नयी सदी के दो दशकों में जिन रचनाकारों ने ‘कथा की ज़मीन’ को व्यापक सन्दर्भों में रूपांतरित करने की ठोस पहल की है, उनमें- उदय प्रकाश, शिवमूर्ति, योगेन्द्र आहूजा, पंकज मित्र, सत्यनारायण पटेल, प्रत्यक्षा, किरण सिंह, एस. आर. हरनोट, प्रियंवद, मनीषा कुलश्रेष्ठ, तरुण भटनागर, गौरी नाथ, जय श्री राय, नीलाक्षी सिंह, मनोज कुमार पाण्डेय, कैलाश बनवासी, राकेश मिश्र, अल्पना मिश्र, मनोज रूपड़ा, ओमा शर्मा, उमाशंकर चौधरी, पंकज सुबीर, राजकुमार राकेश, भालचंद्र जोशी, आनंद हर्षुल, विमल चन्द्र पाण्डेय, वंदना राग, आकांछा पारे, संदीप मील, पंखुरी सिन्हा, मनीष वैद्य, सोनी पाण्डेय, सिनीवाली शर्मा, दिव्या विजय जैसे कई नाम लिए जा सकते हैं।
हिन्दी आलोचना में अकसर सवाल उठाए जाते रहे हैं कि क्या किसी ख़ास समय की कहानियों को लेकर कोई सामान्यीकृत सूत्र निकाला जा सकता है! यही सवाल अगर नयी सदी की कहानियों के सन्दर्भ में पूछा जाए तो! मेरा अपना अभिमत यही है कि ऐसा सामान्यीकरण लगभग संभव नहीं है; हालांकि कुछ प्रवृत्तियों पर बात ज़रूर हो सकती है। ‘कैनन निर्माण’ अक्सर अल्पसंख्यक रचनाओं के आधार पर किया जाता रहा है इसलिए कोई भी एक मान्य संरचना या प्रतिमान नहीं हो सकता। दरअसल अंतर्वस्तु के स्तर पर ही नहीं शिल्प और कहन के स्तर पर भी नयी सदी की कहानियों में पर्याप्त भिन्नताएं हैं, यहाँ तक कि एक लेखक की कहानियों के ही कई अभिस्तर हैं। बावजूद इसके कुछ विशिष्ट प्रवृत्तियों के आधार पर इन कहानियों की विशिष्टताओं का रेखांकन किया जा सकता है। ‘दृष्टि और संवेदना के स्तर’ पर भी नए रुझानों की पहचान के प्रयास किए जा सकते हैं।
‘प्रक्रिया पक्ष की जटिलता’ और ‘कथानक के विस्तार’ को इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी की महत्वपूर्ण प्रवृत्ति माना जा सकता है। इस बात में संदेह नहीं कि नयी सदी में मनुष्यता के समक्ष संकट और गहरा हुआ है; चूंकि संकट और चुनौतियाँ इतनी बहुआयामी हैं इसलिए नयी सदी की कहानी भी इन संकटों और चुनौतियों को प्रस्तुत करने में संक्षेपणीयता से असंक्षेपणीयता की ओर शिफ्ट हुई है। उसमें कई तरह के प्रयोग हैं। इधर के कहानीकारों ने कथान्विति और प्रस्तुतीकरण के स्तर पर ही नहीं भाषा के स्तर पर भी कई प्रयोग किए हैं जिनके चलते कहानी के स्थापत्य और शिल्प में जटिलताएं बढ़ी हैं।
कथात्मक-रणनीतियों के दिलचस्प संयोजन की प्रक्रिया इधर की कहानियों में अधिक संभव होती दिखाई देती है। इन रणनीतियों का संयोजन आप उदयप्रकाश, शिवमूर्ति, योगेन्द्र आहूजा, पंकज मित्र, मनोज रूपड़ा, तरुण भटनागर, प्रत्यक्षा, किरण सिंह, राजकुमार राकेश, मनोज कुमार पाण्डेय, ओमा शर्मा, नीलाक्षी सिंह, उमाशंकर चौधरी से होते हुए मनीष वैद्य तक देख सकते हैं। उदय प्रकाश और शिवमूर्ति ने हिन्दी कहानी को जिस प्रस्थान बिंदु पर लाकर