शोध सार : सौंदर्य मनुष्य का सहज संस्कार है फिर चाहे वह रूपगत सौंदर्य हो, मूल्यपरक सौंदर्य हो या हो कला आधारित सौंदर्य। पश्चिम में सौंदर्य पर व्यवस्थित चिंतन की परंपरा मिलती है। भारतीय संदर्भ में सौंदर्य शब्द का प्रचलन न होते हुए भी विभिन्न रूपों में सौंदर्य की चर्चा हुई है विशेषकर काव्य के संदर्भ में। आधुनिक युग में धर्म के स्थान पर मनुष्य की केन्द्रीयता स्थापित हो जाने से सौंदर्य को प्रतिमान बनाकर कला एवं साहित्य के मूल्यांकन के लिए सौंदर्यशास्त्र का विकास हुआ। प्रस्तुत आलेख में सौंदर्य तथा उसकी चिंतन-परंपरा पर बात करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी की सौंदर्य दृष्टि का विश्लेषण किया गया है। आचार्य द्विवेदी सौंदर्य को महत्व देने वाले साहित्यकार हैं। उनके समस्त लेखन में हम सौंदर्य का चित्रण देख सकते हैं। विशेषकर उनके निबंधों और उपन्यासों में। इस आलेख में आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों को आधार बनाकर उनकी सौंदर्य-दृष्टि को समझने का प्रयास हुआ है।
बीज शब्द : सौंदर्य, सौंदर्यबोध, सौन्दर्यानुभूति, सौंदर्यशास्त्र, भारतीय सौंदर्य दृष्टि, पाश्चात्य सौंदर्य-दृष्टि, हजारीप्रसाद द्विवेदी, लालित्य-तत्त्व, त्याग और संयम, बाणभट्ट की आत्मकथा, पुनर्नवा।
मूल आलेख : सौंदर्य के प्रति आकर्षण का भाव मनुष्य का सहज संस्कार है। सौंदर्य क्या है यह ठीक-ठीक बता पाना व्यक्ति के लिए मुश्किल होता है किन्तु वह सौंदर्य की अनुभूति अवश्य करता है। साधारणतः जिस वस्तु से व्यक्ति के मन में कोई सुखद अनुभूति होती है, उसे वह सुंदर कहता है। डॉ. नगेन्द्र ने सौंदर्य को 'ब्यूटी' के पर्याय के रूप में देखा है और उसका शब्दार्थ बताया है - 'रसिक का भाव या रसिकता'। वे सौंदर्य में रूपाकर्षण, लालित्य और व्यापक अर्थ में प्रेयस तत्त्व का अंतर्भाव मानते हैं।'[1] भारतीय वाङमय में सौंदर्य शब्द का अधिक प्रयोग नहीं मिलता। वैदिक साहित्य में यह शब्द नहीं मिलता किन्तु सौंदर्य शब्द के पर्याय अवश्य मिलते हैं जैसे - ललित, सुष्ठु, काम्य, कमनीय, रमणीय, चारु, मनोरम, साधु, सुषमा, शोभा आदि। सभी शब्द सौंदर्य के अलग-अलग भाव व्यक्त करते हैं। कोई शब्द वस्तुपरक सौंदर्य को व्यक्त करता है तो कोई आत्मपरक। सौंदर्य को लेकर यह विवाद भी है कि सौंदर्य कहाँ स्थित है। सौंदर्य वस्तु में है या देखने वाले में। पाश्चात्य जगत् में सौंदर्य को लेकर पर्याप्त चर्चा हुई है। सौंदर्य की अवस्थिति को लेकर वहाँ आत्मवादी, वस्तुवादी, भाववादी तथा समन्वयवादी आदि कई मत प्रचलित हैं। 'आत्मवादी सौंदर्य को भौतिक तथ्य न मानकर उसे परोक्ष सत्ता की गोचर अभिव्यक्ति मानते हैं।' अर्थात वस्तु रूप में सौंदर्य नहीं है। जबकि वस्तुवादी या रूपवादी मानते हैं कि सौंदर्य मूलतः वस्तु में होता है। वस्तु के गोचर रूप से हम प्रभावित होते हैं। वस्तु के आकार, अनुक्रम, अनुपात, रंग, दीप्ति, वैचित्र्य-वैविध्य आदि की उचित अन्विति ही उसे सुंदर बनाती है। इसलिए उनकी दृष्टि में सौंदर्य वस्तु की सत्ता में है जबकि आत्मवादी सौंदर्य को चेतना में स्थित मानता हैं। उनकी दॄष्टि में वस्तु के सभी गुण मूलतः भौतिक पदार्थ न होकर प्रतीतियाँ हैं। जड़ पदार्थ का अपना कोई रूप-गुण नहीं होता। वह तो परम् तत्त्व की प्रतीतियाँ हैं। ऐसे विचारकों में प्लेटो, कांट और हीगल महत्त्वपूर्ण हैं।
