बात पहले की है । पहले की माने कितनी पहले की? येई कोई लमसम तीसेक साल पहले की। एक गाँव। गाँव का एक नाँव ।
मीरण । गाँव का नाम आप चाहें तो अपनी सुविधा से बदल भी सकते हैं । ऐसी स्थिति में मुझे विश्वास है पात्र बदलेंगे, 'स्थिति ' की स्थिति ज्यादा नहीं बदलेगी। गाँव में स्कूल पाई जाती। जिस तरह स्कूल में पढ़नेवालों के दो नाम हुआ करते थे, एक बोलता नाम जैसे मनोज्यो और दूसरा स्कूल का नाम जैसे मनोज कुमार। मनोज कुमार सिर्फ लिखने के काम आता बोला स्कूल में भी मनोज्या ही जाता। इसी तरह स्कूल के भी दो नाम थे। एक बोलता नाम था इस्कूल या अस्कूल तो दूसरा स्कूल का 'स्कूल का' नाम था - राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय । यह भी सिर्फ़ लिखने के ही काम आता, बोला स्कूल में भी अस्कूल या इस्कूल ही जाता । जैसे शादी-ब्याह, उत्सव-पर्व के मौके पर मेहमानों के सामने मनोज्या को मनोज कहकर पुकारा जाता वैसे ही पनरागस - छब्बीस जनवरी के मौके पर स्कूल को भी मंच से 'रा.उ. प्रा. वि.' कहकर पुकारा जाता। जैसे स्कूल में पढ़ने वालों के सरनेम में उनकी जाति का नाम जुड़ा रहता वैसे ही स्कूल के सरनेम में गाँव का नाम जुड़ा रहता।
गाँव में स्कूलें दो प्रकार कीं । एक 'राजआळी' (राजकीय) के नाम से जानी जाती दूसरी अपने इकलौते अध्यापक के नाम से । अध्यापक का स्कूल का नाम कुछ और था पर लोगों ने एक बोलता नाम रख रखा था। जैसे पेड़ से बीज झड़ कर पेड़ के नीचे पेड़ का बच्चा उग आता है वैसे ही 'राजआळी' स्कूल का बीज झड़कर यह बच्चा स्कूल उगी आई थी। दूसरे शब्दों में अध्यापक ने 'राजआळी' स्कूल से आठवीं पास करने के बाद खुद अपनी स्कूल खोल ली थी।
अध्यापक एक पैर से दिव्यांग थे। वे अपने दिव्य वाले पाँव के घुटने को हथेली से थाम कर ही चल पाते । जिससे चलते वक्त काफी टअऽरका (लंगड़ाना) लगता । आदमी भले थे, मेहनती थे, खूब पढ़ाते पर मौके-बेमौके सोम सेवी! गाँववालों ने बिना शहीद हुए ही उनकी स्कूल का नामकरण उनके बोलते नाम पर कर दिया, उनकी भावनाओं की परवाह किए बगैर। इस तरह उस स्कूल का नाम था - 'खोड़्याळी इस्कूल!' यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा थी, अमानवीयता थी पर कमजोर के साथ ऐसी अमानवीयताओं से मानव (?) इतिहास भरा पड़ा है। वैसे यह नाम उनकी पीठ पीछे पुकारा जाता।
इसी श्रेणी की एक स्कूल और थी गाँव में। साल के आधे दिनों लगती। वह भी पंचायत भवन के आधे कमरे में। शेष आधे कमरे में प्रौढ़ शिक्षा, आँगनबाड़ी (उस जमाने में पता नहीं इसका कुछ और नाम था क्या) का सामान रखा रहता। इस स्कूल का नाम भी अध्यापक के नाम पर ही था पर थोड़ा इज्जतदार किस्म का- 'भँवरू भायाळी इस्कूल' जिसे मुख-सुख के कारण अक्सर 'भौंर भायाळी' कहा जाता।
भँवरू भाया नशेपत्ते से दूर शुद्ध सात्विक आदमी। वे अध्यापकी, प्रौढ़ शिक्षा प्रेरक के अलावा रात्रि जागरण में मंजीरे बजाने का काम करते। इसलिए जब बच्चे रात को माइक से आती मंजीरों की 'तकचिक-तकचिक- तकचिक -ता' के साथ भजन सुनते - 'तेरा भगत करै अरदास ज्ञान मोहे दीज्यो ये काळी' तो बच्चे समझ जाते कि कल स्कूल में ज्ञान मिलने की छुट्टी!
