शोध सार : प्रस्तुत शोध आलेख के माध्यम से अष्टछाप के कवि छीतस्वामी के काव्य में ब्रज संस्कृति के विभिन्न रूपों का चित्रण करना ही मेरे लेख का ध्येय है। कृष्ण लीलाओं के माध्यम से ब्रज की वेशभूषा, खानपान, रीति-रिवाज़, पर्व-उत्सव एवं परंपराओं की सुंदर झाँकी दर्शायी गई है। गोचारण के पदों के माध्यम से छीतस्वामी ने ब्रज संस्कृति को बखूबी उभारा है।
बीज शब्द : अष्टछाप, संस्कृति, गोचारण, रीति-रिवाज़, पर्व, उत्सव।
मूल आलेख : छीतस्वामी का जन्म संवत् 1572 ई॰ के लगभग माना जाता है। इनके माता-पिता का परिचय नहीं मिलता। जाति से चतुर्वेद ब्राह्मण, मथुरा तीर्थक्षेत्र के निवासी और पौरोहित्य वृत्ति से जीवन-निर्वाह करने वाले छीतस्वामी का शिक्षा से कितना संपर्क था, कहा नहीं जा सकता। फिर भी अकबर दरबार के सम्मानित बीरबल जैसे राजपुरुष की यजमान वृत्ति के परिचालक होने के कारण इन्हें आवश्यक शिक्षा-दीक्षा से शून्य भी नहीं माना जा सकता।[1]
अपने आरंभिक जीवन से वे बड़ी दुष्ट प्रकृति के पुरुष थे। मथुरा के प्रसिद्ध गुण्डों में उनकी गणना की जाती थी और वे ‘छीतू चौबे’ कहलाते थे। जिस समय उनकी आयु 20 वर्ष के लगभग थी उस समय ब्रज में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के अलौकिक व्यक्तित्व की बड़ी चर्चा थी। छीतू चौबे और उनके साथियों ने गुसाईं जी के साथ दुष्टता करने का विचार किया। वे एक खोटा रुपया और थोथा नारियल लेकर गोकुल गए और वहाँ पर गोस्वामी विट्ठलनाथ जी से मिलकर वह रुपया और नारियल उनको भेंट किया। गोसाईं जी के अलौकिक चमत्कार से खोटा रुपया और थोथा नारियल दोनों अच्छे हो गए। उन्होंने छीतू चौबे के समक्ष उस नारियल के टुकड़े करवाए तो उसमें से अच्छी सफेद गिरी निकली और रुपया को बाज़ार में चलने के लिए भेजकर उसके पैसे मंगवा लिए। गुसाईं जी के इस चमत्कार को देखकर छीतू चौबे को अपनी दुष्टता पर बड़ा पश्चाताप हुआ। उनके चित्त की वृत्ति बदल गई और वे सच्चे भगवद्भक्त बन गए। संवत् 1592 ई॰ में वे गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के शिष्य बनकर पुष्टि संप्रदाय में सम्मिलित हो गए। [2] छीतस्वामी ने गोसाईं जी के चमत्कार से प्रभावित होकर निम्न पद गाया:
संप्रदाय में दीक्षित होने के पश्चात् छीतस्वामी गोकुल गए और वहाँ उन्होंने भी श्री नवनीत प्रिय जी के दर्शन और फिर गोवर्धन पर जाकर श्री गोवर्धननाथ जी के दर्शन किए। उन्होंने अपने जीवन में अनेक पद बनाकर गाये जिनमें गुरु की भक्ति और ब्रजप्रेम का परिचय मिलता है।[4]
गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के लीला संवरण का समाचार सुनकर छीतस्वामी इतने शोक संतप्त हुए कि उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया। उनका देहावसान 70 वर्ष की आयु में गोवर्धन के पूंछरी स्थान पर संवत् 1642 ई॰ में हुआ। उस स्थान पर उनका स्मारक भी बना हुआ है।[5]
