शोध आलेख : अनामिका की कविताओं में आधी आबादी / रागिनी चतुर्वेदी एवं डॉ. विजय कुमार रंजन

अनामिका की कविताओं में आधी आबादी 
                    - रागिनी चतुर्वेदी एवं डॉ. विजय कुमार रंजन                      
 


शोध सार :  
 स्त्रियाँ आधी आबादी हैं परन्तु स्त्रियों को समुचित सामाजिक स्थान प्राप्त करने के लिये अनवरत संघर्षशील रहना पड़ा है, जिससे नारीवाद की नींव मजबूत होती गयी। नारीवाद और स्त्री-विमर्श में मुख्यतः स्त्रियों से जुड़ा, स्त्रियों के लिए, स्त्रियों या स्त्रियों के शुभचिंतको के द्वारा बनाया गया बृहद इतिहास है। इतिहास जिसका अपना आकाश है, अपना पाताल।प्रसिद्ध कवियित्री अनामिका मानवीय संवेदनाओं को उकेरने में अग्रणी हैं। महिलाओं और बच्चों की मनोदशा का वास्तविक चित्रण उनकी कई कविताओं में सरल रूप में मिलता है। वे अपनी रचनाओं में दृश्य बुनती चलती हैं और एक तीखा व्यंग्य पाठक के अवचेतन पर दर्ज होता जाता है। उनकी कविताएं स्त्री पक्ष में कही गई सबसे सशक्त आवाज़ हैं। महिलाओं के बुनियादी अधिकारों और अस्तित्व के प्रश्न उनकी कविता की धुरी हैं। 

बीज शब्द :  स्त्रीमुक्ति, प्रजनन, नारीवाद, अस्मिता, सशक्तिकरण, लैंगिक  भेदभाव, पितृसत्ता, भूमंडलीकरण आदि।   

मूल आलेख : नारीवाद को सैद्धान्तिक आधार पश्चिम में हुए महिलाओं के आंदोलनों से मिला। आधुनिक पश्चिमी नारीवादी आन्दोलन के इतिहास को तीन धाराओं में समझा जा सकता है। पहली धारा 19वीं सदी से 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध की है जिसकी पृष्ठभूमि में अमेरिका और ब्रिटेन थे। इन आन्दोलन का मुख्य केन्द्र स्त्री थी जिसमें समान अनुबंध (Prototion of Equaicontruct) विवाह, मातृत्व और महिलाओं के लिए संपत्ति के अधिकार को बढ़ावा देना था। 19वीं सदी के अन्तिम दशक तक आते-आते इसका ध्यान राजनीति में सक्रिय भूमिका पाने व विशेष रूप से मताधिकार पर केन्द्रित हुआ हालांकि कुछ नारीवादियों ने महिलाओं के यौन प्रजनन और आर्थिक अधिकारों के मुद्दों को भी उठाया परन्तु महिला मताधिकार का स्वर सबसे तीव्रतम स्वर बनकर उभरा। नारीवादी आन्दोलन की दूसरी धारा महिला मुक्ति आन्दोलन के साथ जुड़ती है जिसकी शुरूवात 1960 के दशक के आस-पास होती है, जिसमें महिलाओं की सामाजिक और संवैधानिक समानता का प्रश्न प्रमुख था। साथ ही इसमें सांस्कृतिक और राजनैतिक असमानताओं व नीजी जीवन में बढ़ते राजनैतिक दखल से जुडे़ मुद्दो को भी उठाया गया जिसके लिए नारीवादी कार्यकर्ता और लेखक Carol Harish ने ‘The personal is political’ का नारा दिया जो बाद में इस धारा का पर्याय बन गया। तीसरी धारा की शुरूवात संयुक्तराज्य अमेरिका में 1990 के दशक से मानी जाती है जिसका जन्म दूसरी धारा की असफलता व उससे जुड़े आन्दोलनों की प्रतिक्रिया के रूप में होता है। 