खड़ा किया वह अभूतपूर्व है। उदय ने जहां ‘पीली छतरी वाली लड़की’ (2001), ‘दत्रात्रेय के दुःख’ (2002), ‘मेंगोलिस’ (2006) ‘अरेबा परेबा’ (2006) जैसी कहानियाँ सहेज कर हिन्दी कथा को नया मोड़ दिया (नयी सदी के ठीक पहले आई उनकी कहानियों के नाम यहाँ नहीं हैं); वहीं शिवमूर्ति ने ‘केसर कस्तूरी’, ‘तिरिया चरित्तर’, ‘बनाना रिपब्लिक’, ‘अकालदंड’, ‘कसाईबाड़ा’, ‘सिरी उपमा जोग’, ‘भारतनाट्यम’, ‘ओ ख्वाजा ओ पीर’ जैसी कहानियों से न केवल अपार लोकप्रियता अर्जित की बल्कि कहानी में किस्सागो की भूमिका को समृद्ध किया। उदय प्रकाश की ‘मोहनदास’ (2006) और शिवमूर्ति की ‘कुच्ची का कानून’ (2015) नयी सदी की बेहद चर्चित और बहसतलब कहानियों में शुमार की जाती हैं। इन कहानियों के आधार पर नयी सदी की हिन्दी कहानी की संरचना, विषयवस्तु और लेखकीय ट्रीटमेंट पर नए सिरे से बहस की पर्याप्त गुंजाइश है। दोनों ही कहानियां अपनी स्थापनाओं, मूल्यबोध को लेकर जितनी बहसतलब हैं उससे कहीं अधिक प्रस्तुति और संरचना को लेकर।
इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी में योगेन्द्र आहूजा और पंकज मित्र उन विरले कथाकारों में हैं जिन्होंने कहानी की दिशा को अपने ढंग से मोड़ते हुए नए प्रस्थान बिंदु तलाशे हैं। इनके भीतर एक ऐसा कथाकार है जो कहानी में सच और झूठ का ऐसा संश्लिष्ट और संवेदनशील गुम्फन करता है कि उससे हमारे समय के यथार्थ के कई हिस्से उघड़ने लगते हैं। योगेन्द्र आहूजा की कहानियों के सामने मूल्यांकन के पुराने प्रतिमान नाकाफ़ी साबित होते हैं। उनकी ‘मर्सिया’, ‘पांच मिनट’, ‘लफ्फाज’, ‘ग़लत’, ‘इतने सारे शब्द’, ‘मनाना’, ‘अँधेरे में हंसी’, ‘एक्यूरेट पैथालाजी’ ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनकी संरचना और शिल्प में नए तरह का तेवर है। पंकज मित्र ने पुराने पैटर्न को तोड़ते हुए ऐसी कहानियां लिखी हैं जो आलोचना के समक्ष ‘कहानी को देखने समझने के नए विवेक की मांग करती हैं। इस सन्दर्भ में ‘क्विज मास्टर’, ‘सेंदरा’, ‘कफ़न रिमिक्स’, ‘हुडुकलुल्लु’, ‘आज कल परसों’, ‘पड़ताल’, ‘जलेबी बाई डॉट काम’ उल्लेख्य कहानियां हैं।
कथा के आस्वाद को बरकरार रखते हुए समाज में कहानी की परिवर्तनकामी भूमिका को संभव बनाने में सत्यनारायण पटेल और कैलास बनवासी का महत्व असंदिग्ध है। दोनों ही ग्रामीण जीवन के जीवंत और घटनापूर्ण परिवेश के साथ जाति-व्यवस्था की भेदभावमूलक व्याप्ति और उसमें गुंथी हाशिए के समाज की पीड़ा और आक्रोश को गल्प के सांचे में ढालने वाले कला-कुशल कहानीकार हैं। सत्यनारायण पटेल के यहाँ भ्रष्टाचार में आकंठ में डूबी राजनीति, विकास के नाम पर आर्थिक व्यवस्था की लूट, उत्पीड़ित तबके के साथ होने वाले अन्याय और किसानी जीवन पर आसन्न संकटों के प्रति लेखकीय सजगता और सक्रियता रेखांकनीय है। बावजूद इसके उनकी कहानियों