भौंर भायाळी के अलावा दूसरी स्कूल में छुट्टी तब होती थी जब दो-तीन छात्र एक साथ फीस दे देते। तब इकलौते अध्यापक जी द्वारा रात्रि सैव्य सोमरस का दिन में भी सेवन किया जाता। रसपान के पश्चात् आचार्य इहलोक की सुधबुध खो देते। ब्रह्मानंद दशा को प्राप्त होने पर वे निंदा-स्तुति से मुक्त स्थितप्रज्ञ हो जाते। प्रकृति के साथ तदाकार होने को अधीर हो उठते। पर चूँकि गाँव में नदी तो कोई थी नहीं, गँवाई कुए के पास बनी टंकी का ओवरफ्लो पानी एक कीचड़ भरी नाली का रूप लिए रहता, वे उसी को नदी मानकर वहीं लेट जाते। सोमरस का तरल पेट में पहुँच कर वहाँ पहले से मौजूद दूसरे तरल को बाहर जाने का इशारा करता। भीतर का तरल वस्त्रों की बाधा को पार कर नाली के तरल से संगम करता - फूटा कुंभ जल जलहि समाना ' वाली स्टाइल में। घंटों बाद समाधी टुटने पर वे घर की राह लेते। उस दिन स्कूल में छुट्टी रहती। अगर विभागीय नियमों पर बस चलता तो प्रिंसिपल पावर की तरह 'पव्वा पावर' के अवकाश का प्रावधान भी होता। हालांकि अगले दिन वे दूने उत्साह से पढ़ाने पहुँच जाते।
ये दोनों स्कूलें इसलिए चलती थीं क्योंकि तब तक पाँचवीं कक्षा तक विभागीय मान्यता की जरूरत नहीं होती थी। इन बिना मान्यता वाली स्कूलों में पढ़ाई की बड़ी मान्यता थी। 'राजआळी' की तरह इनमें पौधों में पानी डालने, खेलकूद, पुस्तकालय व अंत्याक्षरी के पीरियड और जयंती, उत्सवों की छुट्टियाँ नहीं होती थीं । बिना खेलकूद केवल कॉर्स की किताबों का 'होय सिद्धि साखी गौरीसा' मानकर हनुमान चालीसा की तरह बार-बार पाठ करवानेवाली, पाठ्यपुस्तकों के अलावा दूसरी किताबों को पथभ्रष्ट करवाने वाली मानकर उनका निषेध करनेवाली! (जब कॉर्स की किताबों पर पाठ्यपुस्तक लिखा होता है तो बाकी किताबें 'अपाठ्य पुस्तक' हुई कि नहीं?), शुक-सारिका पद्धति को एकमात्र शिक्षण पद्धति मानकर 'करत-करत अभ्यास' से जड़ मति को सुजान करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने वाली स्कूलें तो आज भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं।
तो इस प्रकार स्कूलें दो प्रकार की हुईं । एक बड़ी, दो छोटी। एक जोहड़े में, दूसरी गुवाड़ में, तीसरी पंचायती भवन में। एक में घंटी बजे, बाकी दो में नहीं बजे। एक अपने भवन में चले। दूसरी दोनों उधार के दो कमरों में। एक में बैठने को नीली दरीपट्टी मिले, बाकी दोनों में खाया (फटी बोरी) या सिमेंट का खाली बैग खुद लेकर जाना पड़े। एक में पहले से तय अवकाश हो, दूसरी दोनों में आकस्मिक!