महिलाओं की समस्याओं व उनके प्रश्नों की पड़ताल करें तो इसकी जड़े हमें 18वीं सदी के मानवतावाद और औद्योगिक क्रान्ति में दिखाई देती हैं। स्त्रियों के लिए व्यापक अवसर प्रदान किए जाने का स्वर पहले ही उठ चुका था जिसमें पहला स्वर ‘मेरी-वोल्स्टोनक्राफ्ट’ की पुस्तक ‘स्त्रियों के अधिकारों की बहाली’ का था।  

आन्दोलन के रूप में इसकी शुरूआत 1848 से होती है जब ‘एलिजावेथ केंद्रों स्टैण्डन’ ‘लुक्रेसिया कफिन मोर’ और कुछ अन्य ने न्यूयार्क में महिला सम्मेलन करके ‘नारी स्वतन्त्रता’ पर एक घोषणापत्र (A Declaration of Sentiments) जारी किया, जिसमें पूर्व कानूनी समानता, शैक्षिक और व्यावसायिक अवसर, समान मुआवजा, मजदूरी कमाने तथा वोट देने के लिए अधिकार की मांग की गई थी। इसके पूर्व 1845 में Women in the Nineteenth Century ‘मारगरेट फूलर’ की पुस्तक आती है जो यूरोप में उठे स्त्री अधिकारों के मुद्दों को सामने लाती है।  

आरंभ में स्त्रियों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाली महिलाओं तथा आज की नारीवादियों में मुख्य अन्तर दिखाई देता है। पहले स्त्रियाँ लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए संघर्ष कर रही थीं, जिसमें शिक्षा, रोजगार, संपत्ति का मालिकाना अधिकार, राजनीति में प्रवेश पाने व तलाक का अधिकार जैसे प्रमुख मुद्दे थे। उनका संघर्ष घर और परिवार के दायरे से बाहर था वहीं आज देखा जाए तो स्त्रियों का यह संघर्ष कानूनी सुधारों से कहीं आगे का संघर्ष बन गया है। आज के नारीवाद का केन्द्र घर के भीतर स्त्री पर पुरूष के वर्चस्व और अधिकार, परिवार द्वारा शोषण, कार्यस्थल में जेंडर विभेदीकरण, समाज, संस्कृति और धर्म द्वारा शोषण, साथ ही बच्चे पैदा करने पालने व उत्पादन के दोहरे बोध के विरूद्ध संघर्ष है। संघर्ष के इसी क्रम को आगे ले जाने वाली विदुषी हैं अनामिका। 

रूढ़िवादी आज भी स्त्रियों को समाज का समान अंग मानने में आनाकानी करते हैं, जिन्होंने मौखिक तौर पर मान भी लिया है वे व्यवहारिकता से कोशों दूर हैं। हक़ीकत और अज्ञानता के बीच मौजूद इस रिक्त स्थान को भरने के प्रयासरत कई व्यक्तियों में से एक हैं अनामिका। सच्चाई को कठोरता से प्रस्तुत करती कविताएँ और विभिन्न स्त्री सम्बन्धी मुद्दों को बड़ी सरलता और सौम्यता से प्रस्तुत करती उनकी लेखन शैली, नारीवाद की राह में कई मील के पत्थर जोड़ती हुई प्रतीत होती है। सत्य और सन्तुलन उनके प्रमुख हथियार जान पड़ते हैं।  

अनामिका किसी परिचय की मोहताज नहीं है। हिन्दी साहित्य जगत् में अनामिका बेहद चर्चित कवयित्री के रूप में जानी जाती है। अनामिका केवल समकालीन हिन्दी कविताकार के रूप में ही नहीं बल्कि कथाकार, आलोचक आदि के रूप में भी जानी जाती है। अनामिका के अब तक अनेक काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें बीजाक्षर (1993), अनुष्टुप, समय के शहर में (1990), कविता में औरत, खुरदृरी हथेलियाँ (2005), दूब-धान (2007), टोकरी में दिगन्त थेरीगाथा (2014) आदि। इन काव्य संग्रहों में संग्रहित कविताओं के माध्यम से कवयित्री ने नारी जीवन के विविध पहलुओं को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है। 

