- आशा
शोध सार : महिलाएं किसी भी समाज की आधी आबादी होती है और इस आधी आबादी को हाशिए पर रखकर किसी भी समाज के पूर्ण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती। इसी सन्दर्भ में इस शोध पत्र में मुख्यतः दो विषयों पर चर्चा की गई है (1) वैश्विक और भारतीय राजनीति में महिलाओं की स्थिति (2) महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व और महिला आरक्षण बिल। इस शोध में वर्णनात्मक और विश्लेषणात्मक शोध पद्धति का प्रयोग किया गया है।
बीज शब्द : राजनीतिक प्रतिनिधित्व, निर्णय-निर्माण, पितृसत्तात्मक व्यवस्था, आरक्षण, संसद, विधानसभा, महिलाओं, सशक्तिकरण।
मूल आलेख : वर्तमान सामाजिक व्यवस्था लंबे समय से पितृसत्तात्मक विचारधारा पर आधारित है। यह विचारधारा एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था को जन्म देती है जो पुरुषों को श्रेष्ठ और महिलाओं को दूसरे दर्जे का मानती है। इस सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति बहुत ही शोषणकारी और उत्पीड़नकारी होती है, महिलाओं के साथ हिंसा इस व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह व्यवस्था महिला तथा उससे संबंधित समस्याओं को सदैव ही हाशिए पर रखती है। यदि भारतीय समाज महिलाओं के विषय में वास्तविक तौर पर चिंतित हैं तो उसे सदियों से चली आ रही वर्तमान व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करना होगा। तभी भारतीय महिलाओं की स्थिति में वास्तविक सुधार संभव हो सकेगा और एक न्यायपूर्ण लोकतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था की स्थापना हो।
सशक्तिकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। सशक्तिकरण को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक, शैक्षणिक आदि कई आयाम में समझा जा सकता है। यह अध्ययन महिला सशक्तिकरण के राजनीति आयाम पर केंद्रित है। राजनीति विज्ञान मास्टर साइंस है क्योंकि राजनीतिक विज्ञान, समाज विज्ञान का उपक्षेत्र होते हुए भी यह सामाजिक विज्ञान और उसके अन्य उपक्षेत्रों पर एक विशेष प्रभुत्व रखता है। राजनीति का सीधा संबंध निर्णय-निर्माण से होता है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक और वैचारिक आदी सभी क्षेत्रों को नियंत्रित, निर्देशित और प्रभावित करती है।
अगर वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था पर ध्यान दिया जाए तो वह सदियों से पितृसत्तात्मक विचारधारा के अनुरूप कार्य कर रही है। इस व्यवस्था ने सदैव ही महिलाओं को निर्णय-निर्माण प्रक्रिया व राजनीतिक सहभागिता से दूर रखने का प्रयास किया है। भारत की आजादी के 75 वर्षों बाद आज भी भारतीय महिलाओं की राष्ट्रीय व राज्य स्तर की राजनीति व निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में पर्याप्त सक्रिय सहभागिता का अभाव है। जो महिलाओं के राजनीतिक रूप से सशक्तिकरण के समक्ष एक बड़ी चुनौती है। आज भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है जिसके परिणामस्वरूप आज भी महिलाएं स्वयं को हाशिए पर महसूस करती हैं। राजनीति में महिला प्रतिनिधित्व का अभाव न केवल महिलाओं को निर्णय-निर्माण में भागीदारी से दूर करता है बल्कि उनसे संबंधित महत्वपूर्ण विषयों को भी हाशिए पर बनाए रखता है। आज भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत वैश्विक स्तर पर बहुत अधिक पिछड़ा है। संयुक्त राष्ट्र संघ की 2017 में प्रकाशित रिपोर्ट वूमेन इन पॉलिटिक्स के अनुसार संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत ने 148वां स्थान और वूमेन एट मिनिस्ट्रियल पोज़िशन के मामले में 88वां स्थान प्राप्त किया। 16वीं लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 11.8 प्रतिशत था और 17वीं लोकसभा में 14 प्रतिशत है। 2019 में सभी विधानसभाओं में महिलाओं का कुल प्रतिनिधित्व मात्र 9 प्रतिशत रहा।