उक्त दोनों स्कूलों में दीक्षित विद्यार्थी आगे छठी क्लास में 'राजआळी' में ही आते थे। 'राजआळी' स्कूल में अंग्रेजी की पढ़ाई चार लाइन की कॉपी के साथ छठी क्लास से शुरू होती जबकि बोलता नाम वाली स्कूल के पैली के बच्चे भी गुड मोल्डिंग बोलते थे। भौंर भायाळी के बच्चे गणित में होशियार माने जाते खासकर पहाड़ों व जोड़-बाकी में ।
अनुशासन सभी स्कूलों में प्राकृतिक था। प्राकृतिक इस अर्थ में कि अनुशासन स्थापित करने की जिम्मेदारी प्रकृति की थी। प्रकृति की प्रतिनिधि के रूप में पेड़ की हरी या सूखी शाखा मौजूद रहतीं । अनुशासन भंग करने पर दंडात्मक कार्यवाही का प्रावधान था जो वास्तव में 'डंडात्मक' होती थी।
अब यदि कोई प्रश्न करे कि कौनसे विद्यालय में 'प्राकृतिक' अनुशासन व्यवस्था थी तो इसका उत्तर 'उपर्युक्त सभी' होगा। मात्रा के आधार पर अवरोही क्रम में रखने पर 'बोलता नाम वाली',भौंर भायाळी और राजआळी का नम्बर आता । स्कूल में मिले दंड को गोपनीय रखा जाता, रहस्य खुलने पर घर पर भी यही क्रिया विधि दोहराई जाती । शारीरिक दंड का लाभ यह था कि मानसिक दंड अलग से नहीं देना पड़ता । इससे अध्यापकों के समय और श्रम की बचत होती।
उक्त तीनों स्कूलों में कच्चे माल की सप्लाई गाँव से ही होती। जबकि तैयार प्रोडक्ट गाँव में खपाने के अलावा आस-पास के गाँवों में निर्यात किया जाता। गाँव में खपने वाला प्रोडक्ट 'होता था' किस्म का होता जो ज्यादातर बड़गट्टे पर ताश खेलने, बीड़ी फूँकने, खेती-बाड़ी या मजदूरी करने, शादी-ब्याह, मौसर (मृत्यु भोज) में पूड़ी बेलने, लड्डू बाँधने, आसाम की मुसाफरी करने के काम आता । उत्पाद की 'होती थी' किस्म ही निर्यात योग्य होती थी जो निर्यात किए जानेवाले घर में खाना बनाने, घर की सफाई करने, मजदूरी और खेती का काम करने, वंश चलाने, चले हुए वंश की
देखभाल करने, घूँघट काढ़ने, गीत गाने, चुगली करने जैसे मल्टी टास्किंग क्षेत्रों में इस्तेमाल होती । गाँव की जरूरत के हिसाब से आयात भी यही किस्म की जाती।
दो स्कूलों की तो संक्षिप्त जानकारी आपको हो ही चुकी होगी। राजआळी इस्कूल से आप क्या समझते हैं?
वह स्कूल जिसका सारा खर्चा सरकार से आता हुआ प्रतीत हो, हालांकि वह आता जनता की जेब से ही हो पर प्रायः यह राज़ जनता के लिए राज़ ही बना रहता हो वह राजआळी स्कूल कहलाती है। अब आओ अपनी गर्दन तीस साल पीछे घुमाकर विस्तार से चर्चा करें -
गाँव के पूरब में जहाँ चार-पाँच साल पहले ही लोगों ने 'अम्बेडकर नगर ' का बोर्ड लगाकर बस्ती का नामकरण संस्कार किया है लेकिन लोग अब भी उस बस्ती को पुराने जातिसूचक 'बोलते नाम' से ही पुकारते हैं, उस बस्ती से ठीक पहले लम्बी -चौड़ी चारगाह भूमि में न जाने किस जमाने का एक पक्का तालाब बना है जिस कारण समूची जमीन तळाव या जोऽड़ा कहलाती है। उसी जोऽड़े में दिखणाद चोखती (दक्षिणाभिमुखी) स्कूल बनी है। समुद्र तल की तर्ज पर तालाब-तल से ऊँचाई तो किसी ने मापी नहीं पर स्कूल बनी खूब ऊँचाई पर है। जैसे घर के दरवाजे के दोनों ओर
'शुभ-लाभ ' लिखने की परंपरा है वैसे ही स्कूल के गेट के दोनों ओर 'ज्ञानार्थ प्रवेश - सेवार्थ प्रस्थान ' लिखने की । अंदर जाने पर एक पेड़ के गले में कँठले की तरह रेलवे ट्रेक के टुकड़े को काटकर बनाई गई घंटी तार से बँधी है। तार में खोंसकर ही घंटी बजाने का एक-डेढ़ फिट का लकड़ी का एक मोटा डंका रखा है। यह देश है घंटी प्रिय देश! मंदिर में घंटी, स्कूल में घंटी, आइसक्रीम के ठेले पर घंटी, पोलिथीन की थेलियों में 'बुड्ढी के बाल' बेचनेवाले के हाथ में घंटी, ऑफिस में अफसर की टेबल पर घंटी, बैल से खेल तक घंटी ही घंटी! चपरासी से अफसर, प्रिंसिपल यहाँ तक कि प्रधानमंत्री तक घंटी बजाने या बजवाने में समान रूप से रुचि लें! घंटियाँ बजाते - बजवाते गुरुघंटाल तक बनने का अवसर! आस्था की घंटी से लेकर खतरे की घंटी तक, हाथ लगी घंटी से गले पड़ी घंटी तक घंटियाँ ही घंटियाँ!
