शोध सार : पितृसत्तात्मक मानसिकता एवं प्रभुत्ववादी सोच ने आज हमारे परिवार, समाज, राज्य, राष्ट्र तथा संपूर्ण पृथ्वी को ऐसे मोड़ पर ला कर खड़ा किया है जहाँ हमें चारों तरफ दोहन और शोषण के ही दृश्य सुनाई व दिखाई देते हैं। इनसे मुँह फेरना तथा अपनी आरामदायक दुनिया में मग्न रहना इसी मानसिकता की देन है। ऐसी विनाशकारी मानसिकता से लड़ाई है कई सारे मानवहित आंदोलन एवं विमर्श की जिसमें पारिस्थितिक स्त्रीवाद (इको-फेमिनिज़्म) एक अत्यंत महत्वपूर्ण विचारधारा और आंदोलन के रूप में हमारे समक्ष एक नयी आशा के साथ प्रस्तुत है जो जलवायु परिवर्तन, लैंगिक
असमानता और सामाजिक अन्याय को देखता है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद मूलतः स्त्री और प्रकृति के बीच संबंधों की पड़ताल करता है जिसमें इनकी गुणधर्मी समानता तथा शोषण दोनों पर बात की गई है, साथ
ही पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता का वादा भी करता है। प्रस्तुत शोध आलेख में समकालीन साहित्यकार रणेन्द्र द्वारा रचित काव्यसंग्रह ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ’ का पारिस्थितिक स्त्रीवाद की दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है। अवसान वेला पर, साइकिल सवार लड़की, पन्ना धाय, अधरतिया गाड़ी, पानी और स्त्री, धनरोपनी, थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ जैसी कई महत्वपूर्ण कविताओं के माध्यम से आदिवासी, किसान एवं मजदूर परिवार व समाज के दर्द को अपनी रचना में स्थान देने वाले साहित्यकार रणेन्द्र के काव्य संग्रह द्वारा हम प्रस्तुत शोध आलेख में पारिस्थितिक स्त्रीवाद के विभिन्न पहलुओं को देखने व समझने का प्रयास कर सकते हैं।
बीज शब्द : इको-फेमिनिज़्म, काश्तकारीन, नारीवाद, प्रकृति, पर्यावरणवाद, पारिस्थितिक स्त्रीवाद, पितृसत्ता, पूँजीवाद, बाजारवाद, स्त्री।
मूल आलेख : ‘पारिस्थितिक स्त्रीवाद’ नारीवाद और राजनीतिक पारिस्थितिकी की एक शाखा है जो पर्यावरणवाद, महिलाओं और पृथ्वी के बीच के संबंधों को इसके विश्लेषण और अभ्यास के लिए आधारभूत मानता है। पारिस्थितिक स्त्रीवाद स्त्री और प्रकृति की पारस्परिकता को लेकर ही नहीं बल्कि उनके शोषण और अवमूल्यन को लेकर भी गहन चिंतन एवं उसका परिचिन्तन करता है।”[1] जननी, पोषणकर्ता, अथाह सहनशक्ति इत्यादि स्वरूपों में स्त्री और प्रकृति के बीच जो समानताएँ व्याप्त हैं तथा दोनों पर ही आधिपत्य जमाने की जो मानसिकता है, जिससे न केवल इन दोनों का शोषण हो रहा है बल्कि पृथ्वी के अन्य जीव-जंतु तथा हर तबके के लोग भी इस मानसिकता के शोषण की चपेट में आ रहें हैं। ऐसी परिस्थिति में इन पर दृष्टिपात करना तथा इसके पीछे छिपे तथ्यों को उजागर कर मनुष्यों में जागृति की चेतना विकसित करना इस विचारधारा के अंतर्गत आता है।
पारिस्थितिक स्त्रीवाद शब्द सर्वप्रथम फ्रांसीसी लेखिका फ्रन्स्वा द यूबोण द्वारा अपनी पुस्तक ‘ले फेमिनिज्म ओ ला मोर्ट’ (Le
