशा
में
चलना
है।
इस अंश
में
भी
यही
संकेत
किया
जा
रहा
है
कि
"शायद
कोई कमरा किवाड़ों की
फाँक से झाँक रहा
है। और अपने खुले
होने का चकमा दे
रहा है"2 यहां
विश्वविद्यालय
के
कक्षा
कक्ष
खुलते
हैं, लेकिन
विद्यार्थी
विहीन
कमरा
अपनी
लाचारी
को
विवश
है।
क्योंकि
विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
शिक्षा
ग्रहण
करने
आता
तो
है
लेकिन
कक्षा
में
पढ़ना
नहीं
चाहते
हैं।
अक्सर
कई
विद्यार्थियों
को
गांव
से
शहर
के
कॉलेजों
में
जबरदस्ती
धकेला
जा
रहा
है
यहाँ
कैंटीन
के
व्यक्ति
द्वारा
इसी
बात
की
पुष्टि
हो
रही
है।
कि "विश्वविद्यालय
खुलता
है
ज्वान
कहते
हैं
कि हे बाप
जोन!
अगर तुम्हारा लड़का आवारा
है,
लफंगा है, कामचोर है, पूरे
गाँव-घर
का सिरदर्द है; सब
मिलाकर जहन्नुम है और
तुम उससे आजिज आ
गए हो तो एक
काम करो-उसे इसमें
दाखिल कर दो।"3 यह
महत्वपूर्ण
है
कि
समय
सापेक्ष
वर्तमान
और
भविष्य
के
प्रति
विद्यार्थी
सजग
रहे।
इस
कारण
लेखक
ने
विद्यार्थियों
पर
व्यंग्य
किया
है
कि
"जिस
देश को लेकर इतने
सारे लोग परेशान हैं, उसके
बारे में इनकी भी
कोई राय है या
नहीं?
ये कक्षा में बैठकर
लगातार क्यों लिखती हैं? कहीं
ऐसा तो नहीं कि
पढ़ने की इच्छा केवल
उन्हीं में बाकी रह
गई हो जिन्हें पढ़ने
का अर्थ नहीं मालूम
है?"4 दरअसल
यहां
संकेत
है, कि
विद्यार्थी
पढ़ने
और
पढ़ाने
के
जो
पारंपरिक
उपकरण
है।
उनको
छोड़कर
नित
नए
नवाचार
की
ओर
अग्रसर
हो
रहा
है, लेकिन
यह
स्पष्ट
है
कि
दोनों
में
नितांत
ताने-बाने
का
अभाव
है।
शिक्षा
जीवन
को
उन्मुक्त
बनाती
है, लेकिन
उन्मुक्तता
की
पहली
शर्त
है
विद्यार्थी
अपने
अहम
से
मुक्त
होकर
जीवन
साधना
के
तप
में
अनवरत
लीन
रहे, जब
तक
की
अपने
लक्ष्य
को
प्राप्त
ना
कर
ले।
आधुनिकता
की
चकाचौंध
में
विद्यार्थी
कैसे
प्रभावित
हो
सकता
है।
वह
सारे
हथकंडे
बाजार
में
उपलब्ध
है
और
विश्वविद्यालय
की
कैंटीन
वाला
इनका
आकलन
करता
हुआ
कहता
कि
"लगो, इनसे
दिल्लगी न करो, इन्हें
सहो
! झेलो ! क्योंकि
ये हमारे रोजगार हैं, उसकी
आमद हैं। इन्हीं के
चलते शहर आबाद है, सड़कें
रौशन हैं, जिन्दगी में
खुशियाँ हैं, मजे ही
मजे हैं। जरा सोचो
तो सही, ये न
होंगे तो हमारी 'नेस्कफे' और 'ब्रुकबांड' का
क्या होगा? 'पांड्स', कि
पूरे देश का क्या
होगा?
