शोध सार : उपनिवेशवाद की परिघटना का प्रभाव वैश्विक था, इसलिए इसकी प्रतिक्रिया में उत्पन्न होने वाला विमर्श भी अपने प्रभाव में वैश्विक होगा- केवल भौगोलिक दृष्टि से नहीं, बल्कि विभिन्न ज्ञानानुशासनों केपरिक्षेत्र की दृष्टि से भी। औपनिवेशीकरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया, इसके कारण, इससे उत्पन्न होने वाले दबाव, उसके परिणाम और मुकाबला करने की रणनीति के साथ-साथ प्रत्युत्तर देने के प्रयास लगभग सभी अनुशासनों से जुड़े देशज बुद्धिजीवियों द्वारा किये गये हैं। साहित्य और साहित्यिक आलोचना का क्षेत्र इससे अछूता नहीं है। बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि यही वह क्षेत्र है, जहाँ औपनिवेशिक दबाव का सबसे रचनात्मक प्रत्युत्तर तैयार किया जा सका है। अन्य अनुशासनों की तुलना में साहित्य स्वभावतः अधिक संवेदनशील होता है और चूँकि उपनिवेशवाद के भौतिक प्रभाव से ज्यादा इसके सांस्कृतिक पक्ष ने देशज बुद्धिजीवी की चेतना में हलचल पैदा की है, इसलिए इसका सबसे सटीक विश्लेषण भी साहित्य के रास्ते ही हो सकता है। साहित्यालोचकों ने इस हलचल को लक्ष्य भी किया है।
औपनिवेशिकता की पहचान करना ‘विउपनिवेशीकरण’ की प्रक्रिया का सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया कभी भी पूरी तरह निर्द्वंद्व नहीं रही। उपनिवेशीकरण के प्रारंभ से ही साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध का विमर्श भी आकार लेने लगा। यह प्रतिरोध भौतिक और सांस्कृतिक, दोनों धरातलों पर संपन्न हुआ। भारत के सन्दर्भ में बात करें तो ब्रिटिश साम्राज्यवादी अभियान के विरुद्ध देशज प्रजा द्वारा समय-समय पर किये जाने वाले युद्ध और विद्रोह भौतिक धरातल पर उपनिवेशवाद के प्रतिरोध का स्वरुप निर्धारित कर रहे थे, तो बौद्धिक स्तर पर तमाम बुद्धिजीवी इसके सांस्कृतिक पक्ष की पड़ताल करते हुए भारतीय मनीषा को सांस्कृतिक प्रतिरोध के लिए तैयार कर रहे थे। प्रतिरोध का पहला चरण आक्रमण के स्वरूप की पहचान करना होता है। हिंदी साहित्य ने इस प्रतिरोध की परम्परा को पहचानते हुए उसको आगे बढ़ने का निर्णय लिया।
बीज शब्द : औपनिवेशिकता, उत्तर-औपनिवेशिकता, राजनीति, उपनिवेशवाद, विउपनिवेशीकरण, साम्राज्यवाद, सबाल्टर्न, साम्राज्यवादी, बहुसंस्कृतिवाद, संस्कृति।
मूल आलेख : भारतीय बुद्धिजीवी औपनिवेशिक दबाव का कितना सटीक और गंभीर विश्लेषण कर पा रहे थे यह इस उद्धरण से स्पष्ट है- “अंग्रेज तीन प्रकार की लड़ाई जीत कर निर्विघ्न राज कर रहे हैं। इनमें पहले युद्ध को हम बाहु-युद्ध कह सकते हैं। राजनीति के कुटिल कौशल से तथा नए-नए अस्त्र-शस्त्र के फल से अंग्रेजों ने इस देश पर जो अधिकार जमाया है, वह इसी युद्ध का फल है। अंग्रेजों के इस देश में पधारने के बाद से ही भारतवासियों को एक नए युद्ध का परिचय मिलने लग गया है। इस युद्ध में वे अपना धन-बल खो बैठे हैं। पाठक समझ गये होंगे कि हम ‘वाणिज्य-युद्ध’ की बात कर रहे हैं। रेल, तार, जहाज़ और बिना लगाम की वाणिज्य-नीति, यही इस लड़ाई के प्रधान शस्त्र हैं। प्रबल राजशक्ति से सहायता पाए हुए गोरे बनिए इस लड़ाई के योद्धा हैं। दुर्बल भारतवासियों का धन लूटना और भारतीय शिल्प वाणिज्य का नाश करना इस युद्ध का प्रधान उद्देश्य है। इसी युद्ध में दिन-दिन हमारा धन-बल कम हुआ जाता है। अकाल हमारा रोज़ का साथी हो गया है। अस्थि-पिंजर देश भर में भर गये हैं।”[1] यह उद्धरण सखाराम गणेश देउस्कर की 1904 में प्रकाशित कृति ‘देशेर कथा’ के हिंदी अनुवाद से लिया गया है।