Feminisme ou la Mort)1974
में गढ़ा गया था। प्रसिद्ध इको फेमिनिस्ट मारिया मीज़ तथा वंदना शिवा ने अपनी पुस्तक ‘इको-फेमिनिज़्म’ में पारिस्थितिक स्त्रीवाद को इस प्रकार परिभाषित किया है ‘इको-फेमिनिज़्म (पारिस्थितिक स्त्रीवाद) एक प्राचीन ज्ञान के लिए एक नया पद है, यह 1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत के विभिन्न सामाजिक आंदोलनों- नारीवादी, शांति
और पारिस्थितिकी आंदोलन से उभरा।’ (“a new term for an ancient wisdom.” Grew
out of various
social movement- the feminist, peace, and ecology movements- in the late 1970s and early 1980s.)[2]
भारतीय समाज तथा हिन्दी साहित्य में पारिस्थितिक स्त्रीवाद की छटा ऋग्वेद से लेकर समकालीन साहित्य तक हर कहीं बिखरी हुई है, आवश्यकता है तो बस उसे तलाशने की, समझने की तथा चेतना जागृत करने की। पारिस्थितिक स्त्रीवाद प्रकृति एवं स्त्री के मध्य समानता (समानधर्मी गुण तथा शोषण) के संबंधों की तलाश करते हुए उनके बीच एक गहरे और अटूट संबंध को दर्शाता है अतः इस समानता के सम्बद्ध में जो सबसे पहला और गहरा संबंध है वो जन्मदात्री का है। प्रकृति और स्त्री अपनी जननी स्वरूप में न केवल जन्म दे कर जीवनचक्र को गतिमान रखने का अनमोल कार्य करती हैं अपितु संतान के पालन-पोषण का प्रथम दायित्व भी उन्हीं पर आता है। परंतु हमारी सभ्यता में किस प्रकार एक पुत्र अपनी माँ से जन्म लेकर तथा पालन पोषण प्राप्त कर उसके ही शोषण के लिए तैयार हो जाता है, इससे हम भलीभाँति परिचित हैं और अगर नहीं हैं तो इस परिस्थिति का जीवंत उदाहरण हम अपने आसपास के समाज व परिवार में आसानी से देख सकते हैं। जहाँ एक माँ का प्यारा-दुलारा बच्चा जो बचपन में अपनी माँ से चिपका रहता है एवं जिसका कोई भी छोटा-बड़ा काम माँ के बिना होना मुश्किल होता है वहीं उसके युवा होते ही उसके जीवन की बागडोर पिता के हाथ में आ जाती है। जीवन से जुड़े बड़े-से-बड़े फैसले माँ के बिना मौजूदगी व मंजूरी के हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में संतान के लिए माँ की कुछ खास अहमियत नहीं रह जाती और वह भी अपनी जरूरतों के हिसाब से माँ को महज एक सेवाकर्मी जान शोषण करता चला जाता है। ऐसे राजदुलारों की मानसिकता को रणेन्द्र जी ने अपनी कविता ‘पन्ना धाय’ में कुछ इस प्रकार दिखाने का प्रयास किया है -
छिड़कती हो जान तमाम
युवराज बनते
अंगवस्त्रम के धूल-सा झाड़
रथारूढ़ हो बढ़ जाएँगे,”[3]
