शोध सार : भारत में औपनिवेशिक सत्ता के स्थापित होने के बाद, सभी क्षेत्रों जैसे कि सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक मामलों में ब्रिटिश राजसत्ता का पूर्ण हस्तक्षेप देखने को मिलता है। भारतीय जंगलों पर आश्रित लोगों केअधिकार का मामला भी एक विशेष सामाजिक तथा आर्थिक विषय का हिस्सा था, इस मामले में अंग्रेज़ों ने केवल अपने हित को ध्यान में रखते हुए जंगलों पर आश्रित लोगों, समुदायों के जन्मजात अधिकारों को ब्रिटिश सरकार द्वारा लाए गए वन नियमों और क़ानूनों के अंतर्गत उनसे छीन लिया। यह शोध लेख औपनिवेशिक भारत में अंग्रेज़ों द्वारा लाए गए वन क़ानूनों पर केन्द्रित है, जिसका प्रभाव वनों पर आश्रित शिकारी संग्राहक समुदायों एवं विभिन्न जनजातियों के जीवनयापन, रहन-सहन और कुटीर उद्योगों पर पड़ा। आगे, यह लेख इस बात पर भी ध्यान केन्द्रित करता है कि इस दौरान प्रतिरोधों का कैसा चरित्र रहा, मुख्य तौर पर उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल में स्थित जौनसार बवार के प्रतिरोधों का अध्ययन।
बीज शब्द : अधिकार, जनजाति, प्रतिरोध, वन क़ानून, आजीविका, चारागाही, पर्यावरण, कुटीर उद्योग, संसाधन, शिकार।
मूल आलेख
: भारत में अंग्रेज़ी सत्ता के आने के बाद वानिकी के वाणिज्यीकरण और व्यावसायिक होने के कारण अभूतपूर्व पारिस्थितिक और सामाजिक परिवर्तन हुआ। भारत और यूरोप के बीच में संपर्क सोलहवीं सदी में प्रारंभ हुआ। यह वह समय था जब यूरोप सामाजिक परिवर्तन की एक बड़ी और विशेष प्रक्रिया से गुज़र रहा था, जिसे औद्योगिक क्रांति के नाम से जाना गया। औद्योगिकीकरण के कारण संसाधन उपयोग की व्यवस्था में अभूतपूर्व परिवर्तन आया, इस नयी सोच और व्यवस्था ने संसाधनों के एक रूप से दूसरे रूप में बदलने की अवसरों को और अधिक बढ़ा दिया। इन नयी तकनीकों के आने से लकड़ी का उपयोग कागज़ बनाने, रेलवे और बड़ी नावों के इंजन को चलने हेतु ईंधन पाने के लिए किया जाने लगा। जहाँ पहले के घरेलू ईंधन और खेती उपयुक्त औज़ारों हेतु प्रति व्यक्ति मांग की एक निर्धारित और निश्चित सीमा हो सकती थी, वहीं कागज़ या यातायात के लिए ईंधन और अन्य वाणिज्यिक हित के उपभोग पर इस तरह की कोई सीमा नहीं हो सकती थी।[1] इसे भारतीय जंगलों पर अंग्रेज़ों द्वारा एकाधिकार स्थापित करने के एक सबसे महत्त्वपूर्ण कारणों के तौर पर देखा जा सकता है। ब्रिटिश सरकार ने उन जंगलों पर अपना एकाधिकार प्रस्तुत किया जिस पर मूल निवासी समुदाय अब तक अपना अधिकार समझते थे। अंग्रेज़ों ने इन जंगलों का उपयोग वाणिज्यिक और व्यावसायिक कामों के लिए करना प्रारंभ कर दिया और दूसरी तरफ़ स्थानीय समुदायों को उनके पुराने अधिकारों से पूर्ण रूप से वंचित कर दिया। इस तरह का हस्तक्षेप भारतीय वनाश्रित लोगों के रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पहले कभी नहीं किया गया। अंग्रेज़ों द्वारा लाए गए वन क़ानूनों ने बिलकुल नए ढंग से वन संपत्ति अधिकारों को परिभाषित किया। इसने वनों की देख-रेख और नियंत्रण की एक ऐसी व्यवस्था थोपी, जिसका स्थानीय उपयोग और नियंत्रण की पहले की तौर-तरीक़ों से सीधा टकराव था। ब्रिटिश वानिकी व्यवस्था ने भारतीय वानिकी के इतिहास को हरसंभव रूप में परिवर्तित एवं प्रभावित किया, जैसे कि पारिस्थितिक, सामाजिक और आर्थिक।[2]