वह देश जो हमारा
है,
तुम्हारा है। जब तक
विद्या की यह राजधानी
है न, तभी तक
हमारी गंगा में... समझा? इसलिए
बोलो मत, ओठों को
सिले रहो। अगर मुँह
गालियाँ उगलता हो और
जेबें पैसा, तो सौदा
घाटे का नहीं है।”5
आधुनिक भौतिकतावादी
यांत्रिक
जीवन
पद्धति
में
सीधा
असर
छात्रों
और
खासकर
विश्वविद्यालय
की
विद्यार्थियों
में
तेजी
से
प्रभावित
हुए
हैं।
सिनेमा, मीडिया
आदि
की
फैशन
तड़क-भड़क
जीवन
का
अधिक
तेजी
से
अग्रेसित
हो
रहे
हैं।
बिना
विचारे
ही
विद्यार्थी
जीवन
से
सरोकार
है
या
नहीं
इन
सबको
सोचे
समझे
ही
वह
अपने
तड़क-भड़क
के
रास्तों
की
ओर
भटक
जाते
हैं, इसी
दर्द
को
यहां
इंगित
किया
है।
"घृणा
हो रही है तुम्हारी
बहन नहीं है। बीवी
नहीं है। और फिर
ये हरकतें क्यों हो
रही हैं? क्यों? मिस्टर, यह
न भूलो कि ओठों
की लिपस्टिक, गालों का
रूज,
माथे की बिन्दी, रबर
की चोलियाँ, नायलन के
बाल
- ये हमारे सामान हैं, हमारी
साजिशें हैं, हमारे दिए
गए फैशन हैं। और
अगर ये नौजवान दिलों
में उफान पैदा करते
हैं तो यह हमारे
लिए,
हमारी दुकान के लिए
खुशी की बात है।
उनके गुस्से को वहीं
अँटके रहने दो। अगर
वे ब्लाउज और चोलियाँ
फाड़ते हैं तो तुम्हारी
क्यों फट रही है?"6
मौजूदा दौर में
विश्वविद्यालय
परिसर
में
छात्रों
के
लिए
वह
सब
कुछ
है, जो
उसको
कर्तव्य
से
विचलित
कर
सकता
है।
विश्विद्यालय
में
विद्या
अध्ययन
के
लिए
विशेष
कोई
कोशिश
नहीं
है, शायद
विद्यार्थी
भी
पुस्तकालय
की
जगह
कैंटीन
में
ही
अपना
समय
बिताना
चाहते
हैं
तभी
तो
यह
संकेत
है
कि
"मै
के चेहरे पर देखता
रहा। मेरे पास कोई
उत्तर नहीं था। वाकई
हम सब जमुना पलायन
में इस तरह पगे
हैं कि अब उसी
को विद्रोह कहने लगे
हैं। हम खाली बकवास
करते हैं। मन सुविधा
की खोज में भटक
रहा है। वह नहीं
मिलती तो खीज में
विद्रोह के बने-बनाये
मुहावरे बकते हैं और
थककर अन्याय का मर्सिया
गाते रहते हैं। जमुना
ठीक कहता है, यह
सब पलायन है, खालिस
पलायन।"7
शिक्षा राष्ट्र
के
हर
नागरिक
का
सार्वभौमिक
अधिकार
है।
जिस
प्रकार
शारीरिक
स्वास्थ्य
के
लिए
हृदय
का
स्वस्थ
और
सुदृढ़
होना
जरूरी
है, उसी
प्रकार
राष्ट्र
और
समाज
के
विकास
की
अनिवार्य
शर्त
एक
मजबूत
शिक्षातंत्र
है।
प्रसिद्ध
शिक्षाशास्त्री
जॉन
डी
वी
के
शब्दों
में, “एक लोकतंत्र में
ऐसी शिक्षा की व्यवस्था
होनी चाहिए कि प्रत्येक
व्यक्ति सामाजिक कार्यों और
संबंधों में निजी रूप
से रुचि ले सके।
ऐसी शिक्षा चाहिए जो
मनुष्य में हर एक
सामाजिक परिवर्तन को दृढ़तापूर्वक स्वीकार करने का
सामर्थ्य पैदा कर सके।' इस
वक्तव्य में शिक्षा अपने
पूरे अर्थ के साथ