‘‘टोकरी में दिगन्त थेरीगाथा : 2014’’ के लिए अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। हिन्दी साहित्य में पहली बार यह पुरस्कार किसी कवयित्री को प्राप्त हुआ। उनकी यह कविता हमें बौद्ध-धर्म की परम्पराओं एवं स्मृतियों से परिचित कराती हैं। इस कविता में थेरियों के बहाने स्त्री जीवन के स्याह पक्ष को उजागर किया गया है।  

अनामिका की कविताओं में आधुनिक भारतीय नारी का स्वर सुनाई पड़ता है। वे अपनी कविताओं में स्त्री के दुःख, दर्द, पीड़ा तथा स्त्री-जीवन से जुड़ी अनेक समस्याओं को उद्घाटित करती हैं। अनामिका पुरुष वर्ग का विद्रोह नहीं करती बल्कि पितृसत्तात्मक सोच को नकारती हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में हमेशा से औरतों को पुरूषों के समक्ष कम आका जाता है। इसमें पुरूषों का कोई दोष नहीं है, उन्हें बचपन से ही स्त्रियों के प्रति हीनता का भाव सीखाया जाता है। उन्हें बताया जाता है कि स्त्रियाँ केवल चूल्हे-चौके तथा घर तक ही सीमित हैं  और पुरूष हमेशा उनसे श्रेष्ठ है।  

अनामिका की कविताएँ स्त्री-विमर्श, समकालीन जीवन विमर्श को दर्शाती हैं। वे स्त्री मुक्ति की मांग करती हैं। पर वह यह नहीं कहती कि स्त्री को पुरुष से मुक्ति चाहिए, अपितु यह चाहती हैं कि स्त्री को भी पुरूष वर्ग के समकक्ष समान अधिकार मिले।  

अनामिका जुझारू नारीवादी नहीं हैं, लेकिन भारतीय नारी के दुःखों, यातनाओं और संघर्षों को सही परिप्रेक्ष्य  में समझने-समझाने वाली स्त्री विमर्शकार अवश्य हैं। सन् 1882 ई0 में एक अनाम लेखिका द्वारा रचित ‘सीमंतनी उपदेश’ को हिन्दी के स्त्री-विमर्श का प्रारंभिक चरण माना जा सकता है। 

सुनीता सृष्टि अपने लेख स्त्री विमर्श एक अंतर्यात्रा में कहती हैं कि - ‘‘नयी सदी में जरूर कुछ पुस्तकें सैद्धान्तिक पक्ष को समृद्ध करती हुई दिखती हैं, किंतु सन् 1999 में प्रकाशित ‘स्त्रीत्व का मानचित्र’ हिन्दी की पहली पुस्तक है, जो नारीवाद के सैद्धान्तिक पक्ष की चर्चा करती हैं।’’[1] 

हिन्दी साहित्य सगत् में स्त्री को चित्रित करने की परम्परा तो हमेशा से ही रही है। रीतिकाल में स्त्रियों को भोग-विलास का साधन माना गया तो वहीं छायावाद में स्त्री को दया, क्षमा, करूणा एवं प्रेम की देवी माना गया इसके विपरीत अनामिका की कवितओं स्त्री की जिन्दगी, मनोदशा, उसकी स्थिति तथा उसके सम्पूर्ण जीवन-चरित्र को दर्शाती हैं। 

अनामिका के स्त्री-संबोध में सुमित पी0वी0 कहते हैं -‘‘स्त्रीवाद और कुछ नहीं है, बल्कि समान मानव अधिकारों की मांग है। स्त्रीवाद मांग है स्वतंत्रता की, समानता की और न्याय की। स्वतंत्रता उस स्त्री की, जो सदियों से पितृसत्ता की गुलामी सहती रही है, समानता उस जाति की, जो मानवता का आधा हिस्सा है और न्याय उस शोषण के लिए, जो स्त्री के दमन व उत्पीड़न का सबूत है।’’[2] 

भूमंडलीकरण के इस युग में भी स्त्री की स्थिति बदलती क्यों नहीं ? उस स्थिति में सुधार लाने की उम्मीद करती हैं अनामिका। 

