शोध सार : वर्तमान समय में ‘सामाजिक पुनरुत्पादन’[i] संकटकाल से गुजर रहा है। वास्तव में, खाना बनाना, घर की साफ-सफाई करना, कपड़े धुलना और बच्चों की देखरेख जैसे दैनिक कामों के बिना मानव जीवन की कल्पनाभी नहीं की जा सकती है। किसी भी समाज का अस्तित्व इसके बिना संभव ही नहीं है। मानव जीवन को पुन:उत्पादित करने के लिए यह अनिवार्य है। सामाजिक पुनरुत्पादन परिवार के दायरे में रहकर किया जाता है। लेकिन आज इस पारिवारिक काम में संतुलन बिगड़ रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पूंजीवाद के भीतर यह व्यवस्था एक नया आकार लेने के साथ-साथ इसके सामाजिक स्तर पर गिरावट भी आ रही है। सामाजिक पुनरुत्पादन व्यवस्था में गिरावट का यानी कि इसके ऊपर बहु-आयामी दबाव पड़ना है। साथ ही यह संकेत भी है कि लोगों की सामाजिक क्षमता को कहीं न कहीं सीमित किया जा रहा है। जिसमें बच्चों की देखभाल, परिवार की देखरेख, घर को संतुलित करना आदि शामिल है। आज इन कामों को पूरा करने में बाजार की भूमिका बढ़ गयी है। लेकिन सामाजिक पुनरूत्पादन के केंद्र में ‘भावनाएं’ एक दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिसके बिना घर-परिवार, बच्चों और बूढ़ों की देखभाल नही की जा सकती। ऐतिहासिक तौर पर सामाजिक पुनरुत्पादन महिलाओं का काम माना जाता रहा है। इसमें भावनात्मक और भौतिक दोनों श्रम जुड़ा होता है। यह श्रम प्रायः बिना वेतन के किया जाता है। इसके बिना कोई भी संस्कृति, अर्थव्यवस्था और राजनीतिक संगठन ठीक ढंग से नही चल सकती है। कोई भी संगठित समाज सामाजिक पुनरुत्पादन को समाप्त करके या नष्ट करके लंबे समय तक नही चल सकता है। हलांकि आज के पूंजीवादी व्यवस्था में सामाजिक पुनरुत्पादन व्यवस्था का विखंडन ही हो रहा है। मात्र देखभाल ही नही अपितु व्यापक तौर पर सामाजिक पुनरुत्पादन संकट में है। प्रस्तुत आलेख इस संकट, उसके ऐतिहासिक पहलूओं और जटिलताओं को समझने का एक प्रयास है। इस अध्ययन में शामिल महिलाएं प्रवासी घरेलू कामगार महिला वर्ग से संबंधित हैं.
बीज शब्द : पूंजीवाद, जेंडर, देखभाल, भावना, घरेलू कार्य, सामाजिक पुनरुत्पादन, संकट, प्रवासी घरेलू कामागार, श्रम, वेतन, वस्तुकरण।
मूल आलेख : शहरीकरण की प्रक्रिया में लोगों के रोजमर्रा के जीवन में बड़ा बदलाव आया है। घरेलू कार्य और देखभाल का दायरा भी इससे अछूता नही है। परिणाम स्वरुप इसके अंतर्गत बड़े स्तर पर घरेलू कामागार को घर के काम करने के लिए वेतन पर रखा जा रहा है। यह भी सच है कि कमोबेश घरेलू काम को महिलाओं द्वारा किया जाता है। आज,सामाजिक पुनरुत्पादन की व्यवस्था में यह बदलाव संकटग्रस्त स्थिति में बना हुआ है। मानव जीवन के लिए सामाजिक पुनरुत्पादन अनिवार्य होने के बावजूद भी इसे प्रायः बहस में नजरांदाज कर दिया जाता है। नैंसी फ्रेजर कहती हैं कि “सामाजिक पुनरुत्पादन वास्तव में व्यापक संकट का केंद्रीय हिस्सा है, साथ ही दूसरे अन्य आयाम भी जुड़े हुए है। दूसरे आयामों को जोड़े बिना इसको पर्याप्त रूप से नही समझा जा सकता है”।