परिभाषित है। स्वतंत्रता के
इतने वर्षो बाद भी
देश की लचर शिक्षा
व्यवस्था में कई परिवर्तन
किए गए। बावजूद इसके
राजनीति के मकड़जाल और
ढुलमुल रवैये के कारण
शिक्षा में लोकतांत्रिक मूल्यों
का ह्रास हुआ है।
देश में इस मामले
पर एक व्यापक बहस
की जरूरत है”8 अतः
शैक्षिक
जीवन
को
अवसरवाद, पलायन
का
बहुत
बड़े
पैमाने
पर
प्रभावित
करता
है।
जिससे
विद्यार्थी
स्वयं
से
ही
छटकता
चलता
है।
“ 'आधुनिक' होने का
अर्थ क्यों मनुष्य के
मूलभूत मूल्यों का मजाक
बनाने से लिया जाने
लगा है ? तभी तो
आधुनिकता की ओट में
हम इन कसमों, इन
भावनाओं की खिल्ली उड़ाने
लगे हैं! इन्हें एक
तरह का बचकाना दर्जा
देने लगे हैं। क्यों
सहज शब्दों वाला सीधा-सादा
जीवन-दर्शन
हमें पिछड़ी कोटि के
वास्ता भूल का लगने
लगा है? और हम
सिर्फ कुतर्कों के माध्यम
से उन्हें झुठलाने पर
तुले हुए हैं। एकांगी
वे संस्कार, वे भावनाएं
हैं या यह नव्य
ओढ़ा हुआ मुखौटा? अधकचरा
और बचकाना क्या है? अब
हमसे क्यों नहीं संभल
पा रहा, यह सादगी
भरा जीवनदर्शन जो कहता
है”9
दरअसल कहने का
आशय
यही
है, कि
भारतीय
समाज
जिन
मूल्यों
पर
आधारित
है।
वह
आधुनिकता
के
दौर
में
इस
तरह
से
बोने
क्यों
होते
जा
रहे
हैं? यह
सवाल
शैक्षिक
समाज
का
नहीं
है, बल्कि
पूरे
भारतीय
सामाजिक
परंपरा
और
जीवन
मूल्यों
पर
प्रश्न
चिन्ह
है? विश्वविद्यालय
परिसर
में
छात्र
जीवन
की
अपनी
असीमित
जीवन
आकांक्षाओं
को
पंख
लगाने
के
लिए
कदमताल
करता
है।
विश्वविद्यालय
परिसर
यानी
सृजनात्मक
विकास
का
अन्वेषण, निरंतर
अपनी
जिज्ञासाओं
को
इयत्ता
तक
शांत
करना, अपने
भीतर
निर्मित
व्यक्तित्व
में
गुणात्मक
परिवर्तन
करना
उसका
मुख्य
लक्ष्य
रहता
है।
अतः
इसका
व्यावहारिक
जीवन
में
प्रवाहमान
करते
हुए
उन्मुक्त
सोच
के
साथ
समाज
और
राष्ट्र
की
विकास
मान
परंपरा
में
उज्जवल
भविष्य
के
सपने
देखता
है।
और
यहीं
से
सार्वजनिक
जीवन
की
सुचिता
का
निर्माण
होना
होता
है
कि
हमारा
भविष्य
किस
राह
पर
अग्रसर
होना
है।
यह
सुनिश्चित
नहीं
है
कि
सब
अपने
स्वार्थ
से
ऊपर
उठ
नहीं
पा
रहे
हैं
तभी
तो
यह
दृश्य
सामने
आता
है
की
"कम
से कम नहीं थी, बल्कि
ज्यादा ही थी। क्योंकि
आपस में लड़ने के
सिवा और काम क्या
था
? सिर्फ बी.ए., बी.कॉम. तक
की कक्षाएँ थीं। किसी
क्लास में तीस विद्यार्थी,
किसी में चालीस। उनमें
से भी अधिकांश ऐसे
जिन्हें पढ़ना नहीं था, सिर्फ
डिग्री चाहिए थी।"10 विश्वविद्यालय
में
पढ़ने
वाला
विद्यार्थी
शैक्षिक
जीवन
को
उत्तरोत्तर
विकसित
करते
चलते
हैं।
जबकि
विश्वविद्यालय
परिसर
में
छात्र, छात्र
नहीं
बल्कि
एक
कठपुतली
है, जो
पहले
छात्र
