- डॉ. रवि कुमार
शोध
सार :
हिन्दी साहित्य में पत्र-पत्रिकाओं
के
विकास
के
साथ
ही
नई
विधाओं
का
उदय
हुआ। धीरे-धीरे
कविता, कहानी, आलोचना में नवीन प्रयोग शुरू हुए।
इसके
साथ
ही
साहित्य में आलोचना की विश्वसनीयता पर अनेक सवाल खड़े हो रहे थे।
ऐसे समय में आलोचना पर केंद्रित पत्रिका निकालना उससे भी जोखिम भरा कार्य था। लेकिन इस जोखिम को उठाने का काम 1951 में ‘शिवदान सिंह चौहान’ ने
अपनी ‘आलोचना’ नामक पत्रिका के माध्यम से किया और उसके बाद फरवरी 1958 ई. में ‘रामविलास शर्मा’ अपनी पत्रिका ‘समालोचक’ के माध्यम से करते हैं। ‘समालोचक’ साहित्य की समस्त विधाओं, साहित्य की सीमाओं एवं संभावनाओं के प्रति सचेत है। समालोचना में प्रकाशित आलोचनाएँ स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद
(जब तक पत्रिका
प्रकाशित
हुई) के समस्त भारतीय साहित्य में मौजूद सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और ऐक्य तथा मूल्यों एवं दृष्टियों की एक जगह पर पड़ताल करती है।
‘समालोचक’ पत्रिका में आलोचना के विभिन्न रूप मिलते हैं इसमें तुलनात्मक
आलोचना, पाश्चात्य आलोचना, व्याकरण आधारित आलोचना, भाषा संबंधी आलोचना, काव्यशास्त्रीय आलोचना, विविध भाषा संबंधी आलोचना, लोक साहित्य की आलोचना भी देखने को इस पत्रिका में मिलती है।
यही
कारण
है
‘समालोचक’ पत्रिका
हिंदी
आलोचना
के
विकास
में
अहम
भूमिका
निभाती
है।
बीज
शब्द : आलोचना, समालोचक, समीक्षा, पुस्तक-समीक्षा, सौंदर्यशास्त्र, यथार्थवाद,
पत्र-पत्रिकाएं, रामविलास शर्मा, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, बाल-साहित्य, हिंदी-व्याकरण।
मूल
आलेख : हिंदी आलोचना का आरंभ हिंदी की साहित्यिक
पत्र-पत्रिकाओं से हुआ। भारतेंदु युग
से
लेकर
अभी
तक
पत्र-पत्रिकाओं
के
माध्यम
से
आलोचना
के
स्वरुप,
आलोचक
के
उत्तरदायित्त्व,
साहित्य
में
आलोचना
की
उपयोगिता,
साहित्य
में
आलोचना
का
योगदान
व
उसकी
प्रासंगिकता
एवं
इसमें
आए
बदलाओं
पर
अनेक
चर्चाएं
हुई
हैं
और
हो
भी
रही
हैं,
क्योंकि
“जीवंत आलोचना साहित्य
के
हर
मोड़
के
साथ
नए
सन्दर्भों
में
ढलती
है
और
अपनी
सार्थकता
को
सिद्ध
करती
है।”[1]
भारतेंदु युग में हिंदी आलोचना का विकास परिचयात्मक रूप से होता हुआ द्विवेदी युग में आता है। भारतेंदु युग में ‘हिंदी प्रदीप’ और ‘आनंद कादम्बिनी’ पत्रिका का हिंदी आलोचना के विकास में अहम योगदान रहा। इसके अतिरिक्त कविवचन सुधा, हरिश्चंद्र पत्रिका, ब्राह्मण आदि पत्रिकाओं में भी यत्र-तत्र पुस्तक समीक्षा और आलोचना का रूप देखने को मिलता है। द्विवेदी युग हिंदी आलोचना के विकास में सबसे अहम भूमिका निभाता हैं जहाँ भारतेंदु युग में आलोचना व्यावहारिक आधिक थी वहीं द्विवेदी युग में सैद्धांतिक और सुधारवाद पर अधिक जोर रहा। जिसके प्रणेता महावीर प्रसाद द्विवेदी बनें, जिन्होंने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से साहित्य और आलोचना विधा को नया रूप दिया।
हिन्दी साहित्य में
पत्र-पत्रिकाओं
के
विकास
के
साथ
ही
अनेक हलचलों, बहसों एवं विवादों का उदय
भी