सखाराम गणेश देउस्कर भारतीय नवजागरण के प्रमुख निर्माताओं में से एक थे। सिर्फ देउस्कर ही नहीं, उनके दौर के तमाम बुद्धिजीवी व विचारक उपनिवेशवाद के शोषणपरक चरित्र का सटीक विश्लेषण लगातार अपने भाषणों, पम्फ्लेट्स, लेखों और रचनाओं में कर रहे थे। इन विद्वानों ने उपनिवेशवाद के केवल आर्थिक शोषण करने को ही लक्ष्य नहीं किया बल्कि उसके सांस्कृतिक पक्ष पर भी गंभीर विवेचना प्रस्तुत की है। सखाराम गणेश देउस्कर की ही उपरोक्त पुस्तक से एक अन्य उद्धरण दृष्टव्य है- “शरीर-युद्ध में भारतवासियों का बाहुबल और वाणिज्य-युद्ध में उनका धन-बल हरण करके ही अंग्रेज शांत नहीं हुए। कारण हमारे वैदेशिक शासकगण केवल हमारे बाहु-बल और धन-बल से ही नहीं डरते हैं।
बुद्धि-बल से तो मनुष्य बहुतेरी असाध्य बातों को साध सकता है। इस युद्ध से पराधीन जाति का मनरूपी खेत, जीतने वाले के हाथों में पूरी तरह चला जाता है। अति दुर्बल जाति में मति-भ्रम उत्पन्न करने और मन की दृढ़ता का नाश करने का बड़े-बड़े राजनीति-विशारदों के मत से यही संग्राम अमोघ अस्त्र है। अंग्रेजों के चलाये इस नए युद्ध के फल से भारतवासियों की चिंता-तरंगिणी अंग्रेजों की दिखाई राह पर बहने लगी, स्वदेश, स्वसमाज और स्वकीय पूर्वपुरुषों पर से लोगों की भक्ति श्रद्धा नष्ट होने और परदेशी सभी बातें हितकर मालूम होने लगीं। इस अवस्था में जो लोग स्वभावतः परदुःख कातर थे, वे बुद्धि-भ्रंश के घोर आवर्तन में पड़कर भारतीय समाज का आमूल संस्कार कर उसे फिर से पाश्चात्य आदर्श पर गढ़ने का दृढ संकल्प कर बैठे-इसी में उन सज्जनों ने अपनी विशाल बुद्धि और अमूल्य समय खर्च कर डाला”[2]।
उपरोक्त दोनों उद्धरण तत्कालीन भारतीय बुद्धिजीवियों की ‘औपनिवेशिक’ की उनकी समझदारी का सबसे सटीक उदाहरण हैं। पहला उद्धरण उपनिवेशवाद के सैन्य-राजनीतिक तथा आर्थिक वर्चस्व को रेखांकित करता है। पार्थ चटर्जी से शब्द उधार लेकर कहें तो यह औपनिवेशिक वर्चस्व का भौतिक या बाहरी क्षेत्र है। दूसरा उद्धरण उपनिवेशवाद द्वारा वैचारिक, सांस्कृतिक, ज्ञानात्मक उपकरणों के जरिये आधिपत्य कायम किये जाने का विश्लेषण करता है। इसे पार्थ चटर्जी ने आतंरिक क्षेत्र का है। सखाराम गणेश देउस्कर का उदाहरण कोई इकलौता उदाहरण नहीं है जहाँ साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक अभियान की इतनी सघन पहचान की गयी है। उस समय के तमाम लेखकों और बुद्धिजीवियों ने अपने लेखों, साहित्यिक रचनाओं, भाषणों में साम्राज्यवादी औपनिवेशिक अभियान के वास्तविक चरित्र को उद्घाटित करने का प्रयास किया है। हालाँकि साम्राज्यवादी औपनिवेशिक दबावों की पड़ताल की यह प्रकिया कोई एकांगी प्रक्रिया नहीं थी। साम्राज्यवादी अभियान और इसके प्रतिकार को लेकर देशज बुद्धिजीवियों की सबकी समझदारी एक सी नहीं थी। लेकिन उन सबका लक्ष्य एक ही था और वह था साम्राज्यवादी औपनिवेशिक दबाव के विरुद्ध देशज मनीषा को तैयार करना। बाद में, विउपनिवेशीकरण की प्रक्रिया में संलग्न बुद्धिजीवियों ने इन लेखकों और विचारकों के लेखों, भाषणों, साहित्यिक रचनाओं की समीक्षा करते हुए विउपनिवेशीकरण के अभियान में उस सामग्री की उपादेयता का निर्धारण किया है तथा इसके सहारे प्रतिरोध का विमर्श तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। हिन्दी का आलोचक इस प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी रहा है।