कृतित्व - अष्टछाप के अन्य कवियों की भाँति छीतस्वामी की रचनाओं के विषय में हिंदी साहित्य के इतिहास ग्रंथों तथा कविता-संग्रहों में कोई स्पष्ट सूचना नहीं है। केवल मिश्रबंधुओं ने इनके 34 पदों का संग्रह अपने पास बताया है। [6] विद्या विभाग, कांकरोली ने वर्षोत्सव, नित्यलीला तथा प्रकीर्ण पदों को लेकर 201 पदों का ‘छीतस्वामी’ नाम से संवत् 2012 में रथ यात्रा के अवसर पर एक संग्रह प्रकाशित किया है। छीतस्वामी ने वर्षोत्सवों के माध्यम से परिवार और समाज के वृत्त में प्रचलित रीति-रिवाज, मान्यताओं, नाना विश्वासों, भोज्यपदार्थ, मनोरंजन के विविध प्रारूप, मांगलिक अनुष्ठान आदि के रूप में ब्रज संस्कृति का आकलन बहुत सुंदर ढंग से किया है तथा महाप्रभु जी, गुसाईं जी, गिरराज जी, जमुना जी, बलभद्र जी आदि के माहात्म्य से जुड़े कुछ प्रकीर्ण पद भी लिखे हैं। छीतस्वामी ने अपने पदों को गीतों में बांधकर जिस ढंग से प्रस्तुत किया है वह उन्हें अष्टछाप के कीर्तनकार कवियों में एक विशेष स्थान प्रदान करता है।[7]
ब्रज संस्कृति - संस्कृति किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है, जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने के स्वरूप में अंतर्निहित होता है। यह ‘कृ’ धातु से बना है। अंग्रेज़ी में संस्कृति के लिए ‘कल्चर’ शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संस्कृत का शब्दार्थ है - उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। संस्कृति किसी समाज के वे सूक्ष्म संस्कार है, जिनके माध्यम से लोग परस्पर संप्रेषण करते है, विचार करते है और जीवन के विषय में अपनी अभिवृत्तियों और ज्ञान को दिशा देते हैं। लोक जीवन की सर्वमान्य दीर्घ अभ्यस्त परिमार्जित सुसंस्कृत चर्या अथवा व्यवहार परंपराओं को ‘संस्कृति’ नाम दिया जाता है।’[8]
संस्कृति के कई रूप हैं - राष्ट्रीय-संस्कृति, सामाजिक संस्कृति, प्रादेशिक संस्कृति आदि। पुष्टि-संप्रदाय का केंद्र-स्थल भगवत् श्रीकृष्ण की लीला भूमि ब्रजप्रदेश रहा है। अतः सभी अष्टछापी महात्माओं ने अपने अमरकाव्यों में ब्रज-संस्कृति की ही चर्चा की है। ब्रज भक्तों की व्यक्तिगत-साधना में ब्रज-संस्कृति बिंब-प्रतिबिंब भाव से द्योतित है। क्योंकि संस्कृति सामाजिक वस्तु है। व्यक्ति समाज की इकाई है। अतः समाज की सर्वमान्य परंपराओं का अनुगामी होने के लिए वह विवश है। ब्रजभक्तों का अमर काव्य स्वान्तः सुखाय होते हुए भी वह लोक-बाह्य नहीं; न उसे नितांत ऐकान्तिक ही कहा जा सकता है। किसी विशिष्ट प्रदेश अथवा विशिष्ट समाज की संस्कृति की जब हम चर्चा करते हैं तो उसके आचार, विचार, संस्कार, खान-पान, रहन-सहन, रीति-रिवाज, पर्व, उत्सव, कला, दर्शन, विज्ञान, उपासना आदि सभी को लेते हैं। इन्हीं के द्वारा हम व्यक्ति अथवा समाज की संस्कृति के स्वरूप को सामने ले आते हैं।[9]
आर्यावर्त के अंतर्गत ब्रह्मवर्त और उसमें भी गंगा यमुना के मध्य के भू भाग की संस्कृति को ब्रज संस्कृति का प्रदेश माना जाता है। सूर्यचंद्र नक्षत्रादि से दीप्त मुक्त मगन के नीचे और निसर्ग रमणीय लता-वृक्षादि से संपन्न सस्य श्यामला उर्वरा वसुन्धरा के वक्ष पर प्राकृतिक जीवन-यापन करते हुए जीवदया के लोक आदर्श के साथ गोप-सभ्यता में पले वासुदेव श्रीकृष्ण की संस्कृति का मूल मंत्र था -
“आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्”[10]