[ii] आज के दौर में इसका संकट एक सामान्य पहलू बन गया है जो आर्थिक, पर्यावरणीय, राजनीतिक और सामाजिक है और ये सभी पक्ष एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। अब सवाल यह है कि सामाजिक पुनरुत्पादन को कैसे समझें? सामाजिक पुनरुत्पादन व्यवस्था में संकट क्यों आया है? संकट आने से किस तरह की जटिलताएं शहरी गरीब/प्रवासी महिलाओं के साथ जुड़ती जा रही हैं? उनके लिए यह महत्त्वपूर्ण क्यों है? प्रवासी महिलाओं के परिवार आखिर क्यों इतना परेशान रहते है? क्यों गरीब प्रवासी महिलाएं अपने बच्चों को सम्मानजनक जीवन देने के लिए अमानवीय श्रम बाजार में अपने आपको बिना किसी पहचान, सम्मान और न किसी निर्धारित वेतन के अति असुरक्षित माहौल में काम करने के लिए अपने आपको झोंक रही हैं? सामाजिक पुनरुत्पादन में आए संकट से उनके जीवन पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिन्हें समझना आवश्यक है। नैंसी फ्रेजर के अनुसार,“देखभाल के संकट की सबसे सटीक व्याख्या अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित है”।[iii] सामाजिक पुनरुत्पादन का संकट बुनियादी तौर पर अपने आपको पूंजीवाद में अभिव्यक्त करता है। फ्रेजर आगे कहती हैं कि यह अवधारणा दो विचारों की तरफ संकेत देता है। पहला,“वर्तमान समय में देखभाल का संकट कोई आकस्मिक नही है। इसकी व्यवस्थित जड़े हमारे सामाजिक संरचना से गहरे तौर पर जुड़ी है। दूसरा, वर्तमान में सामाजिक पुनरुत्पादन के संकट का कुछ पहलू न केवल वर्तमान पूंजीवाद में है बल्कि पूंजीवादी समाज खुद ही यह संकट पैदा करता है”।[iv]
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामाजिक पुनरुत्पादन का संकट -
कृषि आधारित समाज व्यवस्था में आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्था एक दूसरे के साथ मजबूती से बंधे होते हैं। खेती में श्रम की जरूरत को परिवार के भीतर सामाजिक पुनरुत्पादन द्वारा पूरा किया जाता है। लेकिन जैसे ही कृषि आधारित समाज व्यवस्था कमजोर पड़ती है और बाजार द्वारा संचालित व्यवस्था इसकी जगह लेने लगी है, वैसे ही न सिर्फ अर्थव्यवस्था बदली बल्कि सामाजिक पुनरुत्पादन में भी बदलाव आया है। पूंजीवादी समाज व्यवस्था से न सिर्फ सामाजिक व्यवस्था में बदलाव आया है बल्कि यह संकट में भी है।
उन्नीसवीं सदी से ही पूंजीवाद का प्रत्येक रूप गहरे तौर पर सामाजिक-पुनरुत्पादन व्यवस्था को संकट की ओर ले गया है और उसको पनाह भी देता है। नैंसी फ्रेजर का मानना है कि “एक तरफ पूंजी संग्रह के लिए सामाजिक पुनरुत्पादन एक संभावित शर्त है तो दूसरी तरफ असीमित पूंजी संग्रह के लिए पूंजीवाद ने सामाजिक पुनरुत्पादन की प्रक्रियाओं को ही अस्थिर कर दिया है जिस पर यह निर्भर रहता है। देखभाल के संकट की जड़ में पूंजीवाद का यह विरोधाभास है”।[v] वह कहती हैं कि पूंजीवादी समाज के प्रत्येक ऐतिहासिक दौर में, चाहे वह उदारवाद हो, उन्नीसवीं सदी का पूंजीवाद प्रतिस्पर्धी का समय हो, या युद्ध के बाद राज्य द्वारा प्रबंधित पूंजीवाद हो या आज के समय का वित्तीय पूंजीवाद हो, प्रत्येक समयावधि में इसने अलग और विशिष्ट रूप ग्रहण किया है। आज जो भी हम देखभाल की व्यवस्था में कमी का अनुभव कर रहे है, वह इसी विरोधाभास का एक रूप है। इसको ऐतिहासिक तौर पर नैंसी फ्रेजर तीन समयावधियों में बांटते हुए परिभाषित करती हैं:
पहला दौर,19वीं सदी में पूंजीवाद का पहला रूप जिसे वे उदार प्रतिस्पर्धा वाला पूंजीवाद कहती हैं, जिसमें यूरोप के केंद्र में औद्योगिक शोषण ने न सिर्फ अपनी परिधि में विकास किया अपितु औपनिवेशिक राज्य भी बनाए। वह कहती हैं कि “इस युग की खासियत यह थी कि कामगारों को पैसे कमाने के मूल्य से बाहर कर दिया गया। कामगार को खुद का पुनरुत्पादन करने के लिए छोड़ दिया गया। इसने परिवार की एक नई बुर्जुआ कल्पना रची जिसमें सामाजिक पुनरुत्पादन को निजी परिवार के भीतर महिलाओं के क्षेत्र के रूप में स्थापित किया”।[vi] मतलब परिवार और अर्थव्यवस्था को अब दो ‘अलग क्षेत्र’ के रूप में स्थापित किया गया। अब परिवार और अर्थव्यवस्था अलग-अलग हो गए। महिलाओं से अर्थव्यवस्था दूर हो गयी और पूरी तरह से पुरुषों के हाथ में आ गयी।
दूसरा दौर, 20वीं शताब्दी में राज्य द्वारा पोषित पूंजीवाद का रहा जिसके केंद्र में बड़े पैमाने पर औद्योगिक उत्पादन और घरेलू उपभोक्तावाद था। इस समय सामाजिक पुनरुत्पादन को राज्य द्वारा आत्मसात कर लिया गया था। कॉर्पोरेट प्रावधानों में सामाजिक कल्याण की अवधारणा आयी। अलग क्षेत्रों (परिवार और अर्थव्यवस्था) के विक्टोरियन मॉडल को संशोधित किया। फ्रेजर कहती हैं कि “इस समय आधुनिक आदर्श को बढ़ावा देते हुए 'परिवारिक मजदूरी' की अवधारणा सामने आयी। हालांकि अपेक्षाकृत इसका लाभ बहुत कम परिवारों को प्राप्त हुआ”।[vii]
तीसरा दौर, पूंजीवाद का आज का युग, यानी कि “वैश्वविक वित्तीय पूंजीवाद का है जिसमें मैंनुफैक्चरिग को कम मजदूरी में स्थानांतरित कर दिया है”।[viii] महिलाओं को वेतन पर कार्यबल के रूप में शामिल किया जाने लगा है। राज्य और कॉर्पोरेट ने अब सामाजिक कल्याण की जिम्मेदारी से किनारा कर लिया। परिवार से देखभाल के काम को बाहर कर दिया गया है। परिणाम स्वरुप बढ़ती असमानता के बीच सामाजिक पुनरुत्पादन का एक दोहरा चरित्र सामने आया है। पहला, यह कि देखभाल और सामाजिक पुनरुपादन के काम को पैसे से भुगतान करके ख़रीदा जा सकता है। अर्थात, इसका वस्तुकरण किया जा चुका है। अब देखभाल और सामाजिक पुनरुत्पादन की सेवा को खरीद सकते हैं। दूसरा, जो लोग इस सेवा का भुगतान नहीं कर सकते हैं उनके लिए यह निजीकरण हो गया है। यही दूसरी श्रेणी के लोग जिसमें अधिकतर शहरी और ग्रामीण गरीब महिलाएं हैं जो देखभाल के काम के लिए कम वेतन में अपना श्रम बेचती हैं उनके लिए वेतन पर काम मिलने की संभावना दिखायी देती है। इसको फ्रेजर ‘परिवार में दो कमाने वाले' की व्यवस्था कहती हैं। मतलब साफ है कि अब परिवार एक सदस्य की कमाई से नही चल सकता है। अब इसे भी आधुनिक आदर्श के रूप में स्थापित किया जा रहा हैं। सम्पन्न परिवारों के भीतर देखभाल के काम को अब शहरी गरीब / प्रवासी मजदूरों, ज्यादातर महिलाओं द्वारा कम वेतन पर किया जा रहा है जबकि काम के घंटे अधिक हैं। परिवार के भीतर देखभाल के काम को पूरा करने के लिए या उस अंतर को कम करने के लिए गरीब परिवारों से प्रवासी कामगार शहरों में आकर अपना श्रम अमीर घरों में बेचते है। क्योंकि अमीर और मध्य वर्ग की महिलाएं इस वित्तीय पूंजीवाद के लिए काम कर रही हैं।
देखभाल का वस्तुकरण: गहराता संकट -