यह शोध लेख औपनिवेशिक वानिकी के भारतीय वनाश्रित समुदायों पर पड़े प्रभावों पर केन्द्रित है, जिसमें आपसी संघर्ष की स्थिति को भी समझा जा सकता है। मूल रूप से कौन-कौन ऐसे विशिष्ट वर्ग रहे जिनके जीवन पर अंग्रेज़ी वन क़ानूनों का सीधा और तीखा प्रभाव पड़ा।
शिकारी-संग्राहक समुदायों की स्थिति - स्पष्ट रूप से यह देखा जा सकता है, कि ब्रिटिश राजसत्ता द्वारा वनों पर एकाधिकार स्थापित कर लेने के बाद शिकारी-संग्राहक समुदायों की जीविका गतिविधियों पर काफ़ी गहरा प्रभाव पड़ा। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा लाए गए नए वन कानूनों ने हैदराबाद के चेंचू समुदाय के लोगों को बहुत प्रभावित किया, क्योंकि नए वन नियमों के तहत चेंचू समुदाय द्वारा किया जाने वाला शिकार ग़ैर-क़ानूनी बन गया। इसके साथ-साथ इन क़ानूनों ने लोगों के इमारती लकड़ियों के उपयोग के साथ अन्य वनोत्पादों पर से भी इनके अधिकारों को छीन लिया। व्यावसायिक वानिकी व्यवस्था से चेंचू लोगों के जीवन पर बुरा असर पड़ा। बहुत बड़ी संख्या में चेंचू समुदाय ने अपनी स्वायत्तता खो दी, और मज़बूर होकर ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर खेतीहर समुदाय से सम्बन्ध बनाना पड़ा। भारत के दक्षिण में स्थित कुरनूल में रहने वाले चेंचू समुदाय के लोगों की स्थिति ऐसी हो गयी कि वे डकैती और चोरी जैसी गतिविधियों में संलिप्त हो गए, और ख़ास तौर पर इनका शिकार तीर्थ पर निकले श्रद्धालु लोग बनते थे।[3] इसी तरह, छोटा नागपुर पठार के वनों के व्यावसायीकरण और नए अंग्रेज़ी वन नियमों के चलते यहाँ के स्थानीय निवासी लोग जो कि बिहोर जनजाति से संबंधित थे, उनके ऊपर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ा। 1911 में जहाँ बिहोर जनजाति की जनसंख्या 2340 थी, वहीं 1921 में यह घटकर मात्र 1610 रह गयी।[4]
ब्रिटिश नए वन नियमों की बदौलत अधिक नियोजित रूप से शिकार भ्रमण करने में सक्षम थे, वहीं ये नियम छोटे पैमाने पर जनजातीय शिकार को प्रतिबंधित करता था। भोजन के लिए शिकार को ग़ैर-क़ानूनी घोषित करने और उसी समय अंग्रेज़ शिकारी को विशेषाधिकार दिए जाने के बड़े प्रभाव देखने को मिलते हैं। इस तथ्य के बावजूद कि 20वीं शताब्दी तक ब्रिटिश शिकारियों पर कुछ क़ानूनी सीमाएँ थीं, और शिकारी-संग्राहक और कृषक जो पोषण के एक आवश्यक साधन के रूप में जंगली जानवरों पर निर्भर थे, उन्हें पता चला कि नए वन नियमों से उनकी शिकार प्रथा ख़तरे में थी।
वायसराय से लेकर ब्रिटिश भारतीय सेना के निचली रैंक तक सभी श्रेणियों में अंग्रेज़ शिकारियों ने भारी मात्रा में जानवरों की हत्या में भाग लिया, जो उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुआ था। भले ही नए नियमों ने आदिवासी लोगों द्वारा छोटे पैमाने पर शिकार पर रोक लगा दी थी, परन्तु वहहीं, इन्हीं नियमों ने अंग्रेज़ों को बेहतर नियोजित शिकार कारनामों में सहायता की। 1860 के दशक में नीलगिरी में एक ब्रिटिश प्लांटर ने 400 हाथियों की हत्या की थी। ऐसी ही एक घटना और देखने को मिलती है, जहाँ वायसराय को शूटिंग के लिए आमंत्रित किया गया था, इस दौरान "विश्व रिकॉर्ड" स्थापित करने के प्रयास में केवल एक दिन में हजारों पक्षियों को मार दिया गया था। अनेक भारतीय राजपरिवार अंग्रेज़ों की लालची प्रवृत्ति की नकल करने के इच्छुक थे। उदाहरण के लिए, बीसवीं सदी के पहले दशक में ग्वालियर के महाराजा ने लगभग 700 बाघों को मार डाला था।[5]