हुआ। कविता, कहानी, आलोचना में नवीन प्रयोग हो रहे थे। साथ ही आलोचक के दायित्व और आलोचना पर भी प्रश्न चिह्न लगाने का कार्य किया जा रहा
था। साहित्य में आलोचना के विकास के
बाद ही लेखकों में असंतुष्टी के भाव को साफ रूप से देखा जा सकता था। भारतेन्दु युग से लेकर नई कविता तक यह
असंतुष्टि का भाव साफ़
झलकता
है।
साहित्य में आलोचना की विश्वसनीयता पर अनेक सवाल खड़े हो रहे थे।
ऐसे समय में आलोचना पर केंद्रित पत्रिका निकालना उससे भी जोखिम भरा कार्य था। लेकिन इस जोखिम को उठाने का काम 1951 में ‘शिवदान सिंह चौहान’ अपनी ‘आलोचना’ नामक पत्रिका के माध्यम से किया
और उसके बाद फरवरी 1958 ई. में ‘रामविलास शर्मा’ अपनी पत्रिका ‘समालोचक’
के माध्यम से करते हैं। यह पत्रिका पूर्णतः आलोचना केंद्रित पत्रिका थी। इस पत्रिका
में
आलोचना को मुख्य आधार बनाया गया है, साथ ही पुस्तक-समीक्षा के प्रतिमानों
में भी ‘समालोचक’ पत्रिका बदलाव करती है और मित्र-धर्म के निर्वाह को हटाकर सत्यनिष्ठ
एवं न्याय संगत आलोचना का रूप प्रस्तुत करती है। ‘समालोचक’ पत्रिका में आलोचना के विभिन्न रूप मिलते हैं इसमें तुलनात्मक आलोचना, पाश्चात्य आलोचना, व्याकरण आधारित आलोचना, भाषा संबंधी आलोचना, काव्यशास्त्रीय आलोचना, विविध भाषा संबंधी आलोचना, लोक साहित्य की आलोचना भी देखने को इस पत्रिका में मिलती है। समालोचक पत्रिका का सिद्धांत वाक्य ही “हिंदी का प्रतिनिधि आलोचनात्मक मासिक पत्र”[2]
था।
‘समालोचक’ पत्रिका के मुख्य संपादक डॉ. रामविलास शर्मा थे और उनके सहयोगियों के रूप में विश्वंभरनाथ उपाध्याय और राजनाथ शर्मा थे। संपादकों ने अपनी इस पत्रिका का सिद्धांत वाक्य ही आलोचना रखा, क्योंकि उस समय आलोचना को समर्पित कुछ गिनी-चुनी ही पत्रिका आती थी। ऐसे समय में हिंदी में आलोचना से संबंधित पत्र-पत्रिकाओं की आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति कई हद तक ‘समालोचक’ पत्रिका करती है। अपने संपादकीय में रामविलास शर्मा, साहित्य में आलोचना की आवश्यकता का जिक्र करते हुए ‘समालोचक’ के प्रकाशन के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं, “आलोचना आवश्यक है, उपयोगी है, हिंदी के साहित्य में आलोचना के विकास की अनेक संभावनाएँ
विद्यमान हैं, इसलिए इस कार्य में विनम्र सहयोग के रूप में ‘समालोचक’ का यह प्रकाशन है। हमारा ध्येय हिंदी आलोचना के विकास में योग देना है, उसमें आमूल परिवर्तन करना अथवा युगांतर उपस्थित करना नहीं है।....व्यवस्थित ढंग से समीक्षा सिद्धांतों की चर्चा चलाना, देश की विभिन्न भाषाओं के साहित्य से परिचय बढ़ाना, विदेश के उल्लेखनीय
साहित्यकारों और साहित्यिक धाराओं की जानकारी प्राप्त करना, हिंदी की नई साहित्यिक
गतिविधि का विवेचन करना, साहित्य की परम्परा का सम्यक ज्ञान प्राप्त करना, संक्षेप में ये हमारा उद्देश्य है।”[3]