उपर्युक्त सभी घंटियों में से सबसे पवित्र और मधुर स्कूल की ही घंटी! बैलों के गले की और मंदिर की घंटी का स्थान इसके बाद ही आता है। इतनी पवित्र घंटी से विद्यार्थी कैसे दूर रहें! एक को घंटी बजाने का इशारा करो तो पाँच दौड़ पड़ें। घंटी बजाने के लोभ में कोई अगर डंका छुपा दे तो दूसरा पत्थर के टुकड़े का विकल्प लेकर तत्काल उपस्थित! छुट्टी के दिन भी कुछ बच्चे केवल घंटी बजाने का शौक पूरा करने स्कूल पहुँच जाएँ! उस दिन घंटी की हालत पेड़ से बँधे चोर -सी ।
सुबह स्कूल में दो घंटियाँ बजें। तीसरी चार कालांश बाद, जिसे खेल घंटी कहा जाए और जिसका बोलता नाम 'कलेवाळी घंटी'। चौथी घंटी छुट्टी के वक्त बजे।
सुबह की पहली घंटी ट्रेफिक लाइट की पीली बत्ती सरीखी -तैयार रहो। दूसरी घंटी आपातकालीन सायरन की तरह। सुनते ही जो जहाँ हो वहीं से दौड़कर प्रार्थना स्थल पर पहुँचे । प्रार्थना के लिए कतारों में खड़े होने का नियम शादी-ब्याह के नियमों की तरह । अपनी ही क्लास की लाइन में खड़े होओ। अलग क्लास की लाइन मतलब अंतर्जातीय विवाह। नामंजूर! विपरीत लिंगी की लाइन में खड़े होना! कल्पना से परे! दूसरे धर्म में ब्याहने सा खतरनाक! बस पैली- दूसरी की नाबालिग क्लास को इसमें छूट ।
प्रार्थना को प्राथना बोलने की 'प्रथा '। करीब-करीब अध्यापक भी प्राथना ही बोलें। एक तरह से प्राथना 'प्रार्थना' का बोलता नाम। इसी तरह ऑफिस का बोलता नाम 'होपिस '। अध्यापक ' मास्टर ' कहलाएँ, आदर से 'जी ' लगाने की रीत। एक अध्यापक जी ने प्राथना में मास्टर शब्द की निरुक्ति की - मास्टर माने 'माँ -स्तर'। जिसका स्तर माँ के तुल्य हो! वत्सल, स्नेहिल, हितैषी, ममतामय! मास्टर जी का ' स्तर(स्टर)' घिसते-घिसते संधि के किस नियम से
लुप्त हुआ पता नहीं पर लुप्त होते ही 'जी' का भी 'चीं' बोल गया। उन्हें 'माँऽट्ची' कहा जाने लगा।
उपर्युक्त आधार पर यह सिद्ध हुआ कि मास्टर जी का बोलता नाम था 'माँऽट्ची'। इसी तरह गुरुजी का बोलता नाम 'गुरजी'। हेडमास्टर साहब का ' हेड माँऽट्ची गुरजी'। पी. टी. आई. जी का बोलता नाम 'पिट्याईजी गुरजी'। हालांकि 'पिट्याईजी' को यह नाम पिटाई करने की वजह से नहीं मिला बल्कि यह पीटीआई का अपभ्रंश था।
स्कूल में प्रवेश लेने वाले सभी द्विज! कैसे? आओ पता लगाएँ। द्विज माने जिसका जन्म दो बार हो। पहली बार माँ के गर्भ से दूसरी बार स्कूल के एस आर रजिस्टर से। आइए इसे प्रयोग द्वारा सिद्ध करें -
एक छः साल का बच्चा और छः साल का बाप लें (बाप उम्र में तो ज्यादा है पर बाप बने तो छः साल ही हुए है न)।