अतः आंकड़े दर्शाते हैं कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में महिलाओं की स्थिति आज भी चिंताजनक है। यह पितृसत्तात्मक राजनीतिक व्यवस्था महिला समानता की बातें करती है, नारेबाजी करती है या छोटी-मोटी योजनाओं द्वारा महिलाओं को भ्रमित तो करती है परंतु निर्णय-निर्माण प्रक्रिया में समान प्रतिनिधित्व देने से सदैव ही कतराती रही है। जब तक महिलाओं को राष्ट्र-राज्य राजनीति में समान प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं होगा, तब तक महिलाओं की समस्याओं का उचित समाधान करना व देश का चहुँमुखी विकास करना असंभव है। कोई भी राष्ट्र अपनी आधी आबादी को हाशिए पर रखकर एक उज्जवल भविष्य की कामना नहीं कर सकता। अतः यह तभी संभव होगा जब महिलाओं को संसद व विधानसभाओं में आरक्षण दिया जाए व महिला आरक्षण बिल को कानून का रूप दिया जाए। इस कदम से महिलाएं भी निर्णय-निर्माण में पुरुषों के समान सक्रिय भूमिका निभाते हुए अपनी और राष्ट्र की समस्याओं का उचित समाधान करते हुए राष्ट्रीय व राज्य स्तर की राजनीति में सक्रिय भूमिका का निर्वहन कर सके। इस प्रकार न केवल भारतीय महिलाओं की प्रतिष्ठा बढ़ेगी बल्कि वे भी राष्ट्र निर्माण में अहम् योगदान दे पाएगी।
अवधारणाओं का स्पष्टीकरण : सशक्तिकरण की अवधारणा शक्ति के विचार से ली गई है। शक्ति सशक्तिकरण की अवधारणा का केंद्र बिंदु है। यह अवधारणा इस विचार पर आधारित है कि शक्ति का विस्तार व शक्ति व्यवस्था में परिवर्तन संभव है, यदि शक्ति व्यवस्था परिवर्तित नहीं होती और व्यक्तियों और स्थितियों में एकरूपता बनी रहती है तो सशक्तिकरण संभव नहीं है। सशक्तिकरण एक प्रक्रिया है जो व्यक्तियों अथवा समूहों की क्षमताओं को बढ़ाती है, ताकि वह सर्वोत्तम का चयन कर सके और ऐसे चयन को वांछित कार्य और निष्कर्षों में बदल सके।
सशक्तिकरण लोगों में और समुदायों में स्वायत्तता और आत्मनिर्णय के स्तर को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किए गए उपायों का एक सेट है, ताकि वे अपने स्वयं के अधिकार पर कार्य करने के लिए एक जिम्मेदार और स्व-निर्धारित तरीके से अपने हितों का प्रतिनिधित्व कर सकें। किसी व्यक्ति, समुदाय या संगठन की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, शैक्षिक, लैंगिक, या आध्यात्मिक शक्ति में सुधार को सशक्तिकरण कहा जाता है।
सशक्तिकरण के समान महिला सशक्तिकरण भी एक बहुपक्षीय अवधारणा है जिसका संबंध महिलाओं के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, मानसिक आदि पक्षों में सकारात्मक परिवर्तन कर उन्हें सशक्त बनाने से है। सशक्तिकरण की यह प्रक्रिया महिलाओं की व्यक्तिगत चेतना और आत्मसम्मान की भावना से प्रारंभ होती है और जीवन के विभिन्न पक्षों से संबंधित संसाधनों तक पहुंच और उन पर नियंत्रण स्थापित करने तक चलती रहती है।
महिला सशक्तिकरण के महत्व को स्पष्ट करते हुए विवेकानंद जी ने कहा है कि जब तक महिलाओं की स्थिति नहीं सुधरती तब तक विश्व के कल्याण की कोई संभावना नहीं है, जैसे पक्षी के लिए एक ही पंख से उड़ना संभव नहीं है।
महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण : महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की अवधारणा महिला सशक्तिकरण के विभिन्न आयामों में से एक महत्वपूर्ण आयाम है जो महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने पर बल देता है ताकि महिलाओं को राजनीतिक रूप से समान अवसर देकर उनको पुरुषों के समान राजनीति में सहभागिता दी जा सके और एक सच्चे लोकतंत्र का निर्माण किया जा सके।
किसी भी समाज में महिलाओं के विरुद्ध शोषण, उत्पीड़न, और असमानता को खत्म करने के लिए, उन्हें समान अवसर प्रदान करने व निर्णय निर्माण की प्रक्रिया में भागीदार बनाने के लिए उन्हें राजनीतिक रूप से स्वावलंबी बनाना आवश्यक है। क्योंकि जब महिलाएं सत्ता में समान भागीदारी प्राप्त करेंगी तभी वह अपने लिए एक न्याय पूर्ण, पक्षपात रहित और संतुलित समाज का निर्माण कर पाएंगी।
महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में वैश्विक स्थिति :