समालोचक पत्रिका दो वर्षों तक प्रकाशित होकर बंद हो गई परंतु अपने दो वर्षों के प्रकाशन काल में यह साहित्य का ऐसा लोकतान्त्रिक मंच बन कर सामने आया जिसमें विचारों की संकीर्णता के लिए जगह नहीं थी। आलोचना की इस मासिक पत्रिका में हर महीने सम्पादकीय और पुस्तक समीक्षा लिखना इस पत्रिका का वैशिष्ठ्य रहा है। इसके अलावा इस पत्रिका में हर वर्ष एक-एक विशेषांक निकाला गया। जो पत्रिका और साहित्य के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। क्योंकि उस समय सौन्दर्यशास्त्र और यथार्थवाद जैसे विषयों पर हिंदी में बहुत कम सामग्री उपलब्ध थी, ऐसे समय में इन दोनों ही विषयों पर विशेषांक निकालना चुनौती का काम था, जिसे रामविलास शर्मा बखूबी समझते थे।
सौंदर्यशास्त्र पर केंद्रित विशेषांक निकलना उस समय एक अनूठा प्रयोग था और समालोचक पत्रिका का पहला अंक ही सौंदर्यशास्त्र पर निकला। विषय पर्याप्त नया, मौलिक और चुनौतीपूर्ण था। रामविलास शर्मा इस सन्दर्भ में लिखते हैं कि, “हिंदी में समीक्षा-सिद्धांतों
की चर्चा अधिक
हो, इस विचार से ‘समालोचक’ का पहला अंक सौंदर्यशास्त्र विशेषांक के रूप में प्रकाशित हो रहा है।”[4]
यह वह दौर था जब हिंदी में सौन्दर्यशास्त्रीय चिंतन की कोई निर्धारित परम्परा नहीं थी और मार्क्सवादी आलोचना पर यह आरोप बहुत आम हो चुका था कि वह कला एवं साहित्य में सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्यों की उपेक्षा करती है और केवल सामाजिक, राजनीतिक परिवेश और वर्ग-संघर्ष के आधार पर ही साहित्य का मूल्यांकन करती है। इस अंक के माध्यम से इस साहित्यिक मुद्दे को एक नई दिशा और ऊर्जा प्राप्त हुई। भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन, भारतीय कला, काव्यशास्त्र तथा भाषा सभी का सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से विवेचन किया गया है। इस संदर्भ में हरिमोहन शर्मा लिखते हैं “हमारे यहाँ सौदर्यशास्त्र को एक अमूर्त धारणा समझा जाता है, किंतु यहाँ इसे ऐतिहासिक विकास क्रम में व्याख्यायित किया गया है।”[5]
सौंदर्य परक विषय पर अनेक उपयोगी लेख इस विशेषांक में प्रकाशित हुए। इस महत्वपूर्ण सामग्री के पीछे डॉ. रामविलास शर्मा का लक्ष्य था, “साहित्य तथा अन्य ललित कलाओं के परस्पर संबंध को हम समझें, उनकी समानताओं को पहचाने, ललित कलाओं की सामान्य भूमि पर साहित्य के सौंदर्य का विवेचन करें; प्रकृति, मानव जीवन, साहित्य तथा अन्य कलाओं के सौंदर्य की विशेषताओं उनकी विविधता और समानता का ज्ञान प्राप्त करें। इसलिए साहित्यशास्त्र से अधिक व्यापक यह सौंदर्यशास्त्र आवश्यक है।”[6]
समालोचक
पत्रिका
पहले ही अंक से साहित्य जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बना लेती है। रामविलास शर्मा एक बड़े आलोचक थे, इसलिए हर एक साहित्यकार की नजर उनकी इस पत्रिका के पहले अंक पर थी। इस अंक की विशिष्टता को बताते हुए डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल लिखते हैं कि, “सौंदर्य शास्त्र विशेषांक हिंदी में अपने ढंग की पहली वस्तु है। चारुतातत्व साहित्य, कला, जीवन, धर्म इन सबका मूल प्रेरकतत्व है। इसका ठीक परिचय जीवन की कला का अनुभव है। यह विषय व्यावहारिक महत्व रखता है और नित्य-प्रति के विकासशील जीवन में पदे-पदे उसकी आवश्यकता पड़ती है। आपने अपने पत्र का आरम्भ इस बड़ी छटा से किया है कि पहला अंक देखकर इसकी टकसाली पद का विश्वास हो गया। आप और विश्वम्भरनाथ जी की सुरुचि का जिसे सुफल प्राप्त हो उस पत्र से भविष्य में आशा होती है कि हिंदी से साहित्यिक जगत में उच्चतम कोटि की और सक्रीय समीक्षा धारा का सूत्रपात होगा। हिंदी में अनेक मासिक हैं, पर सब के कुत्स्थान पर बैठने योग्य पत्र की अभी तक कमी थी। समालोचक के पहले अंक से जो आशा बंधी है, वह पूरी हो सकी तो इस पत्र का नयावतार चरितार्थ होगा।”[7]