क्या घरेलू काम और देखभाल को सिर्फ श्रम के रूप में देखा जा सकता है? बिना किसी बाधा या जटिलता के क्या देखभाल को पूरी तरह बाजार नियंत्रण कर सकता है? क्या पैसे से घरेलू काम पीछे की भावनाओं को खरीदा और बेचा जा सकता है? जब घरेलू कामगारों को इसके लिए वेतन दे दिया जाता है तो क्या इसको वस्तुकृत किया जा रहा है? कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण सवाल हैं जिनको हमें समझने की जरूरत है। सवाल सिर्फ यह नही है कि घरेलू श्रम को अब प्रवासी व गरीब कामगारों द्वारा कम वेतन पर किया जा रहा है उसके साथ-साथ और भी जटिलताएं हैं। ब्रिजेट एंडरसन कहती हैं कि “घरेलू कामगार सिर्फ काम ही नही करती है बल्कि वे एक भूमिका निभाती हैं। यह उनका श्रम-शक्ति सामान्य नही है। जिसका वस्तुकरण हो रहा है। जब तक नियोक्ता शाम को दफ्तर से अपने घर नहीं पहुंच जाती है तब तक कामगार घर के दरवाजे पर खड़ी होती है”।[ix] या जब तक नियोक्ता द्वारा दिए गए काम को कामगार पूरा नही कर लेती तब तक वह अपने घर नही जाती। बंधे कामगार नियोक्ता के ही घर में रहकर घरेलू काम की जिम्मेदारी निभाती है। वास्तव में उसकी श्रम-शक्ति को सिर्फ बेचने के रूप में ही नही समझा जा सकता है। इसमें कई तरह की जटिलताएं हैं।
पहली जटिल परिस्थिति यह है कि, कामगार नियोक्ता के घर में चाहे वह दिन के कुछ घंटे हो या पूरा दिन हो, अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण समय देने के बावजूद उन्हें बिना परिवार के साथ जोड़े एक श्रम-इकाई के रूप में समझा जाता है। लेकिन कामगार का जुड़ाव न तो उस श्रम से होता है और न ही नियोक्ता के परिवार से। कार्ल मार्क्स ने इस स्थिति को अलगाव के रूप में उत्पाद, उत्पादन की प्रक्रिया और मजदूरों के शोषण के संदर्भ में परिभाषित किया है। मार्क्स और एंगेल्स ने इकोनॉमिक एंड फिलॉसिफिक मैन्युस्क्रिप्ट्स में लिखते हैं कि अलगाव पूंजीवाद का ही उत्पाद है। जब मजदूरों का श्रम मलिकों की सम्पत्ति बन जाता है जिसमें मजदूर का न तो अपने उत्पाद और न ही उत्पादन प्रक्रिया पर कोई नियत्रण नही होता है। ऐसे में एक ऐसा समय आता है जब मजदूर अपने समाज से अलग-थलग हो जाता है, यहां तक कि उसका खुद से अलगाव हो जाता है, यानी कि मनुष्य जाति से अलगाव। इस प्रक्रिया में घरेलू कामगार की स्थिति कमोबेश वैसे ही है जैसे फैक्टरी में काम करने वाले मजदूरों का (बल्कि और भी ज्यादा शोषित क्योंकि घरेलू कामगार को श्रमिक ही नही माना जाता है)। शोषण के द्वारा ही अलगाव को पैदा किया जाता है। यह सब पूंजीवाद में ही देखा ही गया है। मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही मनुष्य जाति का पुनरुत्पादन भी जरूरी है और यह प्रक्रिया एक ही समय में होती है लेकिन जब पूंजीवादी समाज में दोनों ही बाजार द्वारा नियंत्रित किया जाता है तो दोनों में ही लगातार संकट और अलगाव की स्थिति बनी रहती है।
पूंजीवाद में मजदूरों के पास विकल्प नही होता है। इस अध्ययन के दौरान पाया गया कि ज्यादातर प्रवासी महिलाओं के पास कोई बेहतर विकल्प नही होने के कारण घरेलू काम को चुनना पड़ा। इस संदर्भ में, जो कामगार खुला काम करती हैं उन्हें मजबूरन एक घर से दूसरे घर और तीसरे या चौथे घर में काम करना पड़ता है। ऐसे कई काम हैं जिसको नियोक्ता की तरफ से साफ तौर पर शुरुआती बातचीत के दौरान बताया नहीं गया होता है लेकिन बाद में उस कामगार महिला से वे अन्य काम भी करवाए जाते हैं। इस अतिरिक्त काम की कीमत के लिए न तो