प्रणय कृष्ण ने हिंदी आलोचना में औपनिवेशिक के रेखांकन को मोटे तौर पर तीन प्रतिरूपों में वर्गीकृत किया है।”[3]
यह तीनों ही स्वातंत्र्योत्तर साहित्य चिंतन में विकसित हुए हैं। पहला और जिसे प्रणय सर्वाधिक स्वीकार्य प्रतिरूप भी मानते हैं, वह ‘राजनैतिक-ऐतिहासिक धुरी पर केन्द्रित है तथा जिसके संवर्ग समाजार्थिक हैं।’ बकौल प्रणय यह आधुनिक हिंदी साहित्य को समाजवादी प्रेरणा वाले उपनिवेशवाद विरोधी राष्ट्रीय जागरण के साहित्य के रूप में पढ़े जाने का हिमायती है। आलोचकों का यह वर्ग मानता है कि आधुनिकता की कोख से निकले स्वतंत्रता, समानता और वैज्ञानिकता के मूल्यबोध केवल पश्चिम के लिए नहीं हैं, बल्कि सम्पूर्ण मानवता के लिए वे मार्गदर्शक सिद्धांत की तरह हैं। वे इन मूल्यों को केवल पश्चिमी निर्मिति मानते हुए उनके प्रति नकार का भाव नहीं रखते। रामविलास शर्मा को इस धारा का प्रतिनिधि आलोचक मानते हुए वे लिखते हैं- “रामविलास शर्मा इस धारा के पहले प्रतिनिधि आलोचक हैं। आज़ादी के बाद के अपने आलोचनात्मक लेखन में उन्होंने ‘साम्राज्यवाद-विरोध’ और ‘सामंतवाद-विरोध’ को साहित्यिक मूल्यांकन का निकष बनाया। भारतीय मार्क्सवादी यह मानते हैं कि भारत में औपनिवेशिक पूंजीवाद ने सामंतवाद के साथ समझौता किया और वह बाकायदा ग्रामीण भारत में साम्राज्यवादी शोषण का प्रमुख स्तम्भ बना रहा। आज़ाद भारत में भी देशी प्रभुओं ने मजबूत सामंती अवशेषों का पोषण ही किया। अतः ‘साम्राज्यवाद’ और ‘सामंतवाद’ दोनों भारतीय परिस्थितियों में परस्परावलंबन के रिश्ते में बंधे हुए हैं और दोनों का समेकित विरोध सच्ची राष्ट्रीय चेतना के लिए ज़रूरी है। यहाँ उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रवाद नवजागरण के मुहावरे में अभिव्यक्ति पता है।” इसीलिए इस अध्याय में आगे चलकर नवजागरण के विमर्शों पर चर्चा के क्रम में रामविलास शर्मा पर विस्तार से बात की गयी है।
हिंदी आलोचना में औपनिवेशिक के रेखांकन के दूसरे प्रतिरूप के रूप में प्रणय आलोचकों के उस वर्ग को रखते हैं जो भारत में औपनिवेशिक हस्तक्षेप को पूरब और पश्चिम की सांस्कृतिक टकराहट के रूप में देखता है। इस टकराहट से उपजे औपनिवेशिक अनुभव को इन आलोचकों ने अपने आलोचनाकर्म के केंद्र में रखा। औपनिवेशीकरण के दूसरे पक्षों की ओर ये आलोचक प्रायः नहीं जाते। प्रणय कृष्ण के ही शब्दों में- “औपनिवेशिक के रेखांकन का दूसरा प्रतिरूप आधुनिक हिंदी साहित्य को पूरब और पश्चिम की सांस्कृतिक टकराहटों और समन्वय की अभिव्यक्ति के रूप में विश्लेषित करता है। औपनिवेशिक अनुभव वह स्थल है जहाँ यह टकराहट और संश्लेषण संभव होता है। इसकी धुरी राजनीतिक-ऐतिहासिक न होकर सांस्कृतिक है। यहाँ पश्चिम का नकार नहीं है लेकिन भारतीयता की निरंतरता और समन्वयवादी धारणा पर यहाँ बल है।”[4]