अतः सुरसरि की जीवन-धारा की भाँति यही संस्कृति समूचे विश्व की सिरमौर संस्कृति सिद्ध हुई। रागानुगा भक्ति के परमपोषक आचार्य वल्लभ ने यही की अपठित लोक भेद मर्यादातीत ब्रज सीमंतिनियों को अपना गुरु माना है। इन्हीं के निश्चल, निश्छल एकान्त भक्तिभाव को प्रभु प्राप्ति का एकमात्र साधन मानकर इसी संस्कृति को महत्त्व दिया है। जाति से तैलंग ब्राह्मण होकर भी उन्होंने ब्रज संस्कृति के प्रसार एवं प्रचार में अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया था। इसी प्रदेश की भक्ति का आदर्श उनकी भक्ति का आदर्श रहा है। उनके आराध्य की लीला भूमि होने के नाते यहीं की सर्वमान्य सर्वाभ्यस्त परंपराओं को उन्होंने महत्ता दी। यहाँ तक कि देववाणी संस्कृत के उपरांत किसी दूसरी भाषा को उन्होंने वार्ता, स्तुति-भाषण, भगवद् चर्चा एवं लीलागान के लिए उपयुक्त समझा तो यहीं की लोकभाषा-ब्रजभाषा को। ब्रज-संस्कृति एवं ब्रजभाषा को आचार्य ने ही जब इतनी महत्ता दी तो उनके सभी शिष्य विशेष कर अष्टछाप के कवियों ने भी उसी संस्कृति और इसी प्रदेश की भाषा को अपनाकर अपने आराध्य की उपासना की।[11]
परमानंददास ने ब्रज संस्कृति और ब्रज प्रेम के बारे में कहा है - “बैकुण्ठ जाकर मैं क्या करूँ, वहाँ न तो नन्द है, न गोपी और न ग्वाल बाल। निर्मल यमुना का जल और कदम्ब की छाँह भी वहाँ नहीं है” -
“कहा करौ बैकुण्ठहि जाई,
अष्टछाप के कवियों के काव्य में ब्रज की संस्कृति प्रेम, मिलन और सौहार्द्र की संस्कृति के रूप में उभर कर सामने आती है जो मानव मन-मस्तिष्क में शांति का उद्वेलन करती है।
छीतस्वामी के काव्य में ब्रज संस्कृति का चित्रण : अष्टछाप कवि छीतस्वामी के काव्य में ब्रज संस्कृति रची-बसी हुई है और उनके हर पद में ब्रज संस्कृति के विभिन्न रूप उभर कर सामने आते है। छीतस्वामी ने कृष्ण के जागरण, कलेऊ शृंगार, क्रीड़ा, छाक, गोचारण, आवनी, भोजन, ब्यारु, शयन, त्योहार और उत्सव आदि के अनेक पद लिखे हैं एवं इनके द्वारा ब्रज की तात्कालिक वेशभूषा, खानपान, रीति-रिवाज एवं विश्वासों की विवृत्ति बहुत सुंदर ढंग से की है।[13]
छीतस्वामी ने नित्यलीला के उत्सवों का प्रारंभ कृष्ण के जागरण से किया है। माता यशोदा बड़ी मनुहार के साथ कृष्ण को जगाती है। प्रातःकाल हो गया है, प्राणों के आधार उठो तुम तो मेरे कष्ट निवारक हो-
कलेऊ के पदों में माखन मिसरी, दूध, मलाई, मेवा, दूध, चावल, पकवान, मिठाई आदि का उल्लेख करके कवि ने नटवर बिहारी को गोचारण के लिए भेजा है-
उपरोक्त पद ब्रज की खान-पान की संस्कृति को दिखाता है। ब्रज मंडल भोजन के विषय में सर्वाधिक सुसंस्कृत है। यहाँ दूध, दही, माखन, घी, मिश्री, मेवा, मलाई व भाँति भाँति के पकवान बनाए व गाए जाते है। अन्य पद देखिए -
“माखन मिसरी दूध मलाई, मेवा परम रसाल।”[16]
अभ्यंग के अंतर्गत कवि ने चौकी पर बिठाकर कृष्ण को मज्जन, केसर का उबटन, स्नान, अंग-वस्त्र, शृंगार, आभूषण पहचाना, दर्पण दिखाना और गोपियों द्वारा भाँति-भाँति की सामग्री लाकर कृष्ण को अरोगने का उल्लेख किया है जो ब्रज की वेशभूषा व शृंगार को दर्शाता है-
“मज्जन कुरत गोपाल चौकी पर
यशोदा अपने लाड़ले को पालना झुलाती है, खिलौने देती है और कान्हा आँगन में ठुमक-ठुमक कर दौड़ते है, उन्हें हाथ में में पहुंची, कंठ में हार, मस्तक पर लटकन, पैरों में नुपुर और कमर में किंकिनी पहना दी जाती है। ब्रज में बालकों को आभूषण पहनाने का रिवाज हमेशा से प्रचलित रहा है। यहाँ यही बात ध्वनित होती है-