भाववादी विचारक आध्यात्मिक तत्त्व को अस्वीकार करते हैं। 'वे सौंदर्य को किसी दिव्य शक्ति का प्रतिबिंब नहीं मानते किन्तु वह यह जरूर मानते हैं कि सौंदर्य वस्तु में न होकर चेतना में होता है। उनकी दृष्टि में हमारी इच्छा अथवा रागात्मिका प्रवृत्ति ही वस्तु में सौंदर्य का संचार करती है- दूसरे शब्दों में सौंदर्य की सत्ता वस्तुगत न होकर भावनात्मक है।' फैखनर और ग्रांट एलेन भाववादी विचारक हैं। वस्तुवादी और भाववादी दृष्टिकोण के बीच एक समन्वयवादी दृष्टिकोण है जो न तो पूरी तरह वस्तुवादी दृष्टिकोण को स्वीकारता है न ही भाववादी दृष्टिकोण को। वह दोनों मतों के बीच समन्वय स्थापित करते हुए मानता है कि 'सौंदर्य पदार्थ का गुण है, किन्तु पदार्थ में इसका सन्निवेश प्रमाता की भावना द्वारा होता है; अर्थात सौंदर्य है तो पदार्थ का तत्त्व परन्तु वह भौतिक तत्त्व न होकर प्रतीयमान तत्त्व है।'[2] इस तरह से सौंदर्य न तो पूर्णतः प्रमाता की चेतना में रहता है और न पदार्थ में। उसकी सत्ता वस्तुतः दोनों के संवाद में है। यह मत ही अधिक स्वीकार्य है। मेरिटेन,सेंटायना, कैरिट आदि इस धारा के उल्लेखनीय विचारक हैं। अतः सौंदर्य को लेकर एक स्पष्ट विचार का अभाव पाश्चात्य चिंतन में दिखाई देता है। हालाँकि सभी विचारकों ने सौंदर्य को जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा माना है।
भारतीय वाङ्मय में सौन्दर्यानुभूति का विवेचन काव्यशास्त्र में रस-प्रसंग के अंतर्गत हुआ है। भारतीय परंपरा में सौंदर्य को रस के रूप में ही ग्रहण किया गया है। काव्य और संगीत में इसका विवेचन हुआ है। रस की अनुभूति को अलौकिक, प्रीतिकर और कल्याणकारी माना गया है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार 'भारतीय दर्शन में सौंदर्य का विवेचन न होकर आंनद का विवेचन ही मिलता है; इसी प्रकार सौन्दर्यानुभूति का विवेचन तो नहीं किन्तु अनुभूति का अत्यन्त सूक्ष्म-गहन विश्लेषण हुआ है।...दार्शनिक तर्क पद्धति से सौन्दर्यानुभूति का अर्थ होता है- पदार्थगत सौंदर्य की अनुभूति। सुंदर, भारतीय दर्शन में, प्रायः प्रिय अथवा प्रीतिकर का ही पर्याय है और प्रीतिकर वह है जिसकी सत्ता 'आत्मनः कामाय' होती है अर्थात जो आत्मा का परितोष करता है। इस प्रकार सौन्दर्यानुभूति एक प्रकार की आनंदमयी चेतना है। आनंद आत्मा का लक्षण है, अतः सौन्दर्यानुभूति का अर्थ होता है आत्मस्वाद जो अखण्ड एवं चिन्मय होता है।’[3] एक तरह से कहा जाए तो सौन्दर्य एवं सौंदर्यानुभूति को रस और रसानुभूति के संदर्भ में देखा गया है।