महिलाओं की जनसंख्या वैश्विक आबादी की आधी है। वैश्विक स्तर पर महिलाओं का राष्ट्रों की राजनीति में औसतन प्रतिनिधित्व एक चौथाई से भी कम है। यूएन वीमेन के अनुसार 1 जनवरी 2023 तक, ऐसे 31 देश हैं जहाँ 34 प्रतिशत महिलाएँ राज्य या सरकार की प्रमुख के रूप में काम करती हैं । इस रफ़्तार से तो सत्ता के सर्वोच्च पदों पर लैंगिक समानता को अगले 130 वर्षों तक भी प्राप्त नहीं किया जा सकेगा। सिर्फ 17 देशों में एक महिला राज्य प्रमुख है और 19 देशों में एक महिला सरकार प्रमुख है। आकड़ों के अनुसार 1 जनवरी 2023 तक मंत्रालयों का नेतृत्व करने वाले कैबिनेट सदस्यों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 22.8 प्रतिशत हैं। केवल 13 देश ऐसे हैं जिनमें नीतिगत क्षेत्रों में अग्रणी कैबिनेट मंत्रियों के 50 प्रतिशत या उससे अधिक पदों पर महिलाएं हैं। फरवरी 2019 में वैश्विक स्तर पर महिलाओं का संसद में औसतन प्रतिनिधित्व 24.3 प्रतिशत रहा, जनवरी 2023 में 26.5 हो गया, जो 1995 में 11.3 प्रतिशत था। दुनिया में लोकसभा जैसे निचले सदनों में महिला के प्रतिनिधित्व की बात करें, तो भारत इस मामले में पाकिस्तान (20.02 प्रतिशत), अफगानिस्तान (27.7 प्रतिशत) और सऊदी अरब (19.9 प्रतिशत) जैसे इस्लामिक देशो से भी पीछे है।
जिनेवा स्थित इंटर-पार्लियामेंट्री यूनियन की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत 150वें स्थान पर है, जबकि पाकिस्तान को 101वाँ स्थान मिला है। इस रिपोर्ट में रवांडा पहले, क्यूबा दूसरे और बोलिविया तीसरे स्थान पर है। इन देशों की संसद में महिला सदस्यों की संख्या 50 प्रतिशत से ज्यादा है। रिपोर्ट में 50 देशों की संसद में महिलाओं की संख्या कुल सदस्यों के 30 प्रतिशत से अधिक है। इस रिपोर्ट के अनुसार रवांडा, बोलिविया और क्यूबा में जहाँ 50 प्रतिशत से ज्यादा महिला सांसद हैं, वहीं वनूआतू, पापुआ न्यू गिनी और माइक्रोनेशिया ऐसे देश हैं, जहाँ एक भी महिला सांसद नहीं है। जहां महिला सांसद हैं, उनमें सबसे पीछे यमन है, वहाँ सिर्फ 0.3 प्रतिशत महिलाएँ संसद में हैं। अमेरिकी संसद में महिला सदस्य 23 प्रतिशत हैं, फ्राँस में 39.7
प्रतिशत, ब्रिटेन में 32 प्रतिशत, जर्मनी में 30.9 प्रतिशत महिला सांसद हैं।
2019 में प्रकाशित एक ऑनलाइन पत्रिका के अनुसार भारत वैश्विक स्तर पर महिला प्रतिनिधित्व के मामले में 190 देशों में से 151वें स्थान पर आया था। दक्षिण एशिया के आठ देशों में से भारत का स्थान महिला प्रतिनिधित्व के मामले में 5वां था। अफगानिस्तान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और नेपाल भी महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत से अच्छी स्थिति में है। जबकि इन देशों को भारत की तरह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का सम्मान भी प्राप्त नहीं है। एशिया में महिला प्रतिनिधित्व के मामले में भारत का स्थान 18 देशों में से 13 वां है।
राष्ट्र-राज्य राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति :
भारत एक पुरुष प्रधान समाज है जिसकी संपूर्ण राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक विचारधारा पर आधारित है। यही कारण है कि इस समाज की महिलाएं सदियों से संस्कारों, धर्म, रीति-रिवाजों, परंपराओं, मर्यादाओं, संस्कृति आदि विभिन्न नामों पर न सिर्फ शिक्षा, अवसर की समानता, विकास के लिए समान अवसर से वंचित होती आई, बल्कि अनेकों प्रकार से उनको शोषित भी किया गया। यह शोषण की प्रक्रिया आजादी के 75 वर्षों बाद आज भी अपने परिवर्तित रूप में जारी है क्योंकि 1947 में देश तो आजाद हुआ लेकिन महिलाएं आज तक उस शोषण की गुलाम है जो सदियों से चला आ रहा है।
भारतीय महिलाओं को इस शोषण से तभी स्वतंत्रता मिलेगी जब वह सत्ता में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व स्वयं संभालें, जिसके लिए भारत में लंबे समय से प्रयास चल रहा है। विभिन्न शोधों के आंकड़े दर्शा रहे हैं कि भारत इस दिशा में आज भी बहुत अधिक पिछड़ा हुआ है और आजादी के 75 वर्षों बाद भी भारतीय महिलाओं की राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में प्रतिनिधित्व की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है।