रामस्वरूप चतुर्वेदी को इस धारा का प्रतिनिधि आलोचक माना जा सकता है।
इसकी अगली कड़ी में नामवर जी ने बेनेडिक्ट एंडरसन और फ्रेडरिक जेम्सन की मान्यताओं के हवाले से उपन्यासों को राष्ट्रीय रूपक के तौर पर पढ़ने की वकालत की है। तिलिस्मी ऐयारी उपन्यासों को 1857 के स्वाधीनता संग्राम को पृष्ठभूमि में रखकर पढ़ने का व्यावहारिक आलोचना का पहला प्रयास राजेंद्र यादव ने किया। नामवर जी ने अपने अंग्रेजी ढंग के नावेल वाले लेख में कहा भी है कि यह संयोगमात्र नहीं है कि भारतीय उपन्यास का उदय 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना के बाद हुआ है। आलोचना पत्रिका के अप्रैल-जून, 1980 के अंक में राजेंद्र यादव ने ‘दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता’ शीर्षक एक लेख लिखा। चंद्रकांता अपने दौर की सर्वाधिक लोकप्रिय हिंदी कृतियों में से थी। बकौल रामचंद्र शुक्ल, कई लोगों ने उस दौर में केवल चंद्रकांता पढ़ने के लिए ही हिंदी सीखी।
राजेंद्र यादव इस कृति की लोकप्रियता के कारणों की पड़ताल करते हुए अपने लेख में लिखते हैं- “मुझे लगता है कि अपनी पड़ताल को इसी बिंदु से शुरू करना होगा कि चंद्रकांता की इस अभूतपूर्व और भयानक लोकप्रियता के सामाजिक या मनोवैज्ञानिक कारण क्या रहे हैं? वह कौन-सी मानसिक स्थिति होती है जब समाज इस तरह के मनोरंजन, कौतुक या पलायन चाहने लगता है। अनायास और अनजाने ही लाखों पाठकों या दर्शकों को बांध लेने वाली किताब या फिल्म किसी गहरी अवचेतन ज़रूरत को प्रकट और इंगित करती है या नहीं? 1857 के ग़दर के बाद अंग्रेजी शासन ने प्रायः सारे उत्तर भारत को अपने चंगुल में ले लिया था और धीरे-धीरे उसकी प्रशासनिक स्थिति मजबूत होती चली जा रही थी। राज्यों और प्रान्तों की पुनर्व्यवस्था और पुनर्गठन का कार्य लगभग पूरा हो गया था। अंग्रेजों का दबदबा, आतंक इस सिरे से उस सिरे तक छाया हुआ था। नए हथियारों, रणनीतियों और हथकंडों के साथ-साथ वे अपने उपयोग के नए-नए उपकरण भी ला रहे थे। सब मिलकर असंगठित और गुप्त विरोधों के बावजूद भारतीय समाज ने इस पराजय को अंतिम रूप से स्वीकार कर लिया था- हाँ, मानसिक और अध्यात्मिक रूप से जन-मन इस स्थिति को कतई स्वीकार नहीं कर पाया था।
भौतिक और सामाजिक पराजय के बाद भीतर कहीं यह बोध और कचोट बने रहना स्वाभाविक है कि जो बाहरी शक्ति से नहीं हो सकता उसे बुद्धि और समझ से किया जा सकता है”[5]। इस प्रकार विकसित हुई विभाजित चेतना का एक सन्दर्भ 1857 के बाद उपजी अनिश्चय की स्थितियों से भी जुड़ता है। पूरा समाज एक नए किस्म की आपाधापी से जूझ रहा था जिसमें रजवाड़ों के पुनर्गठन से लेकर नए संबंधों और समीकरणों का बनना-बिगड़ना शामिल था। उपन्यास के कथानक पर बात करते हुए राजेंद्र यादव इस ओर पाठक का ध्यान ज़रूर आकृष्ट करते हैं कि पूरा उपन्यास दौलत को छिपाने, छिपी दौलत को सही और अधिकारी हाथों में पहुंचाने और हथिया लेने के संघर्ष के प्रसंगों से भरा पडा है।