सौंदर्यबोध (एस्थेटिक सेंस) से आशय सौंदर्य के ज्ञान अथवा समझ से है। सौंदर्य को आप कैसे देखते हैं? किन चीज़ों को सुंदर मानते हैं? व्यक्ति के सौंदर्य का पैमाना ही मूलतः उसका सौंदर्यबोध कहलाता है। प्रत्येक व्यक्ति की सौन्दर्यानुभूति (एस्थेटिक एक्सपीरियंस) की क्षमता अलग-अलग होती है अतः उनका सौंदर्यबोध भी भिन्न-भिन्न होता है। सौन्दर्यानुभूति से आशय सौंदर्य को अनुभूत करने की क्षमता से है। सौंदर्य की अनुभूति के लिए अभिरुचि का होना आवश्यक है। टी.एस. नरसिंहाचारी ने इस संबंध में लिखा है – ‘सृष्टिगत और कलागत सौंदर्य के बोध के लिए मनुष्य में अभिरुचि होनी चाहिए। यह सौन्दर्याभिरुचि ऐंद्रिय संवेदन, मानसिक भावना और कल्पना के माध्यम से प्राप्त होती है।’[4] अभिरुचि का विकास व्यक्ति के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश, उसके अनुभव और अध्ययन के माध्यम से होता है। अतः किसी व्यक्ति की सौन्दर्यानुभूति की क्षमता और उसके सौंदर्यबोध का निर्माण इन कारकों पर निर्भर करता है। मनुष्य का सौंदर्यबोध प्राकृतिक सौंदर्य के साहचर्य, सामाजिक संस्कार, आर्थिक परिस्थितियों व व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व के प्रभाव से विकसित होता है। सामाजिक प्राणी के रूप में मनुष्य का सौंदर्यबोध समाज की सांस्कृतिक भावनाओं से प्रभावित होता है। समाज व काल सापेक्ष होने के कारण व्यक्ति व समाज का सौंदर्यबोध देशकाल के परिवर्तन से सौंदर्यबोध में भी परिवर्तन हो जाता है।
कला और साहित्य का सौंदर्य से बहुत गहरा संबंध है। कला और साहित्य मूलतः सौंदर्य की सृष्टि करते हैं। यह सौंदर्य ही कला का आत्मतत्त्व है। ललित कलाओं में मूर्तिकला, स्थापत्य कला, चित्रकला, संगीत कला, नृत्य कला आदि शामिल हैं। यह सभी विशिष्ट सौंदर्य की अभिव्यक्ति के माध्यम हैं जो व्यक्ति के मन का रंजन करते हैं। साहित्य बहुत हद तक रसानुभूति के माध्यम से पाठक का मनोरंजन करता है। उसका कलात्मक परिष्कार करता है। इसके साथ ही साहित्य व कला माध्यम पुरानी सौंदर्य दृष्टि को बदलकर नया सौंदर्यबोध पैदा करते हैं। कला व साहित्य में रूप-सृष्टि का बड़ा महत्त्व है और उसकी प्रौढ़ता कलाकार के विकसित सौंदर्यबोध पर आधारित होती है। ‘प्राकृतिक, सामाजिक और वैयक्तिक स्रोतों से विकसित सौंदर्यबोध के आधार पर कलाकार कला की सृष्टि करता है। वहाँ वह जीवन, जगत् या मानव निर्मित वस्तु को वर्ण्य के रूप में ग्रहण करके उसके सौंदर्य का उद्धघाटन करता है, वह अपने सौंदर्यबोध के अनुसार समग्र जीवन की अपनी रचना में उचित और मूर्त रूप-कल्पना का प्रयत्न करता है।’[5] साहित्य के संदर्भ में शाब्दिक रूप-कल्पना में लेखक का सौंदर्य-बोध साकार होता है। साहित्यकार का सौंदर्यबोध कलात्मक भावना के अनुसार उपर्युक्त शाब्दिक रूप-विधान करता है। भावना और अनुभूति की नवीनता और सूक्ष्मता के अनुसार विधा का चयन करता है। साहित्य में अभिव्यक्त सौंदर्य भाषाई प्रयोग, अप्रस्तुत योजना, प्रतीक विधान, बिम्ब-योजना और ध्वन्यात्मकता आदि पर निर्भर करता है। सौन्दर्य , सौन्दर्यानुभूति और सौंदर्यबोध का अध्ययन सौंदर्यशास्त्र (एस्थेटिक्स) के अंतर्गत किया जाता है। सौंदर्यशास्त्र एक आधुनिक अनुशासन है। एस्थेटिक्स शब्द यूनानी भाषा के Anesthesia शब्द से बना है जिसका अर्थ है - ऐंद्रिय संवेदना।