जैसा की आकड़े दर्शा रहे है, 1950 में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 5 प्रतिशत था। जो 17 वी लोकसभा 2019 में बढ़कर 14 प्रतिशत हो गया है। 69 वर्षों में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 9 प्रतिशत ही बड़ा है। तालिका-2 व ग्राफ-2 के आंकड़े लोकसभा में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की लगभग पिछले 75 वर्षों की वास्तविकता को बहुत ही अच्छी तरीके से दर्शा रहे हैं, जो कि वास्तव में बहुत ही दयनीय है। लेकिन आज भी महिलाओं की स्थिति में कुछ खास परिवर्तन नहीं हुआ है। आज भी संसद में प्रत्येक 10 सांसदों में से 9 पुरुष ही है।
राज्य/केंद्र शासित प्रदेश प्रतिनिधित्व की स्थिति :
राज्य विधानसभा तो महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में संसद से भी पिछड़ी स्थिति में है। 2017 में राज्य विधान सभा में महिलाओं की भागीदारी पर किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि सभी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में 4128 एम.एल.ए में से महिला एम.एल.ए की संख्या मात्र 364 है। मिजोरम और नगालैंड विधानसभा में तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व जीरो प्रतिशत है। नागालैंड अब तक का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां आज तक कोई भी महिला प्रतिनिधि का चुनाव विधानसभा में नहीं हुआ है।
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार विधानसभा में पुरुषों का प्रतिनिधित्व 91 प्रतिशत है जबकि महिलाओं का प्रतिनिधित्व मात्र 9 प्रतिशत है। 17वीं लोकसभा में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 14 प्रतिशत है लेकिन त्रिपुरा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और जम्मू कश्मीर ऐसे राज्य हैं, जहां से एक भी महिला को संसद में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है।
अंततः अब तक महिलाओं के प्रतिनिधित्व से संबंधित विभिन्न शोध यह दर्शा चुके हैं कि भारत में आज भी महिलाएं राजनीतिक प्रतिनिधित्व के मामले में बहुत ही दयनीय स्थिति में है। जो न सिर्फ भारतीय महिलाओं के लिए प्रतिकूल है बल्कि भारतीय लोकतंत्र की मूलभूत भावनाओं के भी प्रतिकूल है।
भारत को आज विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में गिना जाता है। अगर विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही अपनी आधी आबादी को उसके संवैधानिक और मूलभूत राजनीतिक अधिकार देने में असफल हो तो यह भारतीय लोकतंत्र की प्रतिष्ठा पर प्रश्न चिन्ह है। क्योंकि लोकतंत्र ही एकमात्र ऐसी शासन व्यवस्था है, जहां बिना किसी जाति, धर्म, भाषा, लिंग आदि आधार पर पक्षपात किए बिना सभी को समान अवसर देने का दावा किया जाता है।
महिलाओं का राजनीति में निम्नतम प्रतिनिधित्व के कारण : “लोकनीति सी.एस.डी.ए (सेंटर फॉर स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटीज) और कोनराड एडेनॉयर स्टिफटंग” ने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की, जिसमें भारतीय महिलाओं और उनकी राजनीतिक में निम्न सहभागिता के कारणों का वर्णन किया। रिपोर्ट के अनुसार लगभग एक-तिहाई महिलाओं ने पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था को उनकी राजनीतिक भागीदारी में बाधा के रूप में देखा। यह सामाजिक व्यवस्था सदैव ही महिलाओं को दोयम दर्जे का समझती है व उन्हें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व्यवस्था की मुख्य धारा से दूर रखने का प्रयास करती है। यह व्यवस्था सदैव ही महिलाओं की क्षमताओं को पुरुषों से कम करके देखती है।
लगभग 13 प्रतिशत महिलाओं ने राजनीति में उनकी कम भागीदारी के लिये घरेलू ज़िम्मेदारियों जैसे- बच्चों की देखभाल, घर के सदस्यों के लिये खाना बनाना व अन्य पारिवारिक कारणों को राजनीति में पर्याप्त भागीदारी न ले पाने का कारण बताया। आज भी भारतीय समाज में स्त्री व पुरुषों के मध्य कार्य विभाजन को प्रधानता दी जाती है। पारिवारिक कार्यों के लिए केवल स्त्रियों को ही जिम्मेदार माना जाता है इसी रूढ़िवादी सोच के कारण न सिर्फ राजनीति में बल्कि अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों में भी महिलाएं अपनी पर्याप्त भूमिका नहीं निभा पाती।