में लोकानुभव, लोकजीवन और लोकचेतना की संपृक्ति को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ‘भेम का भेरू मांगता कुल्हाड़ी ईमान’, ‘लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना’, ‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’, ‘पनही’, ‘गाँव और कांकड़ के बीच’, ‘गम्मत’, ‘तीतर फांद’, ‘मिन्नी मछली और सांड’ हिन्दी कहानी का कैनन विस्तृत करने वाली रचनाएं हैं। वहीं दूसरी ओर कैलाश बनवासी ने ‘बाज़ार में रामधन’, ‘पीले कागज़ की उजली इबारत’, ‘मुहब्बत जिंदाबाद’, ‘झांकी’, ‘जादू टूटता है’, ‘इस समय चिड़िया के बारे में’, ‘उसके दरबार में’ आदि कहानियों के माध्यम से हिन्दी कथा धरातल का उर्वर विस्तार किया है। भूमंडलीकरण के बाद आए बदलाव विशेषकर उसके सामाजार्थिक पहलू को उभारने में बनवासी की कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं।
स्त्री कथाकारों में किरण सिंह और मनीषा कुलश्रेष्ठ का कथा-बीज उम्मीद और जीवटता से ठसाठस भरा है। मनीषा ने खूब लिखा है जबकि किरण सिंह ने कम; बावजूद इसके किरण सिंह ने हिन्दी कहानी में अपनी विशिष्ट पहचान बनायी है। ‘संझा’, ‘ब्रह्म्बाघ का नाच’, ‘द्रौपदी पीक’, ‘राजजात यात्रा की भेड़ें’, ‘कथा सावित्री सत्यवान की’, ‘देश देश की चुडैलें’, ‘यीशू की कीलें’, ‘हत्या’ जैसी कहानियाँ किरण सिंह की कथा-दृष्टि की बहुआयामिता की परिचायक हैं। एक तरफ उनकी कहानियों में दृश्यों की जीवंत प्रस्तुति, शिल्प सजगता और नैरेटर की आद्योपांत उपस्थति है तो दूसरी ओर पौराणिक और मिथकीय पात्रों के भीतर नए समाजिक–सांस्कृतिक सन्दर्भ और विकल्प तलाशने की क्षमता। मनीषा कुलश्रेष्ठ के कथाकार के पास ‘स्वांग’, ‘कठपुतलियां’, ‘आर्किड’, ‘अनामा’, ‘क़िरदार’, ‘केयर आफ स्वातघाटी’, ‘कालिंदी’, ‘कुरजां’, ‘बिगडैल बच्चे’, ‘लापता पीली तितली’ जैसी सशक्त कहानियां लिखी हैं जिनके भीतर संघर्षाकुल दृष्टि हैं साथ ही मनुष्योचित गरिमा को उकेरता हुआ दृश्य चित्र भी। स्त्री के व्यक्तिगत संघर्षों और समाज में बदलाव लाने में उसकी भूमिका का रेखांकन मनीषा की कहानियों की विशिष्ट भूमि है। प्रेम को हर स्त्री अपनी तरह से जानती, महसूस करती और जीती है। यह प्रेम ‘गंधर्वगाथा’ और ‘कुछ भी रूमानी नहीं’ में अनुभूति और भावना के संस्पर्श से अमूर्तन रचता है। यह प्रेम जब ‘कठपुतलियाँ’ की सुगना के जीवन में प्रवेश करता है तो उसके अन्दर की कठपुतली सांस लेने लगती है। ठहर चुके उसके मन के शांत जीवन में उम्मीद का यह कांकर हिलोरें उठा देता है। ‘प्रेम की चाह’ मनीषा की बहुसंख्य कहानियों के स्त्री पात्रों की अनिवार्य पहचान बन कर उभरती है। जैसे-जैसे मनीषा का कथा-विकास होता जाता है वैसे यह प्रेम व्यष्टि की परिधि का अतिक्रमण करता जाता है।