[6] एस्थेटिक्स का शब्दार्थ हुआ 'ऐंद्रिय संवेदना का शास्त्र'। एस्थेटिक्स शब्द का प्रथम प्रयोग अलेक्जेंडर बाउमगार्तेन( 1714-1762 ई.) ने किया था। सौंदर्यशास्त्र मूलतः विभिन्न कलाओं में अभिव्यक्त सौंदर्य का अध्ययन करता है। हीगल ने सौंदर्यशास्त्र को 'कला का दर्शन' कहा है। डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है - 'प्रकृति-सौंदर्य के प्रत्यक्ष भावन-चिंतन से कला का जन्म होता है और कला-निबद्ध सौंदर्य का भावन तथा चिंतन से सौंदर्यशास्त्र का।'[7] सौंदर्यशास्त्र के उपादान के रूप में मुख्यतः चार तत्त्वों को स्वीकार किया जाता है- सौन्दर्य, कल्पना, बिम्ब और प्रतीक।[8] वहीं सौंदर्य के उपादान के रूप में मुख्यतः कल्पना, बिम्ब और प्रतीक को स्वीकार किया गया है। टी.एस. नरसिंहाचारी ने सौंदर्य के साधक तत्त्व के रूप में – कल्पना, बिम्ब, प्रतीक और अलंकार को स्वीकार किया है। कई विद्वानों ने मिथक को भी सौंदर्य के उपादान के रूप देखने का प्रयास किया है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भारतीय परंपरा से दृष्टि लेकर सौंदर्य का एक व्यवस्थित शास्त्र लिखने का प्रयास किया; जिसे उन्होंने ‘लालित्य-तत्त्व’ की संज्ञा दी। हालांकि वे अपना यह ग्रंथ पूरा नहीं कर सके। इस प्रयास में उन्होंने कुछ निबंध लिखे जिससे हम उनके सौंदर्य चिंतन को समझ पाते हैं। उनका यह सौंदर्य चिंतन ही एक तरह से उनके समस्त साहित्य में उनकी सौंदर्य दृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। उनकी दृष्टि में 'सुंदर एक समग्र भाव की अनुभूति है' अर्थात वस्तु की समग्रता की अनुभूति ही सुंदर का आधार है।[9] यहाँ समग्रता से आशय किसी भी भाव को संपूर्णता में ग्रहण करने से है। जीवन में सर्जन और विनाश दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। इस भाव को ग्रहण किये बिना जीवन कठिन हो जाता है। जीवन को सर्जन और विनाश की समग्रता में ग्रहण करने पर ही उसके सौंदर्य को आप अनुभव कर सकते हैं। इसलिए हजारीप्रसाद द्विवेदी शिव के तांडव ( विनाश का प्रतीक) और पार्वती के लास्य नृत्य (सर्जन का प्रतीक), दोनों को ही महत्त्व देते हैं। दोनों को महत्त्व देने के बावजूद वे तांडव के स्थान पर लास्य को अनुपातिक रूप से अधिक महत्त्व देते हैं। वे सर्जन और मनुष्य की सर्जन इच्छा को ही सौंदर्य का मूलाधार स्वीकार करते हैं। उनका सौंदर्यबोध मनुष्य पर अगाध श्रद्धा द्वारा निर्मित होता है। वे समस्त सृष्टि को महत्त्व देते हुए भी मनुष्य को, उसकी सर्जन क्षमता को अपूर्व मानते हैं। इस क्रम में वे देवताओं से भी विशिष्ट हैं। 'लालित्य तत्त्व' में वे नाट्यशास्त्र की कथा का उद्धरण देकर बताते हैं कि मनुष्य ही नाटक का अभिनय कर सकता है, देवता नहीं। जब देवताओं को कुछ करना होता है तो वे मनुष्य रूप ग्रहण करते हैं। इसलिए मनुष्य विशिष्ट है। इसलिए हम पाते हैं कि आचार्य द्विवेदी के समस्त चिंतन के केंद्र में मनुष्य है। उनकी दृष्टि में मानव-समाज को सुंदर बनाने की साधना का नाम ही साहित्य है; जो साहित्य मनुष्य को सुंदर नहीं बनाता, उसके भीतर मानवीय मूल्यों को उद्बुद्ध नहीं करता, वह साहित्य की कोटि में नहीं आता।