कई महिलाएँ व्यक्तिगत कारणों की वजह से भी राजनीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेतीं। ये व्यक्तिगत कारण हैं- राजनीति में रुचि न होना, जागरूकता का अभाव, शैक्षिक पिछड़ापन आदि हैं। लगभग 10 प्रतिशत महिलाएं व्यक्तिगत कारणों से राजनीति में हिस्सा लेने में सक्षम नहीं हैं।
भारतीय समाज में महिलाओं के प्रति सांस्कृतिक मानदंडों तथा रूढ़िवादिता के कारण भी महिलाएँ राजनीति में भाग नहीं ले पातीं। सांस्कृतिक प्रतिबंधों में पर्दा प्रथा, किसी अन्य पुरुष से बातचीत न करना, महिलाओं का बाहर न निकलना आदि शामिल हैं। लगभग 7 प्रतिशत महिलाओं ने माना की सांस्कृतिक कारणों से वे राजनीति में भाग नहीं ले पाती।
राजनीतिक में पर्याप्त भागीदारी न होने का एक कारण महिलाओं की कमज़ोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि भी हैं जो महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी में अवरोध उत्पन्न करते हैं। क्योकि भारत में अधिकतर महिलाओं व लड़कियों का समाजीकरण इस प्रकार किया जाता है की वह आर्थिक व शैक्षिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हो पाती और उनकी निर्भरता जीवन भर दूसरों पर बनी रहती है।
परिवर्तित समय के साथ भारतीय राजनीति का स्तर इतना गिर चुका है की आम लोगों में राजनीति के प्रति एक नकारात्मक छवि बनती जा रही है तथा इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, हिंसा, अत्यधिक धन की आवश्यकता, अपराधियों की राजनीति में बढ़ती भागीदारी, आदि की वजह से भी महिलाएँ राजनीति में कम रुचि लेती हैं।
राष्ट्रीय व राज्य स्तर की राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर देश के राजनीतिक दल तथा सरकार भी महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर उदासीनता प्रदर्शित करते है। प्रस्तावित महिला आरक्षण विधेयक जो कि संसद तथा राज्य की विधानसभाओं में महिलाओं के लिये आरक्षण का प्रावधान करता है, को पारित करने में अधिकतर राजनीतिक दल निरुत्साहित प्रतीत होते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि पुरुष राजनीतिज्ञों को इस बात का भय रहता है कि महिलाओं के निर्वाचन से उनके दोबारा चुने जाने की संभावना कम या समाप्त हो सकती है जिसके लिये वे तैयार नहीं हैं।
इकोनामिक सर्वे-2018 के अनुसार महिलाओं की भूमिका के प्रति सांस्कृतिक दृष्टिकोण, घरेलू जिम्मेदारियां, पारिवारिक अशिक्षा, आत्मविश्वास की कमी, आर्थिक अभाव, हिंसा, भय, आदि कुछ आधारभूत बाधाएं महिलाओं को राजनीति में सहभागिता से रोकती हैं।
महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण और महिला आरक्षण बिल : महिला आरक्षण बिल को सर्वप्रथम 12 सितंबर 1996 को लोकसभा में श्री एच.डी. देवेगौड़ा जी के कार्यकाल में प्रस्तुत किया गया लेकिन यह बिल लोकसभा से पास नहीं हो सका। उसके बाद 1998 में एनडीए के कार्यकाल में फिर 1999, 2002 और 2003 में लगातार बिल संसद में पेश किया गया लेकिन यह बिल पास न हो सका। 2010 में यूपीए-1 ने यह बिल राज्यसभा से पास करा लिया लेकिन लोकसभा से यह बिल आज तक पास नहीं हो सका।
यह संविधान का 85वां संशोधन विधेयक है। इस बिल में संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने का प्रावधान है। इसी 33 प्रतिशत सीटों में से एक-तिहाई सीटें अनुसूचित जातियों और जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित की गई है।
महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण और भारत की स्थिति : स्त्री व पुरुष किसी भी स्वस्थ और समृद्ध समाज के दो आधारभूत स्तंभ होते हैं। यदि इनमें से एक भी स्तंभ कमजोर हो तो वह समाज अपने सर्वांगीण विकास की कल्पना नहीं कर सकता। भारतीय समाज लंबे समय से एक पुरुषप्रधान समाज रहा है जो पूर्णता पितृसत्तात्मक विचारधारा पर आधारित है। यह समाज सदैव ही महिलाओं को दोयम दर्जे का मानता आ रहा है और उसे आरंभ से ही सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक मुख्य धाराओं से दूर रखता आया है। यह समाज धर्म, संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों, मर्यादाओं, सीमाओं के नाम पर उसे सदियों से शोषित करता