उपन्यास कथानक पर बात करते हुए राजेंद्र यादव ने तिलिस्म के दरोगा विष्णुदत्त शर्मा के चरित्र पर ध्यान केन्द्रित करते हुए चौकीदार के मालिक बन बैठने के ‘मोटिफ’ को निकट के वास्तविक अतीत से जोड़कर देखा है। वे लिखते हैं- “इस चौकीदार, संरक्षक का अचानक ही खलनायक में बदल जाना, असली मालिक को धकेल कर खुद ही सबकुछ हथिया लेने के सपने देखने लगना, क्या लेखक के अनजाने ही किसी तत्कालीन स्थिति की ओर संकेत तो नहीं करता? खुद अंग्रेजों ने भी तो अवध को इसी तरह हड़पा था और पता नहीं कितने ताल्लुके-रजवाड़े थे जिनके ज़मींदार ग़दर में साथ देने के दौरान अपने स्थानों से अनुपस्थित रहे और जब लौटकर आये तो उनकी गद्दियाँ उन्हें कभी वापस नहीं मिलीं, वजीर, मंत्री या ऐसे ही लोग जिन्हें वे अमानत सौंप गये थे, नए लोगों से साठ-गाँठ करके खुद मालिक बन बैठे थे।”[6]
उपन्यास की लोकप्रियता की पड़ताल करते हुए वे उसे उस समय के समाज की सामूहिक चेतना से जोड़ते हैं। वे लिखते हैं- “उन्नीसवीं शताब्दी यूरोपीय चिंतन और जीवन-पद्धति को जड़ से बदल डालने वाली शताब्दी है। आस्था और विश्वास की जगह ले ली है युक्ति और विज्ञान ने। कल-कारखाने, रेल-सिनेमा, सभी कुछ आये। और उनमें से कुछ चीजें अंग्रेजों के जरिये भारत में आ रहीं थीं, तो कुछ की बातें सुनाई दी रही थीं। अखबार और छापेखाने तो आ ही गये थे। मगर इस सबसे सदियों पुरानी जीवन-पद्धति, सोच तो बिलकुल नहीं बदली, हाँ, शासकों की अनुशासन व्यवस्था के लिए इनके बढ़ते उपयोग से जनता को कुछ सुविधायें ज़रूर मिलने लगीं। उन सुविधाओं को स्वीकार करने से पहले एक खास तरह का प्रतिरोध, आशंका और चमत्कार भाव तो आना ही था। संशय, उत्सुकता, चमत्कार, गति यही कुछ तत्त्व चंद्रकांता की रीढ़ है, यानी उस समय का ‘साइके’ है।”[7]
औपनिवेशिक की पहचान का तीसरा प्रतिरूप वह है जो पश्चिम के मूल्यबोध पर सीधे-सीधे प्रश्नचिन्ह लगाता है। यह तीसरा वर्ग ऊपर के दोनों वर्गों, प्रतिरूपों से इस अर्थ में अलग है कि इसमें न तो पहले प्रतिरूप के आलोचकों की तरह पुनर्जागरण या नवजागरण के प्रति सम्मोहन का भाव है और न दूसरे प्रतिरूप के आलोचकों की तरह पूरब और पश्चिम में समन्वय की कोई चेष्ठा है। यहाँ ‘औपनिवेशिकता मुख्यतः एक खंडित चेतना को जन्म देने वाली परिघटना है और औपनिवेशिकता का निषेध अखंड चेतना की पुनर्प्राप्ति के रूप में परिकल्पित है।’ इस धारा के आलोचक पश्चिम के हस्तक्षेप को परम्परा की पवित्रता को दूषित करने वाला मानते हैं।
ऊपर वर्णित हिंदी आलोचना में औपनिवेशिक की पहचान के यह तीनों प्रतिरूप कोई अनन्य कोटियाँ नहीं हैं। इनमें परस्पर आवाजाही है। यह विभाजन अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से किया गया है। इन आलोचकों ने स्वयं इस प्रकार के विभाजन की कोई चर्चा नहीं की है। प्रणय कृष्ण ने स्पष्ट किया है कि- “इन तीनों प्रतिरूपों में टकराव और आवाजाही भी है। तीनों ही पहले के रचनात्मक साहित्य और आलोचना को अपनी सैद्धांतिकी में संश्लेषित करने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए रामचंद्र शुक्ल के आलोचनात्मक लेखन को जहाँ उपनिवेशवाद-विरोधी राष्ट्रीय जागरण की राजनैतिक-ऐतिहासिक धुरी पर रामविलास शर्मा द्वारा अवस्थित किया जाता है, वहीं रामस्वरूप चतुर्वेदी ‘विरुद्धों के सामंजस्य’ जैसे उनके आलोचनात्मक प्रत्यय को पूरब-पश्चिम की टकराहट और समन्वय की सांस्कृतिक धुरी पर अवस्थित करते हैं। ठीक इसी तरह अज्ञेय के चिंतन की अवस्थिति दूसरे और तीसरे, दोनों ही प्रतिरूपों में देखी जा सकती है।”[8]