द्विवेदी जी की दृष्टि में सौंदर्य ग्रहण और सर्जन दोनों ही मनुष्य की बुनियादी विशेषता है। सौन्दर्य वस्तुनिष्ठ है या आत्मनिष्ठ इस बहस के बावजूद वे मानते हैं कि सौन्दर्यानुभूति में मनुष्य मात्र का चित्त एक जैसा है। 'मनुष्य का मन सर्वत्र एक है- एक ही प्रकार सोचने वाला, एक ही प्रकार उद्बुद्ध या अवबुद्ध होने वाला, सब प्रकार से एक।'[10] वे मनुष्य के सामान्य बोध को महत्त्व देते हैं। जिसे अंग्रेजी में 'नॉर्म' (NORM) कहा जाता है। जिसे वे 'नर्म' के रूप में लिखते हैं। वे मनुष्य के शाश्वत और सार्वभौम भावों को, प्रवृतियों को महत्त्व देते हैं। इसलिए अपनी रचनाओं में भी वे सौंदर्य, प्रेम, त्याग, संयम जैसे मूल्यों को स्थापित करते हैं जो लगभग सार्वभौमिक ढंग से स्वीकार किये जाते हैं। उनकी यह दृष्टि भारतीय चिंतन परम्परा से निर्मित है। वे लिखते हैं "पहले के मनीषियों ने भी मानव-चित्त की एकता का संधान बौद्धिक ऊहापोह से पा लिया था पर मनोविज्ञान के नवीनतम शोधों से उसे प्रत्यक्ष प्रमाण का विषय बना दिया। मनुष्य का चित्त एक-रूप है, उसकी अवगतियाँ और उदात्तीकरण की वृत्तियाँ समान मार्ग से चलती हैं…।"[11] यह बात हमें 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में देखने को मिलती है जब उपन्यासकार कल्पित दीदी के माध्यम से कहलवाता है - ' इस नरलोक से किन्नरलोक तक एक ही रागात्मक ह्रदय व्याप्त है।'[12]
द्विवेदी जी का सौंदर्य बोध चार तत्त्वों - मानव तत्त्व, लोक तत्त्व, मिथक तत्त्व और लालित्य तत्त्व से मिलकर बना है। वे लालित्य तत्त्व को बहुत महत्त्व देते हैं। उनकी दृष्टि में मानव निर्मित सौंदर्य प्राकृतिक सौंदर्य से भिन्न है। मानव निर्मित सौंदर्य को वे 'लालित्य' की संज्ञा देते हैं। ' लालित्य, अर्थात प्राकृतिक सौंदर्य से भिन्न किन्तु उसके समानान्तर चलने वाला मानव रचित सौंदर्य।' लालित्य की वे मिथकीय व्याख्या करते हैं। महामाया जो शिव की लीला सखी है, वह शिव की सिसृक्षा (सर्जन की इच्छा) के फलस्वरूप लीला ( सृजन) करती है। शिव की लीला सखी होने के कारण इसे ललिता कहते हैं। इसे विश्व-व्यापनी सर्जनात्मक शक्ति कहा गया है। "सत्पुरुषों के ह्रदय में निवास करने वाली ललिता ही वह शक्ति है जो मनुष्य को नई रचनाओं के लिए प्रेरित करती है। इसलिए इस परंपरा-गृहीत अर्थ मानव-रचित-सौंदर्य को 'लालित्य' कहना उचित ही है।...लालित्य को ही उस सौंदर्य का रूप माना जा सकता है जो मनुष्य के ललित भावों की अभिव्यक्ति करता है।"[13] इसी इच्छा शक्ति की अभिव्यक्ति वे भाषा में, मिथक में, धर्म में, काव्य में, मूर्ति में, चित्र में अभिव्यक्ति मानवीय इच्छा-शक्ति का अनुपम विलास ही सौंदर्य है...।' इस मान्यता का प्रभाव हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उनके उपन्यासों में कला के विविध रूपों - संगीत, नृत्य, चित्र, स्थापत्य, मूर्तिकला आदि के माध्यम से संस्कृति का विवेचन हुआ है। न केवल मानवनिर्मित सौंदर्य अपितु प्राकृतिक सौंदर्य का भी अद्भुत चित्रण उनके उपन्यासों में दिखाई पड़ता है।