गोचारण ब्रज का मुख्य व्यवसाय है। गोचारण के प्रसंग में छीतस्वामी ने ब्रज संस्कृति से जुड़ी अनेक बातें व्यक्त की हैं। कृष्ण के आगे, पीछे, इधर, उधर गाय ही गाय हैं, उन्हें गायों में बसना भाता है, कृष्ण गायों के साथ दौड़ते है, उनके खुरों से उड़ी धूल वे अपने शरीर पर लिपटाते हैं, गायों के लिए कृष्ण ने गोवर्धन उठाया और बैकुंठ को भुला दिया -
छीतस्वामी ने गोचारण प्रसंग में गो-क्रीड़ा और वन में छाक भेजने का उल्लेख किया है। गायों के गले में झूमरिगंडा डाले जाते हैं, उनके सींग रंगे जाते है, ग्वालै हीरौ नामक गाना जाते हैं। पैरों में नूपुर बांधे जाते है। निम्न पद में छीतस्वामी ने कृष्ण का सखाओं के साथ पत्ते पर छाक खाने का वर्णन किया है -
“भोजन करत नंदलाल, संग लिए ग्वाल बाल।”[20]
पर्व उत्सव : छीतस्वामी के पदों में पर्व-उत्सवों की छटा के माध्यम से ब्रज संस्कृति का सुंदर चित्रण किया है। बसंत ऋतु का दोलोत्सव बसंत का उल्लास परक उत्सव माना गया है। छीतस्वामी ने इस उत्सव का वर्णन करते हुए कहा है कि लता द्रुम श्वेत, पीत और लाल पुष्पों से लदे पड़े हैं। भ्रमर गुंजार कर रहे हैं, स्वच्छ रजनी है, इस मादक वातावरण में यति, सती, सिद्ध, साधु, मुनि, तपस्वी आदि समाधि त्यागकर यत्र-तत्र भटक रहे है, लोकलाज त्यागकर युवतियों का यूथ केलि कर रहा है -
वसंतोत्सव का उल्लास साकार रूप ग्रहण करके होली के रूप में फूट पड़ता है। छीतस्वामी ने ‘धमार’ या ‘फाग’ नाम से होली के कुछ पद लिखे हैं। श्रीकृष्ण सुबह-सुबह ही होली खेलने लगते है। चंदन, कुमकुम, गुलाल इत्यादि झोली में भर होली खेलने निकल पड़ते है -
पिचकारी में रंग भर सारी किशोरियों को रंग में भिगो दिया। मुख पर रंग लपेट दिया, एक-दूसरे को गाली देते है, बरजोरी पहनाते है -
यशोदा बार-बार फगुआ मंगाकर बांटती है। फगुआ आने पर गाए जाने वाले गीत ‘चांचर के गीत’ कहलाते है -
“फगुबा दैन कहयौ मन भायौ, मेवा बहुत मंगायौ।”[24]
ग्रीष्म ऋतु का उत्सव फूलमंडली ब्रज में चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी को मनाया जाता है। प्रकृति के साथ फूले हुए नर-नारियों से तदाकार करते हुए छीतस्वामी ने फूलों के महल, फूलों की सेज, फूलों की कंचुकी हार, लहंगा एवं विकसित पुष्पों के मध्य प्रफुल्ल मन राधा-कृष्ण के विहार करने का उल्लेख किया है -
ब्रज के मंदिरों में ग्रीष्म ऋतु में लकड़ी के बने चौखटों पर फूलों के माध्यम से अत्यंत कलात्मक जार कोट जाते है और उन चौखटों से भवननुमा अनेक प्रकार से महल बनाए जाते है, जिनमें छज्जे, फूलों के खंभ, फूलों के परदे, चौक, अटारी, बंगला, कलसा और फूलों के फोंदना विराजमान हैं -
श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की तीज को हिंडारो उत्सव लड़कियों और स्त्रियों का उत्सव है। छीतस्वामी ने हिंडोरा की सजीव अभिव्यक्ति करते हुए राधा-कृष्ण को रंगभरा बतलाते हुए, सुरंग हिंडोरा पर मनभावना सावन ऋतु में हरित भूमि पर मणिखचित विश्वकर्मा द्वारा बनाए हिंडोरना को गोपियाँ मधुर-मधुर झोटा दे रही हैं -
“हो माई! झूलत रंग भरे सुरंग हिंडोरना।”[27]
श्रावण शुक्ल पक्ष एकादशी को पवित्रा नित्य लीला का उत्सव है। इस दिन अर्द्धरात्रि को साक्षात् पुरुषोत्तम ने प्रकट होकर ठकुरानी गोविंद घाट पर श्री वल्लभाचार्य को ब्रह्म संबंधी उपदेश दिया। आचार्य जी ने नित्य लीला के संबंध में उन पुरुषोत्तम को पवित्रा धराया था उसी समय से यह उत्सव प्रतिवर्ष संप्रदाय में मनाया जाता है। छीतस्वामी ने अपने पद में इस उत्सव का वर्णन करते हुए ब्रजवासियों के आनंद, मृदंग बजाने इत्यादि का चित्रण किया है -