नेताओं
की
फिर, राजनीतिक
नेताओं
की, फिर
स्वार्थी
प्रोफेसरों
की
कूटनीतिक
जालसाजी
में
फंस
जाते
हैं
लेकिन
निर्णय
तो
विद्यार्थियों
को
ही
करना
है
कि
उनके
भविष्य
के
संदर्भ
में
क्या
सही
है
और
क्या
गलत
है
यथा
“आज रात
दस बजे छात्रसंघ भवन
में सभा है, जिसमें
कल के कार्यक्रम तय
करने हैं। कल नहीं, परसों
निश्चित बिगुल बज जायेगा।
देखना मीटिंग में शामिल
होना न भूलना। पता
नहीं तुम्हारा जनेऊ किस
साल हुआ। हुआ ही
होगा,
गणेशी तिवारी के वंशज
हो। पर अगले सात-आठ
दिनों के भीतर तुम्हारा
मुंडन भी हो सकता
है। लट्ठोपवीत भी। डर
हो तो मत आना, नहीं
तो रात दस बजे
छात्रसंघ भवन में प्रतीक्षा
रहेगी।“11
छात्र नेता
विश्वविद्यालय
परिसर
में
अपना
सिक्का
चलाने
चाहते
हैं
इसलिए
पूरे
शैक्षिक
वातावरण
को
अपने
मुताबिक
ढालना
चाहते
है
'सीनियॉरिटी' का
यूनिवर्सिटी में बड़ा
रुतबा है। सीनियरों के
बड़े ठाठ हैं। कुछ
लोग तो 'सीनियॉरिटी' बढ़ाने
के चक्कर में इम्तिहान
में नहीं बैठते कि
धोखे से पास हो
गए तो जल्दी ही
यूनिवर्सिटी में
छात्र
हितों
के
लिए
प्रोफेसर
को
सदैव
प्रयास
करना
चाहिए
और
कई
स्तरों
पर
छात्रों
के
सर्वांगीण
विकास
के
लिए
तत्पर
भी
रहते
हैं।
अधिकतर
विश्वविद्यालय
के
प्रोफेसर
अपने
नाम
से
प्रोजेक्ट
चलाना
चाहते
हैं।
चाहे
उसमें
छात्रों
का
नुकसान
हो
उससे
उनका
कुछ
लेना
देना
नहीं
है, वह
तो
बस
अपने
प्रोजेक्ट
को
पूरा
करना
चाहते
हैं
इसीलिए
इसमें
एक
प्रोफेसर
छात्रों
को
समझाते
हुए
कहते
हैं
कि
"तुम
लोग
'वाइस चांसलर' से जाकर
मिलो।
'डीन स्टूडेंट्स वेलफेयर' से
मिलो। मैं तो यूनीवर्सिटी का मुलाज़िम हूँ, मुझे
तो बस हुक्म मिलता
है। डेढ़ साल पहले
हुक्म मिला था कि 'हॉबीज़
वर्क'
के आर्ट्स सेक्शन' का
काम देखेँ। देखने लगा।
अब हुक्म मिला कि
वह बन्द किया जा
रहा है। वहाँ न
जाऊँ तो न जाऊँगा।”13
यह एक
दिलचस्प
तथ्य
है
कि
लगभग
प्रत्येक विश्वविद्यालय, जहाँ छात्र
अनुशासनहीनता और व्यवधान
में संलिप्त रहे हैं,
वहीं शिक्षक
राजनीति में संलिप्त रहे
हैं। "एक
अर्थ में, शिक्षकों तथा
अकादमिक प्रशासकों की राजनीतिक
गतिविधियाँ भी उतनी ही
"अनुशासनहीनता' है जितना
कि छात्रों के द्वारा
पत्थरबाजी और नारेबाजी करना।
परंतु शिक्षक अनुशासनहीनता अपेक्षाकृत शांतिपूर्ण होती है
और प्रायः इसकी अनुमति
ली गई होती है
अथवा इसे राजनीतिज्ञों अथवा
अधिकार प्राप्त लोगों द्वारा
उकसाया गया होता है।
स्पष्टतः भारत में अकादमिक
समुदाय की राजनीतिक गतिवधियों
के विश्वविद्यालयों की प्रगति
के लिए और, निश्चित
रूप से, छात्रों के
असंतोष के लिए भी