द्विवेदी जी के सौंदर्यबोध के निर्माण में कालिदास का गहरा प्रभाव है। उन्होंने कालिदास के सौंदर्य-चित्रण पर व्यवस्थित ढंग से लिखा है। 'कालिदास की लालित्य योजना' 'मेघदूत एक पुरानी कहानी' आदि उनकी रचनाएँ इसका उदाहरण हैं। वे सौंदर्य-चित्रण में बार-बार अनायास कालिदास को याद करते हैं। उनके उपन्यासों में अत्यंत सूक्ष्म सौंदर्य-दृष्टि के दर्शन होते हैं। अंग-प्रत्यंग का चित्रण, हाव-भाव का मनोवैज्ञानिक चित्रण, प्राकृतिक परिवेश का सूक्ष्म किन्तु सरस चित्रण इसका उदाहरण हैं। 'बाणभट्ट की आत्मकथा' में निपुणिका और सुचरिता का लगभग अतिमानवी सौंदर्य चित्रण हुआ है। उदाहरण के लिए भट्टिनी के सौंदर्य चित्रण का एक अंश देखा जा सकता है- " मानो विधाता ने शंख से खोदकर, मुक्त से सींचकर, मृणाल से संवारकर, चंद्रकिरणों के प्रचालित कर, सूधाचूर्ण से धोकर, रजत-रज से पोंछकर, कुटज, कुंद, सिंधुवार पुष्पों की धवलकान्ति से सजाकर ही उसका निर्माण किया हो।"[14]- द्विवेदी जी के यहाँ विविध अंगों की आभा एवं आकृति से सौंदर्य का प्रभामंडल निर्मित होता है। उनकी विशेषता है कि इस सौंदर्य को वे उदात्त-कोटि का बनाते हैं। इसे वे कहीं हल्का पड़ने नहीं देते। बाणभट्ट के कथन ' मैं स्त्री शरीर को देव-मंदिर के समान पवित्र मानता हूँ' की तरह हजारीप्रसाद द्विवेदी भी स्त्री सौंदर्य को उदात्त ढंग से चित्रित करते हैं। वे वस्तु/व्यक्ति में सौंदर्य की उपस्थिति स्वीकारते हुए भी प्रत्यक्ष सौंदर्य को ईश्वरीय अभिव्यक्ति के रूप में देखते हैं। इसलिए उनकी सौंदर्य दृष्टि लौकिकता से अलौकिकता की ओर उन्मुख दिखाई देती है। 'आत्मकथा' की भट्टिनी, 'चारु चंद्रलेख' की चंद्रलेखा, 'पुनर्नवा' की मंजुला, मृणाल, चंद्रा और 'अनामदास का पोथा' की जाबाला का सौंदर्य वर्णन कुछ-कुछ अलौकिक भाव लिए दिखाई देता है। उनका सौंदर्य सात्विक व मर्यादित है। उसमें पवित्रता और उदात्तता का भाव है। यह केवल स्त्री-सौंदर्य तक सीमित नहीं है अपितु पुरुष सौंदर्य का भी इसी भाव से कुछ-कुछ चित्रण हुआ है। इस संदर्भ में विरतिव्रज, देवरात, चंद्रमौलि आदि का सौंदर्य वर्णन देखा जा सकता है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के सौंदर्य में मांगल्य(शिव), नैतिकता( धर्म), और महत्ता की एक साथ अन्विति हुई है। इसके मूल में प्रेम, त्याग और संयम जैसे तत्त्व हैं। उनके उपन्यास प्रेम की ही अभिव्यक्ति हैं। हर उपन्यास मूलतः एक प्रेमकथा है। वे प्रेम को मनुष्यता का मूल भाव मानते हैं पर जिस प्रेम का चित्रण उनके उपन्यासों में हुआ है, उसका स्वरूप कैसा है? यह जानना महत्त्वपूर्ण है। द्विवेदी जी की प्रेम की धारणा भारतीय मूल्यों से निर्मित हुई है। प्रेम को वे त्याग और तपस्या का पर्याय मानते हैं। वे प्रेम को एक उच्च आदर्श के रूप में देखते हैं जहाँ किसी प्रकार का अहंकार नहीं, पाने मात्र की लालसा नहीं है अपितु प्रेमी के कल्याण मात्र की कामना है। प्रेमी के लिए स्वयं को निचोड़ देने, न्यौछावर कर देने का भाव है। जो प्रेम ऐसा कर पाने में सक्षम नहीं है उसे वे प्रेम की कोटि में नहीं रखते। 