अंग्रेज़ सरकार और झूम की खेती का मामला - झूम की खेती भारत के एक बड़े हिस्से में की जाने वाली खेती थी। विशेष रूप से, पहाड़ी क्षेत्रों और जंगली क्षेत्रों में हल से खेती करना संभव नहीं था, वहाँ पर इस प्रकार की खेती की जाती थी। भारत में अंग्रेज़ों के आने के बाद झूम की खेती के ख़िलाफ़ ब्रिटश हुकूमत ने अपना रवैया कायम रखा, अंग्रेज़ अधिकारी यूरोप में हुई कृषि क्रांति से काफ़ी प्रभावित थे, अतः वे झूम खेती का विरोध करते थे।[6] इसी के साथ-साथ वनों का व्यवसायीकरण भी झूम खेती विरोधी होने का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण था। एल्विन द्वारा बैगा जनजाति पर लिखी गयी प्रसिद्ध किताब में झूम खेती का विरोध करने से लेकर जो घटनाएँ घटीं उनका एक विस्तृत वर्णन है। बैगा जनजाति मूलतः मध्य प्रदेश के मांडला, बालाघाट और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में पाई जाती हैं। झूम खेती रोकने की पहला कोशिश 1860 के दशक में की गई, और इसमें विशेष रूप से भूमिका मध्य प्रांत के चीफ़ कमिश्नर रिचर्ड टेम्पल ने निभाई। उन्होंने प्रांत के बजट को ज़्यादा उपयोगी और बेहतर बनाने के लिए झूम खेती पर रोक लगाने का प्रयास किया, बैगा लोगों को झूम खेती त्यागकर हल की खेती करने को प्रेरित करने के लिए कई अभियान भी चलाए गए। इसी सब के बीच ऐसे भी उदहारण देखने को मिलते हैं, जहाँ बड़ी संख्या में झूम खेती से उपजी फसलों को खेतों में ही बरबाद कर दिया गया। इस व्यवस्था ने यह दिखाने की कोशिश की कि, झूम खेती (कुल्हानी खेती) की नीति को बदला जाए, और धीरे-धीरे
बड़ी संख्या में बैगा लोग दूसरे रियासतों के तरफ़ जाने लगे।[7]
इसके साथ में ही अंग्रेज़ इस बात से भी डरते थे, कि झूम खेती पर मनमानी रोक लगाने का विरोध भी हो सकता है। इसके चलते वो एक तरफ़ झूम खेती को तो बिलकुल भी नहीं पसंद करते थे, वहीं दूसरी तरफ़ वो इसे पूरी तरह से प्रतिबंधित भी नहीं कर सके। लेकिन अमूमन कई बार ऐसा भी होता था, कि जहाँ झूम खेती होती थी वहीं इमारती लकड़ियाँ भी बड़ी मात्रा में पाई जाती थीं। ऐसी स्थिति में झूम खेती पर अपना नियंत्रण स्थापित करना भी अपने आप में एक बड़ी समस्या थी, जिसका ब्रिटिश राजसत्ता के पास कोई आसान हल नहीं था।
जौनसार बवार का मामला : प्रतिरोध का एक अनूठा झलक - जौनसार बवार टिहरी गढ़वाल जिले का एक पहाड़ी क्षेत्र है, इसकी पश्चिमी सीमा पर टिहरी गढ़वाल स्थित है। 1860 के दशक के आस-पास अंग्रेज़ों की नज़र यहाँ के जंगलों और इमारती लकड़ियों के तरफ़ गई। ब्रिटिश सरकार को ये वन कई महत्त्वपूर्ण कारणों से अपने लिए बहुत उपयोगी लगे, उनमें से एक यहाँ से रेलवे के निर्माण के लिए लकड़ियाँ मिल सकती थी; दूसरा, ये कि यहाँ से पास में ही फ़ॉरेस्ट स्कूल था जहाँ पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए निरीक्षण के तौर पर ये वन उपयोग में आ सकते थे; तीसरा, समीप में स्थित चकार्ता की