नियोक्ता द्वारा और न ही राज्य द्वारा किसी तरह से परिभाषित किया गया है। यह निजी काम मानकर पूरी तरह से नियोक्ता के हाथ में सौंप दिया गया है। उदाहरण के लिए, नोएडा के क्लोय काउंटी सोसाइटी में खुला घरेलू काम करने वाली रेखा ने बताया कि जब शुरुआत में मालकिन से बात हुई थी तो सिर्फ झाड़ू-पोछा, धूल साफ करना और बर्तन साफ करने की बात हुई थी। लेकिन कुछ दिनों के ही बाद मुझसे सब्जी भी कटवाने लगी जबकि उसका पैसा नही देती हैं। मैं सुबह साढ़े-सात बजे जाती हूं और 1 बजे लौटकर आती हूं। मेरे पास और समय नही है कि किसी दूसरे घर में खुला काम कर सकूं क्योंकि दोपहर तो यही पर हो जाता है। पैसे बहुत कम मिल रहे हैं। मेरे शरीर में हमेशा दर्द रहता लेकिन मै अपना इलाज नही करवा पा रही हूं क्योंकि जो भी कमाती हूं वह इतना कम होता है कि घर का किराया और खाना भी पूरा करना मुश्किल हो जाता है। प्रवासी घरेलू कामगारों के लिए यह व्यापक तौर पर एक प्रतिघात है। नौकरी की शुरुआत करते समय नियोक्ता और कामगार के बीच क्या बातचीत होती है और फिर वास्तव में क्या होता है, कई बार ये दोनों स्थितियां एक दुसरे से ठीक विपरीत हो जाती हैं। एंडरसन कहती हैं कि “यह पूंजीवाद का व्यक्ति को लेकर एक तार्किक परिणाम है कि कोई भी व्यक्ति अपने श्रम को कहीं भी बेचने के लिए मुक्त है। पूंजीवाद के लिए यह एक वैयक्तिक मसला है। पूंजीवादी न्यायिक व्यवस्था में व्यक्ति सभी वास्तविक और सामाजिक संदर्भों से उजड़कर अपना श्रम-शक्ति श्रम बाजार में बेचने के लिए मजबूर है जबकि राज्य, पूंजीपति और नियोक्ता सभी को श्रमिक चाहिए”।[x] इन्हें जो भी श्रम मिलता है श्रमिक या लोगों से ही मिलता हैं। दरअसल पूंजीवाद के भीतर यह श्रम-शक्ति और वैयक्तिक के बीच का संघर्ष है। इस विरोधाभास को उजागर करते हुए मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में कहा कि आधुनिक बुर्जुआ समाज सामंती समाज के ध्वंस से उपजा है लेकिन इसने वर्ग-विरोधों को खत्म नही किया। बस उसने पुराने के स्थान पर नए वर्गों, उत्पीड़न की नयी अवस्थाओं और संघर्ष के नए रूपों को ही स्थापित किया है।[xi] ऐसा नही है कि यह सिर्फ उत्पादन और बाजार अर्थव्यवस्था के लिए ही सच है बल्कि इसका असर समाजिक संबंधों और संरचनाओं पर भी देखा जा सकता है जिसे एंडरसन ने व्यक्ति और अर्थव्यवस्था के बीच के अंतर्विरोध के रूप में इंगित करती हैं।
दूसरी, वास्तव में क्या घरेलू कामगार सिर्फ श्रम बाजार में (जोकि काम करने की जगह घर है) अपनी श्रम-शक्ति को बेचती है? घरेलू कामगार शारीरिक, सांस्कृतिक और विचारधारा के तौर पर मानव का पुनरुत्पादन करती हैं। वेतनभोगी घरेलू कामगार सामाजिक संबंधों को पुनरुपादित करती हैं। वे केवल घरेलू काम (बर्तन धुलना, कपड़ा प्रेस करना, घर की सफाई करना, खाना बनाना, बच्चों और बुजुर्गों की जरूरत पूरी करना एवं उनकी देखभाल करना) ही नही करती हैं बल्कि वे घर को भी व्यवस्थित करती है। इस प्रक्रिया में वेतनभोगी कामगार खुद पुनरुत्पादन का साधन होती है। व्यापक तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि देखभाल के दो अर्थ हैं: देखभाल के लिए श्रम और देखभाल में अंतर्निहित भावना। दोनों को सुलझाना काफी कठिन है। फिंच और ग्रोव (1983) अपने सम्पादकीय परिचय में लिखती हैं कि “देखभाल को हम सिर्फ घर के भीतर किये गये घरेलू श्रम तक ही सीमित नही कर सकते है बल्कि इसमें हमेशा ही भावना जुड़ी होती है”।