इसी प्रकार हमारे समाज में यह धारणा है कि पृथ्वी हमारी माता है और हम सब उसकी संतान हैं। हम पृथ्वी रूपी माँ की गोद में खेलते हुए तथा उसके द्वारा हमें प्रदान की हुई समस्त संसाधन का प्रयोग करते हुए उसके शोषण व उसपर आधिपत्य जमाने को किस प्रकार तत्पर हैं, ये देखने के लिए हमें पूरी पृथ्वी घुमने की आवश्यकता नहीं बल्कि आवश्यकता है अपने आस-पास के समाज के पर्यावरण सम्बधी विचारों को टटोलने की। प्रकृति विनाशक तथाकथित विकास परियोजनाओं के विरोध में हुए कुछ पर्यावरणीय आंदोलनों–चिपको आंदोलन, भोपाल त्रासदी, नर्मदा बचाओ आंदोलन आदि जैसे कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों को जानने की। जिससे हमें यह एहसास होगा कि हम अपनी प्रकृति रूपी माँ के प्रति कितने संवेदनहीन हो गए हैं तथा अपनी अंतहीन लालसा को पूरा करने हेतु उसके शोषण के चरम पर पहुँच कर भी हम कुछ खास चिंतित दिखाई नहीं देते। ऐसे ही तथाकथित विकास की आड़ में प्रकृति के शोषण के लिए आए तथाकथ्य मुख्यधारा के लोगों की मानसिकता का एक दृश्य रणेन्द्र जी ने अपने काव्य ‘अवसान वेला पर’ में कुछ इस प्रकार दिखाया है -
सवार होकर आए
आरियाँ, बुलडोजर, डम्फर, बाजार
दतर, कुर्सियाँ, वर्दी, हथियार
मोटी-मोटी कानूनी किताबें
माननीय भाष्यकार”[4]
आज के इस तथाकथित विकसित एवं सुविधा सम्पन्न जीवन की तलाश में हम प्रकृति का शोषण करने एवं उसे हर प्रकार से रौंदने की दौड़ में बहुत आगे निकल आए हैं जहाँ से हमें अपनी धरती माँ विभिन्न प्रकार के प्रदूषण एवं पर्यावरण परिवर्तन के जरिए केवल चीत्कार करती हुई ही नजर आती है। इतना ही नहीं बल्कि इस विकास रूपी छली स्वर्ण मृग की लोलुप छाया से कोई भी नहीं बच सकेगा जिसके फलस्वरूप तत्कालीन परिस्थिति की दुर्दशा का चित्रण रणेन्द्र जी ने इस प्रकार किया है -
जिसकी नित-नित नूतन छवि के पीछे
गुम होती जा रही
पूरी की पूरी पतलून पहनती नई पीढ़ी ...
मृग की अछोर भूख
निगलती जा रही
हमारे पाट-पठार, स्वर्णरेखा, कोयल-कारों
धान के कटोरे दोन-टाँड़”[5]
ऐसे विकट समय में प्रकृति के मित्र एवं पोषक आदिवासी समाज एवं मजदूर व काश्तकारीन पर रचीं कविताओं के माध्यम से सुविख्यात कथाकार और कवि रणेन्द्र हमें इस भयावह समय के समाज का केवल दर्पण ही नहीं दिखलाते हैं बल्कि स्त्री एवं प्रकृति में उनकी आस्था एवं दुर्दशा के दर्शन भी करवाते हैं।
“पारिस्थितिक स्त्रीवाद यह मानता है कि स्त्री और पर्यावरण के बीच एक अटूट बंधन है, जो उन्होंने इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में एक साथ जिया है। दोनों के शोषण का इतिहास साझा है। दुनिया के विकासशील देशों में महिलाओं को प्राकृतिक संसाधनों की प्राथमिक उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है, क्योंकि वे प्रतिदिन जलावन, भोजन तथा चारे के लिए जंगल पर आश्रित हैं।[6] रणेन्द्र के काव्य संग्रह ‘थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ’ में ऐसी अनेक महत्वपूर्ण कविताएं हैं जो पर्यावरण से स्त्री के प्राथमिक संबंधों को दर्शाती हैं जैसे उनकी कविता ‘पानी और स्त्री’ में वे लिखते हैं –
नींद में अचेत डूबी स्त्री के,
कानों में कलकल करती है नदी
उँगलियाँ ढूँढने लगती हैं घड़े,
चूल्हा-चौका, बर्तन-बासन
धोना-फिंचना”[7]
यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है कि स्त्री और पानी का कितना गहरा संबंध है। परिवार में सबका ध्यान रखने तथा घर की साफ-सफाई, भोजन पकाने से लेकर खेतों में रोपनी जैसे हर छोटे-बड़े काम में स्त्री को पानी की आवश्यकता पड़ती है, इसीलिए प्रकृति के साथ स्त्री का सीधा संबंध स्थापित होता है। पानी का महत्व एवं उसकी अनुपलब्धता का पता सबसे पहले स्त्री को ही चलता है क्योंकि प्रतिदिन के कार्य हेतु प्रकृति पर निर्भरता के कारण स्त्रियों को पानी से होने वाले छोटे-मोटे काम के लिए भी पानी संग्रह कर पाना आज के बदलते परिवेश में अत्यंत चुनौतीपूर्ण हो गया है -
यहाँ पर कवि ने थार व पहाड़ अथवा वनों में जीवन बसर करने वाली स्त्रियों को रेखांकित किया है। चूँकि उनका सीधा संपर्क प्रकृति से है इसीलिए इनकी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए पानी का अत्यंत महत्व है। पानी की ऐसी कीमत वे लोग नहीं समझ सकते जो अट्टालिकाओं में रहते हों और जिनको पानी प्राप्त करने के लिए केवल नल चलाने भर की मेहनत लगती हो। ऐसे तथाकथित उच्चवर्ग की महिलायें अथवा पुरुष पानी की कीमत भला क्या जानें।
आदिवासी मातृसत्तात्मक परिवार में पीढ़ियों से चली आ रही महिलाओं द्वारा खेती करने की परंपरा को कवि अपनी कविता ‘धनरोपनी’ में दर्शाते हैं जिसमें ये स्वाबलंबी स्त्रियाँ अपनी मान मर्यादा एवं गर्व के साथ अपने परिवार व समाज के लिए खेतों में धान रोपने का कार्य करती हुई नजर आती हैं -
हरमू कॉलोनी की
नौलखा कोठियों के ठीक पास
अपने भुईंहर दोन में
वे रोप रही हैं धान
पूरे मान और रोपाई के कोरस गान के साथ”[9]
जिन आदिवासी को उनके ही जमीनों से बेदखल किया जा रहा है उन पतलूनधारी पूँजीपतियों के लिए धनरोपनी के ये कोरस गान एक जवाब के रूप में उभर रहें हैं जिसमें पूँजीपतियों के प्रति चेतावनी है कि ये आदिवासी काश्तकारीन अंगूठा लगा कर कभी अपनी जमीन का सौदा नहीं करेंगी और न ही पीढ़ियों से चलती आ रही अपनी परंपरा और संस्कृति को छोड़ेगी।
कभी रोपे थे अपने पाँव
आज भी
समय के तेज आंधी के विरूद्ध
अपनी जड़ें रोप रही है एक माँ...
कंधे उचका, ठठाने वाले पतलूनों के लिए
तत्पर है इनका
कीचड़ सना पंजा
पर कभी नहीं देंगी
अंगूठा निशान”[10]
आदिवासी समाज ही नहीं बल्कि पूरी मानव प्रजाति तथा इस पृथ्वी पर जी रहे, पल रहे हर जीव जंतु के लिए पृथ्वी पर मौजूद प्राकृतिक संपदा को बचाना आज के पर्यावरणीय संकट के समय में कितना आवश्यक है यह हमसब जानते हैं। परंतु तथाकथ्य विकास के अंधाधुंध दौड़ में दौड़ रहे पूंजीपति वर्ग को केवल प्राकृतिक संसाधनों की लूट से मतलब है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति का शोषण अपने चरम पर है। ऐसे में इस अंतहीन शोषण की प्रक्रिया के परिणाम की विभीषिका को उकेरता रणेन्द्र जी की कविता ‘सलवा जुडुम: छह कविताएं’ की पंक्तियाँ इस प्रकार है -
न जंगल हरा
न नदियाँ साँवली
न धरती गोरी
बादशाह सलामत ने
खुरच लिए रंग सारे...