नयी सदी में क़ारोबारी विकास को लक्षित करने वाली कहानियाँ इधर के वर्षों में ख़ूब लिखी जा रही हैं पर ऐसी कहानियों की संख्या कम है जिनमें कारोबारी व्यवस्था की रणनीतिक समझ हो। क़ारोबारी व्यवस्था और उसकी ‘विकास लीला’ की गहरी समझ रखने वाले कहानीकारों में ओमा शर्मा उल्लेखनीय हैं। हिन्दी कहानी के इतिहास में ओमा की कहानियाँ ‘नए सांचे में ढल रही अर्थव्यवस्था और अर्थतंत्र’ का प्रवेशद्वार हैं। ध्यान रहे ओमा की अधिसंख्य कहानियाँ परिदृश्यकेंद्री और विवरण बहुल हैं। उनकी प्रमुख कहानियों में ‘घोड़े’, ‘एक समय की बात’, ‘शरणागत’, ‘कारोबार’, ‘ग्लोबलाइजेशन’, ‘भारतोल’, ‘दुश्मन मेमना’ को लिया जा सकता है जिनमें मल्टीनेशनल्स के कारोबारी प्रबंधन को बहुत बारीकी से विश्लेषित किया गया है। उभरती वित्तीय और वाणिज्यिक संस्थाओं की गति से कदमताल करती ‘घोड़े’ कहानी कारोबारी दुनियां की भीतरी सतहों तक प्रवेश कर उसके समूचे प्रवाह की दिशा को थाहती है। कहानी में जटिल होती इंसानी पहचान के साथ आर्थिक-सांस्कृतिक परिदृश्य के कई शेड्स इस कहानी में आपको दिखाई देंगे। इसमें एक ओर खाए अघाए वर्ग की ऐय्यासी, महत्वाकांक्षा और पतन है तो दूसरी ओर ‘रेसकोर्स’ और उससे जुड़ी सट्टेबाजी है। इस विषय को लेकर इतनी व्यवस्थित कहानी हिन्दी में संभवतः पहली बार लिखी गयी है। इसमें उपभोक्ताओं की प्रोफाइल सूंघकर उसे भली तरह समझ लेने के बाद प्रोफाइल के मुताबिक़ रणनीतियों में फेरबदल करने वाली कारपोरेट नीतियाँ हैं, स्टाक मार्केट और फाइनेंस कंसल्टेंसी के कामकाज हैं, खाने पीने के विश्वस्तरीय ब्रांड्स और अड्डे हैं और इन सबके बीच ‘कला-संस्कृति और मनोरंजन के नाम पर बिजनेस करने वाली स्ट्रेटजी के साथ है- अपरम्पार क़ारोबार और कमाई में ही लगा और हांफता भागता हुआ जीवन।
ओमा की कहानियों में कारोबारी हलकों में पनपी बेइन्तहाँ चालाकियों और फ्राड्स के किस्से गुंथे पड़े हैं। इस सन्दर्भ में ‘कारोबार’, ‘शरणागत’ और ‘एक समय की बात’ दिलचस्प कहानियां हैं। ‘कारोबार’ में तिकड़म और जालसाजी से कमाई हुई अथाह दौलत है, सरकार का टैक्स चुराने वाले व्यापारी हैं। ओमा दिखाते हैं कि हमारे देश में टैक्स चोरी का भी एक बड़ा कारोबार है जिसमें जावेद जैसे जाने कितने कारोबारी हैं जिनके पास इफरात में बेनामी दौलत है- ‘आठ दुकानें चमनपुरा बाज़ार में, पांच नवाबगंज में, सुकून सुपर मार्केट में आधे की भागीदारी। नीलमबाग़ से थोड़ा आगे पांच हजार ग़ज का प्लाट जिसमें एक बिल्डर के साथ मिलकर फ्लैट्स-दुकानों के निर्माण का काम शुरू होने वाला है, तीन पेट्रोल पंप, तीन टैंकर और बाईस ट्रक, निजी वाहनों में तीन लांसर, दो हौंडा सिटी, दो कालिस, तीन सेंट्रो और एक टाटा सूमों।‘ कहानी दिखाती है कि किस तरह बेहिसाबी संपत्ति का कारोबार चारो ओर फल फूल रहा है।