लेनिन ने कहा था, ‘‘औरत की हालत सभी जगह एक-सी है। चाहे वह राजकुमारी हो या नौकरानी, उसकी इज्जत पुरुष के चाहने, न चाहने पर है। उसकी प्रतिष्ठा शरीर शुद्धता, परंपरागत सामान्यता पर है।’’[3] राम मनोहर लोहिया ने स्त्री को विश्व की सर्वाधिक दलित जाति कहा था। ‘कविता में औरत’ इसी दलन और पक्षपात को तोड़ने की एक रचनात्मक कोशिश है। 

अनामिका की कविताएँ स्त्री पक्ष में कही गई सशक्त आवाज हैं। अतीत से लेकर वर्तमान समय तक स्त्रियाँ अपने मनोभावों को सीमित रखती आई हैं, पर अब वह आवाज़ उठा रही हैं। कवयित्री अपनी ‘स्त्रियाँ’ कविता में पुरुष की मानसिकता के कारण अपेक्षित नारी की पीड़ा और कड़वाहट को बड़े ही सहज ढंग से अभिव्यक्त करती हैं।  

‘‘सुना गया हमको/यो ही उड़ते मन से/जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने/सस्ते केसेरों पर ठसाठस्स ढुंसी हुई बस में!/भोगा गया हमको /बहुत दूर के रिश्तेदारों के दुःख की तरह/एक दिन हमने कहा/हम भी इंसान हैं/हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर/जैसे पढ़ा होगा बी.ए. के बाद/नौकरी का पहला विज्ञापन।’’[5] 

स्त्री-विमर्श स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद की संकल्पना है, किन्तु बीसवीं शदी के अन्तिम दो दशकों में इस विचार धारा को पनपने के लिए उपयुक्त परिवेश मिला। स्त्री-विमर्श आत्मचेतना, आत्मसम्मान, आत्मगौरव के साथ समता और समानाधिकार की पहल का ही दूसरा नाम है। प्रस्तुत शोध पत्र का उद्देश्य स्त्री को उसके अस्तित्व के प्रति सजग करना उसे ’मैं’ की चिंता का अहसास कराना, स्त्री को मानवीय बनाना, पुरूष के समान उसे भी इंसान समझना, उसके दुःख दर्द के कारणों से समाज को अवगत कराना और उनको दूर करने का प्रयास करना है। अनामिका की कविताओं में हमें स्त्री का परित्पक्ता रूप भी देखने को मिलता है। ‘तुलसी का झोला’ कविता के केन्द्र में रत्नावली तथा कठघरे में तुलसीदास हैं।  

‘‘सदियों तक मैंने किया इंतजार/आएगा कोई, तोड़ेगा टांके गूदड़ के,/ले जाएगा मुझको आके!/पर तुमने तो पा लिया था अब राम-रतन/इस रतना की याद आती क्यों ?/‘घना-घमंद’ वाली चौपाई भी लिखते हुए/याद आई?..... नहीं आई ?’’[6] 

अनामिका स्त्री-विमर्श की प्रबल व्याख्याता, बेहतरीन कवियत्री उपन्यासकार और आलोचक के रूप में सामने आती हैं। इनके लेखन में गजब की धार है, क्योंकि अनामिका ने जो देखा, सहा, भोगा उसे अपनी कलम से बहुत ही सलीके से समेटा। उनका स्त्री-विमर्श पर बेबाक और गहन अध्ययन चिन्तन स्त्री-विमर्श को नयी दिशा प्रदान करता है। अनामिका की कलम और सोच ने स्त्रियों को एक अलग मुकाम दिया। हर वर्ग, वर्ण, जाति नस्ल की स्त्री की स्थिति की वह निष्पक्ष जाँच-पड़ताल करती हैं। स्त्री होने के नाते उनमें स्त्रियों के प्रति संवेदनात्मक लगाव दिखाई देता है। औरत और उससे जुड़ा मुद्दा उनके हमेशा करीब रहा इसलिए वे स्त्रियों से जुडे़ मुद्दों को जमीनी हकीकत के साथ पाठकों के समक्ष रखती हैं। अनामिका की कविताओं में संघर्ष करती हुई स्त्री का चित्रण बड़े मार्मिक ढंग से किया गया है। ‘राधा की बेटियाँ’ और ‘भामती की बेटियां’ समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए निरन्तर संघर्ष कर रहीं हैं।  