छीतस्वामी की यशोदा अपने कान्हा और बलराम को राखी बांधती हैं, कंचन थाल में कुंकुम और अक्षत रखकर नंदलाल को तिलक करती हैं, नारिकेल, अंबर, आभूषण तथा मुक्ता माल न्यौछावर करती है और कृष्ण मुख पर बलिहारी जाती हैं:
निष्कर्ष : अष्टछाप के सभी कवियों ने अपने आराध्य के माध्यम से जीवन के बहुविध रूप को बहुत सुंदर ढंग से अभिव्यक्त किया है। छीतस्वामी ने भी अपने काव्य में वेशभूषा, भोज्य पदार्थ, आभूषण, त्योहार आदि के बीच में कृष्ण को रखकर उन्होंने ब्रज के तात्कालिक सांस्कृतिक जीवन को व्यक्त किया है। छीतस्वामी ने प्रत्येक पर्व, उत्सव और त्योहार का संबंध कृष्ण से जोड़ दिया है। छीतस्वामी ने नित्यलीला एवं वर्षोत्सव क्रम में लिखे पदों के माध्यम से कृष्ण की विविध लीलाओं के रूप में इन त्योहारों का जो रूप प्रस्तुत किया है, वह ब्रज-संस्कृति की गाथा है। छीतस्वामी ने युगानुकूल परंपराओं, नाना विश्वासों, आस्थाओं, नैतिक मान्यताओं एवं चिरकालिक भावनाओं के माध्यम से ब्रज जीवन की सफल झांकी प्रस्तुत की है।
[1] गो॰ श्री ब्रजभूषण शर्मा (संपा॰) : छीतस्वामी, जीवनी और पद-संग्रह, वि॰ विद्या विभाग, करौली, प्रथम संस्करण, 2012, पृष्ठ-13
[2] प्रभुदयाल मीतल : अष्टछाप परिचय, अग्रवाल प्रेस, मथुरा, 2006 वि.॰ पृष्ठ-262
[3] नागर समुच्चय : पद प्रसंग माला, सिंगार सागर, शिवलाल, पृष्ठ-200
[4] डॉ॰ देवेन्द्रनाथ शर्मा व डॉ॰ विजयेन्द्र स्नातक : हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, 1974, पृष्ठ-106
[5] प्रभुदयाल मीतल : अष्टछाप परिचय, पृष्ठ-263
[6] डॉ॰ देवेन्द्रनाथ शर्मा व डॉ॰ विजयेन्द्र स्नातक : हिंदी साहित्य का वृहत इतिहास, पृष्ठ-106
[7] डॉ॰ वसंत यामदग्नि : अष्टछाप कवि और उनकी रचनाएँ छीतस्वामी, प्रकाशन विभाग दिल्ली (सूचना प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार) पृष्ठ-6
[8] डॉ॰ गोवर्धननाथ शुक्ल : कविवर परमानंददास और वल्लभ-संप्रदाय, पृष्ठ-323
[9] वही, पृष्ठ-323
[10] वही, पृष्ठ-323
[11] वही, पृष्ठ-324
[12] डॉ॰ दीनदयाल गुप्त : अष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय (भाग-2 हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, संवत 2004, पृष्ठ-491
[13] डॉ॰ वसंत यामदग्नि : अष्टछाप कवि और उनकी रचनाएँ छीतस्वामी, पृष्ठ-29
[14] वही, पृष्ठ-90, पद 101
[15] वही, पृष्ठ-90, पद 101
[16] वही, पृष्ठ-91, पद 104
[17] वही, पृष्ठ-92, पद 106
[18] वही, पृष्ठ-94, पद 110
[19] वही, पृष्ठ-94, पद 12
[20] वही, पृष्ठ-32
[21] वही, पृष्ठ-35
[22] डॉ॰ वसंत यामदग्नि : अष्टछाप कवि और उनकी रचनाएँ – छीतस्वामी, पृष्ठ-71, पद 72
[23] वही, पद 72
[24] वही, पृष्ठ-74, पद 74
[25] वही, पृष्ठ-77, पद 76
[26] वही, पृष्ठ-78, पद 77
[27] वही, पृष्ठ-85, पद 92
[28] वही, पृष्ठ-89, पद 99
[29] वही, पृष्ठ-89, पद 100
[30] वही, पृष्ठ-43, पद 2
[31] वही, पृष्ठ-92, पद 108
शोधार्थी, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-110007
dollygupta334@gmail.com, 9560577906
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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