आया है व यह शोषण की प्रक्रिया आज भी जारी है। शायद इसलिए भारत आज भी सर्वांगीण विकास, आर्थिक समृद्धि, सामाजिक समानता और सामाजिक न्याय आदि मामलों में इतना पिछड़ा है। आधी आबादी को मुख्यधारा से बाहर रखकर भारत अपने इन लक्ष्यों को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। समय-समय पर प्रकाशित विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थाओं द्वारा प्रकाशित आंकड़े, भारत की अंतर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, और राज्य स्तर पर न केवल महिलाओं के प्रतिनिधित्व सम्बन्धी बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी उनकी दयनीय स्थिति को प्रदर्शित कर रहे हैं।
वर्ल्ड इकोनामिक फोरम के हाल के जेंडर गैप इंडेक्स-2022 में लैंगिक समानता के मामले में भारत 135वें स्थान पर रहा जो 2019 के इंडेक्स में 112वें स्थान पर था। अर्थात भारत महिला समानता की स्थिति के मामले में वैश्विक स्तर पर दिन-प्रतिदिन और अधिक पिछड़ता जा रहा है। एक अन्य जेंडर इक्वलिटी इंडेक्स-2019 में भारत ने 129 देशों में से 95वां स्थान और 2023 में 122वां स्थान प्राप्त किया। यह रैंकिंग गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, कार्यस्थल पर समानता आदि विषयों के आधार पर दी गई है। वैश्विक स्तर पर महिलाओं के संदर्भ में भारत द्वारा प्राप्त की गई इस प्रकार की रैंकिंग वास्तव में एक चिंता का विषय है।
वैश्विक आंकड़ों के अलावा राष्ट्रीय आंकड़े भी भारतीय महिलाओं की कुछ ऐसी ही स्थिति प्रकट करते है। एक शोध के अनुसार 2012 से 2016 तक महिलाओं के विरुद्ध हिंसा में 40 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार हर 13 मिनट पर एक महिला बलात्कार का शिकार होती है। 69 मिनट पर एक महिला दहेज के लिए मार दी जाती है और हर दिन 6 महिलाएं सामूहिक बलात्कार का शिकार होती है। यहां तक की मासूम बच्चियां भी इन अपराधों से सुरक्षित नहीं है। लेकिन हमारे पितृसत्तात्मक राजनीति व्यवस्था के नुमाइंदे संवेदना व्यक्त करने के नाम पर या तो ट्विटर पर दो-चार पोस्ट कर देते हैं या फिर इतने संवेदनहीन विषयों का भी राजनीतिकरण कर आरोप-प्रत्यारोप में लग जाते हैं। पीड़िता सिर्फ थाने और अदालतों के चक्कर काटती रह जाती है लेकिन महिलाओं की समस्याओं का कोई स्थाई समाधान नहीं हो पाता।
इनके अलावा स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा में महिलाओं की दयनीय स्थिति, पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, महिलाओं के लिए सुरक्षित परिवहन व्यवस्था का अभाव, सार्वजनिक शौचालयों का अभाव, महिलाओं की मूलभूत आवश्यक वस्तुओं का टैक्स फ्री न होना, कार्य स्थलों पर सुरक्षा का अभाव, सरकारी और प्राइवेट नौकरियों में पर्याप्त भागीदारी का अभाव, बाल श्रम, पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, बाल विवाह आदि अनेकों कारण है जिनका समाधान तभी संभव है जब महिलाएं स्वयं निर्णय-निर्माण में भागीदारी हासिल कर सकें। क्योंकि एक महिला ही अपनी समस्या की गहराई और उसके कारणों को समझ सकती है और उसका उपयुक्त समाधान कर सकती है।
महिला आरक्षण बिल के विरोध में तर्क :
1. इस विधेयक का विरोध करने वालों का कहना है कि दलित और ओ.बी.सी. महिलाओं के लिये अलग से कोटा होना चाहिये। उनके अनुसार सवर्ण, दलित और ओ.बी.सी. महिलाओं की सामाजिक परिस्थितियों में अंतर होता है और इस वर्ग की महिलाओं का शोषण अधिक होता है। उनका यह भी कहना है कि महिला विधेयक के रोटेशन के प्रावधानों में विसंगतियाँ हैं जिन्हें दूर करना चाहिये।
2. इसी के साथ-साथ एक तर्क यह भी है कि इस विधेयक से केवल शहरी महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही संसद में बढ़ पाएगा।
3. आज आधुनिक महिला इतनी सशक्त है कि उसे राजनीति में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार के आरक्षण की आवश्यकता नहीं है ।
4. महिलाओं को राजनीति में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए दलीय स्तर पर टिकट वितरण के समय आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