महत्वपूर्ण निहितार्थ रहे हैं।”14
प्रोफेसरों की
आपसी
लड़ाई
के
बीच
छात्रों
के
अध्ययन
और
पढ़ाई
सीधे
तौर
पर
प्रभावित
होती
है।
बेवजह
आंदोलन
करना
और
कैंपस
का
माहौल
खराब
करना
यह
एक
स्वस्थ
परंपरा
प्रतीत
नहीं
होती
है।
विश्वविद्यालय
के
एक
प्रोफेसर
की
छात्र
हित
में
चिंता
व्यथित
की
गई
है। “मतलब यह
है कि आपके साथ
जो कुछ हुआ, वह
युनिवर्सिटियों के कैरिक्यूलम का एक अनिवार्य
अंग हो गया है।
सब जगह ऐसी घटनाएँ
हो चुकी हैं। आप
भाग्यशाली हैं सुबोध दा।
आपके खिलाफ न नारे
लगे न चिल्ल-पों
मची। सिर्फ चार-पाँच
लड़के गये। उसमें भी
जीभदार केवल एक था”15
विश्वविद्यालय के
परिदृश्य
में
जीवन
मूल्यों
के
टकराहट
और
कई
स्तरों
पर
बेचैनी
और
मर्यादा
तार-तार
होती
है, इसके
लिए
प्रोफेसर
विद्यार्थी
को
समझाते
हुए
कहता
है, कि
"यह
वह
तिलस्मी
खोह
है
जयंती, जहाँ
काला
सफेद
और
सफेद
काला
बनकर
निकलता
है।
जानती
हो, यह
सामने
बैठा
लडका
पिछले
वर्ष
सर्वोच्च
स्थान
पाये
था, इसे
निश्चित
यू.जी.सी. की
स्कॉलरशिप
मिलती, पर
इस
वर्ष
यह
तीसरी
पोजिशन
पर
है।
दो
लड़के
इसके
सिर
पर
बिठा
दिये
गये
हैं
जो
इससे
साहित्य
पढ़ते
रहे
हैं।"
इस
तरह
से
विद्यार्थियों
को
अपनी
योग्यता, मेहनत
और
ईमानदारी
का
परितोष
के
बजाय
विद्यार्थी
अपनी
योग्यता
पर
कुंठित
एवं
हताश
होते
हैं
ऐसी
परिस्थिति
के
लिए
कौन
जिम्मेदार
है।
विश्वविद्यालय
परिसर
में
छात्रों
का
आंदोलन
करना
वर्तमान
समय
में
एक
फैशन
बन
चुका
है।
आए
दिन
बिना
विचारे
ही
छात्र
आंदोलित
हो
जाते
हैं, जिससे
वह
अपने
मूल
उद्देश्य
से
भटक
जाते
इसी
संदर्भ
में
बीच
विनय
में
प्रोफेसर
समझाते
हुए
की
छोटी
सी
बात
के
लिए
छात्रों
को
आंदोलित
होना
कहाँ
तक
जायज
है
यथा
"लेकिन
आप तो सारे लड़कों
को बहका सकते हैं।
बहुत योग्यता है आपमें।
लेकिन मैं आपको सिर्फ
यह याद दिलाने आया
हूँ कि इनमें से
ज्यादातर के माँ-बाप
गरीब हैं और वे
एक-एक
दिन गिन रहे हैं
कि कब उनका बच्चा
पढ़ाई पूरी करके आएगा
और गृहस्थी की गाड़ी
खींचने में अपना कंधा
उनके साथ लगाएगा"16
वर्तमान समय बदल
गया
है, क्योंकि
छात्र
अब
प्रोफेसर
का
उस
तरह
से
सम्मान
नहीं
करते
जैसे
किया
जाना
चाहिए
इसलिए
गुरु
शिष्य
के
संबंधों
में
दरार
उत्पन्न
हो
गई
है।
तभी
‘दीक्षांत’ उपन्यास में
प्राध्यापक
अपने
छात्रों
को
समझाते
हुए
कि
"असल
में तुम्हारा मकसद नारे
बुलंद करके किसी किस्म
का न्याय हासिल करना
है भी नहीं, तुम्हारा
मकसद है सिर्फ नारे
बुलंद करना। यही नारे
तुम्हारे मंजिल हैं...यह
जरिया नहीं है, साधन
नहीं है। साफ है, तुम्हारी
मंजिल यहीं खत्म हो
जाती है। दरअसल तुम्हारे