निचोड़े जा रहे हैं
हरे साँवले जंगल”[11]
प्रस्तुत पंक्तियों से हमें प्रकृति पर हो रहे भीषण अत्याचार के परिणाम देखने को मिल रहें है जिसमें उनकी दशा बिल्कुल उलट-पुलट हो कर रह गई है।
रूज़वेल्ट द्वारा स्त्री के शरीर पर हो रहे अत्याचार के विरोध में प्रस्तुत किया गया एक वक्तव्य इस प्रकार है-“हमें
अपने शरीर को और अधिक वैश्विक तरीके से नियंत्रित करने के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि यह न केवल पुरुष और डॉक्टर हैं जो हमारे शरीर के प्रति आक्रामक व्यवहार करते हैं, बल्कि
बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी हैं!”[12]
स्त्री शोषण के विरोध में कहे गए ये वाक्य जो सुनने में निर्भीकता का स्वर लिए हुए है, इस निर्भीकता को आने में न जाने कितनी सदियाँ लग गईं। परंतु आज भी स्त्री को अपने शरीर पर अधिकार नहीं है और आज भी उन्हें उनके शरीर पर पुरुष की आक्रामकता कहीं-न-कहीं झेलनी पड़ती है। जैसे किसी अनजान ‘लिजलिजे गलीज जोंक’ रूपी पुरुषों के रूप में -
मदादेह के बुभुक्षु
लिजलिजे गलीज जोंक,
फक से बुझ गई रोशनी,
चीख-पुकार, गारी, दाँत-नाखून,
बच गई टायलेट में खींचे जाने से,
अंचरा फटा, नुच गई कुर्ती की बाँहें,
ससर गए अंधेरे में गलीज जोंक,
टॉर्चों के जलते,”[13]
तो कभी अपने ही घर के भेड़िया तथाकथित पति रूपी पुरुष से अपने शरीर पर हो रहे अत्याचार व शोषण को चुपचाप सह लेना होता है, ये सोच कर कि बाहर के भेड़ियों से भरी दुनिया से इस घर के भेड़िये को झेलना शायद आसान हो -
खूँखार भेड़ियों के सामने
प्यारा लगता है
घर का अपना भेड़िया
नन्हे नाखून, छोटे दाँत...
व्रत-उपवास
छतीसों स्वाद के व्यंजन
कपास से हल्का बिस्तर
रेशम-सी मुलायम देह
परोस
मीठी नींद सुलाती है”[14]
ये पक्तियाँ पढ़ कर थोड़ा आश्चर्य भी होता है कि एक स्त्री के मन की इतनी गहराइयों तक पहुँच कर उसकी दशा, वेदना व मानसिकता समझने वाला कविवर रणेन्द्र जी के रूप में एक पुरुष ही है जो इतनी अच्छी तरह से स्त्री को समझ पा रहा है। किन्तु इस आश्चर्य रूपी संशय का पूर्णतः समापन उनकी सबसे महत्वपूर्ण कविता को पढ़ कर भी हो ही जाता है। जिसके बारे में कुमार मुकुल ने लिखा है कि-“थोड़ा
सा स्त्री होना ही पूरा मनुष्य होना है और ये कविताएँ पाठकों को इस मनुष्य होने की ओर ले जाने की कोशिश करती हैं।”
सहज संगति चाहता हूँ,...