मानाकि बच्चे का पहला जन्म बुआ के भाव (टाईफाइड) निकलने वाली साल के बैसाख लागते की पून्यौ को हुआ हो और बच्चे का बाप एडमिशन के लिए उसे जुलाई महीने की 12 तारीख को स्कूल लेकर आया हो तो बच्चे का दूसरा जन्म कब होगा? ज्ञात कीजिए।
हल : चूँकि बच्चा 12 जुलाई को स्कूल के गर्भ में आया है और एडमिशन की लास्ट डेट 15 जुलाई है तो बच्चे के 12 जुलाई को ही पैदा होने में कोई अड़चन नहीं है। जन्म का वर्ष ज्ञात करने का सूत्र है - वर्तमान वर्ष माइनस छः, बराबर जन्म वर्ष। वर्तमान वर्ष मान लीजिए 1990 चल रहा है तो 1990-6=
1984 । अतः बच्चे का दूसरा जन्म 12 जुलाई, 1984 को होगा। यही जन्मतिथि अऽसार (S.R.) रजिस्टर में दर्ज होगी। अऽसार रजिस्टर का स्थान स्कूल में वही समझिए जो परलोक में धर्मराज के रजिस्टर का है। स्कूल के धर्मराज हेड माँऽट्ची तथा चित्रगुप्त उनके विश्वनीय अध्यापक। अऽसार के थ्रू दूसरा जन्म होते ही पहले जन्म की वैलिडिटी समाप्त । पिछला जन्म (वही बैसाख लागते की पून्यौ) बस ब्याह का सावा (मुहूर्त) निकालते वक्त ही काम आए।
इसी प्रकार 15 जुलाई के बाद एडमिशन के लिए आने वाले सभी बच्चों का जन्म बैक डेट में 15 जुलाई को ही होगा। बच्चे के दूसरा जन्म लेने की शर्त है कि बच्चा माँ के गर्भ में नौ महीने रहने के बाद छः साल तक घर के गर्भ में रहे तभी वह स्कूल के गर्भ में आने का पात्र होगा। दूसरे यदि बच्चा दिखने में पाँचेक साल का भी नहीं नजर आता हो तो ऐसे बच्चे को जन्म लेने के लिए साल भर वेट करने के लिए कहा जा सकता है।
स्कूल में बने हैं कमरे जिनके आगे है बरामदा। बरामदे का बोलता नाम बरिंडा। बरिंडे में खम्बे के पास परिंडा। एक लकड़ी की स्टूल को शीर्षासन करवा कर उसके चारों पायों पर मटका रखा हुआ । अगर आदमी को रखना हो तो स्टूल को सीधा करके रखेंगे, मटका रखना हो तो उल्टा। एक तरह से आदमी मटके का विलोम शब्द! मटके पर ढक्कन के आसन पर लौटा विराजमान। होपिस में कुर्सी के आसन पर आदमी!
दूसरी घंटी बजी टननननन..! बच्चों की टोलियों के साथ अध्यापक भी पहुँचें। बच्चे कतार में खड़े हों । अध्यापक एक-एक पंक्ति के सामने खड़े होकर 'लाइन' सीधी करवाएँ - "गुद्दी (गर्दन का पिछला हिस्सा) में देखो गुद्दी में! एक दूसरे की गर्दन नहीं दिखनी चाहिए।"
फिर पिट्याईजी या दूसरे गुरजी 'साबधान- बीसराम' करवाएँ –
"साआ...व…धीन!
वैस्सस्!
साब्द!
विस्स!
साब्द!
प्राथना स्थिति!
आँखें बंद!
हाथ जुड़े हुए।
शुरू कर!"