5. इस व्यवस्था से केवल वहीं महिलाएं लाभान्वित हो सकेगी जो हाल में राजनीतिक रूप से सक्रिय है।
6. महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के विरोध करने वालों का एक तर्क यह भी है कि आमतौर पर महिलाएं राजनीति में कुछ विशेष रूचि नहीं रखते।
महिलाओं की राजनीति में समान भागीदारी के विरोध में दिए जाने वाले विभिन्न तर्क बहुत ही कमजोर हैं और इस बात को अब तक विभिन्न शोधों ने भी स्पष्ट कर दिया है।
महिलाओं के राजनीति सशक्तिकरण और समान प्रतिनिधित्व की आवश्यकता : पंचायतों में महिलाओं को दिए गए आरक्षण के परिणाम तथा विभिन्न शोधों के आधार पर महिलाओं का राजनीति के प्रति बढ़ता झुकाव और सक्रिय भागीदारी अब यह सिद्ध कर चुके है कि महिलाओं का राजनीति सशक्तिकरण न केवल महिलाओं के लिए बल्कि संपूर्ण समाज और लोकतंत्र के लिए भी आवश्यक है। इससे न केवल महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन आएगा बल्कि एक न्याय पूर्ण सामाजिक व लोकतांत्रिक व्यवस्था की भी स्थापना हो सकेगी।
चुनाव आयोग के 2014 के आम चुनावों के आंकड़ों के अनुसार 35 में से 16 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुषों से भी अधिक रही। लोकसभा चुनावों के आकड़े दर्शाते है की 1957 से 2015 के बीच चुनाव में भाग लेने वाली महिला प्रत्याशियों की संख्या में 15 गुना वृद्धि दर्ज की गई अर्थात 1957 में चुनाव में भाग लेने वाली महिला प्रत्याशियों की संख्या 45 थी जो 2015 में 668 रही। इसी दौरान चुनाव में भाग लेने वाले पुरुषों की संख्या में पांच गुना की वृद्धि दर्ज की गई अर्थात 1957 में चुनाव में भाग लेने वाले पुरुषों की संख्या 1474 थी जो 2015 में 7583 रही। इस समय अंतराल में महिला प्रत्याशियों की चुनाव में सफलता की दर भी पुरुषों से अच्छी ही रही। 1971 में पुरुषों की चुनाव में सफलता की दर 18 प्रतिशत रही जबकि महिलाओं की 34 प्रतिशत रही। 2014 में जहां पुरुषों की चुनाव में सफलता दर छः प्रतिशत थी वहीं महिलाओं की चुनाव में सफलता की दर दस प्रतिशत रही। उपरोक्त आंकड़े महिलाओं की राजनीति में अरुचि के तर्क को खारिज करते हैं। लेकिन यह आंकड़े महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से बहुत ही अपर्याप्त हैं क्योंकि यह आंकड़े महिला की राजनीति में बहुत ही निम्न भागीदारी को दर्शा रहे हैं। लेकिन इन आंकड़ों से यह स्पष्ट हो होता है कि भारतीय महिलाएं न केवल राजनीतिक रूप से जागरूक हुई है बल्कि वह निर्णय-निर्माण में सक्रिय भूमिका भी निभाना चाहती हैं। यह तभी संभव है जब उन्हें पर्याप्त अवसर दिए जाएं। इससे न केवल महिलाएं राजनीतिक रूप से सशक्त होंगी बल्कि एक सशक्त और आत्मनिर्भर समाज का निर्माण कर सकेंगे।
यूनाइटेड नेशन यूनिवर्सिटी वर्ल्ड इंस्टीट्यूट फॉर डेवलपमेंट इकोनॉमिक्स रिसर्च (यू एन यू-डब्ल्यू आई डी ई आर) ने 4265 राज्य विधानसभा निर्वाचित क्षेत्रों में एक शोध किया। जिसमें उन्होंने पाया कि महिला प्रतिनिधियों की वार्षिक रिपोर्ट पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में आर्थिक विकास के मामले में 1.8 प्रतिशत अधिक है। साथ ही शोध में यह भी सामने आया कि महिला प्रतिनिधि बिल्डिंग इंफ्रास्ट्रक्चर और रोड प्रोजेक्ट को पूरा करने में पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में अधिक प्रभावशाली ढंग से काम कर रही है। महिला प्रतिनिधि महिलाओं से जुड़ी समस्या पर अधिक ध्यान देती है व उनमे निवेश करती है, क्योंकि वह इन समस्याओं को अच्छी तरह समझती है। इंडियास्पेंड ने अपने एक शोध में पाया कि तमिलनाडु की पंचायतों की महिला प्रतिनिधि अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में सड़क निर्माण आदि सुधारों में 48 प्रतिशत अधिक निवेश कर रही हैं। यूनाइटेड नेशन के एक अन्य शोध में पाया गया कि पंचायतों की महिला प्रतिनिधि पुरुष प्रतिनिधियों की तुलना में 62 प्रतिशत अधिक पीने के पानी के प्रोजेक्टों का नेतृत्व करती हैं।