बाजुओं में इससे अधिक
कर सकने की न
ताकत है, न तमन्ना।"17
महाविद्यालय में
आए
दिन
होने
वाले
हुड़दंग
की
नारेबाजी
से
शैक्षिक
माहौल
खराब
हो
रहा
है।
अत्यंत
सोचनीय
है।
कुलपति
के
लिए
हुए
निर्णय
को
राजनीतिक
दृष्टि
से
आकलन
करना
और
उन
निर्णय
को
राजनीतिक
पीड़ित
बताना
छात्र
राजनीति
का
अहम
हिस्सा
बन
चुकी
है
और
उसी
की
प्रतिक्रिया
स्वरूप
‘कैंपस’ उपन्यास में
एक
छात्र
नेता
कहता
है।
कि
"ए.बी.बी.पी. वालों
ने तेज आवाज में
कहा,
"यहां के कुलपति
को सरकार नियुक्त नहीं
करती,
राज्यपाल नियुक्त करता है
और राज्यपाल की नियुक्ति
केंद्र सरकार ने की
है,
जिसका नेतृत्व भाजपा कर
रही है।" इस सारे
वार्तालाप को सुनकर अब
तक चुप खड़े लोगों
ने भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की 'अरे! कांग्रेस
और भाजपा की बात
क्यों करते हो, विश्वविद्यालय एक स्वायत्तशासी संस्था
है;
सरकारी संस्था नहीं।''18
छात्र मर्यादा
के
नाम
पर
एक
तरफ
तो
छात्र
स्वयं
नैतिकता
का
हवाला
देते
हैं
लेकिन
दूसरी
वे
छात्र
नैतिकता
का
पालन
कहाँ
तक
करते
हैं
यह
विचारणीय
है।
‘कैंपस’ उपन्यास में
छात्र
नेता
कुलपति
पर
आरोप
लगते
हुए
कहता
है
कि
“आपने कैंपस
को पुलिस की छावनी
बना दिया है। गुरु-शिष्य
परंपरा का क्या हुआ? क्या
हम अपराधी हैं? क्या
हम ओसामा बिन लादेन
हैं?"19
छात्र हितों
की
ओर
किसी
का
ध्यान
नहीं
जा
रहा
है
और
कुलपति
को
राजनीतिक
विचारधारा
के
क्या
आक्षेप
लगाए
जा
रहे
हैं
यह
माहौल
लगभग
हर
विश्वविद्यालय
का
सामान्य
हो
गया
है।
जैसा
की
मीडिया
और
अखबारों
में
पढ़ते
है
कि
“सर! सुना
है कि सिंडिकेट के
एक-दो
सदस्यों ने शिक्षामंत्री को
ब्रीफ किया है कि
कुलपति भाजपा और आर.एस.एस. के
हाथों में खेल रहा
है। इनके दबाव में
आकर उसने शिक्षकों और
अशैक्षणिक कर्मचारियों से ली
जाने वाली बकाया राशि
की वसूली स्थगित कर
दी है। कुलसचिव बोलते
हुए संकोच कर रहा
था।”20
इस राजनीतिक
आरोप-प्रत्यारोप
के
बीच
विद्यार्थी
पढ़ाई
के
शांतिपूर्ण
माहौल
के
स्थान
पर
अमर्यादित
टिप्पणियां
एवं
अपनी
गैर
वाजिब
मांगों
को
भी
मनवाने
पर
आंदोलित
होता
है।
तभी
यहां
एक
छात्र
नेता
नारे
लगाते
हुए
कहता
है
कि
"विश्वविद्यालय का राजनीतिकरण बंद
हो।”
कम हाजिरी के कारण
किसी छात्र को परीक्षा
में बैठने से न
रोका जाए, आंतरिक मूल्यांकन
संपूर्ण अंकों का पचास प्रतिशत
हो,
बोनस अंकों का प्रावधान
हो।"21
वर्तमान समय में शिक्षा की बदहाली पर चिंता व्यक्त करते हुए राजाराम भादू लिखते है कि “शिक्षा
के परिदृश्य में यह
जबर्दस्त निराशा का समय
है। शिक्षा की अंतर्वस्तु,
यह अपनी निष्पत्ति में