समकालीन रचनाशीलता में मनोज रूपड़ा कारोबारी विकास की तहकीक़ात करने वाले उम्दा कथाकार हैं। फ़रेब में लिपटी कारोबारी दुनियां की खौफनाक सच्चाइयों का विश्वसनीय रेखांकन करने और उसके रेशे-रेशे को कहानी के भीतर पिरोने का हुनर उन्हें ख़ूब आता है। इस सन्दर्भ में ‘रद्दोबदल’, ‘लाइफलाइन’, ‘प्रेत छाया’, विशेष उल्लेखनीय कहानियाँ हैं जिनमें कारोबारी शक्तियों की अपराजेयता और उसके समक्ष नतमस्तक होते राष्ट्र-राज्य की तल्ख़ हकीक़त पैबस्त है। ‘रद्दोबदल’ में इस अभियान की नुमाइंदगी मिसेज लिबर्टी जैसी बाजारू ताकतें कर रही हैं। कारोबारी दुनिया की हिरावल बनी लिबर्टी जैसी शक्तियां एक ऐसे अभियान को अंजाम पर पहुंचाने में पुरजोर ताक़त झोंक रही हैं जिसमें इंसान को इंसानी रूप में नहीं सिर्फ उपभोक्ता रूप में पहचाना जाएगा। अभियान के नियंताओं की दुनियाँ इतनी मालामाल हो गयी है कि माल खपाने के लिए उपभोक्ताओं की कमी महसूस हो रही है और चाह कर भी रातोंरात यह तादाद बढ़ाई नहीं जा सकती, इसलिए यह तय किया गया है कि- ‘हर इंसान अपनी ज़रूरत से तीन गुणा ज्यादा चीजों को इस्तेमाल करे। नयी दुनिया को ऐसे इंसानों की ज़रूरत नहीं है जो चीजों के इस्तेमाल में कोताही और कंजूसी बरतते हैं।‘ (रद्दोबदल, टावर आफ साइलेंस, पृष्ठ, 123)
उत्तर आधुनिक सभ्यता ने विकास के नाम पर मानव जीवन के बुनियादी प्रश्नों को ही नहीं प्रकृति और पर्यावरण को भी हाशिए पर ठेल दिया है। इस सन्दर्भ में अगस्त 2019 में नया ज्ञानोदय में प्रकाशित तरुण भटनागर की कहानी ‘प्रलय में नाव’ को ‘क़ारोबारी सभ्यता की विनाश गाथा’ के रूप में पढ़ा जाना चाहिए। मिथक, पुराण और इतिहास के हवाले से वर्तमान और भविष्य को एक साथ नाथ कर तरुण के कथाकार ने विकास की दावेदारी करने वाली ठेकेदारी-व्यवस्था के ‘शातिर और लोभी सरोकारों’ की छानबीन की है। कहानी अपनी शुरुआती पंक्तियों में ही ‘विकास की विनाश लीला’ का संकेत कर देती है- ‘जंगल की खौफ़नाक दिखने वाले जीवों को न तो शिकारी की नीयत का पता था और न हीं यह बात कि धोखे से उन्हें मारे जाने को सभ्य समाज में बहादुरी कहा जाता है। इस तरह उनकी प्रजातियां भी विलुप्त हो गयी थीं। बहुत से कीड़े मकोड़ों की पूरी कौम खत्म थी, वे थे ही कीड़े मकोड़े। पौधों और पेड़ों की बहुत सी प्रजातियाँ गायब हो चुकी थीं।‘ तरुण की कहानियां गहरे इतिहास बोध, कथा में कविताई की संगत, कहन की अलहदा शैली के साथ जंगलों की आदिम गंध को महसूसती हैं। ‘गुलमेंहदी की झाड़ियाँ’, ‘ढिबरियों की कब्रगाह’, ‘चाँद चाहता था कि धरती रुक जाए’, ‘भूगोल के दरवाजे पर’, ‘जंगल में दर्पण’, ‘जहर बुझे तीर के बाद भी’, ‘प्रथम पुरुष’, ‘रोना’, ‘टेबल’, ‘तेरह नम्बर वाली फायर ब्रिगेड’ आदि कहानियों में तरुण के कथाकार की बहुआयामिता को देखा जा सकता है।