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, केरल, कर्नाटका, उड़ीसा, और छत्तीसगढ़ में महिलाओं को नगर निगम और टी.आर.आई.एस में न्यूनतम प्रतिनिधित्व निर्धारित करने से इन क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में एक बहुत ही सकारात्मक बदलाव आया है। महिलाओं की स्थिति बहुत हद तक बदली है। समाज में घुंघट प्रथा में कमी आई है। अब महिलाएं पुरुषों के साथ बैठकर महिला समानता की बात करती हैं। इन महिलाओं ने समाज की कुप्रभाव में कमी लाकर परंपरागत सीमाओं से आगे बढ़कर युवा पीढ़ी के लिए नए मार्ग को प्रदर्शित किया है। इन महिलाओं ने खुद को महिलाओं के सशक्तिकरण तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि सामुदायिक सांस्कृतिक शिक्षा को भी हिस्सा बनाया है। इन महिलाओं ने समाज के वास्तविक विकास के लिए स्वास्थ्य, साक्षरता, स्कूल, घर, पीने के पानी से संबंधित प्रोग्राम, बाल और परिवार कल्याण का विशेष रूप से नेतृत्व किया हैं। यह जीवन स्तर, प्रवास, लिंग विशिष्ट मुद्दों, राज्य और सांप्रदायिक हिंसा जैसे विषयों को भी पंचायतों में स्थान देती हैं।
उपरोक्त आंकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि महिलाओं का विकास के प्रति बहुत झुकाव होता है। वह समाज सुधार के प्रति अधिक गंभीर रहती है। वह संवेदनशील विषयों पर सोच समझकर सक्रिय रुप से निर्णय लेती है। अगर महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में आरक्षण दे दिया जाता है व उन्हें राजनीति में समान प्रतिनिधित्व के अवसर दिए जाते हैं तो इससे न सिर्फ महिला वर्ग को लाभ होगा बल्कि समस्त मानव समाज का कल्याण होगा। सशक्त, शांत और समावेशी विकाश को बढ़ावा मिलेगा व एक नए भारत का निर्माण होगा।
निष्कर्ष : सशक्तिकरण एक बहुआयामी अवधारणा है। जिसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक, शैक्षणिक आदि कई आयाम शामिल हैं, इसमें राजनीतिक आयाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। राजनीति विज्ञान को मास्टर साइंस कहते हैं। क्योंकि राजनीतिक विज्ञान समाज विज्ञान का उपक्षेत्र होते हुए भी यह सामाजिक विज्ञान और उसके अन्य उपक्षेत्रों पर एक विशेष प्रभुत्व रखता है। राजनीति का सीधा संबंध निर्णय-निर्माण से होता है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, शैक्षणिक, वैचारिक आदी सभी क्षेत्रों को नियंत्रित निर्देशित और प्रभावित करती है। समाज के जिस वर्ग या विचारधारा का प्रभाव, प्रभुत्व व नियंत्रण इस राजनीतिक व्यवस्था पर होता है। वह संपूर्ण व्यवस्था को अपने हितों के अनुरूप संचालित करने लगता है। सदियों से यह व्यवस्था पितृसत्तात्मक विचारधारा के अधीन कार्य करती आ रही है और इस पर पूरी तरह से पुरुषों का ही नियंत्रण रहा है व यह पुरुष वर्ग महिलाओं को सदैव ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था की मुख्य धारा से दूर रखते आए हैं। इसी कारण आज महिलाएं न केवल राजनीतिक क्षेत्र में बल्कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि क्षेत्रों में पिछड़ी हुई है।
अंततः महिलाएं अगर अपनी स्थिति में वास्तविक रूप से बदलाव करना चाहती है तो उन्हें सर्वप्रथम अपने आप को राजनीतिक रूप से सशक्त करना होगा। क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था ही संपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक व्यवस्था का केंद्र है जो सभी क्षेत्रों का संचालन करती है। अगर महिला स्वयं को राजनीतिक रूप से सशक्त कर लेती है तो वह संपूर्ण व्यवस्था को अपने हितों और आवश्यकता के अनुरूप बदल सकती है। अतः इस संपूर्ण व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करने के लिए महिलाओं का राजनीतिक रूप से सशक्तिकरण अति आवश्यक है जो तभी संभव हो सकता है जब महिलाओं को राष्ट्रीय और राज्य स्तर की राजनीति में समान प्रतिनिधित्व प्राप्त हो। यह केवल तभी सम्भव होगा जब महिला आरक्षण बिल को कानूनी रूप दिया जाए।
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सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
संदर्भ व्यवस्थित रूप से नहीं है । साहित्यावलोकन की भी कमी है । भाषा और प्रस्तुति उत्तम है। निष्कर्ष समीचीन है । मेहनत करते रहें।
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