"मिलिता है सऽचा सुखि केवल भगिवान तुम्हारे चरिणों में।"
साबधान - बीसराम दो-तीन अध्यापकों में से ही कोई करवाए । वे सभी न आएँ तो मजबूरन शेष अध्यापकों में से किसी को करवाना पड़े । वे अध्यापक तब ऐसा महसूस करें जैसे रोज घर में पिताजी को बापू कहने की आदत हो और किसी रोज शहरी मेहमानों के बीच बापू के सामने बापू को ही पापा कहना पड़े या माँ को बाई की बजाय मम्मी बोलना पड़े।
प्रार्थना स्थिति के अंतर्गत ही प्रतिज्ञा स्थिति आदि एक -दो स्थितियाँ और हों । फिर कक्षा के लिए प्रस्थान किया जाए, जहाँ झाड़ू निकालने के बहाने एक-दो ऐसे विद्यार्थी भी छुपे रहें जिनका प्रतिज्ञा या प्रेरक प्रसंग बोलने का नंबर हो। घर हो या स्कूल सिर्फ़ झाड़ू तक सीमित कर दो तो बोलने के रास्ते बंद, अगर झाड़ू वाले हाथ किताब तक ले जाओ तो बोलना आ जाए।
कक्षा में जाते ही हाजिरी ली जाए । शुरू-शुरू में कक्षाध्यापक नाम पुकारें पर आगे हर विद्यार्थी को नम्बर में बदल दिया जाए जिसे रजिस्टर नम्बर कहा जाए। पुराने जमाने में हाजिरी ' हाजर साब' कहकर दर्ज कराई जाती पर उन दिनों बच्चे बोलते -
'' सोऽर!
या
ये सोऽर!"
नौवीं- दस्सी में जाकर समझ में आता कि 'सोऽर' व 'ये सोऽर' क्रमशः 'सर' तथा 'यस सर' के बोलता नाम थे। तब तक लड़कियाँ ' प्रजेंट सर ' बोलने लग जातीं, लड़के 'यस सर ' बोलकर भी पिछड़े रह जाते।
कक्षा शुरू होती पैली क्लास से । पैली के दो भेद थे- कच्ची पैली और पक्की पैली। कच्ची पैली में छः साल से कम आयु के बच्चे जो पढ़ने की बजाय 'ऊठना-बैठना ' सीखने आएँ। इसके अलावा अस्थायी रूप से नानेरे (ननिहाल) आए बच्चे, मौसी, बुआ आदि के पास आए बच्चे कच्ची पैली में पाए जाते। पक्की पैली में कक्का -बारखड़ी सीखने वाले बच्चे ।
पैली क्लास में ही एक इकलौती किताब । उसमें लिखा होता - 'रतन घर चल। चल ,रतन घर चल। नानी आई पपीता लाई ।' क्लास में कुछ 'रतन' ऐसे होते जिनका युधिष्ठिर के सत्य के पाठ की तरह 'रतन घर चल ' वाले पाठ का प्रेक्टिकल करने में ही सारा विद्यार्थी काल बीत जाता । वे कॉपी- किताब या पाटी (स्लेट) को आगे नेकर में खौंसकर, ऊपर कमीज से ढककर पानी -पेशाब के बहाने दीवार फाँद कर 'तीतरी (फरार)' हो जाते। कई बार दोस्त क्लास की खिड़की में से किताबें पार करने में मदद करते या कोई उपाय न होने पर बस्ता लावारिस छोड़कर भी निकल लिया जाता क्योंकि रुचि बस्ते से ज्यादा बस्ती में होती।
दूसरी क्लास की हिंदी की किताब का पहला पाठ होता –
हम 'मिटा अँधेरा' को 'मीठा अँधेरा' कहते और कहते ही सर्दियों की सुबह का वह दृश्य आँखों में नाच उठता जब माँ मुँह अँधेरे सुबह सुदियाँ (जल्दी) जगाती और हमारा मीठी नींद से उठने को बिल्कुल मन न करता। कविता आगे चलती -
पाठ एकदम अपना सा लगता। जो अपना सा लगता है वह याद हो जाता है…याद रह जाता है। पढ़ाई, लिखाई, सिखाई का एक ही सूत्र है जो पढ़ा रहे हैं, जिसे पढ़ा रहे हैं उसे अपना सा लगना चाहिए । आगे 'नाथू ,तोता, थावरी', 'चक्कर चपलों का', 'अपराजिता', 'पतंगें', 'पंच परमेश्वर', 'ईदगाह' जैसे कितने ही पाठ थे जो अलग-अलग कक्षाओं में आए पर एक बार अपना सा लगे तो अब तक वैसे ही लगे चले आ रहे हैं। सफेद कागज पर काले अक्षर और कत्थई चित्र अब भी तरोताज़ा हैं । नई क्लास में नई किताबों की नई खुशबू कौन भूल सकता है? आधे दामों में खरीदी पुरानी किताबों में पाठ वही होते पर वह खुशबू गायब! किताबों - कॉपियों पर अखबारी कागज या भोडळ (पोलिथीन) के गत्ते (कवर) । मोमजामिया, मैणियाँ व कोथळ्या भोडळ के पर्याय। इसी से कनके (पतंग) बनाए जाते। कॉपी के पहले पन्ने के ऊपर 'श्री', पीतर जी, भोम्या जी, जय सरस्वती माँ या जय बजरंगबली लिखकर नीचे चोरी से बचाव का यंत्र लिखा जाता -