‘‘लिखने की भेज रही, वही आसन/पांडुलिपि वही, वही वासन..../ग्रन्थ लिख रही है पर/भामती की बेटियां!/कृपा नहीं, प्रेम का प्रसाद भी नहीं लेंगी, /भामती की बेटियां/ग्रन्थ अपने स्वयं की रचेगी/लगातार/इंसी तरह/हर युग में।’’[7] 

स्त्री-विमर्श की पहली शर्त है- ’मैं’ की चिन्ता का अहसास और अनामिका की कविताएँ, अपने ’मैं’ के प्रति प्रश्न उठाती हैं। अपनी कविताओं में अनामिका स्त्री की जिंदगी को उसके जीवन, उसके मातृत्व उसके पारिवारिक दायित्वों, उसकी संवेदनशीलता, उसकी मौत और उसके प्यार की सहायता से दिखाती हैं। उनकी कविताओं के माध्यम से ही हमें यह समझने में मदद मिलती है कि आधुनिक भारत की महिलाएं किन-किन समस्याओं को लेकर चिंतित और परेशान हैं। अनामिका की कविताओं में स्त्रियों को एक साथ कमजोर व मजबूत दिखाया गया है। उदाहरण के लिए ’मैं एक दरवाजा थी’ नामक एक कविता में स्त्री का व्यक्तित्व बहुत मजबूत दिखायी देता है, जिसमें नायिका सब अपमान सहने के बावजूद अपने सपने को पूरा करती है और आगे भी वह नए-नए सपने देखती है। अनामिका के दूब-धान काव्य-संग्रह में संकलित ‘गृहलक्ष्मी’ कविता की कुल ग्यारह श्रृंखलाए हैं जिनमें मध्यम वर्ग की स्त्री की पीड़ा, वेदना एवं विवशता का चित्रण बेहद मार्मिक ढंग से किया गया है। सामंती समाज द्वारा गृहलक्ष्मी नाम तो दे दिया गया है पर स्त्री जीवन कैसा है, इसका सच क्या है ? इस श्रृंखला की सभी कविताएं उस सच के तलाश का उपक्रम है। 

‘‘मैं कैसेरॉल की अंतिम रोटी हूं/कैसेरॉल में बन्द पड़ी हूँ अब तक।/मैं इस घर की दुछत्ती हूं/सिर पर उठा रखा है आसमां की तरह /मुझे इस घर ने।’’[8] 

भारतीय स्त्री के सन्दर्भ में यह बात कही जाती है कि वह अपने भावों, विचारों, आकांक्षाओं, तर्कों से नहीं सोचती। वह तो पुरूष समाज में परवरिश होने के कारण हर क्षेत्र में पुरूषों से ही पहल करने की अपेक्षा रखती है। अपने अस्तित्व का बोध स्त्री-विमर्श की पहली शर्त है। 

महिलाओं को अक्सर ’हाउस वाहफ’ और ’बेडपार्टनर’ के रूप में ही आँका जाता है। ऐसा करके समाज और सभ्यता के निर्माण में उसकी भागीदारी को नकारा जाता है और उसे उपेक्षित किया जाता है। स्त्री की यही उपेक्षा जीवन में क्षोभ और खालीपन लाती है। अनामिका की कविताएं समाज में स्त्री का क्या स्थान है, इसका बयान बखूबी करती है। कवयित्री की कविताएं स्त्री की पीड़ा को गहाराई से शब्द देती है। अनामिका की कविताएं अपनी कविताओं में ‘स्त्री की जगह’ ढूंढ रही हैं। वे कहती हैं - 