साथ ही संपादकों को अगाह भी कर देते हैं कि यह पत्रिका ऐसे ही उपयोगी सामग्री को जगह दे और साहित्य में आलोचना के गिरते स्तर की समस्या का समाधान करे। साथ ही इस बात की तरफ पहले ही ध्यान दिला दिया कि यह पत्रिका धीरे-धीरे सिर्फ छात्रों के बीच में ही सीमित न रह जाये क्योंकि जहाँ से यह पत्रिका प्रकाशित होती थी - विनोद पुस्तक भंडार, आगरा से वहाँ विद्यार्थियों के लिए मुख्यतः गाइडनुमा पुस्तकें ही अधिक छपती थी।
‘समालोचक’ के पहले अंक के साथ ही इस पत्रिका और रामविलास शर्मा की संपादकीय पर सवाल खड़े करने की प्रक्रिया का भी आरम्भ हो गया। इसका एक सबसे बड़ा कारण यह था कि इस अंक में उस वक्त के किसी भी बड़े आलोचक का लेख नहीं था। जिस कारण
सवाल
उठाना
लाजमी
था, नामवर सिंह ‘समालोचक’ के पहले अंक से अपना असंतोष व्यक्त करते हुए लिखते हैं, “सामग्रियों की दृष्टि से भी यह निहायत एकेडेमी लगता है.. सजीवता का आभास भी नहीं मिलता। डॉ. साहब का निबंध जरुर दमदार है किन्तु खेद के साथ कहना पड़ता है कि उनका सम्पादकीय उनके योग्य नहीं है। विश्वास नहीं होता कि पिछले दस वर्ष की हिंदी आलोचना की गतिविधि से उनका इतना ही परिचय होगा...”[8]
नामवर सिंह यह टिप्पणी किस वजह से देते हैं इसका अंदाजा लगाना कठिन होगा क्योंकि इस अंक में सौन्दर्शास्त्र को लेकर अनके लेख उच्च स्तरीय के थे जिनमें गुलाबराय, रामविलास शर्मा, किशोरीलाल वाजपेयी, परशुराम चतुर्वेदी, डॉ. हर्षे, डॉ. हरद्वारीलाल शर्मा, डॉ. बारलिंगे, अमृतलाल नागर, विश्वम्भरनाथ
उपाध्याय आदि विद्वानों के लेख सौंदर्यशास्त्र की परम्परा, उसकी प्रक्रिया एवं उसके विकास पर नए ढंग से प्रकाश डालते हैं। इसलिए इस अंक को केवल एकेडेमिक स्तर तक सीमित कर देना इसके साथ नाइंसाफी होगी।
‘समालोचक’ पत्रिका का दूसरा विशेषांक ‘यथार्थवाद’ विषय पर निकलता है। प्रेमचंद के कथा साहित्य में आदर्शोमुखी-यथार्थवाद
की चर्चा के बाद यथार्थवाद पर हिंदी साहित्य में अच्छी खासी चर्चा आरम्भ हो चुकी थी। यह अंक इसी चर्चा को और यथार्थवाद को साहित्य का अभिन्न अंग बनाने की अगली कड़ी है। ‘सुमित्रानंदन पन्त’ से रामविलास शर्मा के साहित्यिक मतभेद होने के बावजूद भी इस अंक का आरम्भ सुमित्रानन्द पन्त के लेख ‘मंगलाचरण’ से ही आरम्भ होता है। इसके अलावा इस अंक में यथार्थवाद की व्यापकता और उसकी सैद्धांतिकी को लेकर अनेक विद्वानों ने लेख लिखे। रामविलास शर्मा इस अंक की सम्पादकीय में यथार्थवाद को विश्व साहित्य की प्रमुख धारा मानते हैं। वह लिखते हैं, “यथार्थवाद विश्व-साहित्य की प्रमुख और समर्थ धारा है। इस अंक में उस पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार किया गया है।...