हिन्दी कहानी के समकालीन मानचित्र में जयश्री राय, प्रत्यक्षा, अल्पना मिश्र और नीलाक्षी सिंह बहुपठित और बहुचर्चित नाम हैं। विधा के बने बनाए ढाँचे को तोड़ने की बात हो या कथानक के लक्ष्य की मूल्यवत्ता की, इन स्त्री रचनाकारों ने हर स्तर पर कथा-जमीन तोड़ी है। जयश्री राय की ‘कायांतरण’, ‘खारा पानी’, ‘पिंडदान’, ‘औरत जो नदी है’, ‘निर्वाण’, ‘मोहे रंग दे लाल’, ‘थोड़ी सी जमी थोड़ा आसमा’ जैसी कहानियां तो प्रत्यक्षा की ‘बारिश के देवता’, ‘केंचुल’, ‘लड़की’, ‘कूचाए नीमकश’, ‘बलमवा तुम क्या जानो प्रीत’, ‘जंगल का जादू’, ‘तिल तिल’; अल्पना मिश्र की ‘छावनी में बेघर’, ‘उनकी व्यस्तता’, ‘इस जहां में हम’, ‘स्याही में सुर्खाब के पंख’, ‘पुष्पक विमान’, ‘मिड दे मील’; नीलाक्षी सिंह की ‘परिंदे का इन्तजार सा कुछ’, ‘रंगमहल में नाची राधा’, ‘प्रतियोगी', 'बाद उनके', लम्स बाकी’, ‘इब्दिता के आगे खाली ही’, ‘जिनकी मुट्ठियों में सुराख था’ जैसी रचनाएँ इक्कीसवीं सदी की उन ‘चुनिन्दा कहानियों में हैं जिनसे हिन्दी कहानी की नयी पहचान बनती है। जयश्री राय कहानी की परंपरागत मान्यता को दरकिनार करते हुए एक ऐसी स्त्री को सामने लाती हैं जिसके भीतर वर्जनाओं और हदबंदियों को तोड़कर आगे निकलने का साहस है। वह स्त्री शुचिता संबंधी उन धारणाओं को चकनाचूर करती हैं जो देह की पवित्रता-अपवित्रता का राग अलापती है। प्रत्यक्षा की अधिकांश कहानियों में कथातत्व का अभाव बिम्ब बहुलता के लिए पहचानी जाएँगी। शिल्प की जटिलता के कारण उनकी कहानियां पाठक से अधिक समझ की मांग करती हैं। प्रत्यक्षा की ही पीढ़ी में अल्पना मिश्र एक जाना पहचाना नाम है। उनकी कहानियां जीवन में सकारात्मक और सार्थक खोज लेने की अप्रत्याशित क्षमता से लबालब हैं।सभ्यता की भीतरी सतहों को भेदने की स्फटिक दृढ़ता अल्पना की कथा-दृष्टि का अनिवार्य बिंदु है। प्रत्यक्षा, अल्पना, जयश्री राय के बाद की पीढ़ी की कथाकार नीलाक्षी सिंह कहानी को एक नए बिंदु तक ले जाती हैं। अपरिभाषेय स्थितियों को रचने, अनकहे की बुनियाद तैयार करने, कथारस से पाठक को अंत तक बांधे रखने, प्रेम की सतहों को उभारने, मन के भीतरी इलाकों तक पहुँचने, संकेतों से कथा के प्रवाह को बरकरार रखने में नीलाक्षी सिंह का कथाकार बेजोड़ है। नीलाक्षी न केवल शिल्प के स्तर पर कहानी के ढाँचे को बदलती हैं बल्कि प्रेम और सम्वेदना की आत्मीय छुवन से एक सम्मोहनकारी कथ्य का निर्माण करती हैं।
इक्कीसवीं सदी की हिन्दी कहानी में रचनाशीलता के इतने आयाम हैं कि उन्हें पूरी तरह समेट पाना संभव नहीं है। बहुरूपात्मक स्थापत्य, संश्लिष्ट कथन भंगिमा के चलते इसमें अनेकानेक पाठेतर संभावनाएं हैं। ‘पाठ-प्रक्रिया में सजगता और क्रियात्मक तत्परता’ के द्वारा ही नयी सदी की कहानी की अर्थ-परतों के भीतर तक प्रवेश किया जा सकता है। इनका एक पाठ संभव ही नहीं हो सकता, ठीक वैसे जैसे हमारे समय का एक पाठ नहीं हो सकता।
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