[xii] इसी किताब में हिलेरी ग्राहम अपने लेख में कहती हैं कि “देखभाल को लगाव या भावनाओं से अलग नही कर सकते है”।[xiii] मानव अनुभवों में सामाजिक रिश्तों के पीछे भावनाएं होती हैं। एक दूसरे का ख्याल रखना शामिल होता है। उसमें पदभार (जैसे कि मां, पिता,भाई, पत्नी, पति बच्चों का पद और उसके अनुसार भूमिका और कार्य, अलग बात है कि ये भूमिकाएं लैंगिक श्रम विभाजन पर टिकी होती हैं) भी शामिल होता है। ख़याल रखना और पदभार में मानसिक और भौतिक दोनों पहलू शामिल होते हैं। देखभाल करना और देखभाल करने का अनुभव घनिष्ठ रूप में इस बात से जुड़ा हुआ है कि हम खुद को और अपने सामाजिक संबंधों को कैसे परिभाषित करते हैं। दूसरी तरफ, देखभाल उस प्रक्रिया का एक अभिन्न अंग है जिसमें इंसान अपने शारीरिक और मानसिक जरूरतों को पूरा करता है। खुद को पुन: उत्पादित करता है। देखभाल में भावना, श्रम, पहचान और गतिविधि सबकी ही मांग होती है और यह मांग की प्रकृति व्यापक समाज के सामाजिक संबंधों द्वारा आकार लेती है।
अंतत: देखभाल श्रम, भावनाओं और संबंधों का समिश्रण होता है। मार्क्स और एंगेल्स लिखते है कि लाभ/मुनाफा कमाने के लालच में ह्रदयशून्य व्यवहार के सिवा मनुष्यों के बीच और कोई दूसरा संबंध बाकी नही रहने दिया है।[xiv] पूंजीवाद ने इन्हीं आत्मीय संबंधों के लिए देखभाल को अस्थिर करके लाभ कमाने के कई रास्ते खोल दिए हैं। मार्क्स और एंगेल्स दि होली फैमिली में लिखते है कि श्रम, आत्मीय संबंधों और भावनाओं को भौतिक और ऐतिहासिक दोनों आधार पर समझने की जरूरत है।[xv] श्रम से अलग करके भावनाओं और आत्मीय संबंधों को नही समझा जा सकता है। श्रम और आत्मीय संबंध मानव जीवन का हिस्सा है जिसे उत्पादन और सामाजिक पुनरुत्पादन के जरिए पूरा किया जाता है। व्यक्ति के जीवन के लिए यह अनिवार्य है। व्यक्ति अपनी इच्छाओं, कामनाओं और जरूरतों की पूर्ति बिना स्नेह, भावना, श्रम और देखभाल के नही कर सकता है। परिवार के भीतर इन सभी का मिश्रण होता है। घर के भीतर किया जाने वाला श्रम आत्मीय संबंधों पर टिका होता है। यह श्रम बहुत अधिक लगन/लगाव की मांग करता है। उदाहरण के लिए, बच्चों की देखभाल करने के लिए ऐसा नही है कि उसके लिए सिर्फ खाना बनाना, बर्तन साफ करना, उसका मुंह साफ करना, मल-मूत्र साफ करना, उसको खुश रखना, कपड़ा साफ करना आदि ही शामिल होता है बल्कि इन सब कामों को करने के लिए जुड़ाव/लगाव भी शामिल होता है। इसलिए घरेलू काम के बीच स्पष्ट लाइन खींचना बहुत कठिन है कि कितना अधिक समय, काम और लगाव की जरूरत होती है। लेकिन जब कोई वेतन पर देखभाल करने के लिए किसी और व्यक्ति को रखता है तो इसमें कई तरह की कठिनाई आती है। उदाहरण के लिए, जब नियोक्ता बाहर वेतन पर काम करने जाती है तो सामान्य तौर पर गरीब और प्रवासी घरेलू कामगार नियोक्ता के परिवार और उनके बच्चों की देखभाल करतीं है। लेकिन बदले में बहुत कम वेतन मिलता है। साथ ही घरेलू कामगार देखभाल के लिए बहुत कम अपनी भावना को निवेश करती है। वे देखभाल के लिए अपनी भावनाओं को नही लगाना चाहती हैं। कारण बहुत साफ है कि वे वेतन के लिए अपना श्रम बेचती है और नियोक्ता के घर के भीतर काम करती है न कि प्रेम और स्नेह के लिए जो कि बच्चों की देखभाल के लिए अनिवार्य होता है। नियोक्ता और घरेलू कामगार के बीच मालिक और मजदूर का संबंध होता है। वेतन पर घरेलू काम सिर्फ काम है। अगर नियोक्ता मालिक के मॉडल को अपनाती है, जिसमें कामगार को कभी भी रखना और निकाल देना शामिल है तब कामगार के लिए देखभाल का काम सिर्फ एक श्रम होता है।