वर्तमान समय में यथार्थवाद को लेकर विभिन्न दृष्टिकोण होना स्वाभाविक है। यथार्थवाद किसे कहते हैं, साहित्य में वह किस प्रकार विकसित हुआ है, आदर्श और कल्पना से उसका क्या संबंध है, इस तरह के सभी प्रश्नों पर न्यूनाधिक भिन्नता है। पर परस्पर विचार-विनिमय से हम एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझ कर सत्य के निकट पहुँच सकते हैं। ‘समालोचक’ की यही नीति है और इस विशेषांक की भी यह विशेषता है। साथ ही साहित्य में यथार्थ जीवन का चित्रण होना चाहिए और साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल है – इस स्थापना पर प्रायः सभी लेखक एकमत हैं।”[9]
‘समालोचक’ पत्रिका के दोनों ही विशेषांक क्रमशः सौंदर्यशास्त्र और यथार्थवाद
हिंदी आलोचना के विकास के बंद दरवाजों को खोलने में जरुर सहायक कुंजी साबित हुए, इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता।
‘समालोचक’ पत्रिका का एक विशिष्ट स्तंभ ‘पुस्तक समीक्षा’ रहा है। पत्रिका के दो विशेषांकों को यदि छोड़ दे तो सभी अंको में पुस्तकों की समीक्षा प्रकाशित हुई। पुस्तक समीक्षा को रामविलास शर्मा और उनके सहयोगी संपादकों ने गंभीरता पूर्वक लिया। यह पत्रिका पुस्तक समीक्षा के माध्यम से मित्र धर्म के निर्वाह की परम्परा को तोड़ते हुए और साथ ही पुस्तक के कवि या लेखक को ध्यान में न रखते हुए उस पुस्तक के मूल में क्या है उस
पर अधिक जोर देते है। डॉ. हरिमोहन शर्मा, समालोचक में प्रकाशित पुस्तक समीक्षा के सन्दर्भ में लिखते हैं कि, “पुस्तक समीक्षा को संपादकों ने गंभीरता से लिया है। इसीलिए 64 पृष्ठों की पत्रिका के प्रत्येक अंक में लगभग 8-10 पृष्ठ पुस्तक समीक्षा के लिए समर्पित रहे हैं। यहाँ यह भी बताना आवश्यक है कि आज की तरह उसमें ‘मित्र-धर्म निर्वाह’ न होकर पुस्तकों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा पर जोर रहा है। पुस्तकों का समग्र अवगाहन कर उनकी शक्ति-सीमा को उजागर करने वाली खरी-खरी बातें कहना इनका उद्देश्य रहा है। संपादकगण हिंदी के पाठकों की समझ का परिष्कार कर सकें, इस दृष्टि से पत्रिका की समूची सामग्री का संयोजन करते हैं। संभवतः इसीलिए संपादक विश्वंभरनाथ उपाध्याय हिंदी आलोचना को ‘बाल तोषिणी वृत्ति’ से ऊपर उठाने की बात अपने एक लेख में करते हैं।”[10]
‘समालोचक’ पत्रिका पुस्तक समीक्षा के स्वरुप का अंदाजा रामविलास शर्मा द्वारा सुमित्रानंदन
पन्त के नए काव्य संग्रह ‘वाणी’ की समीक्षा से लगाया जा सकता हैं, “छायावाद के प्रमुख कवि श्री सुमित्रानंदन
पन्त का यह नया काव्य-संग्रह है।... पन्तजी की रचनाओं में ‘ग्राम्य’ के बाद यथार्थवादी प्रवृत्ति क्षीण होती गयी और रहस्यवादी धारा प्रबल बन गई। ‘वाणी’ की रचनाओं में जहाँ-तहाँ उस क्षीण धारा के दर्शन हो जाते हैं। ...”[11]