मूलभूत लोकतांत्रिक मूल्यों-स्वतंत्रता,
समानता और बंधुत्व के
विरुद्ध जाते हैं। शिक्षा
ही नहीं, ज्ञान-विज्ञान
की तमाम उत्कृष्ट संस्थाओं
के विघटन और पतन
की खबरें आ रही
हैं। ऐसे में कॉलेज
में स्वायत्तता की बात
बेमानी हो जाती है।
यहाँ जो चल रहा
है,
वह हास्यास्पद और घोर
असंतोषजनक है।”22 प्रशासनिक
दृष्टि
से
कुलपति
विश्वविद्यालय
परिसर
में
शांतिपूर्ण
अध्ययन
का
माहौल
बनाए
रखने
के
लिए
निरंतर
प्रयास
करता
है।
और
उसके
लिए
किसी
विद्यार्थी
या
छात्र
नेता
की
आवश्यकता
ही
नहीं
है, लेकिन
फिर
भी
राजनीतिक
विचारधारा
के
चलते
उसको
कई
मोर्चे
पर
घेराबंदी
की
जाती
है।
विश्वविद्यालय
शांति
के
लिए
कुलपति
कटिबद्ध
है
लेकिन
अनावश्यक
छात्र
नेताओं
द्वारा
माहौल
बिगाड़ने
का
प्रयत्न
लगातार
किया
जाता
है। कुलपति
शांतिपूर्ण
व्यवस्था
बनाने
के
लिए
प्रयासरत
है
तभी
वह
कहते
हैं
कि
“सुन लो
बेटा,
मैं श्मशान घाट की
शांति नहीं चाहता, मैं
पुलिस के सहारे कैंपस
को नहीं चलाना चाहता, यह
सरस्वती मंदिर है, यहां
ज्ञान की गंगा बहे।"23
संपूर्ण शैक्षिक
परिदृश्य
के
अंतर्गत
हम
यह
देख
सकते
हैं
कि
वर्तमान
छात्र
राजनीति
और
विश्वविद्यालय
परिसर में
विद्यार्थी
शांतिपूर्ण
अध्ययन
करने
के
अलावा
सब
कुछ
चाहता
है, लेकिन
अपने
भविष्य
के
बहाने
एवं
भविष्य
के
ऊपर
तलवार
लटकाने
का
भरसक
प्रयत्न
करता
चलता
है।
अतः
आज
जो
परिस्थिति
हमारे
समाज
में
व्याप्त
है, उस
पर
हम
सबको
सूक्ष्मता
से
विचार-विमर्श
करना
होगा।
हमारे
छात्र
वर्ग
में
जो
असन्तोष
प्रकट
हो
गया
है।
इसके
लिए
डॉ.जी
एस
वर्मा
के
अनुसार
इसका
उत्तर
केवल
एक
शब्द
में
निहित
है, कि
—“संघर्ष-धनी
और निर्धन में, गुरु
और शिष्य में, शासन
व शासित में, वृद्ध
व युवा में, जाति-जाति
में,
रंग-रंग
में,
जो संघर्ष चल रहा
है,
वह हमारे छात्र वर्ग
के साथ-साथ सम्पूर्ण
समाज को उत्पीड़ित किए
जा रहा है। इसके
द्वारा हम अपना चिर
अपेक्षित कल्याण करना चाहते
हैं जो स्वार्थपरता है, जिसके
मूल में व्यक्ति, धर्म, देश
व समाज को भूल
कर अपने को अधिक
सुखी व समृद्धिशाली बनाने
की आकांक्षाओं में लिप्त
रहता है। इसी कारण
से हमारे छात्र वर्ग
में कर्तव्यपराणता की कमी, उत्तरदायित्व की कमी, विश्वास
की कमी आदि अवगुणों
का विकास हो गया
है,
जो छात्र वर्ग को
असन्तोष की ओर बढ़ने
के लिये निरन्तर विवश
कर रहे हैं।”24
निष्कर्ष : निष्कर्षतः
हम
कह
सकते
हैं
कि
हिंदी
उपन्यासों
में
चित्रित
छात्र
जीवन
की
समस्याओं
की
ओर
संकेत
किया
गया
है।
जो
विचारणीय
है
और
वर्तमान
समय
में
छात्र
अपने
अधिकारों
के
प्रति
सजगता
लिए
हुए
हैं
यह