लेकिन इसी जनम में अपनी
सहज संगति की चाह
पूरी हो कामना अनन्तिम इसीलिए
थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ
हरियाली से गुजरता
हरा होना चाहता हूँ।” [15]
प्रस्तुत कविता के माध्यम से कवि ने पौरुषता (कठोरता) के मद से परिपूर्ण मनुष्यों को एक निर्मल राह दिखाई है जिसमें प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ गुण अपना सब कुछ पृथ्वी पर पल रहे प्राणियों को निःस्वार्थ भाव से समर्पित कर देना एवं स्त्रियोचित गुण (सौहार्द, देखभाल, ममता, दया, त्याग, करूणा आदि) को थोड़ा सा भी अपनाना वो निर्मल राह है, जिस पर चल कर आप केवल पूर्ण मनुष्य ही नहीं बनेंगे बल्कि सम्पूर्ण मानवता व प्रकृति के लिए एक स्वस्थ्य एवं सकारात्मक पर्यावरण का निर्माण भी कर सकेंगे, जिसकी आवश्यकता आज के संवेदनहीन व मशीनीकरण के समय में बहुत अधिक है। इसी संदर्भ में स्त्री को पेड़ के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत करते हुए अनिसेट्टी रजिता ने अपनी कविता 'स्त्री
एक पेड़ है' में पारिस्थितिक स्त्रीवाद के मूलभाव को इस प्रकार से स्पष्ट किया है-“पेड़
की छाया सभी जीव-जन्तुओं को आश्रय देती है। पेड़ फूलता है, फलता
है और उसकी ठंडी हवा में सब सुख-शांति अनुभव करते हैं। सूख जाने पर भी पेड़ अपनी लकड़ी समर्पित करता है। पेड़ के अनन्यगुण है। हमारी जलवायु को संतुलित रखने में पेड़ की महत्वपूर्ण भूमिका है। वह एक जलस्रोत भी है। वह अंतरिक्ष के भाप की मात्रा को कम करता है। फोटोसिंथसीस से तापमान कम हो जाता है। नदियों एवं नालों में जल का शाश्वत सान्निध्य भी इससे संभव हो जाता है। वैसे स्नेहिल, आर्द्र
तथा सबका छाया बनकर कालचक्र एवं जीवों के इतिहास को भविष्य की ओर ले जानेवाली है स्त्री। इन दोनों की स्थिति आज खतरे में है। गोया कि दुनिया का अस्तित्व ही इन दोनों पर निर्भर है। जब पेड़ और स्त्री खतरे में हैं तो दुनिया का भविष्य भी शंकाकुल है।”[16]
स्त्री और प्रकृति दोनों समान रूप से पुरुष के शोषण के शिकार हैं। अतः पारिस्थितिक स्त्रीवाद में मानवता की भलाई के लिए दोनों को बचाने का उत्तरदायित्व स्त्री के ऊपर है। इसलिए महिलाएँ इस क्षेत्र में सम्मिलित होकर प्रकृति के विनाश के विद्रोह में आंदोलन चलाती आ रही हैं। इनमें महाश्वेता देवी, अरुंधती राय, मेधा पाटेकर, इरोम शर्मिला इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। इसी संदर्भ में रणेन्द्र जी की अत्यंत रोचक व प्रेरणादाई कविता ‘रसोईघर में पिता’ उल्लेखनीय है, जिसमें पत्नी के मायके चले जाने पर पुत्री के भोजन हेतु पिता पहली बार रसोईघर में जाते हैं। बच्ची के नखरों से परेशान तथा पत्नी के कर्म से आह्लादित अपनी दसभुजधारिणी गृहिणी का लोहा मान कर पल-पल उसे याद करते हैं तथा अपनी पुत्री के लिए मन ही मन उसके विदुषी व निर्भीक होने की भी कामना इस प्रकार करते हैं -
टॉफी की ये झाड़ियाँ
बदल जाएँ / शब्दों के बोधिवृक्ष में
जिसकी छतनार छाया में