‘‘जिनका कोई घर नहीं होता /उनकी होती  है भला कौन-सी जगह ?/कौन-सी जगह होती है ऐसी/जो छूट जाने पर औरत हो जाती है।/कटे हुए नाखून/कंघी में फँस कर बाहर आए केशों सी/एकदम से बुहार दी जाने वाली?’’[9] 

मर्दानगी के दम्भ का मारा पुरूष आज भी यही सोचता है कि स्त्रियाँ सौन्दर्य के बल पर ऊँचे पदों पर पहुँचती हैं न कि बुद्धि के बल पर। पुरूष का मानना है औरत देह की राजनीति करती है। जबकि वास्तविकता यह है कि हमारा समाज औरतों की बेपर्दगी से डरता है। क्योंकि सामाजिक दृष्टिकोण आज भी स्त्री के प्रति मलिन है। भारती समाज में पति को परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है। वे पत्नी पर चाहे क्रोध करें, उन्हें मारे-पीटे पर पत्नी उन्हें जवाब नहीं देती उनके अत्याचार को चुपचाप सहन करती है। यहाँ तक की पत्नी से भूल-चूक हो जाए, जो अमानवीय कार्य है। ‘अभ्यागत’ कविता में पत्नी कहती है - 

‘‘रोज निकाला जाता है मुझको!/रोज केंचुए की तरह गुड़ी-मुड़ी हो/फैल जाती हूं फिर से!/वे कहते हैं ठीक/अपनी औकात जाननी चाहिए/पैर उतने पसारिए/जितनी लम्बी सौर हो।’’[10] 

महिलाओं पर होने वाले हर आक्रमण के लिए समाज महिलाओं को ही दोषी ठहराता है। वह कभी स्त्री के शरीर को तो कभी उसके वस्त्रों को उस पर होने वाले अत्याचार का कारण मानता है। पर सच तो यह है कि आज 1 साल की बच्ची से लेकर 85 साल की वृद्धा भी सुरक्षित नहीं है। पुरूष के लिए स्त्री मात्र देह है, भोग्या है। नैतिक मूल्य पुरूष के सन्दर्भ में कोई अर्थ नहीं रखते, वह जब चाहे किसी से भी सन्दर्भ जोड़ सकता है। स्त्री पर अपना एकाधिकार स्थापित कर सकता है। स्त्री मात्र स्त्री होने के कारण ही दयनीय स्थिति में है।  ‘अभ्यागत’ नामक अनामिका की कविता की इन पंक्तियों के सन्दर्भ में मैत्रेयी पुष्पा का कथन संगत लगता है, ‘‘दरअसल, खोलकर तो यही कहना है कि जो बातें स्त्री के लिए ‘हौआ’ है, वे पुरुष के लिए आनंद है। इसीलिए सारी जिन्दगी, अश्लीलता और अनैतिकता स्त्री के कन्धों पर बोझ सी लदी है। सिर उठाना मना है, मुंह खोलने की तो विसात क्या?’’ 

वैश्वीकरण के इस दौर में तो रिश्ते टूटते-विखरते जा रहे हैं। आधुनिक समय में जैसे रिश्ते और परिवार की तो कोई कद्र ही नहीं है। अनामिका अपनी कविताओं में बच्चों के प्रति ही नहीं बल्कि वृद्धाओं के प्रति भी संवेदना इंगित करती हैं। वे अपनी कविता ‘वृद्धाएं धरती का नमक हैं’ में कहती हैं - 

‘‘वृद्धाएं घर में रहती हैं/लेकिन ऐसे जैसे अपने होने की खातिर हों क्षमप्रार्थी/लोगों के आते ही बेठक से उठ जाती/छुप-छुपकर रहती हैं छाया-सी माया-सी।’’[11] 