अक्सर अनुभवी घरेलू कामगार देखभाल के काम को नही चुनती हैं। वे देखभाल वाले काम को करने की बजाय घरेलू काम को चुनती हैं। शायद उन्हें इसकी जटिलता के बारे में पता होता है। नोएडा की एक सोसाइटी में काम करने वाली किरन ने बताया कि एक बार वे एक साल के छोटे बच्चे की देखभाल कीं थी। बच्चे के साथ उनका लगाव स्वाभाविक था। लेकिन नियोक्ता ने एक साल के बाद उन्हें काम से निकाल दिया। वे बताती है कि उस समय मैं बहुत उदास और दुखी थी। मेरा मन करता था कि मैं उस बच्चे को देख सकूं। लेकिन कभी नही देख पायी। उसके बाद से मैंने कभी भी छोटे बच्चों की देखभाल का काम नही लिया क्योंकि यह बहुत अधिक दुखी व परेशान करता है। वास्तव में घरेलू श्रम और भावना अलग-अलग नही होता है, खासकर छोटे बच्चों की देखभाल करते करना। बच्चों की देखभाल करने के लिए नियोक्ता ऐसे घरेलू कामगार को खोजती हैं जो उनके लिए सिर्फ एक कामागार के रूप में नही बल्कि एक अच्छी देखभालकर्ता के रूप में हो। नियोक्ता को ऐसी महिला या कामगार चाहिए जो भावनात्मक रूप से उनके बच्चे के साथ जुड़े, उसे प्यार करें और बच्चे के साथ अच्छा व्यवहार करे। नियोक्ता घरेलू कामगार के वेतन बढ़ाने की बजाय मांग करती है कि कामगार उनके साथ आंतरिक भावनाओं के साथ जुड़े। इस संदर्भ में देखभाल करने और करवाने वाले के संबंध वास्तविक नही होते है और यह कभी भी किसी के भी तरफ से टूट सकता है। जब पैसे से देखभाल को खरीदा जाता है तो देखभाल पूरी तरह से एक वस्तु की तरह होता है। लेकिन वास्तविक देखभाल का वस्तुकरण नही हो सकता है। क्योंकि पैसे से प्यार और स्नेह को नही खरीदा जा सकता है। यह वास्तविक नही होता है। एक कामगार की खुद की भावना और उनको सौंपी गयी जिम्मेदारी नियोक्ता के लिए महत्वपूर्ण नही होती है। कामगार के लिए श्रम के रूप में देखभाल को भावना से अलग करना मुश्किल होता है क्योंकि देखभाल करने में पूरा व्यक्तित्व शामिल होता है। यह हम कौन हैं’ के साथ जुड़ा हुआ है। कामगार सिर्फ कामगार नही होता है, वह एक महिला भी है, मानवीय भावनाएं भी हैं, मातृत्व लगाव भी होता है। बुबेक कहती हैं कि “यह गहरे तौर पर मानवीय व्यवहार, खासकर महिलाओं के लिए यह एक प्रतिध्वनि होता है। सभी संस्कृतियों में नारीत्व की अवधारणा पाई जाती है जिसमें देखभाल, नजरिया, स्वाभाव केंद्रीय हिस्से होते है। यह जो देखभाल का काम नियोक्ता की बजाय अब कामगार करती है, सामाजिक तौर पर उनकी नियोक्ता के साथ बराबरी नही की जाती है क्योंकि तब श्रम-शक्ति की कल्पना को कायम नही रखा जा सकेगा है”।[xvi] नियोक्ता के बराबर कामगार को सामाजिक तौर पर स्वीकार नहीं किया जाता है। इसके अलावा, यह भी सच है कि कामगार द्वारा देखभाल के काम को करना अपमान के साथ भी जुड़ा है। यह अपमान कहीं न कहीं नियोक्ता को कामगार के उपर नियंत्रण करने का अधिकार भी दे देता है। यह एक अमानवीय परिस्थिति है कि कामगार अपने व्यक्तित्व को बेचने के बावजूद एक ही समय में व्यक्ति और गैर-व्यक्ति दोनों होती है।