ध्यानमग्न तुम/गौतमी कि गार्गी
कि महाश्वेता, अरुंधती राय
मेधा पाटेकर, इरोम शर्मिला
चमचम चमके तुम्हारी पेशानी”[17]
किन्तु पिता की ये मनोकामना पर्यावरण परिवर्तन के कारण गुम होती तितलियों व लुप्त होती गोरैयों को भाँप पत्ते-सा
काँप उठता है। इस बाजारवाद के युग में जहाँ शोषण व भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, ऐसे में अनेक कारणों से ‘अपहृत होती बेटियाँ/घरों की ओर लौटते/ नहीं दिखते जिनके पदचिन्ह’ ऐसे भीषण हालात के प्रति इस पिता द्वारा कवि ने अत्यंत चिंता जाहिर की है एवं पाठकों के समक्ष प्रकृति व स्त्री के खो जाने अथवा लुप्त हो जाने की खतरनाक परिस्थिति को उजागर कर उनकी चेतना जगाने का प्रयास किया है।
पारिस्थितिक स्त्रीवादी दर्शन सभी जीव-जन्तुओं के परिष्कार को लक्ष्य करता है जिससे यहाँ शोषणमुक्त एक दुनिया की संकल्पना प्रकट होती है। आज की इस दुनिया में हर प्रकार के शोषण के विरोध में ‘हमें अपनी चुप्पी तोड़ने और कार्य करने की आवश्यकता है। जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई लड़ रही महिलाओं ने हम सभी को दिखाया है कि हमारे संयम एवं सजगता से हम एक मानवीय समाज की रचना कर सकते हैं।’[18] प्रकृति दोहन तथा स्त्री शोषण के इस दमनकारी दौर का अन्त करने के लिए रणेन्द्र ने प्रकृति पूजक आदिवासी, काश्तकारीन, मजदूर एवं हर समाज की स्त्रियों का आवाहन करते हुए लिखा है -
इस अवसान वेला पर
छाती भर दम भर कर
हाँक देना चाहता हूँ
सहिया हो” [19]
“वंदना शिवा के अनुसार, पितृसत्तात्मक पूँजीवादी विश्वदृष्टि से इस पृथ्वी के सारे जीवों के विमोचन एवं संरक्षण के लिए स्त्रियों को लड़ना चाहिए। इसके बिना स्त्रियों का विमोचन भी संभव नहीं है। ‘इको-फेमिनिज़्म’ फेमिनिज़्म से भिन्न है। इको-फेमिनिज़्म पूँजीवाद एवं युद्ध के खिलाफ है। पूँजीवादी संरचना पर आधारित सभी प्रवृत्तियों का विरोध इको-फेमिनिज़्म करता है।” [20] भारत की प्रसिद्ध इकोफेमिनिस्ट वंदना शिवा द्वारा कहे गए ये वाक्य हमें प्रकृति व स्त्री एवं अन्य प्राणियों पर हो रहे अत्याचार व शोषण के पीछे छुपे तथ्य पूँजीवाद तथा बाज़ारवाद की ओर इशारा करते हुए उससे अहिंसक तौर पर लड़ने हेतु स्त्री को प्रेरित करते हैं। इसी संदर्भ में रणेन्द्र जी भी स्त्रियों की शक्ति को संबोधित करते हुए कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार व्यक्त करते हैं -
प्रतीक्षा नहीं करती किसी नायक की
नरमेधीय यज्ञ के अश्व को
थाम लेंगी
अबकी बार ये वनवासिनी माँ” [21]
‘कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूँढत बन माहि’ जगविदित संतकवि कबीरदास का यह स्व-ज्ञान व अभिप्रेरणा से परिपूर्ण दोहा यहाँ स्वयं ही स्मरण हो आता है, जिस प्रकार मृग के ही कुंडल में अत्यंत सुगंधित कस्तूरी बसती है और वह मृग अज्ञानवश उस सुगंध की तलाश में वन-वन मारा-मारा फिरता है, उसी प्रकार स्त्रियाँ वीरों व नायकों को जन्म तो दे देती हैं परंतु अपनी शक्ति को न समझ कर किसी भी समस्या के समाधान हेतु नायकों की राह तकती रहती हैं। यह कैसी विरोधाभास परिस्थिति है? ऐसी स्त्रियों के लिए कविवर रणेन्द्र जी के काव्य में उपस्थित वनों, गाँव तथा प्रकृति से निकटतम संपर्क में रहने वाली माँ/स्त्री का उदाहरण उपस्थित है जो अपने ही बदन से जन्मे किसी नायक का इंतजार नहीं करती बल्कि वे प्रकृति विनाशक प्रभुत्ववादी मानसिकता को रोकने के लिए अब स्वयं तत्पर हैं।