'अपने को निःशेष भाव से दे देना' ही प्रेम की सार्थकता है। निपुणिका का आत्मदान इसका उदाहरण है। द्विवेदी जी का सौंदर्यबोध केवल कोरा विलास नहीं है। वह सौंदर्य को जीवन को कलात्मक ढंग से जीने के लिए अनिवार्य मानते हैं। अपनी पुस्तक 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद' में उन्होंने विलास और कलात्मक विलास में फर्क किया है-: “यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि विलासिता और कलात्मक विलासिता एक ही वस्तु नहीं है। थोथी विलासिता में केवल भूख रहती है - नंगी बुभुक्षा; पर कलात्मक विलासिता संयम चाहती है, शालीनता चाहती है, विवेक चाहती है। सो, कलात्मक विलास किसी जाति के भाग्य में सदा सर्वदा नहीं जुटता उसके लिए ऐश्वर्य चाहिए, समृद्धि चाहिए, त्याग और भोग का सामर्थ्य चाहिए और सबसे बढ़कर ऐसा पौरुष चाहिए जो सौन्दर्य और सुकुमारता की रक्षा कर सके।...जो जाति सुन्दर की रक्षा और सम्मान करना नहीं जानती वह विलासी भले ही हो ले, पर कलात्मक विलास उसके भाग्य में नहीं बदा होता।"[15]
हजारीप्रसाद द्विवेदी सौंदर्य को केवल कोमलता या आभिजात्य के रूप में ग्रहण नहीं करते। उनके लिए सौंदर्य कर्मशील बनाने वाला तत्त्व है। वे कर्मशील व्यक्ति में सौंदर्य देखते हैं। "… सात्विक सौंदर्य वहाँ है, जहाँ चोटी का पसीना एड़ी तक आता है और नित्य समस्त विकारों को धोता रहता है। पसीना बड़ा पावक तत्त्व है मित्र, जहाँ इसकी धारा रुद्ध हो जाती है वहाँ कलुष और विकार जमकर खड़े हो जाते हैं।"[16] नामवर सिंह ने हजारीप्रसाद द्विवेदी के सौंदर्यबोध के संबंध में लिखा है - 'द्विवेदीजी के इस सौंदर्यबोध में सर्वथा शास्त्रीय प्रत्यभिज्ञान ही नहीं है, बल्कि उसमें एक सजग ऐंद्रिय संवेदन की प्रत्यग्रता भी है। रूप, शोभा, सुषमा, सौभाग्य, चारुता, लालित्य, लावण्य आदि का ऐसा सूक्ष्म परिज्ञान और संवेदन हिंदी में दुर्लभ ही है।'[17] नामवर सिंह का यह कथन हजारीप्रसाद द्विवेदी के सौंदर्यबोध की विशिष्टता को रेखांकित करता है। हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने उपन्यासों में प्राकृतिक सौंदर्य, मानव सौंदर्य और ललित कलाओं का सौंदर्य चित्रित करते हैं। इसके साथ ही यह धारणा है कि सौंदर्य एक मूल्यपरक अवधारणा है। इस दृष्टिकोण से विचार करने पर हम हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यासों में मूल्यगत सौंदर्य भी देखते हैं जिसका आधार मनुष्य मात्र का कल्याण और समभाव है। उपन्यास लेखन में कलात्मक सौंदर्य की दृष्टि से हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास विशिष्ट हैं। द्विवेदी जी की लालित्यपूर्ण भाषा, शब्दों का उत्कृष्ट चुनाव, बिम्ब निर्माण की अद्भुत क्षमता और प्रतीकों का प्रयोग उनके उपन्यास के शिल्प को विशिष्ट बनाते हैं। मिथकों का अपनी कथा के अनुसार प्रयोग हजारीप्रसाद द्विवेदी के लेखन की अन्यतम उपलब्धि मानी जाती है। उनके उपन्यास इसके स्पष्ट उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं। वस्तु एवं शिल्प दोनों ही दृष्टियों से हजारीप्रसाद द्विवेदी के उपन्यास सौन्दर्याभिव्यक्ति के उत्कृष्ट नमूने हैं।