इसके आगे निष्कर्ष में रामविलास शर्मा, पन्त की कटु आलोचना करते हुए साफ लिखते हैं कि, “नीरस शब्दों के घेरे में कवि बंदी है। भावहीन जड़विचार उसके कल्पना के पंख खुलने नहीं देते। वह अपनी भाव-शून्यता की कमी मसीहाई अभिनय से पूरी करना चाहते हैं। ‘पल्लव’ और ‘ग्राम्य’ के कवि में बहुत सी कमजोरियां थीं ; फिर भी वह प्रकृति के सौंदर्य को अंकित करने वाला शब्दों का धनी कवि था। पन्तजी वैसी कविताएं न लिख सकें तो न लिखें, पर ब्रह्मस्तर से बोलने का अभिनय तो न करें। काश ! वे कौसानी जाकर अपना खोया हुआ कवित्व फिर पा सकते !”[12]
समालोचक पत्रिका में संपादक मंडल के अलावा अन्य आलोचकों के द्वारा की गई पुस्तक समीक्षा भी प्रकाशित होती थी, जिनमें घनश्याम अस्थाना, मक्खनलाल शर्मा, हरीश रायजादा, देवेन्द्र शर्मा ‘इंद्र’, भगवानदास माहौर आदि प्रमुख रहे हैं।
बदरीनारायण चौधरी, पुस्तक-समीक्षा के लिए
न्याय और सत्य को प्रमुखता
देते
हुए
लिखते भी हैं कि, “रिव्यू अर्थात् समालोचना का अर्थ पक्षपात रहित होकर न्यायपूर्वक किसी पुस्तक के यथार्थ गुण-दोष की विवेचना करना और उसके ग्रंथकर्त्ता को एक विज्ञप्ति देना है क्योंकि रचित ग्रंथ से रचना के गुणों की प्रशंसा कर रचयिता के उत्साह को बढ़ाना एवं दोषों को दिखलाकर उसके सुधार का यत्न बताना कुछ न्यून उपकार का विषय नहीं है।”[13]
‘समालोचक’ पत्रिका इसी सत्य और न्याय पर आधारित आलोचनात्मक पत्रिका है।
‘समालोचक’ में प्रकाशित लेखो के विषयों की जांच करें तो इसमें रुसी-अंग्रेजी साहित्य, पश्चिम भारतीय समीक्षा-सिद्धांतों के विविध पक्षों पर लेख लिखे गये हैं। साथ ही पश्चिमी समीक्षा-सिद्धांतों के आधार पर हिंदी साहित्य का विवेचन-विश्लेषण कराया गया है। जैसे- आधुनिक साहित्य का मार्क्सवादी मूल्यांकन, खंडित व्यक्तित्व और साहित्य, आंग्ल उपन्यास की चेतना प्रवाह पद्धति, यथार्थवाद और रोमांच आदि से संबंधित लेख इसके प्रमाण हैं। हिंदी के अनुसंधानपरक आलोचना के विकास में भी 'समालोचक' पत्रिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इस पत्रिका द्वारा अनुसंधान के सैंद्धांतिक आधार को स्पष्ट किया गया है। जैसे- हिंदी अनुसंधान समस्याएं और सुझाव, दक्षिण में लोक साहित्य का सामग्री संकलन क्षेत्र आदि।
तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों के प्रति भी ‘समालोचक’ पत्रिका सजग है। इस पत्रिका में हिंदी साहित्य के आदिकाल से लेकर आधुनिक काल तक की समूची साहित्यिक परम्परा का नये सिरे से मूल्यांकन किया गया है। सांस्कृतिक पुनर्मूल्यांकन के क्रम में धर्म और समाज का भी ‘समालोचक’ में परीक्षण हुआ है। ‘समालोचक’ पत्रिका में बाल साहित्य और स्त्री लेखक पर भी पर्याप्त सामग्री मिलती है। इस अर्थ में यह पत्रिका उस समय में हाशिए के समाज के प्रति भी प्रतिबद्ध थी। हालाँकि हाशिए के समाज के प्रति साहित्यिक जागरूकता इसके बहुत बाद यानी साठ के दशक के आस-पास से आरंभ होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि रामविलास शर्मा का पहला उद्देश्य यह था कि “सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्यांकन करते हैं, जो शोषक वर्गों के विरूद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है। इसके साथ ही इस साहित्य पर भी ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है और यह देखने का प्रयत्न करते हैं