हिंदी आलोचना में औपनिवेशिक की पहचान का परीक्षण करते समय प्रणय कृष्ण की यह अंतर्दृष्टि अवश्य उपयोगी साबित होगी।
अजय तिवारी ने “नवजागरण के विभिन्न मुद्दों में से चार को विशेष तौर पर महत्त्वपूर्ण माना है।”[9]
इनमें से संस्कृति और भाषा की पहचान पहला मुद्दा है। पश्चिम में तो राष्ट्र-राज्य की संकल्पना के केंद्र में भाषागत पहचान ही रही है। इसलिए भाषा, संस्कृति, जाति यह नवजागरण का अत्यंत महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। दूसरा मुद्दा विशेषाधिकारों को चुनौती देने का है। नए सामाजिक सन्दर्भों में नई सामाजिक वैचारिक शक्तियां अपना स्थान बनाना चाहती हैं और इसलिए पुराना ढांचा चरमराता है। अजय तिवारी के अनुसार नवजागरण के सबसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों में से तीसरा मुद्दा है “लौकिक चिंता, जिसे दर्शन की भाषा में या यूँ कहें कि सांस्कृतिक दर्शन की भाषा में मानवतावाद कहते हैं। चौथा महत्त्वपूर्ण मुद्दा तर्क और अनुभव के नए संगठन का है।”[10]
इन चारों मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में हिंदी नवजागरण पर विचार करने पर तीन तरह की समस्याएं सामने आती हैं। पहली समस्या जनपदीय बोलियों के साथ खडी बोली के रिश्ते की है, जिसे स्वयं अजय तिवारी ने भारतेंदु युग तक हल कर लिया गया माना है। दूसरी समस्या यह थी कि जो सामंती ढांचे हमारे समाज में थे उन्हें अंग्रेजी राज ने मजबूत किया। भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व सामंतवाद इतना मजबूत नहीं था न जाति प्रथा इतने विकृत रूप में थी और साम्प्रदायिकता कोई उल्लेखनीय समस्या नहीं थी। ये सब तथाकथित प्रगतिशील अंग्रेजी राज के बाद हुआ। तीसरी समस्या अंतर्जातीय राष्ट्रीयता के विकास से सम्बंधित है। हिंदी समाज का बंगला से, मराठी से, तमिल से, दूसरे जातीय प्रदेशों से क्या संबंध था, यह समस्या थी। नवजागरण पर चर्चा के बहाने इन पर भी सम्यक विचार किया जाना है।
हिन्दी के तमाम आलोचकों द्वारा अपने आलोचना कर्म में उत्तर औपनिवेशिक अंतर्दृष्टियों का प्रयोग भले किया जा रहा हो, किन्तु हिंदी में अभी उत्तर-औपनिवेशिक आलोचना जैसी कोई आलोचना परम्परा अभी विकसित नहीं हो सकी है। कुछेक आलोचकों ने इस दिशा में गंभीर प्रयास अवश्य किए हैं, किन्तु बाकायदा इस पद्धति का कोई शास्त्र अभी तक विकसित नहीं हुआ है। हिंदी आलोचना में स्वतंत्रता के बाद के साहित्य के लिए स्वातंत्र्योत्तर पद प्रयोग में लिया जाता रहा है।
उत्तर-औपनिवेशिक विमर्श में मुख्य थीम औपनिवेशिक दबावों-जो राजनीतिक-सामजिक के साथ-साथ सांस्कृतिक भी हैं जिसकी पहचान की जाती है। इस कारण औपनिवेशिकता और इससे जुड़े अनुषांगिक विषय जैसे अलगाव, प्रवासन, अस्मिता और अन्यता के सन्दर्भ, बहुसंस्कृतिवाद, विस्थापन आदि भी उत्तर-औपनिवेशिक चिंतन के लिए महत्त्वपूर्ण बन गये हैं। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता के बाद इन पूर्व उपनिवेशों में कायम हुई नई सरकारों और व्यवस्थाओ में औपनिवेशिक लेगेसी की सत्यता तथा उपनिवेशों के भीतर के सत्ता संबंधों और केंद्र और हाशिये की स्थिति का अध्ययन भी इस विमर्श की विषयवस्तु है। इन विषयों को केंद्र में रखते हुए जिन महत्त्वपूर्ण बहसों का सूत्रपात हिंदी आलोचना में हुआ है, हिंदी आलोचना में औपनिवेशिक की पहचान के बहाने उन बहसों का संज्ञान लिया जाना है। उत्तर औपनिवेशिक दृष्टि से और विउपनिवेशीकरण के अभियान की दृष्टि से भी उन्नीसवीं सदी के आरंभिक दौर का कालखंड, जिसे नवजागरण का कालखंड भी कहा गया है, वह अत्यंत महतवपूर्ण है। इसका महत्त्व इस बात में है कि यही वह कालखंड है जब भारत में राष्ट्रवाद एक राष्ट्रीय विमर्श के रूप में आकार ले रहा था।
निष्कर्ष : ब्रिटिश शासन को खत्म हुए पचहत्तर से अधिक वर्ष हो चुके हैं, परन्तु भारत के सांस्कृतिक और आर्थिक मुद्दों पर भारतीय राजनीतिक निर्णयों में आज भी पश्चिम भी भूमिका किसी न किसी रूप में बनी हुई है। इन औपनिवेशिक प्रभावों को नकारने में जो प्रगति साहित्य के लेखकों ने दिखाई थी, आज वह पहल कहीं खो गई है। हिंदी साहित्य के खेमेबाज़ी ने हिंदी की इस धारा को नष्ट कर दिया। भारतीय सांस्कृतिक चिंतन न केवल प्रभावित हुआ बल्कि उस पर इन घटनाओं का नकारात्मक प्रभाव देखा जाने लगा। रूस और उक्रेन के हठ के कारण चल रही जंग ने पूरे दुनिया को जिस आर्थिक संकट की ओर धकेले उसने भी औपनिवेशिक प्रभावों के बिन्दुओं को सहजता से देखा जा सकता है। इस युद्ध ने या इससे पहले के सभी युद्ध ने यूरोप के जीवन को उपनिवेश ने बदतर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया। हिंदी साहित्य के प्रतिरोध ने भारत को कभी भी इस स्थिति में जाने से बचाया है। उपनिवेशवाद के सांस्कृतिक खतरों की ओर विरोध करते हुए इन लेखकों ने अपने निजी सांस्कृतिक उत्थान का प्रयत्न किया आयतित संस्कृति का विरोध इनमें स्पष्ट दिखाई देता है।
[1] देउस्कर, सखाराम गणेश, देशेर कथा, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 1904, पृष्ठ-145
[2] देउस्कर, सखाराम गणेश, देशेर कथा, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 1904, पृष्ठ-159
[3] कृष्ण, प्रणय, उत्तर-औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ- 125
[4] कृष्ण, प्रणय, उत्तर-औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ- 125
[5] यादव राजेन्द्र, दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना पत्रिका, अप्रैल- जून, 1980, पृष्ठ. 7-8
[6] यादव राजेन्द्र, दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना पत्रिका, अप्रैल- जून, 1980, पृष्ठ. 15
[7]
यादव राजेन्द्र, दयनीय महानता की दिलचस्प दास्तान : चंद्रकांता, आलोचना पत्रिका, अप्रैल- जून, 1980, पृष्ठ. 18
[8] कृष्ण, प्रणय, उत्तर-औपनिवेशिकता के स्रोत और हिंदी साहित्य, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ- 126
[9] तिवारी, अजय, आधुनिकता पर पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-35
[10] तिवारी, अजय, आधुनिकता पर पुनर्विचार, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-35
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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