सैन्य छावनी के लिए इन जंगलो से आराम से ईंधन और इमारती लकड़ियों की आपूर्ति की जा सकती थी। ब्रिटिश सरकार ने 1868 में इस वन का बंदोबस्त करते समय इसे तीन वर्गों में विभाजित कर दिया। जिसमें पहले वर्ग के वन को ब्रिटिश सत्ता के संरक्षण में पूर्ण रूप से रख दिया गया, दूसरे वर्ग में ग्रामीणों को वनों में चारागाही और लकड़ी लेने का थोड़ा बहुत अधिकार दे दिया गया, तथा तीसरे वर्ग में वनों को विशेष रूप से किसानों के लिए रखा गया परन्तु इसके साथ-साथ यह भी जोड़ दिया गया कि वे वनोत्पादों का किसी दूसरे वस्तु के रूप में व्यापार नहीं करेंगे न ही उन्हें बेचेंगे। इसके क़ानून के आने के तुरंत बाद ही कि वन पर पूरा राज्य का अधिकार रहेगा, ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विरोध शुरू हो गए। लोगों ने यह तर्क दिए कि इस क़ानून में तीसरे वर्ग के वनों की स्थिति भ्रामक है, वो इस बात को लेकर असमंजस में थे कि आखिर इन वनों पर राज्य या गाँव किसका अधिकार है। ब्रिटिश सरकार ने चाहा कि मुआवजा देकर किसी तरह किसी तरह स्थिति को संभाला जाए परन्तु गाँववाले अपने वनों पर अधिकार को पैसे के बदले छोड़ने को तैयार नहीं थे।[8] जौनसार बवार के लोगों ने ब्रिटिश सरकार के विरोध के लिए एक नया तरीक़ा निकाला, वो इस बात से अच्छी तरह परिचित थे कि परिवहन की सुगम व्यवस्था न होने के कारण पहाड़ों से इमारती लकड़ियाँ नदियों के द्वारा ही मैदानी क्षेत्रों में लाई जाती थीं। जब इन लोगों को अपना हक़ जंगलों पर नहीं मिला तो इन्होनें गाँवों के किनारों से होकर गुज़रने वाली नदियों से ही इन लकड़ियों को चुराना शुरू कर दिया। जब ब्रिटिश सरकार को इसका पता चला तो उन्होंने इस काम में संलग्न लोगों के लिए कड़े नियम बनाये, जिसमें जेल और भारी जुर्माने की बात कही गयी।
इस बात में कोई शक नहीं है, कि वन क़ानूनों के ख़िलाफ़ जिस तरह का विरोध इतने संगठित और सामूहिक रूप में हमें यहाँ देखने को मिलता है, उतना कहीं और नहीं। जौनसार बवार में हुए इस तरह के विरोध को लेकर एक ब्रिटिश अधिकारी ने कहा कि अगर जो लोग वन अपराधों में संलग्न पाए जाएँगे उनके ख़िलाफ़ मुकदमे करने से शांति आ जाएगी तो ये महज एक सपना था, इसने आगजनी, इमारती लकड़ियों की अलग-अलग ढंग से चोरी जैसी विकट स्थितियों को बढ़ावा दिया।[9]
बसोर और अगरिया जनजाति : पतन की ओर उन्मुख - इस बात से बिलकुल इन्कार नहीं किया जा सकता कि ब्रिटिश राज्य वन प्रबंधन व्यवस्था का खेतीहर वर्ग पर स्पष्ट नकारात्मक प्रभाव पड़ा परन्तु जो प्रभाव कच्चे माल पर आश्रित कुटीर उद्योग से जुड़े समुदायों पर पड़ा वो कहीं और ज़्यादा बुरा था। कच्चे माल के पारंपरिक स्रोत के रूप में बाँस सबसे उपयोगी और महत्त्वपूर्ण था, जिसका उपयोग ग्रामीण स्तर पर घर निर्माण, बास्केट बनाने, खेती से जुड़े औज़ारों के निर्माण और भोजन एवं चारे इत्यादि आवश्यक कार्यों के लिए किया जाता था। शुरू-शुरू में तो अंग्रेजों ने इसे मात्र एक झाड़-झंखाड़ के रूप में देखा और इसे इमारती लकड़ियों की श्रेणी से अलग रखा।