अनामिका की काव्यकृतियों में स्त्री के विविध रूपों के दर्शन होते हैं- परित्यक्ता स्त्री, प्रश्नातुर स्त्री, मौन को तोड़ती स्त्री, अस्मिताबोध के प्रति सजग स्त्री, सहभागिता के रूप में स्त्री, विद्रोहिणी रूप में स्त्री, सामंजस्य स्थापित करती स्त्री, दोहरी भूमिका का निर्वाहन करती स्त्री आदि। अनामिका की कविताओं में स्त्री विमर्श प्रमुखता से देखने को मिलता है। अनामिका भारतीय परिवेश में पारिवारिक और सामाजिक स्थितियों में फंसी नारी की दशा का मार्मिक उद्घाटन करती है। समाज में रहने वाले लोग जब तक स्त्रियों के प्रति अपने दृष्टिकोड़ नहीं बदलेंगे तब-तक स्त्रियों की स्थिति में सुधार नहीं होगा। उनपर रोज-रोज नए-नए अत्याचार होते रहेंगे। ‘चौदह वर्ष की कुछ सेक्स-वर्कर्स’ नाम कविता में कवयित्री पुरुष की बर्बरता का वर्णन करती हुई कहती है कि पुरुष इतना  पतित हो गया है कि वह अबोध बालिका को भी अपने हवस का शिकार बनाता चला जा रहा है ।  

‘‘अंकल, तुम बहुत भारी हो!/अच्छा एक चॉकलेट खिला दो!/अंकल, तुम्हारे भी बेटी है ?/अच्छा बोलो, उसका क्या नाम?/वह भी मेरे जैसी मजेदार है क्या बोलो तो!/अंकल, करिश्मा-सी दिखती क्या?/मुझको ये वाला स्टाइल सूट करता है ?/छोड़ जाओ अंकल, यह जांघिया!/पेट दुख रहा है कुछ मेरा/होगा, अरे, माहवारी का चक्कर ही होगा!/हटो परे, यह अपना/झक सफेद शर्ट तो बचाओ!/हो जाएगा, लालमलाल अभी।/‘सर्फ एक्सल है न’ बोलेगी बीवी।’’[12] 

अनामिका इतिहास, पौराणिक गाथाओं से लेकर आधुनिक परिप्रेक्ष्य में स्त्री की स्थिति की निष्पक्ष जाँच-पड़ताल करती है। इनकी कुछ कविताएं इतनी गम्भीर हैं जो पाठक को भाव विभोर कर सोचने पर मजबूर कर देती हैं। उनमें प्रमुख है- ’चौदह बरस की दो सेक्स-वर्कर्स, वृद्धाएँ धरती का नमक हैं, भीख मांगते बच्चे का वर्णन’ आदि। इस प्रकार हम देखते हैं -अनामिका की कविताओं में आक्रोश के स्वर कम हैं और इनकी स्त्रियाँ आग्रह भरे स्वर में स्वयं को समझने की माँग करती हैं। अनामिका की कविताएं स्त्री-पक्ष को लेकर बोलने वाली कविताएं हैं, जो आधी आबादी के बुनियादी अधिकारों को लेकर प्रश्न खड़ा करती हैं। कवयित्री अपनी कविताओं में स्त्री द्वारा भोगे हुए यथार्थ का वर्णन बड़ी बारीकी के साथ करती है।  

वे कहती हैं - 

‘‘मैं एक दरवाजा थी/मुझे जितना पीटा गया/मैं उतनी खुलती गई/और अंत  में सब पर चली जाती है झाड़ू/तारे बुहारती हुई,/बुहारती हुई पहाड़, पहाड़, वृक्ष, पत्थर/सृष्टि के सब टूटे-बिखरे कतरे जो /एक टोकरी में जमा करती जाती है/मन में, कहीं भीतर।’’[13] 

 

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। हर मनुष्य के जीवनदृष्टि में बदलाव का होना जरूरी है।अनामिका के भीतर परिवर्तन को लेकर गहरी चिंता है।वह वैचारिक विस्फोट के जरिए इस दुनिया को कुछ नया और अद्भुत देना चाहती हैं। वह सारा बदलाव अहिंसा के मार्ग पर चलकर हासिल करना चाहती हैं। वे अपनी कविता ‘शान्ता घेली बोली’ में स्पष्ट करती हुई बोलती हैं कि - 