लोकतांत्रिक
प्रगति
का
सूचक
अवश्य
है, लेकिन
साथ
ही
वर्तमान
जीवन
आकांक्षाओं
एवं
भौतिकतावाद
के
चलते
मूल्यों
में
गिरावट
भी
आई
है।
यह
चिंता
का
विषय
है
ऐसा
नहीं
है
कि
विश्वविद्यालय
में
छात्र
आंदोलन
की
गतिविधियों
का
केंद्र
ही
रहा
हो, छात्रों
के
सर्वांगीण
विकास
एवं
बौद्धिक
परिपक्वता
के
लिए
नवाचारों
के
साथ
अध्ययन
की
बुनियादी
सुविधाओं
का
निरंतर
विकास
एवं
सुधार
हो
रहा
है।
ज्ञान
की
अवधारणा
बनाए
रखे
हुए
हैं
और
विश्वविद्यालय
के
विद्यार्थी
समाज
में
अपनी
भागीदारी
निभा
रहे
हैं।
लेकिन
फिर
भी
आए
दिन
छात्रों
की
उठापटक
और
विश्वविद्यालय
की
राजनीति
से
अधिकांश
छात्र
वर्ग
की
शैक्षिक
जीवन
में
बाधा
होती
है।
और
कहीं
ना
कहीं
उन्हें
झकझोर
कर
चलती
है।
जिससे
उन
छात्रों
का
नुकसान
हो
जाता
है, जो
सिर्फ
ज्ञानार्जन
के
लिए
आए
हैं।
खासकर
वे
विद्यार्थी
जो
दूरदराज
एवं
गरीब
तबके
से
आते
हैं, उनको
कई
बार
निराशा
हाथ
लगती
है।
सोचनीय
स्थिति
यह
है
कि
मौजूदा
दौर
में
हमें
इन
सभी
चिंताओं
को
समझते
हुए
भविष्य
के
लिए
उचित
मार्ग
प्रशस्त
करना
भी
जरूरी
है।
आज
विद्यार्थी
को
अपना
भविष्य
असुरक्षित
महसूस
होता
है।
वह
देखता
है
कि
जीवन
में
प्रगति
के
लिए
योग्यता
के
बजाय
चाटुकारिता, नेतागिरी, राजनीतिक
संरक्षण, चालाकी, धूर्तता, आदि
की
आवश्यकता
है।
उसे
सामाजिक
जीवन
में
ऐसे
अनेक
उदाहरण
मिलते
हैं, जहाँ
विद्यार्थी
जीवन
मे
उद्दंड, आवारा, अनुशासनहीन, अधिगम-विमुख, शैक्षिक
दृष्टि
से
पिछड़े
विद्यार्थी
प्रभावशाली
लोगों
से
घनिष्ट
सम्पर्क
स्थापित
करने
में
माहिर
समझे
जाने
वाले
व्यक्ति
सफल
व
सम्पन्न
जीवन
जीते
हुए
दिखाई
पड़ते
हैं।
इसके
परिणामस्वरूप
अनेक
विद्यार्थी
जीवन
के
परिवर्तन
युग
में
सफल
होने
के
लिए
अपने
स्व
व
अपनी
योग्यताओं
का
विकास
करने
के
बजाय
अन्य
दुर्गुणों
का
विकास
करते
हैं।
इस
उपेक्षा
के
कारण
उनका
शैक्षिक
व
नैतिक
स्तर
गिर
जाता
है।
अतः
आजादी
के
इतने
वर्षो
में
लोकतांत्रिक
स्वशासन
के
बाद
भी
क्या
हम
कोई
भारतीय
ढंग
की
शिक्षा
निति
विकसित
कर
सकने
में
सफल
हुए
है
जो
भौतिकतावादी
एवं
राजनीती
के
दबाव
से
मुक्त
हो? क्या जिस
तरह
की
सामाजिक
संरचना
महात्मा
गांधी
हिन्द
स्वराज
में
देख
रहे
थे
उसकी
तरफ
हम
बढ़
सके
है?
1. प्रो.विजय कुमार कौल : सभ्यता संवाद, अक्टूबर-नवंबर दिसंबर 2019, पृ 51
शोधार्थी, हिंदी विभाग मोहनलाल सुखाड़िया वि. वि. उदयपुर एवं सहायक आचार्य, हिंदी राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बारां, राज.
rkpahadiya08@gmail.com, 9928719595
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