निष्कर्ष : उपर्युक्त विवेचन के पश्चात हम कह सकते हैं कि हजारीप्रसाद द्विवेदी सौंदर्य को महत्व देने वाले साहित्यकार हैं। उनकी दृष्टि में सौंदर्य मनुष्य की बुनियादी आवश्यकताओं से अतिरिक्त होते हुए भी मनुष्य, समाज और उसकी संस्कृति के विकास के लिए बेहद आवश्यक है। आचार्य द्विवेदी की सौंदर्य दृष्टि का स्रोत भारतीय जीवन मूल्य हैं। वे प्रेम, त्याग, संयम और उदात्त जैसे मूल्यों को महत्व देते हैं। उनकी दृष्टि में समाज को सुंदर बनाने के लिए सबसे आवश्यक तत्त्व प्रेम है। वे प्रेम को उच्च आदर्श के रूप में देखते हैं। ‘अपने को निःशेष भाव से दे देना ही’ उनकी दृष्टि में प्रेम की सार्थकता है। दूसरी तरफ उनकी दृष्टि में वस्तु और भाव को समग्र रूप में ग्रहण करना ही सौंदर्य का आधार है। उनके सौंदर्य चिंतन में मांगल्य और नैतिकता की अन्विति एक साथ हुई है। वे सारे संसार के मनुष्य के चित्त को सौन्दर्यानुभूति की दृष्टि से एक मानते हैं इसलिए उनके सौंदर्यबोध का केंद्रीय सरोकार मनुष्य मात्र कल्याण और परिष्कार है। यही कारण है कि आचार्य द्विवेदी शास्त्र, परंपरा और धर्म सभी से ऊपर मनुष्य को स्थापित करते हैं। उनका सौंदर्यबोध कालिदास और रवींद्रनाथ ठाकुर से प्रभावित होने के बावजूद आभिजात्य का सौंदर्य मात्र नहीं है। वे सौंदर्य में श्रम और क्रियाशीलता को महत्व देते हैं।
[1] डॉ. नगेन्द्र,भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका,नेशनल पब्लिशिंग हाउस,प्रथम
संस्करण-1974,पृष्ठ संख्या:20
[2] डॉ. नगेन्द्र,भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका,नेशनल पब्लिशिंग हाउस,प्रथम
संस्करण-1974,पृष्ठ संख्या:26
[3] वही ,पृष्ठ संख्या:20
[4] एस.टी नरसिंहाचारी,सौंदर्य-तत्त्व निरूपण,वाणी प्रकाशन,प्रथम संस्करण:1977,पृष्ठ
संख्या:91
[5] वही,
,पृष्ठ संख्या-99
[6] डॉ. नगेन्द्र,भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की भूमिका,नेशनल पब्लिशिंग हाउस,प्रथम संस्करण:1974,पृष्ठ संख्या:01
[7] वही, पृष्ठ
संख्या:05
[8] कुमार विमल, सौंदर्यशास्त्र के तत्त्व, राजकमल
प्रकाशन, भूमिका से
[9] हजारीप्रसाद द्विवेदी, लालित्य तत्त्व, वाणी प्रकाशन,आवृत्ति:2010,
पृष्ठ संख्या:23
[10] वही, पृष्ठ
संख्या:14
[11] वही,
पृष्ठ संख्या:14
[12] पृष्ठ
संख्या:291
[13] वही,पृष्ठ संख्या:24-25,
[14] हजारीप्रसाद द्विवेदी ,बाणभट्ट की आत्मकथा,राजकमल प्रकाशन ,2021,पृष्ठ
संख्या-33
[15] मुकुंद द्विवेदी (संपा.), हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली खण्ड 7,राजकमल प्रकाशन,चौथा संस्करण:2013, पृष्ठ संख्या:366
[16] नामवर सिंह,दूसरी परम्परा की खोज,राजकमल प्रकाशन, दूसरी आवृत्ति:2015, पृष्ठ संख्या: 112-113
[17] वही, पृष्ठ
संख्या:112
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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