‘‘मैं चाहती हूँ विस्फोट/लेकिन कुछ दूसरी तरह का!/बुद्ध जहाँन  में या बुद्धत्व जहाँ गया/उन देशों को बुद्ध की ही/करूणा की कसम देती /चाहती हूं विस्फोट/एक प्रज्ञावान, प्रतिबद्ध, अहिंसक/किन्तु अटल और सामूहिक विस्फोट....’’[14] 

अनामिका, अपनी कविता में स्त्री का यथार्थ इस दुनिया की नज़र में कैसा है? स्पष्ट करती हैं, उसके सच से भी भलि-भांति परिचित कराती हैं।स्त्री का अतीत,वर्तमान और भविष्य उनके चिंतन से होते हुए कविता में आया है। दुनिया के क्रूरतम रूप को देखकर उनके भीतर दुःख खदकता है। वे अपनी ‘स्त्री कवियों की जलाहतें’ नामक कविता में कहती हैं- 

‘‘कविता भी है तो स्त्री ही/कोई उसे सुनता नहीं/सुनता भी है तो समझता नहीं/सब उसके प्रेमी हैं और दोस्त कोई नहीं!/कितनी अकेली है।’’[15] 

निष्कर्ष : हम कह सकते हैं कि अनामिका की कविताएं अनसुलझी गांठों को सुलझाने की कोशिश करती हैं। अनामिका की कविताएं प्रेरित करने वाली, संघर्ष, साहस एवं खुद के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली हैं ।अनामिका की कविता में देशज शब्द आरंभ से ही मौजूद हैं।इनकी कविताएँ सर्वसाधारण विषयों को जगह देती हैं।असाधारण,दिव्यता एवं भव्यता से मुक्त कविताएँ हैं इनकी।लोक में व्याप्त सबसे अदद चीजों जैसे-भूख,प्यास,काजल,बिंदी,सिंदूर,सेफ्टी पिन,दादी,चुटपुटिया बटन,मसहरी,गठरी,घूरा,जूते,बस-टिकट,टोटके,होमवर्क,जलेबा बुआ,धनकटनी,जाड़ा,डाकिया जैसे विषयों पर केन्द्रित हैं कविताएँ। इनकी कविता में स्त्री लोक अपने समस्त सन्दर्भों के साथ उपस्थित है।    

सन्दर्भ : 
1. सम0- अभिषेक कश्यप, अनामिका एक मूल्यांकन, सामाजिक बुक्स नई दिल्ली, संस्करण :     प्रथम 2013, पृ0 332 
2. वही, पृ0 357 
3. वही, पृ0 389 
4. वही, पृ0 384 
5. अनामिका, www.hindisamay.com 
6. अनामिका, http://kavitakosh.org/ 
7. अनामिका, कवितकोश वेब पोर्टल 
8. सम0- अभिषेक कश्यप, अनामिका एक मूल्यांकन, सामाजिक बुक्स नई दिल्ली। 
9. सम0- अभिषेक कश्यप, अनामिका एक मूल्यांकन, सामाजिक बुक्स नई दिल्ली, संस्करण : प्रथम 2013, 
10. अनामिका, http://kavitakosh.org/  
11. अनामिका, http://www.hindui.org 
12. सम0 अभिषेक कश्यप, अनामिका एक मूल्यांकन, सामाजिक बुक्स नई दिल्ली, संस्करण :  प्रथम, 2013 
13. वही,  
14. अनामिका, टोकरी में दिगंतथेरीगाथा, शान्ता थेरी बोली, पृ0 38 
15. वही, पृ0 140 

रागिनी चतुर्वेदी 
शोध छात्रा, हिंदी विभाग,महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ,वाराणसी 
mgkvpragini@gmail.com 
 
डॉ. विजय कुमार रंजन   
असिस्टेंट प्रोफेसर ,हिंदी विभाग,महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ,वाराणसी  

 अपनी माटी (ISSN 2322-0724 Apni Maati), चित्तौड़गढ़ (राजस्थान) से प्रकाशित त्रैमासिक ई-पत्रिका 
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव 
चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)

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