निष्कर्ष : पूंजीवादी समाज व्यवस्था के अंतर्गत सामाजिक पुनरुत्पादन में आए संकट ने संस्थागत रूप लिया है। साथ ही अलग-अलग मानक और आदर्श स्थापित किए हैं। पूंजीवाद के पहले दौर में ‘अलग क्षेत्र’, दूसरे में फिर ‘फैमिली वेज’, और अब ‘परिवार में दो कमाने वाला’। हर एक समय में सामाजिक अंतर्विरोध ने एक अलगरूप धारण किया है और संकट को एक अलग रूप में अभिव्यक्त किया है। पूंजीवाद के भीतर सामाजिक पुनरुत्पादन को जिस तरह से अस्थिर किया है उसमें और अधिक जटिलताएं भी आ रही हैं क्योंकि परिवार के भीतर श्रम, भावना और सामाजिक रिश्ते सभी आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं जिसको श्रम बाजार में पैसे से नही खरीदा जा सकता है। इस तरह की नौकरियां/सेवाएं जिसमें मानवीय अंतर्क्रिया और भावनाओं की मांग होती है, नियोक्ता इस तरह की सेवाओं को तो खरीद सकता है लेकिन वह वास्तविक नही होती हैं और इस तरह से सामाजिक तौर पर सामाजिक संबंघ और अधिक जटिलता की तरफ बढ़ते हैं, विशेष रूप से, आज के दौर में सामाजिक अंतर्विरोध की जड़ें न सिर्फ पूंजीवाद में अंतर्निहित बल्कि उस विरोधाभास को भी तीव्र किया है जो सामाजिक पुनरुत्पादन को अस्थिर करता है. पूंजीवाद बिना पूंजी के नही हो सकता है, पूंजीपति के बिना पूंजी का कोई आस्तित्व नही, पर पूंजी के बिना भी पूंजीपति का कोई वजूद नही हो सकता है। पूंजीपति और पूंजीवाद ने जो शोषण का तंत्र विकसित किया है वह न सिर्फ सार्वजनिक जगह तक सीमित है बल्कि घर और परिवार के भीतर तक उसकी गहरी पहुंच बन चुकी है जिससे सामाजिक संबंध और सामाजिक पुनरुत्पादन, सभी पर संकट है। जब तक पूंजी के मूल चरित्र को नही समझेंगे तब तक सामाजिक पुनरुत्पादन में आए संकट, साथ में व्यापक संकट को भी नही समझेंगे। कार्ल मार्क्स और एंगेल्स का लेखन महज एक संयोग नही है। वे पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूरों (कामगार पुरुष और महिला) की परिस्थितियों, शोषण और उससे निर्मित पूंजी को उजागर किया था। नई आर्थिक परिस्थितियों में घरेलू कामगार को मजदूर की श्रेणी से बाहर रखने का मतलब है कि उनकी मोल-भाव करने की स्थिति ही न बन सकें लेकिन उनके श्रम और शोषण से पूंजीवादी व्यवस्था को फायदा मिलता रहे।
[i]सामाजिक पुनरुत्पादन एक व्यापक अवधारणा है जिसमें सामाजिक संबंध, परिवार, घर, देखभाल, भावानएं, प्यार, पारिवारिक रिश्ते, घरेलू श्रम या कार्य, बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल, अर्थव्यवस्था आदि सब एक दूसरे से जुडें हुए हैं।
[ii]नैंसी फ्रेजर कॉन्ट्राडिक्शंस, ऑफ कैपिटल एंड केयर.न्यु लेफ्ट रिव्यू 100-जुलाई-अगस्त, 2016, पृ. सं 99.
[xiii]हीलेरी ग्राहम (1983). केयरिंग: ए लेबर ऑफ लव, इन फिंच जे. एंड ग्रोव्स डी. (एडि.) (1983). ए लेबर ऑफ लव: वीमेन, वर्क एंड केयरिंग. लंदन: रुटलेज एंड केगन पाउल.
[xiv]मार्क्स और एंगेल्स, कम्यूनिस्ट मेनिफेस्टो, पृ. सं. 6.
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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