कि वह वर्तमान साहित्य जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है।”
‘समालोचक’ पत्रिका में ‘यदि मैं समालोचक होता?’ नाम से अमृतलाल नागर का कॉलम प्रकाशित होता था। यह कॉलम भले ही नियमित रूप से प्रकशित नहीं होता था पर यह कॉलम समालोचक पत्रिका का प्रमुख स्तंभ था जिसे पाठक वर्ग पसंद किया करते थे। नियमित रूप से इस कॉलम के न छापने का कारण अमृतलाल नागर ने पत्रिका के पहले ही अंक में अपने एक पत्र के माध्यम से व्यक्त कर दिया था। जिसमें वह लिखते हैं कि, “आपको वचन दे चुकने के कारण अपनी जिम्मेदारी
अनुभव करते हुए मैंने दो दिन प्रयत्न किया, पन्ने लिखे फाड़े – संतोष न हुआ। मेरे उपन्यास का नायक इस समय जिस ऐतिहासिक अरदब में फँसा हुआ है उसके सामने दुनिया की कोई नायिका मुझे समालोचना की मुसीबत में मुब्तिला नज़र नहीं आती फिर नायिका भेद कैसे करूँ।... अगले अंक से विधिवत समालोचक बनने की नीयत बरतूँगा।”[14]
पर फिर भी अमृतलाल नागर समालोचक के सभी अंकों के लिए लेख नहीं लिख पाए। इसके आलवा इस पत्रिका की सबसे खास बात इसमें प्रकाशित होने वाली भाषा और व्याकरण संबंधी लेखों की हैं। जिसमें किशोरीलाल वाजपेयी, भोलानाथ तिवारी जैसे लेखकों के लेख है। किशोरीलाल वाजपेयी, ‘समालोचक’ पत्रिका में नियमित रूप से हिंदी व्याकरण और भाषा संबंधी मूल समस्याओं पर लिखते थे, जैसे – शब्दार्थ संबंधी सामूहिक भ्रम, अर्द्ध तत्सम् शब्द क्या चीज है?, हिंदी में ड़, ञ और ण का प्रयोग, हिंदी का बेसिक व्याकरण आदि। इन लेखों के माध्यम से हिंदी व्याकरण और भाषा विज्ञान को नई दिशा मिली।
‘समालोचक’ पत्रिका दो वर्षों तक हर महीनें निकलती है। जिसमें 22 अंक और 2 विशेषांक प्रकाशित हुए। अपने 23वें अंक में ही समालोचक के संपादक एक आवश्यक सूचना प्रकाशित कर इस पत्रिका के बंद होने की सूचना अपने पाठकों को दे देते हैं। रामविलास शर्मा लिखते हैं, “समालोचक के पाठकों को यह सूचित करना आवश्यक है कि इस पत्र के प्रकाशक जनवरी अंक के बाद से उसे बंद कर रहे हैं। उस अंक से पत्र के दो वर्ष पूरे हो जायेंगे। इस अवधि में पाठकों ने पत्र के प्रति जो स्नेह भाव प्रकट किया है और लेखकों ने जिस उदारता से उसके दो बृहद विशेषांकों और शेष सामान्य अंक निकालने में हमारे साथ सहयोग किया है, उसके लिए हम हृदय से आभारी हैं और उसे बहुत दिनों तक याद रखेंगे। समालोचक के बंद होने का समाचार सुनकर जिन लोगों ने खेद और संवेदना के पत्र लिखे हैं, उनके प्रति भी हम कृतज्ञता प्रकट करते हैं।”[15]
किसी संपादक के उसकी
पत्रिका को बंद कर देने का ऐलान करना कुछ ऐसे है जैसे अपनी कलम की निब को खुद ही
तोड़ देना, या ये
भी
हो
सकता
है की वो निब किसी दूसरे के दबाव से तुड़वाई गई हो या उस कलम की इंक खत्म हो चुकी हो। पर रामविलास शर्मा जैसे कर्मठ व्यक्ति की कलम की स्याही कभी खत्म नहीं हो सकती थी इस बात का अंदाजा उनके साहित्यिक अवदान से लगाया जा सकता है।