निष्कर्ष : गायब होते जंगल, जमीन और नदियाँ, पिघलते ग्लेशियर, जलवायु परिवर्तन, तरह-तरह की बीमारियाँ एवं जीव-जंतु व प्रत्येक दमित समुदाय के मनुष्यों पर हो रहे तमाम तरह के अमानवीय शोषण की इन भयावह एवं अत्यंत चिंतनीय परिस्थिति हम सब को झिंझोर कर जगाने की अनन्तिम चेतावनी है कि मानव अब तो अपनी मानवता का प्रमाण दो और इस स्वर्ग से सुंदर पृथ्वी की रक्षा व पोषण में बिसुरा चुकी अपनी जिम्मेदारी का यथाशीघ्र वहन करो।
भारत जैसे पुरुष प्रधान समाज में नारियों द्वारा अपनी स्थिति का दावा करना नारीत्व का एक बेहतर संकेत है। जैसे-जैसे पारिस्थितिक स्त्रीवाद का बदलाव और विकास होता रहेगा, निश्चित रूप से अलग-अलग स्थितियाँ बनेंगी और धरातल पर आएंगी।
निष्कर्ष रूप में हमने जाना कि पारिस्थितिक स्त्रीवाद प्रकृति एवं स्त्री के मध्य संबंधों को तलाशते हुए उन पर हो रहे शोषण की घोर आलोचना करता है, साथ ही उनकी समानता को दर्शाते हुए पितृसत्ता व प्रभुत्ववादी मानसिकता से संचालित इस विश्व व प्रकृति के कल्याण एवं आने वाली पीढ़ियों के लिए इस गृह-रूपी ग्रह पर मौजूद बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधन को उन तक पहुँचाने के लिए बचाने एवं देखभाल की नीति से महिलाओं को आगे बढ़ कर बागडोर संभालने का आह्वान करता है। जिससे विनाश के कगार पर पहुँची इस प्रकृति रूपी जगत जननी को बचाया और समृद्ध किया जा सके तथा जिसके परिणामस्वरूप सबका विकास और विश्वबन्धुता का संवर्धन हो सके। जातिवाद, जनसंख्या वृद्धि और कुछ मनुष्यों का दूसरों के ऊपर या सभी मनुष्यों का अन्य जानवरों के ऊपर महत्व देने के मुद्दे, वैश्विक स्तर पर पारिस्थितिक नारीवादियों के विचारों और कार्यों को उत्तेजित करेंगे। साथ ही परिस्थितिक स्त्रीवाद से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर करने के प्रयास में लगे साहित्यकारों में मृदुला गर्ग, नासिरा शर्मा, संजीव, राजेश जोशी, रणेन्द्र इत्यादि जैसे अग्रणी लेखकों द्वारा अपनी महत्वपूर्ण व उत्कृष्ट रचनाओं से भी पाठकों तक वर्तमान समय की विभीषिका को गंभीरता से पहुँचाने में सहायक सिद्ध होंगे।
[1] के.वनजा, इको-फेमिनिज़्म, वाणी प्रकाशन, 2013, पृष्ठ सं-12
[3] रणेन्द्र, थोड़ा सा स्त्री होना चाहता हूँ, शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली, 2010, कविता - पन्ना धाय, पृष्ठ सं-45
शोधार्थी, हिन्दी विभाग, कर्नाटक केन्द्रीय विश्वविद्यालय,कलबुर्गी (गुलबर्गा)
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