होमवर्क 'आँक' कहलाता। 'आँक करना' व आँक माँडना ' लिखित होमवर्क का सूचक तो 'आँक याद करना ' मौखिक का। 'आँक देखना और आँक लेना' अध्ययन का पर्याय ।
जैसे नदी अपना पानी खुद नहीं पीती, वृक्ष अपना फल खुद नहीं खाते वैसे ही कुछ विद्यार्थी अपना होमवर्क खुद नहीं करते । हालांकि परीक्षा के दिनों में ऐसे विद्यार्थी बहुत मेहनत करते, रात-रात भर जागकर खुद को सिर से पैर तक ज्ञान से डबाडब भर लेते। ज्ञान की गंगा में आई बाढ़ के साथ बहकर आए अवशेष परीक्षा कक्ष में पेंट की मोहरी,नेफे, कमीज की कॉलर, जुराब, हथेली पर अभिलेख के रूप में बरामद होते । नदी की बाढ़ जैसे दीवार को बीच में से तौड़कर बहा ले जाती है वैसे ही ज्ञान की बाढ़ में किताबों के बीच-बीच से आधे -अधूरे पन्ने बह जाते। पन्नों के बीच खिड़कियाँ खुल जातीं।
टेस्टों व 'अधवार्षिक' में कम नंबर आने वालों को परीक्षा के बाद मुर्गा बनाया जाता। मुर्गा लड़के बनते जबकि अंडा देने का काम खुद 'माँऽट्ची' करते। लड़कियों को मुर्गी न बनाकर हाथ ऊपर करने की सजा दी जाती। वार्षिक परीक्षा के बाद 'फैल-पास सुनाने के दिन' का इंतज़ार होता। जो पास होते वे मौहल्ले में पतासे-मखाणे बाँटते । जो फैल हो जाते वे मुँह बाई का सा लेकर रह जाते पर घंटे दो घंटे बाद सब पूर्ववत! ऐसा नहीं कि फैल होने पर तनाव नहीं होता था। पर जिंदगी की जिंदादिली हमेशा तनाव पर इक्कीस पड़ती। तनाव दूर करने के भी रास्ते थे जैसा 'म्हनेस' ने अपनाया था।
उन दिनों स्कूल जानेवाला बच्चा पढ़ाई व खेल के अलावा गाळ काडना मुफ्त में सीखता। स्कूल के सहपाठियों के अलावा घर पर भी इसकी ट्यूशन मुफ्त होती। महिलाओं और पुरुषों की गाळ अलग-अलग होतीं। महिलाएँ 'बापकणिका', 'भुलस्या', 'मरीलिया' जैसी गाळ पुरुषों को देतीं । महिलाओं द्वारा महिलाओं को दी जानेवाली गाळ अलग होतीं जैसे मालजादी, सोक, रांड आदि । पुरुष औरतों, आदमियों यहाँ तक कि जानवरों को भी बिना किसी भेदभाव के कॉमन गाळ काडते । उनकी सभी गाळ नारी प्रधान होतीं जिनमें स्त्री के माँ, बहन और बेटी रूप का 'अवर्णनीय' वर्णन होता इसलिए 'जैसे' की उम्मीद नहीं रखें। पुरुषों द्वारा दी जानेवाली गाळें 'आदमियों वाली गाळ' कहलातीं। ये गाळें ज्यादा पावरफुल मानी जातीं। यही कारण था कि महिलाओं की अपनी गाळों के बेअसर हो जाने पर अपवाद स्वरूप कुछ बहादुर महिलाओं द्वारा आदमियों वाली गाळों का प्रयोग भी किया जाता।
अध्यापकों द्वारा पुलिस की प्लास्टिक की गोलियों की तरह कम विस्फोटक गाळें इस्तेमाल की जातीं जैसे 'नालायक', 'हरामजादा', ' हरामखोर' आदि।
तो हुआ ये कि ' म्हनेस' व उनके बड़े भाई एक ही क्लास में पढ़ते - चौथी में। फैल पास वाले दिन पूरना बाबा के प्रसाद चढ़ाने के लिए दोनों भाई दो रूपये जेब में लेकर आए। बड़े भाई तो पास हो गए लेकिन म्हनेस के 'परगत्ती पत्तर' में अनुत्तीर्ण लिखा पाया गया। माँट्ची ने ज्यों ही नाम पुकार कर 'फैल है' कहा, एक कहकहा सा लगा। अनुज महेश गणित, अंग्रेज़ी व पर्यावरण अध्ययन तीनों में फैल…सिर्फ हिंदी ने 'हिंदी' नहीं होने दी। दोनों भाई जज्ब किए बैठे रहे । जब सब घर जाने लगे तो स्कूल से निकलते ही म्हनेस रुआँसा हो आया। बड़े भाई से यह देखा नहीं गया । बड़े भाई को अचानक कुछ सूझा। तुतलाते बोले -
"म्हनेस बदी दाल ताड़!"