इस पत्रिका के बंद होने का एक कारण उसकी आर्थिक स्थिति थी। पत्रिका के इस आर्थिक स्थिति का संकेत केदारनाथ अग्रवाल को लिखे गए रामविलास शर्मा के इस पत्र से लगाया जा सकता है, जिसमें वह लिखते हैं, “तुम्हें समालोचक नहीं मिलता इसी से जाहिर है कि वह बंद होने जा रहा है। दो दिन हुए अमृतलाल नागर आए थे। उन्होंने बताया उन्हें भी नहीं भेजा जाता। इसके प्रकाशन ने राजा मंडी में एक नई दुकान खोल ली है। मासिक पत्र में क्या मुनाफा होता है ? सो दूसरा वर्ष पूरा करके इस बंद”[16]
दूसरा इस पत्रिका को दूसरे अन्य सहयोगियों
का अधिक सहयोग प्राप्त नहीं हुआ। रामविलास शर्मा इस पत्रिका के विकास के लिए पहले ही अंक की सम्पादकीय में लिख चुके थे कि, “हम प्रयत्न करेंगे कि ‘समालोचक’ को आधिकाधिक विद्वानों का सहयोग प्राप्त हो और उनकी रचनाओं द्वारा वह निरंतर हिंदी साहित्य की प्रगति में सहायक हो”[17]
पर ऐसा हुआ नहीं। उस समय के बड़े आलोचकों एवं लेखक आलोचकों का उतना सहयोग इस पत्रिका को नहीं मिला जितना रामविलास शर्मा उम्मीद
लगाए
हुए
थे। दो वर्षों तक निरंतर ‘समालोचक’ पत्रिका में सुधार और परिष्कार के लिए रामविलास शर्मा ने खूब श्रम किया। इसका अंदाजा इस पत्रिका के अंकों से लगाया जा सकता है। अथक प्रयासों के बावजूद भी इस पत्रिका के प्रकाशन को बंद करना पड़ा। जो रामविलास शर्मा के लिए सबसे दुखद घटना थी, इस दुख का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बाद रामविलास शर्मा के संपादन में निकालने वाली ‘समालोचक’ पत्रिका उनकी अंतिम पत्रिका साबित हुई।
अंततः ‘समालोचक’ साहित्य की समस्त विधाओं, साहित्य की सीमाओं एवं संभावनाओं के प्रति सचेत है। अतः हिंदी आलोचना के विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में ‘समालोचक’ का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है। ‘समालोचक’ शोध के लिए विशेष तौर पर महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह विशुद्ध रूप से आलोचना की ही पत्रिका बनी रही। समालोचना में प्रकाशित आलोचनाएँ स्वतंत्रता से पूर्व और स्वतंत्रता के बाद (जब तक पत्रिका प्रकाशित हुई) के समस्त भारतीय साहित्य में मौजूद सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और ऐक्य तथा मूल्यों एवं दृष्टियों की एक जगह पर पड़ताल करती है। इन्हीं सब कारणों से ‘समालोचक’ पत्रिका हिंदी आलोचना के विकास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
[1] निर्मला जैन, हिंदी आलोचना का दूसरा पाठ, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-13
[3] समालोचक, फरवरी 1958, पृष्ठ-3
[8] समालोचक, मार्च 1958, पृष्ठ–ग
[9] समालोचक, फरवरी 1959, पृष्ठ–202
[16] मित्र संवाद, (केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के पत्र), परिमल प्रकाशन, इलाहबाद, पृष्ठ–229
[17] समालोचक, फरवरी 1958, पृष्ठ–4
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