[10] बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में यह हुआ कि बाँस एक महत्त्वपूर्ण कच्चा माल है, कागज़ को बनाने के लिए। इसकी जानकारी होने के बाद बाँस को लेकर अंग्रेज़ों के दृष्टिकोण में तीव्र परिवर्तन आया। अंग्रेज़ों ने अपने औद्योगिक हित को प्राथमिकता देते हुए बाँस का खूब दोहन किया, तथा उन समुदायों और लोगों पर इसके उपयोग के लिए रोक लगा दी जो पूरी तरह इस पर निर्भर थे। बसोर जनजाति के लोगों के जीवन पर विशेषकर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा जोकि बाँस के द्वारा ही डलिया (बास्केट) का निर्माण और व्यापार करते थे। बैगा जनजाति भी बाँस से बुनाई और जीविका के लिए कई व्यापारिक कार्य करते थे।[11]
इसी तरह एक अन्य जनजाति ‘अगरिया’ जो कि चारकोल (लकड़ी के कोयले) से लोहा बनाने के लिए जानी जाती थी, ब्रिटिश शासन में अगरिया जनजाति के देशज उद्योग को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा। सेंट्रल प्रोविन्सेस (मध्य प्रान्त) में अगरिया लोगों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली भठ्ठियों पर प्रतिबन्ध, चारकोल की आपूर्ति कम होने के कारण और ज़्यादा कर लगने के कारण बहुत सी भट्ठियाँ बंद हो गई। जहाँ 1909 में कुल 510 भट्ठियाँ काम करती थीं, वहीं 1938 तक इनकी संख्या घटकर मात्र 136 रह गयी।[12] विशेषकर ग्रामीण स्तर पर लोहा गलाने वाले जनजातियों द्वारा लचीले और नरम धातु को ही लोग पसंद करते थे, परन्तु जब ब्रिटिश सरकार ने हर जगह हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया तो अंग्रेज़ों द्वारा लाए गए इंग्लैंड निर्मित धातु ने पुराने देशी तकनीकों से निर्मित धातुओं की जगह ले ली। वन इंस्पेक्टर डी. ब्रैंडिस ने मद्रास प्रेसीडेंसी का उदहारण देते हुए लिखा है कि पहले इस क्षेत्र में इस उद्योग का काफी विस्तार था, लेकिन ईंधन पर लगे प्रतिबंधों और ब्रिटिश निर्मित धातुओं से प्रतिस्पर्धा में यह टिक नहीं सका।[13]
निष्कर्ष : अंग्रेज़ों द्वारा भारतीय वनों पर एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश में जिन समुदायों और वनाश्रित लोगों के जीवन पर प्रभाव पड़ा, उन्होनें अपने-अपने तरीक़े से इसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध भी दिखाया। पहले जिस तरह से वनों का उपयोग होता था उसमें एक किस्म की नैतिकता होती थी, परन्तु औद्योगिक और व्यावसायिक मानसिकता केवल मुनाफे और ब्रिटिश राजनीतिक अर्थव्यवथा पर केन्द्रित थी।[14] ब्रिटिश एकाधिकार ने ग्रामीण हक़ को बहुत कमज़ोर कर दिया। इसका विरोध भी लोगों ने किया जहाँ उन्होंने सीधे औपनिवेशिक शक्ति को इस एकाधिकार को लेकर निशाना बनाया। पहले उन्होंने प्रार्थना पत्र और याचिकाएँ दीं, पर जब बात नहीं बनी तो ब्रिटिश नियंत्रण को सीधा चुनौती दी।[15] पर वास्तव में देखा जाए तो वनाश्रित समुदायों की स्थितियों में निरंतर गिरावट और कठिन संघर्ष ही आया, वो स्पष्टतः अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ नहीं जीत सके।
प्रशांत त्रिपाठीशोधार्थी, इतिहास विभाग, कशी हिन्दू विश्वविद्यालय, 221005
शोध निर्देशक- प्रोफेसर मालविका रंजनprashanttripathi.du@gmail.com,
9336158078
अंक-47, अप्रैल-जून 2023 UGC Care Listed Issue
सम्पादक-द्वय : माणिक व जितेन्द्र यादव चित्रांकन : संजय कुमार मोची (चित्तौड़गढ़)
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