बड़ी गाळ माने आदमियों वाली गाळ । बड़े भाई ने पुरोहित की पोथी की तरह छोटे भाई का प्रगतिपत्र हाथ में लिया और फैल हुए विषयों के नाम ले-लेकर मंत्र पढ़वाने लगे-
"गणित की माँ की …"
"अँगरेज़ी की माँऽआ …आ… का …….."
"पर्यावरण की भाण की ………"
रिक्त स्थानों की पूर्ति दोनों भाई मिलकर करते। दो तीन बार ये मंत्र दोहराए गए। प्रगतिपत्र को हवा में उछाला गया, हाथ में लेकर गिंडोळ्या (गोलमोल) बनाया गया, मिट्टी में पैरों तले कुचला गया और फिर उन्हीं मंत्र ध्वनियों के साथ किरच्या- किरच्या (चिंदी- चिंदी) कर दीवार के ऊपर से वापस स्कूल में फैंक दिया गया - ' तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।' दो रूपये जेब में थे - पास होनेवालों की तरह ही पतासे खरीदे गए पर बिना पूरना बाबा को चढ़ाए, बिना किसी और को चखाए दोनों ने चटखारे ले-लेकर खाए। फिर उछलते -कूदते घर को चले तो दो -एक लड़के चिढ़ाने लगे - "म्हेस्यो फैल हुगो रै…म्हाने मजा आया… "
बड़े भाई ने फिर गीता ज्ञान दिया - ' हे अर्जुन रूपी म्हनेस! बदी दाल ताड।'
और म्हनेस शुरू - "तेरी माँ की ….
तेरी भाण नै…।
तेरै माराँड- बापल्या नै आधी रात नै रोऊँ…।"
पास से निकलते बुजुर्ग लच्छू बाबा ने मामला निपटाया-
"अरै बेटी … लड़ो क्यूँ! इकी माँऽकी…एक साल मेह नई बरस्यो तो के हाळी हळ भूल ज्यासीं?"
शैली ऐसी की हँसते-हँसते पेट दुहरा हो जाए।घटना ,कथानक, बातें सब वही जो सबका सच है पर कहने का तरीका ऐसा जो न सुना,न देखा।आज परीक्षा का तनाव जानलेवा हो रहा है ऐसे में 'क्या लोग थे वे दीवाने...!
जवाब देंहटाएंयों लेख में ऐसा कुछ घटित नहीं जिसे घटना कहा जा सके और न कोई पात्र ऐसा है जिसमें पात्र हो सकने की पात्रता हो पर प्रस्तुतीकरण ऐसा चुलबुल है कि पाठक आद्यान्त एक ही घूंट में गटक जाता है । लेखक का भाषा पर ऐसा अधिकार और विनोदपूर्ण ललित शैली का मनमोही प्रभाव कुछ ऐसा कि तीन दशक पहले के गाँव-देहात का परिवेश (शैक्षिक) जीवंत हो खिलखिला उठा है । पाठक उस खिलखिलाहट में खिल- सा जाता है । कुल मिलाकर दारोमदार अभिव्यक्ति की कुशलता पर ही टीका समझना चाहिए ।
जवाब देंहटाएंसमय की आँच में जलकर अतीत की हाँडी के तल पर चिपके स्मृतियों के दूध को लेखनी ने खुरचकर खुरचन बना दिया है, जिसका आस्वादन आस्वाद्य है । बधाई!
बहुत शानदार ,कहानी पढ़ कर दिल खुश हो गया ।।
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